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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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शब्दार्थ — नव पंधाण उडलए नौ सौ पंचानवे, उनमविगहउदयविकल्पों से मोहिया - मोहित हुए, जीवाजीव, अउणसरिएगु
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पर्यावक्सएहि पदवृन्दों सहित,
तरि — उनहत्तर सौ इकहत्तर विश्लेया जानना चाहिये ।
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गाथा - समस्त संसारी जीवों को नौ सौ पंचानवे उदयविकल्पों तथा उनहत्तर सौ इकहत्तर पदवृन्दों से मोहित जानना चाहिये ।
विशेषार्थ- पूर्व में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंगों और उन उदयस्थानों के अंगों की कहां कितनी चौडी होती हैं, यह गया है । अब इस गाया में उनकी कुल संख्या एवं उनके पदवृन्दों को स्पष्ट किया जा रहा है ।
प्रत्येक चौबीसी में चौबीस भंग होते हैं और पहले जो उदयस्थानों की चौबीसी बतलाई हैं, उनकी कुल संख्या इकतालीस है । अत: इकतालीस को चौबीस में गुणित करने पर कुल संख्या नौ सौ चौरासी प्राप्त होती है - ४१४२४ - १८४ । इस संख्या में एक प्रकृतिक उदयस्थान के भंग सम्मिलित नहीं हैं। वे भंग ग्यारह हैं। अतः उन ग्यारह् भंगों को मिलाने पर भंगों की कुल संख्या नौ सौ पंचानवें होती है। इन भंगों में से किसी-न-किसी एक भंग का उदय दसवें गुणस्थान तक के जीवों के अवश्य होता है। यहाँ दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीवों को ही ग्रहण करने का कारण यह है कि मोहनीय कर्म का उदय वहीं तक पाया जाता है । यद्यपि ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव का जब स्व-स्थान से पतन होता है तब उसको भी मोहनीय कर्म का उदय हो जाता है, लेकिन कम-से-कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के लिये मोहनीय कर्म का उदय न
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रहने से उसका ग्रहण नहीं करके दसवें गुणस्थान तक के जीवों को