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पाठ कर्ममन्व
१२६ दृष्टि और अविरत सम्यग्दष्टि जीवों के क्रमशः पूर्वोक्त तीन और पांच सत्तास्थान होते हैं। नौ प्रकृतिक उदयस्थान के रहते हुए भी इसी प्रकार जानना चाहिये, लेकिन इतनी विशेषता है कि अविरतों के नौ प्रकृतिक उदयस्थान वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के ही होता है और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक, ये चार ससास्थान पाये जाते हैं, अत: यहां भी उक्त चार सत्तास्थान होते हैं ।
सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान सम्बन्धी उक्त कथन का सारांश यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि के १७ प्रकृतिक एक बंधस्थान और ७, ८, ९ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान तथा २६, २७ और २४ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरत सम्बन्दाष्ट्र में उपशम सम्वादृष्टि के १५ प्रकृतिक एक बंधस्थान और ६, ७, ८ प्रकृतिक तीन उवयस्थान तथः २८ और २४ प्रकृतिक दो सत्तास्थान होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि के एक १७ प्रकृतिक बंधस्थान तथा ६,७ और ८ प्रकृतिक, ये तीन उदय स्थान तथा २१ प्रकृतिक एक सत्तास्थान होता है। वेदक सम्यग्दुषित के १७ प्रकृतिक एक बंधस्थान तथा ७, ८ और ह प्रकृतिक तीन उदय रस्थान तथा २८, २४, २३ और २२ प्रकृतिक चार सत्तास्थान होते हैं संवेष भंगों का पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, अत: यहां किस कितने बंधादि स्थान होते हैं, इसका निर्देश मात्र किया है।
तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान के रहते पांच-पांच सत्तास्था होते हैं-'तेर नवगंधगेसु पंचेव ताणाई। वे पांच सत्तास्थान २८, २' २३, २२ और २१ प्रकृतिक होते हैं। पहले तेरह प्रकृतिक बंधस्थान सत्तास्थानों को स्पष्ट करते हैं।
तेरह प्रकृतियों का बंध देशाविरतों को होता है और वेशविर दो प्रकार के होते हैं-तियंच और मनुष्य ।' तिथंच देशविरतों । १ तत्र त्रयोदशबन्धका देशविरता: ते च विधा-तियचो मनुष्याश्च ।
-सपातिका प्रकरणीका, पृ०१५