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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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प्रकृतिक ही होता है - इगवीसे अट्ठवीस | इसका कारण यह है कि इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान सासादन सम्यग्दृष्टि को ही होता है और सासादन सम्यक्त्व उपशम सम्यक्त्व से च्युत हुए जीव को होता है, किन्तु ऐसे जीव के दर्शनमोहनीय के तीनों भेदों की सत्ता अवश्य पाई जाती है, क्योंकि यह जीव सम्यक्त्व गुण के निमित्त से मिथ्यात्व के तीन भाग कर देता है, जिन्हें क्रमश: मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व कहते हैं । अतः इसके दर्शन मोहनीय के उक्त तीनों भेदों की सत्ता नियम से पाई जाती है। यहाँ उदयस्थान सात, आठ और नौ प्रकृतिक, ये तीन होते हैं। अतः इक्कीस प्रकृतिक बन्धस्थान के समय तीन उदयस्थानों के रहते हुए एक अट्ठाईस प्रकृतिक हो सत्तास्थान होता है ।"
सत्रह प्रकृतिक बन्स्थान के समय छह सत्तास्थान होते है - 'सत्तरसे छच्चेव' जो २८,२७,२६,२४,२३, २२ और २१ प्रकृतिक होते हैं । सह प्रकृतिक बन्धस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि, इन दो गुणस्थानों में होता है।
इनमें से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के ७ ५ और ६ प्रकृतिक यह तीन उदयस्थान होते हैं और अविरल सम्यग्दृष्टि जीवों के चार उदयस्थान होते हैं- ६, ७, ८ और प्रकृतिक । इनमें से छह प्रकृतिक
१ एकविंशतिबन्धो हि सासादन सम्यग्दृष्टे भंवति, सासादनत्वं च जीवस्योपशमिकसम्यक्त्वात् प्रच्यवमानस्योपजायते, सम्यक्त्वगुणेन च मिध्यात्वं त्रिधाकृतम्, तया - सम्यक्त्वं मिश्रं मिथ्यात्वं च ततो दर्शनत्रिकस्यापि सत्कर्मतया प्राप्यमाणत्वाद् एकविंशतिबंधे त्रिष्वप्युदयस्थानेष्वष्टाविंशतिरेकं सत्तास्थानं भवति । - सप्ततिका प्रकरण टीका, १० १७१ सप्तदशबन्धी हि इयानां भवति, तद्यथा— सम्यग्मिथ्यादृष्टिनाम विरतसम्यग्दृष्टीनां च । तत्र सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां त्रीभ्युदयस्थानानि तद्यथासप्त अष्टो नब अविरतसम्यग्दृष्टिनां चत्वारि तद्यथा षट्सप्त अष्टौ नव । - सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १७१
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