Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
यतिका सफर
उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम करके पराधात, उच्छवास, अप्रशस्त विहायोगति, पर्याप्त और दुःस्वर, इन पत्र प्रकृतियां को मिला देने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । उनतीस प्रकृतियों का कथन इस प्रकार करना चाहिये-तिर्यचगति, तियंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, दंडसंस्थान, सेवा संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छवास, अप्रशरत बिहायोगति, श्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से कोई एक शुभ और अशुभ में से कोई एक दुर्मंग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और अयशःकीति में से कोई एक निर्माण । ये उनतीस प्रकृतियाँ उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में होती हैं। यह बंधस्थान पर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि जीव को होता है ।
१४५.
2
इस बंधस्थान में स्थिर अस्थिर शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अयश:कीर्ति, इन तीनों युगलों में से प्रत्येक प्रकृति का विकल्प से बंध होता है, अतः आठ भङ्ग प्राप्त होते हैं।
इन उनतीस प्रकृतियों में उचोन प्रकृति को मिला देने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इस स्थान को भी पर्याप्त द्वीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाला मिध्यादृष्टि हो बांधता है। यहाँ भी आठ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार १८+६= १७ भङ्ग होते हैं ।
त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बाँधने वाले मिथ्यादृष्टि जीव के भी पूर्वोक्त प्रकार से तीन-तीन बंधस्थान होते हैं। लेकिन इतनी विशेषता समझना चाहिए कि श्रीन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों में त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों में चनुरिन्द्रिय जाति कहना चाहिए । भङ्ग भी प्रत्येक के सबह सत्रह हैं, अर्थात् श्रीद्रिय के सत्रह और चतुरिन्द्रिय के सत्रह भङ्ग होते हैं । इस प्रकार से विकलत्रिक के इक्यावन भङ्ग होते हैं। कहा भी है