Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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६९७१ और ६९४७ | जब चार प्रकृतिक बन्ध के समय कुछ काल तक दो प्रकृतिक उदय होता है, तब इस मत को स्वीकार कर लेने पर ६६७१ पदवृन्द होते हैं और इस मत को छोड़ने पर ६९४७ पदवृन्द होते हैं। पंचसंग्रह सप्ततिका में ये दोनों संख्यायें बताई हैं. किन्तु इनके अतिरिक्त साथ ही चार प्रकार के पदवृन्द और बतलाये हैं। उनमें पहला प्रकार ६६४० का है, जिसमें बन्धाबन्ध के भेद से एक प्रकृतिक उदय के ११ भंग न होकर कुल ४ भंग लिये जाते हैं । इस प्रकार ६९४७ में से ७ भंग कम होकर ६६४० संख्या होती है। शेष तीन प्रकार के पदवृन्द गुणस्थान भेद से बताये हैं जो क्रमशः ८४७७८४८३ और ८५०७ होते हैं ।
गो० कर्मकाण्ड में पदवृन्द को प्रकृतिविकल्प संज्ञा दी है। उदयविकल्पों की तरह ये प्रकृतिविकल्प भी पुनरुक्त और अपुनरुक्त दो प्रकार के बताये हैं। पुनरुक्त उदयविकल्पों की अपेक्षा इनकी संख्या ८५०७ और अपुनरुक्त उदयविकल्पों की अपेक्षा इनकी संख्या ६९४१ बताई है। पंचसंग्रह सप्ततिका में जो ६६४० पदवृन्द बतलाये हैं, उनमें गुणस्थान भेद से १ भंग और मिला देने पर ६९४१ प्रकृतिविकल्प हो जाते हैं । क्योंकि पंचसंग्रह सप्ततिका में एक प्रकृतिक "उदयस्थान के कुल चार भंग लिये गये हैं और कर्मकाण्ड' में गुणस्थान भेद से पाँच लिये गये हैं। जिससे एक भंग बढ़ जाता है ।
ऊपर जो कथन किया गया है उसमें जो संख्याओं का अन्तर दिखता है, वह विवक्षाभेदकृत है, मान्यताभेद नहीं है ।
इस प्रकार से स्वमत और मतान्तर तथा अन्य कार्मग्रन्थिकों के
१ मोहनीय कर्म के उदयस्थानों, उनके विकल्पों और प्रकृतिविकल्पों की जानकारी के लिए गो० कर्मकांड गा० ४७५ से ४५६ तक देखिए ।