Book Title: Karmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Author(s): Shivsharmsuri, Gunratnasuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पूर्वधराचार्यदेवश्री शिवशर्मसूरीश्वर विरचित कर्म प्रकृतिगतमुनीकरण प्रेरका : संशोधकाच लालमहोदयः कर्मसाहित्यनिष्णाता आचार्यदेव श्री म प्रकाशिका श्री प्रेमगुणाटीका विभूषितम् (प्रथमो भागः ) भारतीय प्रकाशन समितिः, पिंडवाडा प्राच्यतत्व श्वरा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरण पृष्ठ १ के चित्र का परिचय इस चित्र में अक आदमी रजकणों को पानी छांट कर धोखे (डंडे) से कूटता हुआ जमाता है, जब रजकण जम जाते हैं। तब वे उडते नहीं। इसी प्रकार आत्मा रूपी आदमी विशुद्धिरूपी पानी छाँट कर धोके से दर्शन मोहनीय व चारित्र मोहनीय कर्म रूपी रजकणों को जमाता है। तब वे कर्म उदय आदि के लिये अयोग्य बन जाते हैं। उसे कर्मों की उपशमना कहते है। मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना होती है। शेष कर्मों की देशोपशमना होती है। ucalion International For Private POS ON wwwjainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः ।। सकलागमरहस्यवेदि-परमज्योतिविच्छ्रीमद्विजयदानसूरीश्वरसद्गुरुभ्यो नमः । भारतीय-प्राच्यतत्त्व-प्रकाशन-समिति-संचालिताया। प्राचार्यदेवश्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वर-कर्मसाहित्य-जैन ग्रन्थमालाया ग्रन्थः श्रीपूर्वधरागर्यदेव श्रीशिवशर्मसूरीश्वरविरचितं श्रीप्रेमगुणाटीकाविभूषितं कर्मप्रकृतिगतमुपशमनाकरणम् प्रथमो भागः UPSHAMANA KARANAM of Karma Prakriti (First-Part) तामा तिया प्रेरका मार्गदर्शकाः संशोधकाश्च सिद्धान्तमहोदधि-कर्मशास्त्रनिष्णाता-ऽऽचार्यदेवाः श्रीमद्विजयप्रेमसुरीश्वराः प्रकाशिका - भारतीय प्राच्यतत्त्व-प्रकाशन समिति. पिराडवाडा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्तिःप्रति १००० मूल्यम-१०० रुप्यकानि वीर संवत् २५१८ . विक्रम संवत १८ * प्राप्तिस्थान * भारतीय-प्राच्यतत्व-प्रकाशन समिति C/रमणलाल लालचंदशाह १३५/२३७ झवेरी बाजार, बम्बई २ भारतीय-प्राच्यतच्च-प्रकाशन-समिति C/ शा. समरथमल रायचंदजी पिंडवाड़ा (राज.) स्टे. सिरोही रोड (W. R.) भारतीय-प्राच्यतत्व-प्रकाशन-समिति शा. रमणलाल वजेचन्द, C/ दिलीपकुमार रमणलाल मस्कती मार्केट, अहमदाबाद २. मुद्रकज्ञानोदय प्रिंटिंग प्रेस, पिंडवाडा स्टे.-सिरोहीरोड (W. R.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकलागमरहस्यवेदी प्रौढप्रतापी गीतार्थमूर्धन्य परमगुरुदेव स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयदानसूरीश्वरजी महाराजा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ First Edition copies 1000 PRICE BS. 100 { A. D. 1992 AVAILABLE FROM Il 1, Bharatiya Prachya Tattva Prakashana Samiti, C/. Shah Ramanlal Lalchand, 135/137, Zaveri Bazzar, BOMBAY - 400 002 (INDIA) 2. Bharatiya Prachya Tattya Prakashana Samiti C/. Shah Bamarathmal Rayohandji, PINDWARA 307022 (Rajasthan) St. Birohi Road, (W.R.) (INDIA) 3. Bharatiya Prachya Tattya Prakashana Samiti Shah Ramanlal Vajechand, C/o Dilipkumar Ramanlal, Maskati Market, AHMEDABAD-380002 (INDIA) Printed by :Gyanodaya Printing Press PINDWARA, 307022 (Raj.) Bt. Sirohi Road, (W.R.) (INDIA) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: पदार्थसंग्रहकारा :श्रीमतपोगच्छ गगनाङ्गणदिनमणि-सुविहितविशाल - गच्छाधिपति - सिद्धान्तमहोदधिसच्चारित्रचूडामणि - कर्म साहित्यनिष्णात प्रातःस्मरणीय स्वर्गस्थाचायें-शिरोमणि श्रीमद विजयप्रेम सूरिश्वरान्तेवासि स्याद्वादनयप्रमाण विशा रदाचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वर शिष्य-प्रशिष्याःसिद्धान्त दिवाकराचार्य देवश्रीमद्विजय जयघोषसूरीश्वर -- धर्म - जित्सूरीश्वर हेमचन्द्रसूरीश्वर - गुणरत्न सूरीश्वराः -: टीकाकारः : पूज्यमेवाड देशोद्धारकाचार्यदेव श्रीमद्विजय जितेन्द्रसूरीश्वरान्तिपदाचार्यदेवश्री विजयगुणरत्नसूरीश्वराः सम्पादकः पूज्याचार्य देवश्रीविजयगुणरत्नसूरीश्वर शिष्यः मुनिराज श्री संयमरत्नविजयः -: * 11 - संशोधका (१) सिद्धान्तमहोदधि - विजय प्रेमसूरीश्वराः (२) आगमादिशास्त्रकुशला विजयोदयसूरीश्वराः (२) पदार्थसंग्रहकाराच - -: Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धांतमहोदधि सच्चारित्रचूडामणि कर्मसाहित्यनिपुणमति सुविशालगच्छाधिपति परमगुरुदेव स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण यद्यङ्गल्याssकाशो मेयः प्रस्ताभिश्च पाथोधिः I स्यां च यदि सहस्त्रमुखस्तदा क्षमोभवदुपकृतीवक्तुम् ॥ १॥ क्या अङ्गुली से विशाल अनंत गगन नापा जा सकता है। क्या अजलियों से समुद्र नापा जा सकता है ? क्या मुख में १००० जीभ हो सकती हैं। यदि नहीं, तो जिनके उपकार को कहने के लिये भी समर्थ नहीं हूं क्योकि जिन महापुरुष मे अपार संसार सागर में से उठाकर संयाम नौका में आरोहण करवाया १४- १४वर्ष तक अपनी निश्रा में रखकर पंचाचार पालन करवा कर जो संयम नौका के सफल कप्तान बने, शिल्पी की तरह ग्रहण आसेवन शिक्षा देकर पत्थर में से आदरणीय प्रतिमा का सर्जन किया, जिनकी परमकृपा से स्वोपज्ञ चपकश्रेण व प्रकृतिवन्ध की टीका व उपशमनाकरण की टीका सर्जन करने मे समर्थ बना | उन्हीं अनंत उपकारी परम पूज्य कर्मसाहित्य निष्णात सिद्धान्त महोदधि स्वर्गस्थ आचार्य देव श्रीमद्विजय व - प्रेमसूरश्विरजीमहाराज को के पवित्र कर कमलों में भवदीय कृपाकांक्षी शिश गुणरत्नसुरि Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभ-आशीर्वाद जिनकी शुभनिश्रामें द्विशताधिक मुनिवर सिद्धि के शिखर पर पहुंचने के लिए हजारों भव्य जीवों को साधना आराधना करवा रहे है, स्याद्वादं व तर्क मेंजिनकी प्रज्ञा अस्खलित चल रही हैं , जो निकलंक संयम व तप की साक्षात् मूर्ति हैं, जिनके निःस्वार्थ वात्सल्य की वर्षा मेरे जैसे अनेक आत्माओं पर निरन्तर हो रही है, पावरहाउस के पावर की तरह जिनके शुभआशीर्वाद से उपशमनाकरण टीका ग्रन्थ का प्रकाशन हो रहा है, उन जैन शासन के महाप्रभावक अद्वितीय वर्तमान सुविशालश्रीमद्विजयगच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद्विजय-- भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा को कोटीश वन्दनावली भवदीय आशीर्वाद से प्रप्लावित प्रशिष्य गुणरत्नसूरि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविशाल गच्छाधिपति आचार्यदेवश्री विजय भुवन भानुसूरीश्वरजी महाराज साहेब www.jainelibrary.or Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आणविक युग Atomio age का आधुनिक मानव सुपर-सोनिक प्लेन ( oper sonic plane) की तीव्र गति सुख के पीछे दोड लगा रहा है मगर वह सुखी नहीं बन रहा है। उन्टा वह ज्यादा से ज्यादा दुखी, दोन अशान्त अतृप्त बन रहा है । इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि जिसके लिए वह उडान भर रहा है, जिसके पीछे खून पसीना एक कर रहा है । वह बाह्य पदार्थों (external object) में नहीं वह उसी के पास है, उसी की आत्मा में रहा है । हुआ हैं परन्तु फिलहाल कर्मों से आवृत है । पाप कर्मों का आवरण ज्यों ज्यों हटता जाएगा त्यों-त्यों वह ज्यादा से ज्यादा सहज स्वभाविक आध्यत्मिक सुख प्रकट करता जाएगा। क्रमशःएक दिन ऐमा आयेगा कि समस्त कर्मों का विनशा हो जायेगा आत्म के ऊपर से को का पूरा आवरण हट जायेगा आत्मा सहज स्वभाविक शाश्वत सुख (enternal hapiness) का भोक्ता बन जायेगा । एसी विश्व मंगल की परम शुभकामना को लेकर जिनशासन शृंगार कर्मसाहित्यनिष्णात सिद्धांतमहोदधि श्रीमद् प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा की असीम कृपा दृष्टि से हमारी संस्था भारतीय-प्राच्यतत्व-प्रकाशन समिति, पिंडवाडा ने जैन शासन को प्राचीन अर्वाचीन सुविशालकर्मसाहित्य की भेंट की हैं। प्रस्तुत उपशमनाकरण ग्रन्थ जिसकी प्रकाशन की बात चल रही थी उसका छपाई कार्य Printing work) हमारी ज्ञानोदय प्रिन्टिग प्रेस, में चालू हो गया था। उपशमनाकरण का टीका रचयिता शामन प्रभावक युवकजागृति प्रेरक पुज्यपादाचार्य देव श्रीपद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजा संवत २०४४ में पाली चातुमसि में विराजमान थे। पूज्यश्री ने ग्रन्थ की आर्थिक व्यवस्था हेतु श्री पूरण जैन संघ के अग्रणीयों को पत्र द्वारा प्रेरणा की और श्री पुरण जैन संघ ने ज्ञानद्रव्य को विशाल धनराशि भारतीय प्राच्यतत्व प्रकाशन समिति को अर्पण करने का निर्णय कीया । साथ साथ श्री पोरवाल जैन संघ शिवगंज ने भी ज्ञान द्रव्य की विशाल शनराशि अर्पण करने का निर्णय कीया । श्री पूरण जैन संघ एवं श्री पोरवाल जैन संघ शिवगंज का उदाहरण को देखकर श्रुतभक्ति के अनेक प्राचीन उदाहरण हमारी दृष्टि के समक्ष दोहराने लगते है। - महामंत्री पेथडशाह जिन्होने ३६००० सुवर्ण-मुद्रा अर्पितकर श्रीमद् भगवतिसूत्र श्रवण का अपूर्व श्रेयः उपार्जित कीया । एक दिन का उपाश्रय मे झाडू लगाने वाला लल्लिग श्रावक ने उपाश्रय को रत्न जडित किया जिससे रात्रि में भी निर्दोष प्रकाश की प्राप्ति के बल पर कलिकालसर्वज्ञ, याकिनिमहत्तरासुनुपूज्यपाद हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराजा १४४४ ग्रन्थ सर्जन का विराट कार्य करने में सक्षम बने। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्राद्धवर्य धनजी सूरा जिन्होनें महोपाध्याय यशोविजयजी महाराजा की अनन्य प्रतिभा को पहचान कर उनके न्यायशास्रादि अध्ययन की सारी आर्थिक जिम्मेदारी लेकर जैन शासन मे हरिभद्रलघुबान्धव कलिकाल श्रुतकेवलि का सर्जन कीया । ऐसे महान् श्रुतभक्तो शत शतवंदन करते हुए हम शासनदेव से प्रार्थना करते है इस कि महाभीषण कलिकाल में भी एसे दानवीर तभक्त जन्म लेवे । आज हमें हर्प है कि हमारी संस्था वा अन्तिम पुष्प रुप ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। वह श्रुतपुष्प जै नशासन के उद्यान में यावद् चन्द्रदिवाकर महकता रहें यही शुभकामना । ___ मङ्गलशुभाशीषदाता स्याद्वादनयप्रमाणविशारद, वर्धमान तपोनिधि, गच्छाधिपति पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय भुवन मानुसूरीश्वरजी महाराजा एवं आपश्री के शिष्य प्रशिष्य पदार्थ संग्रहकार व टीकाकार आचार्य पृङ्गव प.पू. सिद्धान्त दिवाकर जयघोषसूरीश्वरजी म.सा. स्वर्गीय प.पू. आचार्य श्री धर्मजित्सूरीश्वरजी म.सा. प. पू. आ. श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. प. पू. आ. श्रीगुणरत्नसूरीश्वरजी म. सा. को हम कृतज्ञता पूर्वक शत-शत वंदना करते हैं। संपादन कार्य की सम्पूर्ण जिम्मेदारी लेकर मुनिराज श्री संयमान विजयजी महाराज ने इस महाग्रन्थ को प्रकाश में लाने के लिए अथाग प्रयास किया है अतः हम वंदना पूर्वक पूज्य श्री का आभार मानते हैं । द्रव्यमहायक श्री पूरण जैन संघ एवं श्री पोरवाल जैन संघ शिवगंजकी उदारता के लिए हम अत्यंत आभारी । साथ-साथ ज्ञानोदय प्रिंटींग प्रेस के मेनेजर शंकरदासजी की कर्तव्यनिष्ठता को भी हम भूल नहीं सकते है।। (१) पिंडवाडा भवदीयस्टे. सिरोही रोड (राज.) शा समरथमलजी रायचंदजी (मंत्री) (२) १३५/१३७जौहरी बजार शा लालचंद छगनलालजी (मंत्री) बम्बई-२ समिति का ट्रस्ट मंडल (१) शेठ रमणलाल दलमुख भाई(प्रमुख,खंभात) (६) शा लालचन्द छगनलालजी मंत्री (२) शेठ माणेकलाल चूनीलाल (बम्बई) (पिंडवाडा) (३) शेठ जीवतलाल प्रतापशी (बम्बई) (७) शेट रमणलाल वजेचन्द (अहमदाबाद) (४) शा खूबचन्द अचलदासजी (पिंडवाडा) (८) शा हिमतमल रूगनाथजी (बेडा) (५) शा समरथमल रायचन्दजी (मंत्री) (९ शेठ जेठालाल चुनीलाल घीवाले (बम्बई) (पिंडवाडा) (१०) संघवी शा जयचंदजी भबुतमलजी(पिडवाडा) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAILAULHAATRAILE ayaat Rea मूलनायकजी पूरण के संभवनाथजी भगवान ĐI COOOOOOOO VNĐ पूरण का जैन मंदिर only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जगतो यच्च वैचित्र्यं सुखदुःखादि भेदतः । कृषिसेवादिसाम्येऽपि विलक्षणफलोदयः ॥ अकस्मान्निधिलाभश्च विद्युत्पातश्च कस्यचित् । क्वचित् फलमयत्नेऽपि, यत्नेप्यफलता क्वचित् ॥ तदेततदुर्घटं दृष्टात्कारणेऽपि व्यभिचारिणः । तेनाऽदृष्टमुपेतव्यमस्य किश्चनकारणम् ॥ न्यायमञ्जरी उत्तरार्ध पृ. ४२ नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि..................महाभारत १२,२९२ कर्मणा बध्यते जन्तुः, विद्यया तु प्रमुच्यते । -उपनिषद् यथैधांसि समिद्धोऽग्नि भस्मसात् करुतेक्षणात् । ज्ञानाग्निः सर्वकम्मणि भस्मसात् कुरुते तथा । भगवत् गीता अध्याय ४ श्लोक ३६ पवन गुरु पानी पिता माता धरत महत । दिवस रात दोरा दाई दाया खेले सगल' जगत ॥ चंगयायिया बुरायायियां' वाचे धरम हुदूर। करनी आपो आपनी क्या नेडे क्या दूर ॥ जिनही नाम ध्याया गए मुसक्कत पाल । नानक ते मुख उजले कीती छुट्टी नाल ॥ -गुरु नानक १ सकल, २ अच्छाइयां, ३ बूगइयां ४ देख रहा है, ५ दूर से या अलग से, ६ नजदीक हो, ७ या दूर हो, ८ कष्ट, ह नष्ट कर गए, १० उनके मुख उजले तो हुए ही साथ छुटकारा भी हो गया। ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितोब्रह्माण्ड भाण्डोदरे, विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे । रुद्रो येन कपालपाणि पुटके भिक्षाटनं सेवते, सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे । -भतृहरि, नीतिशतक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] प्रस्तावना एको हि श्रीमान् , एको दरिद्र इति च कर्मणः, (पश्चाध्यी अ. २ श्लोक ५०) करम प्रधान विश्व करि राखा । जो करहि सो तस फल चाखा ॥ -तुलसीदासजी (रामचरित मानस से) Although Karma is really a scientific law, it was appropriated by the Asiatic religions as well as the pegin faiths of primitive Europe ............ It lived in Christain faith for five hand red yeurs after Jeasus. Than a group of the council of costantinople, banished is from the christion teaching ................been use it offended their own petty personal prejudices. Thus a little bead of foolish man .. ....have robbed the wes ofretligious belief, which, in the turo of history wheel must now be restored to the modern world for the scientifio truth that it really is, It is the duty of those who rule nations, guide thought influence educa-- tion and lead religin to make this resto ration. Truth demand in anycase but safety and survival of Western civilization imperiously demand is still more. When men learn that they cannot escupe the consequences of what they are and what they do they will be more carefull in conduct and more caution thinking, When they comprehend that hatred is sharp boomerang which not only hurts tha hated but also tbe hater they will hesitato twice and th rice before yiedling to this worst of all human sins A gound ethical life will follow naturally as a function of such understanding. '1 he west has great and quick need for the acceptance of Karma and rebirft because they make men and nations ethically self responsible as no irrational or incoherent dogma can mabe them .......... Hence the urgency of popularzing the Karma doctrines. Paul Brunton ( in teaching beyond yoga) जैन दर्शन में जिस अर्थ में कर्म शब्द प्रयुक्त होता हैं उसी अर्थ में उनसे मिलते जुलते भिन्न भिन्न दर्शन और साहित्य में अनेक शब्द प्रयुक्ते होते जैसे माया, अविद्या, प्रकृति अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य Luck inerit, sin आदि शब्दों का प्रयोग होता है । वासना शब्द बौद्ध दर्शन में उपलब्ध हैं । माया अविद्या, प्रकृति वेदान्त दर्शन में मिलता है । योग तथा सांख्य दर्शन में प्रकृति और आशय Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना शब्द माना है मीमांसक दर्शन में धर्माधर्म और अपूर्व शब्द प्रयुक्त किया है । धर्माधर्म अदृष्ट और संस्कार शब्द विशेषतया न्याय एवं वैशेषिक दर्शनो में प्रचलित हैं | Luck sin, merit, आदि शब्द पाश्चात्य दर्शन एवं साहित्य में प्रचलित है । ___ उक्त प्रमाणों के आधार पर यह एक नितान्त सत्य उभर आता है कि लगभग विश्व के सभी दर्शनों ने कर्मसिद्धान्त को मान्यता दी है । अन्य दर्शनकारों ने कर्म को सिर्फ वासना अदृष्ट आदि स्वरूप में मान्य किया है मगर जैन दर्शन ने जितना गहराइ में कर्म सिद्धान्त का विस्तृत म्वरूप बताया है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। जैन दर्शन ने कर्म को पुद्गल ( metter ) रूप मान्य करके उसके सम्बन्ध में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, संकमण, अपवर्तना उद्वर्तना, आदि बताकर उसकी सूक्ष्म प्रक्रिया को भी बताता हैं। यह एक वास्तविक सत्य है । इसलिए Zimmer mtu À The Doctrine of Karm in Jaia philoshophy at saraar ( ForWord ) में कहा हैं कि No where has physical nature of Karma bas been asserted as in Jaipism क कर्म का स्वरूप विश्व में अनन्त जीव है, ठीक उसी प्रकार अनन्त पुद्गल स्कंध भी है। वे पुद्गल स्कंध आहारक, औदारिक, तेजस, कार्मणवर्गणा आदि के नाम से पुकारे जाते हैं । कार्मणवर्गणा के पुद्गल अतिसूक्ष्म है वे अनंतानं भी इकट्ठे हो नाय तो भी सामान्य मनुष्य को दृष्टिगोचर नहीं हो सकते है जीव प्रतिममय अपने शुभाशुभ भावों के आधार पर जब उन्हें आत्मसात् करता है तब वे पुद्गल क्षीरनीरवत आत्मा से सम्बद्ध हो जाते है और उसे जैन परिभाषा में कर्म कहते है। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ जैनदर्शन कर्म की अनेक अवस्थाओं को मान्य करता है । उनको समझने के लिए हम संक्षेप में ११ भेदों में वर्गीकरण कर सकते है । वे निम्नलिखित है-- १. बंध, २ सत्ता, ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ उद्वर्तना, ६ अपवर्तना ७ संक्रमण, ८ उपशमना, ९ निधत्ति, १० निकाचना, ११ अबाधा । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ → ] १. बन्ध - आत्मा और कर्मपरमाणुओं का एकीकरण होना, अर्थात् श्रीरनीरवत् मिलन होने की प्रक्रिया | २ सत्ता-- आत्मा के साथ बद्ध कर्मों का आत्मा से संयुक्त होकर रहना । प्रस्तावना ३. उदय - कर्म का स्वफल प्रदान करने की सक्रिय अवस्था । कर्म पुद्गल अपने स्वभाव के अनुसार फल देकर क्षीण हो जाते है । ४. उदीरणा - आत्मा के प्रयत्न विशेष से निश्चित समय मर्यादा से पूर्व कर्म का उदय में खिंचकर आ जाना | ५. उद्वर्तना - आत्मा से सम्बद्ध कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को बढाना । अपवर्तना -आत्मा से बद्ध कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को घटाना । ७. संक्रमण - एक प्रकार के प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग वाले कर्मों को दूसरे प्रकार के कर्मों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश में बदल जाना । ८. उपशमना - जिस अवस्था में कर्म का उदय, उदीरणा उद्वर्तना आदि नहीं होते है । ९. निर्धाचि - उदीरणा और संक्रमण दोनों का अभाव तो होता ही हैं परन्तु इस अवस्था में उद्भवर्तना और अपवर्तना हो सकती हैं। १०. निकाचना - कर्म की वह अवस्था जिसमें उद्धर्तना अपवर्तना संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्था असंभव हो जाती है. उसे निकाचना कहते है । निकाचित कर्म को उसी रूप भोगना अनिवार्य होता है । ११. अबाधा कर्म बंध के बाद वह समय विशेष जिसमें कर्म किसी भी प्रकार का फल नहीं देता है । पूर्वधराचार्य शिवशर्मसूरीश्वरजी महाराजा का सक्षिप्त परिचय - उपशमनाकरण प्रकरण पूर्वाधराचार्य शिवशर्मंसूरीश्वरजी महाराजा ने अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के आधार पर संकलित कर्म प्रकृति ग्रन्थ का एक विभाग है । पूज्यपाद श्री की जन्म दीक्षा आदि के विषय में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है, फिर भी नन्दिसूत्र के पाठ आदि के अनुसार आगमोद्धारक पूज्यपाद देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण के पूर्ववर्ति थे । पूज्यपाद पूर्वधराचार्य संभवतः दशपूर्वंधर थे । प्राचीन बन्धशतक - संज्ञक पञ्चम कर्मग्रन्थ पूज्यपाद श्री की कृति मानी जाति है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ह | प्रस्तावना उपशमनाकरण पर प्रस्तुत प्रेमगुणा टीका का सर्जन सिद्धांतमहोदधि कर्मसाहित्य निष्णात पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद्विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा ने राजस्थान की पवित्र भूमि पिंडवाडा में जन्म लिया । पूज्यश्री को दिक्षा के लिए महासंग्राम खेलना पडा । उस जमाने में दीक्षा लेना कोई सामान्य व्यक्ति का काम नहीं था । दीक्षा के लिए पूज्यश्रीने व्यारा से सुरत तक ३४माईल तक पैदल चले और तीर्थाधिराज शत्रु जय की महामहीम पावन धरा पर उग्रविहारी, सकलागम रहस्यवेदी पूज्यपाद दानसूरीश्वरजी महाराजा के पास दीक्षा अंगीकार की । दीक्षा लेकर ५ समिति और ३ गुति इन आठ प्रवचनमाता की प्राण से भी प्यारा माना । परिणाम स्वरूप आप श्री का संयम, ब्रह्मचर्य इतना सुविशुद्ध बना कि आपश्री के वस्त्रों में भी सुगंध आती थी । पूज्यश्री का स्वाध्यायरस इतना गंभीर था कि वृद्धावस्था में मी रात्रि में कम्मपयडि जैसे गहन शास्त्रों का पुनरावर्तन करते थे, कभी-कभी रात्रि में तीर्थ स्थानों का चिंतन करते उन्हें भावभरी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते थे । 1 पूज्यपादश्री निस्पृहता की गरिमा तो हिमालय की एवरेस्ट ऊंची चोटी को भी लाइ देती थी । आचार्य पदवी के वक्त पूज्यश्री के आंख में से आंसू बहते थे । ३५० साधुओं के गच्छाधिपति होते हुए भी स्वयं के शिष्य सिर्फ १५ ही थे । मुमुक्षु पूज्य श्री के शिष्य बनने के लिए तडफते थे मगर अपने महवर्ति पूज्यपादाचार्य श्री रामचन्द्रसूरिजी महाराजा, पूज्यपाद आचार्य श्री भुवनभनुसूरीश्वरजी महाराजा आदि के शिष्य बना देते थे। ज्ञान के अगाध सागर होते हुए भी व्याख्यान नहीं देते थे । पूज्यश्री अपने कट्टर शत्रु के प्रति भी कृपा दृष्टि रखते थे । जो माधु विशेष पूज्य श्री विरुद्ध पेम्पलेट, लेख आदि लिखते एसे साधु को समाधि देने के लिए पूज्य श्री अपने साधु भेजते थे । रोग आने पर पूज्यश्री कहते थे मित्र आया है | सादा जीवन उच्च विचार (Simple life high thinking) की लोकोक्ति पूज्यश्री के जीवन में आबेहूब दृष्टि गोचर होती थी, एसी बहुमुख प्रतिभा के धनी मार्गणाद्वार, संक्रमकरण आदि बेजोड ग्रन्थों के लेखक सिद्धान्त महोदधि कर्मसाहित्यनिष्णात सुविशाल गच्छाधिपति स्वर्गीय पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा विशाल कर्मसाहित्य के निर्माण की योजना सोच रहे थे उस वक्त प्रारम्भिक नींव के रुप में प्रस्तुत टीका चुनी गई । यद्यपि उपशमना करण Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १० ] पर चूर्णि टीकाएं उपलब्ध थी , साथ साथ सप्ततिका, सप्ततिकाचूर्णि कषायप्राभृत, कषायप्राभृतचूर्णि आदि में उपशमश्रेणि अदि विषयों पर विवेचन मिलता है तथापि वह संक्षिप्त और भिन्न भिन्न प्रकरणों में विकीर्ण हैं । ___जिज्ञासु वर्ग उपशमनाकरण के पदार्थों का सरल व मुविस्तृत रूप तुलनात्मक अध्ययन से (Pomparative study ) कर सके। जेन-शासन की श्रुतनिधि में एक अमूल्य कोहिनूर स्वरूप अपूर्व शास्त्रग्रन्थ का सर्जन हो एसे परम पावन उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत टीका (Cemmentry) को चुना गया । इस भगीरथ योजना के साक्षात्कार हेतु जैनशासनकौशल्याधार सुनिहित. शिरोमणि परमश्रद्धेय पूज्यपादाचार्य देव श्रीमद्विजय प्रेमसूरिश्वरजी महाराजा ने स्वपट्टप्रद्योतक स्याद्वादनय प्रमाणविशारद वधमानतपोनिधि सुविशालगच्छाधिपति श्रीमद् विजय भुवनलानुसूरिश्वरजी महागजा (तत्कालीन पूज्यपाद पन्यासप्रवर श्री भानुविजयजी महाराजा) के मेधावी युवा शिष्यप्रशिकों को अपनी कृप रम भरी दृष्टि का निशाना बनाया। वे थे जिन शासन छिपे सितारे गुरुकृपापिपासु तकालीन परमपूज्य जयघोषविजयजी म. सा. प. पू धर्मानंदविजयजी म. सा. प. पू. हेमचन्द्रविजयजी म. सा. व मेरे पूज्यपाद गुरुदेव श्री गुणरत्न विजयजी म. सा. ( फिलहाल पूज्यपाद जयघोषसूरीश्वरजी म. सा., पूज्यपाद स्वर्गीय आ. श्री धमजित्सूरीश्वरजी म. सा., पूज्यपाद आ. श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा., पूज्यपाद आ. श्री गुणरन्नसूरीश्वरजी म. सा.) .. पूज्यपाद जयघोषसूरीश्वरादि चारों आचार्य भगत कषायप्राभृत, कषायप्राभत- चूर्णि कम्मपयडी, कम्मपयडी चूर्णि पञ्चसंग्रह, सप्ततिका आदि ग्रन्थों में से पदार्थसंग्रह करते थे । मेरे पूज्यपाद गुरुदेव श्रीमद् गुणरत्नसूरी म. सा. ५ साल के अल्प दीक्षा पर्याय में ही गहन पदार्थों को व्याकरण, न्याय. चित्र यन्त्र स्थापना आदि से सुसज्ज सरल संस्कृत भाषा में प्रेमगणाटीका का प्रारूप देते थे। प्रस्तुत प्रेमगुणा टीका की विशेषता इम टीका में कर्म प्रकृति, कषायप्राभृत, कषाय पाभूत चूर्णि, पञ्चसंग्रह, आगम विशेषावश्यक इत्यदि करीव ३५ ग्रन्थों का आधार लिया गया है। जगह-जगह पर अनेक शास्त्र पाठों का आधार लेकर श्रुतज्ञान-पिपासु की बहुमुखी प्रतिभा विकसित करने का अथाग प्रयास कीया गया है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११. पदार्थों का सामान्य विवेचन कर, इदमुक्तं भवति, इयमत्र भावना, वय ब्रुमः, इदमत्रवधेयम्, आदि पदों से गम्भीर पदार्थोंों का सरल संस्कृत भाषा में स्पष्टीकरण करने का अथाग प्रयत्न कीया गया है । प्रस्तावना क्लिष्टपदार्थों का असत् कल्पना से गणितप्रक्रिया द्वारा रहस्यार्थ प्रकटीकरण की प्रक्रिया अपनाई है | उदाहरणार्थ पृष्ठ संख्या ३३ से ३७ पर यथाप्रवृत्तकरण में प्रतिसमय अध्यवसायस्थान असंख्येयलोकाकाशप्रदेश प्रमाण होते हैं । अध्यवसायों की अनुवृत्ति यथाप्रवृत्तकरण के कण्डक प्रमाण समयों तक चलती हैं | प्रथमकण्डक के प्रथम सामायिक जघन्य विशुद्धि से द्वितीय समय की जघन्य विशुद्धि अनन्तगुण होती हैं। इस प्रकार यावत् प्रथमकण्डक के चरम समय तक समझना । उससे प्रथमकण्डक के प्रथमसमय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुण होती है । गणितप्रक्रिया में प्रथम समयवर्ति १००४ अध्यवसायो के चार खण्ड ( Group ) माने हैं (१) १ से २४८: (३) ४९९ से १५० (२) २४६ से १९८ (४) ७५१ से १००४ ( First group ) की जघन्य विशुद्धि द्वितीय कण्डक के प्रथम समयवर्ति प्रथमखण्ड १०००५ हैं । प्रथम सामायिक प्रथम खण्ड ( Group ) के प्रथम अध्यवसाय न० १ की जघन्य विशुद्धि से द्वितीयसमयवर्ति प्रथमखण्ड ( First Group ) न० २४९ अनंतगुण हैं उससे तृतीयसमय के प्रथम खण्ड ( Group ) की जघन्यविशुद्धि न० ४६९ अनंतगुण है उससे चतुर्थ समवर्ति प्रथम खण्ड ( Grou) ) की जघन्य विशुद्धि ७५१ अनंतगुण है उससे प्रथम समयवर्ति प्रथम खण्ड ( Grous) की उत्कृष्ट विशुद्धि न० १००४ अनंतगुण है " इत्यादि उससे भी द्वितीय समयवर्ति प्रथम खण्ड ( Group ) की जघन्य विशुद्धि न० १००५ अनंतगुण है । इसी प्रकार पृष्ठ संख्या ४० पर अपूर्वकरण में प्रवेश होने पर एक स्थितिघात में हजारों रसघात होते हैं । असत् कल्पना से उसके स्थान पर तीन रसघात एवं अनन्तराशि के स्थान पर दस संख्या कल्पित की गई है। अनुभागसत्ता प्रारम्भ में १००० • करोड स्पर्धक मानी गई है । एक रसघात होने पर अनन्तगुण हीन १०० करोड स्पर्धक की सत्ता बताई गई है इसी प्रकार अपूर्वकरण के अंत १० स्पर्धक की सत्ता बताई गई है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १२ ] पृष्ठसंख्या १८७ पर सरसरी नजर से विरुद्ध दिखने वाले पदार्थों को संगत करने का प्रयास किया गया है । जैसे कि उपशमनाकरण में दो आवलिका शेष रहने पर आगालविच्छेद के समय पर ही पुरुषवेद में हास्यपटक संक्रम नहीं होता है अर्थात् पुरुषवेद की पतग्रहता नष्ट होती है, परन्तु संक्रमकरण में पुरुषवेद की प्रथमस्थिति समयोन दो आवलिका शेष रहने पर पतग्रहता नष्ट होती है इस प्रकार उल्लेख है। इन दो शास्त्रपाठों का समाधान करने के लिए पूज्यपाद टीकाकार श्री ने बताया कि दो आवलिका शेष रहने पर पुरुषवेद में हास्यषटक का संक्रम नहीं होता हैं यह बात निश्चयनय से कहीं गई है कारण कि निश्चयनय क्रियाकाल और निष्ठाकाल का एकत्व मानता है, अन्यथा अतिप्रसङ्ग आ जाता है । अतः तदनुसार पुरुषवेद में व्यवच्छिद्यमान संक्रम व्यवच्छिम कहा जाता है। संक्रमकरण में समयोन दो आवलिका कहा है वह व्यवहारनय से कहा गया है क्योकि व्यवहारनय क्रियाकाल और निष्ठ काल में भेद मानता है अन्यथा क्रिया (कारण) का वैयर्थ्य सिद्ध हो जाएगा। अतः तदनुसार व्यवच्छिद्यमान १ समय बाद (Next) व्यवच्छिन्न होता हैं । इस प्रकार दोनों नय स्यावाद की दृष्टि कथश्चिद् सत्य हैं । अंत में पूज्यपाद टिकाकार श्रीने "तत्वं तु केवलिनो विदन्ति । " एसा कहकर अपनी लघुता बताई है। विशेष तो टीका का महत्व तो तद्घिषयनिष्णात ही जान सकता है क्योकि हिरे ( Diamond) की किंमत जौहरी ( Jwellar ) ही कर सकता है । प्रेमगुणा टीका का संशोधन शास्त्रविशारद, द्रव्यानुयोग विशेषज्ञ पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद् उदयमुरिश्वरजी म.सा. एवं सिद्ध न्तमहोदधि कर्ममाहित्य निष्णात पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद् प्रेमसूरिश्वरजी म. सा ने कीया । माथ-साथ पूज्यपाद जयघोषभूरीश्वरजी म.सा. धर्मजिन्सूरीश्वरजी म.सा. एवं हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने भी संशोधन कार्य में हाथ बटायां। संजोगवशात सर्वप्रथम सर्जित प्रेमगुणाटीका का प्रकाशन नहीं हो सका। पूज्यपाद श्री गुरुदेव श्री द्वारा रचित खवगसेढी, पयडिबंधो पर टीका एवं अन्य विदद्वर्य मुनिपुङ्गवों द्वारा रचित ग्रन्थ प्रकाशित हो गये । अब प्रस्तुत टीका स्वरूप अन्तिम ग्रन्थ का पूर्वाध प्रकाशित हो रहा है उसका मुझे अत्यंत हर्प है। आशीषदाता पूज्यपाद गच्छाधिपति पदार्थसंग्रहकार एवं टीकाकार महर्षियों का संक्षिप्त परिचय____ आशीर्वाददाता पूज्यपदाा सुविशालगच्छाधिपति न्यायविशारद आचार्य देव श्रीमद् विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराजा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पूज्यपादश्री का जन्म गुजरात की राजधानी अहमदाबाद के धर्मपरायण परिवार में हुआ। पूज्य श्री ने गृहस्थावस्था में G.D.A. की परीक्षा एवं दोवेकर ऑफ इंग्लेन्ड ( The Banker of England) द्वारा संचालित प्रथमपरिक्षा श्रेष्ठतम योग्यता पूर्वक उत्तीर्ण हुए । पूज्य श्री ने युवावस्था में संयम अंगीकार कर परम गुरुश्री प्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के पुनित चरणों में जीवन समर्पण किया । तप त्याग और अप्रमत्त संयम की कठोर साधना के साथ-साथ दर्शनशास्त्र ( Philosophy) का गहरा अध्ययन किया । पूज्यपादश्री की संवेग और विराग से परिपूर्ण देशना को सुनकर सैकडों भव्यात्माओं ने प्रव्रज्या को अंगीकार कीया हैं । धार्मिक शिविर, दिव्यदर्शन पत्र एवं अन्य विपुल साहित्य के माध्मय से राग, द्वेष, विषय, कषाय से संतप्त आबालवृद्ध हजारों आत्माओं के जीवन में क्षमा सहिष्णुता शान्ति और समाधि का अपूर्व दर्शन कराते हैं वो आत्माएँ की मोक्ष ओर नित्य प्रतिदिन अग्रसर होती हैं। . आज पूज्यपाद श्री साधिक द्विशत मुनिओं के गच्छाधिपति पद पर आरुढ है। एसे गौरवशाली गुरुवर को कोटी-कोटी वंदना । सिद्धान्तदिवाकर पूज्यपाद आचार्य श्री जयघोषसूरीश्वरजी म. सा. आपश्री ने वाल्यवय में ही दीक्षा अंगीकार कर पूज्यपाद गुरुदेवों के चरणों में जीवन समर्पित किया । पूज्य गुरुदेवों की कृपा बल से गहन अध्ययन किया। आपश्री आगम और कर्मसाहित्य के प्रकाण्ड विद्वान है। सैद्धान्तिक समस्या का शीघ्र सचोट समाधान करना आपश्री की महती विशेषता है मानो कि आपश्री किमी विशाल लाइब्रेरी के यान्त्रिक कम्प्यूटर न हो। वाचना आलोचना आदि के माध्यम से साधुओं को अध्ययन, अध्यापन एवं संयम में दृढ़ करने के हेतु आपश्री सर्वत्र विख्यात है । बंधविहाण विगेरे कर्ममाहित्य ग्रन्थों के मर्जन में आपश्री का महत्वपूर्ण योगदान है । विद्वान् होते हुए भी आपश्री पृज्यों के प्रति विनयशील व सरल प्रकृति के है। सहजानंदि पूज्यपाद आचाय श्री धर्मजित्सूरीश्वरजी म. सा. आपश्री कर्मसाहित्य के अगाध ज्ञानी है। सदेव आत्मस्वरूप में रमण करना, पौद्गलिक मावों से अलिप्त रहना आप श्री की विलक्षण योग्यता थी । जिनभक्ति में मस्त बन जाते थे । विहार को ५.१० कि.मी. चढाकर भी आसपास के जिनालयों के दर्शनार्थ पहोंच जाते थे। वाचनादि के माध्यम से साधुओं के ज्ञानसंयम रूपी उद्यान को सदैव सींच कर उसे विकसित रखते थे। बंधविहाण आदि कर्म साहित्य के ग्रन्थों के सर्जन में आपश्री का हेतु तर्क आदि विषयक महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं । पूज्यपाद श्री आज हमारे बीच में विद्यमान नहीं है फिर भी आप श्री की साधना अमर हैं । भव्यात्माओं को मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने के लिए सदैव प्रेरणा देती है और देती रहेगी । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] प्रस्तावना शासनप्रभावक पूज्यपाद आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. आपश्री ने युवावस्था में संयम लेकर पूज्यों के चरणों में जीवननैयाका सुकान सोपा । गुरु कृपा के बल पर स्वाध्याय संयम की साधना में आगे बढते गये। प्रारंभिक जीवन में आप की प्रज्ञा इतनी अद्भुत थी कि एक तरफ सिर पर लोच की भीषण वेदना सहते और दूसरी तरफ कम्मपति के पदार्थों का पुनरावर्तन पूर्ण कर लेते थे । आप श्री गुणानुरागी प्रकृति के है निंदाविकथा से सदैव दूर रहते है । आपश्री विराग सेभरपूर वक्तृत्व कला के धनी हैं । शारिरीक शक्ति से कमजोर होते हुए भी आत्मशक्ति के बल पर आबाल वृद्ध अनेक जीवों को आराधना के पथ पर प्रयाण कराते हैं । विहरमान तीर्थंकर सीमंधरस्वामी के अट्ठम तप की आराधना इतनी सुन्दर करते हैं कि इस भरत क्षेत्र में भी महाविदेह क्षेत्र जैसा माहोल खडा हो जाता है । आपश्री करीब १७ शिष्य प्रशिष्यों के गुरुपद पर सुशोभित है । युवक जागृति प्रेरक पूज्यपाद आचार्य श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी म. सा. पूज्यपाद श्रीने २१ वर्ष की युवावस्था में संयम स्वीकार करके पूज्यों के श्री चरणों में जीवन अर्पण कीया | परमगुरु श्री प्रेमसूरीश्वरजी म० साहेब की सेवा को ही जीवन का मूलमंत्र बनाया | अन्य दीक्षा - पर्याय में ही व्याकरण न्याय कर्मसाहित्य का अगाध अध्ययन किया । ४ वर्ष लघुपर्याय में ही विद्वद्गम्य प्रस्तुत टंका का सर्जन किया। उसके बाद स्वोपज्ञ-वृत्ति युक्त साधिक १७ हजार श्लोक प्रमाण खवग सेढी ग्रन्थ एवं करीब २० हजार श्लोक प्रमाण विहाण के पर्याङ बन्धो ग्रन्थ की टीका का आलेखन किया । आप श्री के गुरुदेव मेवाड देशोद्धारक जितेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. है (संसारी ज्येष्ठ भ्राता)। आप श्री का वैराग्य इतना प्रबल था कि अपने १४ वर्ष के पुत्र को संसारी बंधुओ को सोप कर आपश्री एवं आपश्री की धर्मपत्नी ने संयम स्वीकार कीया । १४ पूर्वधर महर्षि शय्यंभवसूरि महाराजा की "देह दुःखं महाफलम् " की उक्ति को समक्ष रखते हुए ४०० अट्टम की घोर तपश्चर्या की । मेगड भूमि पर जिनबिम्ब व जिनालय की दुःसह दशा को देखकर पूज्यश्री का हृदय कांप ऊठा अतः आपने आपत्ति के पर्वतों को लांघते हुए मेवाड की धरती पर विचरने लगे आपश्री के अथांग परिश्रम की फलश्रुति रुप शताधिक जिनालयों का जीर्णोद्धार, नवनिर्माणादि कार्य सम्पन्न हुआ | इसी प्रकार उपधान, उद्यापन, छरीपालित संघ, ज्ञान भंडारो के माध्यम से हजारों आत्माओं के हृदय में रत्नत्रय को अंकुरित कीया हैं | आपश्रीने उत्तरपयडि- रसबंध ग्रन्थ पर टीका का सर्जन व अन्य कर्मसाहित्य सम्बन्धि ग्रन्थों का संपादनादि कार्य कीया है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रस्तावना [ १५ पूज्यपाद युवक जागृति प्रेरक गुरुदेव के द्वारा लिखा हुआ खवगसेढी ग्रन्थ अपने आप में अनूठा है । अनादिसंसार में परिभ्रमण करती हुई आत्मा किस प्रकार से परमपद मोक्ष को प्राप्त करती है वह सारी प्रक्रिया इस ग्रन्थ में विस्तृत रुप से समझाई गई है। उसमें गणितानुयोग तो इतना गंभीर हैं कि अच्छे अच्छे विद्वान् भी दिङ्मुख हो जाते है । वह ग्रन्थ अमेरिका, जर्मनी आदि विदेशों में भी पहुचा । जर्मनी युनिवर्सीटि के प्रोफेसर क्लाउज वन ने निम्न प्रतिक्रिया व्यक्त कि Pro Kantra FR-3 VNIVERSITAT BERLIN SEMINAR TUR INDSCHAP ORCHE PRINR WATURE-TR. २१-१०-६८ न्य रायमानि महाराज सनरार ... ६ सय ५६ मा ५ दे। . सार मजे दोन 3. 6 - 10ो. न । 21 22 , उ न भा * - है। १५ सेनिमार से जन २. १५ में सं 1.६ न +1 ५५.न प्रशंसनीय है। *- 214 सास 11 में त । इसति ५५ + मयन्स और 4 रहे । स्त4 में न३. अन . दूला १५ हैं । इसतिनो ३५ ५५५. में विचा। 4.0 है। पनस मिल ३ सय નહિ ની પ દંત કાપ ને તો મો વન ન છે. સમર્પિત । ५ सfa का अपतन r( १८ प्र- स र पर र म | सभीन , सन. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] प्रस्तावना Y Carelu -4 4 4 र ५ - ४२५ 4 4 . infe + min71 ) र rai - fata + ktu प्रति ITIAN . 4 4./...... - Ram ... 