Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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सप्तविका प्रकरण
उनके चारों ही उदयस्थानों में २८ और २४ प्रकृतिक, ये दो सत्तास्थान होते हैं । २८ प्रकृतिक सत्तास्थान तो उपशम सम्यग्दृष्टि और बेवक सम्यग्दृष्टि, इन दोनों प्रकार के ही तिर्यच देशविरतों के होता है । उसमें भी जो प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के समय ही देशनिरस की जाप्त कर देता है, बस देशविर के सम्यक्त्व के रहते हुए २५ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । क्योंकि अन्तरकरण काल में विद्यमान कोई भी औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव देशविरत को प्राप्त करता है और कोई मनुष्य सर्वविरत को भी प्राप्त करता है, ऐसा नियम है। जैसाकि शतक बृहच्चूर्णि में कहा भी है
समसम्मद्दिट्टी अन्सरकरणे ठिओ कोई वेसबिर कोई एमत्तापमत्तभावं पि गच्छ, सासरवर्णा पुम न किमवि लहई ।
अर्थात् अन्तरकरण में स्थित कोई उपशम सम्यग्दृष्टि जीव देशविरति को प्राप्त होता है और कोई प्रमत्तसंयम और अप्रमत्तभाव को भी प्राप्त होता है, परन्तु सासादन सम्यग्दृष्टि जीव इनमें से किसी को भी प्राप्त नहीं होता है।
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इस प्रकार उपशम सम्प्रहृष्टि जीव को देशविरति गुणस्थान की प्राप्ति के बारे में बताया कि वह कैसे प्राप्त होता है । किन्तु वेदक सम्यक्त्व के साथ देशविरति होने में कोई विशेष बाधा नहीं है । जिससे देशविरति गुणस्थान में वेदक सम्यग्दृष्टि के २८ प्रकृतिक सत्तास्थान बन ही जाता है । किन्तु २४ प्रकृतिक सत्तास्थान अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने वाले तिर्यंचों के होता है, और वे वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं। क्योंकि तियंचगति में औपशमिक सम्यग्दृष्टि के
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जयघवला टीका में स्वामी का निर्देश करते समय चारों गतियों के जीवों को २४ प्रकृतिक सत्तास्थान का स्वामी बतलाया है। इसके अनुसार प्रत्येक गति का उपशम सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर सकता है। कर्मप्रकृति के उपशमना प्रकरण गा० ३१ से भी इसी मत की पुष्टि होती है। यहाँ चारों गति के जीवों को अनन्तानुबंधी की विसंयोजना करने वाला बताया है।