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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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संज्वलन मान आदि तीनों में से किसी एक प्रकृति का उदय होता है, ऐसा कहना चाहिए।
संज्वलन मान के बन्धविच्छेद हो जाने पर दो प्रकृतिक बन्ध और एक प्रकृतिक उदय होता है । किन्तु वह उदय संज्वलन माया और लोभ में से किसी एक का होता है, अत: यहां दो भंग प्राप्त होते हैं । संज्वलन माया के बन्धविच्छेद हो जाने पर एक संज्वलन लोभ का बन्ध होता है और उसी का उदय । यह एक प्रकृतिक बन्ध और उदयस्थान है । अत: यहाँ उसमें एक भंग होता है। ___ यद्यपि चार प्रकृतिक बन्धस्थान आदि में संज्वलन क्रोध आदि का उदय होता है, अत: भंगों में कोई विशेषता उत्पन्न नहीं होती है, फिर भी बन्धस्थानों के भेद से उनमें भेद मानकर पृथक्-पृथक कथन किया गया है।
इसी प्रकार से बन्ध के अभाव में भी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में मोहनीय कर्म की एक प्रकृति का उदय समझना चाहिये-'बंधोवरमे वि तहा' इसलिये एक भंग यह हुआ । इस प्रकार चार प्रकृतिक बन्धस्थान आदि में कुल भंग ४+३+३+१+१=११ हुए।
अनन्तर सूक्मसंपराय गुणस्थान के अन्त में मोहल्लीय का उदयविच्छेद हो जाने पर भी उपशान्तमोह गुणस्थान में उसका सत्व पाया जाता है। यहाँ बन्धस्थान और उदयस्थानों के परस्पर संवेष का विचार किया जा रहा है, जिससे गाथा में सत्वस्थान के उल्लेख की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी प्रसंगवश यहाँ उसका भी संकेत किया गया है-'उदयाभावे वि वा होज्जा'-मोहनीय कर्म की सत्ता विकल्प से होती है !
अब आगे की गाथा में दस से लेकर एक पर्यन्त उदयस्थानों में जितने भंग सम्भव हैं, उनका निर्देश करते हैं।