________________
षष्ठ कर्मप्रन्य
१३६
उसके बाद एक प्रकृतिक बंध होता है, परन्तु उस समय संज्वलन माया के एक आवली प्रमाण प्रथम स्थितिगत दलिक को और दो समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबद्ध को छोड़कर शेष सबका क्षय हो जाता है। यद्यपि यह शेष सत्कर्म भी दो समय कम दो आवली प्रमाण काल के द्वारा क्षय को प्राप्त होगा, किन्तु जब तक इसका क्षय नहीं हुआ तब तक एक प्रकृतिक बंषस्थान में दो प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। पश्चात् इसका क्षय हो जाने पर एक प्रकृतिक बंधस्थान में सिर्फ एक संज्वलन लोभ की सत्ता रहती है।
इस प्रकार एक प्रकृतिक बंधस्थान में २८, २४, २१, २ और १ प्रकृतिक, ये पांच सत्तास्थान होते हैं । अब बंध के अभाव में भी विद्यमान सत्तास्थानों का मिथान करते हैं । इस लिये गाना में कहा गया है...'बत्तारिय बंधवोच्छए'- अर्थात् बंध के अभाव में चार सत्तास्थान होते हैं। वे चार सत्तास्थान इस प्रकार हैं-२८, २४, २१ और १ प्रकृतिक । बंध का अभाव दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है । जो उपशमश्रेणि पर चढ़कर सूक्ष्मसंपराय मुणस्थान को प्राप्त होता है, यद्यपि उसको मोहनीय कर्म का बंध तो नहीं होता, किन्तु उसके २८, २४ और २१ प्रकृतिक, ये तीन सत्तास्थान संभव हैं तथा जो क्षपकश्रेणि पर आरोहण करके सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान को प्राप्त करता है, उसके संज्वलन लोभ की सत्ता पाई जाती है। इसीलिये बंध के अभाव में २८, २४, २१ और १ प्रकृतिक, ये चार सत्तास्थान माने जाते हैं।'
इस प्रकार से मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध भंगों का निर्देश किया गया। उनके समस्त विवरण का स्पष्टीकरण इस प्रकार है
१ बन्धामाबे सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने चत्वारि सत्तास्थानानि तद्यपा-अष्टाविंशतिः चतुर्विशति; एकविंशतिः एका प । तवाद्यानि त्रीणि प्रागियोपशमश्रेग्याम् । एका तु संज्वलनलोमरूपा प्रकृति: क्षपाथ पयाम् ।
सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १४