Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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भ्रष्ट कर्मग्रन्थ : ग ्
शब्दार्थ - वेय किया उयगोए — वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के, विभज्ज - घादिस्थान और उनके संवेध भंग कहकर, मोहं – मोहनीय कर्म के परं पश्चात् यो कथन करेंगे ।
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गाथार्थ – वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म के बंधादि स्थान और उनके संबंध भंग कहकर बाद में मोहनीय कर्म के बन्धादि स्थानों का क६ चले।
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विशेषार्थ - गाथा में वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में विभाग करने की सूचना दी है, लेकिन किस कर्म के अपनी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा कितने बंधादि स्थान और उनके कितने संवेध भंग होते हैं, इसको नहीं बताया है । किन्तु टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में इनके अंगों का विस्तृत विचार किया है। अतः टीका के अनुसार वेदनीय, आयु और गोत्र के भंगों को यहाँ प्रस्तुत करते हैं । वेदनीय कर्म के संवेध भंग
वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-साता और असाता। ये दोनों प्रकृतियाँ परस्पर विरोधिनी हैं। अतः इनमें से एक काल में से किसी एक का बंध और किसी एक का उदय होता है । एक साथ दोनों का बंध और उदय संभव नहीं है | लेकिन किसी एक प्रकृति की सत्ता का बिच्छेद होने तक सत्ता दोनों प्रकृतियों की पाई जाती है तथा किसी एक प्रकृति की सत्ता व्युच्छिन्न हो जाने पर किसी एक ही प्रकृति की सत्ता पाई जाती हैं | अर्थात् वेदनीय कर्म का उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा
१ तत्र वेदनीयस्य सामान्येनकं बंधस्थानम्, तद्यथा सातमसातं वा, द्वयो: परस्पर विरुद्धत्वेन युगपदबन्धाभावात् । उदयस्थानमपि एकम्, तद्यथा-सातमसा वा द्वयोर्युगपदुदयाभावात् परस्परविरुद्धत्वात् । सत्तास्थाने द्वे तथा — एक च । तत्र यावदेकमन्यतरद् न क्षीयते तावद् अपि सती, अन्यतरस्मिश्च क्षीणे एकमिति ।
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--- सप्ततिका प्रकरण टीका, पृ० १५६
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