3स [. - MAHR पूज्यश्री की अद्भुत वक्तृत्व कला व सौम्य स्वभाव पत्थर को भी पानी बना देता है। पूज्यश्री द्वारा पतिवाधित करीब ७१ पुण्यात्माओं ने संयम स्वीकार कीया है। उपधान, संघ प्रतिष्ठा, उद्यापन आदि के माध्यम से पूज्य श्री आबालवृद्ध हजारों आत्माओं के उद्धारक बने हैं। __ युवावर्ग में आध्यात्मिक उत्थान हेतु ग्रीष्मावकास में आध्यात्यिक ज्ञान शिविर व चातुमर्मास में रविवारीय शिविर का आयोजन आपश्री की निश्रा में समय-समय पर होता है । नाकोडा पार्श्वनाथ तीर्थ से आपश्री द्वारा प्रसारित पत्राचार पाठ्यक्रम आधुनिक बुद्धिजीवी वर्ग को लिए सन्मार्ग का प्रदर्शन करता है ।। तीर्थाधिराज शत्रुजय महातीर्थ की भाव यात्रा एवं भवोभव के पुद्गल विसर्जन की क्रिया कराना आपश्री महत्वपूर्ण पसंदगी है । घर बैठे अपूर्व हर्षोल्लास से आबेहूब तीर्थ यात्रा का आभास हो जाता है। पुद्गल विसर्जन प्रक्रिया से निरर्थक पाप के भार से हल्कापन अनुभव होता है। आप श्री २५ शिष्य-प्रशिष्य रूप विशाल परिवार के अग्रणी है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विषय-परिचय उपशमना के दो प्रकार है - (१) करणकृतोपशमना (२) अकरणकृतोपशमना प्रस्तुत में करणकृतोपशमना का अधिकार है । करणकृतोपशना के भी दो प्रकार है। (१) सर्वोपशमना (२) देशोपशमना । (१) सर्वोपशमना में निम्न ७ अधिकार है-- (१) प्रथम सम्यस्त्व उत्पादन (२) देशपिरति प्ररूपणा। (३), सर्वविरति प्ररूपणा । (४) अनंतानुबन्धि विसंयोजना । (५) दर्शनमोहनीय क्षपणा । (२) दर्शनमोहनीय उपशमना (७) चारित्रमोहनीय उपशमना । (१) प्रथमसम्यक्त्व उत्पादन सर्वोपशमना मोहनीयकर्म की होती है। उसके योग्य जीव पञ्चेन्द्रियत्व,संज्ञित्व,पर्याप्तत रूप तीनलब्धि अथवा उपशमन लब्धि, श्रवणलब्धि तीन करण हेतु प्रकृष्ट योगलब्धि रूप तीन लब्धि से युक्त होता है। उसकी विशुद्धि अभव्यसिद्धिक की विशुद्धि से अनंतगुण विशुद्धयमान होती है, अन्यतरसाकारोपयोग में वर्तमान, विशुद्धलेश्यावाला, आयुष्यकर्म के सिवाय मातकों की स्थिति अंत:कोटा कोटी सागरोपम करके अशुभकर्मों का द्विस्थानक व शुभकमें चतुस्थानक रस बांधता है । ध्रुवबंधि एवं आयुष्यसिवाय भवप्रायोग्य परावर्तमान शुनप्रकृति बांधता है । योग के अनुसार प्रदेशबंध जघन्य मध्यय व उत्कृष्ट तीन प्रकार का होता है । एक स्थितिबंध के बाद अगला स्थिनिबंध का पल्मोपम संख्यातमागहीन हीनतर करता है । क्रमरा यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण करके चौथी उपशन्ताद्धा को प्राप्त करता है। तीनों करणों में प्रतिसमा विशुद्धि में अनंतगुणवृद्धि होती है। प्रथम दो करणों में प्रतिममय असंख्यलोकाकाशप्रदेशप्रमाण विशुद्धिस्थान होते हैं । जघन्योत्कृष्ट विशुद्धि जानने के लिए इस प्रकार निदर्शन है--जैसे कि दो जीव एक साथ करण को प्रतिपन्न करते हैं । प्रथम की सर्वजघन्य विशुद्धि है द्वितीय की मर्वोत्कृष्ट विशुद्धि है । यथाप्रवृत्तकरण में प्रथम जीव की मजघन्य विशुद्धि से द्वितीय मभय में सर्वजघन्य विशुद्धि अनंतगुण है । इस प्रकार यथावृनकरण के संख्यातभाग पसार होने पर उससे प्रथमसमयवर्ती द्वितीय जीव की मत्कृष्ट वशुद्धि अनंतगुण । उमसे कःण के संख्यातभागोपरवर्ती प्रथम जीव की मर्वजघन्य विशुद्धि अनंतगुण है. उससे दूसरे जीव की द्वितीयसमयवर्ती उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण है, उमसे प्रथम जीव की अगले ( Nest ) समय में विशुद्धि अनंतगुण होती है । इस प्रकार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] प्रस्तावना क्रमशः अन्तिमसमयवर्ती प्रथम जीव की जघन्यविशुद्धि अनंतगुण । तत्पश्चात् द्वितीय जीव की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण, उससे अगले ( Next) समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण इस प्रकार द्वितीय जीव की यावत् अन्तिम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण ।। ___ अपूर्वकरण के प्रथमसमय की जघन्यविशुद्धि यथाप्रवृत्तकरण के समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से अनंतगुण उमसे प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण, उससे द्वितीय समय की जघन्य विशुद्धि अनंतगुण । इस प्रकार क्रमशः यथावत् अपूर्वकरण की चरम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण । अपूर्वकरण के प्रथम समय से स्थितिघात, रसघात, स्थितिबन्ध गुणश्रेणि ये चारों अधिक र युगपत् प्रारम्भ होते है। स्थितिघानमें उत्कृष्ट से अनेक सागरोषम प्रमाण स्थिति कण्डक को छेदता है व जघन्य से पल्योपमसंख्येय भाग प्रमाग स्थितिकण्डक को छेदता है । अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिघात में अशुभकर्म के अनंतानुभागों को क्षय करता है । पुनः शेष अनुभाग के अनंतानभागों का क्षय करता है । इस प्रकार एक स्थितिघात में हजारों रसधात होते हैं । हजारों स्थितिघातों से अपूर्व करण पूर्ण होता है। अपूर्वकरण के प्रारम्भ में जितनी स्थिति सत्ता है उसी से संन्या गुणहीन चरम समय में होती है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में यथाप्रवृत्तकरण चरमसमय से पन्योपमसंख्येयभागहीन अपूर्व स्थिति बन्ध होता है। इस प्रकार चरमसमय तक समझना । स्थितिबन्ध और स्थितिघात युगपत् प्रारंभ हाते हैं और युगपन समाप्त होते हैं । ___अब गुणश्रेणि का निरूपण इस प्रकार समझिये-उपर की स्थिति के पुद्गलों को ग्रहण करके उदयवती प्रकृति के पुद्गलों को उदयसमय मैं व अनुदयवती प्रकृति के पुद्गलों का उदयावलिका के उपर प्रथम समय में थोडा प्रक्षेप करता है द्वितीय समय में अमख्येय गुण इस प्रकार यावत् अन्तर्मुहुर्त । गुग श्रेणि अपूर्वकरणाद्धा अनिवृ त्तकरणाद्धा से विशेषाधिक होती हैं। प्रथमसमय में जितनी गुणश्रेणिकाल की लंबाई है वह प्रतिसमय अनुभव से हस्व होती है अतः शेष स्थिति में प्रक्षेप होता है। ____ अनिवृत्तिकरणाद्धा की यहां प्ररूपणा इस प्रकार है--अपूर्वकरण में प्रवृत्त च रों अपूर्व पदार्थ यहां मी युगपत् प्रवृत होते हैं । अनिवृत्तिकग्ण सभी जीवों का समान काल और समान विशुद्धि वाला होता है । इसलिए इस करण का अनिवृत्तिकरण नाम सार्थक है । अनिवृत्तिकरणाद्धा का एक संख्यातवां भाग बाकि रहने पर अन्तम हर्न प्रमाण स्थिति नीचे छोडकर जीव मिथ्यात्व का अन्तकरण करता है। इसका प्रमाण किश्चिन्यूनाभिनव-स्थिनिबन्धाद्धा के समान है। अन्तरकरणप्रारम्भकाल के समय में मिथ्यात्व का जघन्य स्थितिवन्ध प्रारंभ होता है वह स्थिनिबन्ध और अन्तरकरणकाल युगपत्समाप्त होते है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना । १९ अन्तरकरण करने पर गुणश्रेणि निक्षेप के अग्रभागसे उसके संख्यातभाग का खण्डन करता है। उत्कीर्यमाण दलिक प्रथम स्थिति व द्वितीयस्थिति में प्रक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तरकरण (रिक्तस्थान) हो जाता है । प्रथमस्थिति में वर्तमान प्रथमस्थितिसत्क दलिक को उदयावलिका में प्रक्षेप करता है वह उदीरणा तथा द्वितीयस्थिति के दलिक को उदयावलिका में प्रक्षेप करता है, वह आगाल कहलाता है । प्रथमस्थिति के दो आवलिका शेष रहने पर आगाल एवं एक आवलिका शेष रहने पर उदीरणा का विच्छेद होता है । मिथ्यात्व का उदय क्षीण होने पर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । मिथ्यादृष्टि जीव अपने चरमसमय में द्वितीयस्थितिगत दलिक को तीन प्रकार में विभाजन करता है-सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व । सम्यक्त्व देशघाति, मिश्र और मिथ्यात्व सर्वघाति होता है । __ औरशमिक सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथमसमय में गुणसंक्रमण से मिथ्यात्व के अल्प दलिक को सम्यक्त्व में उससे असंख्यातगुण मिश्र में संक्रम करता है । द्वितीय समय में मिश्र से सम्यक्त्व में असंख्यातगुण उसी समय में उससे असंख्यातगुण मिश्र में इसप्रकार यावत अन्तर्मुहूर्त, तत्पश्चात् विध्यातसंक्रम होता है । आयु सिवाय सात कर्मों का स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि ये तीनों गुणसंक्रम तक प्रवृत्त रहते हैं बाद में नहीं होते हैं । परन्तु मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति के एकावलिका शेष रहने तक ही स्थितिघात रसघात होते है पश्चात् नहीं होते है। प्रथमस्थिति के दो प्रावलिका शेष रहने तक मिथ्यात्व की गुणश्रेणि होती है । अन्तरकरण के प्रथमसमय से यावदन्तमुहूर्त उपशम सम्यक्त्व होता है। उपशान्ताद्धा के साधिक आवलिका शेष रहने पर जीव तीनों कर्मों के पूजों से दलिक को अन्तरकरणाद्धा के आवलिका में प्रवेश कराता है। आवलिका मात्र अन्तकरणाद्धा शेष रहने पर अध्यवसाय के अनुसार तीनों में से किसी एक प्रकार के दलिक का उदय होता है। उपशान्ताद्धा के जघन्य से १ समय उत्कृष्ट से छ. आवलिका शेष रहने पर कोई जीव सास्वादन भाव को प्राप्त करता है। सम्यग्दृष्टि गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन की नियमा श्रद्धा करता है । सम्यग्दृष्टि विशेष ज्ञान के न होने पर गुरु की आज्ञापारतन्ध्य से असत्य प्रवचन की भी श्रद्धा करता है । मिथ्यादृष्टि जीव नियमा प्रवचन की निर्मल श्रद्धा नहीं करता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] प्रस्तावना मिश्रदृष्टि को साकार अथवा अनाकार उपयोग होता है । यदि साकार उपयोग होता है तो व्यंजनावग्रह होता है अर्थावग्रह नहीं होता है क्योंकि संशयज्ञानी अव्यक्त ज्ञानी होता है। चारित्र मोहोपशामक अविरत, देशविरत अथवा सर्वविरत प्ररूपणाधिकार: चारित्रमोहोपशामक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि (श्रेणि में उपशम अथवा क्षायिक सम्यग दृष्टि) अथवा उसी के साथ तद्युक्त देशयति अथवा सर्वविरत साधु होता है । वह जीव विशुद्वयमान होना चाहिये। अविरत-व्रत को नहीं जानता, नहीं ग्रहण करना, नहीं सावध व्यापार का त्याग करता इत्यादि आठ भङ्गो में से प्रथम सात भङ्गो में अविरत होता है। जघन्य से एक अणुव्रत को भी ग्रहण करने वाला देश विति कहलाता है । सर्वसावद्य योगों को तिविहतिविहेण त्याग करने वाला सर्व विरत कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व के बाद में देशविरति अादि प्राप्त करने वाला देशविरति अथवा सर्वविरति प्रापक पूवित प्रथम दो करण करता है सिर्फ अपूर्वकरण में गुणश्रेणि नहीं करता है। अपूट करण पूर्ण होने पर देशविरति अथवा सर्वविरति की प्राप्ति होती है। तब उदयावलिका के ऊपर अन्तमुहर्त तक नियमा गुणश्रेणि करता है। उसके बाद भजना है। अनाभोग से परिणाम-ह स होने पर पतित देशविरत अथवा सर्वविरत करण कीये बिना देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त करता है । आभोग पूर्वक पतित तो करण करके ही उक्त दो गुणस्थानक को प्राप्त करता है । यावत् परिणामानुसार हानिवृद्ध अथवा अवस्थित गुणश्रेणि करता है। अनंतानुबंधि विसयोजना अधिकार-चारों गति के पर्याप्ता यथासंभव असत, देशविरत अथवा सर्वविरत अनंतानुबंधि कषाय का विनाश करते है । पूर्ववत् यहां पर भी तीनों करण होते है, सिर्फ अंतरकरण और उपशम नहीं करता है । अनिवृत्ति करण में वर्तमान उद्वलना संक्रम से अनंतानुबंधि को सम्पूर्ण विनाश करता है। दर्शनमोहक्षपणाऽधिकारअनंतानुवंधि विसंयोजना की तरह यहां दर्शन-मोह क्षपणा समझना । दर्शनमोहअपणा का प्रस्थापक जिनकालसंभवी ८ वर्ष से ज्यादा उम्र वाला मनुष्य होता है । अपूर्वकरण के प्रथम समय से मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का गुणसंक्रम और उद्वलना Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [२१ संक्रम होता है । अपूर्वकरण के प्रारंभ में जितनी स्थिति थी उससे संख्यातभाग प्रमाण स्थिति अंत में रहती है। इसी प्रकार स्थितिबंध भी समझना। तत्पश्चात् अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है । वहां भी स्थितिघातादि पूर्ववत् प्रवृत्त रहते है। दृष्टित्रिक देशोपशमना निधत्ति निकाचना रहित होती है । स्थितिसत्ता क्रमश असंज्ञीपंचेन्द्रिय चतुरिन्द्रियादि तुल्य होती है। प्रत्येक अंतर में हजारों स्थितिघात होते हैं । क्रमशः दर्शन मोहनीय की सत्ता पल्योपम के संख्यात भाग प्रमाण होती हैं । तत्पश्चात् पल्योपम के संख्यातभाग, संख्यातभाग प्रमाण स्थितिघात प्रतिसमय करता है। हजारों स्थितिघात होने पर मिथ्यात्य के असंख्यातभाग और सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय के संख्यातमाग का घात करता है । इस प्रकार बहुत स्थितिघात होने पर उदयानलिकारहित समस्त मिथ्यात्व का घात हो जाता है। तदनंतर मिश्रमोहनीय के असंख्यातभाग का नाश करता है । बहुत स्थितिघात के बाद उदयावलिका रहित समस्त मिश्रपोहलीय के दलिक को सम्यक्त्वमोहनीय के दलिक में प्रक्षेप करता है । उस वक्त सम्यक्त्वमोहनीय की स्थिति आठ वर्ष रहती है । निश्चयनय से वहां से ही दर्शनमोह का क्षपक कहलाता है । यहां से अन्तमुहर्त प्रमाण सम्यक्त्व मोहनीय के स्थितिखण्ड का उत्कीरण कर उदय समय से लेकर गुणश्रेणि सिर तक असंख्यगुण, असंख्यगुण प्रक्षेप करता है । तत्पश्चात् विशेषहीन विशेषहीन यावत् चरमस्थिति । पूर्व पूर्व से असंख्यगुण असंख्यगुण दलिक का उन्किरण करता है । द्विचरम से चरमखंड संख्यात गुण उत्किरण करता है । चरमखण्ड का घात करता हुआ गुणश्रेणि के संख्यातभाग और अन्य संख्यातगुण स्थिति का घात करता है। उसका प्रक्षेप उदय समय से गुणश्रेणि सिर तक असंख्यातगुण, असंख्यातगुण प्रक्षेप करता है उसके उपर उत्कीर्ण खण्ड ही होता है अत: वहां प्रक्षेप नहीं होता है । उस वक्त जीव कृतकरण कहलाता है । वहाँ पर जीव काल करे तो चारों गति में जा सकता है। वहां शेष दलिक को वेदन कर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । वह शायिक सम्यगदृष्टि जीव उमी भव में , तीसरे भव में अथवा चौथे भव में मोक्ष में जाता है। दर्शनमोहोपशमनाऽधिकार उपशमश्रेणि आरोहक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि यदि क्षायिक समकित प्राप्त नहीं करता है तो वह अवश्यमेव दर्शनत्रिक की पूर्ववत् उपशमना करता है । विशेष यह है कि अनुदित मिथ्यात्व मिश्र की आवलिकाप्रमाण प्रधमस्थिति होती है। उदित सम्यक्त्व मोहनीय की प्रथमस्थिति अन्तमुहूर्त प्रमाण होती है । उत्कीर्य माण दलिक को सम्यक्त्वमोहनीय की प्रथमस्थिति में ही प्रक्षेप करता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] प्रस्तावना আৰিমাহীন।শিক্ষা सक्लेशविशोधिवशात् प्रमत्ताऽप्रमत्तभाव में हजारों व.र परावर्तन कर, चारित्रमोहोपशमना के लिए यथाप्रवृत्तादि तीन करण करता हैं । वे पूर्ववत् समझना, किन्तु तीसरे अनिवृत्तिकरण में निम्नलिखित विशेष है अनिवृत्तिकरण के प्रथमसमय में आयु सिवाय सात कर्मों की सत्ता अन्तःसागरोपमकोटिकोटिप्रमाण होती हैं। अंतः सागरोपमकोटि प्रमाण बन्ध पल्योपमसंख्यातभागन्यन न्यूनतर होता है । अल्पबहुत्व पूर्वक्रम से समझना । अनिवृत्तिकरणाद्धा के प्रथम समय से ही देशोपशमना, निधत्ति, निकाचना करणों का विच्छेद होता है । स्थितिबन्ध सागरोपमसहस्रपृथक्त्वप्रमाण होता हैं। उसके बाद अनिवृत्तिकरणाद्धा के संख्यातमाग, संख्यातभाग जाने पर क्रमशः असंज्ञिपञ्चेन्द्रियादि तुल्य स्थितिबन्ध होता है। इस प्रकार यावत एकेन्द्रिय तुन्य स्थितिबंध होता है। उसके बाद हजारों स्थितिबन्ध पसार होने पर नामगोत्र कर्य का पल्योपमस्थितिक, ज्ञानावरण दर्शनावरण वेदनीय अंतराय इन चारों का १: पल्योपम प्रमाण और मोहनीयकर्म का २पन्योपस्थितिक बंध होता है । इस प्रकार क्रमशः यावत् मोहनीय कर्म का एक पल्योपम प्रमाणस्थितिबन्ध होता है तब मोहनीय सिवाय कर्मों का पल्योपम संख्येयभाग प्रमाण बन्ध होता है । वहां अम्पबहुत्व इस प्रकार होता हे सर्वेस्तोक नामगोत्र, ज्ञानावरणादि ४ कर्मों का है असंख्यातगुण, मोहनीय कर्म का संख्यातगुण । उसके बाद हजारों स्थितिबन्ध पसार होने पर ज्ञानावरणादि ३ और अन्तराय का स्थितिबन्ध असंख्यातगुण तब स्थितिसत्कम अपेक्षा से अल्पबहुत्व इस प्रकार होता हैनामगोत्र कम सर्वस्तोक, ज्ञानावरणादि ४ का असंख्यातगुण, उससे मोहनीय का संख्यात. गुण । - उसके बाद हजारो स्थितिबन्ध पसार होने पर एक प्रहार से ही ज्ञानावरणादि ४ से मोहनीय असंख्यातगुण हीन बन जाता है। स्थितिसत्ता का अल्पबहुत्व इस प्रकार होगा-सर्वसोक नामगोत्र कर्म, मोहनीय कर्म का असंख्यातगुण उससे ज्ञानावरणादि ४ का असंख्यातगुण । उसके बाद हजारों स्थितिवन्ध पसार होने पर एक प्रहार से ही नाम गोत्र से कम मोहनीय का स्थितिबन्ध होता है । अल्पवहुत्व इस प्रकार होगा सर्वस्तीक मोहनीय का स्थितिबन्ध, नामगोत्र का असंख्यातगुण, ज्ञानावरणादि ४ का असंख्यातगुण । इस प्रकार हजारों स्थितिबन्ध पसार होने पर तृतीय वेदनीय कर्म सर्वोपरि हो जाता है । अल्एबहुत्व इस प्रकार होगा सर्वस्तोक मोहनीय, नामगोत्र असंख्यातगुण, ज्ञानावरणादि ३ असंख्यातगुण, वेदनीय असंख्यातगुण । उक्त अल्पबहुत्व विधि से संख्यात हजार स्थितिबन्ध पसार होने Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ पर ज्ञानावरणादि ३ से ऊपर नामगोत्र की स्थिति हो जाएगी । वहाँ अल्पबहुत्व इस प्रकार होगा सर्वस्तोक मोहनीय, ज्ञानावरणादि ३ असंख्यात गुण, नामगोत्र असंख्यातगुण, वेदनीय विशेषाधिक । जिस काल में सभी कर्मों का पल्योपम असंख्येयभाग स्थितिबंध होता है उस वक्त असंख्येयममयप्रबद्ध कर्मों की उदीरणा होती है । दानांतराय और मनः पर्यवज्ञानावरण का देशघाति रसबन्ध होता है । तत्पश्चात् संख्यात हजार स्थितिबन्ध गुजरने पर अवधिद्विक लामांतराय का देशघातिर यंत्र होता है । उसके बाद संख्यात हजार स्थिति बंध होने पर श्रुतज्ञानावरण, प्रचञ्जु दर्शनावरण, भोगांतराय का देशघाति रसबंध होता है । उसके बाद संख्यातहजार स्थितिबन्ध जाने पर चक्षुदर्शनावरण का देशघाति रस बंध करता है । तदनंतर संख्यातहजार स्थिति जाने पर मतिज्ञानादरण परिभोगांतराय का देशघाति अनुभाग बंध करता है । वहां से संख्यात हजार स्थितिबंध निकल जाने पर वीर्या तराय का देशघाति अनुभाग बंध करता है । क्षपकश्रेणि अथवा उपशमश्रण को अप्राप्त उक्त दानांतरादि का सर्वघाति अनुभाग बंध करता है । वीतराय के देशघाति अनुभागबंध करने के पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबंध जाने पर संगमघाति १२ कषाय ( अनंतानुबंधि सिवाय) ६ नोकषाय इन २१ प्रकृतियों का अंतरकरण करता है । चार सज्वलन कषाय में से अन्यतम कषाय और ३ वेद में से अन्यतम वेद की स्वोदय काल समान प्रथमस्थिति होती है। शेष कषाय और नोकषाय की प्रथमस्थिति आवलिका प्रमाण होती है । अंतरकरण करने पर द्वितीय समय में निम्न सात १. पुरुषवेद व संज्वलन कषाय का आनुपूर्वी संक्रम | २. संज्वलनलोम का संक्रमाऽभाव । 11 ३. बध्यमान प्रकृतियों का छ आवलिका अतिक्रान्त होने पर ही उदीरणा । ४. मोहनीय कर्म का एकस्थानक रसबंध | ५. संख्येयवार्षिक स्थितिबंध | उदयोदीरणा । "" 19 ७. मोहनीय के संख्येयवार्षिक स्थितिबन्ध होने के बाद अन्य अन्य स्थितिबन्ध पूर्व पूर्व से संख्यातगुणहीन । शेष कर्मों का असंख्येयगुणहीन स्थितिबंध | अन्तरकरण होने पर द्वितीय समय से असंख्येयगुण, असंख्येयगुण के क्रम से उपशम होता है । उसमें नपुंसकवेद के उपशान्त होने पर जीव पूर्वोक्त क्रम से स्त्रीवेद की उपशमना प्रस्तावना 11 अधिकार युगपत् प्रवृत्त होते हैं 19 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २४ ] प्रारम्भ करता है। उपशमनाद्धा के संख्यात माग पपार होने पर ज्ञानावरण दर्शनावरणान्तराय का संख्येयवर्षप्रमाण स्थितिबंध होता है। यहां से आगे ज्ञानावरणादि ३ के स्थितिबंध संख्यातगुणहीन होते है । जिस वक्त ज्ञानावरणादि ३ घातिकर्मों का संख्यातवर्ष प्रमाण स्थितिबन्ध होता है । उसी वक्त केवलज्ञानदर्शनावरण व शेष ज्ञानदर्शनावरण कर्मों का एक स्थानिक रस बन्ध होता है । वहाँ से संख्यातहजार स्थितिवन्ध व्यतीत होने पर स्त्रीवेद उपशान्त होता है। उसके बाद शेष सात नोकषाय की उपशमना जीव प्रारंभ करता है। पूर्वोक्त प्रकार से उपशमनाद्धा के संख्यातभाग व्यतीत होने पर नाम गोत्र कर्म का संख्यात वार्षिक स्थिति बन्ध होता हे । वेदनीय का असंख्येयवार्षिक स्थितिवन्ध होता है । वह स्थितिबन्ध पूर्ण होने पर द्वितीय स्थितिबन्ध वेदनीय का संख्येयवार्षिक स्थितिवन्ध होता है। वहां से संख्यातइजार स्थितिबन्ध व्यतीत होने पर सात नोकषाय उपशान्त हो जाते है। लेकिन जिस समय छ नोकषाय उपशान्त हुए उस समय पुरुषवेद की एक समय प्रमाण स्थिति शेष रहती है। और समयोन दो आधलिका काल में बद्ध दलिक अनुपशान्त रहता है, उसे उतने समय में जीव उपशम करता हैं। जिस वक्त जीव अवेदक होता है उस वक्त अपत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संजलन क्रोध इन तीनों प्रकार के कर्मों का उपशमन करता है। शेष मानादि तीन कषाय का भी इसी प्रकार उपशमन काना है । संज्वलन कषाय की उपशमना पुरुष वेद के समान जानना । परन्तु प्रथम स्थिति एक वलिका अधिक होती है। संज्वलनलोम की प्रथम स्थिति के दो तृतीय भागप्रमाण प्रथम स्थिति करता है । दो तृतीयांश भाग में द्वितीय स्थिति से दलिक को ग्रहण कर डालता है। प्रथम तृतीयभाग अश्वक करणाद्धा, दूसरा किट्टीकरणाद्धा और तीसरा भाग किट्टीवेदनाद्धा कहलाता है । किट्टिकरणाद्धा में प्रतिसमय गणना से असंख्य गुण. हीन क्रम से किट्टि होती है । उससे विपरीत दलिक में समझना । प्रथम पमयकृत किट्टियों का अनुभाग क्रमशः अनंतगुण अनंतगुण होता है । मोहनीय कर्म संज्वलन कषाय के ४ मास प्रमाण स्थितिबंध होने पर स्थितिबंध के संख्यातगुणहीन क्रमशः समझना । इस प्रकार से यावत् किट्टीकरणाद्धा के प्रथम समय में दिवसपृथक्त्व प्रमाण स्थितिबंध होता है । किट्टिकरणाद्धा के संख्यातभाग जाने पर संज्वलन लोभ का स्थितिबंध अन्तम हत प्रमाण होता है । तीन घातिकर्म का दिनपृथक्त्व एवं नामगोत्र का वर्षमहस्पृथक्त्व स्थितिबंध होता है । परम किट्टिकरण द्धा के चरम समय में संज्वलनलोभ का चरमस्थि तांध अन्तमूहर्त प्रमाण होता है। शेष धाति कर्म का होगति प्रमाण और नामगोत्र कर्म दो वर्ष Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना [ २५ के अन्तर्गत होता है । उस वक्त समयोनावलिकाद्विकबद्ध एवं किट्टिकरणाद्धा की एकावलिका अनुपशान्त होता है शेष सर्वदलिक उपशान्त होता है । अगले समय जीव सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक को प्राप्त करता है पहले की हुई किट्टि द्वितीयस्थिति से खींच कर सूक्ष्मसंपरायद्धा के तुल्य करता है। तथा प्रथम और अन्तिमसमयकृत किट्टीयों को असंख्यभाग छोडकर शेष किट्टि की उदीरणा करता है । द्वितीय समय में उदयप्राप्त किट्टीओं का असंख्यभाग उपशान्त होने से उदय में जीव नहीं देता है और अपूर्व असंख्यभाग उदीरणा करण से ग्रहण करता हैं । इस प्रकार सूक्ष्मसंपराय के चरमसमय तक समझना। द्वितीयस्थितिगत दलिक को भी पूर्ववद् उपशम करता है । उसके बाद उपशान्तमोह गुणस्थानक प्राप्त करता है। ___उपशांतमोहगुणस्थानक पर उपशान्ताद्धा के संख्यातभागप्रमाण गुणश्रेणि की रचना करता है । वह गुगश्रेणि सम्पूर्ण उपशान्ताद्धा तक प्रदेश और काल की अपेक्षा समान रहती है । उपशान्ताद्धा करण रहित होती है परन्तु दृष्टित्रिक में संक्रमण व अपवर्तना होती है । जिस विधि से आरूढ होता है, उसी विधि से प्रमत्त गुणस्थानक तक उतरता है। उसमें विशेष इस प्रकार अन्तर है कि उतरता हुआ जीव द्वितीय स्थिति से दलिक ग्रहण कर प्रथमस्थिति करता है और उदयादि स्थिति में प्रक्षेप करता है । प्रक्षेप में प्रथमसमय में ज्यादा द्वितीयसमय में विशेषहीन विशेषहीन यावत् आवलिका आवलिका के उपर असंख्यगुण असंख्यगुण गुणश्रेणि के क्रम से प्रक्षेप समझना । यह क्रम वेद्यमान प्रकृतियों का समझना । अवेद्यमान प्रकृति का तो आवलिका के बाहर ही गुणश्रेणि का क्रम समझना । अवरोह को आनुपूर्वी सक्रम नहीं होता है । छ आवलिका के बाद उदीरणा होना वह भी नहीं होता है । वेद्यमान संज्वलनाद्धा से अधिक शेष मोहनीय प्रकृतियों की गुणश्रेणि अधिक होती है, तथा जिस संज्वलन से श्रेणि को प्रतिपन्न हुआ उस कषाय का उदय होने पर उसकी गुणश्रेणि शेषकर्म सदृश होती है। झपक, उपशमक अवरोहक को अशुभकर्मों का स्थितिबंध क्रमशः दुगना दुगुना बंध होता है और अनुभाग अनंतगुण अनंतगुण अधिक होता हैं । शुभ प्रकृतियों का उक्त प्रमाण से विपरीत क्रम होता है । उपशमनाद्धा में वर्तमान जीव काल करता है, वह अवश्य देव बनता है। क्योंकि शेष नोन बद्धायु कर्म वाला श्रेणि आरोहण नहीं करता है, बन्धनादिकरण आरोहक जहां जहां व्यवच्छिन्न करता है । अवरोहक वहाँ वहाँ उन करणों को उद्घ टित करता है। एक भव में उत्कृष्ट से दो बार श्रेणि का आरोहण होता है । उपरोक्त क्रम पुरुषवेद से उपशमश्रेणि प्रतिपन्न का है । लेकिन स्त्रीवेद से प्रतिपन्न जीव प्रथमस्थिति की एक उदयस्थिति को छोड़कर शेष सर्व स्त्रीवेद उपशांत हो जाता है । अवेदक होकर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६) प्रस्तावना सात प्रकृतियों को युगपदुपशान्त करता है । शेष पुरुषवेद की तरह समझना। तथा नपुसकवेदी जीव एक उदयस्थिति को छोडकर युगपत् नपुसकवेद और स्त्रीवेद का उपशमन करता है। क्रमशः प्रारम्भ होने पर स्त्रीवेद अथवा पुरूपवेद से उपशमश्रेणि' को प्रतिपद्यमान जिस स्थान पर नपुसक वेद का उपशमन करता है वहां तक नपुसकवेद से श्रेणि प्रतिपन्न केवल नपुसकवेद को उपशमन करता है । उसके बाद नपुंसक और स्त्री दोनों वेदों का उपशमन करता है । जिस वक्त स्त्रीवेद उपशान्त हो जाता है उस वक्त नसकवेद की केवल एक समय मात्रोदयस्थिति रहती है। उसके पसार होने पर अवेदक होकर सातों प्रकृतियों को युगपदुपशम करता है। उसके बाद पुरूपवेद की उपशमना सनझना । इस प्रकार उपशमनाकरण भावा-१ (सर्वोपशमनाधिकार) का संक्षिप्त विषय परिचय सम्पूर्ण होता है। उपशमनाकरण भाग-२ (देशोपशमनाधिकार) भविष्य में शीघ्र संपादित करने की तमन्ना है ।। प्रस्तुत प्रेमगुणा टीका का संपादन मेरे द्वारा हुआ है उसमें गीतार्थ शिरोमणि, सिद्धांत दिवाकर पूज्यपादाचार्य देव श्रीमद् जयघोषसूरीश्वरजी महाराजा की प्रबल प्रेरणा व अध्ययन संपादनादि कार्य में सफल मार्गदर्शक, इस टीका के रचयिता, भवोदधितारक, पूज्यपाद गुरुदेव आचार्य प्रवर श्री गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजा की असीमकृपा से।। जिन शासन में यद्यपि मोक्षमार्गोपयोगी लोक भाषा (Public Ianguago) में बहुत साहित्य छपता है, वह अल्प समय तक ही उपयोगी सिद्ध होता है, परन्तु प्राकृत-संस्कृत भाषा मे लिखा हुआ साहित्य तो चिरकाल तक अमरकृति बन जाता है। आज मुझे अत्यंत हर्प है कि मेरा लगभग ५ सालों का प्रयत्न साकार हो रहा है । शासन के अमुल्य खजाने मे एक कोहिनूर हीरे की अभिवृद्धि हो रही है । मुझे मृत्यु के वक्त भी एक आनंद रहेगा कि जिस तारणहार जनशासन ने मुझे मुक्ति मार्ग के ऊंचे स्तर तक पहोंचाया उसके प्रति कृतज्ञ-भाव के रूप मे यत्किञ्चत् वफादारी में निभा सका हूँ। परम पिता परमेश्वर से मेरी यहीं प्रार्थना है कि 'उहिए नो पमाए" इस आगभिक उद्बोधन को पाकर मेरे द्वारा श्रुतभक्ति के ऐसे सुकृत पुनःपुनः होते रहें । इस अभिलाषा के साथ........। संपादन, प्रस्तावना लेखन आदि कार्य मे जिनाज्ञा विरुद्ध अथवा ग्रन्थकार, टीकाकार आदि के आशय से अनभिमत कोई भी कार्य हुआ हो तो उसके लिए क्षमा-याचना चाहता हूँ। श्री प्रेममूरीश्वरजी गुरुमंदिर पिंडवाडा लि. वि.स २०४८चैत्र सुद ७, गुरुवार युवक जागृतिप्रेरक पूज्यपाद गुरुदेव दिनांक 8 अप्रल १९६२ आचार्य प्रवर श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी महाराजापादपद्मरेणु मुनि सयमरत्नविजय. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानकमणिका No 15 2 . W विषया: मङ्गलाचरणादि चतुर्दशपूर्ववर्णनम् उपशमनाया व विध्यम् औपशमिकसम्यक्त्वाधिकारः योग्यतालक्षणपूर्वभूमिका नारकादीनां प्रतिबन्धः स्थित्यादीनां बन्धः नरकगता उदयः सुरस्योदयः मनुप्यस्योदयः प्रकृतिसत्ता स्थित्यादीनां सत्ता यथाप्रवृत्तकरणाधिकार: स्थितिबन्धादयः अध्यवसायानां तीव्रतामन्यते प्रनुकृष्टिः अध्यवसायस्थानानि अपूर्वकरणाधिकार प्रध्यवसायस्थानप्ररूपणा तीव्रतामन्दते स्थितिघातरसघातश्च अपूर्वस्थितिबन्धाद्धा गुणश्रेणिः अपवर्तना अनिवृतिकरणाधिकारः अध्यवसागरिशोधि: अन्तरकरणम् उपशमसम्यक्त्वप्राप्तिः मिथ्यात्वस्य त्रिपुञ्जकरणम् गुणसंक्रमः विध्यात संक्रमः उपशान्ताद्धाया अन्त उदय: पृष्ठाङ्काः । बिषयः पृष्ठाङ्काः सास्वादनस्य प्रतिपत्तिः २-३ सम्यग्दृष्टे: स्वरूपम् मिथ्यारष्टे: स्वरूपम् कालमाश्रित्याऽल्पबहुत्वम् चारित्रमोहोरशमकाऽविरस्यादित्रयाणां स्वरूपम प्रकरणानां देशविरत्यादि प्राप्तिक्रमः ८५ देशविरतौ (१) अल्पबहुत्वप्ररूपरणा (२) स्वामित्वप्ररूपणा (३) स्थानप्ररूपणा (४) तीव्रमन्दताप्ररूपणा सर्वविरग (१) अल्पबहत्वप्ररूपणा (२-३) स्वामित्वप्ररूपणा स्थानप्ररूपणा च (४) तीवमन्दताप्ररूपणा (५) स्थानप्ररूपणा अनंतानुगंधिसंयोजनाधिकारः विसंयोजकाः यथाप्रवृत्तादिकरणत्रयश्च १०५ अनन्तानुबन्धिनामुपशमना १११ क्षायिकसम्यक्त्वप्रतिपत्यधिकारः क्षपणाप्रस्थापकः अपूर्वकरणे स्थितिसत्त्वादय: ११५ अनिवत्तिकरगो स्थितिसत्त्वादय १२० क्षायिकसम्य वत्बप्राप्तिः १४१ कतिभवेषु मोक्षगमनम् अनुभागखण्डोत्कीर्णाऽऽद्धादिनी कालतोऽल्पबहुत्वम् १४७ दर्शनत्रिकोपशमनाधिकारः उपशामक: १५३ अपूर्वकरणे स्थितिघातादयः १५३ ६५ । अंतरकरणप्ररूणा १५६ Amwom Cowww 2000 ७०००० 2010. ११४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] विषयानुक्रमणिका पृष्ठाङ्काः २१६ १५८ १५६ २२५ १६१ १६२ १७२ १७६ विषया: चारित्रमोहोपशमनाधिकारः यथाप्रवृत्त करणादयः अपूर्वकरणगुणस्थाने स्थितिघातादयः अनिवृत्तिकरणे स्थितिबन्ध सत्ता च बन्धसत्तयोरल्पबहुत्वम् । असंख्येयप्रबद्धोदीरणादयः संयमघातिप्रकृतीनामन्तरकरणम् दलिकप्रक्षेपविधिः अन्तरकरणकृते सप्तपदार्थाः नसकवेदोपशमना स्त्रीवेदोपशमना हास्यषटकपुरुषवेदोपशमना क्रोधस्योपशमना मानमायोपशमना अश्वकर्णकरणाद्धा किट्रिकरणाद्धा किट्टिवेदनाद्धा उपशान्तमोहगुणस्थानकवक्तब्यता प्रतिपातः अन्तरकरणे दलप्रक्षेपविधिः विषया: पृष्ठाङ्क: स्थित्यनुभागबन्धश्च सूक्ष्मसंपराये किट्ट रुदयः २२१ संज्वलनमायामानानुपशमना २२३ क्रोधवेदकाद्धा पुरुषवेदोदयः २२६ स्त्रीवेदोदयः २२७ नपुंसकवेदोदय: २२८ प्रपूर्वकरणयथाप्रवृत्तकरणे २३३ आसास्वादनं प्रतिपातः २३४ स्त्रीनपुसकवेदोदय विशिष्टस्य प्रक्रिया विशेष:२३६ संज्वलनमानमायालोभोदयेनारूढाव रोहरणस्य प्रक्रियाविशेषः २३७ पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधोदयेनारूढस्याऽपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य चरमसमयपर्यन्त संभाव्यमानानामष्टानवतिपदानामल्प बहुत्वम् २४२ प्रशस्तिः २५६ परिशिष्टानि २६४ शुद्धिपत्रकम २६६ १५० १८२ १८३ १९२ १९५ १६९ २०५ २११ २१४ २१६ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊ अहं नमः । श्रोशंखेश्वरपार्श्वनाथो विजवतेतमाम् ।। सिद्धान्तमहोदधि-श्रीमद्विजयप्रमसूरीश्रेभ्यो नमः । श्रीमत्तपोगच्छगगनाङ्गणदिनमणि-सुविहितविशालगच्छाधिपतिसिद्धान्तमहोदधि-सच्चारित्रचुडामणि-कर्मशास्त्रनिष्णात-प्रात:म्मरणीयाचार्यशिरोमणि-श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरा. न्तेवापिस्याद्वादनयप्रमाणविशारदाचार्यदेवश्रीमद्विजयभुवनभानुसूरीश्वर-शिष्य प्रशिष्य-सिद्धान्तदिवाकराचार्यदेवश्रीमद् विजयजयघोषसूरीश्वर-धर्मजित्सूरीश्वरहेमचन्द्रसूरीश्वर-गुणरत्नसूरीश्वर-संगृहीतपदार्थकया मेवाडदेशोद्धारकाचार्यदेवश्रीमद्विजयजितेन्द्रसूरीश्वरान्तिपदाचार्यदेवश्रीविजयगुणरत्नसूरीश्वरविरचितया प्रेमगुणाख्यवृत्त्या विभूषितं श्रीपूर्वधराचार्यदेवश्री शिवशर्मसूरीश्वरसंदृब्धं कर्मप्रकतिगतमुपशमनाकरणम् श्रेयो दिशतु वः पार्थः शङ्केश्वरपुराधिपः। यस्याऽचिन्त्यप्रभावोऽत्र कलिकाले विजृम्भते॥१॥ कर्मपङ्कविनिमुक्ता लोकालोकविलोकिनः । लोकन्ते सर्ववस्तूनि सिद्धाः पुनन्तु मां जडम् ॥२॥ नमामि शिवशर्माणं कर्मशास्त्रविशारदम् । येन विरचितं शास्त्र कर्मप्रकृतिनामकम् ॥३॥ प्रणम्य तानभिनौमि निष्णातान् कर्मशास्त्रे विशेषतः । सुशासनधुरा येः समोह्यत प्रेममूरिभिः॥४॥ प्रणम्य गुरुवर्यादीन् स्मृत्वा च श्रुतदैवतम् । मयोपशमनानामकरणं वय॑ते मुदा ॥५॥ कर्मसाहित्यवारिधिनदीष्णा भारतवर्षविद्याचञ्चवो भवाऽब्धिमज्जत् त्रिभुवनजनपोतायमानाः सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्ररत्नत्रयरक्षणकपगयणा अनेकवालयुववृद्धानां संयमपथे प्रेग्का अज्ञाननिभिरदिवाकरायमाणाश्चतुर्विधसंघचकोर चन्द्रायमाणाः कुसुमशरोन्मीलितनेत्रशंभवः सुहृदयमै द्वान्तिकचक्रवर्तिनः कन्दर्पोत्पन्नतापशिशिगयमाणा विषयोत्पन्नतीव्रीष्मम लिलायभाना मनमानसमत्तमयूरप्रावृषेण्यधनघनायमाना अनूचानसंक्रन्दनाः पियूषवाचः प्रातःस्मरणीयाः पूज्याः सिद्धान्तमहोदधयः आचार्यदेवाः श्री प्रेमसूरीश्वरा मयि सुप्रसन्ना भवन्तु । ., शक्तिविकला अपि जना गुरुकृपया दुष्कराणां कार्याणां पारं यान्ति इत्येव श्रद्धया मयाऽस्मिन् ग्रन्थे प्रयत्यते । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] उपशमनाकरणम् क्व चेदं दुष्करं कार्यं क्वच्हं जडमतिर्लघुः । तथाऽपि श्रद्धामुग्धस्य प्रवृत्तौ मे गुरुकृपा ॥१॥ इह खल्वनादिकालप्रवाहतः कर्मसलिलसंभृते जन्मजरामरणतरङ्गभङ्गतरङ्गित इष्टाऽनिष्टत्रियोगसंयोगमच्छकच्छपसङ्कुलेऽपारे संसारपारावारे संसरता मेदयुगीन मव्यप्राणिनां निर्वाणाऽनन्यकारणीभूतं द्वादशाङ्गीनिस्यन्दभूतमिदं प्रकरणं कुमतिप्रक्षोदनसमर्थैधर्यधनैः कोविदकुलचमत्कारकृवैदुष्यवैभवशालिभिर्भगवद्भिः शिवशर्मसूरिभिः समुद्धृतं श्रुतसागरात् । तत्र श्रुतं द्विविधम्-अङ्गप्रविष्टमनङ्गप्रविष्टम् । अङ्गप्रविष्टं द्व दशभेदमा चारङ्गप्रभृतिभेदात् । तत्र द्वादशम दृष्टिवादः । स पञ्चविधः परिकर्मसूत्रप्रथमानुयोगपूर्वगतचूलिकाभेदात् । तत्र पूर्वंगतस्य चतुर्दश भेदा:, तथाहि ... उत्पादपूर्वम्, अग्रायणीयम्, वीर्यप्रवादम् अतिनास्तिप्रवादम् ज्ञानप्रवादम्, सत्यप्रवादम् आत्मप्रवादम् कर्मप्रवादम्, प्रत्याख्याननामधेयम्, विद्यानुप्रवादम् अवध्यनामधेयम्, प्राणायुः, क्रियाविशालम्, लोकबिन्दुसारम्, इति चतुर्दश पूर्वाणि = शास्त्रविशेषाः । " , 1 तत्राऽऽद्यमुत्पादपूर्वम्, सर्वद्रव्याणां पर्यायाणां चोत्पादा वर्ण्यन्ते यत्र तदुत्पादपूर्वकोटिपदम् १००००००० । द्वितीयमग्रायणीयम्, यत्र सर्वद्रव्याणां पर्यायाणां च सर्वजीवविशेषाणां चाऽयं परिमाणं वर्ण्यते, तदग्रायणीयं षण्णवतिशतसहस्रपदम् ६६००००० । तृतीयं वीर्यप्रवादम्, यत्र जीवानामजीवानामजीवानां च कर्मेतरद्वीर्य प्रोद्यते तद्वीर्यप्रवादं सप्ततिशतसहस्रपदम् ७०००००० | चतुर्थमस्तिनास्तिप्रवादम्, स्याद्वादाऽभिप्रायेण तदेवाऽस्ति नाऽस्तीत्येवं प्रवदनं यत्र तदस्तिनास्तिप्रवादं षष्टिशतसहस्रपदप्रमाणम् ६०००००० । पञ्चमं ज्ञानप्रवादम्, यत्र मतिज्ञानादिपश्चकस्य सप्रभेदप्ररूपणा यथाकृता, तज्ज्ञानप्रवादमेकोनकोटिपदम् ६९९९६६९ | षष्ठं सत्यप्रवादम् सत्यं संयमः सत्यवचनं वा सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्णितं यत्र, तत्सत्यप्रवादं षड धकैककोटिपदम् १००००००६ | सप्तममात्मप्रवादम्, यत्राऽऽत्मानेकधा नयदशनैर्वण्यते, तदात्मप्रवादम् तस्य पदराशिः षड्विंशतिकोटयः २६०००००००। अष्टमं कर्मप्रवादम् यत्र ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशादि मिरन्यैश्वोत्तरोत्तरभेदैर्वर्ण्यते, तत्कर्मप्रवादम् । तस्य पदप्रमाणमशीतिशतसहस्त्राऽधिकै काकोटी १८००००००! नवमं प्रत्याख्याननामधेयम्, यत्र सर्वप्रत्याख्यानस्वरूपं व्याख्यायते, तत्प्रत्यारूगाननामधेयं चतुरशीतिशतसहस्रपदम् ८४००००० | दशमं विद्यानुप्रवादम्, यत्राऽनेके विद्यातिशया निरूपितास्तद्विद्यानुप्रवादम् तस्मिन् दशशतसहस्राऽधिका एका कोटी पदानि ११०००००० | एकादशमवध्यम्, वध्यं निष्फलं न वध्यमवध्यं सफलमित्यर्थः, यत्र सर्व . [ मंगलाचरणादि . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्दशपूर्ववर्णनम्] उपशमनाकरणम् [३ ज्ञानतपःसंयमयोगाः सफला वर्ण्यन्तेऽप्रशस्ताश्च प्रमादादयः सर्वऽऽशुभफला वर्णितास्तदवध्यम् , तत्र पदानि षड्विंशतिकोटयः २६००००००० । अन्ये तु कल्याण नामधेयमित्याहुः, द्वादशं प्राणायुः, यत्राऽऽयुः प्राणविधानं सनसप्रभेदमन्ये च प्राणा वर्णितास्तत्प्राणायुः तत्र त्रयोदशकोटयः पदानि १३०००००००। त्रयोदशं क्रियाविशालम् , यत्र कायक्रियाहिंसादयो विशालं सप्रभेदाः संयमक्रिया बन्धक्रियाश्च विहितास्तक्रियाविशालम् , अस्मिन् पदानां नव कोटयो भवन्ति ६०००००००। चतुर्दशं लोकबिन्दुसारम् , यदमुस्मिल्लोंके श्रुतलोके चाऽक्षरस्य बिन्दुरिव सर्वोत्तमः सर्वाऽशरसन्निपातहेतुत्वात्तल्लोकबिन्दुसारम् , तत्र पदानि पश्चाशच्छतसहस्राऽधिकद्वादशकोटयः १२५००००००। अथ प्रत्येकं पूर्वस्य वस्तूनि चूलिकाश्चाऽभिधीयन्ते । तत्र वस्तूनि पूर्वगताऽधिकार विशेषाः । उत्पादपूर्वस्य दश वस्तूनि चूलिकाश्च चतस्रः प्ररूपिताः । अग्रायणीयस्य चतुर्दश वस्तूनि चूलिकाश्च द्वादश प्ररूपिताः । वीर्यप्रवादस्याऽष्टौ वस्तूनि चूलिकाश्चाऽष्टौ । अस्तिनास्तिप्रवादस्याऽष्टादश वस्तूनि चूलिकाश्च दश । अथ शेषाणां चूलिका न सन्ति । ज्ञानप्रवादस्य द्वादश वस्तूनि, सत्यप्रवादस्य द्वे वस्तुनी, आत्मप्रवादस्य षोडश वस्तूनि, कर्मप्रवादस्य त्रिंशद्वस्तूनि, प्रत्याख्याननामधेयस्य विंशतिर्वस्तूनि, विद्यानुप्रवादस्य पञ्चदश वस्तूनि, अवध्यनामधेयस्य द्वादश वस्तूनि, प्राणायुः पूर्वस्य त्रयोदश वस्तूनि, क्रियाविशालस्य त्रिंशद्वस्तूनि, लोकबिन्दुसारस्य पञ्चविंशतिर्वस्तूनि प्रज्ञप्तानि । इत्थं दृष्टिवाद एकस्मिन् श्रुतस्कन्धे चतुर्दशपूर्वाणि संख्यातानि वस्तूनि संख्याताश्चूलिकाः संख्याताः प्राभृताः संख्याताः प्राभृतिकाः संख्याताः प्राभृतप्राभृतिका इत्यादि। विशेषस्तु ग्रन्थान्तरादवसे यः, ग्रन्थगौरवभयादव न वितन्यते । अत्राऽग्रायणीयेनाऽधिकारः, तत्र चतुर्थकर्मप्रकृतिप्राभृतस्याऽवस्थानात् । तस्कर्मप्रकृति प्राभृतं च चतुर्विशत्यनुयोगद्वारमयम् । विद्वद्वन्दवृन्दारकोत्तमाङ्गविधूननशेमुषीशालिभिः श्री. मद्भिर्भगवद्भिः शिवशर्मसूरीश्वरईष्टिवादैकदेशचतुर्दशपूर्वस्याऽनेकवस्तुसमन्विताऽग्रायणीयाs. भिधाद्वितीयपूर्वस्य विंशतिप्राभृतपरिमाणपञ्चमवस्त्वेकदेशं चतुर्विंशत्यनुयोगद्वारमयकर्मप्रकृत्याख्यचतुर्थप्राभृतादिदं कर्मप्रकृत्याख्यं शास्त्रं समुधृतम् । एतेन ग्रन्थस्य कपोलकल्पितत्वं निरस्तम् । तत्र मङ्गलं ग्रन्थस्यादौ वक्तव्यम् , यतः श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उक्तश्च "श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति महतामपि ।" अश्रेयसि प्रवृत्तानां काऽपि यान्ति विना. यकाः ॥१॥" Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा-१ ननु मङ्गलं ग्रन्थस्यादौ वक्तव्यमिति कथमुच्यने ? अस्य ग्रन्थस्य परमपदप्राप्तिबीजभूतस्वेन श्रेयोरूपत्वात् , श्रेयांसि बहुविघ्नानीति न्यायेनाऽत्र विघ्नसंभवेन तेषां निराकरणार्थ मङ्गलाचरणमिति चेत् , न, अस्य ग्रन्थस्यैव श्रुतज्ञानत्वेन परममङ्गलरूपत्वात् पृथग्मङ्गलाचरणं निरर्थकम् । अत्रोच्यते, ग्रन्थस्य मङ्गलरूपत्वेऽपि शिष्टाचाराऽनुरोधेन शिष्टशेमुषीमङ्गलपरिग्रहार्थ च मङ्गलोपन्यासः। तन्मङ्गालोपन्यास आदौ मध्येऽवसाने च कर्तव्यः। नन्वयुक्तो मङ्गलत्रयोपन्याम आदिमङ्गलेनैवऽभिष्टार्थसिद्धेगित, एतदसम्यक , आदिमङ्गलं शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थ निर्विघ्नपरिसमाप्तये वा, मध्य मङ्गलाऽवगृहीतशास्त्रार्थस्थिरीकरणार्थमन्तिममङ्गलं च शिष्यप्रशिष्यपरम्परया शास्त्रस्याऽव्यवच्छेदार्थम् । उक्तश्च । ..तं मंगलमाइए मज्झे पज्जंतए य सत्थस्स पढमं सत्थत्वाविग्घपारगमणाय निद्दिढ ।। तस्सेव य थेज्जत्थं मन्झिमयं अंतिमपि तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सस्सपस्सिसाहसरस ।। अत्राऽऽद्यं मङ्गलं ग्रन्थकृता पूर्व मुक्तम् । सिद्ध सिहत्थमुवन्दिय गिद्धोयसव्वकम्ममलं । कम्मट्ठगस्स करणट्ठमुदयसंताणि वोच्छामि ॥१॥ इति । अन्तिममङ्गलं तु "जस्सवेरसासणावयवफरिसपविकसियविमलमहकिरणा। विमलेति कम्ममहले सो मे सरणं महावीरो ।।१" इति वक्ष्यते । संप्रत्युपशमनावसरे मध्यमङ्गलं चिकीर्ष राचार्य आह......... करणकयाकरणावि य दुविहा उवसामणस्थ बिइयाए। यकरणअणुइनाए अणुयोगधरे पणिवयामि ॥१॥ करणकृताकरणापि च द्विविधोपशमनाऽत्र द्वितीयायाः। अकरणनुदोर्णाया अनुयोगधरान् प्रणिपतामि ॥१॥ इति पदसंस्कारः अथोपशमना, उपशम्यते उदयोदीरणानित्तिनिकाचनाकरणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्था. प्यते कर्म यया, सोपशमना "णिवेत्त्यासश्रन्थघवन्देरना" (सिद्धहेम. ५ ३-१११) इति सूत्रेण स्त्रियाम् अत्' प्रत्ययः । अनप्रत्ययस्य स्त्रीवृत्तित्वात "आत्"(सिद्धहेम. २.४.१८) इति सूत्रेण 'आप' प्रत्ययः । तत्रैतेऽर्थाऽधिकाराः। तद्यथा-- (१) प्रथमसम्यक्त्वोपादप्ररूपणा (२)देशविरतिलाभप्ररूपणा (३) सर्वविरतिलाभप्ररूपणा (४) अनन्तानुबन्धिविसंयोजना (५) दर्शनमोहनीयमपणा (३) दर्शनमोहनीयोपशमना (७) चारित्रमोहनीयोपशमना (८) देशोपशमना (८) देशोपशमना च सप्रमेदा । तत्रेदमुपशमनाकरणं सप्रमेदं सर्वथा व्याख्यातुमशक्यम् , यतः सर्वथा मतिज्ञानावरणीयादीनां कर्मणां सर्वजघन्यानुभागोदीरकः सर्वज्ञप्रणीतशास्त्राब्धि शर्करामूर्तिमिश्चतुर्दशपूर्ववद्भिर्लोकालोकदर्शिभिश्च केवलज्ञानिमिभगवद्भिरेव व्याख्यातु Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाया द्वैविध्यम् ] [ शक्यत्वात् । यत्रांश आत्मनोऽशक्तिस्तत्रांशे तद्वेत्तृणामाचार्यो नमस्कारं चिकीर्षु राह... 'करणकय' त्ति | नमस्कारश्च पराऽवधिकस्वापकर्षबांधानुकूलव्यापारः । तत्रोपशमना द्विविथा - 'करणकयाकरणा' इत्यादि, करणकृताऽकरणकृता च । तत्र करणं क्रिया यथाप्रवृत्तानिवृत्तिकरणसाध्यः क्रियाविशेषस्तेन कृता करणकृता "कारकं कृता' | सिद्धहेम (३|१|६८ ) इति समासः, न करणमकरणम्, अकरणेन कृता अकरणकृता । या जन्मजरामरणलताविता तानसंभृतायां नानाविधमन संकल्पविकल्पश्रृगालादिसङ्कुलायां दुरवगाह महामोहतमोभीषणायामार्तरौद्रध्यानवात्यापरिपूरितायां मिथ्यादर्शनाऽविरतिप्रमादक पायलुण्टाकव्याप्तायां भवाटव्यां भ्रमतां संसारिणां जीवानां गिरिनदीपाषाणवृत्ततादिसंभववद् यथाप्रवृत्तादिकरणं विनाऽपि वेदनानुभवनादिभिः कारणैरुपशमनोपजायते साऽकरण कृतेत्यर्थः । इदं च करणकृताऽकरणकृतत्वरूपं द्वैविध्यं देशोपशमनाया एव द्रष्टव्यम्, न सर्वोपशमनायाः, तस्याः करणेभ्य एव मात्रात् उक्तश्च पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम्... 'देशोपशमना करणकृता करणरहिता च सर्वोपशमना तु करणकृतैवेति' तस्या अकरणकृताया उपशमनायाः संप्रत्यनुयोगो व्यवच्छिन्नः, तत आचार्यः स्वयं तस्या अनुयोगमजानानस्तद्वे तृणां चतुर्दशपूर्वराणां नमस्कारमाह 'बिइयाए' इत्यादि, द्वितीयाया अकरणकृताया उपशमनाया अकरणानुदीर्णरूपनामधेयद्वययुक्ताया अनुयोगधरान् व्याख्याकुशलान् विशिष्टमतिप्रभाकलितचतुर्दशपूर्वरान् प्रणिपतामि । प्रणिपतामि' इत्यत्र प्रशब्दो वाक्कायमनसां प्रह्वीभावप्रकर्षं द्योतयति, उपहास नमस्कारं च निराकरोति । अन्यथा नमस्यं तत्सखि प्रेमघण्टारसितसोदरम् । क्रमक्रशिमनिस्सार मारम्मगुरुऽम्बरम्, इत्यादिवदुपहासनमस्कारभ्रमोऽपि स्यादिति । उपशमनाया द्वैविध्यं तथैकैकस्या नामाऽन्तरं व्याजिहीर्षु राहसव्वरस य देसरस य करगुवसमणा दुन्निसन्नि एकिका | सव्वस्स गुणपसत्था सस्स वि तासि विवरीया ||२|| सव्ववसमणा मोहस्सेव... सर्वस्य च देशस्य च करगोपशमना द्विसंज्ञैकका । सर्वस्य गुणप्रशस्ता देशस्यापि तयो विपरीता ||२|| सर्वोपशमता मोहस्यैव 'सव्वस्स' इत्यादि सा इति पदसंस्कार: करणकृतोपशमना द्विविधा सर्वस्य देशस्य च सर्वविषया देशविषया चेत्यर्थः "एक्किक्का" त्ति, एकैकस्या अपि 'दुसन्नि' त्ति द्वे सज्ञेद्वे द्वे नामधेये तद्यथा - 'सव्वस्स' सर्वस्य सर्वोपशमना प्रशस्तोपशमना चेति, तथा 'देशस्य' देशोपशमनायास्ताभ्यां पूर्वोक्तायां विपरिते नामधेयेऽगुणोपशमनाऽप्रशस्तोपशमना च । उपशमनाकरणम् Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा - ३-० ] उपशमनाकरणम [ ६ सर्वोपशमना तु मोहनीयस्यैवेति । एतेन देशोपशमना सर्वेषां कर्मणां भवतीति ज्ञापितम् । अथादावुशमसम्यक्त्वाऽधिकारः । अनादिकालतो भवाटव्यां भ्रमन्तोऽनादिमिध्यादृष्टयः प्राणिन आदावुशमसम्यक्त्वमेव प्राप्नुवन्तीति मन्यन्ते कार्मग्रन्थिकाः । आदौ जीवा उपशमसम्यक्त्वं क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं वाऽश्नुवत इति मन्यन्ते सैद्धान्तिकाः । न क्षायिकसम्यक्त्वमित्युभयोर्मतम् । ननु कन्यामपि गतौ कस्याश्विदवस्थायां वर्तमानः सम्यक्त्वमासादयति, उत गतिविशेष एव वर्तमान सम्यक्त्वं प्राप्नोतीति शङ्कापरिहारार्थमाचार्या अन्तर्मुहूर्तकाल - प्रमाणां प्राग् योग्यतालक्षणां 'पूर्व भूमिकां' प्रदर्शयितुकामाः प्राहः-“उ तस्सुवसमक्किया जोग्गो । पंचिदियो उ सन्नीपज्जत्तो लद्धितिगजुत्तो पुव्वंपि विसुज्झतो गंटियसत्ताण इक्कमियसोहिं । अन्नयरे सागारे जोगे य ठिइसतकम्मश्रं तो कोडीकोडी करितु दुट्टाण चउट्ठाणे ॥३॥ विसुद्धले सासु सत्तरहं श्रणुभागं ग्रणाऊ य । सुभसुभाणं च बंधंतो धुवपगडी भवपाउग्गा सुभा जोगवसाय पएसं उक्कस्सं मज्झिम जहराणं ॥६॥ टिबंधद्धापुराणे नवबंधं पलसंखभागूणं सुभसुभाणरणुभागं गुणहाणिबुडी हिं 1 1 11211 ||५|| तु तस्योपशम क्रियायोग्यः । पञ्चेन्द्रियस्तु संज्ञो पर्याप्तो लब्धित्रिकयुक्तः ॥ ३॥ पूर्वमपि विशुध्यमानो ग्रन्थिक सत्त्वानामतिक्रम्य शोधिम् । अन्यतरस्मिन् साकारे योगे च विशुद्धलेश्या सु ॥४॥ स्थितिसत्कर्म अन्त: कोटाकोटीं कृत्वा सत्तानाम् । द्विस्थानं चतुस्थानेऽशुमशुभानां चानुभागम् ॥ ५॥ बघ्नन् ध्रुवप्रकृतोर्भवप्रायोग्याः शुभा अनायुषश्च योगवशाच्च प्रदेश उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यः ||६|| स्थितिबन्धाद्धापूर्णे नवबन्धं पल्यसंख्य भागोनम् । अशुभशुभानामनुभागमनन्त- गुणहानिवृद्धिभ्याम् ॥ ७॥ इति पदसंस्कार: 'तस्स' इत्यादि, तस्य मोहनीयस्य सर्वापेशमाक्रियायोग्यः प्रस्तुते च दर्शन मोहनीयस्य 'पंचिदिओ सन्नीपज्जतो' 'पर्याप्त संज्ञिपञ्चेन्द्रियः' लब्ध्यपर्याप्ता जीवा अथवा लब्धिभिः पर्याप्तत्वेऽपि करणाऽपर्याप्तत्वेन करणापर्याप्ता जीवाः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं प्राप्तुनाऽर्हन्ति, सम्यक्त्व प्राप्तौ तेषां तथाविधविशुद्धयभावात् । एवमेकेन्द्रिय-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिया असं 11611 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपशमिकसम्यक्त्याधिकारः [लब्धि-विशुद्धि-योगा: ज्ञिपञ्चेन्द्रियाश्च पर्याप्ताऽपर्याता जीवा अपि तथाविधविशुद्ध्यभावात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वं न प्राप्नुवन्ति । अतः संज्ञिपञ्चेन्द्रियः मवपर्याप्तिभिः पर्याप्तः प्रथमौपशमिकसम्यक्त्वमुत्पादयति. स च सादिमिथ्यादृष्टिरनादिमिथ्यादृष्टिा ज्ञेयः । नन्वत्र को नाम सादिमिध्यादृष्टिरिति चेद्, उच्यते, येन जन्तुना सकृदोपशमिकादिसम्यक्त्वं प्राप्त परिणामपतनाच्च मिथ्यात्वम भ्युपगछति, स सादिमिध्यादृष्टिरुच्यते । न च सादिमिथ्यादृष्ट: प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वप्राप्तिः कथं भवितुमर्हति, यतस्तस्य जन्तोः सदीपशमिकसम्यक्त्वस्य लाभत्वेन द्वितीयाद्यौपशमिकसस्यक्त्व संभवतीति वाच्यम्. यत उपशमश्रेणिगतौपशमिकसम्यक्त्वव्यतिरिक्तौपशमिकसम्यक्त्वं प्रथमत्त्वेन व्यपदिश्यते ।। (२)लब्धित्रिकयुक्तः-उपशमलब्ध्युपदेशश्रवणलब्धिप्रयोगलब्धित्रिकयुक्तः । करणकालात्पूर्वमपि प्रथमोपशमसम्यक्त्वप्राप्तय उद्यत आत्मा लब्धित्रययक्तो भवति । तत्रोपशमलब्धिःकर्मदलिकानामुपशमनाय या शक्तिः, सा उपशमलब्धिरित्यभीधयते। उपदेशलब्धिः-उपदेशकाऽऽ चार्यादीनां प्राप्तिस्तथोपदेशपरिणमनाय शक्तिविशेषः । यद्यपि नैसर्गिकसम्यतत्वप्राप्तयवसर उपदेशश्रवणस्य निमित्तं न भवति, तथाऽपि जीवस्योपदेशश्रवणशक्त्या नियमेन भविनव्यम् । प्रयोगलब्धि:-सम्यक्त्वप्राप्तये करणत्रयहेतुभूतमनोवाकाययोगस्य लब्धिः।। (३) विशुद्धिः-करणकालात्पूर्वमप्यन्तमुहूर्तकालं यावत्प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धथा 'विशुद्धयमानः' ग्रन्थिकसत्त्वानां कोऽर्थः१ ग्रन्थि म रागादीनां तीव्राऽनुबन्धकारिका परिणतिः, सा च ग्रन्थिरत्यन्तं दुर्भद्याऽतिकठिना कर्कशा च भवति, उक्तश्च "गंठित्ति सुदुभेओ कक्खडधणगूढरूढगंठिव्य । जीवस्स कम्मजणिओ घणरागदोसपरिणामो।।१।। प्रन्थिरेव ग्रन्थिका, “यावादिभ्यः कः सिद्धहेम ७।३।१५। इति सूत्रेण स्वार्थिकः'क' प्रत्ययः । ग्रन्थिकायां ग्रन्थिदेशे स्थिताः सन्चाः ग्रन्थि कसत्त्वाः "मयूरव्यं सकेत्यादयः" (सिद्धहेम०. ३।१।११६) इति सूत्रेण मध्यमपदलोपिममासः, तेषां ग्रन्थिकसत्त्वानामभव्यानां या विशोधिस्तामतिक्रम्य वर्तमानः, ततोऽनन्तगुणविशुद्ध इत्यर्थः । (४) अन्यतरस्मिन्साकार उपयोगे वर्तमान:-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानानामन्यतमे साकारोपयोगे वर्तमानः । अटोप्पणम्-लब्धिसारे तु लब्धिपञ्चकमुक्तम्-तद्यथा-खयउवसमिय विसोहि देसूरणपाउग्गकरलद्धीय चत्तारि वि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते ।।३।। छाया-क्षायोपशमविशुद्धदेशना प्रायोग्य करणलब्धयश्च चतस्रोऽपि सामान्याकरणं सम्यक्त्वधारिये ॥३॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३-६ ] (५) योगे च वर्तमानः - मनोयोगचतुष्ट्यवचनयोग चतुष्ट्यौदारिक काययोगवैक्रियकाययोगानामन्यतमे योगे वर्तमानः 'योगे य' इत्यत्र चकराद् वेदे कषाये च वर्तमान इति ज्ञेयम् । (६) वेदे वर्तमानः - अन्यतमे पुरुषवेदे स्त्रीवेदे नपुंसक वेदे च वर्तमानः (७) कषाये वर्तमानः - क्रोधादिचतुष्ट्येऽन्यतमे कषाये वर्तमानस्तथा प्रतिसमयं हीयमानकषायी प्रवर्धमानविशुद्ध प्रर्वतमानत्वात् (=) विसुडलेश्यायां वर्तमानः -- भावतो विशुद्धस्य लेश्यात्रयस्यान्यतमायां लेश्यायां वर्तमानो जघन्यपरिणामेन तेजोलेश्यायां मध्यमपरिणामेन पद्मलेश्यायामुत्कृष्टपरिणामेन शुकलेश्यायां वर्तमान इत्यर्थः । द्रव्यतस्तु लेश्यापटूके वर्तमान उपशमसम्यक्त्वमुत्पादयति, नरकगतौ द्रव्यतोऽशुभलेश्याया एव सद्भावात् । तथाSSयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मणां स्थितिमन्तः सागरोपमकोटाकोटिप्रमाणामपि हीनां कुर्वन्नशुभानां कर्मणामनुभागं द्विस्थानकं सन्तमप्यनन्तगुणहीनं कुर्वन् शुभानां च कर्मणां चतुःस्थानकं सन्तमप्यनन्तगुणं कुर्वन्नास्ते । (६) प्रकृतिवन्ध - - (१) अथ मूलप्रकृतिबन्ध - 'बंधतो ध्रुवपगडी भवपाउग्गा' मूलप्रकृतय आयुष्यवर्जाः सप्तैव बध्यन्ते यत आयुर्वन्धो मध्यमपरिणाम एव भवति, अत्र तु अतीवविशुद्धयमान परिणामत्वादायुर्बन्ध नाSSरभते न करोतीत्यर्थः, नाप्यायुबन्धेऽप्रमत्त गुणस्थान कवत् पूर्वप्रवृत्त वर्तते । उपशमनाकरणम् उत्तरप्रकृतयो ध्रुवास्तु स्वमवप्रायोग्या बध्यन्ते तथाहि (२) अथोत्तरप्रकृतिबन्धः- ध्रुवप्रकृतयः पञ्चविधज्ञानावरणनवविधदर्शनावरणमिथ्यात्वकपाय षोडशभय जुगुसातै ज स कार्मणवर्णगन्धरसम्पर्शाऽगुरुलघूपघातनिर्माणाऽन्तराय पञ्चक्ररूपाः सप्तचत्वारिंशत्तथा स्वभवप्रायोग्याः प्रकृतीः परावर्तमानमध्यस्था आयुष्यवर्जाः शुभा एव बध्नाति । तथाहि - तिर्यङ् मनुष्यो वा ध्रुवबन्धिसप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीस्तथा देवगतिप्रायोग्याः शुभाः प्रकृतीदेवद्विक क्रियद्विपञ्चेन्द्रियजाति-आद्य संस्थानपराघातोच्छ्वासप्रशस्त खगतित्र सदशकरूपा नामकर्मण एकोनविंशतिसंख्याकास्तथोच्चैर्गोत्रं सातवेदनीयं च मोहनीयस्य हास्यरतिपुरुषवेदरूपास्तिस्रः प्रकृतीध्नाति । इत्थं मनुष्यस्तिर्यङ् वा एकसप्ततिं प्रकृतीनाति सप्तम पृथ्वीनारकवर्जी नारको देवो वा ध्रुव चन्धिसप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीस्तथा मनुष्यगतिप्रायोग्या मनुष्यद्विकपञ्चेन्द्रियजातिप्रथम संस्थानाऽऽद्य मंहननौदारिकद्विकपराघातोच्छ्वासप्रशस्नखगतित्र सदशकरूपा नामकर्मणो विंशतिसंख्याकाः प्रकृतीस्तथीच्चे गोत्रं सात वेदनीयं च मोहनीयस्य हास्यरतिपुरुषवेदरूपास्तिस्रः प्रकृतघ्नाति । इत्थं सप्तमपृथ्वीनारकवर्डो नारको देवो वा द्विसप्तति प्रकृतीर्वध्नाति । यदि सप्तम - पृथ्वीनारकः सादिमिध्यादृष्टिरनादिमिध्यादृष्टिर्वा प्रथममुपशमसम्यक्त्वमुत्पादयति तदा [ ८ 1 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपशमिकसम्यक्त्वाधिकारः [ नारकाणां प्रकृतिबन्धः , मनुष्यद्विकौच्चैर्गोत्राणां स्थाने तिर्यद्विकनीचैगोत्राणि वक्तव्यानि यतः सप्तम पृथ्वीनारकः प्रथमगुणस्थान के तीव्रतर विशुद्धयमानोऽपि तिर्यद्विकनीचैर्गोत्ररूपाः प्रकृतीरेव बध्नाति तथास्वाभाव्यात, तथा सप्तमनरके केचिज्जीवा उद्योतमपि बध्नन्ति । इत्थं सप्तमपृथ्वीनारका द्वासप्ततिं त्रयःसप्ततिं वा प्रकृतीध्नन्ति । ननु रत्नप्रभादिपृथ्वीनारका उद्योतं कथं न बध्नन्तीति इति चेद् उच्यते, यदा जीवास्तिर्यग्गतिप्रायोग्यप्रकृतीवघ्नन्ति तदैवोद्योतं बध्नन्ति नाऽन्यथा । प्रथमादिपृथ्वीनारकाः प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुत्पादयन्तो मनुष्यगतिप्रायोग्या एव प्रकृतीर्वघ्नन्ति, न तिर्यग्प्रायोग्याः । अतस्त उद्योतबन्धं विभाषयाऽपि न कुर्वते । सप्तम पृथ्वीनारकास्तु तिर्यक्प्रायोग्या एव प्रकृतीबंध्नन्ति । अत एव तेषु केचिदुद्योतबन्धमपि कुत इत्युक्तो विकल्पेन तेषामुद्योतबन्धः । सम्यक्त्वाऽभिमुखगतिचतुष्कवर्तिनः प्राणिन आश्रित्य प्रत्येककर्मणो बध्यमानोत्तरप्रकृतीनां यन्त्रम् | ज्ञानावर दर्शनाव- मोह- अन्तरायम् सातवे उच्चै नामकर्म णीयम् रणीयम् नीयम् संकलितः नीयम् र्गोत्रम् प्रकृतयः ५ ह २२ १ १ ७१ ε ] यन्त्रम जीव: मनुष्यस्तवा देव: सप्तम पृथ्वीनारकवर्डो नारको वा सप्तम पृथ्वीनारक: ५ उद्योतं बध्नन्सप्तम- ५ पृथ्वीनारक: ५ २ ε २२ २२ २२ ५ ५ ५ ५ १ १ १ १ १ देवगति प्रा० २८ मनुष्य गति प्रा० २६ तिर्यग्गति प्रा. २६ तिर्यग्गति ७२ प्रा० ३० उक्ताभ्योऽन्याः प्रकृतीर्जीवः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन्न बध्नाति । तत्र मनुष्य स्तिर्यङ् नामकर्मणो देवगतिवर्ज गतित्रिकपञ्चेन्द्रियवर्जजातिचतुष्कौदा रिकद्विकाऽऽहारकद्वि कसंहननपटुकाऽऽथवर्ज संस्थानपञ्चकदेवानुपूर्वी रहिताऽऽनुपूर्वीत्रिकाऽप्रशस्तख गत्यातपोथीत जिननामस्थावरदशकरूपाणा मे कोनचत्वारिंशत्संख्याकानां प्रकृतीनां तथा शेषकर्मणां च स्त्रीनपुंसकशोकाऽरत्याचष्तुकाऽसात वेदनीयनी चैमंत्रिरूपाणां दशसङ्ख्याकानां प्रकृतीनामबन्धकः । इत्थं भवती है कोनपञ्चाशत्प्रकृतीनामबन्धकः । प्रथममुपशमसम्यक्त्वमुत्पादयन् देवः सप्तमपृथ्वीनारकवर्डो नारको वा प्रथम संहननवर्जाः पूर्वोक्ता अष्टाचत्वारिंशत्प्रकृतीनं बध्नाति । अत्राऽयं विशेष:- मनुष्यस्तिर्यङ् वा या औदारिद्विकदेवगतिवर्जगतित्रिक देवानुपूर्वी वर्जाऽऽनुपूर्वीत्रिकरूपा अष्ट प्रकृतीर्न बध्नाति तत्स्थाने देवः ७२ ७३ - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३-७ বহানাল্কা [१० सप्तमपृथ्वीनारकवों नारको वा वैक्रियद्विकमनुष्यगतिवर्जगतित्रिकमनुष्यानुपूर्वीवर्जाऽऽ. नुपूर्वीत्रिकरूपाः प्रकृतीनं बध्नाति । तथाहि--देवः सप्तमपृथ्वीवर्जनारको वा नामकर्मणो मनुष्यगतिवर्जगतित्रिकपञ्चेन्द्रियजातिवर्जजातिचतुष्कर्वक्रियाद्वकाहारकाद्विकऽऽद्यवर्जसंहनन-- संस्थानपञ्चकमनुष्यानुपूर्वीवर्जानुपूर्वीत्रिककुखगत्यातपोद्योतजिननामस्थावरदशकरूपा अष्टात्रिंशत्संख्याकास्तथा शेषकर्मणाश्च स्त्रीनपुंसकवेदशोकाऽरत्यायुश्चतुष्काऽसातवेदनीयनीचैर्गोत्ररूपा दशसंख्याकाः प्रकृतीन बध्नाति । अतोऽष्टाचत्वारिंशत्प्रकृतीनामवन्धको भवति । अथ सप्तमपृथ्वीनारकः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन्त्रितरनारकवदष्टचत्वारिंशत्प्रकृतीनां बन्धं न करोति । अत्र विशेषस्त्वयम्--इतरनारका मनुष्यगतिवर्जगतित्रिकमनुष्यानुपूर्वीवर्जाऽऽनु. पूर्वोत्रिकनीचैर्गोत्ररूपा याः प्रकृतीन बध्नाति, तत्स्थाने सप्तमपृथ्वीनारकस्तिर्यग्गतिवर्जगतित्रिकतिर्यगानुपूर्वीवाऽऽनुपूर्वी त्रिकोच्चैगौत्ररूपाः प्रकृतीन बध्नाति । तथाहि-सम्यक्त्वाऽभिमुखः सप्तमपृथ्वीनारको नामकर्मणस्तियंगतिवर्जगतित्रिकपञ्चेन्द्रियवर्जजाति-चतुष्कवै क्रियद्विकाऽऽहारकद्विकप्रथमवर्जसंहननसंस्थानपञ्चककुखगतिर्यगानुपूर्वीवर्जानुपूर्वीत्रिकातपजिननामस्थावर -- दशकरूपाः सप्तत्रिंशत्संख्याः शेषकर्मणाश्च स्त्रीनपुसकवेदशीकारत्यायुश्चतुष्काऽसातवेदनीयोच्चैगोंत्रिरूपा दशसंख्याकाः प्रकृतीन बध्नाति । इत्थमयं नारकः सप्तचत्वारिंशत्प्रकृतीनामबन्धको भवति । सप्तमपृथ्वीनारक उद्योतं विकल्पेन बध्नाति, तेनोद्योतमबध्नञ्जन्तुरुद्योतेन सहाऽष्टाचत्वारिंशत्प्रकृतीनामबन्धको भवति । सक्षेपतोऽबन्धप्रकृतियन्त्रम्... जीवः अवध्यमानप्रकृतयः मनुष्यस्तिर्यङ् वा ४९ देवः सप्तमपृथ्वीनारकयों नागको वा ४८ उद्योतं बनन् सप्तमपृथ्वीनारकः ४७ इतरः सप्तमपृथ्वीनारकः ४८ १० स्थितिबन्धः-सम्यक्त्वामिमुखो वध्यमानमूलप्रकृतीनां स्थितिमन्तःसागरोपमकोटाकोटिप्रमाणामेव बध्नाति नाऽधिकाम् , तथाऽन्तमुहर्तकाले व्यतीते स्थितिबन्धे च परिपूर्ण सत्यन्यं स्थितिबन्धं प्राक्तनस्थितिबन्धाऽपेक्षया पन्योपमसंख्येयभागन्यूनं कुर्वन्नेवमुत्तरोत्तरं प्रत्यन्तम् हृतं पूर्वाऽपेक्षया पल्योपमसंख्येयभागन्यनं करोति । ११ अनुभागवन्धः -प्रथममुपशमसम्यक्त्वमुत्पादन्नात्मा बध्यमानानामशुभानां कर्मप्रकृतीनामनुभागं द्विस्थानकं बध्नाति . तमपि प्रतिममयं पूर्वाऽपेसयाऽनन्तगुणहीनं तथा शुभानां प्रकृतीनां चतुःस्थानकमनुभागं वध्नाति, तमपि प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धम् । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपशमिकसम्यक्त्याधिकारः [ प्रदेशबन्ध १२ प्रदेशबन्धः-पूर्वे 'योगवशाच्च प्रदेशाग्रमुत्कृष्टं मध्यमं जघन्यं च बध्नाति' इत्युक्तं तत्र विशेषो लिख्यते, तथाहि-प्रथममुपशमसम्यक्त्वमुत्पादयन्नात्मा मनुष्यस्तियङ्वाऽनन्तानुबन्धिचतुष्कस्त्यानद्धिंत्रिकमिथ्यात्वमोहनीयदेवद्विकवैक्रियद्विकसमचतुरस्त्रसंस्थानसुभगत्रिकसुखगतिरूपाणां सप्तदशानां कर्मप्रकृतीनां प्रदेशबन्धमुत्कृष्टयोग्यमुत्कृष्टमनुस्कृष्टयोग्यमनुत्कृष्टमेव प्रदेशबन्धं करोति । शेषचतुःपञ्चाशत्प्रकृतीनामनुत्कृष्टमेव प्रदेशवन्धं करोति, यतो ज्ञानावरणीयपञ्चकदर्शनावरणीय चतुष्काऽन्तरायपश्चकसातवेदनीयोच्चैगोत्रयशकीतिरूपाणां सप्तदशसंख्याकानां प्रकृतीनां सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकवर्तिन एवोत्कृष्टयोग उत्कृष्टप्रदेशबन्धो भवति नान्यस्य । तथा चाऽप्रत्याख्यानावरणचतुष्कस्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धमविरतिः सम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टयोगे वर्तमानः करोति । प्रत्याख्यानावरणचतुष्कस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धं देशविरतिरुत्कृष्टयोगे वर्तमानः करोति, तथा पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधमानमायालोभरूपाणां पञ्चसंख्यानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धनिवृत्तिकरण गुण. स्थानके यथाक्रमं मोहनीयस्य पश्चप्रकृतीनां चतुष्प्रकृतीनां त्रिप्रकृतीनां द्वयोः प्रकृत्योरेकस्याः प्रकृतेर्वन्धक उत्कृष्ट योगे वतमानः करोति । निद्राद्विकहास्यरतिभयजुगुप्सारूपाण पटसंख्यानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धमुत्कृष्टयोगे वर्तमानोऽक्तिसम्यग्दृष्टिप्रभृत्यपूर्णकरणगुणस्थानकपर्यन्त. वर्ती करोति । इत्थं षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामुन्कृष्टप्रदेशबन्धं सम्यग्दृष्टय एव कुवन्ति । यद्यपि शेषाणामष्टादशप्रकृतीनामुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका मिथ्यादृष्टयो जीवास्तथापि सम्यक्त्वाऽभिमुखो मिथ्याष्टिस्तियङ् मनुष्यो वाऽष्टादशप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं न करोति, यतस्तैजसकार्मणशरीरवर्णगन्धरसस्पर्शाऽगुरुलघूपघातनिर्माणवादरप्रत्येकरूपाणामेकादशानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धमपर्याप्त केन्द्रियप्रायोग्या नामकर्मणस्त्रयोविंशतिप्रकृतीघ्नन्नेव करोति तथा पर्याप्तपराघातोच्छ् वासस्थिरशुभरूपाणां पञ्चसंख्यानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धमपर्याप्तैकेन्द्रियप्रायोग्यनामकर्मणः पञ्चविंशतिं प्रकृतीबंध्नन्नेव करोति, तथा पञ्चेन्द्रियजातेस्त्रसस्य चोत्कृष्टप्रदेशबन्धमपर्याप्तविकलतिर्यङ्मनुष्यपञ्चेन्द्रियप्रायोग्याः पञ्चविशति प्रकृतीवघ्नन्नेव करोति । सम्यक्त्वाऽभिमुखस्तु संज्ञीपञ्चेन्द्रियो मिथ्यादृष्टिस्तियङ्मनुष्यो वा नामकर्मणो देवगतिप्रायोग्या एवाऽष्टाविंशतिसंख्याः प्रकृतीर्वघ्नाति । अतो मनुष्यस्तियं वा पूर्वोक्तानां पत्रिंशतः प्रकृतीनां तथाऽष्टादशप्रकृतीनामुत्कृष्टवन्धं न करोति । अतस्तस्य चतुष्पञ्चाशतः प्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध एवभवति । सम्यक्त्वाऽभिमुखो देवः सप्तमपृथ्वीनारकवजों नारको बोत्कृष्टयोगे वर्तमानोऽनन्तानुबन्धिचतुष्कस्त्यान ित्रिमिथ्यात्वबज्रऋषभनाराचरूपाणां नवसंख्यानामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति तथानुत्कृष्टयोगे वर्तमानोऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति । यतो मिथ्यादृष्टेरप्यासा नवानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धसम्भवः, अतो मिथ्या दृष्टिदेवः सप्तमपृथ्वीनारकवजों नारको नवप्रकृतीनामुत्कृ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३-७) उपशमनाकरणम् [ १२ टप्रटेशबन्धं वा करोति, शेषत्रिषष्टिप्रकृतीनामनुत्कृष्टमेव प्रदेशबन्धम् । तत्र मनुष्यतिर्य ग्भिध्यमानानां चतुष्पञ्चाशत्प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धनिषेधे यत्कारणमुक्तं, तदत्रापि ज्ञातव्यम् । अथ नवप्रकृतीनामुन्कृष्टप्रदेशबन्धे कारणं प्रोच्यते । तथाहि-औदारिकशरीरनामकर्मण उत्कृष्टप्रदेशबन्धमेकेन्द्रियप्रायोग्यास्त्रयस्तथा मनुष्यद्विकमोदारिकमौदारिकोङ्गोपाङ्गञ्चेति तिमृणां प्रकृतीनामुतकृष्टप्रदेशबन्धमपर्याप्तमनुष्यप्रायोग्याः पञ्चविंशति प्रकृतीर्वध्नन्नेव करोति । तथा मनुष्यस्तिर्यङ् वा सुभगत्रिकसम चतुरस्रसंस्थानसुखगतिरूपाणां पश्चप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्ध देवगतिप्रायोग्या नामकर्मणोऽष्टाविंशतिप्रकृतीवघ्नन् करोति प्रस्तुते तु सम्यक्त्वाऽभिमुखो देवो नारको वा मष्नुयप्रायोग्यमेकोनत्रिंशत्प्रकृत्यात्मकबन्धम्थानं बध्नातीति कृत्वा नवानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धं न करोति । इत्थं त्रिषष्टि प्रकृतीनामुन्कृष्टप्रदेशबन्धं देवः सप्तमपृथ्वीनारकवर्जनारको वा न करोतीति कृन्वाऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धमेव करोति तथा पूर्वोक्तानामनन्तानुबन्ध्यादीनां नवानां प्रकृतीनामुत्कृष्ट प्रदेशबन्धं वा करोति । सप्तमपृथ्वीनारको द्विसप्तति प्रकृतीध्नाति । तत्र पूर्वोक्तानां नवानां तथा नीचैगोत्रस्योस्कृष्टयोग उत्कृष्टप्रदेशबन्धमनुत्कृष्टयोगेऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति । नवप्रकृतीनामुत्कृष्ट प्रदेशवन्धे बीजं पूर्वोक्तमेव तथा नीचैर्गोत्रस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धमुत्कृष्ट योगी सम्यक्त्वाऽभिमुखः सप्तमपृथ्वीनारकोऽपि करोति । अतो दशानां प्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशबन्धमनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं वा करोति तथा शेषद्वापष्टिप्रकृत्यन्नतितिर्यग्द्विकस्याऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं मिथ्या दृष्टिर्मनुष्यस्तिर्य ङ वैकेन्द्रियप्रायोग्यास्त्रयोविंशति प्रकृतीवघ्नन्नेव करोति । अतः सम्यक्त्वाऽभिमुखः सप्तमपृथ्वीनारको द्विषष्टिप्रकृतीनामनुत्कृष्टं प्रदेशबन्धं करोति तथा दशानां प्रकृतीनामुत्कृष्टमनुत्कृष्टं वा प्रदेशबन्धं करोति । उद्योतं वध्नन् सप्तमपृथ्वीनारकम्तु त्रिसप्तति प्रकृतीबध्नाति । तत्रेतरसप्तमनारकवदुद्योतं बध्नन् सप्तमपृथ्वीनारकोऽपि वज्रर्षभनाराचसंहननवर्जनवप्रकृतीनामुत्कृष्टयोगे वर्तमानउत्कृष्ट प्रदेशबन्धं करोति, अनुत्कृष्टयोगेऽनुत्कृष्टप्रदेशबन्धं करोति । उद्योतं बनतो जन्तोचत्रर्षभनाराचसंहननस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धो न भवति, यतो नामकर्मण एकोनत्रिंशत्प्रकृत्यामत्के बन्धस्थानके वध्यमाने वज्रर्षभनारा वम्योत्कृष्टप्रदेशबन्धो भवति । उद्योतं बध्नञ्जीवो नामकर्मणस्त्रिंशत्प्रकृत्यात्मकं बन्धस्थानकं बध्नातीति कृत्वा नामकर्मणो वध्यमानप्रकृतीनामाधिक्यानपभनाराचसंहननस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धं न करोति । शेषाण चतुष्षष्टिप्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशवन्धं करोति । तत्र वज्रषभनाराचस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धनिषेधे कारणमुक्तम् , द्वापष्टिप्रकृतीनामनुत्कृष्टप्रदेशबन्धे कारणमुद्योतमबध्नन्सप्तमपृथ्वीनारकवज्ज्ञेयम् । तथोद्योतस्योत्कृष्ट प्रदेशबन्धमेकेन्द्रियप्रायोग्या उद्योतेन सह षड्विंशतिसंख्याः प्रकृतीर्वघ्नन् मनुष्यस्तिर्य वा करोति । तत उद्योतस्योत्कृष्टप्रदेशबन्धं सप्तमपृथ्वीनारको न करोति । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपशमिकसम्यक्त्वाधिकारः [ नरकगता उदयः स्वामी ६३ W उत्कृष्टप्रदेशवन्धयोग्यानां तथोत्कृष्ट प्रदेशबन्धाऽयोग्यानां प्रकृतीनां यन्त्रम् - उत्कृष्टप्रदेशबन्ध- उत्कृष्टप्रदेशबन्धा-। बध्यमान | योग्या: प्रकृतयः । ऽयोग्याः प्रकृतयः । प्रकृतयः सम्यक्त्वाऽभिमुखो मनुष्यस्तियंक वा १७ देवः सप्तमपृथ्वीनारकवों नारकः सप्तमपृथ्वीनारकः उद्योत बध्नन् स तमपृथ्वीनारकः ग्रन्थकृता प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुत्पादयतो मिथ्यादृष्टेः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्ध उक्तः । उपलमणत्वादम्माभिरुदयमत्ते अप्यधीयेते । १३ नरकगतो- प्रथममम्यक्त्वाऽभिमुग्वमिथ्यादृष्टेरुदये वर्तमानाः प्रकृतयो ज्ञानावरणम्य पश्च दर्शनावरणस्य चतस्रोऽथवा निद्राद्विकादन्यतम्या निद्रया सह पश्चाऽन्यत. ग्द् वेदनीयं नीचौंत्रं नरकायुर्मोहनीयस्याऽनन्तानुबन्ध्यादिकपायचतुष्कनपुसकवेदाऽन्यतरयुगलमिथ्यात्वप्रकृत्यात्मकमष्टकं स्थानम् , भयेन जुगुप्सया वा सह नवकं स्थानमुभाभ्यां सह नवकं स्थानमुभाभ्यां मह दशकं स्थानम् । नन्वेकस्मिन्समय एककषायम्योदयसंभवादत्राऽनन्तानुबन्ध्यादि चतुष्कोदयः कथमुच्यत इति चेत् , उच्यते, एकस्मिन्समये क्रोधादिचतुष्टयेऽन्यतमस्योदयो भवति । तत्र क्रोधादीनामन्यतस्य कैकस्याऽनन्तानुबन्धिप्रतियश्चत्वारो भेदाः सन्ति । अथ प्रथमगुणस्थानके यद्यप्यनन्तानुबन्धिकषायोदयोऽस्ति, तथाऽपि तदुदयेऽप्रत्याख्यानावरणीयप्रत्याख्यानावरणीयसंज्वलनकषायोदयस्याऽन्तर्भावाच्चतुर्णामनन्तानुबन्ध्यादीनां कषायाणामुदयः प्रथमगुणम्थानके घटते । इदन्त्ववधेयम्-क्रोधादिचतुष्टयेऽन्यतमकषायस्योदयो भवति, यतः क्रोधमानमायालोभा युगपन्नोदयमायान्ति, किन्तु क्रमेण । तथाहि-यदा क्रोध उदेति न तदा मानो नाऽपि माया न चाऽपि लोमः । यदा मान उदयमधिगच्छति न तदा क्रोधो नाऽपि मायेत्यादि । केवलमेकस्मिन्ननन्तानुबन्धिक्रोध उदयमाने शेषा अपि अप्रत्याख्यानावरणादित्रयक्रोधा उदयमायान्ति, एवं मानादौ शेषा मानादयोऽप्यदयमागच्छन्ति । तेनाऽग्र उदयमङ्गगणनाप्रसंगे यत्र कपायभङ्गा गणयिष्यन्ते, तत्र चतुर्णामेव गुणनं करिष्यते । तथा नरकगतौ नामकर्मण एकोनत्रिंशत्प्रकृत्यात्मकमेकमुदयस्थानकमस्ति । तत्र प्रकृतयोऽधूवोदया नरकगतिपञ्चेन्द्रियजातिवै क्रियद्विकहुण्डकसंस्थानकुखगत्युपघातपराघातोच्छ्बासत्रसचतुष्कदुर्भगचतुष्करूपाः सप्तदश ध्रुवोदयाश्च वर्णचतुष्कतैजसकार्मणशरीराऽगुरुलघुनिर्माणस्थिराऽस्थिरशुभाऽशुभरूपा द्वादश । इत्थं जघन्यतो नरकगतौ कस्यचिजीवस्य मिथ्या. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया ३-७ ] उपशमनाकरणम् [१४ दृष्टेरुदये वर्तमानाः प्रकृतयो ज्ञानावरणस्य पञ्च, दर्शनावरणस्य चतस्रः, अन्तरायस्य पञ्च, मोहनीयस्याऽष्टकं नरकायुरेका वेदनीयस्यैका नीचैर्गोत्रं नामकर्मण एकोनविंशदिति चतुष्पश्चाशत् । उत्कृष्टतो भयजुगुप्साऽन्यतरनिंद्राभिस्सहिताः सप्तपश्चाशत्प्रकृतयः। इत्थं प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयतो नारकस्य चत्वायुदयस्थानकानि । सत्र प्रथममुदयस्थानकं चतुष्पश्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् , द्वितीयमुदयस्थानकं पञ्चपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् , तृतीयोदयस्थानकं षट्पञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् , चतुर्थोदयस्थानकं सप्तपश्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् । तत्र प्रत्येकोदयस्थानकं भिन्नभिन्नप्रकृतीराश्रित्याऽनेकविधं भवति । कश्चित्क्रोधोदयविशिष्टो जीवः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति, कश्चिद् मानोदयविशिष्टः, कश्चिद् मायोदयविशिष्टः, कश्चन लोभोदयविशिष्टः । एवंविधाश्चत्वारो जीवा असातोदयविशिष्टाश्चत्वारः सातोदयविशिष्टा वा भवन्ति । इत्थमनेकविध प्रत्येकमुदयस्थानकं भवति । प्रकृतिभेदेनैकस्योदयस्थानकस्य यावन्तः प्रकारा भवन्ति, तावन्तस्तस्योदयस्थानकस्य भङ्गाः प्रत्येकोदयस्थानकस्य निम्नलिखिता भङ्गा ज्ञेयाः । चतुष्पश्चाशत्प्रकृत्यात्मकोदयस्थानके चतुर्णो क्रोधादीनामन्यतमकषायोदयः, हास्यरतिरूपयुगलशोकाऽरतिरूपयुगलयोरन्यतरस्य युगलस्योदयस्तथाऽन्यतरस्य वेदनीयस्योदयः । शेषाः प्रकृतय उदये न व्यत्यस्यन्ते, यतो नारकाणां नपुंसकवेदस्योदयो भवति तथा नामकर्मणो दुभंगदुःस्वराऽनादेयाऽयशाकीयशुभखगतिरूपाणामशुभानां प्रकृतीनामेवोदयो भवति । ___ अथ भङ्गाः परिगण्यन्ते चत्वारः कषाया युगलद्विकेन गुण्यन्ते, यतो द्वे युगले पर्यायेण प्राप्यते इति गुणिता अष्टौ भङ्गाः, ते च वेदनीयद्विकेन गुणिताः षोडशभङ्गाः, इति चतुष्पश्चाशत्प्रकृत्यात्मकोदयस्थानकस्य भङ्गा उक्ताः । स्थापना-कषायाः४-युगले२- वेदनीये २=संकलितभङ्गाः १६ । अथ कस्यचिज्जीवस्य मयेन जुगुप्सयाऽन्यतरनिद्रया वा युक्त पश्चपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकं भवति । तद्भङ्गास्त्वित्थं भावनीयाः । यदा भयेन युक्तमुदयस्थानकम् , तदा पूर्व एव षोडश भङ्गा भवन्ति, भयस्य एकप्रकृत्यात्मकत्वेन व्यत्यासाभावात्प्रतिपक्षत्वाभावच्च । यदा जुगुप्सया युक्तमुदयस्थानकम् , तदाऽपि पूर्व एव षोडश भङ्गा भवन्ति । यदा अन्यतरनिद्रया युक्तमिदमुदयस्थानकम् , तदा द्विकेन ते गुणिता द्वात्रिंशत् । इत्थं पञ्चपश्चाशत्प्रकृतिस्थानकस्य त्रयो विकल्पाश्चतुष्षष्टिः भङ्गाः । नन्वेकान्तविशुध्दद्या चतुःस्थानकरसबन्धकत्वेन साकारोपयोगस्यैवप्रतिपादितत्वेन निद्रोदयस्यासंभव एवेति कथं तद्भङ्गाः प्ररूप्यन्ते, अथ च स्त्यानचित्रिकसत्कमङ्गाश्च कथं न गण्यन्ते ? इति चेत् , उच्यते कर्मप्रकृतौ क्षपकश्रेणौ निद्राद्विकस्योदयानभ्युपगमेऽप्युपशमश्रेणा उप Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ ] औपशमिकसम्यक्त्वाधिकारः [ नरकगता उदयः शान्तमोहं यावत्तदुदयस्याभ्युपगमात् प्रस्तुतेऽपि तत्सम्यक्त्वोत्पत्तौ चतुःस्थानकरसबन्धस्य संम्भवः, तन्मन्दोदयात् | साकारोपयोगेऽपि मन्दनिद्रोदयो न विरुध्यते, स्त्यानर्द्धित्रिकस्य तु तरसोदयसंभवात् तद्वर्जनम् । आवश्यक हारिभद्रीय नृत्यादिष्वनाकारोपयोगेऽपि सम्यक्त्वप्रतिपत्तेरभ्युपगमात् तत्र निद्रोदयस्याविरुद्धत्वं सूपपद्यते तन्मतेनेत्यवधेयम् । उदयस्थानकम् ( द्वितीयम् ) (१) ५४ + मय: (२) ५४ + जुगुप्सा (३) ५४ + अन्यतरनिद्रा तृतीयमुदयस्थानकम् विकल्पाः प्रथम: द्वितीय: तृताय: स्थापना प्रकृतयः कषायाः युगले ४ X २ ४ X २ ४ X २ प्रकृतयः ५६ ५४+भय+जुगुप्सा ५४+१ निद्रा + भयः ५४+१ निद्रा + जुगुप्सा ४ X X X ५५ ४ X X वेदनीये २ २ २ X ૬૪ अथ कस्यचिज्जीवस्य भयजुगुप्सानिद्राणामन्यतमायां युक्तं षट्पचाशत्प्रकृत्यात्मकं तृतीयमुदयस्थानकं भवति, तद्भङ्गास्त्वित्थं भावनीयाः । यदा भयजुगुप्साभ्यां युक्तमिदमुदयस्थानकम्, तदा पूर्ववत् षोडश भङ्गाः । यदा निद्राभयाभ्यां युक्तम्, तदा षोडश भङ्गा निद्राद्विकेन गुणिता द्वात्रिंशद् भङ्गाः । यदा निद्राजुगुप्साभ्यां युक्तमिदमुदयस्थानकं तदा भङ्गाः पूर्ववद् द्वात्रिंशत् । इत्थं षट्पञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकस्य तृतीयोदयस्थानकस्य त्रयो विकल्पा अशीतिश्चभङ्गाः स्थापना कषायाः युगले वेदनोये, निद्रे ४ X २ x २ x २ × निद्रे = २ = २ X २ २ X २ भङ्गाः १६ १६ ३२ कस्यचिज्जीवस्य भयजुगुप्सानिद्राभियुक्तं सप्तपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकं चतुर्थोदयस्थानकं भवति । भङ्गास्तु पूर्वोदयस्थानकस्य तृतीयविकल्पप्रमाणा द्वात्रिंशत्तथैव । सङ्कलिता भङ्गाः १६ ३२ ३२ ८० स्थापना चतुर्थमुदयस्थानकम् प्रकृतयः ५७ कषायाः, युगले, वेदनीये, निद्रे = सङ्कलिता भङ्गाः ५४ + भय + जुगुप्सा + निद्रा ४ X २ X R × २=३२ अथ भङ्गगणनाया विधिरभिधीयते Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३-७ ] उपशमनाकरणम अथ व्यत्यस्यमानाः प्रकृतीगश्रित्य भङ्गा गण्यन्ते । अत्र कषाययगलवेदनीयनिद्रा. रूपाणां प्रकृतीनां व्यत्यासो भवति, नाऽन्यासाम् । अतस्ता एवाऽऽश्रिन्याऽत्र भङ्गा आनेयाः । यदुदयस्थानके यासु व्यत्यस्यमानप्रतिपक्षाग्नेकप्रकृतिषु यस्या अन्यतमायाः प्रकृतेरुदयो भवति, तदुदयस्थानके तत्प्रकृतिस्थाने तासां व्यत्यस्यमानानेकप्रकृतीनां सङ्ख्या स्थाप्या, इति नियमः । प्रतिपक्षत्वं चाऽत्र युगपदुदयाऽभाववत्वं द्रष्टव्यम् , तद्यथा प्रथमगुणस्थानके कषायचतुष्कऽन्यतमस्य कषायस्योदयो भवति, ततः कषायस्थाने व्यत्यस्यमानानेकप्रकृतिलक्षणक्रोधादिकषायचतुष्कस्य चतुःसंख्या स्थाप्या । एवं द्वयोयुगलयोरन्यतरस्य युगलम्योदयस्ततो युगलस्थाने द्विकं स्थाप्यम् । द्वयोर्वे वेदनीययोरन्यतरस्य वेदनीयस्योदयस्ततस्तत्स्थाने द्विसंख्या स्थाप्या । तदनन्तरं परस्परं गुणनं कर्तव्यम् । एवं प्रकारेण भङ्गाः प्राप्यन्ते । ननु द्वितीयोदयस्थानके भयजुगुप्सयोः परस्परं व्यत्यासात्पूर्वोक्तनियमेन ४४२४२ पोडशसंख्या भयजुगुप्मासत्कसंख्याभ्यां द्वाभ्यां गुणितव्येति चेत् , उच्यते, द्वितीयोदयस्थानके मयजुगुप्सयोः परस्परं व्यत्यासेऽपि प्रतिपक्षत्वाऽभावात् षोडशसंख्या द्वाभ्यां न गुण्यते । अत्र पृथक् पृथक् द्वौ विकल्पो कृती, एको जुगुप्साप्रक्षेपेण द्वितीयश्च भयप्रक्षेपेण । तृतीयस्तु विकल्पोऽन्यतरनिद्राप्रक्षेपेण क्रियते । सम्यक्त्वाऽभिमुखनारकस्योदयभङ्गाः । उदयस्थानके प्रकृतयः ५४ ५५ ५६ ५७ मङ्गाः १६ ६४ ८० ३२ = सङ्कलित भङ्गाः १६२ सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य सुरस्योदये वर्तमानाः प्रकृतयःज्ञानावरणस्य पश्च दर्शनावरणस्य चतस्रोऽथवा निद्राद्विकादन्यतस्या निद्रया सह पञ्च अन्तरायस्य पश्च वेदनीयद्विकस्याऽन्यतरं वेदनीयमुच्चैगोत्रं देवायुमोहनीयम्य च कषाय चतुकं स्रीपुरुपयोग्यतरो वेदो युगलद्विकम्याऽन्यतरद्युगलं मिथ्यात्वमित्यष्टकं भयेन सह जुगुप्सया सह वा नवकम् , उभाभ्यां सह दशकमिति जघन्यतो नामकर्म वर्जशेषकर्मणां पश्चविंशतिरुत्कृष्टस्त्वष्टाविंशतिः प्रकृतयम्तथा सवपर्याप्तिभिः पर्याप्तवान्नामकरण एकोनत्रिंशत्प्रकृतयः । ताश्चेमाः--ध्रुवोदया द्वादश तथा देवगतिपञ्चेन्द्रियजातिक्रिय द्विकसमचतुरस्रसंस्थानसुखगन्यपघातपराघातोच्छवासत्रसचतुष्कसुम्बराः सुभगो दुर्भगो वाऽदेयोऽनादेयो वा यशःीत्ययशःकीन्योरन्यतरा चेति नामकर्मण एकोनत्रिंशम् । सम्यक्त्याभिमुखदेवम्य जघन्यपदे चतुष्पश्च शत्प्रकृत्यात्मकं चरममुदयस्थानकम् । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुग्गता उदयः ] औपशमिकसम्यक्त्वाधिकारः [ १७ सुरगतौ प्रत्येककर्मण उदये वर्तमानानामुत्तरप्रकृतीनां यन्त्रम् - __ ज्ञाना०, दर्शना०, अन्तरायम्, वेदनीयम् , गोत्रम्, आयुः, मोह०, नाम, संकलिताः प्रकृतयः जघन्यतः ५ ४ ५ १ १ १ ८ २६ ५४ उत्कृष्टतः ५ ५ ५ १ १ १ १० २९ ५७ देवगतो प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुत्पादयतः सुरस्य चत्वायुदयस्थानकानि । तत्राऽऽद्य चतुछपश्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् , द्वितीयं पञ्चपश्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् , तृतीयं षट्पञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् , चतुर्थ सप्तपश्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् यद्यपि देवस्योदयम्थानकानि नरकगतिवत्सन्ति, तथाऽप्यत्र यो विशेषः, मोऽत्राभिधीयते । नरकगती नपुसकवेदस्यैवोदयः, सुरगतो तु स्त्रीपुरुषयोग्यतरस्य वेदम्योदयः, तथा नारकम्य दुर्भगत्रिकस्येवोदयः, म देवगतौ तु सुभगदुर्भगयोरन्यतरम्योदयः आदेयानादेययोग्यतरस्योदयः. यश कीर्त्यशःकीत्याग्न्यतरस्योदयः, इति नारकाऽपेक्षया सुरम्य (२x२x२x२=१६) पोडशगुणा भङ्गा भवन्ति । तथाहि नारकस्य द्विनवतिशतं (१९२) भङ्गा भवन्ति, देवस्थ तु त एक पोडशभिगुणिता द्विसप्तत्यधिकानि त्रीणि सहस्राणि भङ्गा भवन्ति । विशेपपरिज्ञानार्थं सुरगतो प्रत्येकोदयम्थानकम्य पृथक् पृथग भङ्गाः प्रदर्श्यन्ते । ___ कषायाः युगले, वेदौ. वेदनोये-सुभगादिभिस्सह दुर्भगादयः । प्रथममुदयस्थानक म-प्रकृतय. ५४ ४ ४ २ x २४ २x२x२ x २ =२५६ द्वितीयमुदस्यथानकम्-प्रकृतयः ५५ ५४+ निद्रा, प्रथम: ४ x २ x २x२x२x२x२x२ -५१२ ५४+भयः, द्वितीयः ४ X २ x २ x २४ २४ २ x २ = २५६ ५४+ जुगुप्सा , तृतीय: ४ x २ x २ x २४ २ x २ x २ =२५६ १०२४ तृतीय मुदयस्थानकम प्रकृतय ५६ ५४+निद्रा+भयः, प्रथमा ४ x २ x २४ २५ २ x २ x २x२ = ५१२ ५४+जुगुप्सा+निद्रा, द्वि. ४४ २५ २ x २४ २ ४ २x२x२ =५१२ ५४+ भय जुगुप्सा तृतीयः ४४ २ x २४ २४ २४ २५ २ २५६ • १२८० चतुथमुदयस्थानकम-प्रकृतयः ५७ ५५+भय+जुगुप्सा-निद्रा ४४ २४ २५ २४ २ x २४ २४ २ =५१२ __ कुलभङ्गाः ३०७२ दिगम्बरैर्देवगतौ दुर्भगाऽनादेयाऽयशःकीर्तीनामुदयो नाऽभ्युपगम्यते, तेन तेषां मताऽनुसारेण - नारकाऽपेक्षया सुरस्य द्विगुणाश्चतुरशी तित्रिशतं भङ्गा भवन्ति१९२४ २=३८४ तथा चोक्त लब्धिसारे देवगतावपि नरकगतिवत, अयं तु विशेषः- तत्र नामकर्मप्रकृतयः प्रशस्ता एवौच्चैगोंत्रमेव मोहनीयप्रकृतिषु नपुंसकवेदमपनीयस्त्रीपुरुषवेदमेलनाद् द्विगुणभङ्गाः। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा ३-७ सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य तिरश्च उदये वर्तमानाः प्रकृतयः - ज्ञानावरणस्य पञ्च दर्शनावरणस्य चतस्रोऽथवा निद्राद्विकस्याऽन्यतरया सह पञ्चाऽन्तरायस्य पञ्च वेदनीयद्विकस्याऽन्यतरद्वेदनीयं चैत्रं तिर्यगायुमहनीयस्य कपायचतुष्को वेदत्रिकस्याऽन्यतरो वेदो युगल द्विकस्याऽन्यतरद्युगलं मिध्यात्वमित्यष्टकम्, भयजुगुप्सयोरन्यतरया सह नवकम् उमाभ्यां सह दशकमिति नामकर्मवर्जशेषाणां जघन्यतः पञ्चविंशतिरुत्कृष्ट तस्त्वष्टाविंशतिः प्रकृतयस्तथा सर्वपर्याप्तिभिः पर्याप्तत्वातिरथो नामकर्मणस्त्रिशत्प्रकृत्यात्मक मुदयस्थानकमथवोद्योतेन सहैकत्रिंशत्प्रकृत्यात्मक मुदयस्थानकम् । तत्र प्रकृतयो ध्रुवोदया द्वादश तिर्यग्गतिः पञ्चेन्द्रियजा तिरौदा रिकद्विकं संहननपट्केऽन्यतमं संस्थानपट्केऽन्यतमं खगतिद्विकेऽन्यतरा खगतिरून घातपराघातोच्छ्वासौ त्रस चतुष्कं सुस्वरदुःस्वरयोरन्यतरः सुभगादुर्गयोरन्यतर आदेयाऽनादेययोरन्यतरो यशः कीर्त्ययशः कीत्योरन्यतरेति त्रिंशत्, उद्योतेन सह त्वेकत्रिंशत्, अतो जघन्यपदे पञ्चपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकमुदयस्थानकम् । उत्कृष्टपद एकोनषष्टिप्रकृत्यात्मक मुदयस्थानकमिति पञ्चोदयस्थानकानि । स्थापनया तिर्यग्गतौ भङ्गा अधो दर्श्यन्ते – प्रथममुदयस्थानकम् प्रकृतयः ५५ १८ ] कषायाः, युगले, वेदाः, वेदनीये, खगतो, स्वरौ, सुभगदुभंगी, प्रादेयानादेयो, यशायशसो, संघ, संस्था ४ x २ x ३ x २ x २ × २ x २ x २ x २ X ६ x ६ द्वितीयमुदयस्थानकं प्रकृतयः ५६ विकल्पः प्रकृतयः । प्रथमः ५५ + निद्रा ४ × २ × ३ × २x२ x २x२२x२३x६x२ द्वितीय ५५ + भयः ४ × २ × ३ × २ x २ x २x२x२ x २x६ x ६ तृतीयः ५५ + जुगुप्सा ४ × २ × ३x२x२x२x२x२x२ ६ ६ चतुर्थः ५५ + उद्योतः ४ x x ३ x २ x २x२x२x२x२x६६ निद्रे प्रकृतयः ५७ =५५२९६ भङ्गाः = = तृतीयमुदयस्थानकम् विकल्पः प्रकृतयः निद्रे प्रथमः ५५ + निद्रा +भयः ४ × २ × ३ × २ × ×२x२ x २x२x६× ६x२ द्वितीयः ५+निद्रा + जुगुप्सा-४ x २ × ३× २x२x२x२x२x२x६ x ६x२ = तृतीय: ५५ + निद्रा + उद्योतः ४२४ ३४२ × २२२२४२ ×६×६×२ = चतुर्थ: ५५ + जुगुप्सा + भयः ४ x २ × ३x२x२x२x२x२x२x६ x ६ =3 षश्वम: ५५+भय + उद्योतः ४x२ x ३x२ x २x२ × २ × २ × २x६ x ६ = षष्ठः ५५+ जुगुप्सा + उद्योतः ४२४ ३४२ x २x२x२४२x२ × ६६ = = = - ११०५९२ ५५२९६ ५५२९६ ५५२६६ २७६४८० ११०५६२ ११०५६२ ११०५६२ ५५२६६ ५५२९६ ५५०६६ ४९७६६४ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्गतो मनुष्यगतौ चोदयः ] औपशमिक सम्यक्त्वाधिकारः चतुर्थमुदयस्थानकम् विकल्पः, प्रकृतयः निद्रे प्रथम : ५५+भयः + जुगुप्सा + निद्रा ४x२३x२४३x२४२४२x२२ ६६ × २ द्वितीय: ५५ + उद्योतः + निद्रा+भयः ४x२४३x२x२x२३x२x२४२x६ × ६४२ तृतीयः ५५+ जुगुप्सा + उद्योतः + निद्रा ४४२३६२४२४२०x२२x६×६x२ चतुर्थः ५५+भयः+जुगुप्साः + उद्योतः ४x२४३x२x२४२x२x२x२x२x६×६ ममुदयस्थानकम् प्रकृतयः ५६ ५८ प्रकृतयः विकल्पः प्रथमः ५५ + मयः + जुगुप्सा + निद्रा + उद्योतः जघन्यतः - ५ उत्कृष्टतः - ५ ४×२×३×२x२x२ २२२२६६४६४२ = ११०५९२ तिर्यग्गतौ वर्तमानस्य सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य पञ्चानामुदयस्थानकानां संकलिता मङ्गाथतुरधिकशतसप्तविंशतिसहस्रत्रयोदशशतसहस्रप्रमाणाः । 11 स्थापना 11 उदयस्थानकम् - प्रथमम् द्वितीयम् तृतीयम् चतुर्थम् पश्चमम् संकलिताभङ्गाः मङ्गाः - ५५२६६, २७६४८०, ४६७६६४, ३८७०७२, ११०५९२, = १३,२७१०४ सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य मनुष्यस्योदये वर्तमानाः प्रकृतयः ज्ञानावरणस्य पञ्च, दर्शनावरणस्य चतस्रोऽथवा निद्राद्विकेऽन्यतरया निद्रया सह पश्च, अन्तरायस्य पश्च, वेदनीयद्विकस्याऽन्यतरद्वेदनीयम्, गोत्रद्विकस्यान्यतरगोत्रम्, मनुष्यायुः, मोहनीयस्य प्राग्वदष्टकं नवकं दशकं वेति नामकर्मवर्जशेषकर्मणां जघन्यतः पञ्चविंशतिरुत्कृष्टतोऽष्टाविंशतिप्रकृतयस्तथा नामकर्मणः प्रकृतयस्त्रिशत्तिर्यग्वत् किन्तु तिर्यग्गतिस्थाने मनुष्यगतिर्वक्तव्या । अत्रोद्योतेन सहैकत्रिंशत्प्रकृत्यात्मकमुदयस्थानकं नाऽस्ति, स्वभावस्थ मनुष्याणामुद्योतोदयाभावात् । सुभगादुर्भगादीनामन्यतरस्योदयस्तिर्यग्वज्ज्ञेयः । अत्र चत्वार्यु' दयस्थानानि । तत्र प्रथममुदयस्थानकं पञ्चपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकं चरममुदयस्थानकमष्टपञ्चाशत्प्रकृत्यात्मकम् । भङ्गास्तु निम्नलिखिताः । १ निद्रे मनुष्यगत प्रत्येककर्मण उदये वर्तमानानां प्रकृतीनां यन्त्रम् । ज्ञाना० दर्श● अन्त० वेदनी • गोत्र • आयुः मोह० नाम० संकलिताः प्रकृतयः ४ १ ८ ३० ५ १० ३० १ [ 1ε ܕ =११०५६२ =११०५९२ ११०५१२ १ = ५५२९६ ३८७.७२ ५५ ५८ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] प्रथम मुदयस्थानकं प्रकृतयः ५५ कषायाः, युगले, वेदः, वेदनीये, गोत्रे, खगतो, सु. दु., आ. अना, य. श्रय, संघ, सं., ४ x २ x ३ x २ x २ x २ x २ x २ द्वितीयमुदयस्थानकम् प्रकृतयः ५६ विकल्प: तृतीयमुदयस्थानकम् निद्र प्रथमः ५५ + निद्रा ४ x २ x ३ x २x२४२२४०x२x२x६ x ६× २ द्वितीय: ५५ + भयः ४ X २ x ३ x २x२x२४२x२x२x२४६×६ २३ २x२x२x२ x २x२x६ × ६ तृतीय: ५५ + जुगुप्सा ४ प्रकृतयः ५७ विकल्प: प्रथमः ५५ + निद्रा+भयः द्वितीय: ५५ + निद्रा + जुगुप्सा ४ तृतीय: ५५ -+- भय. + जुगुप्सा ४ चतुर्थमुदयस्थान कम् उपशमनाकरणम् ४x२x ३४ x २x२x२x२x२x२x६४ ६x२ २ ३x२x२२x२x x २x२x६६ × २ २३ × २४ २४ २x२x x २x२x६ x ६ · [ गाथा ३-७ २ x ६ x ६ = ११०५५२ - प्रकृतय. ५८ ५५ + निद्रा + भयः+ जुगुप्सा ४x२३ २४ २२x२२x२ x २x६ x६x२=२२११८४ सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य मनुष्यस्य सङ्कलितभङ्गाश्चतुरधिकशतसप्तविंशतिसहस्रत्रयोदशशत सहस्रप्रमाणाः । - "यन्त्रम्” उदयस्थानकम् - प्रथमम् द्वितीयम् - तृतीयम् चतुर्थम् = मङ्कलिताः भङ्गाः सङ्गाः- ११०५९२-४४२३६८-५५२६६०-२२११८४ = १३२७१०४ सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य तिरवः सर्वेषामुदयस्थानकानां यावन्त उदयभङ्गास्तावन्त एव सम्यक्त्वमुत्पादयतो मनुष्यस्योदय भङ्गाः । कथमिति चेद् उच्यते- मनुष्यगतौ सम्यक्त्वमुत्पादयत उद्योतोदयो न भवत्यतस्तद्भङ्गा मनुष्यगतौ न भवन्ति । तथाऽपि तिर्यग्गतौ नीचैर्गौत्रस्वोदयः, मनुष्यगतौ तु गोत्रद्विकस्याऽन्यतरस्योदयो भवतीति सङ्कलितभङ्गमङ्ख्याया न वैषम्यम् । " २२१५८४ ११०५६२ ११०५६२ ==२२११८४ =२२११८४ = ११०५६२ ら चतुषु गतिषु वर्तमानानां सम्यक्त्वाऽभिमुखानां जीवानां सर्वोदयस्थानकानामुदय Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औपशमिकसम्यक्त्वाधिकार: [ २१ उदयभङ्गाः । भांश्च दर्शयद्यन्त्रम्उदयस्थानके वर्तमानाः | प्रकृतयः नारकस्योदयभङ्गाः ६६ देवस्योदयभङ्गाः तिरश्चोदयभङ्गाः मनुष्यस्योदयभङ्गाः |x सङ्कलितभङ्गाः ८० ४ ६४ १०२४ १२८० ५५२६६ | २७६४८० ११०५१२४२२८६. ५१२ ४६७६६४ | ३८७०७२ ५५२१६०२२११८४ ३०७२ ५०५४२ १३२७१०४ x | १३२७१०४ २६५७४७२ एवं द्विसप्तत्यधिकचतुःशतसप्तपश्चाशत्सहस्रषड्विशतिशतसहस्रप्रमाणा भङ्गा भवन्ति । कपायप्राभृतस्य चूर्णिकारः सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य जीवस्य निद्राप्रचलयोरुदयो नाऽभ्युपगम्यते । दशनावरणचतुष्कस्यैवोदयस्तैरभ्युपगम्यते । तथा च तद्ग्रन्थः "पंचदंसणावरणीय चदुजादिणामाणि चदुआणुपुधिणामाणि आदावथावरसुहुमअपज्जन्तसाहारणसरीरणा. माणि एदाणि उदएण वोच्छिणाणि।" तेन तद्भिप्रायेण निद्राभङ्गानपनीय शेषा भङ्गा ज्ञेयाः । ते च सङ्कलितभङ्गास्तृतीयांशप्रमाणा भवन्ति । तथाहि--ये सङ्कलितभङ्गास्तेषां त्रयोंऽशाः कर्तव्याः, प्रथमांशो निद्राद्विकोदयवर्जितस्योदयस्थानकस्य, द्वितीयांश निद्रोदयसहितस्योदयस्थानकस्य, तृतीयांशः प्रचलोदयासहितस्योदयस्थानकस्य । इत्थं द्वावंशो निद्राद्विकोदयसहितस्योदयस्थानकस्य । अतस्तेषां मतेन एकोऽशः संभवतीति हेतोः सङ्कलितभङ्गास्तिसृभिः संख्यामिर्भज्यन्ते, भागफलं च तेषां मताऽनुसारेण भङ्गा भवन्तीति चतुर्विशत्यधिकाऽ. टशतपश्चाशीतिसहस्राऽष्टशतसहस्रप्रमाण” भङ्गाः प्राप्यन्ते ॥८८५८२४।। चातुर्गतिकसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य प्रकृत्युदयोऽभिहितोऽथ स्थित्यनुभागप्रदेशोदयोऽभिधीयते । स्थित्युदयः-उदयप्राप्तस्यै कस्थितिस्थानकस्योदयो भवति तथोदीरणाकरणेनोदयावलिकावर्जसत्तास्थसर्वस्थितिस्थानकानां दलिकान्युदयन्ति । अनुभागोदय:-5 उदयवत्प्रकृतीनामप्रशस्तानां प्रशस्तानां चाजघन्याऽनुत्कृष्टरसस्याऽ. भिधीयते । फ्र टिप्पणी-जयधवलायामूदयवत्प्रकृतीनामप्रशस्तानां द्विस्थानकस्य प्रशस्तानां च चतुःस्थानकस्यानुभागोऽभिहितः । तथा च तद्ग्रन्थ: ‘जात्रो अपसत्थपयडीयो उदएण अज्झीणाश्रो तासि विट्ठाणिओ अणुभागो संतादो अणंत गुणहीणो उदएग अज्झीरणामो । । जाओ पसत्थ पयडीओ उदएण अज्झीणायो तेसि पयडीण चउढाणीओ अरा भागो बंधादो अणंतगुणहीणसरुवो उदयादो अज्झीणो' । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३-७ १७ प्रकृतिसत्ता- चातुर्गतिकाः सम्यक्त्वमुत्पादयन्तो मिथ्यादृष्टयो जीवा द्विविधाः (१) अनादिमिथ्यादृष्टयः (२) सादिमिथ्यादृष्टयश्च अनोपशमसम्यक्त्वोत्पादनायाऽधिकारः । अनादिमिथ्यादृष्टिना कदाऽपि सम्यक्त्वं न प्राप्तम् । ततस्तस्य जन्तोः सम्यक्त्वमोहनीयस्य मिश्रमोहनीयस्य च सत्ता न भवति, यतोऽनयोः प्रकृत्योः सत्ता सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य मिथ्यादृष्टेमिथ्यात्वगुणस्थानकचरमसमयेऽथवा मताऽन्तरेण सम्यक्त्वप्राप्तिसमये सम्यग्दृष्टेस्त्रिपुञ्जकरणेन भवति । सम्यक्त्वतः पतितस्तु मिथ्यात्वगुणस्थानकवर्ती सादिमिथ्या दृष्टिस्तावदुपशमसम्यक्त्वं नोत्पादयति, यावद् द्वे प्रकृती उद्वलनासक्रमेण निस्सत्ताके न भवतः । किन्तु स झायोपमिकसम्यक्त्वं प्राप्तु समर्थों भवति । प्रथमगुणस्थानक उद्वलनासक्रमेण ते द्वे प्रकृती सत्कर्मतः विच्छियैव करणत्रयेण प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वमश्नुते । न चानयोः प्रकृत्योरुद्वलनामृते पुनरुपशमसम्यक्त्वं कथं न प्राप्यत इति वाच्यम् , यतः सास्वादनगुणस्थानकस्याऽन्तरं जघन्यतः पल्योपमाऽसंख्येयभागोऽस्ति । सास्वादनगुणगुणस्थानकं चौपशमिकसम्यक्त्वतः परिपतता जन्तुना प्राप्यते, नाऽन्यथा । उपशमसम्यक्त्वतश्च पतित्वा पल्योपमाऽसंख्येयभागे काले व्यतिक्रान्त एव पुनरुपशमसम्यक्त्वमुत्पादयति, यतो मिथ्यात्वमासाद्य मिश्रसम्यक्त्वपुजा उद्वलनासक्रमेणाऽविनाश्य पुनरुपशमसम्यक्त्वं प्राप्तुं न शक्नोति । तथा मिश्रसम्यक्त्वपुञ्जयोर्विनाशश्वोद्वलनासंक्रमणेन पल्योपमाऽसंख्येयभागरूपेण कालेन भवति । अतः पञ्चसङ्ग्रहस्य द्वितीये द्वार एकषष्टितमगाथायाष्टीकायां सास्वादनगुणस्थानकस्याऽन्त प्रदर्शद्भिः श्रीमद्भिर्मलयगिरिसूरीश्वरैरुक्तम्... इह सास्वादनमनुभूय भूयोऽपि सास्वादनभावं भजते, तहि नियमाज्जघन्यतोऽपि पल्पोपमाऽसंख्येयभागेऽतिकान्ते नाऽर्वाक । कथमेतदवसीयत इति चेद् , उच्यते-इह सास्वादनभावमासादयति नियमादौपशमिके सम्यक्त्वे वर्तमानो नाऽन्यथा, सास्वादनभावाऽनुभवतश्च मिथ्यात्वं गतोऽवश्यं भूयः सम्यकत्वमासादयति षड्विंशतिसत्कर्मा सन् करणत्रयपूर्वकमोपशमिकं नाऽन्यः, षड्विंशतिसत्कर्मा च भवति मिश्रसम्यक्त्वपुञ्जयोस्वलितयोः, तबुद्धलना च पल्यो. पमाऽसंख्येयभागरूपेण कालेन नाऽन्यथा । ततो भूयः सास्वादनभावप्रतिपत्तेरन्तरं जघन्यतोऽपि पल्योपमाऽसंख्येयभागः। किश्च शतकनामकर्मग्रन्थस्य चतुरशीतितमाया गायायाष्टीकायां श्रीमद्भिदेवेन्द्रसूरीश्वरैरप्युक्तम्...तत्र सास्वादनगुणस्थानकस्य जघन्याऽन्तरं पल्यो. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३ प्रकृतिसत्ता ] औपशमिकसम्यक्त्वाधिकारः पमाऽसंख्येयभागः, इतरगुणस्थानकानां तु जघन्यमन्तर्मुहुर्तमित्यक्षरार्थः । भावार्थः पुनरयम् -योऽनादिमिथ्यादृष्टिरुद्वलितसम्यक्त्वमिश्रपुञ्जो वा मिथ्यादृष्टिः षड़विंशतिसत्कर्मा सन्नन्तरकरणादिप्रकारेणोपलब्धौपशमिकसम्यक्त्वोऽनन्तानुवन्ध्युदयात्सास्वादनभावमासाद्य मिथ्यात्वं गतस्सन यदि तदेव सास्वादनं पुनर्लभतेऽन्तरकरणप्रकारेणैव, तदा जघन्यतोऽपि पल्योपभाऽसंख्येयभागोर्ध्व गतस्य प्रथमसमये सम्यक्त्वमिश्रपुजौ सत्तायामवश्यं तिष्ठत एव । न च तयोः सत्तायां वर्तमानयोः पुनरुपशमसम्यक्त्वं लभते । तदभावा. सासादनं दुरापास्तमेव । तथा चाऽग्रेऽप्यस्या एव गाथायाष्टीकायामुक्तम् "तता पल्योपमा. ऽसंख्येयभागेन मिश्रसम्यक्त्वपुञ्जयोरुदलितयोस्तदन्ते कश्चिज्जन्तुः पुनरप्योपशमिकसम्यक्त्वमासाद्य सासादनत्वं गन्तीत्येवं सासादनस्य पल्योपमाऽसं. ख्येयभागोऽन्तर भवतीति । । एतेन स्पष्टं भवति यावत्सम्यक्त्वमिश्रपुजौ सत्तायां भवतस्तावत्कश्चिदपि मिथ्यादृष्टिजन्तुरुपशमसम्यक्त्वं प्राप्तु नाहति । अतः औपशमिकसम्यक्त्वमुत्पादयतः सम्यक्त्वमोहनीयमिश्रमोहनीये प्रकृती सत्तायां न भवतः । तेन सम्यक्त्वमोहनीयमिश्रमोहनीयायुखिकाऽऽ. हारकचतुष्कजिननामकर्मरूपा दश प्रकृतयोपि सत्तायां न विद्यन्ते, शेवास्तु जघन्यतोऽष्टात्रिंशच्छतं प्रकृतयः सत्तायां भवन्ति, किन्तु बद्धपरभवायुष्कस्य त्वेकोनचत्वारिंशच्छतं प्रकृतयः मत्तायां भवन्ति । ननु प्रथममुपशमसम्यक्त्वमुत्पादयत आहारकचतुष्कं जिननाम च पञ्च प्रकृतयः सत्वेन भवितु कथं नाऽर्हन्तीति चेद् , उच्यते-योऽनादिमिथ्यादृष्टिस्तस्यैताः प्रकृतयस्सन्वेन न भवन्ति, यत आहारकचतुष्कमप्रमत्तप्रभृतिगुणस्थानकेऽविरतिसम्यग्दृष्टिप्रभृतिगुणस्थानके च जिननाम बध्यते । यः सादिः मिथ्यादृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्य तदन्वप्रमत्तगुणस्थानकं न प्रापत् , अथवाऽप्रमत्तगुणस्थानकं प्राप्याऽपि नैयतिकबन्धाऽभावेनाऽऽहारकचतुष्कमबद्ध्या मिथ्यात्वं प्रतिनिवृत्तस्तस्याऽऽहारकचतुष्कं सत्वे न विद्यते, किश्च येन जन्तुनाऽप्रमत्तगुण. स्थानक आहारकचतुष्कं बद्धम् , यदि परिणामपतनेन मिथ्यात्वादिगुणस्थानकं लमेत, तर्हि तम्य पूर्वमुद्वलनामङ्क मेणाऽऽहारकचतुष्कं निःसत्ताकं भवति, तत ऊर्द्धमेव सम्यक्त्वमिश्रपुजी निःसत्ताको भवनः । एतेन सम्यक्त्वमिश्रपुञ्जयोनिःसत्रमाहारकचतुष्कस्य निःसवावं' भवति । तथा षड्विंशतिसत्कर्मा सन्नेव प्रथमं सम्यक्त्वमुत्पादयति, नाऽन्यः, तत्र मिश्रसम्यक्त्वपुजयोरभावादाहारकचतुष्काऽभावः सिद्ध एव । जिननामसत्कर्मा मिथ्यात्वं नाऽधिगच्छति, नवरं बद्धनरकायुष्कः जिननामसत्कर्मा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकर गम [ गाथा - ३ ७ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिशन्तमौहूर्तिकायुषि शेषे मिथ्यात्वं गच्छति, स पुनरौपशमिकसम्यन प्रतिपद्यते, किन्तु मृत्वा नरके पर्याप्तः सन् म । नारकः क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमे वाऽश्नुते । अत उपशमसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य जिननाम मत्त्वे न भवति । इत्थं सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य सत्तायामष्टात्रिंशच्छत मे कोनचत्वारिंशच्छतं वा प्रकृतयो भवन्ति । तत्र पविंशतिशतं प्रकृतयो ध्रुवसत्ताकाः । ध्रुवत्वं चाssसामनादिमिथ्यादृष्टेः सत्तायामवश्यं भावात् । अध्रुवसत्ताकाश्च द्वादश त्रयोदश वा तत्र तेजोवायुकायिकजीवमध्यादागतस्याऽपर्याप्ताऽवस्थायामन्तमुहूर्त यावद् मनुष्य द्विकमुच्चेगोत्रं च सच्चे न विद्येते । तत ऊर्ध्वमवश्यं बध्यमानत्वेन वासां सत्कर्म भवत्येव । तथा चैकेन्द्रि येण देवद्विकनरकाद्विक क्रियशरीरसंघातबन्धनाङ्गोपाङ्गलक्षण क्रियचतुष्करूपा अष्टौ प्रकृतय उद्बलनासङ्क्रमेणोद्वन्यन्ते तस्मादेकेन्द्रियावस्थायामासामभावोऽपि भवति । एकेन्द्रियान्निष्क्रान्तस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्याऽप्यासामभावोऽल्पकालपर्यन्तमेव । अन्तर्मुहूर्ते व्यतिक्रान्ते सत्तायामेताः प्रकृतयो बन्धद्वारेणाऽवश्यं प्राप्यन्ते । तेनैता उपशममम्यक्त्वाऽभिमुखस्य सत्तायामवश्यं भवन्ति । इत्थं सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य वेद्यमानाऽऽयुषा सह ध्रुवसत्ताकाष्पविंशतिशतं देवद्विकनरकाद्विकवैक्रिय चतुष्कमनुष्यद्वि कोच्चैर्गोत्ररूपाश्च द्वादश प्रकृतय इत्यष्टात्रिंशच्छतं चंद्रपरभवायुष्कस्य त्वेकोनचत्वारिंशच्छतं प्रकृतयः सत्तायां भवन्ति । २४ ] 1 अत्र कषायप्रामृतचूर्णिकृतो मतानुसारेण मोहनीयस्य सप्तविंशतिसत्कर्माऽष्टाविंशतिसत्कर्मा वाऽपि प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुत्पादयति । " ननु मोहनीयस्य सप्तविंशतिसत्कर्माऽष्टाविंशतिसत्कर्मा वा प्रथमोपशमसम्यक्त्वं लभत इति कषायप्राभूतचूर्णिकारैरुक्तम् कथमेतदवसीयत इति चेद् उच्यते- प्रकृतिविभक्त्यधिकारे मोहनीयस्य सप्तविंशतिसत्कर्मणोऽवस्थान कालो जवन्यत एकसमयप्रमाणः कषायप्राभूतचूर्णिकारे भणितस्तद्यथा--"सत्तावीस विहत्ती केवचिर कालादो ! जहणेण एगसमओ ।" तथा सत्तास्थानकस्याऽन्तरद्वारेऽष्टाविंशतिसत्कर्मणो जघन्यमन्तरमेकसमयप्रमाणं भवति, अक्षराणि त्वेवम् - "अट्ठावीस विहत्तस्स जहणणेण एगसमओ ।" इदमन्तरमुपशमसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य सम्यक्त्वमिश्र पुज्जयोः सत्कर्म अभ्युपगम्यैवोपपन्नं भवति, अन्यथाऽष्टाविंशतिसतास्थानकस्य जघन्यमन्तरं सप्तविंशतिस्थितिस्थानकस्य च जघन्यतोऽवस्थानकालोऽपि पल्योपमाऽसंख्येयकालप्रमाणो भवेत्, यतः सम्यक्त्वतः परिभ्रश्य मिथ्यात्वं गतोऽष्टाविंशतिसत्कर्मा सम्यक्त्वमोहनीयं मिश्रमोहनीयं चोद्वलयितुमारभते । पल्योपमाऽसंख्येयभागेन कालेनोद्वलिते सम्यक्त्वमोहनीये तस्य सप्तविंशतिसत्कर्म भवति । अत्रं यदि षड्विंशतिसत्कर्मा प्रथमसम्यक्त्वमासादयतीत्यभ्युपगम्यते, तर्हि मिश्रमोहनीयमप्युद्वलितव्यम् । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृतिसत्ता 1 औपमिकसम्यक्त्वाधिकारः [ २५ सम्यक्त्वमोहनीयोद्वलनायाः परतो मिश्रमोहनीयं च पल्योपमाऽसंख्येयभागेन कालेन सर्वथोद्वलयति, तत एव षविंशतिसत्कर्मा भवति, नाऽवाक् । ततः कश्चिद् षड्विंशतिसत्कर्मा जन्तुः करणत्रयेण भूयोऽष्टाविंशतिसत्कर्मा भवेत् तर्हि मोहनीयकर्मण सप्तविंशतिसत्कर्मणो जघन्याऽ वस्थानकालोऽष्टाविंशतिसत्कर्मणां जघन्यमन्तां च पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणमेव भवेन्न समयप्रमाणम् । कषायप्राभतचूर्णिकारस्तु सप्तविंशतिसत्कर्मणो जघन्याऽवस्थानकालोऽष्टाविंशतिसत्कमणश्च जघन्यमन्तरमेकसमयप्रमाणमेव स्वीकृतमिति सप्तविंशतिसत्कर्मणो जघन्याऽवस्थानकालम्याऽष्टाविंशतिसत्कर्मणो जघन्याऽन्तरम्योपपत्तये सप्तविंशतिसत्कर्माऽष्टाविंशतिसत्कर्माऽपि प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वमुत्पादयतीत्यवश्यमभ्युपगन्तव्यम् । तथाहि-मिथ्यात्वगुणस्थानके सम्यक्त्वसम्यक्त्वमिथ्यान्वपुजी तावदुवलयति यावदन्तमुहूर्तन्यूनपल्योपमासंख्येय भागो व्यतिक्रान्तो भवति । ततः कश्चिदुपशमसम्यक्त्वाभिमुखो जीवो यथाप्रवृत्तादीनि त्रीणि करणानि करोति । यदा तेनाऽनिवृतिकरणम्य विचरमसमयः प्राप्यते, तदा सर्वसमयक्त्वपुञ्जमद्वलितं भवति, न किश्चित्सत्तायामवतिष्ठते । अतस्तस्य जन्तोर्मोहनीयस्य सप्तविंशतिसत्कर्म भवति । तत औपशमिकसम्यक्त्वप्राप्तिसमये त्रिपुञ्जकरणेनाष्टाविंशतिसन्कर्म प्राप्यत इति सप्तविंशति सत्कर्मणोऽवस्थानकाल एकसमयप्रमाणस्तथेवाऽष्टाविंशतिसत्कर्मणो जघन्याऽन्तरमप्येकसमयप्रमाणमुपपद्यते, अत्र जघन्याऽन्तरस्योपपत्तयेऽसो प्रक्रिया प्रदर्शिता । अन्यः कश्चिज्जन्तुस्त्वनिवृत्तिकरणस्य चरमसमयपर्यन्तमप्युद्वलयन्नुपशमसम्यक्त्वप्राप्तिसमयेऽपि सर्वथा सम्यक्त्व. मोहनीयं निस्सत्ताकं न करोतीति मोहनीयस्याऽष्टाविंशतिसत्कर्मा सन्नपि प्रथमोपशमिकसम्यकत्वमश्नुते । इदमत्र हृदयम् :-सम्यक्त्वतः पतित्वा मिथ्यात्वं गतो जन्तुरन्तमुहर्ते व्यतिक्रान्ते सम्यक्त्वमिश्रपुञ्जयोरुद्वलनामारभते । उद्वलनामक्रमेणोद्वलयतो जन्तोर्यावदुदयाऽयोग्या स्थितिः सत्तायां न भवेत्तावद्यदि कश्चिज्जन्तु सम्यक्त्वं लमेत, तर्हि क्षायोपशमिकमेव । यदोद्वलयता जन्तुना सत्तायामुदयाऽयोग्या स्थितिः प्राप्यते, तनः प्रभृति करणत्रयपूर्वकमीपशमिकमम्यक्त्वमेव लभते, न क्षायोपशामकम् । इत्थं सप्तविंशतिसत्कर्माऽष्टाविंशतिसत्कर्मा वा प्रथमोपमिकसम्यक्त्वं प्राप्तुमर्हति । ननु कियती स्थितिरुदयाऽयोग्या भवतीति चेद् , उच्यतेजघन्यतः पल्यापमाऽसंख्येयभागोनसागरोपमप्रमाणस्थितिरुदययोग्या, ततो हीना स्थितिरुदयाऽयोग्या, कथमेतदवसीयते ? इति चेद् , उच्यते-मिश्रमोहनीयस्य जघन्यस्थित्युदीरणकेन्द्रिय जातावुद्वलयतस्तत आगतस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागोनसागरोपमप्रमाणोक्ता, तस्मात्तावत्येव स्थितिरुदययोग्या, ततो हीनोदयाऽयोग्या । किन्तु त्रसकाय Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] उपशमनाकरणम् [ गाथा-८ उद्वलयतो जन्तोर्मिश्रस्योदययोग्या स्थितिः पूर्वतोऽधिका वाच्या, एकेन्द्रियत आगतस्य संज्ञिपञ्चेन्द्रियस्यैव मिश्रस्य जघन्यस्थित्युदीरणायाः स्वामित्वेन निर्देशात् । एवमेव मिथ्यात्वगुणस्थानक उद्घलयतो जन्तोः सम्यक्त्वमोहनीयस्योदयाऽयोग्या स्थितिस्तावत्येव संभाव्यते । तथा सास्वादनस्य जघन्यमन्तरमपि पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणमस्मिन्मतेऽप्युपपन्न भवति, यत उभौ सम्यक्त्वमिश्रपुञ्जा उद्वलनामङक्रमेण पल्योपमासंख्येयभागे व्यतिक्रान्त एवोदयायोग्यौ भवतः । स्थितिसत्ता-"गिरिनदीपाषाणवृत्तता" इति न्यायेनास्मिन्संसारे संसरता प्राणिनां स्थितिरन्तःसारारोपमकोटाकोटीप्रमाणा यावन्न भवति, तावत्कोऽप्युपशमसम्यक्त्वाऽभिमुखो न भवति । अतः सत्तायां स्थितिरन्तःसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणैव विद्यते । (१९) अनुभागसत्ता-सम्यक्वाभिमुखस्य सत्तायां याः प्रकृतयस्सन्ति, तासामजघन्यानुत्कृष्टोऽनुभागो विद्यते । तत्राप्रशस्तानां प्रकृतीना द्विस्थानकः प्रशस्तानां प्रकृतीनां बध्यमानानां चतु:स्थानकोऽवध्यमानानां द्विस्थानको वा त्रिस्थानको वा चतुःस्थानको वा सत्तायां भवति । __(२०) प्रदेशसत्ता- सम्यक्त्वाऽभिमुखस्याऽजधन्याऽनुत्कृष्टा प्रदेशसत्ता भवति । प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुत्पादयतो योग्यता लक्षणाऽन्तमुहूर्तप्रमाणभूमिकाया वक्तव्यतां विम्तम्त उक्त्वा करणत्रयस्य कालनिर्देशसहितां वक्तव्यतामुपशान्ताद्धां च व्याजिहीर्ष राह करणं अहापवत्तं अपुचकरामनियट्रिकरणां च । अंतोमुहुत्तियाइं उवसंतद्धं च लहई कमा ॥॥ करणं यथा प्रवृत्तमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च । आन्तमौहूतिकान्युपशान्ताद्धां च लभते कमात् ॥८॥ इति पदसस्कारः । करणकालात्पूर्वमन्तमुहर्तकालं यावदुपयुक्तविशुद्धथा प्रवर्धमानः करणत्रयं करोति, तत्र करणं परिणामविशेषः । आदौ यथाप्रवृत्तं करणं करोति, ततः क्रमेणाऽपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च करोति । एतानि त्रीण्यपि करणानि प्रत्येकमन्तमुहूर्तप्रमाणानि, करणत्रयकालोऽप्यन्तमु हूर्तप्रमाण एव । तत्राऽनिवृत्तिकरणकालात्संख्येयगुणोऽपूर्वकरणकालस्तथा चोवतं कषाय प्राभतचूर्णा अल्पबहुत्वाऽधिकारे त्रयोविंशतिशततमसूत्रे "अणिपटिअडा संखेज्जगुणा १२४ अपुव्वकरणाडा सखेज्जगुणा ।" करणत्रयनिष्पादनक्रमादनन्तरमुप ॐ जयघवलायामप्रशस्तानामनुभागसत्कर्म द्विस्थानकं प्रशस्तानां च चतुःस्थानकं विद्यते इत्युक्तम् । तरक्षराणि त्वेवम् .."अणुभागसंतकम्मपि पप्पसस्थाणं कम्माणं .. बिट्ठाणियानुभागसंतकमिओ पसत्थाणं पि पयडोणं च उट्ठाणाणुभागसंतकम्मिनों' (जय धवला पृष्ठ १६९८) Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धादयः ] [ २७ शान्ताद्धां च लभते, उपशान्ताद्धां च लभमान उपशमसम्यक्त्वमासादयति । सा उपशान्ताऽद्धायान्तमौहूर्तिकी ज्ञातव्या । क्रमश एकैककरणस्य स्वरूपं तत्र च प्रवर्तमानक्रियां व्याचिख्यासुराहसमय वतो व सागाणांत गुणणाए । परिणामट्टागाणं दोसु वि लोगा श्रसंखिज्जा ॥१॥ यथाप्रवृत्तकररणाधिकारः समये वर्धमानोऽध्यवसायानामनन्तगुणनया | परिणाम स्थानानां द्वयोरपि लोका असंख्येयः । इति पदसंस्कारः । आदौ यथाप्रवृत्तकरणस्याऽधिकारः । तत्र वक्ष्यमाणस्वरूपाः स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिगुणसङ्क्रमश्च न भवन्ति, तद्योग्यविशुद्धयभावात् । तथा चाऽस्य करणस्य प्रथमसमये नूतनः स्थितिबन्धो भवति, तत्स्थितिबन्धः पूर्वस्थितिबन्धाऽपेक्षया पल्योपम संख्येय भागहीनो भवति । अयं स्थितिबन्धोऽन्तर्मुहूर्तकालं यावद्भवति, तत ऊर्ध्वं स्थितिबन्धे पूर्णे सत्यन्यस्थितिबन्धः पूर्वस्थितिवन्वाऽपेक्षया पल्योपमसंख्येय भागहीनो भवति । + इत्थं प्रत्यन्तमुहूर्त पूर्वपूर्वस्थितिबन्धाऽपेक्षयात्तरोत्तरस्थितिबन्धः पन्योपमसंख्येयभागहीनो भवति । अत्र स्थितिबन्धस्य कालोऽन्तर्मुहूर्त प्रमाण उक्तः तेनेदमुक्तं भवति - यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमये यः स्थितिबन्ध आरब्धः, स एव स्थितिबन्धोऽर्तमुहूर्त कालं यावद्भवति, न न्यूनाऽधिकः # नन्वेक एवं स्थितिबन्धोऽन्तशु मुहूर्तपर्यन्तं कथं भवति : प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पादकस्य प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धयमानत्वाद्, विशुद्ध हि सत्यां स्थितिन्यू ना वध्यत इति नियमादिति चेत्, उच्यते, प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धयमानत्वेऽपि सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य स्थितिरेकैव बध्यते, केवलमनुभागो विषमो बध्यते, यत एकस्य बध्यमानस्थितिस्थानस्य हेतुभूतकषायोदयस्थ नकान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । तत्रैकैककपायोदयस्थानेऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यनुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानानि तेन प्रतिसमयं विशुद्धेर्वर्धमानत्वेऽप्येकस्थितिबन्धे न कश्विद्विरोधः, अनुभागबन्धे तु विशेषोऽस्त्येव । अशुभानां प्रकृतीनां द्विस्थानकः शुभानाश्च प्रकृतीनां चतुःस्थानिकोऽनुभागो बध्यते । प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धया विशुद्धयमानत्वाच्छुभप्रकृतीनामनन्तगुणवृद्धोऽशुभप्रकृतीनां चानन्तगुणहीनो बध्यते । + टिप्पणम् - यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथम समये यः स्थितिबन्धो भवति तदपेक्षया सहस्रं र्हीयमानैः स्थितिबन्धैश्चरमसमये संख्येयगुणहीनो भवतीत्युक्तं लब्धिसारे तथा च तदक्षराणि....... आदिमकरणद्धाए पढमट्ठिदिबंधदो दु चरिमम्हि । संखेज्जगुणविहीरगो ठिदिबंधो होइ नियमेण ॥ १ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा इदमत्राऽवधेयम् - - यथाप्रवृत्त करणम्य चश्मसमयमभव्यसिद्धिका अपि प्राप्नुवन्तीत्येतदुक्तम्, तत्र विशुद्धयपेक्षयोभयेषां भव्याऽभव्यानां यथाप्रवृत्तकरणं भिन्नमस्तीति प्रतिभासते, यतो यथाप्रवृत्तकरणात्पूर्वाऽवस्थायां विशुद्धिं प्रदर्शयता ग्रन्थकृता ग्रन्थिकसत्त्वाऽभव्याऽपेक्षयाऽनन्तगुणवृद्धया विशुद्धिः सम्यक्त्वाऽभिमुखस्य भव्यस्य करणत्रयस्य पूर्वावस्थायां दर्शिता, ततोऽपि प्रति समयमनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धिः प्रवर्धमाना भवति, तेनोभयोर्यथाप्रवृत्तकरणं विशुयापेक्षया भिन्नं वक्तव्यम् । २८ ] "अणुसमयं " ति. अनुममयं = समये समय इति वीप्सायां "योग्यतावीप्सार्थाऽनतिवृत्तिसादृइये” (सिद्धहेम ० ३ | १ |४० ) इति सूत्रेण । व्ययीभावसमासः “अज्झवसाणाणं" इत्यादि, अध्यवसानानामनन्तगुणनया विशुद्धया प्रवर्धमानो यावत्करणसमाप्तिर्भवति, तावन्निरन्तरं वर्धते । कियन्ति पुनरध्यवसायस्थानकानि प्रत्येकं करणेषु लभ्यन्त इति चेद्, उच्यते"परिणामहाणाणं दासु वि लोगा असखिज्जा" द्वयोरपि यथाप्रवृत्ता पूर्वकरणयोः परिणाम स्थानानामनुसमयमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । इयमत्र भावना- यथाप्रवृत्त करणस्य प्रथमसमयेऽध्यवसायस्थानकान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति । यथाप्रवृत्तकरणस्य द्वितीये समयेऽप्यध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भवन्ति, किन्तु पूर्वतो विशेषाऽधिकानि, एवं द्वितीयात्समयातृतीयसमये विशेषाऽधिकानि एवं यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमयं यावद् वाच्यम् । यथाप्रवृत्तकरणस्य द्विचरमसमयाऽपेक्षया चरमसमयेऽध्यवसायस्थानकानि विशेषाऽधिकानि वक्तव्यानि तथा चैतान्युपर्युपरिमुखान्यनुचिन्त्यमानान्यनन्तगुणवृद्धया प्रवर्धमानान्यध्यवसायस्थानानि तिर्यक् च षट्स्थानपतितानि । स्थाप्यमानान्यध्यवसायस्थानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । न चैकस्मिन्समय एकस्य जीवस्यैकमेवाऽध्यवसायस्थानं भवति, अत्र यथावृत्तकरणस्य प्रथमसमयेऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्तीति कथमुच्यत इति वाच्यम्, यतः सत्यमेतत् यद्यप्येकस्मिन्समय एकस्य जीवस्यैक एवाऽध्यवसायस्थानं विद्यते । तथाऽपि त्रिकालमाश्रित्य यथाप्रवृत्तकरणे प्रथमसमयवर्तिनानाजीवाऽपेक्षयाऽसंख्ये यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि वक्तव्यानि । " ननु यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमयं स्पृशन्तस्त्रिकालमाश्रित्य जीवा अनन्ता भवन्ति, अध्यवसायस्थानानि त्वसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यभिहितानि, अनन्तानि कथं न वाच्यानि ? उच्यते, यद्यपि जीवा अनन्तास्तथाऽप्यध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, यतो यथाप्रवृत्तकरणे प्रथमसमयवर्तिनां बहूनामनन्तानां जीवानां समानान्यध्यवसायस्थानानि १ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तात्रमन्दते ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः [ २६ भवन्ति, तथाहि - त्रिकालमाश्रित्य यथाप्रवृत्तकरणे प्रथम ममयवर्तिषु केषाञ्चिदनन्तानां जीवानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाऽध्यवसायस्थानेभ्यः सर्वजघन्यमध्यवसायस्थानं यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमये भवति, इतरेषां केषाचिदनन्तानां जीवानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाऽध्यवसायस्थानेभ्यः पूर्वतो विशुद्धतरमन्यदध्यवसाय स्थानं भवति, ततोऽपि विशुद्धतरमसंख्येयलो - काकाशप्रदेशप्रमाणाऽध्यवसायस्थानेभ्य इतरदध्यवसायस्थान मन्येषामनन्तानां जन्तूनां भवति । एवं तावद् वाच्यम्, यावदसंख्येयलोकाशप्रदेशप्रमाणाऽध्यवसायस्थानानामुत्कृष्टमध्यवसायस्थानम् । एवं शेषसमयेष्वप्यवगन्तव्यम् । इत्येवमनन्तानां जीवानां समानाऽध्यवसायस्थानत्वेनाध्यवसायस्थानानामसंख्येयत्वमविरुद्धम् । तेषामन्यतममध्यवसायस्थ'नं यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमये भवति । एवं शेषेषु समयेष्वप्यवगन्तव्यम् । यथाप्रवृत्तकरणस्याऽध्यवसायस्थानानां प्ररूपणां कृत्वा तेषां तीव्रतामन्दतानिरूपणं चिकी राह- मंद विसोही पदमस्स संखभागाहि पढमसमयम्म | उक्करसं उपिमहो एक्केकं दोराह जीवाणं ॥ १० ॥ श्राचरमा सेसुक्कोस्सं पुव्वप्पवत्तमिइ नाम 1 fasta fasयसम जहराणावि श्रांतरुकसा ॥११॥ नन्दविशोधिः प्रथमस्य सख्यभागात् प्रथमसमये । उत्कृष्टमुपयंघ एकैकं द्वयोर्जीवयोः ॥ १० ॥ आचिरमाच्छेषोत्कृष्टा पूर्वप्रवृत्तमिति नाम द्वितीयस्य द्वितीयसमये जघन्याऽप्यनन्त रोत्कृष्टा ॥ १ १ ॥ इति । यत्र तत्तत्समयवर्तिनां जीवानां समानमध्यवसायस्थानं भवति, तत्र सर्वेषां विशुद्धिपि समाना विद्यते, विशुद्धेर्न किञ्चिद्वैषम्यम् । अत्र तु यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रतिसमय मध्यवसायस्थानान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, ततो यथाप्रवृत्त करणे तत्तत्समयवर्तिनां जीवानां विशुद्धंरपि भिन्नत्वम्, केषाञ्चिज्जघन्या केषाञ्चिद् मध्यमा केषाञ्चिदुत्कृष्टा विशोधिरित्यर्थः । एतदुक्तं भवति - तत्तत्समयवर्तिनां जन्तूनां विशुद्विभेदेऽसख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षटूस्थानक - पतितान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति । तथाहि - यथाप्रवृत्त करणे प्रथमसमयवर्तिषु जीवेषु कस्यचिज्जीवस्याऽपेक्षया तदन्यस्याऽनन्तभागवृद्धम्, असंख्यात भागवृद्धम्, संख्यात भागवृद्धम्, संख्यातगुणवृद्धम्, असंख्यातगुणवृद्धम्, अनन्तगुणवृद्ध वाऽध्यवसायस्थानं भवति, एवं कस्यचिज्जीवस्याsपेक्षया तदन्येषां भिन्नभिन्नजन्तूनां षड्विधहानिविशिष्टान्यध्यवसायस्थानान्यपि भवन्ति, एवं सर्वसमयेषु वाच्यम् । इयं तिर्यङ्मुखीविशुद्धिरुच्यते । यत्र तत्तत्समयस्थानामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाऽध्यवसायस्थानानां परस्परं विशुद्धिर्विमृश्यते सा तिर्यङ्मुखी विशुद्धिरुच्यते । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] उपशमनाकरणम । गाथा -११ ऊर्ध्वमुखी विशुडि:-पौर्वसामयिकविशुद्धयपेसयोत्तरमामयिकविशुद्धविमर्शनमूर्ध्वमुखी विशुद्धिरुच्यते । तद्यथा..."मंदविसोही' इत्यादि, इह द्वौ पुरुषो युगपद्यथाप्रवृत्तकरणप्रतिपन्नौ बुद्धावारोप्यते । एकः सर्वजघन्यया विशुद्धया यथाप्रवृत्त करणप्रतिपन्नः, अपरस्तु सर्वोत्कृष्ट या विशुद्धया । तत्र 'पढमस्स" ति प्रथमस्य' पुरुषस्य "मंदाविसोहो" ति, सर्वजघन्या विशोधिः, एतदुक्तं भवति सर्वजघन्यया विशुद्धया प्रतिपन्नम्य पुरुषस्य यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमये सजघन्या विशोधिः सर्वस्तीका. ततो द्वितीयसमय जघन्या विशोधिरनन्तगुणा, ततस्तृतीयसमये जघन्यविशोधिरनन्तगुणा, एवं तावद्वाच्यं यावद्यथाप्रवृत्तकरण म्य ‘संखेज्जभागाहिआहि' त्ति, संख्येयभागो गतो भवति । अयं च यथाप्रवृत्तकरणम्य संख्येयभागो नाम्ना कण्ड कमिति विज्ञेयम् । प्रथमकण्डकस्य चरमसमयम्य जघन्य विशुद्धद्वितीयस्य पुरुषस्य यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमय उत्कृष्टा विशोधिग्नन्तगुणा वाच्या।। ततोऽपि प्रथमकण्डकम्योपरितन प्रथमसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा, ततो यथाप्रवृत्तकरणस्य द्वितीयममय उन्कृष्टा विशोधिग्नन्तगुणा, ततः प्रथमकण्डकस्योपरितनद्वितीयसमये विशोधिरनन्तगुणा । ततो यथाप्रवत्तकरणस्य तृतीयसमय उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा । ततः प्रथमकण्डकम्योपरितनतृतीयममये विशोधिग्नन्तगुणा । एवम् 'उप्पिमहो" ति, उपर्यधश्चैकैकं विशोधिस्थानमनन्तगुणतया तावद् वाच्यं यावद्यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमकण्डकस्य चरमसमये जघन्या विशोधिः । ततः 'आचरमाओ सेसुक्कोस' त्ति, चरममभिव्याप्य यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसंख्यातमागस्याऽर्थाच्चरमकण्ड कम्य योत्कृष्टा विशोधिग्नुक्ता सा क्रमेण निरन्तरमनन्तगुणा वाच्या । तथाहि-यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमये या जघन्या विशुद्धिस्ततो यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमकण्डकस्य योत्कृष्टा विशोधिग्नुक्ता मा प्रथमसमयेऽनन्तगुणा, ततो द्वितीयसमयेऽनन्तगुणा । एवं क्रमेण यावच्चरमसमयमुत्कृष्टा विशुद्धिर्वाच्या, उपयुक्तविशुद्धेः परिपाटियथाप्रवतकरणस्याऽध्यवसायस्थानानामनुकृष्टि ज्ञापयति । अतः सा विवण्यते । तत्राऽनुकर्षणमनुकृष्टिः "स्त्रियां क्तिः" सिद्धहेम (५।३.११) इति भावे 'क्ति' प्रत्यया, कतिपयानां प्राक्तनसमयस्थाऽध्यवसायस्थानानामग्रेतनसमयेऽनुवृत्तिरिति यावत् । इदमुक्तं भवति-प्रथमसमयस्थानि कतिपयाऽध्यवसायस्थानानि द्वितीयसमयेऽप्यनुवर्तन्ते, एवं तृतीयादिसमयेष्वपि, अन्यथा प्रथमसमयाऽपेक्षया द्वितीयसमयेऽध्यवसायस्थानान्येकान्तेन भिन्नान्येव स्युः । ननु यदि सर्वाण्येकान्तेन भिन्नान्येव स्युः, ततः किं स्यात् , इति चेदुच्यते, यदि प्रथमसमयाऽपेक्षया द्वितीयसमय एकान्तभिन्नान्येवाऽध्यवसायस्थानानि स्युस्तर्हि प्रथमसमयस्थसर्वोत्कृष्टविशुद्धाऽध्यवसायस्थानापेक्षया द्वितीयसमयस्य सर्वजघन्याऽध्यवसायस्थानकस्य Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकृष्टिः ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः [ ३१ विशुद्धिरनन्तगुणा वाच्या, वक्ष्यमाण पूर्वकरणवत् । किन्त्वत्र तु यथाप्रवृत्त करणसत्कप्रथमसंख्यात भागचरमसमयं यावज्जघन्या विशुद्धिरुत्तरोत्तराऽनन्तगुणा तथा संख्यात भागस्य चरमसमयस्य जघन्यविशुद्धितो यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमय उत्कृष्टा विशुद्धिरनन्तगुणा प्रागुक्ता । अतो यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमयस्योत्कृष्ट विशुद्धेरपि यथाप्रवृत्तकरण सत्कप्रथम संख्यातभागस्यचरमसमये जघन्या विशुद्धिरनन्तगुणहीना भवति तथा प्रथम संख्यात भागस्योपरितनसमये जघन्या विशुद्धिर्यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमममययुत्कृष्टविशुद्धि तोरनन्तगुणा । विशुद्धेरियं परिपाटिरध्यवसायानामनुकृष्टिं सूचयति । तद्यथा यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमये यान्यध्यवसायस्थानानि तानि क्रमशस्तस्य संख्येयभागं प्रथमकण्डकसंज्ञं यावत्प्रतिसमयं हीयमानान्यनुवर्तन्ते तथा प्रथमकण्डकरूप संख्येयभागस्याऽग्रेतनसमये प्रथमसमय वर्त्येकमप्यध्यवसायस्थानं नाऽनुवर्तत इत्येवं द्वितीयसमयवर्तीन्यध्यवसायस्थानानि द्वितीयकण्डकस्य प्रथमसमयं यावदनुवर्तन्ते । एवं तृतीयसमयवतन्यध्यवसायस्थानानि द्वितीयकण्डकस्य द्वितीयसमयं यावद् गच्छन्ति एवं यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमकण्डकस्य प्रथमसमयवर्तीन्यध्यवसायस्थानानि यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमयं यावद् गच्छन्ति । अत्रेदमवधेयम् - प्रथमसमयवर्तीनि यावन्त्यध्यवसायस्थानानि, तावन्ति सर्वाणि द्वितीयसमये नाऽनुवर्तन्ते, किन्त्येककण्डकस्याऽसंख्येयसमयप्रमाणत्वात् प्रथमसमयवर्तिनो जघन्याऽध्यवसायस्थानादारभ्याऽसंख्येयतमं भाग मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यध्यवसायस्थानानि द्वितीयसमये प्राप्यन्तेऽन्यानि चाऽऽयान्ति । न च जघन्याऽध्यवसायस्थानं कथमुच्यते, विशुद्धरेव जघन्यत्वमुत्कृष्टत्वं च भवतीति वाच्यम्, 'कारणे कार्योपचारः' इति न्यायेनाऽध्यवसायस्थानस्याऽपि जघन्यत्वमुत्कृष्टत्वं च घटते, तेन जघन्याऽध्यवसायस्थानं कोऽर्थः ? जघन्यविशुद्धि जनकमध्यवसायस्थानमित्यर्थः, तथा प्रथमसमयवर्तीनि यान्यध्यवसायस्थानानि मुक्तानि तदपेक्षया द्वितीयसमय आगच्छन्त्यध्यवसायस्थानानि विशेषाऽधिकानि भवन्ति । अत एव प्रथमसमयाऽपेक्षया द्वितीयसमयेऽध्यवसायस्थानानि विशेषाऽधिकानि भवन्ति । एवं यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमयं यावद् वाच्यम्, तथा च प्रथमसमये चिमुच्यमानाऽध्यवसायस्थानेभ्यो द्वितीयसमये विमुच्यमानाऽध्यवसायस्थानानि विशेषाऽधिकानि भवन्ति, एवं यावद् द्विचरमसमयं ज्ञेयम् । किञ्च द्वितीयसमय आगच्छद्भयोऽध्यवसायस्थानेभ्यस्तृतीयसमय आगछन्त्यभ्यवसायस्थानानि विशेषाऽधिकानि । ततोऽपि चतुर्थसमय आगच्छन्त्यध्यवसायस्थानानि विशेषाऽधिकानि । एवं आ यथाप्रवृत्तकरण सत्कचरमसमयाद् वाच्यम् । यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमसमये यान्यध्यवसायस्थानानि विमुच्यन्ते तानि केवलं प्रथमसमयवर्तीनि अग्रेतने कस्मिंश्चिदपि समये तेषां गमनाऽभावेन तान्यननुकृष्टान्युच्यन्ते । एवं 1 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] उपशमनाकरणम [ गाथा१०-११ चरमसमय आगच्छतामध्यवसायस्थानानामपि चरमस्थ नमात्रवर्तित्वेन पूर्वमनागतत्वादननुकृष्टत्वं ज्ञेयम् । यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमममयवर्तीन्यध्यवसायस्थानानि करणस्य संख्येयभागरूपकण्डकगतानि संख्येयसमयप्रमाणं यावदनुवर्तन्ते, तत आ यावद्भः समयेभ्यः प्रथमसमयस्याऽध्यवसायस्थानान्यनुकृष्यन्ते, तावन्ति खण्डानि कर्तव्यानि । तत्रापि पूर्वपूर्वखण्डेभ्यरुत्तरोत्तरखण्डानि विशेषाऽधिकानि विशेषाऽधिकानि द्रष्टव्यानि, यत उत्तरोत्तरसमये विशेषाऽधिकानि विशेषाधिकान्यध्यवसायस्थानानि विमुच्यन्ते । द्वितीयसमये पूर्वकृतानां खण्डानां प्रथमखण्डो विमुच्यते, तथा प्रथमसमयस्य चरमखण्डाद् विशेषाऽधिकमन्यत्खण्डं संकल्यते, तृतीयममये द्वितीयसमयस्याऽऽद्यखण्डं त्यज्यते, तथाऽनापि पूर्ववद् द्वितीयसमयस्य चरमखण्डात्संकल्यमानमन्यत्खण्डमपि विशेषाऽधिकं ज्ञेयम् । एव तावद् वाच्यं यावद्यथाप्रवृत्तकरणस्य संख्येय भागो गतो भवति । अत्र प्रथमसमयवर्तिनामध्यवसायस्थानानां चरमखण्ड स्याऽनुकृष्टिः परिसमाप्ता, ततः परं तस्याऽनुवृत्यमावात् । तदनन्तरं यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमकण्डकस्य द्वितीयसमयवर्त्य ध्यवसायस्थानानां चरमखण्डस्याऽनुकृष्टः प्रथमकण्डकस्योपरितनाऽऽद्यसमये परिसमाप्ता । एवं तृतीयादिकसमयवर्तिचरमखण्डानामनुकृष्टौ परिसमाप्यमानायां यदा यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमसमयः प्राप्यते, तदा यथाप्रवृत्तकरणस्य चरमकण्डकस्य चरमसंख्यातभागस्य प्रथमसमयवर्तिखण्डस्याऽनुकृष्टिः परिसमाप्ता भवति । इदन्त्ववधेयम् - प्रत्येकखण्डे प्रथमाऽध्यवसायस्थानस्य विशुद्धेश्वरमाऽध्यवसायस्थानस्य विशुद्धिरनन्तगुणा तथा कस्मिंश्चिदपि खण्डे चरमाऽध्यवसायस्थानस्य विशुद्धस्तदुत्तरखण्डस्य प्रथमाऽध्यवसायस्थानस्थ विशुद्धिरनन्तगुणा ज्ञेया । अस्मिन् क्रमे स्वीक्रीयमाण एव यथाप्रवृत्तकरणे विशुद्धिक्रमोपपत्तेः, तथा च प्रत्येकसमयस्याऽध्यवसायस्थानानां विशुद्धिः षट्स्थानपतिता, ततः प्रत्येक खण्डस्योपचरमाऽध्यवसायस्थानादनन्तभागवृद्ध विशुद्धं चरमाऽध्यवसायस्थानं वाच्यम् , ततः परस्याऽध्यवसायस्थानस्याऽनन्तगुणवृद्धत्वात् । किश्च षट्स्थानकेऽनन्तागुणवृद्धस्थानकात्पूर्वण स्थानेनाऽनात मागवृद्धेन भवितव्यमिति नियमात् । प्रथमसमयस्य प्रथमखण्डं केनाऽपि खण्डेन न सदृक्षम् , एवं चरमसमयस्य चरमखण्डं केनाऽपि सदृग् न भवति, मध्यसमयवतिखण्डानां परस्पर मादृश्यं विद्यते । तथाहि-यत्प्रथमसमयस्य द्वितीयखण्डं तदेव द्वितीयसमयस्य प्रथमखण्डम् , एवं प्रथमसमयस्य तृतीयं खण्ड तदेव द्वितीयसमयस्य द्वितीयं खण्ड तथा तृतीयसमयस्य प्रथम खण्डम् । अत्र प्रत्येक खण्डेऽध्यवमायस्थानान्यसंख्येयलोकालोकाशप्रदेशप्रमाणानि तथा प्रतिसमयमागच्छन्त्यध्यवसायस्थानान्यप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्र-नागानि भवन्ति । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यवसायस्वानानि ] यथाप्रवृत्तकरणाधिकारः [ ३३ यथाप्रवृत्तकरणस्य सर्ववक्तव्यताऽसत्कल्पनया स्थापना यन्त्रम् (पृ. ३४) आश्रित्य प्रदर्यतेप्रथमसमये प्रथमाऽध्यवसायस्थानादारभ्य चतुरधिकसहसतमपर्यन्तान्यध्यवसायस्थानानि चतुरविकसहस्र भवन्ति । द्वितीयममये प्रथमाऽऽयवसायस्थानादारभ्याऽष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततपाऽध्यवसायस्थानपर्यन्तान्यध्यवसाय स्थानान्यष्टचत्वारिंशदधिकद्विशनं विमुच्यन्ते । तथा पश्चाऽधिकसहस्रतमाऽध्यवसायस्थानादारभ्य षष्टयधिकद्वादशशततमाऽध्यवसायस्थानानि षट्पश्चाशदुत्तरद्विशतसंख्याकान्यागच्छन्तीत्यर्थः, अतो नवचत्वारिंशदधिकद्विशततमाऽध्यवसायस्थानादारभ्य षष्टय त्तरद्वादशशतमाऽव्यवसायस्थानपर्यन्तान्यध्यवसायस्थानानि द्वितीयसमये द्वादशाऽधिकसहस्रप्रमाणानि भवन्ति । तृतीयसमये नवचत्वारिंशद्विशततमाऽध्यवसायस्थानादारभ्याऽष्टानवत्यधिकचतुःशततमाऽध्यवसायस्थानपर्यन्तान्यध्यवसायस्थानानिपञ्चाशदुत्तरद्विशतं विमुच्यन्ते. एकषष्टयधिकद्वादशशततमाऽध्यवसायस्थानादारभ्याऽष्टादशाऽधिकपञ्चदशशततमाऽध्यवमायम्थानपर्यन्तान्यध्ययमायम्थानान्यष्टपश्चाशदुत्तरद्विशतप्रमाणान्यागच्छन्ति सङ्कल्यन्त इति यावत् , अतस्तृतीयसमये नवनवतिचतुःशततमाऽध्यवसायस्थानादारभ्याऽष्टादशाऽधिकपञ्चदशशततमाऽध्यवसायस्थानपर्यन्तान्यध्यवसायस्थानानि विशत्यधिकसहस्रप्रमाणानि भवन्ति । एवमाद्वि चरमसमयं वाच्यम् । टिचरमसमय एकमप्तत्यधिकपश्चविंशतिशततमाऽध्यवसायस्थानादारभ्य चतुःपश्चाशतपाटत्रिंशच्छततमाऽध्यवसायस्थानपर्यन्तान्यध्यवसायस्थानानि चतुरशीत्यधिकसहस्रम ; तेभ्यश्चरमममय एकसप्तत्युत्तरपञ्चविंशतिशततमाऽध्यवसायस्थानात्प्रभृत्यष्टात्रिंशदधिकाऽष्टाविंशतिशततमाऽ. ध्यवसायस्थानपर्यन्तान्यध्यवसायस्थानान्यष्टषष्टयधिकद्विशतप्रमाणानि विमुच्यन्ते तथा पञ्चपञ्चाशदधिकषत्रिंशच्छततमाऽध्यवसायम्थानादारभ्य त्रिंशदधिकोनचत्वारिंशच्छततमाऽश्यवसायस्थानपर्यवमानानि षट्सप्तत्यधिकद्विशततमन्यान्यागच्छन्ति;अत एकोनचत्वारिंशदधिकाऽष्टाविंशतिशतनमाऽध्यवसायस्थानादारभ्य त्रिंशदधिकैकोन चत्वारिशच्छततमाऽध्यवसायस्थानपर्यन्तानि द्विनवतिदशशतप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि चरमसमये भवन्ति । अत्राऽपुनरुक्ताऽध्यवसायस्थानानि त्रिंशदधिकैकोनचत्वारिंशच्छतप्रमाणानि भवन्ति; पुनरुक्तान्यध्यवसायस्थानानि षटमप्रत्युत्तरपञ्चशतद्वादशसहस्रप्रमाणानि भवन्ति । तत्समयवत्यध्यवसायस्थानानां चत्वारि खण्डानि क्रियन्ते, ततः सर्वाण्यष्टाचत्वारिंशग्वण्डानि भवन्ति, यद्यपुनरुक्तानि खण्डानि परिगण्यन्ते, तर्हि पञ्चदशैव खण्डानि भवन्ति, तद्यथा- २४८, २५०, २५२. २५४, २५६, २५८, २६०, २६२, २६४, २६६, २६८, २७०, २७२, २७४, २७६ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "स्थापना" समयः प्रथमखण्डम द्वितीयम् तृतीयम चतुर्थम् कतितमं खण्डगता सङ्कलितान्य- विमुच्यमान- श्रागच्छ- भाद्याध्य- पर्यन्ता खण्डम् श्रध्यवसायाः व्यवसाय खण्डवर्त्यध्य- त्खण्ड- बसाय ध्यवसायस्थानानि वसायस्थानानि बत्यध्यवसाय स्थानम् स्थानम् स्थानानि १००४ प्रथमः २४८ २५० (१-२४८) (२४६-४९८) (४९६-७५०) द्वितीयः २५० २५२ तृतोय: २५२ २५४ चतुर्थः २५४ २५६ २५६ पञ्चमः २५८ षष्ठः २५८ २६० सप्तमः २६० अष्टमः ૬૨ नत्रमः २६४ दशमः २६६ एकादशः २६८ द्वादश: २० २६२ २६४ २५२ २५४ २६६ २६८ २७० २७२ (७५१ - १००४) २५४ २५६ पञ्चमम् २५६ २५८ २५८ २६० २६० २६२ २६४ २६६ २६८ २७० २७२ २७४ २६२ २२६ २६६ २६८ ↓ २७० २७२ २७४ २७६ षष्ठम् सप्तमम् श्रष्टमम् नवमम् १००४ दशमम् १००५- १२६० १०१२ १२६१-१५१८ १०२० १५१६-१७७८ १०२८ १०३६ १७७६ - २०४७ २०४१ - २३०४ २३०५-२५७० १०५२ एकादशम् २५७१-२८३८ १०६० १०४४ द्वादशम् २८३६-३१०८ १०६८ त्रयोदशम् ३१०६ - ३३८० १०७६ चतुर्दशम् ३३८१ - ३६५४ १०८४ पञ्चदशम् ३६४५-३९३० १०९२ २४८ २५० २५२ २५४ २५६ २५८ २६० २६३ २६४ २६६ २६८ २५६ २४६ २५८ ४९० ७५१ २६० २६२ २६४ २६६ २६३ २७० २७२ [ ३४ २७४ २७६ १२६० १५१८ १७७८ १००५ २०४० १२६१ २३०४ १५१६ २५७० १७७९ २८३८ २०४१ ३१०८ २३०५ ३३८० २५७१ ३६५४ २८३६ ३६३० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५ यथाप्रतृतकरणस्य चरमस्रव्येय भागः (त्तरमकडकमा एसम्या ८समय यथाप्रवृत्तकरणस्य द्वितीयसंरव्येमभाग तीबडकम यथा प्रवृत्त करणम् समयः (द्वितीयकडकम द्वितीयसंख्येय भाग यथाप्रवत्तकरणस्य ६समयः चरमसममः ज २८३८ ३४३० उ. १२स. तृलीयसमय: ज २५४१ . " ३६५४ उ११समक्षा द्वितीयसमय न २३०५ ३३८० १ ०समय असमसमयः ज २०४१ ३१०८ उ चतुर्थसमय: ज तृतीयसमय: ज. १८ द्वितीयसमयः ज. १२६११ २३०४ उ प्रथमसमयः ज. १०० २०४० ५समय ज. १ ८ ऊ चतुर्थसमय ज. ४e a r e ऊ तृतीतम्भमय समयः है. ज. re , २२६० 3 डिलीय समयः २समयः ज. . . . . . . ३००४ उ. प्रथमतमशः समयः ....... तियेस्थापित रेभिबिन्दुभिरध्यवसायस्थानानि सुनितानि, तानि च परमार्थतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेश राशिमात्राणि, पूर्वपूर्वसमयतश्चोत्तरोत्तरसमये विशेषाधिकानि । स्थाप्यमानानि च विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । ज०-तत्तत्समये प्रथमबिन्दुना यदध्यवसायस्थानं सूचितं, तस्य या विशोधिः, सा जघन्या । ड0-तत्तत्समयेऽन्तिमबिन्दुना यदध्यवसायस्थान सुचितं, तस्य या विशोधिः, सोत्कृष्टा। शेषबिन्दुभिः सुचिताऽध्यवसायस्थानानां या विशोधिः सा मध्यमा, सा च मिथः षट्स्थानपतिता। असत्कल्पनया यथाप्रवृत्तकरणस्य १२ समयाः कल्पिताः, तत्सरव्येयभागश्व चतुस्समयमात्रः । → एतच्चिह्नमनन्तगुणतां सूचयति। ४समयः यथाप्रवृत्तकरणस्य प्रथमभामः (प्रथमकंडकम्) (प्रथमकडकम् प्रथमसंख्येय मानः टयथाप्रकृतकपास्य Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा १०-११ प्रथमसमयस्य प्रथमखण्डं वर्जयित्वा शेषाणि सर्वाणि खण्डानि द्वितीयसमयेऽनुवर्तन्ते । एवं द्वितीयसमयस्य प्रथमखण्डं वर्जयित्वा शेषाणि सर्वाणि खण्डानि तृतीयसमयेऽनुवर्तन्ते । एवं यावद् द्विचरमसमयस्य प्रथमखण्डं वर्जयित्वा शेषाणि सर्वाणि खण्डानि चरमसमयेऽनुवर्तन्त इति वक्तव्यम् । प्रथमसमयवतिप्रथमखण्डं तथा चरमसमयवर्ति चरमखण्डं चाऽन्यत्र नानुवर्तेते, शेषाणि खण्डानि तूत्तरत्राऽनुवर्तन्ते । प्रथमसमयस्य जघन्यमध्यवसायस्थानं प्रथमं भवति तथा द्वितीयसमयस्य जघन्यमध्यवसायस्थान मे कोनपञ्चाशदधिकद्विशततमं भवति । तत्र प्रथमसमयसत्कप्रथमखण्डस्य प्रथमाऽध्यवसायस्थानत एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमाऽध्यवमायस्थानस्य द्वितीयखण्ड सत्काऽऽद्याऽध्यवसायस्थानत्वेनाऽनन्तगुणवृद्ध ं भवति, तथा तदुत्तरवर्तिखण्डस्याऽऽद्यमप्यनन्तगुणवृद्धं भवति । इदमे कोनपञ्चाशदधिकद्विशततमाऽध्यवसाय स्थानं प्रथमसमयस्य द्वितीय खण्डवर्तितेष्वध्यवसायस्थानं प्रथमसमयवर्तिप्रथमखण्ड सत्कचरमाऽध्यवसायस्थानादप्यग्रेतनं भवतीति प्रथमखण्डस्य जघन्यलक्षणप्रथमाऽध्यवसायस्थानाच्चरमाऽष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमाऽध्यवसायस्थानस्याऽनन्तगुण वृद्धत्वेने कोनपञ्चाशद् द्विशततमस्य सुतरामनन्तगुणत्वं सिध्यति । ३६ ] अत एव प्रथमसमयस्य जघन्याऽध्यवसायस्थानादृ द्वितीयसमयवर्तिजघन्याऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणवृद्धम् । एवं द्वितीयसमयस्य जघन्याऽध्यवसायस्थानात्तृतीयसमयवर्तिजघन्याऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणं वृद्धम्, एवं तृतीयसमयवर्तिजघन्याऽध्यवसायस्थानाच्चतुर्थसमयत्रर्तिजघन्याऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणं वृद्धं भवति । चतुर्थसमयस्य जघन्याऽध्यवसायस्थानस्यैकपञ्चाशदधिकसप्तशततमत्वेऽपि प्रथमसमयस्य चतुर्थखण्डस्य जघन्याऽध्यवसायो भवति, तथा प्रथमसमयस्य चतुर्थखण्डस्योत्कृष्टाऽध्यवसाय स्थानं चतुरधिकसहस्रतमं भवति, तच्च जयन्याऽध्यवसायस्थानतोऽनन्तगुणं भवति । तत एव चतुर्थसमयवर्तिजघन्याऽध्यवसाय स्थानतः प्रथमसमयस्योत्कृष्टाऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणवृद्धम् । पञ्चमसमय सत्कजघन्याऽध्यवसायस्थानं यत्पञ्चमखण्डस्य प्रथमं तच्चतुर्थखण्ड सत्कचरमाऽध्यवसायस्थानादनन्तगुणं वृद्धम्, यतः कस्यचिदपि खण्डस्य चरमाऽध्यवसायस्थानात्तदुत्तरवर्त्तिखण्डस्य प्रथमाऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणवृद्धं भवति । तत एव चतुर्थखण्डस्य चरमाऽध्यवसायस्थानलक्षणप्रथमसमयस्योत्कृष्टाऽध्यवसायस्थानात्पश्ञ्चमखण्डस्य प्रथमाऽध्यवसायरूपं पश्चमसमयस्य जघन्यमध्यवसायस्थानमनन्तगुण वृद्धं भवति तथा पञ्चमखण्डस्य प्रथमाऽध्यवसायस्थानरूपात्पञ्चमसमय सत्कजघन्याऽध्यवसायस्थानादू द्वितीयसमयस्योत्कृष्टाऽध्यवसायस्थानं पञ्चमखण्डस्य चरमाऽध्यवसायस्थानत्वेनाऽनन्त Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् ] चित्रम् १ पृष्ठम् ३७ यथाप्रवृत्तकरणम् पूर्व-भूमिका अन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा कर्म दलिकवती स्थितिः । यथाप्रवृत्तकरणे वक्तव्यताया उपसंहारः पूर्ववदुत्तरोत्तरस्थितिवन्ध पत्योपमसंस्थेय भागो अपूर्वकरणत: संस्थातगुणकालः । प्रतिसमयस्येला प्रदेशाध्याय स्थान यमाय स्थानामनुसृष्टि स्थितिपातासात गुण श्रेणयश्च न भवन्ति 1+ 2. 3. 6. 7. M. 9. 10 11 12 13 14 15 16 पर्याप्त चेद्रयः। लब्धजययुक्तः । प्रतिसमयमनन्तगुणा प्रवर्धमाना । अन्यतमे वर्तमानः। अन्यतमे योगे वर्तयाम: । अन्यतमे वेदे वर्तमान अन्यतमे कमाये वर्तमानः । अन्यतमायां शुभलेश्यायां वर्तमानः । आयुर्वसप्तप्रकृती प्रत्यक स्थितिबन्धसागरोपम कोटाकोट प्रमाण: सोि पोपमसंख्येयभागहीनो भवति। अनुमान द्रिस्थानक शुभानां चतुस्थानको तु आगो भवति, सो/पि प्रतिममयं शुभानामनन्तगुणयुद्धे शुभानी चानन्तगुणहीनो भवति। योगानुत्कृष्टो मध्यमो जयन्यो वा प्रदेशबन्ध प्रकृतिमत्ता स्थितिसत्ता प्रत्युषय स्थित्युक्यः अनुभागोय प्रवेशोय 17 18. 19 20 पूर्व भूमिकायां वक्तव्यताया उपसंहारः अनुभागमत्ता प्रदेशसत्ता [ 26 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वकरणाधिकारः अध्यवसायस्थानानि ] गुणवृद्धम् । ततः षष्ठसमय सत्कजघन्यमध्यवसायस्थानं षष्ठखण्डस्याऽऽद्यत्वेनाऽनन्तगुणवृद्धं भवति । एवं यावदेकादशखण्डस्य चरमाऽध्यवसायस्थानलक्षणाऽष्टमसमयस्योत्कृष्टाऽध्यवसायस्थानाद् द्वादशसमयस्य जघन्य मध्यवसायस्थ नं द्वादशखण्डस्याऽऽद्याऽध्यवसायत्वेनाऽनन्तगुणवृद्धं वाच्यम् । ततो नवमसमयस्योत्कृष्टाऽध्यवसायस्थानं द्वादशखण्डस्य चरमाऽध्यवसायस्थानत्वेनाऽनन्तगुणवृद्धं भवति, अत्र जघन्यवक्तव्यतायाः परिसमाप्तिः । अथ नवमसमयस्यो - त्कृष्टाऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणं वृद्ध वाच्यं त्रयोदशखण्डस्य चरमाऽध्यवसायस्थानत्वात् । एवं यावद् द्वादशसमयस्योत्कृष्टाऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणवृद्धं वाच्यम् । [ ३७ अस्य यथाप्रवृत्तकरणस्य द्वितीयं नाम 'पुत्र्वप्पवत्तमिइ नाम' त्ति, पूर्वप्रवृत्तमिति शेषकरणाभ्यां पूर्वं प्रवृत्तत्वात् । (पश्यन्तु पाठका यथाप्रवृत्तकरण- चित्रम् - १) अथाऽपूर्वकरणमभिधीयते । यथाप्रवृत्त करणे समाप्ते सम्यक्त्वाऽभिमुखोऽपूर्वकरणं प्रवि शति । अपूर्वकरणेऽपि पूर्ववत्प्रतिसमयं विशोधेरनन्तगुणावृद्धिर्जायते, तथाऽपि यथाप्रवृत्तकरणादस्य पृथक्करणे द्वे कारणे विद्येते । (१) यथाप्रवृत्त करणे तत्तत्समय वर्त्यव्यवसाय स्थानानां नानाजीवाऽपेक्षयोत्तरोत्तरसमयेअनुकृष्टिर्भवति तथेहानुकृष्टिर्न भवति किन्तु प्रतिसमयाप्राप्तान्येवऽपूर्वाण्यध्यवसायस्थानानि प्राप्यन्ते । " (२) यथाप्रवृत्त करणे वक्ष्यमाणस्वरूपाः स्थितिघातादयो न भवन्ति, अत्र तु भवन्ति । इति द्वे करणे पृथक् क्रियेते । अध्यवसायस्थानप्ररूपणा - " परिणामट्ठा णाणं दोसुवि लोगा असंखिज्जा" इति पूर्वमुक्तं तथाऽप्यत्र विशेषतोऽध्यवसायस्थानानि निरूप्यन्ते । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽध्यवसायस्थानानि नानाजीवाऽपेक्षयाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तद्घटना तु पूर्ववत्कार्या तथा चात्र पूर्वपूर्वसमयादुत्तरोत्तरोत्तरसमयेऽध्यवसायस्थानानि विशेषाऽधिकानि भवन्ति । एवं यावदपूर्वकरणस्य चरमसमयं वाच्यम् । अस्मिन्करणे सर्वाण्यध्यवसायस्थानान्युत्तरोत्तरसमयेऽप्राप्तान्येव प्राप्यन्ते, न तु यथाप्रवृत्त करणाऽध्यवसायस्थानवत्प्राप्ताऽप्राप्तन्युभयान्यपि प्राप्यन्ते, तथाहि - प्रथमसमये यान्यध्यवसायस्थानानि प्राप्तानि द्वितीयसमये तानि न प्राप्यन्ते, अपि त्वनन्तगुणवृद्धया प्रवर्धमानान्यप्राप्तानि विशेषाऽधिकानि प्राप्येन्त एवमुपर्युपरिमुखान्यनुचिन्त्यमानानि प्रतिसमयमनन्तगुण Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] उपशमनाकरणम् [ गाथा १०-११ वृद्ध्या प्रवर्धमानान्यप्राप्तानि विशेषाधिकानि प्राप्यन्ते, । तिर्यक् च षट्स्थानपतितानि ★ एवमुपयु परिमुखान्यमृन्यनुचिन्त्यमानानि प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया प्रवर्धमानान्यप्राप्तानि विशेषाधिकानि प्राप्यन्ते । अस्य करणस्य स्थाप्यमानान्यध्यवसायस्थानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । तीव्रमन्दता--"बीइयव" इत्यादि, द्वितीयस्याऽपूर्वकरणस्य द्वितीयसमये जघन्यमपि विशोधिस्थानमनन्तरोत्कृष्टात्पथमसमयभाविन इत्कृष्टाद्विशोधिस्थानादनन्तगुणं वाच्यम् । इदमत्र हृदयम- -इह यथाप्रवृत्त करण इवाऽऽदितो निरन्तरं जघन्यानि विशोधिस्थानान्यनन्तगुणतया न वाच्यानि किन्तु प्रथमसमये जघन्या विशुद्धि प्रथमलस्सस्तोका वाच्या सा च यथाप्रवृत्त करणचरमसमय भाव्युत्कृष्टविशुद्धिस्थानादनन्तगुणा । 5 ततः प्रथमसमय एवोत्कृष्टाविशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि द्वितीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयममय उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा. ततोऽपि तृतीयसमये जघन्या विशोधिरनन्तगुणा ततोऽपि, एवं जघन्या उत्कृष्टा च विशोधिरनन्तगणवृद्ध्या तावन्नेया यावदपूर्वकरगस्य चरमसमये जघन्यत उत्कृष्टा विशोधिरनन्तगुणा । तिर्यग्मुखी विशोधिरत्र प्रतिसमयं षट्स्थान पतिता यथाप्रवृत्त करणवज्ञया । तथाहि--अपूर्व करणस्य प्रथमसमयवर्तिनानानाजीवाऽपेनयाsसंख्येयलोकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति, तत्र कस्यविज्जीवस्याऽध्यवसायस्थानमनन्त भागवृद्धम् , कस्यचिदसंख्येयभागवृद्धम् , कस्यचित्संख्येयभागवृद्धम् , कस्यचित्संख्येयगुणवृद्धम ; कस्यचिदसंख्येयगुणवृद्धम् , कस्यचिदनन्तगुणवृद्धम् , कस्यचिज्जीवस्याऽध्यवसायस्थानमनन्तभागवृद्धम् , कचिदसंख्येयभागवृद्धम् , कस्यचि. संख्येयभागवृद्धम् , कस्यचित्संख्येयगुणवृद्धस, कस्यचिदमसंख्येयगुणवृद्धम् , कस्यचिद. नन्तगुणवृद्धं वेत्यर्थः । यथाप्रवृत्तकरणाऽपूर्वकरणयोरध्यवसायस्थानसत्कतीव्रतामन्दतयोर्वक्तव्यतां निरूप्याऽपूर्व करणस्य निर्वचनमभिधित्सुराह - *टिप्पण- यथाप्रवृत्तकरणसत्कसर्वाऽध्यवसायस्थानेभ्योऽपूर्वकरणस्य सर्वाण्यध्यवसायस्थानान्य संख्येयगुणानि भवन्ति । उक्तं च लधिसारे -"यथाऽधःप्रवृत्तकरणपरिणामा व्याख्यातास्तथा. ऽपूर्वकरणपरिणामा व्याख्यातव्याः । अयं तु विशेषः अधःप्रवृत्तकरणपरिणामेभ्योऽसंख्येयलोकमात्र भ्योऽपूर्वकरणपरिणामा असंख्येयलोकगुणिता भवन्ति ।" 15 टिप्पणो कुदो अखलोगमेत्ताणि छटाणाणि अंतरिदूणेदिस्से समुष्पत्ति अब्भुवगमादो इति जयघवला , Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिघातः रसघातश्च । पूर्वकरणाधिकारः निव्वयणमवि ततो से दिइरसवायटिबन्धगद्धा तु । गुणसेही विय समगं पढमे समये पवत्तं ति ॥१२॥ निर्वचनमपि ततस्तस्य स्थितिरसधातस्थितिबन्धकाद्वा तु । गुणश्रेणिरपि च समक प्रथमे समये प्रवर्तन्ते ।। १२ ।। इति पदसंस्कार: "ततो से" त्ति, तस्याऽपूर्वकरणस्य "निव्वगणं" ति, निर्वचनम् - निश्चितमन्वर्थाऽनुयायि वचनं प्रतिपादनीयम् । तद्यथा - अपूर्वाण्यभिनवानि करणानि स्थितिघातरसघातगुणणि स्थितिबन्धादीनि निर्वर्तनानि यस्मिंस्तदपूर्वकरणम्, तथाहि - अपूर्वकरणं प्रविशजीवः प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणी: स्थितिबन्धं चाऽन्यं युगपदारभते । तथा चाssह – “ठिइरस " इत्यादि, स्थितिघातो रसघातः स्थितिबन्धाऽद्धा गुणश्रेणिरपि चेत्येते चत्वारः पदार्थ अभिनवाः समकं युगपत्प्रथमसमय एव प्रवर्तन्ते । अपूर्वकरणस्याऽन्वर्थनाम प्रतिपादयित्वा स्थितिघातं रसघातं च विचिरूपासिपुराह - उयहिपुहत्तुक्कस्सं इयरं पलस्म संखतमभागा । ठिकरा डगमगु भागाणणंत भागा मुहुत्तंतो भागडगाणं बहुहिं सहस्सेहिं पूरए इक्कं । ठिकरा सहस्सेहिं तेसिं बीयं समारोह ॥१३॥ 113 211 [ ३९ उदधिपृथक्त्मुत्कृष्टमितरः पत्यस्य संख्यतमभागः । स्थिति कण्डकमनुभागानामनन्तमागा मुहुर्त्तान्तः ॥ १३ ॥ अनुभागकण्डकानां बहुभिः सहसंः पूरयेदेकम् 1 स्थितिकण्डकसहस्र स्तेषां द्वितीयं समानयति ॥ १४ ॥ इति पदसंस्कारः स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिम मागाद् “उयहिपुहुत्तुक्कस्सं" ति, उत्कर्षत उदधिपृथक्त्वं प्रभूतसागरोपमशतप्रमाणमित्यर्थ: "इयर पल्लम्स संखतमभागो" इत्यादि जघन्यतश्च पल्योपमसंख्येतमभागमात्रं स्थितिकण्डकमुत्किरति खण्डयतीत्यर्थः, उत्कीर्य चाऽधः प्रतिसमयं तद्दलिकं प्रक्षिपति, अन्तर्मुहूर्तेन च कालेन तरिस्थतिकण्डकमुत्कीर्यते खण्ड्यत इत्यर्थः, उक्तं च पञ्चसंग्रह उपशमनाऽधिकारे-“उक्को सेण बहुसागराणि इयरेण पल्ल संखंसं । ठितिअगाओ घाइ अंतमुहुत्तेण ठितिकडं || १ ||" अत एवाऽन्तमुहूर्ते व्यतिक्रान्ते कण्ड़कप्रमाणा स्थितिः सत्तायां न्यूना भवति । ततो द्वितीयेऽन्तर्मुहूर्ते पुनरप्यधस्तात्पल्योपमसंख्येयभागमात्रस्थितिकण्डकमन्तर्मुहूर्तेनैव कालेनोत्कीर्यते पूर्वोक्तप्रकारेण च निक्षिप्यते । एवं तावद् वाच्यं यावदपूर्वकरणस्य चरमान्तमुहूर्तम् । इत्थमपूर्वकरणाऽद्धायाः प्रभूतानि स्थितिकण्डकसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति, तथा च सत्यपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत्स्थितिसत्कर्माऽऽसीत्त Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] [ गाथा १३-१४ स्यैव चरमसमये संख्येयगुणहीनं जातम्, अर्थात्संख्येयभागमात्रं भवति, नाऽधिकम् । उक्तञ्च पञ्चसङ्ग्रहे – “जा करणाईए ठिई करणंते तीइ होइ संखंसो " - संप्रति रसघातोऽभिधीयते " अणुभाग" इत्यादि, अशुभानां प्रकृतीनां यदनुभागसत्कर्म, तस्याऽनन्ततमं भागं मुक्त्वा शेषानन्ताननुभागानन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति, अनन्तगुणहीनं करोतीति यावत् । ततः पुनरपि द्वितीयेऽन्तर्मुहूर्ते तस्य प्राङ्मुक्तस्याऽनन्ततमस्य भागस्या - नन्ततमभागं मुक्त्वा शेषानन्ताननुभागानन्तर्मुहूर्तेन कालेन विनाशयति । एवं प्रत्यन्तर्मुहूर्त - मशुभप्रकृतीनामनुभागसत्कर्माऽनन्तगुणहीनं करोतीत्यर्थः । अत्र रसघातस्याऽन्तर्मुहूर्त स्थितिघातस्याऽन्तमुहूर्तात्संख्येयगुणहीनं भवति । ततः “अणुभागकण्डगाण" इत्यादि, अनेकान्यनुभागखण्डानि सहस्राण्येकस्मिन स्थितिखण्डे व्यतिक्रामन्ति । "ठिइकण्डसहस्सेहिं” इत्यादि, तेषां स्थितिखण्डानां सहस्र: "बीयं" इत्यादि, द्वितीयमपूर्वकरणं ममानयति = परि समापयति । