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सप्ततिका प्रकरण इसका तात्पर्य यह है कि सभ्यस्य' की उद्धलना में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर जो त्रिकरण क्रिया का प्रारम्भ कर देता है, और उद्वलना होने के बाद एक समय का अन्तराल देकर जो उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है, उसके छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। ____ कर्मग्रन्थ में चौबीस प्रवृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल एक सौ बत्तीस सागर बताया है, जबकि कषायप्राभृत की चूणि में उक्त स्थान का उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर बताया है
'उबीसविहत्ती केचिरं कालादो ? जहणेण अंतोमुहत्तं, उक्कस्सेण घे छाबहिसागरोषमाणि साविरेयाणि ।' __ इसका स्पष्टीकरण जयधवला टीका में किया गया है कि उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके जिसने अनन्तानुवन्धी की बिसयोजना की । अनन्तर छियासठ सागर काल तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा, फिर अन्तर्मुहर्त तक सम्यगमिध्याहृष्टि रहा । अनन्तर मिथ्यात्व की क्षपणा की। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी वी विसयोजना हो चुकाने के समय से लेकर मिथ्याल की क्षपणा होने तक के काल का योग साधिक एक सौ बत्तीस सागर होता है । _____ इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर दोनों परम्पराओं में समान रूप से माना है । कषायप्राभूत चूणि में लिखा है
'एक्कसीसाए बिहत्ती केवचिरं कालादो ? जहणेण अंतोमुहतं, उपकस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।'
इस उत्कृष्ट काल का जयधवला में स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि कोई सम्यग्दृष्टि देव या नारक मर कर एक पूर्वकोटि की आयु वाले मनुध्यों में उत्पन्न हुआ। अनन्तर आठ वर्ष के बाद अन्त