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सप्ततिका प्रकरण
करने पर बारह भंग होते हैं। इसी बात की पुष्टि पंचसंग्रह की मूल टीका में भी की गई है--
"पषधषकस्यात्याचनिभागे त्रयाणां वेरामामध्यसमस्य देवस्योगमं केविषिष्यन्ति, रचतुर्विषबंधकस्यापि द्वादश निकोक्यान् जानीहि । ___ अर्थात्--कितने ही आचार्य चार प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीवों के पहले भाग में तीन वेदों में से किसी एक वेद का उदय मानते हैं, अत: चार प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव के भी दो प्रकृतियों के उदय से बारह भंग जानना चाहिए ।
इस प्रकार उन आचार्यों के मत से दो प्रकृतियों के उदय में चौबीस भंग हुए। बारह भंग तो पांच प्रकृतिक बन्धस्थान के समय के और बारह भंग चा पदक बन्ध साय, इस प्रकार जमीन मंग हुए।
संज्वलन क्रोध के बन्धविच्छेद हो जाने पर तीन प्रकृतिक बन्ध और एक प्रकृतिक उदय होता है। यहाँ तीन भंग होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ संज्वलन क्रोध को छोड़कर शेष तीन प्रकृतियों में से किसी एक प्रकृति का उदय कहना चाहिए, क्योंकि संज्वलन क्रोध के उदय में संज्वलन क्रोध का बन्ध अवश्य होता है। कहा भी है- या ते बंधई.-जीव जिसका वेदन करता है, उसका बन्ध अवश्य करता है।
इसलिए जब संज्वलन कोध का बन्धविच्छेद हो गया तो उसका उदयविच्छेद भी हो जाता है। इसलिए तीन प्रकृतिक बन्ध के समय
१ इह विजयतुविषबंधसंक्रमकाले त्रयाणां बेदानामन्यतमस्य वेवस्योदयमिच्छन्ति ततस्तन्मतेन पसुविधबंधकस्यापि प्रथमकाले द्वादश विकोदयभंगा लभ्यन्ते ।
-सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १६८