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये स्थितिघातो रसघातश्च युगपदारभ्येते, एकस्मिश्च स्थितिघाते सहस्राण्यनुभागखण्डानि भवन्ति । ततोऽनन्तरसमये नूतनः स्थितिघात आरभ्यते, तद् रसघातोऽपि नूतन आरभ्यते, एतेन स्थितिघाताSSरम्भे सति नियमतो रसघाताऽऽरम्भो भवति, किन्तु रसधातारम्भे स्थितिघाताऽऽरम्भस्याऽनैयत्यम् । तथा चाडपूर्णकरणे परिसमाप्यमाने चरमस्थितिखण्डं चरमाऽनुभागखण्डश्च युगपत्परिसमाप्येते । एकस्मिन् स्थितिघाताद्धायां सहस्राणि रसघातानि भवन्ति । तत्र प्रतिरसघाते यदनन्ततममागमवशिष्यते, शेषाणि च भागानि विनाश्यन्ते तत्सर्वमसत्कल्पनया प्रदर्श्यतेअपूर्वकरणं प्रविशतो जीवस्य १००० कोट्यः रसस्पर्द्धकानि सत्तायां भवन्ति । स्थितिघाताद्वाः घातितानुभाग स्पर्द्धकानि अवशिष्टानुभाग स्पर्द्धकानि प्रथम स्थितिघाताद्वायाम् प्रथमेऽनुभागकण्डके ६०० कोट्यः १०० कोट्यः ६० १० ६ १ द्वितीय तृतीय 22 19 द्वितीये तृतीये प्रथमे द्वितीये तृतीये प्रथमे द्वितीये तृतीये उपशमनाकरणम् " "" 23 11 37 39 19 " 19 31 १० लक्षाणि Σ 39 ० सहस्राणि ६ सहस्राणि ६ शतानि नवनि: ( 10 ) 91 कोटी १० लक्षाणि १ लक्षम् १० सहस्राणि १ १ सहस्रम् शतम् दश (१०) Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www.jainelibrary अपूर्व करा प्रथम समयेत्तः साग रोमस कोटा कोटी प्रमाण स्थितिसत्कर्म । 'OOOOO जघन्यः स्थितिखण्डं पल्योपससंख्येयभागमात्रम्, उत्कृष्टत; सागरोपमपृथक्त्व प्रमारणम् । स्थितिघाताद्धाद्विचरमसमयं यावत् पल्योपमसंख्येयभागप्रमारगा स्थितिर्द्धलिकाऽपेक्षया तन्वी भवतिस्थित्या तु तादृश्येवावतिष्ठति । अपूर्वकरणे चित्रेण प्रदर्श्यमान: स्थितिघातः (गाथा-13-14 ) यन्त्रकम् - १ अ उपशमनाकरणम् ] [ 4L Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकररणम् ] यन्त्रकम् - १ ब स्थितिघाताद्धाचरमसमये तत्स्थि तिखण्डगतसर्वदलिकानि गृहीत्वाऽधस्तात् प्रक्षिपति, 'तेन तदानीं स्थितिसत्ता खण्डप्रमारणा होना भवति । [ 41 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसघातः स्थितिबन्धश्च ] प्रपूर्वकरणाधिकारः [ ४१ अत्रानन्तराशिस्थानेऽसत्कल्पनया दश सङ्ख्या कल्पिता तस्मादनन्ततमभागो दशमो भागो ज्ञेयः । अपूर्वकरणस्य चरमसमयं यावदनेकसहस्राणि रसपाता भवन्ति, संख्यया तत्प्रमाणं च स्थितिघातप्रमाणादपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य चरमसमयपर्यन्तमने कसहस्रगुणं ज्ञेयम् । प्रथमसमयाऽपेक्षया चरमसमयेऽशुभप्रकृतीनामनुभागः सत्तायामनन्तगुणोहीनो भवति, यत एकस्मिन्नेव रसपाते परिसमाप्तेऽनुभागसत्कर्माऽनन्तगुणहीनं भवति । अपूर्णकरणेऽनेकसहस्राणि रसघाताः परिसामाता भवन्ति । शुभप्रकृतीनां स्थितिघातत्वेऽपि रसघातो न भवति । रसपाताद्धायां घातितस्पर्धकानां प्रमाणं दर्शयद्भिः कलिकालजन्तुहितार्षिभिः कषायमाभृतर्णिकारैल्पबहुत्वमुक्तम् , तदत्राऽभिधीयते तद्यथा- "तस्स पदेसगुणहाणिहाणंतरफदयाणि थोवाणि (८३) अइच्छावणाफदयाणि अणंतगुणाणि (८४) णिक्खेवफद्दयाणि अणंतगुणाणि,(८५) आगाइदफदयाणि अणंतगुणाणि" । भावार्थः पुनरयम्-(१) एकस्मिनादेशगुणहानिस्थानाऽन्तरेऽनुभागस्पर्द्धकानि स्तोकानि सत्तायां यान्यनुभागस्पर्द्धकानि, तेषु जघन्याऽनुभागम्पर्धकस्य प्रथमवर्गणायां प्रदेशा बहवः, ततो द्वितीयवर्गणायां विशेषहीना, एवं विशेषहीना क्रमेण प्रथमवर्गणागतप्रदेशतो यत्र प्रदेशा अर्द्धा भवन्ति, तद् द्विगुणहानिस्थानमुच्यते, जघन्यरसस्पर्द्धकस्य प्रथमवर्गणाया आरभ्य द्विगुणहीनप्रदेशविशिष्टाऽनुभागवर्गणापर्यन्तानि रसस्प कानि तेषां समुदाय एकप्रदेशगुणहानिस्थानाऽन्तरेऽनुभागस्पर्द्धकान्युच्यन्ते, तानि च स्तोकानि । (२) ततोऽपवर्तनायामतीत्थापनाऽनन्तगुणा । उपरितनरसस्पर्द्धकान्यपवर्त्य जघन्यतो यानि स्पर्धकान्यतिक्रम्याऽधो निक्षिपति तेषां रमम्पर्धकानां राशिरतीत्यापनोच्यते । सा च पूर्वतोऽनन्तगुणा । (३) ततो निक्षेपोऽनन्नगुणः । निक्षेपोऽनुभागखण्डस्याऽधस्तादतीत्थापनागतरसस्पर्द्ध कानि मुक्त्वापोऽवशिष्टमर्वाऽनुभागस्पर्द्धकप्रमाणरूपः, सच पूर्वतोऽनन्तगुणः । (४) आघातितानि स्पर्द्धकान्यनन्तगुणानि । एकस्मिन् रसपाते धातितानि रसस्पर्द्धकानि तान्याधातितानि स्पर्धकान्युच्यन्ते, तानि च पूर्वतोऽनन्तगुणानि भवन्ति । ___ अप स्थितिबन्धाडा भण्यने-अपूर्वकरणस्य प्रथमे समयेऽन्य एवाऽपूर्वोऽभिननः स्थिनिबन्धोऽभिनवाभ्यां स्थितिघानरपघाताभ्यां सार्धमारभ्यते, स च स्थितिबन्धः पूर्वतः पल्योपममंख्येयभागहीनो भवति । एवं प्रत्यन्तमुहूर्त पूर्वपूर्वस्थितिबन्धे पूणे सत्यन्यः स्थितिबन्धः पन्योपमसंख्येयमागहीनो भवति । ननु प्रत्यन्तमुहूर्त पूर्णस्थितिवन्धे पूर्णे सत्यन्यः Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] उपशमनाकरणम् [ गाथा-१५ स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागहीनः पूर्वभूमिकायामपि भवति, तथैवाऽत्राप्युत्तरोत्तरस्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागहीनो भवति. तहर्यभिनवः कथमुच्यत इति चेद् , उच्यते--यद्यपि बन्धस्याऽयं क्रमः पूर्वभूमिकायामप्यासीत् , तथाप्यपूर्वाम्थतिघातादिप्ररूपणाऽवसरे पुनरभिधानं क्रियते, यतोऽस्य स्थितिबन्धस्याऽऽन्तमौहतिककालः स्थितिघातकालेन तुल्यो भवति, अतोऽपूर्वकरणे ते स्थितिबन्धाद्धाः स्थितिघाताद्धा संख्यया तुल्या भवन्ति, अपूर्वकरणे यावत्यः स्थितिघाताद्धा भवन्ति तावत्यः स्थितिबन्धाद्धा भवन्तीत्यर्थः । उक्तं च पश्चसङ्ग्रह उपशमना ऽवसरे “करणाइए अपुव्वो जो षन्धो सो न होई जा अपणो। बंधगडा सा तुल्लिगाउ ठिंडकंडगडाए" इति हेतोरभिनवस्थितिबन्धः पुनर्गभधीयते, अपूर्वकरणम्य प्रथमममये स्थिनिघातस्थितिबन्धो रसघातश्च युगादारभ्यन्ते, तथैकम्मिन स्थितिघाने स्थितिबन्धे च महस्राणि रसघाता भवन्ति, स्थितिघातस्थितिबन्धो युगपदारभ्यते युगपदेव निष्ठां यातः, अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यः स्थितिबन्धो भवति, तस्य संख्येयभागमात्रश्चरमसमये भवति, संख्येयगुणहीनो भवतीति यावत् । अधुना गुणश्रेणे; स्वरूपमाविश्चिकी राह-- गुणसेटी निक्खेवो समये समये असखगुणणाए । श्रद्धादुगाइरिनो सेसे सेसे य निक्वेवो ॥१५॥ गुणधेणिनिक्षेपः समये समयेऽसंख्यगुणनया । प्रद्धाद्विकातिरिक्त: शेष शेषे च निक्षेपः।। इति पदसंस्कार : सूत्रगाथाऽक्षरयोजना-गुणश्रेण्या निक्षेपः समये ममयेऽसंख्यगुणनया पूर्व पूर्व समयाऽपेक्ष्योत्तरोत्तरोत्तरसमये वृद्धात्मकया, सोऽपि च निक्षेपोऽद्धाद्विकाऽतिरिक्तोऽपूर्व करणाऽनिवृत्तिकरणकालाभ्यां मनागधिक कालमानम्तथाऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणसमयेष्वनुभवतः क्रमशः क्षीयमाणेषु सत्सु गुणश्रेणिदलिकनिक्षेपः शेषे शेषे भवत्युपरि च न वर्धते । इदमुक्तं भवति, गुणेन गुणकारेण श्रेणिर्दलरचना गुगश्रेणिः तत्र केन गुणकारेण विधीयते ? इत्याह "समये समये असंखगुणणाए" त्ति, प्रतिभमयमसंख्यगुणनया, उक्तश्च नव्य शतकनामनि पशमकर्मग्रन्थे "गुणसेढी दलरयणाऽणुसमयमुदयादसंखगुणणाए"। ननु केभ्यः स्थितिस्थानेभ्यो दलिकान्यपकृष्याऽसंख्येयगुण नया गुणश्रेणि रचयतीत्याशङ्का परि'हागऽथ श्रीमन्मलयगिरिसूरीश्वरा आह-''यस्थितिकण्डकं घातयति तन्मध्याद् दलिकं गृहीत्वोदयसमयादारभ्यान्तमुहूर्तचरमसमयं यावत्मतिसमयमसख्यं यगुण. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [46 यन्त्र कम नियाघातापवर्तनाचित्रम ०००० Va ०००००० २००००००० o ooooooo ооооооооо ०००००००००० оооооооооооо ооооооооооооо оооооооооооооо J४०४०४००००० निक्षेपश्चतुर्दशसमयमित:::: अतीत्थापना द्वादशसमयमिता निक्षेपःत्रयोदशसमयमितः अतीत्थापना द्वादशसमयमिता निक्षेपो द्वादशसमयमित:::::: अतीत्थापना द्वादशसमयमिता :: निक्षेप एकादशसमयमित:: अतीत्थापना द्वादशसमयमिता निक्षेपो दशसमयमित::::: अतीत्थापना द्वादशसमयप्रमिता. निक्षेपो नवसमयभित:::: अतीत्थापना बादपासमयप्रमिता निक्षेपो ष्टसमयमित:... अतीत्थापनाद्वादशसमयप्रमिता . . निक्षेपः सप्तसमयप्रमाणः अतोत्थापना द्वादशसमयमात्रा० ० निक्षेपः षट्समयमितः अतीत्थापना द्वादशसमयप्रमिता० ० निक्षेपः पञ्चसमयमितः अतीत्थापना द्वादशसमयमिता अतीत्थापना एकादशसमयमिता -०००००००००० अतीत्थापना दशसमयप्रमाणा अपवर्त्यमान स्थितिगतानि दलिकानि. अतीत्यापना नवसमयप्रमाणा ०००००००००० अतीत्थापना इष्टसमयप्रमाणा Poo००००००००००००००.०० अतीत्थापना सप्तसमयमिता 800 000०.००००० HOME ००० ०.००० ०००० ००००० 6०००००० ооооооооо ०००००००० ०००००००० .००००००००००००००००००० o o oo ooo o o o o o o o ooo ००००००००००० CA00०००००० N०००००० oo oo oo oo o o o o o o o o o o 2940RRO/ ००००००० oo o o o o o ooo ०००००००० 2 ००००००००००००००००००० ० ००००० ० ००० ०० ०.००० ०००० ०००० ००००० ००००० समदाधिकारावालिका त्रिभागः शशिना जाता अपन निराश वर्षका उदयावलिकाद्वादशसमयमात्रा एभिशून्य निक्षिप्यमानदलिकानिचितानि । समयोना बलिकादित्रीभाग: अत्रावलिकामात्राऽतीत्थापना जाता अतः परं निक्षेपो वर्धते Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणश्रणिः ! अपूर्वकरणाधिकारः नया क्षिपति । उपरितनस्थितेरवतारितदलिकमुदयक्षणे स्तोकं निक्षिपति, द्वितीय क्षणेऽसंख्यातगुणमित्येवं प्रतिसमयमसंख्यातगुणकारेण दलरचना तावन्नेया यावदगुणश्रेणिमस्तकमिति, तथैव पश्चसङ्ग्रहोपशमनाकरणे "घाइयठिाओदलियं घेत्तु घेत्तु असग्वगुणणाए । साहियदुकरणकालं उदयाह रएइ गुणसेटिं ॥१॥" कर्मप्रकृतिचूर्णिकारास्तु "उवरिल्लाओ ठिति उ पोग्गले घेत्तण उदयसमए थोवा पविग्ववति चितीए समए असम्वेज्जगुणा एवं जाव अंतमुहुत्तम्" इति वदन्ति । अयं भावः- उपरितनस्थितेदलिकानि गृहीत्वा प्रक्षिपति न तु यत्स्थिातकण्डकमुत्किरति तन्मात्राया पर्व स्थिते तत्रोदयसमये स्तोकं प्रक्षिपति, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं प्रक्षिपति, एव तावद्वक्तव्यं यावदन्तमुहृतम् । तथैवाऽन्यत्रापि-- ॐ उरिल्लट्टईहिंतो धितणं पुग्गले उ सो विवाह । उदयसमयम्मि थोवे तत्तो असंवगुगिए तु ॥१॥ बोयम्मि खिवइ समये तहए तत्तो असंवगुणिए उ । एवं समए समए अंतमुहत्तं जा पुम्नं ।।२। नथा चोपरितनस्थितेर्दलिकाऽवतरणस्याऽप्ययमेव क्रमो वाच्यः, तथाहि--गुणश्रेणिरचनायाः प्रथमसमय उपरितनस्थिते मलिक स्तोक गृहणाति, द्वितीये समयेऽसंख्यातगुणम् , एवं प्रतिममयमसंख्यातगुण कारेण तावन्नेयं यावद् गुणश्रेणिकरणचरमसमय इति । तथा चोक्तमन्यत्रापि-- . (पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् २) + दलिय तु गिणहमाणो पढमे समयम्मि थोवयं गिण्हे । उरिल्लठिई हिंतो बोयम्मि अंसंखगुणियं तु ॥१।.. गिण्हइ समए दलियं तइए समए असंखगुणिय तु । एवं समए समए जा चरिमो अंतसमओ त्ति । २॥ अयमुदयममयादारभ्याऽमंख्येयगुणनिक्षेप उदयवतीनां प्रकृतीनां द्रष्टव्यः । अनुदयवतीनामपि प्रकृतीनां गुणश्रेणिरचनायाः क्रमोऽयमेव वाच्यः, नवरं तासां गुणश्रेणिरचनोदयावलिकोपरितनममयादारभ्याऽन्तमुहर्तकाले भवनि, इत्थं गुणश्रेण्यायाम उदयप्रकृत्यपेक्षयाऽऽवलिका. न्यूनो भवति । (पश्यन्तु पाठकायन्त्रकम् ...३) कषायप्राभृतचूर्णा उदयवतीनां प्रकृतीनामपि गुणश्रेणिरचना उदयावलिकाया उपरितनसमयादारभ्याऽन्तमुहूर्त काले भवतीति तेषां मते उदयवतीनामनुदयवतीनां च प्रकृतीनां दलनिक्षेपस्तुल्यः । + उपरितनस्थितेगहीत्वा पुद्गलांस्तु स क्षिपति । उदयसमये स्तोकांस्ततश्चासत्यगुणितास्तु ॥१॥ द्वितीये क्षिपति समये तृतीयस्मिस्ततोऽसंख्येयगुणितांस्तु। एवं समये समये अंतमुहर्ते तु यावत्पूर्णम् ।।२।। + लिक तु गृह्णन् प्रथमे समये स्तोकं गृह्णीयात् । उपरितन स्थिते द्वितीयेऽसंख्यगुणितं तु ।।१।। गृह्णाति समये तृतीये समयेऽसंख्यगुणितं तु । एवं समये समये यावच्चरमोतसमय इति ॥२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम [ गाथा-१५ इहाऽन्नमुहूर्तप्रमाणनिक्षेपकालो दलर चनारूपगुणश्रेणिकालोऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणाद्धाद्वयाद् विशेषाऽधिको द्रष्टव्यः, तावत्कालमध्ये चाऽधस्तनोदयममये वेदनतः क्षीणे सति शेषसमयेषु दलिकं रचयति, न पुनरुपरिगुणश्रेणि वधयति । अर्थात्प्रथमसमये यद् गुणश्रेणे: शिर आसीत् , तदेव द्वितीयसमयेऽपि भवति, किन्वये न प्रवर्धते, नतः प्रथमममयमत्करचनाया द्वितीयममयरचना समयन्यूना भवति, समयस्य वेदितत्वात् । एवमपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणयोर्यावन्तस्समया वेदिता भवन्ति. नायन्तम्ममया गुणश्रेणिनिक्षपान्यूना भवन्ति ।। बेदितसमयवर्जशेषाऽन्तमुहूर्तप्रमाणो निक्षेपो भवतीत्यर्थः । उक्तंच सेदीए कालमाणं दुण्ह य करणा य समाहिलं जाण । खिज्जा सा उदएणं जं सेसं तम्नि निक्खेवो ॥१॥ अथ स्थितिघातादिषु पदार्थेषु विशेषोऽभिधीयते ननु यदोपरितनस्थितौ स्थितिघातो भवति, तदा तद्व्यतिरिक्तस्थिती निर्व्याघातभाव्यपवर्तना मवति, उत न १ यदि भवति, तर्हि कुत्र १ इति चेद् , उच्यते-स्थितिघातो नाम व्याघातभाव्यपवर्तना । अपवर्तना खलु द्विधा-व्याघातभाविनी निर्व्याघातभाविनी च । तत्र व्याघातभाविन्यपवर्तनास्थितिघातयो नव भिन्नत्वं पदार्थेन त्वभिन्नत्वम् । अर्थात स्थितिघातस्य व्याघातभाव्यपवर्तनात्वेन व्यपदेशो भवति । उक्तं च "ठिइघाओ एस्थ होह वाघाओ" तत्स्वरूपं तु स्थितिघाताऽवसरे दर्शितम् । द्वितीयानिाघातभाव्यपवर्तना, सा चोदयावलिकावर्जसर्वस्थितिस्थानकेषु भवति । तत्र नियाघातभाव्यपवर्तनायो स्थितेर्घातो न भवति, अपि तूदयावलिकायां गताः स्थितियः सकलकरणायोग्या इति कृत्वोदयावालकावर्जात्प्रत्येकस्थितिस्थानात्कतिपयानि दलिकानि गृहीत्वाऽऽवलिकामात्रां स्थितिमतिक्रम्याऽधस्तनसर्वस्थिनिस्थानकेषु प्रक्षिपति, अतिक्रम्यमाणा स्थितिरतीत्थापना इति व्यपदिश्यते । ____ अतिस्थाप्यतेऽतिक्रम्यते या स्थितिः, सा अतीत्थापना "णिवेत्त्यासपघवन्देरनः" (सिद्धहेम ५।३।११३) इति सूत्रेण कर्मणि 'अन'प्रत्ययः। 'हान् प्रत्ययस्य स्त्रीवृत्तित्वाद"आत्' (मिद्धहेम० २।४।१८) इति सूत्रेण 'आप' प्रत्ययः । तत आवलिकामात्रस्थितिरतीत्थापना भवति, किन्तूदयावलिकाया या उपरितना समयमात्रा स्थिति, तस्या दलिकान्यपवर्तयन्नुदयावालकाया उपरितनौ द्वौ त्रिभागौ समयोनावतिक्रम्याऽधस्तने समबाऽधिके तृतीये भागे निक्षिपति, एष जबन्यो निक्षेपः । निक्षिप्यतेऽस्मिन्निति निक्षेपः "भावाऽकत्रोः" (सिद्धहेम० ५।३.१८) छाया-अणे: सलमान द्वयोः करणयोः समाधिकं जानीहि । क्षीयते सोदयेन यच्छेष तस्मिन्निक्षेप ॥१॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [44 उपशमनाकरणम् ] यन्त्रकम्-३ अपूर्वकरणप्रथमसमये द्वितीयसमये चानुदयवतीनां प्रकृतीनां गुणश्रेणिः оооооо оооооо оооооо pooooo boo ooo pooooo bo oo oo bo Cooo ооо ооо ооооооооооооооо ооооо ооооооооооооооооооооо ооооооооооооооооооооо Гоооооооооооооооооооо оооооооооооооооооооо ооооооооооооо.: Роооооооооооо: Қооооооооооо: -Poooooooooo.:. Rooooooooo::: Ro0000000 :pooooooo::: ...оооооо: оооооо ":fооооо: оооооо ...goooo:: ооооооо :::Booo-r:::: ооооооо! ооооооо ооооооо ооооооо агчтаfаr— सूचना-शेषसंकेतानि द्वितीययन्त्रकवद् ज्ञेयानि । उदयावलिकावर्जकरणद्वयकालतो विशेषाधिको गुणश्रेण्यामः Roo ... Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवर्तना ] पूर्वकरणाधिकारः [ ४५ इति सूत्रेणाऽधिकरणे 'घञ्' । तथा जघन्याऽतीत्थापनावलिकाया द्वौ त्रिमागौ समयोनौ भवति । यदोदयावलिका मत्कोपरितन द्वितीय समयस्थितिगतानि दलिकान्यपर्वत्यावलिकाया द्वौ त्रिभागौ वर्जयित्वाऽधस्तने समयाऽधिके तृतीये भागे निक्षिपति, तदाऽतीत्थापना प्रागुक्तप्रमाणा समयाsaका भवति, निक्षेपस्तु तावन्मात्र एव । यदोदयावलिकाया उपरितनात्तृतीय स्थितिस्थानकाद् दलिकान्यपर्वत्यन्ते, तदा प्रागुक्तमानाऽतीत्थापना द्विसमयाऽधिका भवति, आवलिकाया डौ त्रिभागौ समयाऽधिकाऽतीत्थापना भवतीत्यर्थः । निक्षेपस्तु तावानेव । एवमतीत्थापना प्रतिसमयं तावद् वर्धयितव्या यावदावलिका परिपूर्यते, निक्षेपस्तु तावन्मात्र एवाऽनुवर्तते, ततः परमतीत्थापना सर्वत्र तावन्मात्रैव प्रवर्तते, निक्षेपस्तु वर्धते । अयं भावः -- उदयावलिका सन्को परितनाऽऽवलिकायाः समयाधिकस्य त्रिभागस्योपरितनसमयस्य दलिकान्युदयसमयादारभ्य समयाऽधिकाऽऽवलिका तृतीयभागपर्यन्तरूपजघन्यनिक्षेपे प्रक्षिप्यन्तेऽतीत्थापना चाऽवलिकाप्रमाणा भवति । तदुपरितनसमयस्य दलिकान्यतीन्थापनारूपाऽऽवलिकामतिक्रम्य द्विसमयाऽधिकोदयावलिका सत्कतृतीये भागे निक्षिपति । एवमुत्तरोत्तरनिक्षेप एकसमयप्रमाणो वर्धयितव्यः । तृतीयाऽऽवलिकायाः प्रथमसमयस्य दलिकान्यतीत्थापनारूपामधस्तनद्वितीयाऽऽवलिकामतिक्रम्य प्रथमाऽऽवलिकायामर्थादुदयावलिकायां निचिप्यन्ते । एवं तृतीयाssवलिकाया अग्रेतनसमयस्य दलिकान्यतीत्थापनारूपामावलिकामतिक्रम्य समयाऽधिकोदयावलिकायां निक्षिप्यन्ते । एवमपर्व त्यमान चरम स्थितिस्थानकस्य दलिकान्यतीत्थापनारूपामावलिकामतिक्रम्य शेषसर्वस्थितिस्थानकेषु प्रक्षिप्यन्ते । तत एव निर्व्याघातेऽपवर्तनाऽधिकार उत्कृष्टनिक्षेपः समयाऽधिकाभ्यां द्वाभ्यामावलिकाभ्यां न्यूनोस्क्रुष्टस्थितिरुच्यते । तथाहि - कस्यचिदपि कर्मण उत्कृष्टस्थिति बद्ध्वा बन्धाऽऽवलिकाSन्तर्गतं कर्म सकलकरणाऽयोग्यमिति कृत्वा बन्धाऽऽवलिकायां व्यतिक्रान्तायां सत्यां तत्कर्मापर्वत्यते नार्वाक् । तत्र यदा सर्वोपरितनस्थितिस्थानमपवर्तयति, तदाऽतीत्थापनारूपाऽऽवलिकामात्रमधोऽवतीर्याऽधस्तनेषु सर्वेष्वपि स्थितिस्थानेषु निक्षिपति । तस्मादुत्कृष्टो निक्षेपोऽपर्व त्यमानस्थितिसमयरहिता बन्धावलिकातीत्थापनावलिकारहिता च सर्वाऽपि कर्मस्थितिः । ततो निर्व्याघातभाव्यपवर्तनायां समयाऽधिकेनाऽऽवलिकाद्वयेन न्यूनोत्कृष्टनिक्षेपो भवति । उक्तं पश्चसङग्रहेऽपवर्तनाऽधिकारे— समयाहियइत्थवणा बंधालिया य मोत्तुं णिकखेवो । 5 कम्मठिइबन्धोदयवलिया मोत्तु ओबटूटे ॥१॥ छाया - समयाषिका मतिस्थापनां बंधावळिकांच मुक्त्वा निक्षेपः । कर्मस्थितिबंधोदया बलिकां मुक्त्वापवर्त्तयति ॥ १ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाया-१५ . प्रस्तुते यदोपरितनस्थितिषु स्थितिघातरूपव्याघातभाव्यपवर्तना भवति, तदा घात्य मानखण्डवशेषासु स्थितिषु निर्व्याघातभाव्यपवर्तनाऽपि भवति, तन्निर्देशान्वनयाऽपवर्तन या. मिथतेर्घाताऽभावेन स्थितिमत्कर्मणो न्यूनताऽमावान कृतः। अमत्कल्पनयाऽत्र निर्व्याघातभाव्यपवर्तनाया वक्तव्यता प्रदर्श्यते । अत्राऽऽवलिका द्वादशममयप्रमाणा बुद्धावारोप्यते, आवलिकासमयानां कृतयुग्मसंख्याकत्वात् । अथावलिकाया उपरितनम्य त्रयोदशस्य ममयस्य दलिकान्युदयसमयादारभ्य पश्चम समयेषु शिप्यन्ते समयाधिकावलिकात्रिभागस्य जघन्यनिक्षेपत्वादतीत्थापना षष्ठमम यादारभ्य द्वादशसमयपर्यन्ता सप्तममयप्रमाणा ममयोनालिकाद्वित्रिभागयोजघन्याऽतीत्थापनात्वात । तनश्चतुर्दशम्य समयस्य दलिकान्युदयसमयादारभ्य पश्चसमयेषु प्रक्षिप्यन्ते, अतीत्थापना षष्ठमम पादारभ्य त्रयोदशसमयपर्यन्ताऽष्टममयप्रमाणा पञ्चदशस्य समयस्य दलिकान्युदयसमयादार भ्य पश्चममयेषु प्रक्षिप्यन्ते, अतीत्थापना पष्ठसमयादारभ्य चतुर्दशममयपर्यन्ता नवममयप्रमाणा। : पोडशममयस्य दलिकान्युदयममयादारभ्य पञ्चसमयेषु निक्षिप्यन्ते, अतीत्थापना पष्ठसमयादारभ्य पश्चदशसमयपर्यन्ता दशसमयप्रमाणा । सप्तदशसमयम्य दलिकान्युदयसमयादारभ्या पञ्चसमयेपु निक्षिप्यन्ते, अतीत्थापना षष्टममयादारभ्य षोडशसमयपर्यन्तेकादशसमयप्रमाणा । अष्टादशसमयम्य दलिकान्युदयसमयादारभ्य पश्चममयेषु निमिप्यन्ते, अतीत्थापना च षष्ठसमयादारभ्य मप्रदशममयपर्यन्ता द्वादशसमयप्रमाणा भवति, द्वादशसमयप्रमाणाऽऽवलिका पूर्णा भवति । अतः परं निक्षेपः प्रवर्धतेऽतीन्थापना तु तावन्येव । एकोनविंशतितपसमयम्य दलिकान्युदयसमयादारभ्य षष्ठसमयपर्यन्तेपु षट्सु समयेषु निक्षिप्यन्ते, अतीत्थापना सप्तमसमयादारभ्याऽष्टादशममयपर्यन्ता द्वादशसमयप्रमाणा। विंशतितमसमयस्य दलिकान्युदयसमयादारभ्य सप्तमममयपर्यन्तेषु सप्तसु समयेषु निक्षिप्यन्ते, अतीत्थापनाऽष्टमसमयादारभ्यैकोनविंशतितमसमयपर्यन्ता द्वादशममयप्रमाणा एवमग्रेऽपि-अतीत्थापनाऽऽवलि कामात्रा निक्षेपस्थापाननां वृद्धिः । पश्यन्त पाठका यन्त्रकम्-४ ननु स्थितिघातस्य कालोऽन्तमुहूर्तप्रमाणोऽस्ति, तत्राऽन्तमुहूर्तसत्कद्विचरमसमयपर्यन्तमत्तास्थस्थितेन्यूनत्वं न दृश्यते । किन्तु यदा चरमसमये कण्डकप्रमाणायाः स्थितेः शेषाणि मर्वाणि दलान्युत्कीर्यन्ते, तदा स्थितिसत्कर्मणः कण्डकप्रमाणा स्थितिन्यू ना भवति । ततो द्विचरमसमयपर्यन्तं नियाघातभाव्यपवर्तना तथा चरमसमये व्याघातभाव्यपवर्तना प्रोच्यते, आहोम्विन्न ? इति चेद् , अत्रोच्यते-अन्तमुहर्तकालम्य हिचरमसमयपर्यन्तं निर्व्याघातभाव्यपवर्तना वक्तु शक्यते, किन्तु सामान्यनिर्व्याघातभाव्यपवर्तनातोऽत्र विशेषः । सामान्यत्वं करण कालरहितकालेऽपवर्तनात्वं करणकाले तु घात्यमानव्यतिरिक्तस्थितो प्रवर्तमानाऽपवर्तनात्वं च । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् ] मुरणश्रेणिचरम निक्षेपः गुणश्रेणिनिक्षेपः स च गलितावशेष: यन्त्रकम् - २ पूर्वकरण प्रथमसमये द्वितीयसमये चोदयवतीनां प्रकृतीनां गुरणश्रेणिः ****.. .8000000000 0000000 D000 • १००० .१०० •१० 00 000 0000 ०० ००००० ० ०० 00 ००० ००००००० ००००००० ००० ०० ०००० ००० ००० ००० ००० ०० ००० O ० 00 oo oc द्वितीयसमये गुणश्रेणिनिक्षेपः प्रथम समये गुणश्रेणिनिक्षेपः सङ्क ेत विवरणम् (1) 000 • एभिः शून्य गणितः प्राग् निषेकरचना सूचिता । (2) एतैबिन्दुभिरपूर्वकरणे गुसाश्रेण्यां दीयमानं दलं सूचितम् । (3) दशसख्या 16 अत्राऽसंख्येयत्वेन कल्पिता, तेन गुरणश्रेण्यांमुत्तरोत्तरनिषेके दशगुणं दलं दीयते, वस्तुतस्त्वसख्येयगुणं दलं दीयते । गुणश्रेणिचरम निषेकतोऽसंख्येयगुणहीनं दलं तदुपरितने निषेके प्रक्षिपति, ततः सर्वत्र विशेषहीन क्रमेण तावत् प्रक्षिपति यावदत्थापनाऽप्राप्ता भवति । oo oo [ 43 अन्तरकरणम् अनिवृत्तिकरणम् श्चपूर्वकरणम् Pjkaj kablkáb Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवर्तना ] अपूर्वकरणाऽधिकारः [४. (१) सामान्यनिर्व्याघातभाध्यपवर्तनायां प्रत्येकस्थितितः प्रतिसमयमुत्कीर्यमाणानि दलानि पूर्वपूर्वसमयादुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणानि भवन्तीति नियमो न भवति, अत्र तृ नियमतम्तनद्घात्य मानस्थितिकण्डकसत्कप्रत्येकस्थितितः पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमये स्थितिवाताद्धाचरमसमयपर्यन्तं दलिकान्यसंख्येषगुणान्युत्कीयन्ते । ___(२) तथा च पञ्चमषष्ठगुणस्थानपर्तिगुणश्रेणिभ्यां विना मामान्यर्निव्याघातभाव्यपवतनाप्रवर्तनकाले विवक्षितममये यानि दलिकान्युत्कीर्यन्ते, तेभ्य उद्वर्तनायां यावद् दलं भवति, ततो विशेषहीनं वा समानं वा विशेपाऽधिकं वा दलमपवर्तनायां भवति, अत्र तृद्वर्तनागतील. कतोऽपवर्तनायामसंख्यातगुणं भवति । उक्तश्च कषायप्राभृते वड्डीदु होदि हाणी अधिगा हाणोदु तह अवठ्ठाणं । - गुणसेढि असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोडव्वा ॥१६०॥ तच्चणि-विहासा ज पदेसग्गमुक्कडिज्जदि सा वडी त्ति सपणा, जमो. कडिज्जदि सा हाणि त्ति सण्णा, जंण ओक्कडिजदि ण उक्कडिज्जदिण पदेसग्गं तमवहाणं त्ति सण्णा, एदीए सण्णाए एक्कं ठिदि वा पडुच्च सव्वाओ वा हिदिओ पडुच्च अप्पाबहुगं तं जहा-(१) बड्डी थोवा (२) हाणि असंखेज्जगुणा (३) अवट्ठाणमसंखेज्जगुणं, अक्खवगाणुवसामगस्स पुण सव्वाओ हिदिओ एगहिदि वा पडुच्च वड्डीदो हाणो तुल्ला वा विसेसहिया वा विसेसहीणा वा अवहाणमसंखेज्जगुणं । (३) तथा सामान्यनिर्व्याघातभाव्यपवर्तनायां सत्तागतदलं पल्योपमाऽसंख्येयभागरूपेण भागाकारेण विभज्योत्किरति, अत्राऽपि धात्यमानस्थितिगतं दलं विवक्षितसमये पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रेग भागाकारेण विभज्योत्किरति । किन्तु पूर्वपूर्वसमयत. उत्तरोत्तरसमये स्थितिघाताद्धा द्विचरमसमयपर्यन्तं भागाकारोऽसंख्येयगुणहीनो भवति । इत्थं सामान्य निर्व्याघातभाव्यश्वप्नातोऽत्र स्थितिघाताद्धायाः प्रथमसमयात्प्रभृतिप्रवर्तमाननियाघातभाव्यपवर्तनाया विशेषम्य मत्त्वात सामान्यनिर्व्याघातभाव्यपवर्तना नोच्यते, किन्तु निर्व्याघातभाव्यपवर्तनायां मन्यामपि "कारणे कार्योपचार” इति न्यायेन स्थितिघाताद्ध रूपाऽन्तम हतप्रमाण कालम्य प्रथमममयादपि व्याघातभाव्यपवतना नाम्ना स्थितिघात इति उपचर्यते । तथाहि-स्थितिघाताद्धा. लक्षणाऽन्तमु हृतकालस्य चरमसमये व्याघातभाव्यपवर्तनारूपस्थितिघातः कार्य:, स्थितिघाताट्टारूयाऽन्तम हूतकालस्प तु प्रथमसमयादारभ्य प्रवर्तमाननियाघातभाव्यपवर्तना स्थितिघाताद्धा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] उपशमनाकरणम [ गाथा १५ चरमसमये प्रवर्तमानव्य घाताभाव्यपवर्तनायाः कारणम् । तत्र कारणे=निर्व्याघातभाव्यपवर्तनायां कार्यस्य-व्याघातभाव्यपवर्तनारूपस्थितिघातस्योपचारो भवतीति स्थितिघाताद्धारूपाऽन्तमुहूर्तकालस्य प्रथमसमयात्प्रभृति द्विचरमसमयपर्यन्तं निर्णाघातभाव्यपवर्तनायां सत्यामपि स्थितिघातत्वेन व्यपदेशो भवति । ननु घात्यमानस्थितेर्दलिकान्यावलिकालक्षणामतीत्थापना विमुच्य सर्वस्थितिस्थानेषु क्षिप्यन्ते, उत तत्र कश्चिद्विशेषोऽस्ति ? उच्यते-कर्मप्रकृतिचूर्णौ तु घात्यमानस्थितेर्दलिकानि कुत्र प्रक्षिप्यन्ते, इति न निर्दिष्टं किन्तु श्रीमन्मलयगिरिसूरीश्वरायविशारदैश्च न्यायाम्भोधिश्रीमद्यशोविजयोपाध्यायैस्तथा सप्ततिकाचूर्णिकारैनिंदिष्ट मेतद्यस्थितिकण्डकमुत्कीर्यते तस्य दलानि याऽधस्तनस्थितिं न खण्डयिष्यति तस्यां प्रक्षिपति । तथा चाऽऽहुः श्रीमन्मलयगिरिसूरीश्वरा:-"जघन्येन पुनः पल्योपमसंख्येयभागमानं स्थितिकण्हकमुत्किरति, उत्कीर्य या स्थितिरघो न खण्डयिष्यति, ता तद्दलिकं प्रक्षिपति" । तथैव श्रीमदुपाध्यायवृत्ती "स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमभागादृत्कर्षत उदधिपृथकत्वं प्रभूतसागरोपमप्रमाणम् , जघन्येन च गल्योपमसंख्येयभागमात्र स्थिति। कण्डकमुस्किरति खण्डयतीत्यर्थः । उत्कीय च या स्थितिरधो न खण्यति, तत्र तददलिकं प्रक्षिपति । तथा चोक्तं सप्ततिकाचूर्णा अनन्तानुबध्युपशमनाधिकारे 'तत्य ठितिघाओ नाम ठिदिसंतकम्मस्स अग्गगाओ उसकोसेणं सागरोपमसयपुहत्तं जहणणं पलिओवमस्स (अ) संखेइज्जभागे ठिति लिदित्त तं दलियं हेढो जाओ हिओ न खंडेति तस्य छुभंति " इति । तथा शतकनामकपश्चमकर्मग्रन्यवृत्तौ (नव्यशतकवृत्तौ) श्रीमद्भट्टारकैदेवेन्द्रसूरीश्वरैरप्युक्तम "तत्र स्थितिघातो नाम "स्थितिसाकर्मणोऽग्रिमभागावृत्कर्षतः प्रभृतसागरोपमशतपृथक्त्वमात्र जघन्यतः पन्योपमसख्येयभागमात्रं स्थिति खण्ड खण्डयति तदलिकं पाऽवस्तायां स्थिति न खण्डयति तत्र प्रक्षिपति।"इति । एतानि सर्वाण्यक्षराणि ज्ञापयनि-यदुत्कीर्यमाणानि दलान्य धात्य मानस्थिती निक्षिप्यन्ते, किन्तु पात्यमानस्थितीन प्रक्षिप्यन्ते । कषायपाभृतष्णिकारास्तु-'वाघादेण भात्थावणा एक्का जेणापलिया अदिरिता होई। त जहा द्विदिघादकरतेणं बंडयभागाइदं तत्थ जं पढमसमए उक्कीरदिपदेसाग्गं तस्स पदेसागस्स आवलियाए अइच्छावणा । एवं जाव दुचरिमसमयं अणुक्किण्णं खंड यति । चरिमसमए जा खंडयस्स अग्गहिदि तिरसे अइच्छावणा खंत्यसमयूणं । एसा उक्कसिया अइच्छावणा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवर्तना ] अपूर्वकरणाधिकारः [ ४६ वाघादे ।" इति वदन्ति । भावार्थः पुनरयम्--व्याघातभाव्यपवर्तनायामपि द्विचरमसमयपर्यन्तमेकावलिकाऽतीत्थापना, अर्थास्थितिकण्डक उत्कीर्यमाणे यावस्थितिघाताद्धारूपाऽन्तमुहूर्तकालस्य द्विचरमसमयं दलिकनिक्षेपोऽतीत्थापनाऽऽवलिकावर्जसर्वस्थितौ भवति, तस्मादुत्कीर्यमाणे खण्डेऽपि दलिकनिक्षेपो भवतीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति । यस्मात्स्थितिस्थातनाद् दलिकोत्कीर्ण भवति, ततोऽवस्तनाऽऽवलिकावर्जसर्वस्थितिस्थानकेषु दलिकानि प्रक्षिप्यन्ते । तथाहि--अपर्वत्यमानसत्तागतचरमस्थितिस्थानकस्य दलिकान्यतीत्थापनारूपामावलिकां विमुच्य घात्यमानस्थितिस्थानकवन्येषु च स्थितिस्थानकेषु निक्षिप्यन्ते । ततः समयाधिकाऽऽवलिकामात्रेषु स्थितिस्थानक षु न निक्षिप्यन्ते । व्याघातभाव्यपवर्तनायां स्थितिघाताद्धारूपाऽन्तमुहूर्तकालस्य चरमसमये तु कण्डकप्रमाणायाः स्थितेन्यूनत्वं भवतीति कृत्वा चरमसमये घात्यमानखण्डस्य चरमस्थितिस्थानकस्य दलिकानि समयोनकण्डकप्रमाणस्थितिरूपाऽतीत्थापनामतिक्रम्याऽधस्तनाऽघात्य मानस्थितिस्थानकेषु शिप्यन्ते । तथा घात्यमानखण्डसत्कद्विचरमस्थितिस्थानकस्य दलिकानि द्विसमयोनकडकप्रमाणस्थितिरूपाऽतीत्थापनामतिक्रम्यादधस्तनाऽघात्यमानस्थितिस्थानकेषु क्षिप्यन्ते । तथा घात्यमान खण्डमत्कद्विचरमस्थितिस्थानकम्य दलिकानि द्विसमयोनकण्डकप्रमाण स्थितिरूपाऽतीत्थापनामतिक्रम्यऽधम्तनऽघात्यमानस्थितिस्थानकेषु क्षिप्यन्ते । एवं पूर्वपूर्वाऽपेक्षयोत्तरोत्तरऽधस्तनस्थितेदलिकानामतीत्थापना न्यना भवति, यावदात्यमानकण्डकम्याऽधस्तनसमयाऽधिकप्रथमाऽऽवलिकायाश्चरमसमयस्य दलिकान्यावलिकाप्रमाणामतीत्थापनां विमुच्याऽ. धम्तनस्थितिम्थान केषु निमिप्यन्ते । तनोऽधस्तनसर्वस्थितिस्थानदलान्यावलिकारूपामतीत्थापनां विमुच्याऽधस्तनस्थितिस्थानकेषु प्रक्षिप्यन्त इति सिद्धम् , स्थितिघाताद्धारूपाऽन्तमुहर्तकालस्य द्विचरमसमयपर्यन्तं घात्य मानस्थितिम्थानकेष्वपि दलिकनिक्षेपो भवति, इति कषायप्राभृतर्णिकृद्महः श्रीमन्मलयगिरिपादानां च द्वेऽपि परस्परं मताऽन्तरे ज्ञातव्ये । यद्वा याः स्थितीरधो न खण्डयति, तत्र तद्दलिकं प्रक्षिपतीत्यनेनेदं ज्ञातव्यम् । स्थितिघाताद्धारूपाऽन्तमहूर्तकालम्य चरमसमय एक स्थितेन्यूनत्वं भवतीति तत्र चरमसमयस्य विवक्षा क्रियते, यतो द्विचरमसमयपर्यन्तं कण्डकप्रमाणस्थितावुत्कीयमाणायामपि सत्तागतस्थितेन्यूनत्यं न भवतीति कृत्वा घात्यमानस्थिती टिप्पणी कषायप्राभृतस्य जयधवलाटोकायामनुभागसक्रमाऽधिकारेऽप्युक्तम-उक्कस्ताऽणुभागखंडए प्राघाइदे दुचरिमटिमकालेसु प्रतमुत्तमंतिसु सम्वत्थ जहण्णा इच्छावणो चेव पुग्वुत्तपरि. लामा होह तक्काले वाघादामावादो। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] उपशमनाकरणम् दलिकनिक्षेपे न कश्चिद् दोषः । चरमसमये च कण्डकप्रमाणस्थितिसत्कर्मणोन्यूनत्व' भवतीति घात्यमानस्थितौ दलिकनिक्षेपो न भवति । तत्त्वं तु सर्गज्ञा विदन्ति । ननूत्कीर्यमाणानां दलानां निक्षेप उदयसमयादारभ्याऽन्तर्मुहूर्त पर्यन्तमसंख्ये यगुणकारेणोक्तः, अन्तर्मुहूर्तात्परेषु स्थानेषु निक्षेपो भवति न वा ? यदि भवति तर्हि को निक्षेपक्रमः ? इति चेत्, उच्यते गुणश्रेणिनिरूपणाऽवसर उदयसमयादारभ्याऽन्तमुहूर्तपर्यन्तमसंख्येयगुणकारेण निक्षेप उक्तोऽन्यत्र निक्षेपो नोतः, यतस्तत्र गुणणेरेवाधिकारस्तथाऽपि स्थितिघातप्ररूपणाऽवसरे या स्थितिरधो न खण्डयति, तत्र तद्द्दलिकं प्रक्षिपतीति पूज्ययशोविजय रु पाध्याय भट्टारकै रुक्तम् एतेन ज्ञाप्यते गुणश्रेणिरचनारूपाऽन्तमुहूर्तादन्यत्राऽपि दलिकनिक्षेपो भवति । अर्थात् गुणश्रेणिरचनाया उपरितनस्थितिष्वपि निक्षेपो भवति । निक्षेपक्रमस्त्वेवम् । गुणश्रेणिशिरस्तोऽनन्तरस्थितिस्थाने पूर्वतोऽसंख्येयगुणहीनस्ततोऽनन्तरस्थितिस्थाने स्थाने विशेषहीनक्रमेण तावदभिधातव्यं यावदतीत्थापनाऽप्राप्ता भवति । विशेषस्तु क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्तौ वक्ष्यामः । (पश्यन्तु यन्त्रकम्...... ..३) " उपयुक्तैः स्थितिघातादीनां सहस्रं रपूर्वकरणसमयाननुभवन्त्रनिवृत्तिकरणं प्रविशतीत्यनुवृत्तिकरणस्य वक्तव्यतां व्याचिकीषु राह- [ गाथा १६ अनियम्मि वि एवं तुल्ले काले समा तो नामं । श्रनिवृतावप्येवं तुल्ये काले समा ततो नाम । इति ॥ पयसंस्कार : संप्रत्यनिवृत्तिकरण स्थितिघातादयश्चत्वारः पदार्था अध्यवसायेभ्यो विशोधिभ्यश्चार्वाकूप्ररूप्यन्ते प्रत्यासत्तेः । अयं भावः पूर्वस्यामेव गाथायामपूर्वकरणे स्थितिघातादीनां स्वरूपं कथितम् तेन ते पदार्था किमनिवृत्तिकरणेऽपि भवन्ति, उत न ? इत्याशङ्कापरिहारार्थमाह-"अनियट्टिम्म वि एवं" त्ति यथाऽपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य स्थितिघातादयो युगपत् प्रवर्तमाना उक्ताः, एवमनिवृत्तिकरणेऽपि वाच्याः, तथाहि - अपूर्वकरणे प्रविशन्नभिनव स्थितिघातम 5 टिप्पणी तथा चोक्तं षट्खण्डागमस्य धवलाटीकायामपि “एवमसंखेज्जगुणणाए सेढोए दिव्व जाब गुणसेढी चरिमसमझो ति तदो उवरिमाणतराए ठिदिए प्रसखेज्जगुणहीनं दव्वे बेदि तदुवरिमठ्ठिदिए विसेसहीणं देदि एवं विसेस होणं विसेसहीणं चैत्र पदेसग्गं निरंतरं देदि जाब प्रप्यप्पलो उक्कीरिदट्ठिदिमावलियकालेण अपत्तो त्ति । " ... + टिप्पणम्....प्रत्र 'सहस्र' शब्दःसंख्यावाचकः' प्रादशभ्यः सङ्ख्या सङ्ख्ये ये बर्तते न सङ्ख्यान इति न्यायेन विशत्यादिसङ्ख्या तु संख्याने च प्रवर्तते यथा - एकोनविंशतिघंटा घटानामेकोनविशतिः । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यवसावविशोषिः ] पनिवृत्तिकरणाधिकारः [५१ भिनवस्थितिबन्धं तथाऽभिनवरसघातं चाऽऽरभते, अन्तर्मुहूर्ते न्यतिक्रान्ते पुनद्वितीयमभिनयस्थितिघातं द्वितीयं स्थितिवन्धममिनवरसघातं चाऽऽरमते, अत्र रसघातो य आरभ्यते, स न द्वितीयः, किन्त्वनेकसहस्रतमो रसघातो भवति, स्थितिघातकाले स्थितिबन्धकाले वाऽनेकसहस्त्ररसघाताना व्यतिक्रान्तत्वात् । एवमपूर्वकरणे बहुसहस्राणि स्थितिघातादयो भवन्ति, तथैवाऽनि. वृत्तिकरणेऽपि स्थितिघातादयो भवन्ति । अथाऽध्यवसायानां विशोधिराविश्चिकीर्ष राह-"तुल्ले काले समा तओ नामं" तुल्ये समाने काले, यतः समा सर्वेषामपि प्रविष्टानां विशोधिर्भवति, न विषमा. ततो नाम मा अनिवृत्ति, अन्यर्थम् । तद्यथा-न वर्तते निवृत्तिः प्रविष्टानां तुल्यकालाना जीवानामध्यरसायानां मिथस्तियक्षस्थानपतिता वैषम्यलक्षणा व्यावृत्तिर्यस्मिन् करणे तदनिवृत्ति, अनिवृत्ति च तत्करणं चेत्यनिवृत्तिकरणम् , इति व्युत्पत्यर्थो ग्राह्यः । इदमुक्तं भवति-अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये वर्तन्त, ये च वृत्ताः, ये च वर्तिष्यन्ते, तेषां समा विशोधिः किन्तु प्रथमसमय-- भाविविशोध्यपेक्षया त्वनन्तगुणा, एवमनिवृत्तिकरणस्य चरमसमयं यावद् वाच्यम् । इत्थं त्रिकालगोचरसर्वजीवानां प्रतिसमयमेकमेवाऽध्यवसायस्थानम् । नवरं प्रथमसमयाऽध्यवमायस्थानाऽपेक्षया द्वितीयसमयस्याऽध्यवसायस्थानमनन्तगुणवृद्धम् , अतोऽनिवृत्तिकरणे यावन्तसमयास्तावन्त्यध्यवसायस्थानानि पूर्वपूर्वस्मादनन्तगुणवृद्ध्या विशुद्धानि । एतानि च मुक्तावलीसंस्थानेन स्थापयितव्यानि, उक्तं च पधसङग्रहे- “अनियटिकरणमओ मुत्तावलीसंडियं कुणई।" इति । उक्तविशुद्धयां प्रवर्धमानोऽनिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्येयेषु मागेषु गतेअन्तरकरणस्य विशिष्टां क्रियां करोतीत्या'चार्योऽभिव्यनक्ति संखिज्जइमे सेसे भिन्नमुहुत्त श्रहो मुच्चा ॥१६॥ किंचूणमुहुत्तसमं ठिबन्धद्धाश्र अंतरं किच्चा । श्रावलिदुगेक्कसेसे श्रागालउदीरणा समिया ॥१७॥ संख्येयतमे शेषे भिन्नमुत्तमयो मुक्त्वा ॥१५॥ किचिदून मुहूर्तसमं स्थितिबन्धाद्धयाऽन्तरं कृत्वा । प्रावलिकाद्विककशेष प्रागालोदीरणे भान्ते ॥१७॥ इति पदसंस्कार: "संखेज्ज" इत्यादि, अनिवृत्तिकरणाद्धायाः संख्येयेषु भागेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्स्वेकस्मिँश्च संख्येयतमे भागेऽवतिष्ठमाने भूयोऽभिनवस्थितिघातादयः पदार्था आरभ्यन्ते तदा मिथ्यात्वस्याऽन्तरकरणं करोति, कतु मारभत इत्यर्थः । अन्तरकरणं करोति नामोदयक्षणादुपरि मिथ्या स्वस्थितिमन्तमुहूर्तमानामतिक्रम्योपरितनी च मिथ्यात्वस्थितिं विष्कम्भयित्वा मध्यगत अन्त Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] | गाथा १६-१७ मुहूर्त माणस्थिति दलिकान्युत्कीर्य तत्र मिथ्यात्वदलिकानामभावं करोति, अन्तरकरणक्रियाकालश्चाऽन्तमुहूर्त प्रमाणोऽभिनवस्थितिबन्धाद्ध वाऽमिनवस्थितिवाताद्धया वा मम इत्य अन्तर्मुहूर्तकालेनाऽन्तरकरणं भवति । अर्थाद् यदाऽभिनवस्थितिबन्धाद्धा पूर्णा भवति, तदाऽन्तरकरणमपि समापयति । इदमुक्तं भवति -- अभिनव स्थितिघाताद्वायां व्यतिक्रान्तायामन्तरकरणक्रियाऽपि परिमाप्ता भवति, उदयसमयादारभ्याऽन्तमुहूर्तप्रमाणाया मिध्यात्वस्थि तेरुपरितनाऽन्तर्मुहूतस्थितिर्मिथ्यात्वदलिकाभाववती भवतीत्यर्थः । उद्यममयादरम्यान्तमुहूर्तप्रमाणा प्रथमस्थितिस्तथाऽनन्तरकरणस्योपरितनस्थितिद्वितीयस्थितिरितिव्यपदिश्यते । उपशमनाकरणम् पूर्वोक्तगुणश्रेणिरचनाऽपूर्वकरणादनिवृत्तिकरणकालात् किश्चिदधिककालप्रमाणाभवति । अन्तरकरणे क्रियमाणे मिथ्यात्वस्य गुणयेणे: संख्येयतमं भागमन्तरकरणदलिकेन सहोत्किरति नाशयतीत्यर्थः । शेषाश्च गुणश्रेणिसंख्येयभागाः प्रथमस्थित्याश्रितास्तिष्ठन्ति । कर्मप्रकृतिचूण तु "अंतरकरेमाणे अनियट्टिगुणसेढी निक्ग्वेवरस अग्गग्गातो (अ) संखेज्जतिभागं ग्वण्डेति” त्ति, असंख्येयतमभागं खण्डयतीत्युक्तम् । तदशुद्ध प्रतिभाति । 1 उत्कीर्यमाणं दलिकं प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति । तथाहि यदुताऽन्तरकरणस्थितेर्मध्याद् दलिकं गृहीत्वाऽधस्तात्प्रथमस्थितावुपरि च द्वितीयस्थितौ निक्षिपत्ति | एवं प्रतिसमयं तावत्प्रतिश्चिपति यावदन्तरकरणइलिकं सकलमप्युत्कीर्यते, अन्तर्मुहूर्तप्रमाणकालेनाऽन्तरकरणसत्कसकलदलान्युत्कीर्यन्ते । उक्तं च पञ्चसङग्रहे- 'अन्तरकरणरस विही घेत्तु घेत्तु ठिईड मज्झाओ । दलिय पदमठिईए विद्युत्भह तहा उवरिमाए ||" अन्तरकरण - क्रियायां परिपूर्णायामपि स्थितिवातादयश्चत्वारः पदार्थाः प्रवर्तन्ते । 5 न चान्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थितेरन्तरकरणम्, स्थितिघातश्च जघन्यतोऽपि पल्योपम संख्येय भागप्रमाणस्थितेर्भवति, कथमुमयोरुत्कीर्ण कालसम उच्यत इति वाच्यम्, तथा स्वभावात् । न चान्तरकरणसत्कस्थिते न्यूनत्वेन तत्र दलिकान्यल्पानि सन्ति, स्थितिघातस्य तु स्थितेराधिवयेन दलिकानि बहूनि ततः कथमुभयोर्दलिकोत्कोर्णकालः समः, प्रन्तरकरणस्याऽल्पदलिक वत्त्वेन दलिकोत्कीर्णकालोऽल्पो वक्तव्य इति वाच्यम्, यतो दलिकाऽपेक्ष योत्कीर्णकालो विचार्यते तहि न कश्चिद् भेदः प्रतिभाति, यतः स्थितिघातः स्थितिसत्कर्मणोऽग्रिमभागतः क्रियते, अन्तरकरणं तूदयसमयादारभ्याऽन्त मुहूर्तप्रमाणस्थिते रूपरितनान्तमुहूर्त प्रमाणस्थितेः क्रियते, घात्यमानाऽग्रिमस्थितौ प्रत्येक स्थितिस्थानगतवलिकाऽपेक्षयान्तर करणे प्रत्येक स्थितिस्थानकस्यटलिकान्य संख्येयगुणानि भवन्ति यतोऽन्तरकर णतोऽसंख्यातद्विगुणहानिस्थानेषु व्यतिक्रान्तेषु घात्यमानस्थितिस्थानकानि प्राप्यन्ते श्रतः स्थितिघाटे स्थितिस्थानकान्यंतर करणसत्क स्थितिस्थानेभ्याऽसंख्येयगुणानि, अन्तरकरणे च स्थितित्र तस्य प्रत्येक स्थितिस्थानगत दलिकाऽपेक्षया प्रत्येक स्थितिस्थानकस्य दलि काव्य संख्ये यगुणानि भवन्तीति दलिकाऽपेक्षया न कश्विद्विशेषः प्रतिमाति । ' Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् ] अन्तरकरणं कुर्वतः प्रथमस्थितेश्चित्रम् (गाथा - 16-17 ) अन्तरकरणगता स्थिति: द्वितीयस्थितिः अन्तः सागरोपम कोटाकोटि प्रणाम अन्तरकरणगता स्थितिः (अन्तर्मुहूर्त प्रमाणा) प्रथमस्थितिः तथाण अन्तरकरण दलिका गुणश्रेणिशिरः मथमस्थितौ स्पष्टीकरणम् (1) प्रथमस्थिति :- श्रन्यतमस्य यस्य वेदस्य, यस्य च कषायस्योदयः, तयो. प्रथम स्थितिः, तस्याञ्चाऽन्तरणत उत्कीर्यमाणं दलिकं प्रक्षिपति । प्रयन्तु विशेषः – वेद्यमानवेदप्रथमस्थितितो वेद्यमान कषाय प्रथमस्थितिविशेषाधिका बोध्या । [ 53 (2) गुणश्रेण्या आयाम: - स च कररणद्वयकालतो विशेषाधिकः । तस्य च संख्येयतमभागमन्तरकरणं कुर्वन् घातयति । (3) अन्तरकरणगता स्थिति. - तस्या दलमुत्कोर्याऽन्तरकरणं क्रियते । उत्कीर्यमाणं च दर्ल प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिप्यते । (4) गुणश्रेणिशिर अनेन चिह्न ेन गुणश्रेणिशिरः प्रदर्शितम् । (5) यत्र दलिकं प्रक्षिपति, तत् अनेन चिह्न ेन दर्शितम् । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तरकरणम् ] निवृत्तिकरणाधिकारः [ ५३ अन्तरकरणे कृते सति सम्यक्त्वाऽभिमुख उपशामक उच्यते । उक्तश्च कर्मप्रकृतिचूणी• "एवं अंतरकरणकयं भवति ततो पभिति उवसामगो लम्भत्ति ॥" तथा चोक्तं कषायप्राभतचूर्णी-"दो अतरं कीरमाणं कयं तदोपहडि उपसामगो नि भण्णइ" इति । यद्यप्पस्य कश्चिदपि विशेषः कर्मप्रकृतिवृत्तिकारन्यैर्षा नाऽभिहितः, तथाऽपि इदमस्माभिः संभाव्यते-यथाऽनन्तानुबन्ध्युपशमनाऽधिकारेऽन्तरकरणे कृते मति तदनन्तरसमयेऽनन्तानुबन्धिनो द्वितीयस्थितिगतदलिकमुपशमयितुमारभते,तत्राऽयं क्रमः... प्रथमममये म्नीकं दलिकं द्वितीय समयेऽसंख्येय गुणम , एवं यावदन्तमुहर्तकालम् , अन्तमुहूर्तकालेन च सर्वथापशमयति, तथैवाऽत्राऽपि तेन क्रमेणोपशमयति, अतः कमप्रकृतावुक्तस्योपशामकशब्दस्य व्युत्पन्यथ उपशमयतीत्युपशामक इत्युपपद्यते ।। इदमत्र हदयम्- अन्तरकरणे कृते तदनन्तरसमयादारभ्य प्रतिसमयमसंख्येयगुणं द्वितीयस्थितिगतं दलमुपशमयति, एवमनिवृत्तिकरणम्य चरमसमयं यावद् द्वितीयस्थितिगतसर्वदलमुपशमयति, नवरं समयन्यनाऽऽवलिकद्विकन बद्धानि दलिकानि नोपशमयति, यतो यस्मिन्समये यानि कान्यपि दलिकानि वध्यन्ते. तत्समयादारभ्याऽऽवलिकापर्यन्तं तेषु न किमपि करणं प्रवतते, बन्धाऽऽवलिकायाः सकलकरणाऽयोग्यत्वात् । ततो द्वितीयाऽऽवलिकायाः प्रथमसमयादारभ्योपशमयितुमारभते, ततः प्रभृत्यावालिकायां पूर्णायां प्रथमसमये बद्धवानि दलानि सर्वाण्युपशमितानि भवन्ति । यन एकममये बद्धानि दलिकान्युपशमयितुमावलिकामात्रः कालो गच्छति । एवं प्रथमाऽऽवलिकायाः द्वितीयममये बद्धानि दलान्यावलिकाकालेन सर्वथोपशम्यन्ते, तेनाऽत्रापि मिथ्यात्वसत्कप्रथमस्थितेर्द्विचरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसमय बद्धानि दलिकानि बन्धाऽऽवलिका सकलकरणाऽयोग्येति कृत्वाऽऽवलिकापर्यन्तमुपशमयितुंनाऽऽरभते, ततश्वरमाऽऽवलिकायाश्चरमसमये द्विचरमाऽऽधलिकायाः प्रथमसमये बद्ध नि सर्वाणि दलान्युपशम्यन्ते, परन्तु समयन्यूनद्विचरमाबलिकायां चरमावलिकायां च बद्धानि दलान्युपशमितानि तिष्ठन्ति तानि दलान्यसंख्येयगुण नया नावना कालेनोपशान्ताद्धायामुपशमयति, तत उपशान्ताद्धायाः समयोनाऽऽवलिकाद्वये व्यतिकान्ते सति सर्वदलमुपशम्यते न किदिनुपशान्तमुपतिष्ठते । उपशान्तं नाम अन्तमुहुर्तकालायोदयोदीरणाकरणाऽयोग्य करणम् , तेनाऽग्रे वक्ष्यमाणत्रिपुञ्जकरणं न विरुध्यते । 'आवलिदुगेकसेसे" इत्यादि, तथा मिथ्यात्वमोहनीयस्योदयोदीरणाभ्यां च ताव. प्रथमस्थितिमनुभवति, यावदावलिकाहयप्रमाणा प्रथमस्थितिश्शेषा तिष्ठति, प्रथमस्थितौ चाऽऽवलिकाद्व यशेषायामागालः शान्तो व्यवच्छिन्नो भवति । आगालो नाम मिथ्यात्वस्य द्वितीय Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा १६-१७ स्थितेः सकाशाद् यदुदीरणाप्रयोगेण दलिकानि समाकृष्योदयसमये प्रक्षिप्यन्ते, मोदीरणाऽपि पूर्वसूरिभिर्विशेषप्रतिपयर्थमागाल इत्युच्यते तत ऊर्जामुदीरणव प्रथमस्थितितः प्रवर्तते, साऽपि प्रथमस्थितेरावलिकाप्रमाणस्थितौ शेषायां शान्ता=व्यवच्छिका भवति, नतः केवलेन शुद्धेनोदयेनाऽऽवलिकामात्र प्रथमस्थितिमनुभवति । उक्तं च पञ्चसमहे- "इगदुग आवलि सेसाइ णत्यि पदमा उदीरणागालो । पढमठिइए उदीरण पीयाओ ए आगाला ॥१॥इत्येवं कषायप्राभूतचूर्णाषप्युक्तम्-"पदमहिदीओ वि विदियहिदियो वि आगाल परिआगालो ताव, जाव आपलिअपरिआवलियाओ सेसाओ" इति, अत्राऽऽवलिकाशब्देनोदयावलिका प्राधा, प्रत्यावलिकाशब्देन चोदयावलिकोपरितनाऽऽवलिकाप्रमाणस्थितिज्ञेया । तेन चूर्णिसूत्रस्याऽयं भावार्थ:-प्रथमस्थितित उद्वन्यमानस्थितिः प्रत्यागालः, द्वितीयस्थितितोऽपर्व त्यमानस्थितिरागालः । तौ तावद् वक्तव्यो यावद्दयावलिकोपरितना बलिका शेषा भवति । प्रथमस्थितेराबलिकाद्विकं शेष भवतीत्यर्थः । + आगालो नाम द्वितीयस्थितेर्दलानामपवर्तनया प्रथमस्थितौ प्रक्षेपणम् , प्रत्यागालो नाम प्रथमस्थितेर्दलानामुद्वर्तनया द्वितीयस्थितौ निक्षेपणमित्यर्थः ।। ननु प्रथमस्थितो दयावलिकाशेषायां प्रत्यागालो व्यवच्छिद्यते, कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते-यदा मिथ्यात्वस्य प्रत्यागालः प्रवर्तते तदा मिथ्यात्वम्य प्रथमस्थितितो दलान्यूद्वर्तनया द्वितीयस्थिती निक्षिप्यन्ते । उद्वर्तनाऽऽवलिकागतं कर्म मकलकरणाऽयोग्यमिति कृत्वाऽऽवलिकापर्यन्तं तद्दलिकं तदवस्थं तिष्ठनि । ततः परं तदुपशमयितु प्रक्रमते, एकसमयेनोवर्तितदलिकमावलिकाकालेन सर्वथोपशम्यते, एकसमयबद्धनूतनदलिकवतु । तथा च सति यदि प्रत्यागालोऽनिवृत्तिकरणस्य चरमसमयपर्यन्तं प्रवर्तते, तर्हि यथाऽनिवृत्तिकरणस्य चरमसमये समयोनाऽऽवलिकाद्विकबद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति तथैव ममयोनाऽऽलिकाद्विकेनोद्वतितमपि दलं द्वितीयस्थितावनुपशान्तं तिष्ठेत । न चोद्वर्तितमपि दलमनिवृत्तिकरणचरमसमयेऽनुपशान्तं तिष्ठतु विरोधाऽभावादिति वाच्यम् , अनिवृत्तिकरणचरमममय समयोनाऽऽलिकाद्विकेन बद्धाऽभिनवदलिकमनुपशान्तं तिष्ठनीत्येव संभवादिति वयं अमः । उक्तञ्च जयधवलायाम्-"तत्थ प्रावलिया त्ति वृत्तं उदयावलिया घेत्तव्वा पडिमावलिया त्ति एदेण वि उदयावलियादा उरिम विदियावलिया गेहयमवा" । + उक्तञ्च जयधवलायाम् प्रागालनमागालो विदियट्टिदिपदेसाणे पढमाठदीए प्रोकटणाक्सेणागमणमिति वृत्त होइ । प्रत्यागलन प्रत्यागाल-पढमछिदिपदेसाण विदियटिदीए उक्कडुणावसेण गमणमिदं भणिदं होइ । तदा पढविदिठिदियपदेसाणमुक्कड्डणोकड्डणावसेण परोप्परं विसयसकमो प्रागासपडिप्रागालो त्ति घेतव्यो। