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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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श्रेणिगत सासादन सम्यग्दृष्टि जीव के विषय में दो कथन पाये जाते हैं । कुछ आचार्यों का मत है कि जिसके अनन्तानुबंधी की सत्ता है, ऐसा जीव भी अपशमणि को प्राप्त होता है। नन आमार्गों के मत से अनन्तानुबन्धी की भी उपशमना होती है। जिसकी पुष्टि निम्नलिखित गाथा से होती है
अणदंसणऍसित्पीवेयछक्कं च पुरिसावेयं च ।। अर्थात् पहले अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम करता है । उसके बाद दर्शन मोहनीय का उपशम करता है, फिर क्रमश: नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, छह नोकषाय और पुरुषवेद का उपशम करता है।
ऐसा जीव श्रेणि से गिरकर सासादन भाव को भी प्राप्त होता है, अत: इसके भी पूर्वोक्त तीन उदयस्थान होते हैं।
किन्तु अन्य आचार्यों का मत है कि जिसने अनन्तानुबंधी की विसंयोजना कर दी, ऐसा जीव ही उपशमश्रेणि को प्राप्त होता है, अनन्तानुबंधी की सत्ता वाला नहीं। इनके मत से ऐसा जीव उपशमश्रेणि से गिरकर सासादन भाव को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि उसके अनन्तानुबंधी का उदय संभव नहीं है और सासादन सम्यक्त्व की
-- ... --...... - १ (क) केत्रिदाहुः-अनन्तानुबधिसत्कर्मसहितोऽप्युपशमणि प्रतिपद्यते, तेषां मतेनानन्तानुबंधिनामप्युपशमना भवति ।
--सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ. १६६ (ख) दिगम्बर परम्परा में अनन्तानुबंधी की उपशमना वाले मत का षट्
खंडागम, कषायप्रामृत और उसकी टीकाओं में उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु गो० कर्मकाण्ड में इस मत का उल्लेख किया गया है। वहां उपशमश्रण में २८, २४ और २१ प्रकृतिक, तीन सत्तास्थान बतलाये
है-अउचउरेमकावीस उपसमसेडिम्मि ॥५११॥ २ आवश्यक नियुक्ति, गा० ११६