Book Title: Karmagrantha Part 6
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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षष्ठ कर्म ग्रन्थ : गा० ७
मध्य में सभ्य मिथ्यात्व से अन्तरित होकर सम्यक्त्व के साथ रहने का उत्कृष्टकाल इतना ही है, अनन्तर वह जीव या तो मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है या क्षपकश्रेणि पर आरोहण कर सयोगिकेवली होकर सिद्ध हो जाता है।
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चार प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । जिस जीव ने अपूर्वकरण के द्वितीय भाग में प्रविष्ट होकर एक समय तक चार प्रकृतियों का बंध किया और मरकर दूसरे समय में देव हो गया, उसके चार प्रकृतिक बंध का जघन्यकाल एक समय देखा जाता है । उपशमश्र णि या क्षपकश्रेणि के पूरे काल का योग अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, अतः इसका भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है ।
दर्शनावरण के तीन बंधस्थानों को बतलाने के बाद अब तीन सत्तास्थानों को स्पष्ट करते हैं
नौ प्रकृतिक सत्तास्थान में दर्शनावरण कर्म की सभी प्रकृतियों की सत्ता होती है । यह स्थान उपशान्तमोह गुणस्थान तक होता है। छह प्रकृतिक सत्तास्थान में स्त्यानद्धित्रिक को छोड़कर शेष छह प्रकृतियों की सत्ता होती है। यह सत्तास्थान क्षपक अनिवृत्तिवादरसंपराय के दूसरे भाग से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के उपान्त्य समय तक होता है । चार प्रकृतिक सत्तास्थान क्षीणमोह गुणस्थान के अंतिम समय में होता है ।
नो प्रकृतिक सत्तास्थान के काल की अपेक्षा अनादि-अनन्त और अनादि- सान्त, यह दो विकल्प हैं। इनमें पहला विकल्प अभव्यों की अपेक्षा है और दूसरा विकल्प भव्यों में देखा जाता है, क्योंकि कालान्तर में इनके उक्त स्थान का विच्छेद हो जाता है। सादि सान्त विकल्प यहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि नौ प्रकृतिक सत्तास्थान का विच्छेद