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरकरणम ] पनिवृत्तिकरणाधिकारः [१५ यदाऽऽवलिकादये शेष आगालो विच्छिद्यते, तदा मिथ्यात्वस्य गुणश्रेणिरपि व्यवच्छिन्ना भवति । नन्वन्तरकरणक्रियायां पूर्णायां गुणश्रेणेर्दलिकप्रक्षेपः कुत्र भवति । यतः पूर्वोक्तप्रकारेणाऽपूर्णकरणाऽनिवृत्तिकरणाद्धायाः किश्चिदधिके काले गुणश्रेणिदलरचना भवेत्तर्हि मिथ्यात्वाऽभाववत्यन्नरकरणेऽपि दलिकनिक्षेपः स्यात् , तेनाऽनिवृत्तिकरणे परि. समाप्तेऽन्तरकरणं प्रविशन मिथ्यात्वस्य दलान्यनुभवेत् । मिथ्यात्वं चाऽनुभवन्नौपशमिकसम्यक्व नाऽश्नुयादिति चेद, उच्यते- अन्तरकरणं कुर्वानन्तरकरणगतगुणश्रेणिसंख्येयतमभागस्य दलान्यप्युत्किरति, अपुर्णकरणाऽनिवृत्तिकरणाद्धाया उपरितनकिश्चिदधिककालप्रमाणगुण श्रेणिनिक्षेप संकृच्याऽन्तरकरणक्रियाऽनन्त गुणश्रेणिरचनामनिवृत्तिकरणाद्धापर्यन्तं करोति, ततो गुणश्रेणिर्दलिकनिक्षेपोऽनिवृत्तिकरणादापर्यन्तमेव भवति, नाऽग्र इति युक्तिप्रयुक्तिभिनयं समावयामहे । तत्वं तु केवलिनो विदन्ति । यदा प्रथमस्थितेरावलि कायां शेषायामुदीरणा व्यवच्छिद्यते, तदा मिथ्यात्वस्य स्थितिघातावपि निवर्तते, आयुर्वर्जशेषकर्मणां स्थितिघातरसघातौ गुणश्रेणिश्च भवन्ति । एकविंशतितमगाथायां मूलकारः स्वयमेव वक्ष्यते। 'ठिहरसघाओ' इत्यादि । तथा चाऽऽह चूर्णिकार: मिच्छत्तस्स पढमहिति जाव एगाव लिसेसा ताव । ठितिघाती रसघाती य अस्थि परउ नथि ।। तथैव पशसङ्ग्रहे-- "मिच्छत्तस्स इगि गावलिसेसाए पदमाए" । उक्तश्न कषायप्राभूतचूर्णिकारैरपि-आवलियाए सेसाए मिच्छत्तस्स घादो नत्यि। प्रथमस्थिता एकस्यामावलिकायां शेषायां स्थितिघातो निवर्तते, तस्य कारणमस्माभिरिदं संभाव्यते, उपशमाद्धाप्रवेशाऽवसरे समयोनाऽऽवलिकाद्वयमात्रे बद्धान्येव दलिकान्यनुपशमितानि तिष्ठन्ति, यदि च चरमसमयपर्यन्तं स्थितिघातो मन्येत, तहनिवृत्तिकरणम्य समयोन चरमाऽऽवलिकायां घातितस्थितेर्दलिकान्युपशान्ताद्धां प्रविष्टस्याऽनुपमितानि तिष्ठेयुः । किं कारणमिति चेद, उच्यते-यथा बन्धाऽऽवलिकायामतीतायामभिनवान्ये कसमयबद्धदलिकान्युपशमयितुमेकावलिका व्यतिक्रान्ता भवति, तथैव स्थितिघाततः प्राप्तानि दलिकान्युपशयितुमेकाऽऽवलिका व्यतिक्रान्ता भवति, तथैव स्थितिघाततः प्राप्तानि दलिकान्युपशमयितुमेकाऽऽवलिका गच्छेदिति कृत्वा समयोनाऽऽचलिकया पातितस्थितेदलान्यप्यनिवृत्तिकरणचरमसमयेऽनुपर्शाम Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] उपशमना करणम् [ गाथा १६-१७ तानि तिष्ठेयुरिति युक्तिभिः संगच्छत इत्यस्माभिः सभाव्यते, न कुत्रचिदेतादृगुल्लेखो दृश्यते । मिथ्यात्वस्थितिबन्धस्तु प्रथमस्थितेश्वरमसमये निवर्तते, मिथ्यात्वस्य ध्रुवबन्धित्वादुदयबन्धित्वाच्च । षट्खण्डागमस्य धवलाटीकायां स्थितिघानो रसघातो वा कुत्र निवर्तते, तन दर्शितम्, तथाऽपि प्रथमग्थितेश्वरमसमयपर्यन्तं स्थितिघातो रसघातच भवत इति मतं विद्यते धवलाकाराणामिति प्रतिभाति यतो धवलाया मल्पबहुत्वाऽधिकारे चरमस्थितिबन्धाद्रा चरमस्थितीघानाडया तुल्या इत्युक्तमस्ति । तथा तांष्टीकाकाराननुसृत्य लब्धिसारग्रन्थ कारेणाऽप्युक्तम् "दर्शनमोहस्य प्रथमस्थितिसमाप्तिसमकालभावी (संपूर्ण भवतीत्यर्थः) शेषकर्मणां गुणसङक्रमचरमसमयसमकालभावि गनुभागकण्डकं तदन्त्याऽनुभागकण्डकमीत्युच्यते " इति । चरमरसघातः प्रथमस्थितिसमाप्तिसमकाले पूर्णा भवतीत्यर्थः । किञ्चपयुक्तवक्तव्यतायां स्वीक्रियमाणायां प्रथमस्थितेश्वरमसमयं मिथ्यात्वसत्कस्थितिघातयव्यवच्छेदे कषायप्राभूतचूर्णिकारस्य विरोधस्स्यात्, यदुक्तं चूर्णिकारेण - "आवलियाए सेसाए मिच्छत्तस्स घादो णत्थि ।" न च चुर्णिकारस्याऽल्पबहुत्वविषयसूत्रे विरोध आपद्यत इति वाच्यम्, चुर्णिकारस्य सूत्रमेवभूतं नास्ति, "चरम स्थितिघाताडा चरमस्थितिबन्धाडा दोषि तुल्ला ।” किन्त्वित्थं सूत्रमस्ति चरमडीदीखण्डक्कीरणकालो तम्हि चैव ठिदिबंधकालो च दोवि तुल्ला " (संखेज्जगुणा) इति । यश्वरम स्थितिखण्डोत्कीर्ण कालस्तस्मिश्चग्मस्थितिखण्डोत्कीर्णकाले प्रवर्तमानो यः स्थितिबन्धस्तस्य कालः, तयोरुभयोस्तुल्यत्वमित्यर्थः । अत्र स्थितिबन्धकालस्य तुल्यत्वं दर्शितम्, न तु चरमस्थितिघातकालस्य, अत एव चरमस्थितिघातकालस्य तत्कालीनस्थितिबन्धकालेन तुल्यत्वे सत्यु भयोव्यवच्छिन्नकालभेदे न कश्चिद्विरोधो विद्यते । उभयव्यवच्छिन्नकालभेदादेव " आवलियाए सेसाए मच्छिदस्स घादो णत्थि " इति नृणिसूत्रमपि सङ्गच्छते । मिथ्यात्वस्य स्थितिघातरसघातयोर्निवृत्तयोः केवलेन शुद्धेनोदयेनाऽऽवलिका प्रमाणां प्रथमस्थितिमनुभवत आवलिकायाश्चरमसमये मिथ्यात्वस्य बन्धोदयौ युगपन्निवर्तेते । ततोऽनन्तरसमय उपशान्ताद्धां प्रविशति । उपशान्ताद्धां प्रविष्टस्य सतो जन्तोः प्रथमसमय एव मोक्षबीजमौपशमिकं सम्यक्त्वमुपजायते उक्तञ्च पञ्चसङ्ग्रहे - "आवलीमेतं उदयेण वेइङ ठाइ उवसमद्धाए । उवसमियं तत्थ भवे सम्मतं मोक्खबीयं जं ॥ | १ ||" इति । इयमुपशान्ताद्वा परिनिष्ठिताऽन्तरकरणैकदेशस्तै नोपशान्ताद्धा प्रवेशसमय एवोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्नोति, मिथ्या त्वदलिक वेदनाऽभावात् । अमुमेव पदार्थ सूत्रकृद् विस्तरशो व्याचिकीषु राह(पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् ..४) ין Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् ] संख्येयभागाः उपशान्ताद्वा पशान्ताद्वातोऽन्तरकरणं संख्येयगुणम्) अनिवृत्तिकरणम् (कषायप्राभृतचूर्णि कारमतेनो अन्तरकरणम् संख्येय भागा: यन्त्रकम्-४ ब अनिवृत्तिकरणतोऽन्यतरसम्यक्त्वप्राप्ति यावत् चित्रम् 8. द्वितीय स्थितिः सम्यङ्गमिथ्यात्वम् संशोधनम् अपूर्वकरणम् 'प्रथमस्थितिः e —अत्र चित्रमध्ये अनिवृत्तिकरणे प्रथम स्थितिसंख्येयभागाः मुद्रितां तत्स्थाने संख्येयभागः बोद्धव्यः । सम्यक्त्वम् द्वितीय स्थितितो दर्शनत्रिकस्य दलं गृहीत्वाऽऽ• वलिकायां गोपुच्छाकारेण निषेकं विरचयलि । [ 57 → द्वितीयस्थिते. प्रथमनिषेक: । दर्शन त्रिकोऽन्यतरस्य चोदय: । 2-5 मिथ्यात्वस्य गुरणसंक्रमो निवर्तते, विध्यातसंक्रम च प्रवर्तते । शेषकर्मरणां स्थितिघातादय: निवर्तन्ते । * अन्तरकररणस्य प्रथमसमये सम्यग्दृष्टि: सन् द्वितीयस्थितिगत मिथ्यात्वदलमनुभागभेदेन त्रिधा करोति, मिथ्यात्वस्य गुणसंक्रमप्रारम्भः । 5 मिथ्यात्वचरमोदयः स्थितिबन्धश्च ततो व्यवहियेते । आवलिकाशेष उदीरणा व्यवच्छिन्ना । मिथ्यात्वस्य च स्थितिघातरसघातयोनिवर्तनम् ) x श्रावलिकाद्वयशेष आगालो मिथ्यात्वगुणश्रेणिश्च व्यवच्छिद्यते । 3- अन्तरकरणे जाते मिथ्यात्वप्रथमस्थितिः । 4- - गुणश्रेणिशिरः । 5- प्रपूर्वक रणान्तर्मुहुर्तम्, अनिवृत्तिकरणं चान्तर्मुहूर्तम्, उभे करणे मिलिते अप्यन्तमुहूर्तप्रमाणम् । O Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमसम्यक्त्वप्राप्तिः । अनिवृत्ति करणाधिकारः [ ५७ (पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् ४ ) मिच्छत्तुदए खीणे लहए सम्मत्तमोवसमियं सो । लंभेण जस्स लभई यायहियमलद्धपुत्वं जं ॥१८|| मिथ्यात्वोदये क्षीणे लभते सम्यक्त्वमौपशमिकं सः ।। लंभेन यस्य लभते प्रात्महितमलब्धपूर्वं यत् ॥१८॥ इति पदसंस्कारः॥ "मिच्छत्तदए" इत्यादि, मिथ्यात्वस्योदये क्षीणे सति स जीव उक्तन प्रकारेणोपश. मिकं सम्यक्त्वं लभते अश्नुते । "जस्स" इत्यादि, यस्य सम्यक्त्वस्य लाभेन यदात्महितमलब्धपूर्वम् अनादौ संसारसागरेऽप्राप्तपूर्वम् , संसारसागरस्य वडवाग्निकल्पम् , शिवहऱ्यासोपानम् , चिन्तमणिरत्नसदृशं जिनेन्द्रप्रणीततत्वप्रतिपत्यादिरूपम् , तल्लभते । यथा निदाघतौं मध्याह्नकाले निर्जलवने सहस्ररश्मेरातापेन पीड्यमानः पथिको जलचन्दनलेपादि प्राप्याऽपूर्वाऽऽनन्दमनुभवति, तथैव सम्यक्त्वलामे सति तत्पुरुषस्य महान् प्रमोदो जायते । उक्तं च सम्यक्त्वप्रकरणे-- संसारगिम्मतविओ तत्तो गोसीसचंदणरसोव्व । अइपरमनिव्वुइकर तस्संते लहइ सम्मत्तं ॥ तथैवाऽन्यत्रापिजात्यन्धस्य यथा पुसश्चक्षाभं शभोदये । सद्दर्शनं तथैवाऽस्य सम्यक्त्त्वे सति जायते ॥ आनन्दो जायतेऽत्यन्नं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः । सद-याध्यपगमे ययाधितस्य सदौषधात् ॥ तथा चोक्तं समरादित्यकथायां प्रथम भवाधिकारे ★ सम्मत्तं उवसममाइएहि लक्खिज्जई उवाएहि । आयपरिणामरूवं षज्झेहि पसत्यजोगेहिं ॥१॥ एत्थं परिणामो खलु जीवस्स सहो उ होइ विन्नेओ। किं मलकलंकमुक्कं कणयं भुवि सामलं होइ ॥२॥ पयईइ कम्माणं वियाणि वा विवागअसुहत्ति । अवरडे वि ण कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥३।। * सम्यक्त्वमुपशमादिकैलक्ष्यते उपामः । प्रात्मपरिणामरूपं बाह्यः प्रशस्तयोगः ॥११॥ अत्र च परिणामः खलु जीवस्य शुभस्तु भवति विज्ञेयः। कि मलकलङ्कमुक्तं कनकं भुवि श्यामलं भवति ॥२॥ प्रकृतेश्च कर्मणां विज्ञाय वा विपाकमशुममिति । अपराद्धेऽपि न कुप्यत्युपशमतः सर्वकालमपि ॥३॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा १८.१६ नरविबुहेसरसोक्खं दुक्खं चिय भाषाओ उ मन्नन्तो । संवेगो न मोक्ख मोत्तूण किंचि पत्थई ।।४।। नारयतिरियनराऽमराऽमरभवेसु निव्वेयओ वसह दुक्खं । अकयपरलोयमग्गो ममत्तविसवेगरहिओ वि ॥५॥ दट्टण पाणिनिवहं भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं । अवसेसओ अणकम्पादुहा वि सामत्थओ कुणइ ॥६॥ मन्नइ तमेष सच्चं नीसंकं जं जिणेही पन्नत्तं । सुरुपिरणामो सव्वं कंखाइ विसोत्तियारहिओ ॥७॥ एवंविहपरिणामो सम्मद्दिट्ठी जिणेहि पन्नत्ती। एसो य भवसमुद्द' थेवेण कालेण ॥८॥ मिथ्यात्वस्य त्रिपुञ्जकरणस्वरूपं वक्तुकाम आह-- तं कालं बीयटिइं तिहाणुभागेण देसघाइत्थ । सम्मत्तं संमिस्सं मिच्छत्तं सव्वघाइयो ॥११॥ तस्मिन् काले द्वितोयस्थिति विधानुभागेन देशघात्यत्र । सम्यक्त्वं सम्मिश्रं मिथ्यात्वं सर्वघातिकः ॥ १ ॥ इति पदसंस्कारः "तं कालं" इत्यादि, तस्मिन् काले सम्यक्त्वप्राप्तिप्रथमसर्थमय इत्यः. औपशमिकसम्यग्दृष्टिद्धितीयस्थितिगतानि मिथ्यात्वदलिकान्यनुभागभेदेन त्रिधा करोति शुद्धमधशद्धमशद्धं चेति, कथमेतदवसीयत इति चेत् , उच्यते--औपशमिकमाम्यग्दृष्टः सम्यक्त्वप्राप्तित आवलिकाया अभ्यन्तरे सम्यग्मिथ्यात्वस्य सङ्क्रमो न भवति, किं कारणमिति चेद् ! उच्यते--मिथ्यात्वपुद्गला एव सम्यक्त्वाऽनुगतविशोधिप्रभावतः सम्यमिथ्यात्वरूपाः क्रियन्त इति कृत्वाऽन्यप्रकृतिरूपतया परिणामाऽन्तरमापद्यन्ते, अन्यप्रकृतिरूपतया परिणामाऽन्तरापादानं च सङ्क्रम उच्यते, सङ्कमावलिकागतं च कर्म सकल करणायोग्यमिति कृत्वा सम्यक्त्वलाभादावलिकाया ★नरविवुधेश्वरसौख्यं दुःखमेव भावतस्तु मन्यमानः । सर्वगतो न मोक्षं मुक्त्वा किञ्चित्प्रार्थयते ।।४।। नारकतिर्यग्नरामरभवेषु निर्वेदतः वसति दुःखम् । अकृतपरलोकमार्ग ममत्व विषवेगरहितोऽपि ॥५॥ दृष्ट्वा प्राणिनिवहं भीमे भवसागरे दुःखार्तम् । प्रविशेषतोऽनुकम्पा द्विधाऽपि सामर्थयतः करोति ॥६॥ मन्यते तदेव सत्य निःशक यज्जिन : प्रज्ञन्तं शुभपरिणामः सर्व काक्षाविविधोतसिकारहितः । एवविधपरिणामः सम्यग्दृष्टिजिनः प्रजप्तः । एष च भवममुद्रं लड़ते स्तोकेन काजन ॥८॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपुञ्जकरणम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ५६ अभ्यन्तरे सम्यमिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न सङक्रम्यते । उक्तं च कर्मप्रकृतिौँ "अट्ठावीससंतकमियस्स सम्मत्तलंभातो आवलियाए परतो वट्टमाणस्स सम्मत्त पडिग्गत्तेति फेडिए सत्तावीसा संकमति, तस्सेव आवलिया अभंतरतो वट्टमाणस्स कमो सम्मामिच्छत्तस्स संकमो त्थिा त्ति छब्धिसा संकमंति। ' अत्र प्रथमसम्यक्त्वप्राप्तित आवलिकापयन्तं सम्यमिथ्यात्वस्य (मिश्रस्य) सङ्क्रमो निषिध्यते, न त्वौपशमिकसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य मिथ्यात्वचरमसमयतः, न वा सम्यक्त्वप्राप्तितः समयोनाऽऽवलिकापर्यन्तमिति हेतोरन्तग्करणप्रथमसमय औपशमिकसम्यग्दृष्टिस्त्रीन पुजान् करोति । उक्तं चाऽन्यत्राऽपि। तथा चाऽत्र शतकचूर्णिः पदमसम्मत्त उपाडितो तिन्नि करणाणि फरेओ उवसमसम्मत्तपडिवन्नो मिच्छत्तदलियं तिपुजी करेह सुहं मीसं असुहं चेत्ति । तथैव कर्मस्तवे. ऽप्युक्तम् - इहाऽनन्तराऽभिहितविधिनौपशमिकसम्यक्त्वेनौषधिविशेषकल्पेन मदन. कोद्रवस्थानीयं मिथ्यात्वमोहनोयं कर्म शोधयित्वा त्रिधा करोति तद्यथा-शुद्धमर्धविशुद्धमशद्धं चेति। तथा चोक्तं कषायप्राभृतचूर्णावपि "चरिमसमयिमिच्छादिट्ठी से काले उवसंतदसणमोहणीओ ताधे चेव तिपिण कम्मंसा अप्पादिदा" तत्र शुद्धं सम्यक्त्वमोहनीयम् , तच्च देशघाति देशघातिरससमन्वितत्वात्तस्याऽनुभाग एकस्थानको मन्दद्विस्थानको वा । अर्धविशुद्धं मिश्रमोहनीयम् , तच्च सर्वघाति, तस्य सर्व घातिरससमन्वितत्वान् तस्याऽनुभागो मध्यमद्विस्थानकः, अशुद्धं मिथ्यात्वमोहनीयं तच्च सर्वघातिरससमन्वितत्वात्तस्यानुभागः मध्यमद्विस्थानकादग्रेतनो यावत् त्रिचतुःस्थानको तदेव सूत्रकारोऽभिधत्ते-"सम्मिसं" इत्यादि, मिश्रेण सहितं मिथ्यात्वं सर्वघाति भवति । मिथ्यात्वसत्काऽनुभागस्य विधा करणं त्रिपुञ्जकरणमित्युच्यते, पञ्चसमहादिकाराणामभिप्रायेण पुनस्त्रिपुजा मिथ्यात्वचरमोदये वर्तमानेन सम्यक्त्वाऽभिमुखेन मिथ्यादृष्टिना क्रियते । उक्तं च पञ्चसहकारैः--- उपरिमठिा अणभागं तं च तिहा कुणइ चरिममिच्छुदए । देसघाईणं सम्म इयरेण मिच्छमीसाई ॥१॥ मलटीका--उपरिमस्थितेर्दितीयस्थितेः कर्मदलं रसभेदेन त्रिधा करोति शद्धि. मधिकृत्य; शुद्धं किञ्चिच्छुडमिति । तच्च प्रथमस्थितिचरमसमये मिथ्यात्वमनुभव. मानो जीवो देशघातिरसेन सम्यक्त्वपुजं सर्वघातिरसेन द्विस्थानकेन सम्यग्मिथ्यात्वपुजं (दि) त्रिचतुस्थानरसेन सर्वघातिना मिथ्यात्वपुजं प्रारम्भयतीत्यर्थः । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ माथा १६-२० मलयगिरिटीका--प्रथमस्थितिचरमसमये मिथ्यात्वोदये वर्तमानो मिथ्याष्टिरूपरितनस्थितेदितीयस्थितेः सम्बन्धिनां कर्मपरमाणनामनुभागं त्रिधा करोति, अनुभागभेदेन त्रिधा द्वितीयस्थानगतं मिथ्यात्वदालिकं करोतीत्यर्थः । चरमसमयमिच्छदिट्ठी से काले उवसमसम्मदिट्ठी होहि त्ति ताहे बितीयहितीते तहा अणुभागं करोति तं जहा सम्मत्तं सम्मामिच्छत्तं मिच्छत्तमिति । इति कर्मप्रकृतिचूर्णिकाराणामक्षराणामयमर्थः, मिथ्या दृष्टिमिथ्यात्व चरमोदये वतमानस्सन त्रीन पुञ्जान् करोति इति श्रीमन्मलयगिरीपादः कृतस्तथा चाऽत्र कर्मप्रकृतिमलयगिरिटीका "तस्मिन् काले यतोऽनन्तरसमय औपशमिकसम्यादृष्टिर्भविष्यति तस्मिन प्रथमस्थितौ चरमसमय इत्यर्थः, मिथ्याष्टिस्सन् द्वितीयं द्वितीयस्थितिगतं दलिकमनुभागेनाऽनुभाग भेदेन त्रिधा करोतीति । तथैवोपाध्यायप्रवरैः स्वकर्मप्रकृतिटीकायामप्युक्तम् , एवं सप्ततिकावत्तावप्युपर्युक्त एवाऽर्थः कृतः, तथा चाऽत्र सप्ततिकावृतिः-तस्मिश्च मिथ्यात्वप्रथमस्थितिवेदनचरमसमये द्वितीयस्थितिगतं मिथ्यात्वदलिकमनुभागभेदेन त्रिधा करोति, तद्यथा-सम्यक्त्वं सम्यमिथ्यात्वं मिथ्यात्वञ्चेत्येवं नव्यशतकवृत्तावपि । श्रीमन्मुनिचद्र सूरिभिस्वककर्मप्रकृतिचूर्णि टिप्पनक एवमुक्तम- ताहे वितीयट्टिईए तिहाणभाग करे त्ति प्रथमस्थितिचरमसम पवर्ती द्वितीयस्थितेः त्रिधाऽनुभागं करोति मिथ्यादृष्टिरपि सन्। नन्वेव सम्यक्त्वमिश्रपुञ्जयोरुत्पादितयो? को गुणो इति चेत् ? उच्यते-औपशमिकसम्यक्त्वप्रथमसमयप्रभत्येकमिथ्यात्वस्थ गुणसंक्रम प्रवर्तते। न चासावप्रतिग्रहोयुक्त इति प्रागेव प्रतिग्रहसिडो सोऽबाधितरूप एव यथा प्रवर्तते तथा मिथ्यात्वानुभागव्यवस्थान कियत इति मिथ्यात्वं चेति द्वितीयस्थितिगतं मिथ्यान्वदल मनुभागभेदेन त्रिधा करोति सम्यक्त्वं सम्यङ्मिथ्यात्वं मिथ्यात्वं चेति । तच्च सम्यक्त्वप्राप्तिसमये वा मिथ्यात्वोदयचरमसमय वा करोतीति तत्त्वं त्वतिशायिज्ञानिनो विदन्ति । उपशमसम्यक्त्वप्रथमसमयादारभ्य जन्तुगुणसङ्क्रनमारभते, तमभिधित्सुः सूत्रकार आह पदमे ममये थोवो सम्मने मीसए असंसगुणों । श्रणुममयमविय कमसो भिन्नमुहुत्ता हि विज्झायो।।२।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसंक्रमः] अनिवृत्तिकरणाधिकारः प्रथमसमये स्तोकं सम्यक्त्वे मिश्रेऽसंख्येयगुणः । अणुसमयमपि च क्रमशो भिन्त्रमुहूर्ताद्धि विध्यातः ।।२०।। इति पदसंस्कारः। "पढमे" इत्यादि, औपशमिकसम्यक्त्वप्राप्तिप्रथमसमयादारभ्य मिथ्यात्वदलानि गुणसङ्कमण मिश्रसम्यक्त्वयोः सङ्क्रमयति । सङ्क्रमक्रमश्चाऽयम्--प्रथमसमये सम्यक्त्वे स्तोकं मिथ्यात्वदलं निमिप्यते, ततो मिश्रऽसंख्येयगुणम् , ततोऽपि द्वितीयसमये सम्यक्त्वेऽसंख्येयगुणम् , ततोऽपि तस्मिन्नेव द्वितीयममये मिश्रेऽसंख्येयगुणम् , ततोऽपि तृतीयसमये सम्यक्त्वेऽसंख्येयगुणम् , ततस्तस्मिन्नेव तृतीयसमये मिश्रऽसंख्येयगुणं निक्षिप्यते । एवम् “अणुसमयं" ति, प्रतिममयं तावद् वक्तव्यं यावदन्तमु हूतम् । मिथ्यात्वस्य गुणसङ्क्रमारम्भसमयादवमावलिकाऽनन्तरं गुणसङ्क्रमेण सम्यक्त्व मोहनीये मिश्रमोहनीयस्य सङ्क्रमोऽपि भवति । इयमत्र भावना--मिथ्यात्वस्य गुणसक्रमो मिश्रस्य च गुणसक्रम उभौ युगपन्नारभ्यते । किन्तु मिथ्यात्वमोहनीयस्य सङ्कमारम्भाऽनन्तरमावलिकायां व्यतिक्रान्तायामेव भवति, यतः सङ्कमावलिका सकलकरणाऽयोग्या । " उक्तं च कर्मप्रकृतिमलयगिरिटीकायाम्-तस्यैवीपशमिकसम्यग्दृष्टेरष्टाविंशतिसत्कर्मण आवलिकायामभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्वे न सङ्क्रामति यतो मिथ्यात्वपुद्गला एव मम्यक्त्वाऽनुगतविशोधिप्रभावतः सम्य. ग्मिथ्यात्वलक्षणं परिणामाऽन्तरमापादिता अन्यप्रक्रतिरूपतया परिणामाऽन्तरमापादानं च सङ्क्रमः, सङ्क्रमावलिकागतं च सकलकरणाऽयोग्यमिति सम्यक्त्वलाभादावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानेन सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्वे न सङ्क्रम्यते किन्तु केवलं मिथ्यन्त्वमेव । कषायप्राभूतचूर्णिकारमतेऽपि त्रिपुरुजकरणे परप्रतिसङक्रमः स्वीक्रियते, कथमेतदवगन्तव्यमिति चेद् ? उच्यते-कषाकपाभतर्णिकारा मिश्रस्य सङ्क्रमं मन्यन्ते सम्यक्त्वप्राप्तितो द्वितीयात्समयादारभ्य न त्वालिकायां व्यतिकालायाम् , तथा च तद् ग्रन्थः “सम्मामिच्छत्तस्स सकमो को होई? मिच्छाइट्ठी उवेल्लाओ समाइट्ठो वा नीरासणो मोत्तूण पढम. समयसम्मामिच्छसंतकम्मीयम् ।" औपशमिकसम्यक्त्वप्रथमसमये त्रिपुञ्जकरणेन मिश्रस्य सत्कर्म प्राप्यते, तद्वितीयसमयात्प्रभृति मिश्रमोहनीय सङ्क्रम्यते, न च सम्यक्त्वप्राप्तिप्रथमसमये मिश्रस्य सङ्क्रमः कथं न भवतीति वाच्यम् , मिश्रस्योत्पत्तिक्रियासक्रमक्रिययोः परस्परं विरोधात् । तेन तेषां मते मिश्रस्यौपशमिकसम्यक्त्वद्वितीयसमयाद् गुणसङ्क्रमो प्रवर्तते । 5 औपमिसम्यक्त्वप्रथमसमये मिश्रप्रकृतिस्त्रिपुञ्जक्रियायां मिथ्यात्वस्य संक्रमेण प्राप्यते, सङ्क माऽऽवलिका च सकलकरणाऽयोग्येत्यौपशमिकसम्यक्त्वप्रथमसमयादावलिकापर्यन्तं मिधमोहनीयमन्यत्र सङ्क्रमयितु नाऽलम् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा २० अत्र गुणसङ्क्रमः कः पदार्थ इति चेद् ? अत्र वयं ब्रूमः-अत्र गुणशब्दो न क्षमादिगुणानां वाचका, न च रूपादिगुणानां वाचकः, अपि विह ''भामा सत्यभामा" इति न्यायेन गुणशब्दस्याऽसंख्येयगुणे वृत्तितिव्या, यद्वा पारिभाषिको गुणशब्दोऽयं योऽसंख्येयगुणे वतते, यत्र पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणकारेण प्रक्रिया भवति, तत्र बहुलमस्मिन् शास्त्र गुणशब्दो व्यवहियते । यथा गुणोपशमना, यत्र पूर्व पूर्व समयादुत्तरोत्तरममयेऽसख्येयगुणकारेण दलान्युपशम्यन्ते । एव गुणश्रेणिपि-यत्र सम्यक्त्व चारित्रादिप्रशस्तगुणान्वितेन जीवेन पूर्वपूर्वसमयादुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणकारेन श्रेणिर्दलरचना क्रियते । तथैव गुणसङ्क्रमः पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणनया प्रवर्तमानः संक्रमः तेन सम्यक्त्वलाभप्रथमसमये यावन्ति दलानि सड़क्रमयति, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणानि दलानि सङ्क्रमयति, ततस्तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणानि सङ्क्रमयति, एतेनाऽसंख्येयगुणकारेण क्रमेण दलानि यावत्संक्रमयति, स गुणसङ्क्रमपदार्थ इति भावः ।। गुणसङ्क्रमस्य सामान्यलक्षणम्- अपूर्वकरणप्रभतिगुणस्थानकेऽथवाऽपूर्वकरणादारभ्याबध्यमानानामशुभप्रकृतीनां कर्मदलिकानां प्रतिममयं गुणेनाऽसंख्येयगुणकारेण बध्यमानासु स्वजातीयासु प्रकृतिषु यः प्रक्षेपः स गुणसंक्रमः । अपवादतो मिथ्यात्वमोहनीयमिश्रमोहनीययोरसंख्येयगुणनया त्वबध्यमानसजातीये यथायोगं सम्यक्त्वमोहनीये मिश्रमोहनीये वाऽपि यः प्रक्षेपः स गुणसंक्रम उच्यते । उक्तश्च पञ्चसग्रहे संक्रमाऽधिकारे-- असुभाण पएसग्गं बज्झंतीसु असंखगुणणाए । सेढीए अपुव्वाई छुभंति गुणसंकमो एसो ॥१॥ स च गुण मक्रमोऽनन्तानुबन्धि चतुष्कमिथ्यात्वमिश्रमोहनीयरूपषट्प्रकृतिवर्जानां शेषाऽबध्यमानाऽशुभप्रकृतीनामपूर्वकरणप्रभतिगुणस्थानके भवति । विसंयोजनाकालेऽनन्तानुबन्धिचतुष्करूपाऽशुभप्रकृतीनां तथा दर्शनत्रिकक्षपणाकाले मिथ्यात्वमिश्रमोहनीययोरशुभप्रकृत्योर्गुण. सङ्क्रमोऽपूर्वकरणादारभ्य भवति । प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽवसरे तु मिथ्यात्वमिश्रपुञ्जयोगुणसंक्रमः सम्यक्त्वप्राप्तिप्रथमममयादारभ्य वाऽन्तमुहर्त पर्यन्तं भवति नार्वाक । ननु मिथ्यात्वम्य गुणसंक्रमः सम्यक्त्वमोहनीये सम्यक्त्वप्राप्तेरवांगपूर्वकरणादारभ्य कुतो न भवतीति चेद् ? उच्यते-मिथ्यात्वस्य धबन्धित्वेन प्रथमगुणस्थानकेऽवश्यं बध्यमानत्वानिवृत्तिकरणस्य चरमसमयपर्यन्तमवध्यमानत्वाऽभावात् पतद्ग्रहरूपमम्यक्त्वमोहनीयस्याभावाच्च गुणसङ्क्रमो न भवति । गुणसङ्क्रमो ह्यबध्यमानानां प्रकृतीनां भवति । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणसंक्रमो विध्यातसंक्रमश्च ) अनिवृत्तिकरणाधिकारः यद्वा यः संक्रमोऽन्तरकरणस्थितेनौपशमिकसम्यक्त्वलक्षणप्रशस्तगुणाऽन्वितेन क्रियत इति स गुणसंक्रमः । तथा चोक्तं पंचसंग्रहे-- गुणसंकमेण एसो होइ संकमो सम्ममीसेसु । अतरकरणम्मि हिओ कुणइ जओ सपसत्य गुणा ॥१॥ ननूपशमसम्यक्त्वप्राप्तितो य आरब्धो गुणसङ्क्रमः, स गुणसङ्क्रमोऽन्तमुहर्तपर्यन्तमेव प्रवर्तते । न चाऽयमुपशमसम्यक्त्वकालपर्यन्तं कुतो न प्रवर्ततेऽन्तमुहूर्ते व्यतिक्रान्त एव कुतो न निवर्तत इति वाच्यम् , यतोऽत्राऽयं नियमः प्रतिभाति, करणकालात्पूर्वाऽवस्थायां तथा यथाप्रवृत्तादिषु करणेषु या प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धथा विशोधिः, सा प्रथमसम्यक्त्वादिगुणप्राप्तिप्रथमसमयादारभ्याऽन्तमुहूर्तपर्यन्तं प्रवर्तते. तत ऊर्ध्व प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशोधिने प्रवर्तत इति । तस्मादत्राऽप्युपशमसम्यक्त्वप्राप्तिसमयादारभ्याऽन्तमुहृतं यावदनन्तगुणवृद्धया विशुद्धयां वर्तमानो जन्तुर्भवतीति संभाव्यतेऽत एव सम्यक्त्वप्राप्तिसमयादन्तम हुनपर्यन्तं गुणसङ्क्रमो भवति, तत उर्ध्व गुणसझमो निवर्तते । तथा चाऽन्तमु हूतात्परतः प्रवर्धमानविशुद्धरसंभवाद् गुणसङ्क्रमेण सह मिथ्यात्ववर्जशेषकर्मणां स्थितिघातादयोऽपि निवर्तन्ते । गुणसङ्क्रमसम्बन्धिन्यन्तमुहूर्ते व्यतिक्रान्ते गुणसङ्क्रमो निवर्तते । ततश्च विध्यातसङ्क्रमः प्रवर्तते । विध्यातसङ्क्रमेण सम्यक्त्वमोहनीये मिथ्यात्वसम्यक्त्वमिथ्यात्वपुजौ मिश्रमोहनीये च मिथ्यात्वपुञ्ज सङ्क्रमयति । ननु किं नाम विध्यातसङ्कम इति चेद् ? उच्यते- विध्यातसक्रमोऽपि गुणप्रत्ययतो भवप्रत्ययतो वाऽबध्यमानानां प्रकृतीनां भवति, किन्त्वनेन सङ्क्रमेण म्तोकान्येव दलिकानि परप्रकृतिषु सङ्क्रम्यन्ते । प्रथमसमये विध्यातसङ्क्रमेण यावत्कर्मदलिकं परप्रकृतिषु सड्क्रम्यते, तेन मानेनाऽवशिष्टदलिकस्याऽपहारे क्रियमाणे क्षेत्रतोऽगुलाऽसंख्येयतमभागगताऽऽकाशप्रदेशेम्पहारो भवति, कालतचाऽसंख्येयामिरुत्सपिण्यवसर्पिणिभिरपहारो भवति । उक्तं च पञ्चसद्महे सङ्कमाऽधिकारे-- जाण न बंधो जायह आसज्ज गुणं भवं व पगईणं । विज्झाओ ताणंगुलअसंखभागेण अण्णत्य ॥९॥ इदन्तु विध्यातसङ्क्रमस्य मन्दतां प्रदर्शयितुमुक्तम् । वस्तुतस्तु शेषसर्वदलिकं कदाऽपि विध्यातसक्रमेणाऽन्यत्र न संक्रम्यत इति ध्येयम् । गुणसङ्क्रमकालमभिधाय संप्रति गुणसंकमक्रमनिवर्तनकाले ये पदार्था अपूर्वकरणे स्थितिघातादय आरब्धाः, तेषां निवृत्तिकालमभिधित्सुराह Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा २१-२२ टिइरसघायो गुणसेढी विय तावं पि ग्राउवजाणं । पढमठिइए एगदुगावलि सेसम्मि मिच्छत्ते ॥२१॥ स्थितिरसघातौ गुणश्रेणिरपि च तावदप्यायुर्वजानाम् । प्रथमस्थितावेकद्वयावलिकाशेषे मिथ्यात्वे ॥२१॥ इति पदसंस्कार: "हिहरसघाओ" इत्यादि, यावद् गुणसङ्क्रमस्तावदेव मिथ्यात्वाऽऽयुर्वर्जानां शेषाणां सप्तकर्षणां स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिरपि च प्रवर्तन्ते । गुणसंक्रमे च निवर्तमान स्थितिघातरसघातगुणश्रेणयोऽपि निवर्तन्ते । अत्र यद्यपि शेषकमणामपूर्वस्थितिबन्धम्य निवर्तनं नोक्तम् , तथाऽपि यः * पूर्वपूर्वस्थितिबन्धत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धः प्रत्यन्तमुहूर्त पल्योपमसंख्येय भागेन हीयमानः प्रवर्तमान आसीत् । सोऽप्यनन्तगुणवृद्धया प्रवर्धमानपरिणामाऽभावेन गुणसंक्रमण निवृत्त्या सह निवर्तते ।। मिथ्यात्वस्य यावत्प्रथमस्थितेरेकाऽऽवलिका शेषा भवनि तावन्मिथ्यात्वस्य स्थितिघातरसघातौ च भवतः । ततः परं न भवतः । तथा च पावन्मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितेच आवलिके शेपे भवतस्तावन्मिथ्यात्वस्य गुणश्रेणिर्भवति, ततः परं न भवति, मिथ्यात्वस्याऽपूर्वस्थिति बन्धश्च यावत्प्रथमस्थितेश्चरमसमयं तावद् मिथ्यात्वस्य ध्रुवबन्धित्वेनोदयबन्धित्वेन चाऽवश्यं भवति, मिथ्यात्वस्योदयविच्छेदे मिथ्यात्वस्य स्थितिबन्धोऽपि व्यवच्छिद्यते, ततः परं न भवति, अयं भावः- मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितेगवलिकाद्वये शेषे मिथ्यात्वस्य गुणश्रेणिय॑वच्छिद्यते, मिथ्यात्वस्य प्रथमस्थितेरावलिकायां शेषायां मिथ्यात्वस्थ स्थितिघातरसघातो व्यवच्छियेते, । मिथ्यात्वस्योदयविच्छेदे सति स्थितिवन्धोऽपि व्यवच्छिद्यते । एतत्सर्व यथास्थानं प्राग भावितम् । गुणसङ्क्रमेऽनिवृत्तेऽन्तरकरणस्यौपशमिकसम्यग्दृष्टिविध्यातसङ्क्रमेण सम्यक्त्वमोहनीये मिश्रपुञ्ज मिथ्यात्वं च, तथा मिश्रमोहनीये मिथ्यात्वमोहनीयं सङ्क्रमयन्नुपशान्ताद्धायाः किश्चिदधकिाऽऽवलीकां शेषामधिगम्य यत्करोति तदाह--. उवसंतद्धा अंते विहिणा श्रोकड्डियस्स दलियस्स । यज्झवसाणणुरुवस्सुदयो तिसु एक्कयरस्स ॥२२॥ * उक्तं च लब्धिसारस्य चतुःपञ्चाशत्तमगाथायाष्टोकायाम् ... - ठिदिबधोसरणं पुण प्रद्धापवत्तादुपूरणो त्ति हवे। ठि दिबंध ठदिवंडुक्कीरण काला समाहोति ॥१॥ टोका - - स्थितिबन्धाऽपसरणं पुनरधःप्रवृत्त करणप्रथमःमयादारभ्य प्रागुणसङ्कमपूरणचरमसमयं प्रवर्तते । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६५ उपशान्ताद्धाया प्रन्त उदय: ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः उपशान्ताद्धाया अन्ते विधिनाकर्षितस्य दनिकस्य । अध्यबसानुरूपस्योदयस्त्रयाणामेकतरस्य ॥२२॥ इति पदसंस्कारः "उपसंतडा" इत्यादी. उपशान्ताद्धाया औपशमिकसम्यक्त्वाऽद्धाया अन्ते किश्चिदधिकावलिकाशेषे वर्तमानो द्वितीयस्थितिगतस्य सम्यक्त्वादिपुञ्जत्रयस्य दलिकमध्यवसायविशेषेणाऽऽकृष्याऽन्तरकरणस्याऽन्ति माऽऽवलिकायां प्रक्षिपति, तत्र प्रक्षेपविधिश्वायम्- उपशान्ताद्धासत्कचरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसमये प्रभूतं दलिकम् , ततो द्वितीयसमये स्तोकम् , ततस्तृतीये समये स्तोकमेवं तावद्वाच्यं यावदावलिकाचरमसमयः, तानि चेत्थं निक्षिप्यमाणानि दलिकानि गोपुच्छाकारं शेत्रमास्तृणन्ति । तत उपशान्ताद्धाया आवलिकामात्रे काले शेषे "विहिणा" इत्यादि विधिनाऽवतारितस्य गोपुच्छाकारेण स्थापितस्येति यावत् , सम्यक्त्वादिपुजत्रयस्यैकतरस्याऽध्यवसायाऽनुरूपस्य पुञ्जस्योदयो भवति । अयं भावः--उपशान्ताद्धायाः किश्चिदधिकाऽऽवलिकायां शेषायामपवर्तनया गोपुच्छाकारेणाऽऽवलिकायां सम्यक्त्वादिमोहनीयत्रयस्य दलानि स्थापयति । किश्चिदधिके काले गते सति यदोपशान्ताद्धायाः पर्यन्ताऽऽवलिका प्रविशति, तदा शुभपरिणामस्य जन्तोः सम्यक्त्वमोहनीयस्योदयो भवति । मध्यमपरिणामस्थजन्तोर्मिश्रमोहनीयस्योदयः, तथाऽशुभपरिणामस्य जन्तोमिथ्यात्वस्योदयो भवति । उक्तं च पञ्चसङ्ग्रहेऽपि ॐ उवसंता अंते बिहए ओकड्डियस्स दलियस्स । __ अज्झवसाणविसेसा एक्कस्मुदओ भवे तिण्हं ॥१॥ पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम्...५ ___यस्य जन्तोमिथ्यात्वस्योदयो भवति, स मिथ्यात्वगुणस्थानकं प्राप्नोति । तत्र च अन्तमुहूर्ताचं नानाजीवाऽपेक्षया तीर्थकृत्कर्माऽऽहारकद्विकं विना सप्तदशाऽधिकशतप्रकृतीनां क्धकः सञ्जायते, द्वाविंशत्युत्तरशतोदययोग्यप्रकृतीनां मध्याद् मिश्रसम्यक्त्वाऽऽहारकद्विकतीर्थकृत्कर्मरूपपञ्चप्रकृतीस्त्यक्त्वा सप्तदशोत्तरशतप्रकृतिषु यथायोग्यप्रकृतीनां वेदको भवति, आहारकचतुष्कजिननामं विना चत्वारिंशदुत्तरशतसत्ताको भवति । यस्य जन्तोमिश्रस्योदयो भवति, स मिश्रगुणस्थानकं प्राप्नोति । तत्र स्थितो न परमवयोग्याऽऽयुर्वध्नाति, न च तत्र म्रियते । ततश्च्युत्वा मिथ्यादृष्टिः सन् यद्वा सम्यक्त्वमासाद्य सम्यग्दृष्टिः सन् समाप्त आयुष्के म्रियते, नानाजीवाऽपेक्षया मिश्रगुणस्थानकवर्ती तिर्यत्रिकस्त्यानचित्रिकदुर्भगदुःस्वराऽनादेयाऽनन्तानुबन्धिमध्यमसंस्थानचतुष्कमध्यमसंहननचतुष्कनीचैगोत्रोद्योताऽप्रशस्तखगतिस्त्रीवेदरूपपञ्चविंशतिप्रकृतीनां बन्धाऽपगमात् मनुष्यदेवायुराहारक 卐 उपशान्ताद्धाऽन्ते द्वितीयायाप्रपकषितस्य दलिकस्य। प्रध्यवसायविशेषादेकस्योदयो भवेत् त्रयाणाम् ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २१,२२,२३ द्विकजिननामरूपप्रकृतीनामबन्धात् सास्वादन गुणस्थाने बन्धविच्छेदयोग्य मिथ्यात्व नरकत्रिकै केन्द्रियादिजातिचतुष्कस्थावर चतुष्काऽऽतपहुण्डक सेवार्तनपुंसकवेदरूपषोडशप्रकृतीर्वर्जयित्वा शेषाणां चतुःसप्ततिप्रकृतीनां बन्धको भवति, वेदकः पुनरेकेन्द्रिय विकलेन्द्रियरूपजातिचतुष्काऽनस्तानुबन्धि चतुष्कस्थावररुपनवप्रकृतीनां विच्छेदात देवमनुष्यतिर्यगानुपूर्व्य नुदया भर कानुपूर्वीसूक्ष्मत्रिकाऽऽतपमिथ्यात्वोदयस्य सास्वादन गुणस्थानक एव व्यवच्छेदात् आहारकद्विकजिननामसम्यक्त्वमोहनीयमिश्र मोहनीयरूपपञ्चप्रकृतीनां मिथ्यात्वगुणस्थानकेऽनुदयानां मध्याद् मिश्रस्य चोदयमानत्वात् शतप्रकृतीनां भवति । तथा यद्यपि मिश्रदृष्टिजिंन नामवर्ज सप्तचत्वारिंशदधिकशतसत्ताको भवति तथापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वाऽनन्तरं मिश्रदृष्टिराहारकचतुष्क जिननामं विना त्रिचत्वारिंशदधिकशतप्रकृतिसत्ताको भवति । ६६ ] उपशमनाकरणम् यस्य सम्यक्त्वमोहनीयस्योदयो भवति, स क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिः सन् यदा चतुर्थ - गुणस्थानकं प्राप्नोति तदा तत्र च व्रतरहितस्सन् कालं गमयति । यद्यप्ययं जन्तुः सावद्यव्यापारं कुत्सितकर्मत्वेन जानीते, तथाऽप्यप्रत्याख्यानावरण लक्षण द्वितीयकषायोदय प्रतिबन्धकस्य सच्चाद् व्रतं न गृह्णाति, प्रतिबन्धकाऽभावस्य कार्यजनकत्वनियमात् । अचिरतोऽप्येवं सदेवगुरुसङ्घानां पूजाप्रणतिवात्सल्यादिरूपभक्ति शासनोन्नति च कर्तुं समुद्यतते । उक्तं चाऽन्यत्राऽपि - * जो अधिरओऽवि संघे भतिं तित्थुण्णइ सदा कुणइ । अविरयसम्मदिट्ठी पभावगो साम्रगो सो वि ॥ १ ॥ नानाजीवाऽपेक्षया चतुर्थगुणस्थानवर्तिनः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टेमिश्रगुणस्थानके बध्यमानचतुःसप्ततिप्रकृतीनां तीर्थकृन्मनुष्यदेवायुरूपप्रकृतित्रयस्य च बन्धो भवति, तथा मिश्र वर्जयित्वा मित्रगुणस्थानकान्नवनवतिप्रकृतय आनुपूर्वी चतुष्कसम्यक्त्वरूप पञ्च प्रकृतयश्चेति चतुरधिकशतप्रकृतीनामुदयो भवति, अष्टचत्वारिंशदुत्तरशत प्रकृतीनां सत्ता भवति । सामान्यतश्चतुर्थगुणस्थानके बन्धे सत्तायां चोपयुक्तप्रकृतयो भवन्ति तथापि प्रथमसम्यक्त्वाऽनन्तरं क्षयोपशममम्यग्दृष्टेर्बन्धे जिननाम तथा सत्तायां जिनाहारक चतुष्कं न भवति । अथ सास्वादनस्य प्रतिपत्ति दर्शयितुकाम आह-सम्मत्तपदमलंभो सव्वोवसमा तहा विगिड्डो य छालिग सेसा परं यासाणं कोइ गच्छेज्जा ||२३|| , 5 योऽविरतोऽपि संघे भक्ति तीर्थोन्नति सदा करोति । प्रविरतसम्यग्दृष्टिः प्रभावक श्रावकः सोऽपि ॥५१॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्ताद्धायां सास्वादनप्राप्तिः ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः सम्यक्त्व प्रथमलाभः सर्वोपशमात् तथा विप्रकर्षश्च । षडावलिकाशेषायां परमासादनं कश्चिद् गच्छेत् || ||२३|| इति पदसंस्कार: प्रथमोपशमसम्यक्त्वलामो मिध्यात्वस्य सर्वोपशमनाद् भवति, नाऽन्यथा । तथा प्रथमोपशममभ्यक्त्वस्य कालः प्रथमस्थित्यपेक्षया विप्रकृष्टः, बृहत्तराऽन्तमुहूर्तप्रमाणः । अस्मिन् सम्यक्त्वे प्रतिपद्यमाने कविज्जन्तुः प्रथमसम्यक्त्वेन सह देशविरतिं सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यते ÷ । उक्तं च शतकबृहच्चूर्णी “उवसमसम्मदिट्ठी अन्तरकरणे ठिओ कोइ देसविरदं पि लभेह | कोइ पमत्तापत्तभावं पि, सासायणो पुण न किंपि लभे इति ॥ १।" इति । तथैव पश्चसडग्रहेऽपि - सम्मत्तेण समगं सव्वं देतं च कोइ पडिवज्जे ।" इति । ततो देववितिप्रमत्ताप्रमत्तसंयतेषु मिध्यात्वमुपशान्तं प्राप्यते । "छा लिगसेसा" इत्यादि, जघन्यत औपशमिकसम्यक्त्वकाले समयमात्रशेष उत्कपत आवलिका पट्कशेषे कश्चिज्जन्तुरनन्तानुबन्धिकषायोदयादासादनं सास्वादनत्वं प्रतिपद्यते, सास्वादन गुणस्थानकं प्राप्नोतीत्यर्थः । तथा चोक्तं गुणस्थानक्रमारोहे "एकस्मिन्नुदिते मध्याच्छान्तानन्तानुबन्धीनाम् । आद्योपशमिकसम्यक्त्वशैलमौलेः परिच्युतः ॥१॥ समयादावलिषट्कं यावन्मिथ्यात्व भूतलम् / नासादयति जीवोऽयं तावत्सास्वादनो भवेत् ||२||" इति । [ ६७ इदं सास्वादन गुणस्थानकं सम्यक्त्वतः पततैव जन्तुना प्राप्यते, अतोऽस्य स्वामी भव्यजन्तुरेव | भव्येष्वप्यस्योत्कृष्टतः किञ्चिदुनपुद्गलावर्तार्द्धकालप्रमाणसंसारः स एव नाऽन्यः । उक्तं चाऽन्यत्र -- 1 + सिद्धान्तमते स्थितिसत्कर्मतः पल्योपमपृक्त्वे क्षपिते जन्तुर्देशविति सागरोपम पृथक्त्वे चक्षपिते सर्वविति प्रतिपद्यते, तथा च समरादित्यकथायां भणितम् . सम्मत्तम्मि उद्धं पलियपुहुत्तेण सावगो होज्जा । चरणोवसम खयागं सागरसखन्तरा होन्ति ||१|| श्रावकप्रज्ञप्त्यामपि तथैवोक्तम् । उपशमसम्यग्दृष्टिरन्तरकरणे स्थितो कोऽपि देशविरतिमपि लभेत् । कोऽपि प्रमत्ताप्रमत्त मावमपि, सास्वादनं पुनः न कोपि लभेदिति ॥। १ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम (गाथा-२३-२४ "तोमुत्तमित्तं पि फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं । तेसिं अवड्डपुग्गल परिअट्टो चेव संगारो ॥१॥" इति अथ सास्वादनगुणस्थानकाऽन्तरं भण्यते - अन्तरं नाम विवक्षितगुणस्थानाऽवस्थितेः प्रच्युताना पुनस्तत्प्राप्तेर्व्यवधानम् । तच्च साम्वादनगुणस्थान कम्य जघन्यतः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणम् । यतः करणत्रयपूर्वकमन्तरकरणं कृत्वोपशमिकसम्यक्षमासादयति, ततोऽनन्तानुबन्ध्युदयात् मास्वादन भावमासाद्य तत्काले व्यतीतेऽवश्यं मिथ्यात्वं गच्छति । तत्र पल्योपमाऽसंख्येयभागेन कालेन मिश्रसम्यक्त्वे उद्वल्य षड्विंशतिसत्कर्मा सन कश्चिज्जन्तुर्भूय औपशमिकसम्यक्त्वमासाद्य सास्वादनत्वं प्रतिपद्यते, अतो जघन्येन पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणमन्तरमुपपद्यते । उत्कृष्टमन्तरं च देशोनार्धपुद्गलपगवर्तमानम् । तथाहि--सम्यक्त्वतः परिभ्रष्टो जीव उत्कृष्टतः किश्चिनपुद्गलपरावाद्धां यावत्संसारपारावारमध्यमवगाह्य सम्यक्त्वं लभते, ततो देशोनार्धपुद्गलपरावर्तप्रमाणमुत्कृष्टाऽन्तरमटते । ___ यावदन्तरकरणे तिष्ठति तावदीपशमिकसम्यग्दृष्टिज्ञातव्यः । उक्तं च पञ्चसड प्रहे-"उवसंतदसणी सो अन्तरकरणे ठिओ जाव ।" इति । किन्त्वनन्तानुबन्भ्युदयादधः पतति, तदाऽन्तरकरणे स्थितोऽपि सम्यक्त्वम्याऽऽस्वादनमात्रं करोति । उक्तं च "उवसमअडाइठिओ मिच्छमपत्तं तमेष गन्तुमणो । सम्मं आसायन्तो सासायणमो मुणेयत्वो ॥१।।" इति नानाजीवाऽपेक्षया सास्वादनगुणस्थानकवी एकोत्तरशतप्रकृतीनां बन्धक , यतो मिथ्यावनरकत्रिकेकेन्द्रियादिजातिचतुष्कस्थावरचतुष्काऽऽतपहुण्डसेवार्तनपुंसकवेदरूपषोडशप्रकृतीनबध्नाति, तामा मिथ्यात्वप्रत्ययत्वात् तथा चाऽऽहारकद्विकजिननामलक्षणत्रिप्रकृतीनामबन्धकस्तद्बन्धयोग्य गुणाऽभावात्। सूक्ष्मत्रिकाऽऽतपमिथ्यात्वरूपपञ्चानामुदयव्यवच्छेदाद् नरकानुपूर्व्यनुदयाच्चैकादशोत्तरशतप्रकृतीनां वेदको नरकानुपूर्व्यनुदय इदं कारणम् सास्वादनस्थो जीवो नरकं न याति,नानाजीवमाश्रित्यसास्वादनस्थस्तीर्थकृत्सत्ताऽसंभवेति सप्तचत्वारिंशदधिकशतसत्ताको भवति । अथ सम्यग्दृष्टेः स्वरूपमाविचिकीर्षु राहसम्मट्टिीजीवो उवट्ठ पवयणं तु सद्दहइ । सदहइ असब्भावं अजाणमाणो गुरुनियोगा ॥२४॥ सम्यग्दृष्टिर्जीव उपदिष्टं प्रवचनं तु बद्धत्ते । श्रद्धत्तेऽसद्भावमजानम् गुरुनियोगात् ॥२४॥ इति पदमस्कारः सम्यग्दृष्टिर्जन्तुगुरुभिरर्थतः परमगुरुभिस्तीर्थकरः सूत्रतो गणधरादिमिचोपदिष्टं प्रज्ञप्तं Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्मिथ्यादृष्टेः स्वरूपम् ! अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ ६६ प्रवचनं नियमाच्छद्दधात्येव, तुशब्दोऽत्रैवकारार्थो भिन्नक्रमश्च । तेन यः पुनः सम्यग्दृष्टिरप्यमद्भावं न विद्यते सद्भावो जीवाजीवानामनुपहतं स्वरूपं यस्मिन् प्रवचने, तद् , असद्भृतमित्यर्थो मिथ्यात्वमदवापितधाप्रणीतमिति यावत् प्रवचनं श्रद्धन्ते, सोऽजानन् यथार्थज्ञानविकलः सन् । अत्राऽज्ञानं ज्ञानावरणकर्मविपाकोदयादुत्पन्न न सम्यक्त्वप्रतिवन्धकम् , यद्वा गुरोः सम्यग्ज्ञानरहितस्य जमाल्यादिप्रमुखस्य मिथ्यादृष्टेर्नियोगात् , नियोजनं नियोगः "भावाऽकत्रोः" (सिद्धहेम० ५ । ३ । ३८) । इत्यनेन भावे घञ् “आज्ञाशिष्टिनिरा. निम्यदेशो नियोगशासने' (अभिधान०) आज्ञापारतन्त्रयादिति यावत् , असद्भूतं प्रवचनं श्रद्दधाति, न स्वेच्छया । यद्यपि ज्ञानावरणोदयमात्रेण जनितं यदज्ञानं तेन शास्त्रादीना. मर्थः संशयात्मको भवति, यथा कोऽपि सम्मतितादीन ग्रन्थान पठात , तेषामर्थे कस्यचित् सशयो जायते, अनुक्तानामक्षराणामयमों जायते, तदितरो वा जायते, स संशयः, श्रद्धाभक्त्यादिजनितसंशयच सम्यक्त्वं प्रतिबद्धन शक्यते, यथा सौधर्मेन्द्रस्य मेरुगिरा अभिषेकाऽच. मर संशयो जातः, किं वालोऽयमेतेषां कलशानां जलं सोलुसमर्थो भविष्यत्युत न १ तादृशाः मंशयाः सम्यक्त्वं प्रतिबद्धन शक्नुवन्ति , किन्तु गुरुनियोगजनितं नानामताऽभ्युपगन्तुरज्ञानं मिथ्यात्वप्रदेशोदयमाहत्म्यात् सद्भुतप्रवचनार्थसंशयरूपः सम्यक्त्वप्रतिबन्धको भवितुमर्हति , नथाऽपि 'तमेव सच्चं' इति, उत्तेजकसत्वात् सम्यक्त्वं प्रतिवद्धनाऽलम् । उत्तेजकाऽभावविशिष्टप्रतिबन्धकः सम्यक्त्वं प्रतिबद्धसमर्थो भवतिनाऽन्यथा। तथाचाऽऽहुः उपाध्यायप्रवराः"गुरुनियोगजनितं तु मध्यस्थस्या विनेयस्य नानामतदर्शिनो मिथ्यात्वप्रदेशोदयमहिम्ना विप्रतिपत्त्युपनीतप्रवचनार्थसंशयरुपं सम्यक्त्वप्रतिबन्धाऽभिमुखमपि 'तमेव सच्च' इत्याद्यालम्बनरूपोत्तेजकप्रभावान्न सम्यक्त्वं प्रतिबडमलमित्यज्ञानाद् गुरुनियोगाद् पाऽसद्भतार्थश्रद्धानेऽपि भावतो जिनाज्ञाप्रामाण्याऽभ्युगन्तुन शभात्मपरिणामरूपसम्यक्त्वोधात इति भावनीयम् । एतेन यदुच्यते केनचित् परपक्षस्य निश्रितस्य सर्वथा सम्यक्त्वं न भवत्येवेति तदपारतं द्रष्टव्यम् । अनभिनिविष्टमिथ्यादृष्टिनिश्रयाऽपि तदुपनीताऽसद्भतार्थश्रडानस्याऽस्वारसिकत्वेन स्वारसिकजिनवधनश्रद्धानाऽविरोधित्वात् । अभिनिविष्टस्य तु स्वपक्षपतितस्य परपक्षपतितस्य वा मिथ्यादृष्टित्वानपायादलं प्रपञ्चेन" इति। अथ मिथ्यादृष्टेः स्वरूपं व्याजिही राहमिच्छट्ठिी नियमा उवइट्ठ पवयणं न सद्दहइ । सदहइ यसब्भावं उवइटुं वा अणुवइट्ट ॥२५॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] उपशमनाकरणम मिथ्यादृष्टिनियमादुपदिष्टं प्रवचनं न बद्धन्ते । श्रद्धत्तेऽसद्भावमुपदिष्टं वाऽनुपदिष्टम् ।। २५ ।। इति पदसंस्कार: मिथ्यादृष्टिर्जीवस्तीर्थ करादिभिरुपदिष्टं प्रज्ञप्तं प्रवचनं नियमान्न श्रद्धन्ते, जिनेन्द्रप्रणीततत्वमात्मनि न सम्यग्परिणमयतीत्यर्थः । किन्तु गुरुभिरुपदिष्टमनुपदिष्टं वा प्रवचनमसद्भूतं मिथ्यात्वरुपं विपरीतार्थं श्रधत्ते, न सम्यग्यथावत् । न च यो जिनेन्द्रादिभिगुरुभिरुपदिष्टमपि प्रवचनं कथञ्चिच्छ्रद्धत्ते स कथं सर्वथा मिथ्यादष्टिरिति वाच्यम्, एकस्मिन् प्रवचनाऽर्थेऽभिनिवेशेनासद्भूतश्रद्धानेऽपि तदितरसकल सद्भूतार्थश्रद्धानस्याऽप्यश्रद्धान कल्पत्वात् विषकण मिश्रितमोदकवत् । मिध्यात्वमोहितो जीवो हिताऽहिततत्त्वाऽतच्चप्रभृतिं न जानाति । उक्तं चाऽन्यत्र- "मिथ्यात्वेनाऽऽलीढचित्तानितान्त तत्वाऽतत्त्वं जानते नैव जीवाः । किं जात्यन्धाः कुश्रचिद्वस्तुजाते रम्यारम्य व्यक्तिमासादयेयुः ॥ १ ॥” इति । उक्तं च गुणस्थानकक्रमारोहे-“मद्य मोहाद्यथा जीवो न जानाति हिताऽहितम् । धर्माधर्मौ न जानाति तथा मिथ्यात्वमोहितः ॥ १ ॥” इति । संप्रति मिश्रदृष्टिस्वरूपमभिधित्सुगह सम्मामिच्छहिट्टी सागारे वा तहा थणागारे | यह वंजणोग्गहम्मिय सागारे होइ नायव्वो ||२६|| सम्यग्मिथ्यादृष्टि: साकारे वा तथानाकारे वा । अथ व्यञ्जनावग्रहे च साकारे भवति ज्ञातव्यः ॥ २६ ॥ इति पदसंस्कारः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्चिन्त्यमानः साकारोपयोगे भवति अनाकारोपयोगे वा । अथशब्दो यद्यर्थः । तेन यदि साकारोपयोगे भवति तर्हि व्यञ्जनावग्रह एव व्यवहारिकेऽव्यक्तज्ञानरुपे भवति, नाऽर्थाग्रहे यत्संशयज्ञानी अन्नविषये नालिकेरदेशोद्भवमनुजवत् जिनप्रत्र चनाऽनुरागद्वेषरहितो मिश्रदृष्टिर्भवति, न सम्यग्निश्वयज्ञानी । संशयज्ञानत्वञ्च व्यञ्जनावग्रह एव नाऽर्थावग्रहे । प्रथमसम्यक्त्व प्राप्यधिकारे नानावस्तूनां कालमाश्रित्य ऽल्पबहुत्वं यत् कुमन सर्पदर्प सो पर्णेयैः कषायप्राभृतचूर्णिकृद्भिरभिहितं तदत्राऽभिधीयते । इदमल्पबहुत्वमपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्योपशान्ताद्वायां प्रर्वतमान मिध्यात्वगुणसङ्क्रमं यावत्पञ्चविंशतिपदानां कालतो ज्ञातव्यम् । तथाहि - "एदिस्से परूवणाए णिहिदाए इमो दंडओ पणुवीसपडिगो ।। ११३ ।। (१) सव्वथोवा उवसामगस्स जं चरिम अणुभागखडयं तस्स बक्कीरणाडा ||११५ ।। (२) अपुव्वकरणस्स पढमस्स अणुभागखंडयस्स उक्कीरणकालो विसेसाहिओ ॥११४ ।। (३-४) चरिमडिदिखडय उक्करणकालो तम्हि चेव हिदिबंधकालो च दोवि तुल्ला संखेज्जगुणा । | गाथा २५-२६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] अनिवृत्तिकरणाऽधिकारः [७१ (५-६) अंतरकणाडा ताम्हि चेव हिदिबंधगराध दो वितुल्लाओ विसेसाहियाओ। (७.