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षष्ठ कर्म ग्रन्थ
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२४ प्रकृतिक सत्तास्थान की प्राप्ति संभव नहीं है । इन दो सत्तास्थानों के अतिरिक्त तिच देशविरत के शेष २३ आदि सब सत्तास्थान नहीं होते हैं, क्योंकि वे क्षायिक सम्यवश्व को उत्पन्न करने वाले जीवों के ही होते हैं और तिथंच क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न नहीं करते हैं। इसे तो केवल मनुष्य हो उत्पन्न करते हैं ।"
तेईस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान तिर्यंचों के नहीं मानने को लेकर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है
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"जय मनुष्याः क्षायिकसम्यक्रममुत्पाद्य यथा सिर्धपखन्ते तथरा तिररची:प्येकविंशतिः प्राप्यत एव तत् कथमुच्यते शेषाणि त्रयोविदारयादीनि सर्वाणि न सम्भवन्ति ? इति तद् अयुक्तम्, यतः क्षायिकसम्यष्टिस्तिर्पशु न संपदेवर्धामुष्केट मध्ये समुत्पते के न च तत्र देशविरतिः, तबभावाच्च न त्रयोशबन्धकत्वम् अत्र त्रयोदश्बन्धे सत्तास्थानानि विस्यमानानि तल एक विधातिरपि त्रयोदशबजे तिर्यक्षु न प्राप्यते ।
प्रश्न--- यह ठीक है कि तिर्यंचों के २३ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है, तथापि जब मनुष्य क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न करते हुए या उत्पन करके तियंचों में उत्पन्न होते हैं तब तिचों के भी २२ और २१ प्रकृतिक सत्तास्थान पाये जाते हैं। अतः यह कहना युक्त नहीं है कि तिर्यंचों के २३ आदि प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होते हैं।
उत्तर - यद्यपि यह ठीक है कि क्षायिक सम्यक्त्व को उत्पन्न करने बाला २२ प्रकृतिक सत्ता वाला जीव या क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर तिर्यंचों में उत्पल होता है, किन्तु यह जीव संस्थात वर्ष की आयु वाले तिर्यचों में उत्पन्न न होकर असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिथंचों
१ शेषाणि तु सर्वाप्यपि त्रयोविंशत्यादीनि सत्तास्थानानि तिरश्चां न सम्भवन्ति तानि हि श्रामिकसम्यक्त्वमुत्पादयतः प्राप्यन्ते न च तिर्यचः यायिक सम्यकस्यमुत्पादयति, किन्तु मनुष्या एक |
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- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १७३