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सप्ततिका प्रकरण
तथा उत्कृष्ट अबाधाकाल चार हजार वर्ष है। अतः बंधावलि के बाद ही अनन्तानुबन्धी का दार से सम्भत है?
समाषाम-बंध समय से ही अनन्तानुबन्धी की सत्ता हो जाती है और सत्ता के हो जाने पर प्रवर्तमान बन्ध में पतद्ग्रहता आ जाती है और पतद्ग्रहाने को प्राप्त हो जाने पर शेष समान जातीय प्रकृति दलिकों का संक्रमण होता है जो पतद्ग्रह प्रकृति रूप से परिणत हो जाता है जिसका संक्रमावलि के बाद उदय होता है । अत: आवलिका के बाद अनन्तानुबन्धी का उदय होने लगता है, अत: यह कहना बिरोध को प्राप्त नहीं होता है। ___ उक्त शंका समाधान का यह तात्पर्य है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क विसंयोजना प्रकृति है और वैसे तो विसंयोजना क्षय ही है, किन्तु विसंयोजना और क्षय में यह अन्तर है कि विसंयोजना के हो जाने पर कालान्तर में योग्य सामग्री के मिलने पर विसंयोजित प्रकृति की पुन: सत्ता हो सकती है विन्नु क्षय को प्राप्त प्रकृति की पुनः सत्ता नहीं होती है। सत्ता दो प्रकार से होती है -बंध से और संक्रम से, किन्तु बंध और संक्रम में अन्योन्य सम्बन्ध है । जिस समय जिसका बंध होता है, उस समय उसमें अन्य सजातीय प्रकृति दलिक का संक्रमण होता है । ऐसी प्रकृति को पतद्ग्रह प्रकृति कहते हैं । पतद्ग्रह प्रकृति का अर्थ है आकर पड़ने वाले कर्मदल को ग्रहण करने वाली प्रकृति । ऐसा नियम है कि संक्रम से प्राप्त हुए कर्म-दल का मंक्रमाबलि के बाद उदय होता है। जिससे अनन्तानुवन्धी का एक आवली के बाद उदय मानने में कोई आपत्ति नहीं है । यद्यपि नवीन बंधावलि के बाद अबाधाकाल के भीतर भी अपकर्षण हो सकता है और यदि ऐसी प्रकृति उदय-प्राप्त हुई हो तो उम अंपर्पित कर्मदल का उदयसमय से निरपेक्ष भी हो सकता है, अत: नवीन बंधे हुए कर्मदल का