८) अपुव्वकरणे हिदिवंग्य य उक्कीररडा हिदिबंधगडाच दोवि तुल्लाओ विसेसाहियाओ। (९) उवसामगो जाव गुणसंकमेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणि पूरेदि सो कालो सखेज्जगुणो। (१०) पढमसमय उपसामगस्स गुणसेढिसीसयं संखेज्जगुणं । (११-१२) पढमहिदिसंवेज्जगुणा । उवसामगडा विसेसाहिया (विसेसो पुण) बे आवलिओ समयूणाओ। (१३) अणियष्टि अडा संखेज्जगुणा । (१४) अपुवकरणाडा संखेज्जगुणा । (१५) गुणसेदिनिक्खेवो विसाहियाओ । (१६) उवसंताडा संखेज्जगुणा । (१७) अंतरं संखेज्जगुणं । (१८) जहणिया आवाहा संखेज्जगुणा । (१९) उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा । (२०) जहण्णयं हिदिखंडयमसंखेज्जगुणं । (२१) उक्कस्सयं हिदिग्वंय संखेज्जगुणं । (२२) जहण्णगो हिदिवंधो संखेज्जगुणो। (२३) उकस्सगो हिरिबंधो संखेज्जगुणो । (२४) जहण्णय छिदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । (२५) उक्कस्सयं हिदिसंतकम्म संखेज्जगुणं । एवं पणवीसपडिगो दंगो सम्मत्तो" इति । भावार्थः पुनरयम् १ उपशामकस्य यच्चरमाऽनुभागखण्डं तस्योत्कोर्णाडा सर्वस्तोका । मिथ्यान्वसत्कप्रथमस्थितेरावलिकायां शेषायां समाप्यमानो यो मिथ्यात्वसत्करमघातस्तस्यकालम्सर्वम्तोकोऽथवा मिथ्यात्वस्य गुणसङ्क्रमणनिवर्तनकाले समाप्यमानो यः शेषकर्ममा रसधातस्तस्य कालस्सर्वस्तोकः । २ ततोऽपूर्वकरणस्य प्रथमाऽनुभागखण्डस्योत्कीर्णाडा विशेषाधिका । अपूर्वकरणस्य य: प्रथमाऽनुभागखण्डस्योत्कीर्णाकालतः उत्तरोत्तराऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालो Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा २६ विशेषहीनो विशेषहीनो भवति । तेन चरमाऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालतः प्रथमाऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालो विशेषाधिकः । (३-४) प्रथमस्थितेरावलिकामाने शेषे समाप्यमानो यश्चरमखण्डोत्कीर्णकालः स तथा तस्मिन् चरमस्थितिखण्डोत्कीर्णकाले स्थितिबन्धकाल इमो उभौ पूर्वत संख्यातगुणौ परस्परं च तुल्यौ । एकस्मिन् स्थितिघातेऽनेकसहस्राणि रसघाता भवन्ति, इति कृत्वा चरमरसघातकालत श्वरमस्थितिघातकालः संख्यातगुणो भवति । तथा चरमरसघातकालतः प्रथमरसघातकाल: केवलं विशेषाऽधिकः । अतः प्रथमरसघातकालतश्वरमस्थितिघातकालः संख्यातगुणः, स्थितिघातकालेन समकालीनः स्थितिबन्धकालस्तुल्यः, तेनाऽत्राऽपि चरमखण्डोत्कीर्णकालेन तत्कालीनस्थितिबन्धकालस्तुन्यः। (५-६) ततोऽन्तरकरणस्य क्रियाकालः तस्मिन्नेवाऽन्तरकरणक्रियाकाल एव स्थितिवन्धकालश्च विशेषाऽधिको परस्परं च तुल्यौ, उपलक्षणत्वात् तत्कालीनस्थितिघातकालोऽपि पूर्वतो विशेषाऽधिकः परस्परं च तुल्यः, अन्तरकरण क्रियाकालो नूतनस्थितिबन्धश्च स्थितिघातश्च युगपदारभ्यन्ते, तथैकेन स्थितिबन्धाकालेनाऽन्तरकरण क्रियाकालः स्थितिघातकालश्च युगपद् निष्ठां यातः । तेनाऽन्तरकरणक्रियाकालेन तत्कालीनस्थितिबन्धकालो वा स्थितियातकालो वा तुल्यो भवति, यतस्तत्स्थितिघाततोऽनेकस्थितिघातेषु व्यतिक्रान्तेष्वनिवृ. त्तिकरणस्य चरमम्थितिघातः प्राप्यते तथोत्तरोत्तरस्थितिघातकालस्य हीनत्वेन चरमस्थितिघातकालो विशेषहीनो भवति, अर्थाच्चरमस्थितिघातकालतोऽन्तकरणक्रियाकालीनस्थिति। घातकालो विशेषाहीनो भवति, अतः पूर्वतोऽन्तरकरण क्रियाकालस्तन्कालीनस्थितिघातकालतत्कालीनश्चस्थितिबन्धकालो विशेषाऽधिकाः परस्परं च तुल्या भवन्ति । (७-८) नतोऽपूर्वकरणे प्रथमस्थितिघातोत्कीर्णाडा स्थितिवन्धाऽद्धा च विशेषाऽधिके परस्पर च तुल्ये भवतः : अपूर्वकरणस्य प्रथमस्थितिघातादारभ्य पूर्वपूर्वतः किश्चिद्धीयमानैः सहस्र रुत्तरोत्तर स्थिति घातकालैरन्तरकरण क्रियाकालस्तत्कालीनश्च स्थितिबन्धकालः स्थितिघातकालो वा प्राप्यते, अतोऽन्तरकरण क्रियाकालतस्तत्कालीनस्थितिबन्धकालतश्चाऽपूर्वकरणस्य प्रथमस्थितिघातकालो विशेपाधिकः, तथा स्थितिघातकालेन स्थितिबन्धकालस्तुल्य इति कृत्वाऽपूर्वकरणस्य प्रथमस्थितिघातकाल स्थितिबन्धकालश्च परस्परं तुल्यौ भरतः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] सम्यक्त्वाधिकारः [ ७३ (९) उपशमकस्य यावद्गुणसङ्क्रमेण सम्यक्त्वमोहनीयं सम्यक्त्वमिथ्या. त्यमोहनीयं च पूरयति, स पूर्वतः संख्यातगुणः, गुणसंक्रमकालः पूर्वतः संख्यातगण इति यावत् । औपशमिकसम्यक्त्वस्य प्रथमसमयादारभ्याऽन्तमुहर्तपर्यन्तं मिथ्यात्वमोहनीयस्य गुणसङ्क्रमो भवति, गुणसक्रमसत्काऽन्तमुहर्तकालस्याऽनेकसहस्रस्थितिघाताद्धाप्रमाणत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणः, यतो गुणसंक्रमकालेऽनेकसहस्राणि स्थितिघातादयो भवन्ति । (१०) तत उपशमकस्य प्रथमसमयसत्कगुणश्रेणिशिर. संख्यातगुणम् । अत्र गुणश्रेणिशीपं नामाऽन्तरकरणस्य यावति काले गुणश्रेणिरचना भवति, तावत्कालो गुणश्रेणिशिरो ज्ञातव्यम् । इदमुक्तंभवति-अन्नरकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य गुणश्रेणिचरमनिक्षेपस्थानपर्यन्तमुपशमकस्य गुणश्रेणिशिर उच्यते, तच्चाऽत्र मिथ्यात्ववर्जशेषकर्मणां संभवति, यतोऽन्तरकरणक्रियाकाले पूर्ण सति यदा प्रथमसमय उपशामको भवति, तदा मिथ्यात्वमोहनीयस्य गुणश्रेणिरचनाऽन्तरकरणे न संभाव्यते । मिथ्यात्ववजशेषकर्मणां गुणश्रेणिरचनाऽन्तरकरणेऽपि भवति, यत उपशमकस्य प्रथमसमायादारभ्य गुणसङ्क्रमनिवर्तनसमयपर्यन्तं मिथ्यात्ववर्जशेषकर्मणां गुणश्रेणिः प्रवर्तते । गुणसंक्रमनिवर्तनकालीनगुणश्रेणिरचनाऽप्युपरितनाऽन्तमुहूर्तप्रमाणस्थितिषु भवतीत्यन्तरकरणप्रथमसमयादारभ्य गुणश्रेणिचरमनिक्षेपस्थानपर्यन्तमुपशमकगुणश्रेणिशिर उच्यते, तच्च पूर्वतः संख्यातगुणम् । (११) ततः प्रथमस्थितिः संख्यातगुणा । अनिवृत्तिकरणस्य संख्यातभागेऽवशिष्टेऽन्तरकरणक्रियाऽऽरभ्यते, एकया स्थितिबन्धाद्धया पूर्णायां तस्यामनिवृत्तिकरणस्य शेषकालः प्रथमस्थितिरुच्यते । 5 सा च पूर्वतः संख्यातगुणा । कथमेतदवसीयत इति चेद् ! उच्यते-यदाऽन्तरकरणक्रियासमाप्तिकालेऽन्तरकरणगतं तत्कालीनगुणश्रेणिसन्कं यं संख्येयभागं खण्डयति, ततः संख्यातगुणाऽवशिष्टगुणश्रेणिः विद्यते, एवं प्रथमस्थितेरपि तावत्वेन गुणश्रेणिसत्कखण्ड्यमानसंख्येयभागतः संख्येयगुणत्वं भवति, गुणश्रेणि सत्कखण्ड्यमानसंख्येयभाग उपशमकस्य गुणश्रेणिशिरश्च इत्युभयोस्तुल्यत्वसंभवात् , उपशमकस्य गुणश्रेणिशिरम्तः प्रथमस्थितिः संख्यातगुणा सिध्यति । 卐 तथेत्रोक्तं जयधवलायामपि-सयलस्सगुणसेडिमायामस्स तक्कालं दीसमाणस्स संखेज्जदिमाग जुत्तो जो अणियट्टिअद्धादो उवरिमो विसेसाहियणिक्खेवो तं सव्वमंतर?मागएदि ति मणियं होखि( १७२० ) अथवा पढमट्टिबीए संखेज्जदिमागमंतस्सेव गुणसेढिसोसवत्स मंतर दुगागाइवत्ता (१७२५) Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा २६ नन्वन्पबहुत्वाऽनुसारेणाऽन्तरकरणक्रियाकालतः प्रथमस्थितिः संख्यातगणा भवति, यतः प्रयमस्थितिबन्धाद्धाऽन्तरकरणक्रियाकालतः विशेषाधिका, ततः संख्यातगुण उपशमकस्य गुणसंक्रमकालः, ततः संख्यातगुणमुपशमकस्य गुणश्रेणिशिरः, ततः संख्यातगुणा प्रथमस्थितिरिति । तथा चाऽभिनवस्थितिबन्धकालतः किश्चिदधिका प्रथमस्थितिर्भवतीति मलयगिरिसूरीश्वराणामभिप्रायः। उक्तं च तैः कर्मप्रकृत्यादौ ग्रन्थे-"अन्तरकरणक्रियाकाल. श्चाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः प्रथमस्थितेः किश्चिन्यूनोऽभिनवस्थितिबन्धाडया समः।" इत्युभयोः परस्परं विरोध उद्भवतीति चेटु ? न, वादिमृगमृगपतीनां श्रीमन्मलयगिरिसूरीश्वराणामक्षराणामयमर्थः कर्तव्यः । अन्तरकरण क्रियाकालोऽन्तमुहूर्तप्रमाणः प्रथमस्थितिकरणकालाच्च किश्चिन्यूनोऽभिनवस्थितिबन्धाद्धया समः । अन्यथा विरोधापत्तरिति वयं संभावयामहे । तथाहि-यद्यन्तरकरणक्रियाकालः प्रथमस्थितितः किश्चिन्यून उच्यते, तर्हि प्रथमस्थितिरभिनवबन्धकालेन तुल्यभूताऽन्तरकरणक्रियाकालता किश्चिदधिका वाच्या, अभिनवस्थितिबन्धकालाऽन्तरकरण क्रियाकालयोस्तुल्यत्वात् । अत्राऽन्तरकरणक्रियाकाले समाप्तेऽग्रे प्रथमस्थितेरावलिकाद्वयशेषे गणश्रेणिव्यवच्छिद्यत इत्युक्तम् । तत्र प्रथमस्थितिसत्कैकावलिकायां संख्येया अभिनवबन्धाद्धा भवन्ति, प्रत्येकस्थितिबन्धाद्धाया आवलिकायाः संख्येयभागप्रमाणत्वात् । स्थितिबन्धाद्धाया आवलिकासत्कसंख्येयभागमात्रत्वं स्थितिबन्धाद्धाप्ररूपणाऽवसरेप्राग विस्तरशो दर्शितमिति । पूर्वोक्तप्रकारेण प्रथमस्थितिरभिनवस्थितिबन्धकालतः केवलं किश्चिदधिकोच्यते, तर्हि संख्येया अभिनव स्थितिबन्धाद्धाः कथं भवेयुः ? तस्या (प्रथमस्थितेः) अ भनवस्थितिबन्धाद्धाद्वयादपि न्यूनत्वात् । अतः प्रथमस्थितिशब्दस्य प्रथमस्थितिकरणकाले लक्षणा कर्तव्या । .. न च शक्याथ परित्यज्य लक्ष्यार्थः कथं गृह्यते यथा “पिको रौति" इत्यादौ पिकशब्दस्य शक्यार्थ एव कोकिलात्मको गृह्यते, न लक्ष्यार्थ इति वाच्यम् , यतो यत्राऽन्वयाऽनुपत्तिस्तात्पर्यऽनुपपत्तिर्षा भवति । तत्र शक्यार्थ परित्यज्य लक्ष्यार्थ: स्वीक्रियते । उक्तं च "लक्षणाशक्यसम्बन्धस्तात्पर्य नुपपत्तितः" इति । यथाऽन्वयाऽनुपपत्तितः 'गङ्गायां घोषः" इत्यादौ गङ्गाप्रवाहरूपशक्याथ परित्यज्य गङ्गातीररूपलक्ष्यार्थो गृह्यते । तथैव तात्पर्यानुपपत्तितः “यष्टीः प्रवेशय" इत्यादौ यष्टिधरेषु लक्षणा, तथैवाऽत्र तात्पर्याऽनुपपत्तितः प्रथमस्थितिशब्दम्य प्रथमस्थितिकरणकाले लक्षणा कर्तव्या। नन्वत्र प्रथमस्थितिकरणकालेना. ऽन्तरकरणक्रियाकालस्तुल्यो भवितुमर्हति, न किञ्चिन्न्यूनः, यतोऽन्तकरणक्रिया प्रथमस्थितिकरणं च युगपदारभ्येते युगपच्च समाप्येते इति चेद् ? उच्यते, तत्समीचीनम् , किन्तु व्यवहारन येव मिथ्यात्वाऽभाववत्यन्तरकरणे कृते सत्येव प्रथमस्थितिरिति व्यपदिश्यत इति कृत्वाऽन्तरकरण Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] सम्यक्त्वाधिकारः क्रियाकालसमाप्त्यनन्तरं प्रथमस्थितित्वेन व्यपदेशो भवति । अतः प्रथमस्थितिकरणकालत एवाऽन्तरकरणक्रियाकालस्य किञ्चिन्न्यूनत्वे सिद्धेऽन्तरकरण क्रियाकालतः प्रथम स्थितेः संख्यातगुणत्वे न कञ्चिद् दोषः समुपजायते । (१२) तत उपशमकाडा विशेषाऽधिका । आधिक्यं च समयोनाssवलिकाद्विकेन ज्ञातव्यम् । प्रथमस्थितेः प्रथमसमयादारभ्योपशमनक्रियाऽऽरभ्यते, सा च प्रथम स्थितितोऽग्रेतनेषु समयेष्वप्यन्तरकरणाद्धार्या समयोनाऽऽवलिकाद्वयपर्यन्तं भवति, यतः प्रथमस्थितेश्वरम समये समयोनाssवलिकाद्वयेन बद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति । तच्च तावता कालेनाऽन्तरकरण उपशमयतीति प्रथमस्थितेः प्रथमसमयादारभ्याऽन्तरकरणाद्धायाः समयोनाssवलिकाद्वय पर्यन्तं सन् कालः उपशमकाद्धोच्यते, प्रत उपशमकाद्धा प्रथमस्थितितः समयोनाऽऽवलिकाद्वDarshan भवति, अतः पूर्वतो विशेषाऽधिका भवति । (१३) ततोऽनिवृत्तिकरणाडा संख्यातगुणा । प्रथमस्थितितोऽनिवृत्तिकरणकालः संख्यातगुणः, यतोऽन्तरकरण क्रियाकालन्यूनाऽनिवृत्तिकरण सत्कसंख्येयतमभागमात्रैव प्रथमस्थितिर्भवति, उपशमकाद्धा च प्रथमस्थितेः समयोनाऽऽवलिकाद्वयेनैवाऽधिका भवति, अतः पूर्वतोऽनिवृत्तिकरणकालः संख्यातगुणः । (१४) ततोऽपूर्व करणाद्वा संख्यातगुणा । अनिवृत्तिकरणकालस्यान्तर्मुहूर्तकालतोऽपूर्वकरण सत्काऽन्तमुहूर्तकालस्य संख्यातगुणेन बृहत्तरत्वात् । [ ७५ प (१५) ततो गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः । गुणश्रेणिनिक्षेपोऽपूर्व करणाऽनिवृत्तिकरण रूपकरणद्वयकालात्किञ्चिदधिको भवति । तत्राऽ निवृत्तिकरणकालोऽपूर्वकरणकालतः संख्येयभागमात्र एव भवति, तस्मादपूर्वकरणकालतोऽपूर्वकरणकालसत्कसंख्यातभागतुल्याऽनिवृत्तिकरणकालेन गुणश्रेणिशिरोरूपकिश्चिदधिककालेन च गुणश्रेणिनिक्षेपस्याऽऽधिक्यम्, ततः पूर्वतो गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिको द्रष्टव्यः । (१६) तत उपशान्ताडा संख्यातगुणा । उपशान्ताद्धा नाम उपशमसम्यक्त्वकालः, स चान्तर्मुहूर्त प्रमाणस्तथा पूर्वतः संख्यातगुणोबृहत्तरः । (१७) ततोऽन्तरं संख्यातगुणम् । अन्तरं नाम मिथ्यात्वदलिकरहिताऽन्तमुहूर्तप्रमाणा स्थितिः । न चोपशान्ताद्वातोऽन्तरं संख्यातगुणं कथमुच्यते, यतोऽन्तरकरणस्याऽऽवलिकायां शेषायामपशमिकसम्यक्त्वकालः पूर्णो भवति, तत आवलिकयाऽधिकोपशान्ताद्धाऽन्तरं भवति । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा २६ ७६ ] यद्वा सास्वादनमधिकृत्योत्कर्षतोऽन्तरकरणस्य षडावलिकासु शेषास्पशमसम्यक्त्वकालः पूर्णो भवति, अतोऽन्तरमुपशान्ताद्धातः षडावलिकाभिरधिकं भवतीति वाच्यम् । यत इदमल्पबहुत्वं कषायप्राभृतचूर्णिकारमताऽनुरोधेनोक्तमतोऽन्तरकरणं पूर्वतः संख्यातगुणमिति मताऽन्तरं प्रतिभाति । तेषां मतेऽन्तरकरणस्य समधिकायामावलिकायां शेषायां त्रयः पुजा आकृष्यन्त इति कुत्रचिदपि न निर्दिष्टम्, अतस्तेषामभिप्रायेणाऽन्तरस्य संख्येयतमे मागे व्यतिक्रान्ते द्वितीयस्थितितस्त्रीन् पुजानाकृष्य वेदयतीति प्रतिभासते, तच्चं तु कलहंसा विदन्ति । उपशमनाकरणम् अत्र प्रथमस्थितितोऽन्तरायामः किञ्चिदधिको मवतीति मन्यन्त आराध्यपादमलयगिरिसुरोश्वरादयः, तथाहि - पञ्चसङ्ग्रहस्याऽष्टादशगाथासूत्रस्य टीकायाम् - "इत्थं चाsनिवृत्तिकरणाऽडायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्स्वेकस्मिन संख्येयतमे भागे शेषे तिष्ठति, अन्तर्मुहूर्तमात्रमधो मुक्त्वा मिध्यात्वस्याऽन्तरकरणमन्त मुहूर्तप्रमाणं प्रथमस्थितेः किञ्चित्समधिकं भवति" इति तथा च नव्यशतकवृत्तावपि मिथ्यात्वस्याऽन्तरकरणमन्तर्मुहूर्तप्रमाणंप्रथमस्थितेः किञ्चित्समधिकं न्यून वाऽभिनवस्थितिबन्धाडासमेनाऽन्तर्मुहूर्त कालेन करोतीति । " तथैव सप्ततिकावृत्तावप्युक्तम् । अत्र कषायप्राभृतचूर्णिकारैः प्रथमस्थितितो विशेषाऽधिकोपशामकाद्धा, ततोऽनिवृत्तिकरणकालः संख्यातगुणः, ततोऽपूर्व करण कालः संख्यातगुणः, ततो गुणश्रेणिनिक्षेपः विशेषाधिकः, तत उपशान्ताद्धा संख्यातगुणा, ततोऽन्तरं संख्यातगुणमितन्युक्तम् । अतोऽन्तरं प्रथमस्थितितः सुतरां संख्यातगुणं भवति । मलयगिरिसूरीश्वरप्रभृतिमतेन प्रथमस्थितितोऽन्तरकरणं किञ्चिदधिकं भवतीत्युभे मताऽन्तरे प्रतिभासेते, प्रकारान्तरेण वा भाव्यम् । पश्यन्तु पाठका यन्त्रकम् - ( ६ ) (१८) ततो जघन्याबाधा संख्यातगुणा । मिथ्यात्वस्य जघन्याऽबाधाऽनिवृत्तिकरणस्य चरमसमये तथा मिथ्यात्ववर्जशेषकर्मणां जघन्याऽबाधा गुणसङ्क्रमनिर्गतनकाले प्राप्यते सा च पूर्वतः संख्यातगुणेन वृहत्तराऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा यदि पूर्णतो न्यूना मन्येत, तर्हि मिथ्यात्व सत्कप्रथम स्थितेश्वरमसमये यानि दलानि वध्यन्ते निषेकरचनायां तेषां निक्षेपोऽन्तरकरणेऽपि स्यात् । तेनाऽन्तरकरणदलिकोत्कीर्णं निष्फलं स्यात्, बन्धद्वारेण निषेकरचनाया मिध्यात्वदलिकानां निक्षेपणात् । (१६) तत उत्कृष्टाऽबाधा संख्यातगुणा । जघन्यस्थितिबन्धत उत्कृष्ट स्थितिबन्धोऽपूर्वकरणप्रथमसमयभावी संख्येयगुणः, तेन जघन्याऽबाधात उत्कृष्टाऽबाधा संख्येयगुणा, अबाधायाः प्रायः स्थितिबन्धसापेक्षत्वात् । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्पबहुत्वम् ] सम्यक्त्वाधिकारः [ (२०) ततो जघन्यस्थितिखण्डम संख्येयगुणम् । जघन्यतः स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणं भवति, उत्कृष्टाऽवाधा च स्थितिबन्धस्याऽन्तःसागरोपमकोटिकोटित्वेनाऽन्तमुहूर्तप्रमाणैव भवति, तथाऽन्तर्मुहूर्ततः पन्योपमसंख्येयभाग संख्यातगुणो भवतीति हेतोरुत्कृष्टाऽबाधातो जघन्यस्थितिखण्ड मसंख्येय गुणम् । ७७ (२१) तत उत्कृष्टस्थितिखण्डं संख्यातगुणम् । जघन्यस्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणं भवति, उत्कृष्टस्थितिखण्डं तु सागरोपमपृथक्त्व प्रमाणमिति पूर्वतः संख्यातगुणं भवति । (२२) ततो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । जघन्यस्थितिबन्धस्याऽन्तः सागरोपमकोटाकोटित्वेन पूर्णतः संख्यातगुणत्वम् । (२३) तत उत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । युत्कृष्टस्थितिबन्धोऽप्यन्तः सागरोपमकोटाकोटिप्रमाणस्तथाऽपि स पूर्वतः संख्यातगुणो भवति, गत उत्कृष्टस्थितिबन्धस्याऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमयभावित्वेनाऽनिवृत्तिकरणचरमसमयभावी मिथ्यात्वस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातगुणहीनो भवति । कथमिति चेद् ? उच्यतेअपूर्वकरणस्य प्रथमस्थितिबन्धतोऽपि तच्चरमस्थितिबन्धः संख्यातगुणहीनो भवतीत्युक्तः, ततोपूर्णकरणस्य प्रथमस्थितिबन्धतोऽनिवृत्तिकरण चरमसमयस्थितिबन्धः सुतरां संख्यातगुहीनो भवति, अतोऽनिवृत्तिकरणत्तरमसमयभाविजघन्यस्थितिबन्धतोऽपूर्वकरणस्यप्रथमसमयभाध्युत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणो वक्तव्यः । एवं शेषकर्मणामुत्कृष्टस्थितिबन्धोऽपूर्वकरण प्रथमसमये भवति, जघन्यस्थितिबन्धश्च मिथ्यात्व सत्कगुणसङ्कम निवर्तनकाले भवति । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमय भाविस्थितिबन्धतस्तच्चरिम समय माविस्थितिबन्धः संख्यातगुणहीनो भवति, ततोऽप्यग्रेतनस्य स्थितिबन्धस्य प्रत्यन्तर्मुहुर्त हीयमानत्वेन मिथ्यात्वस्य सङ्क्रमनिवर्तन कालीनजघन्यस्थितिबन्धस्य सुतरां संख्यातगुणहीनत्वं सिध्यति । इत्थं शेषकर्मणामपि मिथ्यास्वसत्कगुणङ्क्रम निवर्तनकालीन जघन्यस्थितिबन्धतोऽपूर्वकरणप्रथमसमय भाव्युत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणो भवति । (२४) ततो जघन्यस्थितिसत्ता संख्यातगुणा । अप्रमत्ताऽभिमुखस्य मिथ्यादृष्टेर्जन्तोर्मिथ्यात्वस्योदयचरमसमये मिथ्यात्वस्य सत्कर्म शेषकर्मणां च सत्कर्म मिथ्यात्वगुणसङ्क्रमनिवर्तनकाले जघन्यं भवति, तस्य चाऽन्तः सागरोपमकोटाकोटिप्रमाणत्वेऽप्युत्कृष्ट स्थितिबन्धतः संख्यातगुणत्वं भवति । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७] उपशमनाकरणम् (२५) ततो उत्कृष्टस्थितिसत्ता सख्यातगुणा । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत्स्थितिसत्कर्म, तदुत्कृष्टस्थितिसत्कर्म ज्ञेयम् । तच्च पूर्वतः संख्येयगुणम्, तत्कारणमुत्कृष्टबन्धवज्ज्ञेयम् । इति समाप्तः प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽधिकारः । सम्यक्त्वोत्पादप्ररूपणा विस्तरशःकृता । अथ चारित्रमोहनीयस्योपशमनाऽभिधीयते, तत्र चारित्रमोहनीयस्य प्रस्थापकं व्याजिदीषु राह वेगसम्मद्दिट्टी चरितमोहुव समाए चितो । जो देसजई वा विरतो व विसोहिश्रद्धाए ||२७|| [ गाथा २६-२७ वेदकसम्यग्दृष्टिश्चारित्रमोहोपशमाय चेष्टते । अयतिर्देशयतिर्वा बिरतो वा विशोध्यद्धायाम् ||२७|| इति पदसंस्कारः । "वेग" इत्यादि, वेदकसम्यग्दृष्टिः क्रोधादिचारित्र मोहनीयस्योपशमनाय चेष्टते = यतते । तत्र सम्यक्त्वमोहनीयं विपाकोदयतो मिश्रमोहनीयमिध्यात्वमोहनीये च प्रदेशोदयतो वेदयति, स वेदकसम्यग्दृष्टिरुच्यते क्षायोपशमिकसम्यग्वष्टिरिति यावत् । सूत्रस्य निर्देशमात्रत्वाद् "व्याख्यानतो विशेषप्रतिप्रत्तिः" इति न्यायेन कायिकसम्यग्दृष्टिश्वाऽपि ज्ञातव्यः, प्रथमौपशमिकसम्यग्दृष्टिस्तु चारित्रमोहनीयमुपशमयितु ं न यतते । तत्राऽन्यतरसम्यग्दृष्टिरविरतो वा देशविरतो सर्वविरतो वा सम्यगृष्टिर्विशोध्यद्वार्यां वर्तमानश्चारित्रमोहनीयोपशमनाय यतते । अविरतो नाम न व्यरमत् न्यवर्तत सावद्यव्यापारात्सोऽविरत उच्यते "गत्यर्थाऽकर्मकपियभुजेः " स (सिद्धम ५ | १ | १३) कर्तरि 'क्त' प्रत्ययः, एवं देशतः सावद्यव्यापारात् = पापव्यापाराद् व्यरमत् = देशविरतः सर्वतः पापव्यापाराद् व्यरमत् = स सर्वविरतः । अविरतानां प्रत्येकं द्वे द्वे अद्वे भवतः, संक्लेशाद्धा विशोध्याद्धा च । यस्यामद्वायामविरतो देशविरतः सर्वविरतो वा हीयमानपरिणामी भवति सा संक्लेशाद्धा इत्यर्थः । यस्यामद्वायामविरतो देशविरतः सर्वविरतो वा प्रवर्धमानपरिणामी भवति सा विशोध्यद्धा इत्यर्थः । अविरतो देशविरतः सर्वविरतो वा कदाचित्संक्लेशाद्धायां वर्तते कदाचिद् विशोध्यद्धायाम्, तत्र विशोध्यद्धायां वर्तमानो मोहनीयस्योपशमनाय यतते, न संक्लेशाऽद्धायाम् । चेष्टत इत्यनेनाऽविरतादयः चारित्रमोहनीयोपशमनाय पूर्व भूमिकायां वर्तन्त इति ज्ञाप्यते । " चारित्रमोहनीयोपशनाय यथाप्रवृत्तादिकरणानि तु सप्तमगुस्थानकप्रभृतिवर्तिभिः क्रियन्ते । तत्र क्षायोपशमिकसम्यगृष्टिः षष्ठगुणस्थानवर्ती सप्तमगुणस्थानकवर्ती वा प्रथमं दर्शन त्रिकस्योपशमनां करोति, ततो यथाप्रवृत्त करणाऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणैश्चारित्र मोहनीयमुपशमयितु ं प्रवर्तते । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविरतादीनां स्वरूपम् ] चारित्रमोहनीयस्योपशमनाधिाकरः [ ७६ अथ त्रयाणामप्यविरतादीनां स्वरूपमाविश्चिकीपुराह अन्नाणाणभुवगमजयणाहिजयो अवज्जविरईए। एगब्बयाई चरिमो अणुमइमित्तो ति देसजई ॥२८॥ अणुमइ विरयो अ जई..... प्रज्ञानभ्युपगमयतनाभिरयतोऽवद्य विरतेः । एकवतादिचरमोऽनुमतिमात्र इति वेशयतिः ।। अनुमतिविरतश्च यतिः........ .. .. --....--...-- म्वरूपम्-"अन्नाण" इत्यादि तत्र यो व्रतानि सम्यग् न जानाति, न चाऽभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतते, सोऽज्ञानाऽनभ्युपगमायतनाभिरविरतः । अत्र च त्रिभिः पदैरष्टी भङ्गाः प्राप्यन्ते । तद्यथा (१) कश्चिज्जन्तुरज्ञानाऽनभ्युपगमायतनाभियुक्तः, यथा सर्वलोक इति प्रथमो भगः। (२) कश्चिज्जन्तुरज्ञानाऽनभ्युपगमयतनाभियुक्तः, यथाऽज्ञानतपस्वीति द्वितीयो भङ्गः। (३) कश्चिज्जन्तुरज्ञानाभ्युपगमायतनाभियुक्तः, यथा पार्श्वस्थ इति तृतीयो मङ्गः । (४) कश्चिज्जन्तुरज्ञानाऽभ्युपगमयतनाभियुक्तः, यथाऽगीतार्थ इति चतुर्थो भङ्गः। (५) कश्चिज्जन्तुआनाऽनभ्युपगमायतनाभियुक्तः, यथा श्रेणिकादयोऽविरता इति पञ्चमो भङ्गः । (६) कश्चिज्जन्तु नाऽनभ्युपगमयतनाभियुक्तः, यथाऽनुत्तरदेव इति षष्ठो भङ्गः । (७) कश्चिज्जन्तुर्ज्ञानाऽभ्युपगमाऽयतनाभियुक्तः, यथा संविज्ञपाक्षिक इति सप्तमो भङ्गः। (८) कश्चिज्जन्तुआनाभ्युपगमयतनाभियुक्तः, यथा देशविरतः सर्वविरतो वेत्य ___ष्टमो भङ्गः । अत्र चाऽज्ञानशब्देन सम्यग्ज्ञानाऽभावो ग्राह्यः, न तु ज्ञानावरणकर्मविपाकोदयजनितमज्ञानम् । आयेषु चतुर्यु भङ्गेषु मिथ्यादृष्टयो भवन्ति, त्रिषु भङ्गेषु च सम्यग्दृष्टयोऽविरताः, एवं सप्तमङ्ग प्वविरता एव भवन्ति, यतो व्रतानि घुणाऽक्षरन्यायेन पालितान्यपि न यथावत् फलवन्ति, किन्तु सम्यग्ज्ञानसम्यग्ग्रहणपुरस्सरं पालितानि यथावत् फलवन्ति भवन्ति । चतुर्वाधेषु मङ्गषु सम्यग्ज्ञानाऽभावः, उत्तरेषु त्रिषु च सम्यग्ज्ञानसद्भावेऽपि सम्यग्ग्रहणसम्यग्पालनाऽभाव इति प्रथमेषु सप्तसु भङ्गेषु वर्तमानो नियमतोऽविरतः । चरमे भङ्ग तु वर्तमानोऽवद्यस्य पापस्य देशतो विरतेर्देशविरतो भवति । देशविरतस्य द्वादश व्रतानि । तद्यथा-"पाणिवहमुसावाए अदत्समेहुणपरिग्गहे चेव । दिसिभोगदंडसमईअं देसे पोसह तह विभागं ।" Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] उपशमनाकरणम् [ गाथा २८ तत्रैकवतादिग्राही देशविरतो भवतीत्याह-“एगव्वयाइ" इत्यादि, एकवतादिः, एकवतगाही, द्विव्रतग्राही, त्रिव्रतग्राहीत्येयं तावद्वान्यः, यावच्चरमोऽनुमतिमात्रः परिपूर्ण द्वादशव्रतधार्युत्कृष्टः श्रावकः प्रत्याख्यातसकलसावधव्यापारः केवलमनुमतिमात्रप्रतिसेवकः । तत्राऽनुमतिस्त्रिधा, प्रतिसेवनाऽनुमतिः प्रतिश्रवणाऽनुमतिः संवासाऽनुमतिश्च । (१) प्रतिसेवनाऽनुमतिः तत्र यः स्वयं परैर्वा कृतं पापं श्लाघते सावद्याऽऽरम्भोप पन्नं वाऽशनाद्यपभुङ्क्ते, तस्य प्रतिसेवनाऽनुमतिः।। (२) प्रतिभवणाऽनुमतिः-यदा तु पुत्रादिभिः कृतं पापं शृणोति, श्रुत्वा चाऽनुमन्यते न च प्रतिषेधयति, तदा प्रतिश्रवणाऽनुमतिः । (३) संवासाऽनुमतिः-यः सावद्याऽऽरम्भप्रवृत्तेषु पुत्रादिषु केवलं ममत्वयुक्तो भवति, नाऽन्यत्किञ्चिच्छणोति श्लाघते वा, तस्य संवासाऽनुमतिः।। तत्र यः संवासाऽनुमतिभागमेव सेवते, स चरमभङ्ग उत्कृष्टदेशविरतः। सर्वश्रावकाणां गुणोत्तमो भवति । देशविरतस्याऽनिष्टयोगातमिष्टवियोगात रोगात निदानातमिति चतुर्विधमार्तध्यानं तथा हिंसानन्दरौद्रं मृषावादानन्दरौद्रं चौर्यानन्दरौद्रं संरक्षणानन्दरौद्रमिति चतुर्धा रौद्रध्यानं मन्दं भवति धर्मध्यानं च मध्यमं भवति, न तूत्कृष्टम् , यत उत्कृष्टधर्मध्यानं सर्वविरतस्यैव भवति, उक्तं च-"आतं रौद्र भवदेत्र मन्दः धयं तु मध्यम् । षटकर्मप्रतिमाश्राव्रतपालनसंभवम् ॥१।। इति "अणमइविरओ" ति, यः पुनः संवासाऽनुमतेरपि विरतः, स सर्वविरत उच्यते । तत्र सर्वविरतिस्त्रिधा (१) औपशमिकचारित्रम् (२) क्षायिकचारित्रम् (3) क्षायोपशमिकचारित्रम् । (१) चारित्रमोहनीयोपशमनादुद्भुतं चारित्रमौपशमिकचारित्रम् । (२) चारित्रमोहनीयस्य क्षयादभिव्यक्तं चारित्रां क्षायिकचारित्रम् । (३) चारित्रमोहनीयस्य सर्वधातिप्रकतीनां विपाकेनोदयाऽभावात्सज्वलनचतुष्कनवनोकषायरूपाणां च त्रयोदशप्रकृतीनां सर्वघातिरसम्पर्धकानामुदयाऽभावात् । तथा केवलं देशघातिरसम्पर्द्धकानामुदयाज्जायमानं चारित्र झायोपशमिकचारित्रमुच्यते । .. अत्राऽयं विशेषः-चारित्रलब्धिरात्मनो गुणोऽस्ति, म च कर्मोदयान्नाविर्भवति, अपि वावियते, अत एव यावत्सर्वघातिप्रकृतयोऽनन्तानुबन्ध्यादयो द्वादशोदये वर्तन्ते, तावच्चारित्रलाभः कस्यचिज्जीवस्य न भवति, किन्तु यदाऽनन्ताानुबन्ध्यादीनां द्वादशानां प्रकृतीनामुदया ऽमावे सति शेषसज्वलनादीनामपि च सर्वघातिरसस्पर्द्धकानामुदयाऽमावः प्राप्यते, तदा जन्तो. चारित्रं संभवति । सचलनचतुष्कनवने कषायरूपत्रयोदशप्रकृतीनां सर्वघाति रसस्पर्द्धकानां Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 賻 क्षयोपशमभाव: ] चारित्रमोहनीयस्योपशनाधिकारः [ ८१ संयमविरोधकत्वेऽप्यनन्तानुबन्ध्यादिकषायाणामनुदये सज्ज्वलनादीनां रसस्पर्द्धकानि देशघातिन्युदयन्ति, अतस्तानि चारित्रेऽतिचारानेवोत्पादयितुं समर्थानि न पुनरुपहन्तु ं समर्थानि । अतः सज्वलनादीनां देशघातिम्पर्द्धकानामुदयेऽपि क्षायोपशमिकं चारित्रं प्राप्यते । ननु सज्ज्वलनचतुष्कनवनोकषायरूपासु प्रकृतिषूदयमानासु चारित्रलब्धिरूपः क्षायोपशमिकभावः कथमिति चेद् ? उच्यते सर्वघातिप्रकृतीनां रसस्पर्द्धकानि सत्तायां सर्वघातिन्येव भवन्ति, सम्यक्त्वमोहनीयवजंदेशघ । तिप्रकृतीनां देशघातीनि सर्वघातीनि चोभयानि रसस्पर्द्धकानि सत्तायां विद्यन्ते तथा देशघातिप्रकृतीनां सर्वघातिरसस्पर्द्धकानामुदये सर्वघातिप्रकृतीनां विपाकत उदये स्वस्वावार्यगुणो नाऽभिव्यनक्ति, सर्वघातिप्रकृतीनां केवलं प्रदेशादये, देशघातिप्रकृतीनां च सर्वघातिरसस्पर्द्धकानि देशघातिरूपेण परिणम्योद्यन्ति, तदा क्षयोपशमभावः प्रागद्यते, यतो देशघातिरमस्पर्द्धकानि लब्धिमवरोद्ध न समर्थानि अत एव सज्ज्वलनचतुष्कनवनोकपायाणामुदयेऽप्यत्र क्षायोपशमिकं चारित्रमुच्यते । क्षयोपशमो नामाऽत्र देशघातिप्रकृतीनां स्वरूपतः सर्वधा तिरसस्पर्द्धकान्युदयाऽभाववन्ति तेषामनुभागस्याऽनन्तगुणहीन भवनादू देशघातिरूपेण च परिणम्य तान्युदयन्ति तदैव क्षयोपशमः, सम्यक्त्वमोहनीयस्य सर्वघातिस्पर्द्धकाभावेन सत्तायां देशघातिरसस्पर्द्धकान्येव भवन्ति, ततस्तस्या उदयेऽपि क्षयोपशमभावो न विरुध्यते अयं शब्दाऽर्थः क्षिक्षये' इति भ्वादि: 'क्षयणं क्षयः' 'युवर्णवृद्दवशरणगमृद्ग्रहः" सिद्धहेम० (५।३।२८) इति भावेऽल् क्षयः, सर्वघातिर सस्पद्धकानामनुभागस्याऽनन्तगुणहीनकरणमिति यावत्, देशघातिरसस्पर्द्धकानां च स्वरूपेणाऽवस्थानमुपशम इति क्षयोपशमः । यद्वा स्वस्वावारकसर्गघातीनां प्रकृतीनां विपाकोदयाऽभावलक्षणे प्रदेशोदये सति देशघातिप्रकृतीनां सर्वघातिस्पर्द्धकेषु विशुद्धाऽध्यवसायतो देशघातिरूपतया परिणमनेन निहतेषु देशघातिरसस्पर्द्धकेषु चाऽतिस्निग्धेष्वल्परसीकृतेषु तदन्तर्गतं कतिपयरसस्पर्द्धकभागस्योदयाafoni प्रविष्टस्य क्षये शेषस्य च विपाकोदयविष्कम्भलक्षण उपशमे क्षायोपशमिको गुणो प्रादुर्भवति । , न च सर्वघातीरसस्पर्द्धक प्रदेश । अपि सर्वस्वघात्यगुणघातनस्वभावा इति तत्प्रदेशोदयेSपि कथं क्षायोपशमिकभावसंभव इति वाच्यम् तेषां सर्वघातिरसस्पर्द्धक प्रदेशानामध्यवसायविशेषेण मनाग् मन्दानुभावीकृतविरल वेद्यमान देशघातिरसस्पर्द्धकेष्वन्तःप्रवेशितानां यथास्थितस्वबलप्रकटनाऽसमर्थत्वात् । संक्षेपतो यस्याः प्रकृतेरुदय आत्मगुणो नाऽवरुध्यते, तस्या उदयेऽपि क्षयोपशमभाव उच्यते । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् माथा २६ । तत्रौपशमिकचारित्रस्य तथा क्षायिकचारित्रस्याऽधिकारो यथाक्रममुपशमश्रेण्यधिकार सपकश्रेण्यधिकारे च वक्ष्यते । देशविरतेः सर्वविरतेश्च प्राप्ति व्याख्याचिख्यासुराह ....... 'दोगह वि करणाणि दोरिण न उ तइयं । पच्छा गुणसेढी सिं तावइया आलिगा उप्पिं ॥२१॥ ------द्वयोरपि करणे वे न तु तृतीयम् । पश्चाद्गुणश्रेणिस्तयोस्तावत्यावलिकामा उपरि ॥२९॥ इति पदसंस्कारः मिथ्यादृष्टिरविरतसम्यग्दृष्टिर्वा मनुष्यस्तियं च देशविरतिं मनुष्यश्च सर्ववितिमश्नुते तत्राऽपि देशविरतः करणद्विकेन मनुष्यः सर्वविरतिमेव प्राप्नोति । तत्र कश्चिद् मिध्यादृष्टिरौपशमिकसम्यक्त्वेन सार्ध देशविरात सर्वविरति वोत्पादयति, तयोश्च प्राप्तिक्रमः पूर्व प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽधिकार उक्तः । यदि मिथ्यादृष्टिरष्टाविंशतिसत्कर्मा क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिर्देशविरतिं सर्वविरतिं वाऽश्नुते, तर्हि करणद्वयं करोतीत्याह-"दोपह" इत्यादि, द्वयोरपि देशविरतिसर्वविरत्योर्लाभे सति द्वे करणे यथाप्रवृत्तकरणाऽपूर्वकरणाख्ये भवतः, न तु तृतीयं करण : यतो यत्र दर्शनमोहनीयचास्त्रिमोहनीययोरन्यतरस्य सर्वथा क्षयः सर्वोपशमो वा भवति, तंत्रवाऽनिवृत्तिकरणं जन्तुना क्रियते, नाऽन्यत्र क्षयोपशमादौ । अत्र करणकालात्पूर्वमन्तमु हृतं यावज्जन्तुः प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशुद्धया प्रवधमानोऽशुमानां प्रकृतीनां द्विस्थानकं शुमानां प्रकृतीनां च चतुःस्थानकमनुभागं बध्नाति । नमपि प्रतिसमयं शुमानामनन्तगुणवृद्धमशुमानां चाऽनन्तगुणहीनमित्यादि सर्ववक्तव्यतीपश. मिकसम्यक्त्वाधिकारवज्ज्ञातव्या । बन्धोदयसत्तादिषु यो विशेषः, सम्वयमेवोहनीयः, अन्यमौरवमयादव न वितन्यते । .. अथादौ याप्रवृत्तकरणं प्रारम्यते । यथाप्रवृतकरणेऽपि प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्रिया शुद्धं चतुःस्थाननकम् , अशुभानां च कर्मणां प्रतिसमयमनन्तगुणहीनं द्विस्थानकमनुभाग बध्नाति, पूर्वपूर्वतः प्रत्यन्तमुहर्तमुत्तरोत्तरोत्तरस्थितिबन्धः पन्योपमसंख्येयभागेन होनो भवान स्थितिघातरसघातौ न भवतः ! अध्यवमायस्थानानां संख्या विशोषिश्व न्यादीनां बरू सम्यक्त्वाऽधिकारवज्ज्ञेयम् । यथाप्रवृत्तकरणं परिसमाप्याऽपूर्वकरणं प्रविशति । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादेवाऽऽयुव ज. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिघातादय: ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः 1 शेषकर्मणां स्थितिघातोऽशुमानां च रसघातोऽभिनवस्थितिबन्धश्च युगपदारभ्यन्ते स्तु नाऽऽरभ्यते । यतो यत्र क्षायिक औपशमिको वा गुणः प्राप्यते, तत्रैवाऽपूर्वकरणात्प्रभृति गुणश्रेणिरारभ्यते । तत्र स्थितिखण्डेषु जघन्यं स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येय भागप्रमाणमुत्कर्षतः स्थितिखण्डं सागरोपमपृथक्त्वप्रमाणं भवति । अन्तर्मुहूर्तेन कालेन प्रथमो रसघातः समाप्यते । एवमनेकसहस्रेषु रसघातेषु व्यतिक्रान्तेषु प्रथमस्थितिघातोऽभिनवस्थितिबन्धश्च परिसमाप्येते । द्वितीयः स्थितिघातः पत्योपमसंख्येयभागप्रमाणः स्थितिबन्धश्च पूर्वतः पल्योपमसंख्येय भागtaserat रसघातश्च प्रारभ्यन्ते, एवमनेकसहस्रषु स्थितिघातादिषु व्यतिक्रान्तेष्वपूर्वकरणं परिसमाप्यते । अपूर्वकरणे समाप्तेऽनन्तरसमये नियमादप्रत्याख्यानावरण कर्मक्षयोपशम जनितां संयमाऽसंयमध्याख्यां देशविरतिं प्रत्याख्यानावरणक्षयोपशमजनितां संयमलब्ध्याख्यां सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यते, अत्र देशविरतेः सर्वविरतेर्वा क्षापोपशमिकगुणत्वेन "न उ तइयं" सि, तृतीयमनिवृत्तिकरणं न करोति । “पच्छा" त्ति, द्वयोः करणयोर्निष्ठितयोः सतोः पश्चादन्तर्मुहूर्त यावन्नियमतोऽनन्तगुण वृद्धयां विशुद्धयां जन्तुर्वर्तते । [ ८३ गुणश्रेणि एकान्तवृद्धिदेशसंयतैकान्तवृद्धिसर्व संयतो वा- देशविरतेः सर्वविरतेः प्राप्तिसमयादन्तम् हतं यावत्प्रतिसमयमनन्तगुण वृद्ध्या प्रवर्धमानायां विशुद्धयां वर्तमानो देशसंयतः सर्वसंयतोऽनुक्रममेकान्तवृद्धिदेशसंयत एकान्तवृद्धिसमें संयत उच्यते । देशविरतेः सर्वविरतैर्वा प्राप्तिसमयादभिनवः स्थितिबन्धः स्थितिघातो रसघातथाऽऽरभ्यन्ते, तथोपरितनस्थितितो दलिकान्युत्कीर्याऽप्रत्याख्यानावरणस्योदयाऽभावेनोदयावलिकावर्जोपरतनार्तपर्यन्तं गुणश्रेणिं रचयति । ननु शेषकर्मणां कुतो गुणश्रेणिर्विरच्यते इति चेद् ? उच्यते, शेषोदयवतीनां प्रकृतीनामुदयसमयादारभ्याऽन्तमुहूर्तपर्यन्तं रचयति तथाऽनुदयवतीनां प्रकृतीनामुदयावलिकावर्जो परितन स्थितावन्तमुहूर्तपर्यन्तं विरचयतीति वयं ब्रूमः । अत्र देश विरतस्य यो गुणश्रेणिदलिकनिक्षेपायामोऽन्तमुहूर्तप्रमाण उक्तः, स प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वगुणश्रेणिनिक्षेपात्संख्यातगुणहीनः ततोपि सर्वविरतस्य संख्यातगुणहीनः । दलिकनिक्षेपमाश्रित्य तु प्रथमौपशमिकसम्यक्त्व गुणश्रेणितोऽसंख्येयगुणा देशविरतस्य गुणश्रेणिः, ततोऽसंख्येयगुणा सर्वविरत प्रत्र लब्धिसारे गुणेणिनिषेध इदं बीजमुक्तं तद्यथा- "मत्राऽपूर्वकरण कुतो गुणश्रेण्य भावः ? इति चेदुच्यते, उपशम सम्यक्त्वाऽभाषात्त निबन्धमगुणश्रेण्यभावः देशसंयमस्याऽद्याप्यग्रहणात्तन्निमित्तकगुणश्रेणैरप्यभावो वेदकसम्यक्त्वस्य च गुणश्रेणिहेतुत्वाऽभावादिति ब्रूमहे ।” इति । ॐ कषायप्राभृतचूर्णौ सर्वसंयतो यावदेकान्तविशुद्धयां वर्धते तावदपूर्वकरणसंज्ञ इत्युक्तः, अक्षराणि त्वेवम् " जाबचरितलडीए एगंताणबुडीए बड्ढदि ताव प्रपुष्वकरणसविदो भवदि ।” Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा २९ स्य । उक्तं च नव्यशतकवृत्तौ वादिघूकमातण्डैः श्रीमद्देवेन्द्रसूरीश्वरै:-"सम्यक्त्व. लाभकाले मन्दविशुद्धिकत्वात् जीवो दोर्चाऽन्तमुहूर्तवेद्यामल्पतरप्रदेशाऽग्रां च गणश्रेणिमारचयति, ततो देशविरतिला संख्येयगुणहीनाऽन्तर्मुहर्तवेद्यामसख्येयगणप्रदेशाऽग्रां च तां करोति, ततः सर्वविरतिलाभे संख्येयगणहोनाऽन्तमुहूर्तवेद्यामसंख्येयगुणप्रदेशाऽग्रां च तां करोति" देशविरतस्य सर्वविरतस्य च गणश्रेणिनिक्षेपोऽवस्थित एव, न गलिताऽवशेषमात्रः, कोऽर्थः । यथा प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽधिकारेऽधस्तनाऽधम्तनोदयसमये वेदनतः क्षीणे सति शेषषु समयेषु दलिकं विरचयति. न पुनरुपरि गुणश्रेणिं वर्धयति । अत्र त्वधस्तनाऽधस्तनोदयसमये वेदनतः क्षीणे मति एकैकममयेन गुणश्रेणि वर्धयति । इत्थं देशविरतेः सर्वविरते, प्राप्तिसमये यो गुणश्रेणिनिक्षेपः स एव द्वितीयसमयादिषु वेदितः समयप्रमाणनिक्षेपो न्युनो न भवतीत्यर्थः। देशविरतेः सर्वविरतेश्च प्राप्तेः प्रथमसमयतो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगणानि दलिकानि प्रथमसमयसत्कगुणश्रेणिनिक्षेपप्रमाणे निक्षेप एवाऽसंख्येयगुणकारेण विरचयति । अन्तमुहर्तकालं यावदनेनैव क्रमेण गुणश्रेणि रचयति । देशविरतेः सर्वविरतेर्वा प्रतिपत्त्यनन्तरं जन्तुरन्त हतं यावदवश्यमनन्तगणवृद्धय कान्तविशुद्धथा प्रवर्धमानपरिणामो भवति । उक्तञ्च कषायमाभतचूर्णी-संयमाऽधिकारे-"तदो पढमसमयसंजमप्पहुडि अंतोमुहत्तमणतगुणाए चरित्तलडिए वड्ढदि" इति । तावति काले नेकसहस्राणि स्थितिघाता भवन्ति। ततो यथाप्रवृत्तदेशसंयतो यथाप्रवृत्तसर्वसंयतो वा भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी संयमाऽसंयमाऽधिकारे-"एवं ठिदि खंरएसु बहुए गदेसु तदो अधापवत्तसंजदासंजदो जायदे।" इति । __ यथाप्रवृत्तदेशसंयतो यथाप्रवृत्तसर्वसंयतो वैकान्ताऽनन्तगुणवृद्धिकालात्परमनियतायां विशुद्धयामनियते सङ्कलेशे वा वर्तमानो देशविरतः सर्वविरतो वा यथाप्रवृत्तदेशसंयतो यथाप्रवृत्तसर्वसंयतो वोच्यते । यथाप्रवृत्तदेशसंयतस्य यथाप्रवृत्तसर्वसंयतस्य च स्थितिघातरघाती न भवतः, अवस्थिता गुणश्रेणिस्तु प्रवर्तते कश्चिद्यथाप्रवृत्तदेशसंयतस्सर्वसंयतो वा प्रतिसमयं ॐ कषायप्राभृतौँ तु गुणश्रेणिरित्थं प्रतिपादिता........"संखेज्जसमयपबद्ध प्रोकड्डियूण गुण. सेढोए उदयावलिबाहिरे रचेदि'' भ.वार्थः पुनरयम्-आयुवर्जकर्मणां सत्तागतदलिकेभ्योऽसंख्यातकभागमपकृष्य पल्योपमाऽसंख्येयमागेन खण्डयित्वा तदबहुभागलिकं गुणश्रेणिोमुल्लङ्घ्य तदुपरितनस्थितिषु निक्षपेत् , पुनस्तदेकभागमसंख्यातलोकेन भक्त्वा तदेकभागमुदयावलिकायां विशेषहीन क्रमेण दत्त्वा तदबहुभागमसंख्यातसमयप्रबद्धमात्रं गुणश्रेण्यामेव प्रक्षिपति । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरते: प्राप्तिक्रमः ] चारित्रमोहनीयस्योपशमनाधिकारः [ ८५ पूर्वपूर्वसमयादत्तरोत्तरसमये वर्धमानपरिणामी भवति, कश्चिद्वीयामानपरिणामी कश्चिच्चाऽवस्थितपरिणामी भवति । करणं विना ये देशविरति सावरतिं वा प्रतिपद्यन्ते, तेषां प्राप्तिक्रमं व्याजिहीपुराहपरिणामपच्चयायो णाभोगगया गया प्रकरणाउ । गुणसेही मि निच्चं परिणामा हाणिवुड्डिजुया ॥३०॥ परिणामप्रत्ययादनाभोगगता गता प्रकरणास्तु । गुणश्रेणिस्तयोनित्य परिणामहानिवृद्धियु ताः ॥ इति पदसंस्कार: "परिणामपच्चयाओ" ति, परिणामप्रत्ययात् परिणामहासलक्षणकरणात् 'अनाभोगेन' आभोगाऽभावेनाऽमरङ्गकर्मोदयजनितमंक्लेशेन 'गता' देशविरतिपरिणामात्परिभ्रश्याऽविरति गताः, सर्वविरतिपरिणामाच्च च्युत्वा देशविरतिमविरतिं. वा गता अन्पाऽन्तम हूत तत्र स्थित्वा स्थितिसत्कर्माऽवर्धमाना भूयोऽपि प्रागभ्युपगतां देशविरतिं सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यमाना अकरणा अकृतयथाप्रवृत्तकरणाऽपूर्वकग्णाख्यकरणाः सन्तः प्रतिपद्यन्ते, यथाप्रवृत्तकरणाऽपूर्वकरणे न कुर्वन्तीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"जदिसंजमा जमादो परिणामपच्चएण णिग्गदी पुणो वि परिणामपच्चरण अतोमुहत्तेण आणीदो संजमासंजमं पडिवज्जइ तस्स वि णस्थि ठिदिघादो वा अणुभागघादो वा इति" । संजमादो णिग्गदो असंजमं गंतूण जो हिदि संतकम्मेण अणव ड्डिदेण पुणो संजमं पडिवज्जदि तस्स संजमं पडिवज्जमाणस्स णस्थि अपुव्वकरणं णस्थि हिदिघादो, णस्थि अणुभागघादो।" इति । तेषां स्थितिवातरसघातो न भवतः, करणद्वयेन विना देशविरतिसर्व विरतिग्रहणात् । ये पुनराभोगेन देशविरतितः सर्वविरतितो वा प्रतिपतिता आभोगेनैव च मिथ्यात्वं गताः, ते तत्र जघन्यतोऽन्तमुहर्तकालं स्थित्वोत्कृष्टतः प्रभूतं कालं स्थित्वा भूयोऽपि देशविरतिं सर्वविरतिं वा करणपूर्विकामेव प्रतिपद्यन्ते । तथा चाऽऽहुदेशविरतिं प्रतिपाद्यामानाः कषायप्राभत. चर्णिकारा:- "यदि संजमासंजमादो परिवदिदूण 5 आगुजाए मिच्छत्तं गंतुणं सदो संजमासंजमं पडिवज्जह अतोमुहुत्तेण वा विप्पकोण वा कालेण तस्स वि मंजमा जमपडिवज्जमाणस्स एदाणि चेव करणाणि कादव्वाणि ।" इत्यादि । "गणसेढी सिं निच्चं" इत्यादि, तथा यावद्देशविरति सर्वविरति वा परिपालयति तावदेषां देशविरतानां सर्वविरतानां वा प्रतिसमयं गुणश्रेणिपि भवति । नवरमत्र परिणामहा ॐ प्रागुज्जनमागुज्जा संक्लेशभरेणाऽन्तराघूर्णनमित्यर्थः । (जयधवला) Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [गाथा-३० निवृद्धियुता भवन्ति, तथाहि-यथाप्रवृत्तदेशसंयतो यथाप्रवृत्तसर्वविरतो वा प्रवर्धमानो हीयमानः म्वभावस्थो वा भवतीत्युक्तं तत्र विशुद्धया वर्धमानः प्रतिपमयं पूनपूर्वतोऽसंख्येयगुणं संख्येयगुणं संख्यातमागाऽधिकमसंख्येयभागाऽधिकं वा परिणामाऽनुरुपं दलिकं गृहीत्वाऽसंख्येयगुणकारेण गुणश्रेणिमारचयति । यदि सङ्कलेशेन हीयमानपरिणामी चेत्तर्हि प्रतिसमयं पूर्वतो. ऽसंख्येयगुणहीनं संख्येयगुणहीनं संख्यायातभागहीनमसंख्यातभागहीनं परिणाऽनुरूपं दलिक गृहीत्माऽसंख्येयगुणकारेण गुणश्रेणिमारचयति यद्यवस्थितपरिणामी स्यात्तर्हि प्रतिसमयं तावेदेवदलिकं गृहीत्वा गुणश्रेणिमारचयति, कालतच पुनः सर्वदा गुणश्रेणिस्तावन्मात्रैव गुणश्रेणिनिक्षेपोऽधोऽधष क्रमशोऽनुभवतः झीयमाणेषु समयेधूपर्यपरि वर्धत इत्यर्थः । उक्तं , कर्मप्रकृतिचूर्णी-'जाव देशविरति सर्वविरतिं वा धरति ताव गुणसेढी समते समते करोति जापतिय खवेति, तावतियं उवरिरएति । 'परिणामवुढिहाणिजुत्त' त्ति, विमुज्जतो संखेज्जगुणं असंखेज्जगणं वा संखेजभागत्तरं वा असंखेज्ज भागुत्तरं वा करे । संकिलिस्साणो एतेणेव कमेण परिहावेइ । अवट्ठियपरिणामस्स तत्तिया चेव गगसेढी गहणं पडुच्च दलियनिकग्वेवं पङच्च पूर्ववत् कालं पडुच्च सर्वकाल तत्तिया चेव ।" इति । मथैव पनसमहोपशमनाऽधिकारेऽपि परिणामपच्चएणं चाउन्विहं हाइ पढई वावि । परिणामवढ्याए गुणसेही तत्तियं रयह ॥३३॥ काल:-यथाप्रवृत्तदेशसंयतस्य यथाप्रवृत्तसर्वसंयतस्या वा कालो जघन्यतोऽन्तमुहुर्तप्रमाण उत्कर्षतस्तु देशोनपूर्वकोटिवर्षप्रमाणः । देशविरतमर्वविरतयोरुभययोर्वक्तव्यतां प्रदर्श्य संप्रति केवलं देशविरतौ चतुभिर्द्धारः कषायाभूतचूर्णिकारनिर्दिष्टविशेषोऽभिधीयते इमानि चत्वारि द्वाराणि (१) अन्पबहुत्वम् (२) स्वामित्वप्ररुपणा (1) स्थानप्ररूपणा (४) तीव्रता. मन्दताप्ररूपणा च । (१) अथ प्रथममल्पबहुत्वस्याऽवसरः । अपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्यैकान्तवृद्धिपर्यन्तं जघन्याऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालादीनामष्टादशपदानामल्पबहुत्वं विविच्यते । (१) सर्वस्तोका जघन्याऽनुभागखण्डोत्कीर्णादा। एकान्तवृद्धिदेशसंयतस्य चरमसमये समाप्यमानाऽनुमागखण्डोत्कीर्णकालः सर्वस्तोकः । (२) तत उत्कृष्टाऽनुभागखण्डोत्कीर्णारा विशेषाधिका । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] देश विरतेरधिकारः अपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्यमानाऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालपूर्वतो विशेषाऽधिकः, कारणं तु प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽधिकारगत'ऽल्पबहुत्ववज्ज्ञेयम् । (३) ततो जघन्य स्थितिखण्डोत्कीणांडा जघन्य स्थितिषन्धाडा चोभावपि संख्येयगणे परस्परं च तुल्ये । एकान्तवृद्धिदेशसंयतस्य चरमसमये समाप्यमानस्थितिखण्डोस्कीर्णकालः समाप्यमानस्थितिबन्धकालच पूर्वतः संख्येयगुणो परस्परं च तुल्यो। कारणं तु प्रथमोपमिकसम्यक्त्वाधिकारगताऽल्पबहुत्ववद् द्रष्टव्यम् । (४) तत उत्कृष्टौ विशेषाऽधिको। अपूर्वकरणप्रथमसमय आरभ्यमाणस्थितिखण्डोत्कीर्णकाल आरभ्यमाणस्थितिबन्धकालश्च विशेषाऽधिको तुन्यौ च भवतः । हेतुस्तु प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽधिकारगताऽन्पबहुत्ववज्जोयः । (५) ततः प्रथमसमयवर्तिसंयतासंयतस्य प्रथमसमयादारभ्य यस्मिन्काल एकान्तवृड्या संयमाऽसंयमपर्याया वर्धन्ते, एष वृद्धिकालः संख्येयगणः, एकान्तवृडिदेशसंयतकालः मंख्येषगण इति यावत् । देशविरतेः प्रतिपत्तरनन्तरसमय दन्तमुहृतपर्यन्तं प्रवर्धमानपरिणामी भवति, तौकस्मिन्नन्तमुहर्तकाले सहस्रशः स्थितिघाता भवन्तीति पूर्णतः संख्यातगुणः । (६) ततोऽपूर्वकरणाडा संख्येयगुणा । देशसंयतस्याऽपूर्वकरणकालस्याऽन्तमुहर्तप्रमाणत्वेऽपि पूर्णतः संख्येयगुणेन वृहत्तरत्वम् । (७) ततो जघन्यसंयमासंयमाडा, सम्यक्त्वाडा, मिथ्यात्वाहा, संयमाडा असंयमाडा, सम्यक्त्वमिथ्यावाडा चैताः षरद्धाः पूर्वतः संख्येयगुणाः परस्पर तुल्या । मिथ्यात्वगुणस्थानकस्य मिश्रगुणस्थानंकस्य क्षायोपशमिकसम्यक्त्वस्य देशविरतस्याऽविरतस्य सर्नविरतस्य च जघन्यकालः पूर्णतः संख्येयगुणः परस्परं च तुन्यः । एतच्च निा . घाताऽपेक्षया द्रष्टव्यं व्याघाते त्वेकसमयोऽन्तमुहूर्तो वा यथाश्रुतं परिभावनीयः ।। (८) ततो गुणश्रेणिः संख्येषगुणा। देशविरतस्य गुणश्रणिनिक्षेपः र्वतः संख्येयगुणः । (६) ततो जघन्यावाधा संख्येयगुणा। एकान्तवृद्धिदेशसंयमस्य चरमस्थितिवन्धस्याऽनाधाकालः पूर्वतः संख्यातगुणः । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] उपशमनाकरणम् [गाथा -३. (१०) तत उत्कृष्टाबाधा संख्येयगणा ।। अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयस्थितिबन्धस्याऽवाधाकालः पूर्वतः संख्यातगुणाः, कारणं तु प्रथमसम्यक्त्वाऽधिकारगताऽल्पबहुत्ववज्जोयम् । एतेऽनन्तरोक्ताः सर्वेऽपि काला अन्तमुहर्तमात्राः । (११) ततो जघन्य स्थितिखण्डमसंख्येयगुणम् । एकान्तवृद्धिदेशसंयतस्य चरमस्थितिखण्डं पूर्वतोऽगंख्येयगुणमित्यर्थः । अबाधाकालस्याऽन्तमुहर्तमात्रत्वेन चरमस्थितिखण्डस्य च पल्योपमसंख्ये पभागप्रमाणत्वेन पूर्वतोऽसंख्येयगुणत्वम् , यतोऽन्तमुहर्ततोऽसंख्येयगुणः पल्योपमसंख्येयतमभागप्रमाणकालः । (१२) ततोऽपूर्वकरणस्य प्रथमं जघन्यस्थितिखण्डं सख्येयगुणम् । अपूर्वकरणस्य प्रथमजघन्यस्थितिखण्डमपि पल्योपम संख्येय भागमात्रं किन्तु पूर्वतः संख्येयगुणं बृहत्तरम् । (१३) ततः पल्पोपमं संख्येयगुणम् । पूर्वपदस्य पल्योपमसंख्येयभागमात्रत्वात् । (१५) तत उत्कृष्ट स्थितिखण्डं संख्येयगुणम् । उत्कृष्टस्थितिखण्डस्य सागरोपमपृथक्त्वमात्रत्वेन पूर्वतः संख्येयगुणन्त्रम् । (१५) ततो जघन्यस्थितिबन्धः संख्येयगुणः । एकान्तवृद्धिदेशसंयतस्य चरमसमयभाविजघन्यस्थितिबन्धः पूर्वतः संख्येयगुणः : (१६) तत उत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुण । अपूर्वकग्णस्य प्रथमममयभाव्युत्कृष्टस्थितिबन्धः पूर्वतः संख्येय गुणो भवति । (१७) ततो जघन्यं स्थितिसत्कर्म संख्येयगणम् । एकान्तवृद्धिदेशसंयत्तस्य चरमसमये जघन्यस्थितिमत्कर्म प्राप्यते, तच्न पूर्वतः संग्ग्ये यगुणम् । (१८) तत उत्कृष्टं स्थितिसत्कर्म संख्येयगुणम् अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयवर्तिजन्तुनोत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्यते, तच्च पूर्वतः संख्येयगुणम् । उक्तं च कषायभूतचूणौ---- "नदो एदिस्से पझवणाए सम्मत्ताए संजमासंजमपडिवज्जमाणगस्स पढमअपुव्वकरणादो जाव संजदासंजदी पयंताणवडोए चरित्ताचरित्तलडीए वद्धृदि, एदम्हि काले हिदिबंधहिदिसंतकम्मट्टिदिग्वं डया जहपणकस्सयाणमाबाहाणं जहण्णकस्सियाणमुक्कीरणहाणं जहण्णकसियाणं अण्णसिं पदाणमप्पाबहु वत्तहस्सामो त जहा-- Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपबहाव स्वामित्वञ्च ! देशविरते रधिकार. (१) सव्वयोवा जहणिया अणभागखंडय रक्कीरणद्वा । (२) उक्कसिया अण भागवण्डयउकीरणहा विसेसाहिया । {३) जहणिया विदिखण्डयरकीरणडा जहणिया. हिदिबंधगडा च दावि तुल्लाओ संग्वेज्जगुणाओ। (४) उक्कस्सियाओ विसेसाहियाओ । (५) पढमसमयसंजदासंजदपहुडि जं एगताणुवदीए वडदि चरित्नाचरिन पज्जतपहिं एसो वड्डि कालो संग्वजगुणो । (६) अपुवकरणहा संग्वजगणा । ७) जहणिया संजमासंजमहा सम्मत्तडा मिच्छत्तडा संजमहा असंज. महा संम्मामिच्छत्तडा च एदाओ छप्पि अद्धाओ तुल्लाओ संग्वेज गुणाओ। (८) गणसेढी संग्वजगुणा । (६) जहणिया अथाहा संखेजगणा । १०) उक्कम्सिया अवाहा संग्वेजगणा । (११) जहण यं द्विदिवंडयां असंग्वेजगणं । { १२) अपुवकरणस्स पढम जहण्ण यं हिदिग्वंडयं संग्वजगणं । (१३) पलिदोवमं संग्वजगणं । (१४) उक्कस्सियं हिदिखण्डय संग्वेजगणं । (१५) जहण्णओ हिदिबंधो संग्वज गणो । (१६) उक्कोसओ हिदिबंधो संग्वजगणो। (१७) जहणणयं हिदिसंतकम्मं संग्वजगणं । (१८) उक्कस्सय हिदिसंतकम्मं संग्वेजगणं ।" इति । २ अथ स्वामित्वरुपणासंयतासंयतलब्ध्याख्यदेशविग्तेः स्वामी संज्ञी पञ्चेन्द्रियस्तियङ् मनुष्यो वा भवति । तत्र जघन्यमयतासंयतलब्धिरल्पा । तत उन्कृष्टमंयताऽसंयतलब्धिरनन्तगुणा । गुणकारश्च सर्वजीवगुणिताऽनन्तराशिप्रमाणः । संयमाऽसंयमयोग्योत्कृष्ट संक्लेशं प्राप्याऽनन्तरसमये मिथ्यात्वं गमिप्यतो मनुष्यस्य जघन्या संयताऽसंयतलब्धिर्भवति । तथाऽनन्तरसमये सर्वविरतिं प्रतिपत्स्यमानम्य देशविरतस्य मनुष्यम्योत्कृष्टा संयताऽसंयतलब्धिर्भवति । