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षष्ठ कर्मग्रन्थ
तीन, युगं -दो, --ौर, एक-एक प्रकृतिका महानगर स्थान, मोहस्स-मोहनीय कर्म के
गाथार्य-मोहनीय कर्म के बाईस प्रकृतिक, इक्कीस प्रकृतिक, सत्रह प्रकृतिक, तेरह प्रकृतिक, नौ प्रकृतिक, पांच प्रकृतिक, चार प्रकृतिक, तीन प्रकृतिक, दो प्रकृतिक और एक प्रकृतिक, इस प्रकार दस बंधस्थान हैं। विशेवा-गाथा में 'मोहस्स बंधट्टाणाणि' मोहनीय कर्म के बंधस्थानों का वर्णन किया जा रहा है। वे बंधस्थान बाईस, इक्कीस आदि प्रकृतिक कुल मिलाकर दस हैं । जिनका स्पष्टीकरण नीचे किया जा रहा है। ___ मोहनीय कर्म को उत्तर प्रकृतिमा अट्ठाईस हैं। इनमें दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व, सम्बमिथ्यात्व और मिथ्यात्व यह तीन प्रकृतियाँ हैं। इनमें से सम्बक्त्व और सम्यमिथ्यात्व इन दोनों का बंध नहीं होने से कुल बंधयोग्य छब्बीस प्रकृतियां रहती हैं और उनमें से कुछ प्रकृतियों का बंध के समय परस्पर विरोधनी होने तथा गुणस्थानों में विच्छेद होते जाने के कारण बाईस प्रकृतिक आदि दस बंधस्थाम' मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के होते हैं। १ मोहनीय कर्म के बाईस प्रकृतिक आदि दस बंधस्थानों में प्रकृतियों की संग्राहक गाथायें इस प्रकार हैं
मिच्छं कमावसोलस भयकुच्छा तिण्डवेयमन्नमरं । हासरइ इयर यल प बंधपयडी य बावीसं । इगवीसा मिच्छविणा नपुबंधविणा र सासणे बंधे। अणरहिया सत्तरस नबन्धि थिई तुरि अठाणम्मि || वियसंपरायणा तेरस तह तश्यऊण नव बन्धे । मय-कुच्छ-जुगल पाए पण बंधे बायरे ठाणे ! तह पुरिस कोहऽहंकार-मायालोमस्स बंधवोच्चए ।
चउ-नि-दुग एम बंधे कमेण मोहस्स दसठाणा ।। -षष्ठ कर्मग्रन्थ प्राकृत टिप्पण, रामदेवणि विरचित, गाथा २२ से २५