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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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अब यहाँ दो गाथाओं में मोहनीय कर्म के बन्धस्थान और सत्तास्थानों के परस्पर संवेध का निर्देश किया गया है। साथ ही बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों के परस्पर संवेध का कथन करना आवश्यक होने से बन्धस्थान और सत्तास्थानों के परस्पर संवेध को बतलाते हुए प्राप्त होने वाले उदयस्थानों का भी उल्लेख करेंगे। ___ मोहनीय कर्म के वाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक कुल दस बन्धस्थान हैं। उनमें क्रमश: सत्तास्थानों का स्पष्टीकरण करते हैं ।
'तिन्न व य बावीसे'-बाईस प्रकृतिक बन्धस्थान के समय तीन सत्तास्थान होते हैं २८, २७ और २६ प्रकृतिक । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-बाईस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्याष्टि जीव को होता है और उसके उदयस्थान चार होते हैं-७, ८, ६ और १० प्रकृतिक । इनमें से ७ प्रकृतिक उदयस्थान के समय २८ प्रकृतिक सतास्थान होता है । क्योंकि सात प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबन्धी के उदय के बिना ही होता है और मिथ्यात्व में अनन्तानुबन्धी के उदय का अभाव उसी जीव के होता है, जिसने पहले सम्यग्दृष्टि रहते अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना की और कालान्तर में परिणामयश मिथ्यात्व में जाकर मिथ्यात्व के निमित्त से पुन: अनन्तानुबन्धी के बन्ध का प्रारम्भ किया हो । उसके एक आवली प्रमाण काल तक अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं होता है। किन्तु ऐसे जीव के नियम से भट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है। जिससे सात प्रकृतिक उदयस्थान में एक अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान ही होता है।
आठ प्रकृतिक उदयस्थान में भी उक्त तीनों सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि आठ प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार का होता है-१. अनन्ता