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षष्ठ कर्मग्रन्थ
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मुहूर्त में उसने क्षायिक सम्यग्दर्शन को उत्पन्न किया। फिर आयु के अन्त में मर कर वह तेतीस सागर को आयु वाले देवों में उत्पन्न हुआ। इसके बाद तेतीस सागर आयु को पूरा करके एक पूर्वकोटि की आयु वाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां जीवन भर इक्कीस प्रकृतियों की सत्ता के साथ रहकर जब जीवन में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब क्षक श्रेणि पर चढ़कर तेरह आदि सत्तास्थानों को प्राप्त हुआ । उसके आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्वकोटि वर्ष अधिक तेतीस सागर काल तक इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान पाया जाता है ।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य में सर्वाधिक तेलीय सागर प्रमाण का स्पष्टीकरण किया गया है ।
श्वेताम्बर साहित्य में बारह प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। जबकि दिगम्बर साहित्य में बारह प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्य काल एक समय बताया है । जैसा कि कषायप्राभृत चूर्णि में उल्लेख किया गया है
वरि वारस विहत्ती केवचिरं कालादो ? जहणंण एगसमओ । इसकी व्याख्या जयघवला टीका में इस प्रकार की गई है कि नपुंसक वेद के उदय से क्षपक श्रेणि पर चढ़ा हुआ जीव उान्त समय में स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के सब सत्कर्म का पुरुषवेद रूप में संक्रमण कर देता है और तदनन्तर एक समय के लिए बारह प्रकृतिक सत्तास्थान बाला हो जाता है, क्योंकि इस समय नपुंसक बेद की उदय स्थिति का विनाश नहीं होता है ।
इस प्रकार से कुछ सत्तास्थानों के स्वामी तथा समय के बारे में मतभिन्नता जानना चाहिए। तुलनात्मक अध्ययन करने वालों के लिये यह जिज्ञासा का विषय है ।