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षष्ठ कर्मग्रन्थ
७७ उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। जिससे २८ प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कुष्टकाल पल्य का असंख्यातवां भाग अधिक १३२ सागर ही प्राप्त होता है। क्योंकि जो २८ प्रकुतियों की सत्ता वाला ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा और पश्चात् सम्यग्दृष्टि हुआ, तत्पश्चात् पुनः ६६ सागर तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रहा और अंत में जिसने मिथ्यादृष्टि होकर पल्य के असंख्यातवें भाग काल तक सम्यक्त्व की उबलना की, उसके २८ प्रकृतिक सत्तास्थान इससे अधिक काल नहीं पाया जाता, क्योंकि इसके बाद वह नियम से २७ प्रकृतिक मत्तास्थान वाला हो जाता है ।
लेकिन दिगम्बर साहित्य की यह मान्यता है कि २६ और २७ प्रकृतियों की सत्ता वाला मिध्यादृष्टि तो नियम से उपशम सम्यक्त्व को ही उत्पन्न करता है, किन्तु २८ प्रकृतियों की सत्ता वाला वह जीव भी उपशम सम्यक्त्व को ही उत्पन्न करता है जिसके चेदक सम्यक्त्व के योग्य काल समाप्त हो गया है । तदनुसार यहाँ २८ प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल पल्प के तीन असंख्यातवें भाग अधिक १३२ सागर बन जाता है। यथा--कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके २० प्रकृतियों की सत्ता वाला हुआ । अनन्तर मिथ्यात्व को प्राप्त होकर सम्यक्त्व के सबसे उत्कृष्ट उबलना काल पल्य के असंख्यातवें भाग के व्यतीत होने पर वह २७ प्रकृतिक सत्ता घाला होता, पर ऐसा न होकर वह उबलना के अंतिम समय में पुन: उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । तदनन्तर प्रथम ६६ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण करके और मिथ्यात्व को प्राप्त होकर पुनः सम्यक्त्व के सबसे उत्कृष्ट पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्यलना काल के अंतिम समय में 'उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, तदनन्तर दूसरी बार ६६ सागर काल तक सम्यक्त्व के साथ परिभ्रमण करके और अंत में मिथ्यात्व को प्राप्त होकर पल्य के असंख्यातवें