________________
सप्ततिका प्रकरण
शब्दार्थ — एवई – एक, द-और, दो-दो, व और, उरो - चार, एसो— इससे आगे एक्काहिया - एक एक प्रकृति अधिक, इस - इस तक, छक्कोसा - उत्कृष्ट से, ओहेज-सामान्य से, मोहणिज्जे — मोहनीय कर्म में, उदयद्वाणा --- उदयस्थान, नव-नौ, हवंति होते हैं ।
गाथार्थ एक, दो और चार और चार से आगे एक-एक प्रकृति अधिक उत्कृष्ट दस प्रकृति तक के नौ उदयस्थान मोहनीय कर्म के सामान्य से होते हैं ।
विशेषार्थ गण में मोदी या बतलाई हैं कि वे नौ होते हैं। इन उदयस्थानों की संख्या एक, दो, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक है ।
1
ये उदयस्थान पश्चादानुपूर्वी के क्रम से बतलाये हैं । गणनानुपूर्वी के तीन प्रकार हैं-- १. पूर्वानुपूर्वी २ पश्चादानुपूर्वी और ३ यत्रतत्रानुपूर्वी । इनकी व्याख्या इस प्रकार है कि जो पदार्थ जिस क्रम से उत्पन्न हुआ हो या जिस क्रम से सूत्रकार के द्वारा स्थापित किया गया हो, उसकी उसी क्रम से गणना करना पूर्वानुपूर्वी है । विलोमकम से अर्थात् अन्त से लेकर आदि तक गणना करना पश्चादानुपूर्वी है और अपनी इच्छानुसार जहाँ कहीं से अपने इच्छित पदार्थ को प्रथम मानकर गणना करना यत्रतत्रानुपूर्वी कहलाता है। यहां ग्रन्थकार ने उक्त तीन गणना की आनुपूदियों में से पश्चादानुपूर्वी के क्रम से मोहनीय कर्म के उदयस्थान गिनाये हैं ।
'मोहनीय कर्म का उदय दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होता | अतः पदचादानुपूर्वी गणना क्रम से एक प्रकृतिक उदयस्थान सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है क्योंकि वहाँ संज्वलन लोभ का उदय है । वह इस प्रकार समझना चाहिये कि नौवें गुणस्थान के अपगत वेद १ गणणाणुपुत्री तिथिहा पष्णसा तं जहा – पुग्वाणुपुथ्वी, पाणुपुरुषी, अणापुथ्वी । अनुयोगद्वार सूत्र ११६
७०
...