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सप्ततिका प्रकरण अनन्तानुबन्धी 'हर की शिका : मला
अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल' अन्तर्मुहूर्त अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करने से जब चौबीस प्रकृतिक सत्ता वाला होता है, तब प्राप्त होता है। बेवक सम्यग्दृष्टि जीव के अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की बिसंयोजना करने में श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्य एकमत हैं। किन्तु इसके अतिरिक्त जयधवला टीका में एक मत का उल्लेख और किया गया है। वहां बताया गया है कि उपशम सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करते हैं, इस विषय में दो मत हैं । एक मत का यह मानना है कि उपशम सम्यक्त्व का काल थोड़ा है और अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना का काल बड़ा है, अत: उपशम सम्घरदष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना नहीं करता है तथा दूसरा मत है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क के विसंयोजना काल से उपशम सम्यक्त्व वा काल बड़ा है इसलिये उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करता है। जिन उच्चारणा वृत्तियों के आधार से जयधवला टीका लिखी गई है, उनमें इस दूसरे मत को प्रधानता दी है। अगाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल, मतभिन्नता
पंचसंग्रह के सप्ततिका संग्रह की गाथा ४५ व उसकी टीका में अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्टकाल पल्य का असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है। लेकिन दिगम्बर परम्परा में उसका उत्कृष्ट काल पल्य के तीन असंख्यातवें भाग अधिक एक सौ बत्तीस सागर बतलाया है । इस मतभेद का स्पष्टीकरण यह है---
श्वेताम्बर साहित्य में बताया है कि छब्बीस प्रकृतिक सत्ता वाला मिथ्यावृष्टि ही मिथ्यात्व का उपशम करके उपशम सम्यग्दृष्टि होता है । तदनुसार क्षेवल सम्यक्त्व की उद्वलना के अंतिम काल में जीत्र