Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
वेदों में से कोई एक वेद कहना चाहिए । अतः यहाँ दो युगलों को दो वेदों से गुणित कर देने पर चार भंग होते हैं।
इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान में से अनन्तानुबंधी चतुष्क को घटा देने पर सत्रह प्रकुलिक बंघस्थान होता है। इसके बन्धक तीसरे और चौथे गुणस्थानवी जीव हैं। अनन्तानुबंधी कषाय का उदय नहीं होने से इनको स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है। अतः यहाँ हास्य-रति मुगल और शोक-अरति युगल, इन दो युगलों के विकल्प से दो भंग होते हैं।
तेरह प्रकृतिक बंधस्थान में भी दो भंग होते हैं। यह बंधस्थान सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान में से अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क के कम करने दे पात होता है । यहाँ पुस्पलेट का ही बंध होता है अत: दो गुगलों के निमित्त से दो ही भंग प्राप्त होते हैं।
तेरह प्रकृतिक बंधस्थान में से प्रत्याख्यानावरण चतुष्क के कम करने पर नौ प्रकृतिक बंधस्थान होता है। यह स्थान छठे, सातवें और आठवे-प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण-गुणस्थान में पाया जाता है । यहाँ इतनी विशेषता है कि अरति और शोक का बंध प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है, आगे नहीं। अत: प्रमत्तसंयत गुणस्थान में इस स्थान के दो भंग होते हैं, जो पूर्वोक्त हैं तथा अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण में हास्य-रति रूप एक ही भंग पाया जाता है।
पाँच प्रकृतिक बंधस्थान उक्त नौ प्रकृतिक बंधस्थान में से हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, इन चार प्रकृतियों को कम करने से होता है । यहाँ १ नवबंधके वो भंगी तौ च प्रमत्ते द्वापि दृष्टव्यो, अप्रमत्तापूर्वकरणयोस्त्वेक एव मंग: तत्रारति-शोकरूपस्य मुगलस्य बन्धासम्मवात् ।
-सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १६४