Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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एग अटु डिलदियाण इगवण तिव्हं पि ।
अर्थात् - विकलत्रयों में से प्रत्येक में बंधने वाले जो २५, २१ और ३० प्रकृतिक बंधस्थान हैं, उनमें से प्रत्येक में क्रमश: एक, आठ और आठ भंग होते हैं तथा तीनों के मिलाकर कुल इक्यावन भंग होते हैं।
अब तक एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के तिर्यंचगति के बंधस्थानों का कथन किया गया। अब तिर्यंचगति पंचेन्द्रिय के योग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं ।
तिर्यचगति पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के २५, २६ और ३० प्रकृतिक, ये तीन बंधस्थान होते हैं । इनमें से २५. प्रकृतिक बंधस्थान तो वही है जो द्वोन्द्रिय के योग्य पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान बतला आये हैं। किन्तु वहां जो द्वीन्द्रियजाति कही है उसके स्थान पर पंचेन्द्रिय जाति कहना चाहिये । यहाँ एक भंग होता है।
उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में उनतीस प्रकृतियां इस प्रकार हैतियंचगति, तिचानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, औदाविशरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहननों में से कोई एक संहनन, वर्णचतुरक अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति में से कोई एक, बस, बादर, पर्याप्त प्रत्येक स्थिर और अस्थिर में से कोई
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एक शुभ और अशुभ में से कोई एक सुभग और दुभंग में से कोई एक, मुस्वर और दुःस्वर में से कोई एक, आदेय अनादेय में से कोई एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से कोई एक तथा निर्माण । यह बंधस्थान पर्याप्त तिच पंचेन्द्रिय के योग्य प्रकृतियों को बांघने वाले चारों गति
१ तिर्यग्गतिपंचेन्द्रियायोग्य बन्धतस्त्रीणि बंधस्थानानि तद्यथा पंचविशनि एकोनत्रिंशत् त्रिशत् । - सप्तका प्रकरण टोका, पु० १७७