Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्मग्रन्थ
नरकायु के संवैध भंग-नारकियों के अबन्धकाल में नरकायु का उदय और नरकायु का सत्त्व, यह एक भंग होता है। नारकों में पहले चार गुणस्थान होते हैं, शेष गुणस्थान नहीं होने से यह भंग प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में सम्भव है ।
बंधनाल में १. लियंचायु का बंध, गरकायु का उदय तथा तियंचनरकायु का सत्त्व एवं २. मनुष्य-आयु का बंध, नरकायु का उदय और मनुष्य-नरकायु का सत्त्व, यह दो भंग होते हैं। नारक जीव के देव आयु के बंध का नियम नहीं होने से उक्त दो विकल्प ही सम्भव हैं। इनमें से पहला भंग मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में होता है, क्योंकि तिर्यचाय का बंध दूसरे गुणस्थान तक ही होता है तथा दूसरा भंग मिथ गुणस्थान में आयु बंध का नियम न होने से, उसको छोड़कर मिथ्यात्व, सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि इन तीन गुणस्थानों में होता है। क्योंकि नारकों के उक्त तीन गुणस्थानों में मनुष्यआयु का बंध पाया जाता है ।
उपरतबंधकाल में १. नरकायु का उदय और नरक-तियंचायु का सत्त्व तथा २. नरकायु का उदय, नरक-मनुष्यायु का सत्व, यह दो भंग होते हैं । नारकों के यह दोनों भंग आदि के चार गुणस्थानों में सम्भव है । क्योंकि तियंचायु के बंधकाल के पश्चात् नारक अविरत सम्यगदृष्टि या सम्यमिथ्यादृष्टि हो सकता है। अविरत सम्यग्दृष्टि नारक के भी मनुष्यायु का बंध होता है और बंध के पश्चात ऐसा जीव सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है, जिससे दूसरा भंग भी प्रारम्भ के चार गुणस्थानों में सम्भव है।
१ इह नारका देवायुः नारकायुश्च भवप्रत्ययादेव न बध्नन्ति तत्रोत्पत्त्यमाबात् ।
सप्ततिका प्रकरण टोका, पृ० १५६