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३. (३) स्थानम्-चारित्रमोहनीयक्षयोपशमजनितपरिणतिविशेषः संयमासंयमलब्धिरुच्यते । तस्याश्च जघन्यमध्यमोत्कृष्ट भेददर्शनात् स्थानानि प्राप्यन्ने । तत्र सर्वजघन्यसंयमासंयमलन्धिस्थानकेऽनन्तानि स्पर्द्धकानि, . ततो द्वितीये संयमासंयमलब्धिस्थानकेऽनन्ततमभागेनाधिकानि स्पर्धकानि, ततस्तृतीयस्मिन् संयमासंयमलब्धिस्थानेऽनन्तभागेनाधिकानि स्पर्धकानि भवन्ति, ततश्चतुर्थे संयमासंयमलब्धिस्थानेऽनन्तमागेनाधिकानि स्पर्धकानि भवन्ति । एवमङ्गुलाऽसंख्येयभागमात्रेषु स्थानेषु गतेष्वसंख्येयभागाधिकैः स्पर्धकैरधिकं स्थानं भवति, ततः पुनरप्यनन्तभागोत्तरक्रमेण कण्डकस्थानानि वक्तव्यानि । कण्डकं चात्रांऽगुलाऽसंख्येयभागमानं बोद्धव्यम् । • प्रत्रानन्तानि स्पर्धकानीत्युक्ते जघन्यसंयमासंयमलब्धिस्थानं सर्वजीवाऽनन्तगुणाविभागपरिच्छेदैनिष्पन्नम् । एते चाऽनंताऽविभागपरिच्छेदा अनन्तानि स्पर्धकानीति व्यवह्रियते, स्पर्धकशब्दस्या. ऽविमागपरिच्छेदवाचकत्वेन विवक्षितत्वात् । प्रथमसंयमासंयमलब्धिस्थानतोऽनन्तभागाधिकरविभागपरिच्छेदैद्वितीयं लब्धिस्थानं सम्पद्यते । एवंक्रमेण षट्स्थानपतितान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि संयमासंयमलब्धिस्थानानि वक्तव्यानि । प्रथवा काय कारणोपचार इति न्यायेन जघन्यसंयमासंयमलब्धिस्थानरूपे कार्ये कारणस्यानम्ताऽनुभागस्पर्धकोदयलक्षणस्योपचाराजघन्यलब्धिस्थानेऽनन्तस्पर्धकान्युच्यन्ते। जघन्यसंयमासंयमल ब्धिस्थानोत्पत्तिहेतुभूतकषायोदयस्थानकतो द्वितीयसयमासंयमलब्धिस्थाननिमित्तं कषायोदयस्थानमनन्तस्पर्धींनं भवति. तानि च सकलानभाग त्राणि भवन्ति । एवमनन्तस्पर्धकहींनकषायोदयस्थानेनोत्पद्यमानं द्वितीयसंयमासंयमलब्धिस्थानं जघन्यसंघमासंयमलब्धिस्थानतः नदनन्तभागमात्रैरनन्तस्पधंकरधिक भवति, अनुभागस्पर्धकहान्या समुत्पद्यमान कार्यस्याऽप्युपचारबलेनाऽधिकत्वव्यवहारात्। एवंक्रमेण षस्थानपतितान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि संयमाऽसंयमलब्धिस्थानानि भवन्ति । इति मन्यन्ते जयधवलाकाराः । अक्षराणित्वेवम् “एदेण सुत्तेण प्रसंखेज्जलोगमेत्ताणं संजमासंजमलडिट्टाणाणं जं जहण्णद्वाणं तस्स सरूवणिद्देसो को त्ति दटुव्वो । तं कथं ? एद जहण्णट्ठाणमणंतेहि अविभागपडिछेदेहि सव्वजीवेहिं प्रणंतगुणमेत्तेहिं णिप्फण्णं, एदे चेव अणंता अविभागपडिछेदा अणंताणि फड्डयाणि ति भणंते, फड्डयसहस्साविभागपलि. च्छेदवाचित्रण इह विवक्खियत्तादो। तदो अणंताणि फड्डपाणि । एव विहाविभागपलिच्छेरसरूवाणि घेत्तुणेदं जहण्णलद्धिट्ठाण होदि त्ति मणिदं 'सुत्तयारेण' । अहवाएद जहग्णयं द्धिट्राणं मिच्छत्तं पडिवादाहिमुहसंजदासंजदचरिमसमए प्रणंताणं कस याणुभागफड्डयाणमुदएण जणिदमिति कज्जे कारणोवयारेण अगंताणि फड्डयाणि ति भण्णदे अण्णहा तस्स सरूवणिरुवणोवायाभावादो। .. पुग्विल्लजहण्णलद्धिट्ठाणं सव्वजीवरासिमेत्तं (त्त) भागहारेण खडिय तत्थेयखंडे तम्मि चेव पडिरासोकयम्मि पक्खित्ते विदिय लद्धिट्टाणमणंतमागुत्तरं होदूण समुप्पज्ज दि ति मणिद होइ । अथवा जहण्णलट्ठिाणुप्पत्तिरिणबंधणकसायुदयट्ठारणादो बिदियलट्ठिाणप्पत्ति निबंधणं कसायुदयहाणमतेहि फड्डएहिं हीणं होइ । एदाणि च होणफड्डयाणि सयलाणुभागट्ठाणस्स अणंतमागमेत्ताणि सव्वजोवरासिणा जहण्णद्वाणम्मि खंडिदे तत्थेय. खंडपमाणत्तादो । एवं च प्रणंतेसु अणुमागफड्डएसु होणेसु तत्तो समुप्पज्जमाणविदियल डिट्ठाणं पि जहण्णलद्धिट्ठाणादो प्रगतेहिं फड्डएहिं अभहियं होदूरण समुपज्जदि होणाणुभागफड्डएहिं तत्तो समुपज्जमाणकज्जस्स वि उवयारेण तव्ववएसाविरोहादो । एसो प्रत्थो वरि सव्वत्थ जोजेयव्यो'। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ st देशविरतेरधिकार: [ १ स्थानप्ररूपणा ] ततोऽसंख्येय भागमात्र स्पर्धकैरधिकमेकं स्थानं वाच्यम्, एवमनन्तभागवृद्धकण्डक व्यवहितान्यसंख्येयमागाधिकानि स्थानानि तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्राणि स्थानानि गतानि भवन्ति, ततः परमनन्तभागकण्डकं व्यतीत्यैकं संख्येयभागाधिकं स्थानं द्रष्टव्यम् । ततः परतो मूलादारभ्य यावन्ति स्थानानि व्यतिक्रान्तानि तावन्त्यतिक्रम्य द्वितीयं संख्येयभागाधिकं स्थानं वक्तव्यम् । तान्यपि संख्येय मागाधिकानि स्थानान्युपदर्शितप्रकारेण तावद्वाच्यानि यावत्कण्डकमात्रस्थानानि गतानि भवन्ति । एवं पूर्वपरिपाट्या संख्येयगुणाधिकान्यसंख्येयगुणवृद्धान्यनन्तगुणवृद्वानि स्थानानि कण्डकमात्रण्यभिधातव्यानि । इदं चैकं पदस्थानम् अनेन षट्स्थानक्रमेण पतितान्य संख्ये यलोकाकाशप्रदेशराशिमात्राणि संयमासंयमलब्धिस्थानानि भवन्ति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो “एतो संजदासंजदस्स लडिद्वाणाणि वत्तइस्सामो, तं जहां जहवयं लडिद्वाणमनाणि फड्डुयाणि । तदों विदियलब्धिठ्ठाणमणंतभागुत्तरं । एवं लहाणपदिदल हिट्ठाणाणि असंखेज्जा लोगा" इति । एतानि संयमासंयमलब्धिस्थानानि त्रिविधानि । तद्यथा (१) कानिचित्प्रतिपातस्थानि (२) कतिचित्प्रतिपद्यमानस्थानानि (३) कियन्तिचिदप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानानि । तत्र प्रत्येकं मनुष्यतिर्यञ्चाववधिकृत्य द्विधेति षड्विधानि, तत्राऽपि जघन्योत्कृष्टभेदाद् द्वादशविधानि संयतासंयतलब्धिस्थानानि प्राप्यन्ते । (१) प्रतिपातस्थानम् - अनन्तरसमये संयताऽसंयतलब्धितः प्रपतता जन्तुना देशविरतेश्वरमसमये प्राप्यमाणं लब्धिस्थानम् । (२) प्रतिपद्यमानस्थानम् - देशविरति प्रतिपद्यमानेन जन्तुना तत्प्रतिपत्तिप्रथमसमये प्राप्यमाणं संयताऽसंयतलब्धिस्थानम् । (३) अप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानम् - देशविरतेः प्रथमसमयं चरमसमयं च वर्ज - यित्वा शेषसमयेषु प्राप्यमाणानि संयमासंयमलब्धिस्थानान्यप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानान्युच्यन्ते, तथा चाऽनन्तरसमये सर्वविरतिं प्रतिपत्स्यमानस्य देशविरतस्य चरमसमये संयमाऽसंयमलब्धिस्थानमप्यप्रतिपाताऽप्रतिद्यमानस्थानमुच्यते । तत्राल्पबहुत्वम् (१) प्रतिपातस्थानानि सर्वतः स्तोकानि । . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ! उपशमनाकरणम [ गाथा-३० (२) ततः प्रतिपद्यमानस्थानान्यसंख्येयगुणानि । (३) ततोऽप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानान्यसंख्यातगुणानि । (४) तीव्रमन्दताप्ररुपणा-अथ तीव्रतामन्दतेऽधिकृत्याऽल्पबहुत्वमुच्यते(१) तत्र देशविरतस्य मनुष्यस्य जघन्य प्रतिपातस्थानमल्पम् । सर्वसंक्लिष्टस्य मनुष्यस्य देशविरतेश्वरमसमये तदनन्तरसमये मिथ्यात्वं प्रतिपत्स्यमानस्य संभवज्जघन्यप्रतिपातस्थानम् । तच्च सर्वमन्दलब्धिम्थानम् । (२ ततो देशविरतस्य तिरश्च जघन्यं प्रतिपातस्थानमनन्तगणम् । मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य संक्लिष्टस्य देशविरतस्य तिरश्वो देशविरतिचरमसमये घटमानं जघन्यं प्रतिपातस्थानं भवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणम् । (३) ततो देशविरतस्य तिरश्च उत्कृष्टं प्रतिपातस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतस्य मनुष्यस्य तत्प्रायोग्यसंक्लिष्टस्याऽनन्तर समयेऽविस्तसम्यक्त्वगुणस्थानकं गमिप्यतो देशविरतिकालचरमसमये संभवदुत्कृष्टं प्रतिपातस्थानं भवति. तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणम् । (५) ततो मनुष्यस्य जघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगणम् । देशसंयतस्य मनुष्यस्य मिथ्यात्वगुणस्थानकतः सम्यक्त्वेन सह देशविरतिं प्रतिपद्यमानस्य तत्प्रथमसमये संभवजघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानं भवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं भवति । (६) ततस्तिरश्चो जघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतस्य तिरथो मिथ्यात्वतः मम्यक्त्वदेशसंयमौ युगपदभिगच्छतस्तत्प्रथमसमये घटमानं जघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानं भवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं वर्तते । (७) ततस्तिरश्च उत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतस्य तिरश्वोऽविरतसम्यक्त्वगुणस्थानकतो देशविरतिं प्राप्नुवतस्तत्प्रथमसमये संभवदुत्कृष्टं प्रतिपद्यमानस्थानं भवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं विद्यते । (८) ततो मनुष्यस्योत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतस्य मनुष्यस्याऽविरतसम्यक्त्वतो देशविरति लभमानम्य तत्प्रथमसमये घटमानमुत्कृष्टं प्रतिपद्यमानस्थानं संभवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं भवति । (९) ततो मनुष्यस्य जघन्यमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतस्य मनुष्यस्य मिथ्यात्वतः सम्यक्त्वेन सह देशविरतिं प्रतिपन्नस्य तद्वितीयसमये घटमानं जघन्यमप्रतिपाताप्रतिपद्यमानस्थानं भवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणमस्ति । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्धिस्थानानि ] देशविरतेरधिकारः (१०) ततस्तिरश्वो जघन्यमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतस्य तिर्यग्जीवस्य प्रथमगुणस्थानतः सम्यक्त्वदेशविरती युगपदधिगतस्य देशविरतिप्रतिपत्तेद्वितीयसमये घटमानं जघन्यमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानं संभवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं वाच्यम् । यतो मनुष्यस्य जघन्याऽनुभागस्थानतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणषट्स्थानपतितानि स्थानान्युऽल्लङ्घ्य तिश्चो जघन्यस्थानमायाति । (११) ततस्तिरश्च उत्कृष्टमातिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । देशविरतम्य तिर्यग्जीवस्याऽवितसम्यक्त्वतो देशविरति प्रतिपन्नस्य स्वयोग्यसर्वोत्कृष्टविशुद्धिविशिष्टम्य या देशविरतिप्राप्तः प्रभृत्यन्तमुहर्तपर्यन्तं पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमय एकान्ताऽनन्तगुणा वृद्धिर्भवति, तस्वरमसमये घटमानमुत्कृष्टमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानं संभवति, यद्वा स्वस्थानतीवविशुद्धस्यानन्तानुवन्धिवियोजकस्य करणत्रयाय तीव्रविशुद्धौ वर्तमानस्य । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणम् , पूर्वतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणस्थानान्यतिक्रम्य प्राप्यमाणत्वात् । (१२) ततो मनुष्यस्योत्कृत्टाऽप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणम् । सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिविशिष्टस्य देशविरतस्य सर्वविरत्यभिमुखस्य चरमसमयेऽपूर्द करणचरमसमये संभवदुत्कृष्टमप्रतिपाताऽप्रतिमद्यमानस्थानं भवति । तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणं भवति । उक्तश्च कषायप्राभृतचूणौं- (१) "सव्वमंदाणुभागं जहण्णं संजमासंजमस्स लडिट्ठाणं मणुसस्स पडिवदमाणस्स जहणणयं लडिट्ठाणं तत्तियं चेव । (२) तिरिक्खजोणियस्स पडिवदमाणयस्स जहण्णयं लडिट्ठाणमणंतगुणं । (३) तिरिक्खजोणियस्स पडिवदमाणस्स उक्कस्सयं लडिट्ठाणमणंतगुणं । (४) मणुससंजदासंजदस्स पडिवदमाणगस्स उक्कस्सयं लडिट्ठाणमणंतगुणं । (५) मणसस्स पडिवजमाणगस्स जहणणयं लडिठ्ठाणमणंतगुणं । (६) तिरिक्खजोणियस्स पडिवज्जमाणस्स जहण्णयं लडिट्ठाणमणंतगुणं । (७) तिरिक्खजोणियस्स पडिवज्जमाणस्स उक्कस्सयं लडिहाणमणतगुणं । (८) मणसस्स पडिवज्जमाणस्स उक्कस्सयं लडिट्ठाणमणंतगुणं । (६) मणुसस्स अपडिवज्जमाणअपडिवदमाणस्स जहण्णयं लडिट्ठाण मणंतगुणं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा ३० (१०) तिरिक्खजोणियस्स अपडिवज्जमाणअपडिवदमाणस्स जहणणयं लडि. हाणमणंतगुणं। (११) तिरिक्खजोणियस्स अपडिवज्जमाणअपरिषदमाणस्स उक्कासयं लद्धि. ठाणमणंतगुणं । (१२) मणुसस्स अपडिवज्जमाणअपडिवदमाणस्स उकस्सयं लडिट्ठाणमणंतगुणं। स्थापना-उपयुक्ततीव्रतामन्दतेऽवलम्ब्य संयताऽसंयतलब्धिस्थानानामत्र स्थापना प्रदर्श्यते । केवलं मनुष्यस्य मनुष्यतिरश्चोः केवलं मनुष्यस्य अन्तरालगतानि प्रतिपातस्थानानि .... .... प्रतिपद्यमानस्थानानि ................. .......... ........... प्रतिपाताप्रतिपद्यमानस्थानानि ............ .......................... ___ अथ विवर्ण्यते स्थापना-देशविरतिगुणस्थानकस्य जघन्यसंयताऽसंयतलब्धिस्थानादारभ्योत्कृष्टसंयतासंयतलब्धिस्थानपर्यन्तान्यसंख्येयलोकाका'शप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि लब्धिस्थानानि स्थापवितव्यानि । तत्र प्रथमलब्धिस्थानात्प्रभृति षटम्थानपतितवृद्धिक्रमेणाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणलब्धिस्थानपर्यन्त विद्यमानानि लब्धिस्थानानि प्रतिपातस्थानानि भवन्ति । तेभ्यः किमपि लब्धिस्थानं देशविरतिं प्राप्नुवतो जन्तोनं भवति, अपि तु देशविरतितः प्रतिपतता देशविरतेन जन्तुना देशविरतिचरमसमये तेष्वेकतमस्थानं प्राप्यते । तत ऊर्यमसंख्येलोकाकाशप्रदेशप्रमाणमन्तरं भवति । अन्तरगतं किमपि स्थानं कस्यचिज्जीवस्य न भवति । टिप्पणम्-लब्धिसारे तु जघन्योत्कृष्टसंयताऽसंयतलब्धिस्थानेष्वयं विशेषो दशितः । तथा च "मनुष्यजघन्यप्रतिपातस्थानादारभ्य तिर्यग्जीवस्याऽनुत्कृष्टप्रतिपातस्थानपर्यन्तं संभवन्ति, प्रतिपातस्थानानि मिथ्यात्वाऽभिमुखस्यैव देशसंयतकालचरमसमये द्रष्टव्यानि, तिर्यगृत्कृष्ट प्रतिपातस्थानादारभ्य मनुष्योत्कृष्टप्रतिपातस्थानपर्यन्तं सन्ति । प्रतिपातस्थानान्यसंयतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्थ स्वकालचरमसमये घटन्त इत्यर्थविशेषो ग्राह्यः । " अयं प्रतिपातस्थानेषु विशेषो दर्शितः। संप्रति प्रतिपद्यस्थानेषु विशेषः समृद्धत्यते । मनुष्यजघन्यप्रतिपद्यस्थानात्प्रभृति तिर्यगनुत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानपर्यन्तं संभवन्ति, प्रतिपद्यमानस्थानानि मिथ्याष्टिचरस्येति ग्राह्यम् । तिर्यगुत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थानादारभ्य मनुष्योत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानपर्यन्तं विद्यमानानि स्थानान्यसंयतसम्यग्दृष्टिचरस्य भवन्तीति ज्ञातव्यम् । तथा चाऽप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानेष्वयं विशेषोऽभिहितः, तद्यथा "मनुष्यजघन्याऽनुभयस्थादारभ्य तियंगुत्कृष्टाऽनुभयस्थानपर्यन्तं संभवन्ति स्थानानि मिथ्यादृष्टिचरस्येति ग्राह्यम् । तियंगुत्कृष्टाऽनुभयस्थानादारभ्य मनुष्योत्कृष्टाऽनुभयस्थानपर्यन्तं दृश्यमानानि स्थानान्यसंयतसम्यग्दृष्टिचरस्येति संभावनीयम ।" इति । तद्ग्रन्थः। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و अव्यवसायस्थापनावर्णनम् ] देशविरतेरधिकार: [ ६५ ततः परमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि प्रतिपद्यमानानि स्थानानि देशविरतिं च प्रतिपद्यमानस्यैतानि भवन्ति, देशसंयमप्रथमसमय एतेष्वन्यतमद्भवति । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि लब्धिस्थानान्यन्तरयित्वाऽसंख्ये यलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानानि भवन्ति, एतानि च देशविरतिप्राप्तेर्द्वितीयसमयात् प्रभृति सर्वविरतिं प्रतिपत्स्यमानस्य देशविरतिचरमसमयं यावत् तथा देशविरतितो निवर्त्स्यतस्तु देशविरतस्याऽऽद्विचरमसमयं भवन्ति । तथैव सर्वविरतितः प्रश्च्युत्य देशविरतिं प्रतिपद्यमानस्याऽध्यप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानं संभवति । एतेषु त्रिविधेषु लब्धिस्थानेषु जघन्यलब्धिस्थानादारभ्याऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि लब्धिस्थानानि मनुष्यस्यैव भवन्ति ततस्तिरो जघन्यं प्रतिपातलब्धिस्थानम्, ततः परमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रदेशप्रमाणानि नरतिर्यग्जीव साधारणानि षट्स्थानपतितानि प्राप्यन्ते । तत ऊर्ध्वं मनुष्यस्याऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पद्स्थानपतितानि देशसंयमलब्धिस्थानानि गत्वा मनुष्यस्योत्कृष्टलब्धिस्थानं प्राप्यते । तथाहि - देशसंयमस्य सर्वजघन्यं प्रतिपातस्थानं मनुष्ये भवति । ततः परमसंख्येयलोकाकाशमात्राणि षट्स्थानपतितानि प्रतिपातस्थानानि केवलं मनुष्यस्य, तत ऊर्ध्वं तिरश्वो जघन्यं प्रतिपातस्थानम्, यतो मनुष्यस्य जघन्यप्रतिपातस्थानात् तिरवो जघन्यप्रतिपातस्थानमनन्तगुणवृद्धं प्राप्यते, एवं सर्वत्रोहनीयम् । तच्व मनुष्यस्य तु मध्यमं संभवति, ततः परमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पट्स्थानपतितानि प्रतिपातस्थानानि नरतिर्यग्जीवयोरुभययोः संभवन्ति, तत ऊर्ध्वं तिरबोत्कृष्टलब्धिस्थानम् । तच्च मनुष्यस्य मध्यमं भवति । ततः परं मनुष्यस्याऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि प्रतिपतिस्थानानि प्राप्यन्ते । ततो मनुष्यस्योत्कृष्टप्रतिपातस्थानात्परमसंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि लब्धिस्थानानि तत्परिणामयोग्यस्वाम्यभावेनाऽन्तरयित्वा मनुष्यस्य जघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते, यतो मनुष्यस्योत्कृष्टप्रतिपातस्थानतो मनुष्यम्य जघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानमनन्तगुणवृद्धम्, एवं सर्वत्रोहनीयम् । ततः परमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि लब्धिस्थानानि मनुष्यस्यैव संभवन्ति । तत ऊर्ध्वं मनुष्यस्य मध्यमत्वेऽपि तिरथो जघन्यं प्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते । ततः परं मनुष्य तिर्यग्जीवशेः साधारणान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि लब्धिस्थानानि वक्तव्यानि । ततः परं तिरश्च उत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते तच्च मनुष्यस्य मध्यमं संभवति । तत ऊर्ध्वमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि मनुष्यस्यैव प्रतिपद्यमान स्थानानि नेतव्यानि ततो मनुष्यस्योत्कृष्टप्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते, ततोऽसंख्येय Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गाथा ३० लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पट्स्थानपतितानि तत्परिणामयोग्य स्वामीनाम मावेनाऽन्तरयित्वा मनुस्यस्य जघन्यमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते, यतो मनुष्यस्योत्कृष्ट प्रतिपद्यमानस्थानात् तज्जघन्यमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानमनन्तगुणवृद्धम् । ततः परमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान षट्स्थानपतितानि लब्धिस्थानान्यतिक्रम्य तिरश्वो जघन्यमप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते । तच्च मनुष्यस्य मध्यमं संभवति । तत ऊर्ध्वं मनुष्यतिरश्चोः साधारणान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितान्यप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानान्युल्लङ्घ्य तिरश्व उत्कृष्टमप्रतिपाताप्रतिपद्यमानस्थानं प्राप्यते । तच्च मनुष्यस्य मध्यमं संभवति । ततः परं मनुष्यस्य सर्वाण्येवाप्रतिपाताऽप्रतिपद्यमानस्थानानि षट्स्थानपतितानि वक्तव्यानि । ६ ] उपशमनाकरणम् संप्रति नवभिर्द्वारे देशविरतः प्ररूप्यते तद्यथा- (१) सत्पदम् (२) द्रव्यम् (३) क्षेत्रम् (४) स्पर्शना ( ५ ) काल : ( ६ ) अन्तरम (७) भागः (८) भाव: (२) अल्पबहुत्वम् । (१) सत्पदप्ररूपणा - ननु किं जगति देशविरतस्य सत्ताऽस्ति ? अस्ति । १ (२) द्रव्यम् - विश्वे देशविरताः कतिपया जीवाः १ देशविरता जीवभेदेन द्विधा (१) पर्या तगर्भज मनुष्याः ( २ ) पर्याप्त गर्भजतिर्यञ्चः । तत्र देशविरता मनुष्याः संख्ये यराशिप्रमाणाः, तिर्यग्जीवाश्च देशविरताः क्षेत्रपल्योपमाऽसंख्येयतमभागप्रदेशराशिप्रमाणा भवन्ति । (३) क्षेत्रम् - क्षेत्रतो देशविरता मनुष्याः स्वस्थानतः सार्धद्वयद्वीप एव भवन्ति, तिर्य-ञ्चश्च देशविंग्ता स्वस्थानतः लोकत्रये सन्ति, तत्राप्यूर्ध्व देशैकदेशे पाण्डकवनादौ, अधोलोकैकदेशमागे समुद्राद, अबोलौकिकग्रामे च । (४) स्पर्श - देशविरताना स्पर्शना पडुरज्जुप्रमाणा मरणसमुद्घाताऽपेक्षया तेषामच्युतपर्यन्तगमनात् । (५) कालः - एकजीवमनुलक्ष्य देशविरतेर्जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टतस्तु देशोन पूर्वकोटिवर्पप्रमाणः कालः । अनेकजीवमाश्रित्य देशविरता सर्वदा मवन्ति । (६) अन्तरम् - एकजीवमाश्रित्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतो देशोनार्धपुद्गलपरावर्तकालप्रमाणम् अनेकजीवमवलम्ब्याऽन्तरं न भवति । (७) मागः - देशविरता जीवाः सर्वजीवर शेरनन्ततमभागप्रमाणाः । (८) भावः - देशविरतेर्भावस्तुक्षायोपशमिकः । (९) अल्पबहुत्वम् - देशविरता मनुष्या अल्पाः, ततो देशविरतास्तिर्यञ्चोऽसंख्येयगुणाः । ननु देशविरतिलब्धिरौदयिकमात्र उत क्षायोपशमिकभावे ? उच्यते - क्षायोपशमिकभावे, कथमिति चेद् ? उच्यते, देशविरतस्याऽप्रत्याख्यानावरणस्योदयो न भवतीति कृत्वौदयिकभावे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम! सर्वविरतेरधिकारः [१७ नोच्यते, न च देशविरतस्य प्रत्याख्यानावरणस्योदयादौदयिकमाव इति वाच्यम् , यतः प्रत्यारूपानावरणमुदयमानमपि देशविरति किश्चिदपि नाऽवष्टम्नाति, तत्त सर्वविरतिम् । ननु शायिकभावे कथं नोद्यते, यतोऽप्रत्याख्यानावरणस्योदयाऽभावः प्रत्याख्यानावारणस्योदयेऽपि नम्य देशविरतिघातित्वं नास्तीति चेद् ? उच्यते, देशविरतिलब्धिर्न क्षायिकभावे, यतः प्रत्याख्यानावरणं वेदयन् संज्वलनचतुष्कनवनोकपायानपि वेदयति, प्रत्याख्यानावरणं देशविरति किश्चिदावृणोति शेषाश्चोदयगताः संज्वलनचतुष्कनवनोकषायलक्षणत्रयोदशप्रकृतयो देशविरतिं देशघातिनी कुर्वन्ति, क्षायोपशमिकां करोतीत्यर्थः, इति त्रयोदशप्रकृतीनां देशघातिस्पर्धकानां विपाकन उदयादप्रत्याख्यानावरणस्य प्रदेशत उदयाच्च क्षायोपशमिकभावे देशविरतिलब्धिरुच्यते । उक्तं च कषायप्राभृतौँ -संजदासंजदो अपच्चक्खाणकथाए ण वेदयदि पच्चक्खाणावरणीया वि संजमामोजमस्स किंचि आवरेंति । सेसा च दुकषायाणवनोकसायवेदणोयाणि च उदिण्णाणि देशघादि करेंति संजमासंजमं । जइ पच्च. क्खाणावरणीयं वेदंतो सेसाणि 'वरित्तमोहणीयाणि ण वेदज्ज, तदो संजमासंज. मलडी खइया होज्जा ? एक्कण वि उदिण्णण खओवसमलडी भवदि । ___ अथ सर्वविरतावमृभिः पञ्चभिरविशेषोऽभिगद्यते । तद्यथा- (१) अल्पवहुत्वम् । (२) म्वामित्वप्ररूपणा (३) स्थानप्ररूपणा (४) तीव्रतामन्दताप्ररूपणा (५) स्थापना । अल्पबहुन्वम्-अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य कान्तवृद्धसर्वसंयतस्य चरमसमयपर्यन्तं जघन्याऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालादीनामष्टादशपदानामल्पबहुत्वमत्राऽपि । देशसंयतवज्ज्ञातव्यम् । अयं तु विशेषः-देशसंयतस्थाने सर्वसंयत इति वक्तव्यम् , उक्तश्च कवायमाभतचूर्णी (१) सव्वत्थोवा जहणिया अणभागखंडयउकिरणडा। (२) सा चेव उक्नसिया विसेसाहिया। (३) जहाणया हिदिखंडयउकोरणडा हिदिबंधगडा च दो वि तुल्लाओं संग्वेजगुणाडिदिखंडयउक्कोरणडाओ। (४) तेसिं चेव उक्कसिया विसेसाहिया। (५) पढमसमयसंजमादि कादूण जं कालमेयंताणुवड्ढोए वड्ढदि । एसा अडा संग्वेज्जगुणा । (६) अपुव्वकरणडा संखेज्जगुणा । (७) जहपिण या संजमडा संखेज्जगुणा । (८) गुणसे दिणिक्वेवो संखेज्जगणो । (8) जहणिया आवाहा सांखेज्जगणा । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा ३० (१०) उक्कसिया आवाहा संखेज्जगणा । (११) जहण्णयं हिदिखंडयमसंखेज्जगणं । (१२) अपूव्वकरणस्स पढमसमए जहण्णहिदिरखंडयं संखेज्जगुणं । (१३) पलिदोवमं संखेज्जगुणं । (१४) पढमस्स हिदिखंडयस्स विसेसो सागरीवमपुधत्तं संखेज्जगणं । (१५) जहण्णओ हिदिबंधो सखेज्जगुणो । (१६) उक्कसओ हिदिवधो संग्वेज्जगुणो । (१७) जहण्णयं हिरिसंतकम्मं संखेजगणं । (१८। उक्कसयं द्विदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । (२) स्वामित्वप्ररूपणा-संयतलब्धेः म्वामी संजी पञ्चेन्द्रियपर्याप्तः संख्यातवर्षायुष्को मनुष्यः । (२) स्थानप्ररूपणा-प्रत्याख्यानावरणीयादिक्षयोपशमजनितः परिणतिविशेषः संयमलब्धिरुच्यते, तस्या जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्संयमस्थानानि प्राप्यन्ते । तत सर्वजघन्यस्थानके सर्वाऽल्पलब्धिके संयमस्थानक इत्यर्थः, सर्वतः स्तोकानि स्पर्धकानि । ततः परं षट्स्थानवृद्धिक्रमेणाऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानानि भवन्ति । तत्र संयमस्थानानि त्रिधा-(१) प्रतिपातस्थानानि (२) उत्पादकस्थानानि (३) लब्धिस्थानानि । (१) प्रतिपातम्थानं नामाऽनन्तरसमये मिथ्यात्वं वाऽविरतसम्यक्त्वं वा देशविरतिं या गमिष्यतः सर्वविरतिचरमसमये यत्संयमस्थानं भवति तत्प्रतिपातस्थानमुच्यते । (२) उत्पादकस्थानं नाम सर्वविरति प्रतिपद्यमानस्य जन्तोस्तत्प्रथमसमये भवति । (३) प्रतिपातस्थानानि, उत्पादकस्थानानि तथोभयव्यतिरिकानि सर्वाणि मिलित्वा संयमस्थानानि लब्धिस्थानान्युच्यन्ते । उक्तञ्च कषायप्राभतचूर्णी-"एतो जाणि हाणाणि ताणि तिविहाणि । तं जहा पडिवादट्ठाणाणि उप्पादट्ठाणाणि लडिहाणाणि । पडिवादहाणं णाम (जहा) जम्हि ठाणे मिकछत्तं वा असंजमसम्मत्तं वा संजमासंजमं वा गच्छइ तं पडिवादहाणं, उप्पादयट्ठाणं गाम जहा जम्हि हाणे संजमं पडिवज्जइ तमुप्पादयहाणं गाम । सव्वाणि चेव चरित्तट्ठाणाणि लट्ठिाणाणि" इति । "संयमस्थानानामन्पषटुत्वम्" । (१) प्रतिपातस्थानानि षट्स्थानपतितान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि सर्वाऽल्पानि । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [EE तीव्रतामन्दते ] सवविरतेरधिकारः (२) तत उत्पादकस्थानानि षट्स्थानपातितान्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राण्यसंख्येयगुणानि । (३) ततो लब्धिस्थानानि षटम्थानपतितान्यमंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राण्यसंख्येयगुणानि । उक्तं च कषायप्रभृतौँ -"एदेखि लडिट्ठाणाणं अप्पाबहुअं तं जहा- (१) सव्वन्योवाणि पडिवादहाणाणि (२) उप्पादयहाणाणि संखेजगुणाणि (३) लडिट्ठा. णाणि असंखेज्जगुणाणि"। (४) तीव्रतामन्दतामरूपणा-(१)मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य सर्वजघन्यं प्रतिपातस्थानमल्पं सर्वाऽल्पलब्धिकमित्यर्थः। तच्च तीनसंक्लिष्टस्य मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य सर्वविरतिचरमसमये भवति । (२) ततो मिथ्यात्वाभिमुखस्योत्कृष्टं प्रतिपातस्थानमनन्तगुणं तच्च मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य तद्योग्यसंक्लिष्टस्य जीवस्य सर्व विरति चरसमये भवति । (३) ततोऽविरतसम्यक्त्वाऽभिः मुखस्य जघन्यं प्रतिपानस्थानमनन्तगुणम् । तच्चाऽविरतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य तद्योग्योत्कृष्टसंक्लिटस्य जीवस्यसविरतिचरमसमये भवति । (४) ततोऽविरतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्योत्कृष्ट प्रतिपातस्थानमनन्तगुणम् । तच्चाऽविरतपम्यक्त्वाऽभिमुखस्य तद्योग्यसंक्लिष्टस्य जीवस्य सर्वविरतिचरमसमये भवति (५) ततो देशविरत्यभिमुखस्य जघन्यं प्रतिपातस्थानमनन्तगुणम् । तच्च देशविरत्यभिमुखस्य तद्योग्योत्कृष्टसंक्लिष्टस्य जीवस्य सर्वेविरतिचरमसमये भवति । (६) ततो देशविरत्यभिमुखस्योत्कृष्टं प्रतिपातस्थानमनन्तगुणम् । तच्च देशविरत्यभिमुखस्य तद्योग्यसंक्लिष्टस्य जीवस्य सर्वविरतिचरमसमये भवति । (७) ततः कर्मभूमिजजन्तोर्जघन्यमुत्पादकम्थानमनन्तगुणम् । तच्चाऽऽयंदेशजस्य मिथ्यादृष्टिचरस्य सर्वविरतस्य मन्दविशुद्धस्य संयमग्रहणे प्रथमसमये संभवति । (८) ततोऽनार्यभूमिजजन्तोर्जघन्यमुत्पादकस्थानमनन्तगुणम् । नच्चाऽनार्यदेशजस्य मिथ्यादृष्टि चरस्य सर्वविरतस्य मन्दविशुद्धस्य संयमग्रहणप्रथमसमये संभवति। न चाऽनार्यदेशे धर्माऽभावेन संयमाऽभावः सिद्धः, संयमाऽभावेन चाऽनार्यदेश उत्पन्नम्योत्पादकस्थानं न संभवतीति वाच्यम् , अनार्यदेशे धर्माऽभावेऽप्यार्यदेश आगतस्याऽनार्यदेशोत्पन्नस्य संयमादिधर्मसंभवादाकुमारादिवत् । (8) ततोऽनार्यभूमिजजन्तोरुत्कृष्टमुत्पादकस्थानमनन्तगुणम् । तच्चाऽनार्यदेशजस्य सर्वविरतस्य तीव्रविशुद्धस्य देशविरतित आगतस्य संयमग्रहणप्रथमसमये संभवति । (१०) ततः कर्मभूमिजजन्तोरुस्कृष्टमुत्पादकस्थानमनन्तगुणम् । तनचाऽऽर्यदेशजस्य सर्वविरतस्य तीव्रविशुद्धस्य देशविरतित आगतस्य संयमग्रहणे प्रथमसमये संभवति । (११) ततः परिहारविशुद्धिजीवस्य जघन्यलब्धिस्थानमनन्तगुणम् । तच्चाऽनन्तरसमये परिहारविशुद्धितः प्रच्योष्यमाणस्य छेदोपस्थापनीयसंयमं गमिष्यतः परिहारविशुद्धिचरमसमये वर्तमानस्य भवति । (१२) ततः सर्वविशुद्ध Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] उपशमनाकरणम् | गाथा ३० परिहारविशुद्धिजीवस्योत्कृष्टलब्धिस्थानमनन्तगुणम् । (१३) ततः मामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमयोरुत्कृष्टं लब्धिस्थानमनन्तगुणम् तच्चाऽनिवृत्तिकरणक्षपकस्य चरमसमये भवति । . मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य सर्वजघन्यस्थानादारभ्य सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोरुत्कृष्टसंयमस्थानपर्यन्तानि सर्वाणि सामायिकच्छेदोपस्थापनीय संयमद्वयसम्बन्धीनीत्यूह्यम । अपि च प्रतिपातस्थानान्युत्पादकस्थानानि च सर्वाणि सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसम्बन्धीन्यैव, यतः सर्वविरति प्रतिपद्यमानस्य तत्प्रथमसमये सर्वविरतितश्च पततोर्जन्तोम्सर्वविरतिचरमसमये सामायिकच्छेदोपस्थापनीय संयमयोरन्यतर एव भवति । तथाहि परिहारविशुद्धितः परिभ्रश्यञ्जन्तुरादों छेदोपस्थापनीयसंयमं स्पृशति, न त्वविरतिं देशविरतिं वा । एवं सूक्ष्मसंपरायतोऽवतरता जन्तुनाऽपि प्रथमं सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमौ प्राप्येते, नाऽविरत्यादिकम् । तथा च यथाख्याततः परिभ्रश्यता जन्तुनाऽपि सूक्ष्मसंपरायस्थानं प्राप्यते, नाऽविरत्यादिकम्, अतः सर्वाणि प्रतिपातस्थानानि सामायिकच्छेदोपस्थापनीय संयमयोर्भवन्ति । न च भवक्षयादुपशमश्रेण्यां मृतः सूक्ष्मसंपरायाद्यथाख्याताद्वाऽविरत्यादिकं स्पृशतीति कथं सूक्ष्मसंपराययथाख्यात चारित्रे प्रतिपातस्थानाभाव इति वाच्यम्, संयमघातिकषायोदयेन गुणस्थानक्षयादेवाऽत्र प्रतिपातस्थानस्य विवक्षितत्वात् । यत्र भवक्षयहेतुकः प्रतिपातः, तत्र यत्प्रतिपातस्थानम्, तदत्र विवक्षितम्, व्रतप्रतिज्ञाया पूर्णत्वेन तद्भङ्गनिमित्तकमंक्लेशाऽमावात् । एवं प्रतिपद्यमानस्थानमपि सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयतयोरेव भवति, यतः सर्वविरति प्रतिपद्यमानो जन्तुः पूर्व सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमयोरन्यतरं संयमं लभते । सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोः सर्वजघन्यं लब्धिस्थानं प्रतिपातस्थानं भवति । यदि संयमग्रहणाऽपेक्षया विचार्यते तार्यदेशोद्भवयोः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयतयोः प्रथमं लब्धिस्थानं जघन्यं प्राप्यते । (१४) ततः सूक्ष्मसंपरायस्य जघन्य संयमस्थानमनन्तगुणम् । उपशमश्रेण्यवरोहणेऽनिवृत्तिकरणाऽभिमुखस्य सूक्ष्म संपरायसंयमस्य जघन्यस्थानं सूक्ष्मसंपरायचरमसमये भवति । (१५) ततः सूक्ष्म संपरायस्योत्कृष्टं संयमस्थानमनन्तगुणम्, सूक्ष्मसंपरायक्षपकचरमसमये प्राप्यते । (१६) ततो यथाख्यातस्याऽजघन्याऽनुत्कृष्टसंयम स्थानमनन्तगुणम्, तच्चोपशान्तकषाय क्षीणकषायमयोगकेवन्ययोग केव लिस्वामिकं भवति, मोहनीयस्य सकलप्रकृतीनां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपाणां सर्वोपशमात्सर्वक्षयाच्च समुद्भूतत्वात्तस्य जघन्यमध्यमोत्कृष्टलक्षणभेदा न सन्तीत्येकमेव लब्धिस्थानम्, तच्च पूर्वतोऽनन्तगुणवृद्धं भवति । उपशमश्रेणिक्षपक Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ أو तीव्रतामन्दते ] सर्व विरतेरधिकार: [ १०१ - श्रेणिविषय केsपि सूक्ष्म संपरायसंयमस्थान यथाख्यातसंयतस्थानेऽत्र प्रसंगतः प्ररूपिते । उक्त कषायप्राभृतचूर्णौ - (१) “ तिव्वमंददाए सव्वमंदाणुभागं मिच्छत्तं गच्छमाणस्स जहण्णयं संजमट्ठाणं (२) तस्सेवुक्करसयं संजमट्ठाणमणंतगुणं (३) असंजदसम्मत्तं गच्छमाणस्स जहण्णयं सजमट्ठाण मणंतगुणं (४) तस्सेवुक्कस्सयं सजमद्वाणमणं नगुणं । (५) संजमा संजमं गच्छ्रमाणस्स जहण्णयं सजमट्ठाणमनगुणं (६) तस्सेबुक्कस्सयं सजमट्ठाणमणंतगुणं (७) कम्मभूमिग्रम्स पडिवज्जमानयस्स जहणणयं संजमामणतगुणं (८) अम्मभूमियरस पडिवज्जमाणयस्स जहण्णयं संजमडाणमणंतगुणं (६) तस्सेवुक्कस्सयं पडिवज्जमाणयस्स संजमट्ठाणमणंतगुणं (१०) कम्म भूमिग्रम्स पडिवज्जमाणयस्स उक्कस्सयं सजमट्ठाणमणंतगुणं ( ११ ) परिहारविशुद्धिसंजदस्स जहणणयं संजमहाणमणंतगुणं (१२) तस्संव उक्कस्यं सजमट्ठामगंतगणं (१३` सामाइगछेदोवहावणियाणमुक्कस्सयं संजमहाणमणंतगुणं” इति । (१४) सूक्ष्मस पराइ सुद्रिसजदस्स जहण्णयं संजमट्ठाणमणंतगुणं । (१५) तस्सेवुक्कसय चरित्तलद्धिद्वाणमणंतगुणं ।" इति । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्रे च तथैव सप्तपदानामल्पबहुत्वमुक्तम्, तथा च तद्ग्रन्थः - 'एएसिं णं भंते ! सामाह पछेदशेवट्ठात्रणिय परिहारविसुद्वियसुहुम संपरायअहक्वायसंजयाण जहन्नुक्कोसगाणं चरित्तपज्जवाणं कमरे कयरे जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! (१) सामाध्यसंजयस्स ओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसि णं जहन्नगा चरित पज्जवा दोह पितुल्ला सव्वधोवा (२) परिहारविसुद्धिय संजयस्स जह गा चरितपज्जवा अनंतगुणा ( ३ ) तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अनंतगुणा ( ४ ) सामाइथसंजयस्स भोवडावणियसजयस्स य एएसि णं उक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोन्ह वि तुल्ला अनंतगुणा (५) सुहुमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरितपज्जवा अनंतगुणा ( ६ ) तम्स चेव उक्कोसगा चरितपजवा अनंतगुणा (७) अहक्वायसंजयस्स अजहन्नम गुक्कोसगा चरितपज्जवा अनंतगुणा" इति । १. क २ अ अं || स्थापना | ५ T ६ अं ७ · .... · ..... ५४ ञ १० ११ ज १३ अं 630 · ... .. ..... ... · .. क - मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य सर्वविरतस्य प्रतिपातस्थानानि । ख= अविरत सम्यक्त्वाऽभि * अत्राकर्मज भूमिशब्देन म्लेच्छोडनार्यभूमिजो ज्ञातव्यः । • ..... छ 3 ख ४ अं • १२ झ ... • ८ ङ SE च १० घ .. · 006 • .... @ १५ अं ट १६ ..... Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] उपशमनाकरणम् [गाथा-३० मुखस्य सर्वविरतस्य प्रतिपातस्थानानि । ग-देशविरत्याभिमुखस्य सर्वविरतस्य प्रतिपातस्थानानि । घकर्मभूमिजसर्वविरतस्योत्पादकस्थानानि । -अनार्यभूमिजसर्वविरतस्योत्पादकस्थानानि कर्मभूमिजस्यापि तान्यविरुद्धानि । चकेवलमायभूमिजस्योत्पादकस्थानानि । छ सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमयोः प्रतिपातोत्पादकव्यतिरिक्तलब्धिस्थानानि । ज-परिहारविशुद्धसंयमस्य लन्धिस्थानानि, तानि सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमयोरपि व्यतिरिक्तलब्धिस्थानानि झ= सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोर्व्यतिरिक्तलान्धस्थानानि -सूक्ष्मसंपरायस्य लब्धिस्थानान्यन्तमुहर्तसत्काऽसंख्येयसमयप्रमाणानि । ट-यथाख्यातस्याऽजघन्यमनुत्कृष्टमेकमेव स्थानम् १०= सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोर्जघन्यं व्यतिरिक्तस्थानम् , मिथ्यात्वाऽभिमुखादीनां प्रथमस्थानं जघन्यमन्त्यं चोत्कृष्टं भवति । अं=अन्तरगतानि स्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । प्रथमाङ्कादारभ्य षोडशतमाङ्कपर्यन्ता अङ्का अल्पबहुत्वगताऽङ्कान् ज्ञापयन्ति । अथ स्थापनाया विवेचनम् -अनन्तरममये मिथ्यात्वं गमिष्यतो जन्तोः सर्वविरतिचरमसमये मनुष्यम्य जघन्यं प्रतिपातस्थानं (१) स्थाप्यने । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पटस्थानपतितान्यतिक्रम्य तस्योत्कृष्टं प्रतिपातम्थानं (२) प्राप्यते । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि स्थानान्यन्तरयित्वाऽविरतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य सर्वविरतस्य जघन्यप्रतिपातस्थानं (३) प्राप्यते, यतो मिथ्यात्वाऽभिमुखस्य सर्वविरतस्योत्कृष्टप्रतिपातस्थानतोऽविरतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य जघन्यं प्रतिपातस्थानमनन्तगुणम् । अत्र यद्यपि मिथ्यात्वाऽभिमुखस्योत्कृष्टस्थानं पट्स्थानकस्याऽनन्तगुणवृद्धतः पूर्ववर्तिस्थानं स्वीकृत्याऽविरतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य जघन्यस्थानकम्याऽनन्तगुणवृद्धस्थानत्वेन प्रतिपद्याऽन्तरेण विनाऽप्युपपत्तिर्भवति, तथाऽपि ग्रन्थाऽन्तरेष्वन्तरस्य प्रतिपादितत्वादत्राप्यन्तरमभिहितम् । एवं यथासंभवं सर्वत्रोहनीयम् । ततोऽसंख्येलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानान्यतिक्रम्याऽविरतसम्यक्त्वाऽभिमुखस्योकृष्टं प्रतिपातस्थानं (४) प्राप्यते । ततः पूर्ववदसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पटम्थानान्यन्तरयित्वादेशविरत्यभिमुखस्य संयतस्य जघन्यं प्रतिपातस्थानं (५) लभ्यते । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि । पटम्थानपतितानि स्थानान्यतिक्रम्य देशविरतम्याऽभिमुखस्योत्कृष्टं प्रतिपातस्थानं (६) प्राप्यते । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षटम्थानान्यन्तरयित्वा मिथ्यात्वत आगतस्य कर्मभूमिजस्य सर्वविरतस्य प्रथमसो जघन्यमुत्पादकस्थानं (७) वक्तव्यम् । ततः प्रभृत्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि स्थानान्यतिक्रम्यऽनार्यभूमिजस्य 5 मिथ्या 9 भूतपूर्वो मिथ्याष्टिः मिथ्याष्टिचरः 'भूतपूर्व प्चरट्" सिद्धहेम० (७ २।७८) इति चरट प्रत्ययः तस्य । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थापनाविषेचनम् ] [ १०३ दृष्टिरस्य सर्वविरतस्य संयमग्रहणप्रथमसमये जघन्यमुत्पादक स्थानं ( ८ ) निश्च तव्यम् । ततः प्रभृत्यसंख्ये लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि स्थानानि गत्वा तस्यैव देशविरतिचरस्य संयमप्रथमसमय उत्कृष्टमुत्पादकस्थानं । (९ ) E लभ्यते । सर्वविरतेरधिकारः यद्वाऽनार्यभूमिजजन्तोर्जघन्योत्पादकस्थानतोऽसंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि स्थानानि व्यतिक्रम्य मिथ्यादृष्टिचरस्य सर्वविरतस्योत्कृष्टमुत्पादकस्थानम् 9A अवगन्तव्यम् । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि स्थानान्यन्तरयित्वाऽविरतसम्यक्त्वत आगतस्य सर्वविरतस्य जघन्यमुत्पादकस्थानं 9B संभवति । ततोऽसंख्येयलोकप्रमाणानि स्थानानि गत्वा तस्यैवोत्कृष्टमुत्पादकस्थानं 90 विवक्षणीयम् । ततोऽसंख्येयलोकप्रमाणानि स्थानान्यन्तरयित्वा देशविरतितः सर्वविरतिं प्रतिपद्यमानस्य जधन्यमुत्पादकस्थानं 9D संभवति । ततोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि स्थानानि व्यतिक्रम्य देशविरतितः सर्वविरतिमधिगतस्याऽनार्यभूमिजस्योत्कृष्टमुत्पादकस्थानं 9E संभवति । एवमन्यानपि विशेषान् विबुधा स्वधिया प्रकटयन्तु, तथैव व्यतिरिक्तस्थानेष्वपि विशेषान् बहुश्रुताः कलयन्तु । तवं तु केवलिनो विदन्ति । तत आरभ्याऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेश मात्राणि षट्स्थानानि गत्वाऽऽर्यभूमिजस्य देश - त्रिरतितः सर्वविरतिं प्रतिपन्नस्य सर्वविरतस्य तत्प्रथमसमये विद्यमानमुत्कृष्टमुत्पादकस्थानम् १० उच्यते । एतान्यार्य भूमिजस्य जघन्यस्थानात्परमुत्कृष्टस्थान पर्यन्तविद्यमानानि सर्वाण्यप्यार्यभूमिजस्य मध्यमोत्पादकस्थानान्युच्यन्ते तानि च यथायोग्यमार्यऽनार्यदेशजस्य मिथ्यात्वत आगतस्य वाऽविरतसम्यक्त्वतः सर्वविरतिं प्रतिपन्नस्य वा देशविरनितः सर्वविरतिमधिगतस्य वा तदनुरूपविशुद्धया सर्वविरतिं प्रतिपद्यमानस्य संभवन्ति । आर्यखण्ड मनुष्यस्योत्कृष्टोत्पादकस्थानादसंख्ये लोकमात्राणि स्थानान्यन्तरयित्वा सामायिकच्छेदोपस्थापनीयमंयमयोजघन्यव्यतिरिक्तस्थानं १० A मिथ्यात्वात आगतस्य जीवस्य संयमग्रहणाऽप्रथमसमये प्राप्यते । ततः परममंख्येयलोकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानानि गत्वा परिहारविशुद्धिसंयमस्य जघन्यं संयमलब्धिस्थानं (११) प्राप्यते । तच्च परिहारविशुद्धितोऽनन्तरसमये सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमौ प्राप्स्यतः परिहारविशुद्धिसंयमस्य चरमसमये वर्तमानस्य जन्तोर्भवति । न चेदं लब्धिस्थानं परिहारविशुद्धितः परिभ्रश्यता जन्तुना, तर्हि परिहारविशुद्धिसंयमस्य जघन्यं प्रतिपातस्थानं कथं नोच्यत इति वाच्यम्, अत्राऽविरतिं देशविरतिं वा प्रतिपत्स्यमानस्यैव प्रतिपातस्थानत्वेनेष्टत्वाद् व्रतभङ्गनिमित्तकसंक्लेशे सति प्रतिपातस्थानस्य विवक्षणादिति फलितार्थः । परिहारविशुद्धिसंयमस्य जघन्यलब्धिस्थानतोऽसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि पट्स्थानानि गत्वा परिहारविशुद्धिसंयमस्योत्कृष्टलब्धिस्थानं ( १२ ) निश्चेतव्यम् । ततः परमसंख्येलोकाकाशप्रदेशप्रमा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम १०४ ] [ गाथा-३० णानि षट्स्थानानि गत्वा सामायिकच्छेदोपस्थापनीययोः संयमयोरुत्कृष्ट व्यतिरिक्तलब्धिस्थानं (१३) प्राप्यते । तच्चाऽनिवृत्तिकरणक्षपकम्य चरमसमये भवति । अत्र सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयमजघन्यव्यतिरिक्तलब्धिस्थानात्परतस्तस्याऽनुत्कृष्टलब्धिस्थानात्परत - म्याऽनुन्कृष्टलब्धिस्थानपर्यन्तं संभवन्ति लब्धिस्थानानि सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमयोर्मध्यमव्यतिरिक्तलब्धिस्थानान्यपि भवन्ति, सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमद्वयोत्कृष्टलब्धिस्थानादसंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि लब्धिस्थानान्यन्तरयित्वोपशमश्रेण्यामवरोहणेऽनिवृत्तिकरणाऽभिमुखस्य सूक्ष्मसंपरायस्य जघन्यं स्थानं (१४) तच्चरमसमये भवति । ततः परमन्तमुहृतंगताऽसंख्यातसमयमात्रस्थानानि गत्वा सूक्ष्मसंपरायक्षपकस्य चरमसमये सूक्ष्मसंपरायस्योत्कृष्टं लब्धिम्थानं (१५) वक्तव्यम् । सूक्ष्मसंपरायलब्धिस्थानानि च न षट्स्थानक्रमेण पतितानि, यतस्तत्र प्रतिसमयमनन्तगुणहीनमनन्तगुण वृद्धं वा लब्धिस्थानं प्राप्यते । उक्तं च पञ्चनिग्रंन्यप्रकरणे-'परिहारेवि य एवं सुहुमो तिण्हं अणंतगुण अहिओ। हीणा अहिओ व तुल्लो ॥१॥" इति । अत्राऽनन्तभागादिना बद्ध हीनं वा नोक्तम् , अतोऽत्र लब्धिम्थानानि षट्स्थानक्रमेण न भवन्ति । किश्च सूक्ष्मसंपरायसंयमस्य प्रत्येकसमय एकमेव लब्धिस्थानं भवति, तेनाऽन्तमुहूर्नकालम्य यावन्तस्ममयास्तावन्ति लब्धिस्थानानि । एवं सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसम्बन्धिन्यनिवृत्तिकरणगतलब्धिस्थानान्यपि. न षट्स्थानपतितानि तथा चाऽन्तमुहूर्तमात्राणि नाऽधिकानि । सूक्ष्मसंपरायोत्कृष्टलब्धिस्थानतोऽसंख्येयलोकाकाशमितान्यन्तरयित्वा यथाख्यातचारित्रस्याऽजघन्याऽनुत्कृष्टं लम्धिस्थाने (१६) प्राप्यते । व्याख्याप्रज्ञप्त्येकनवत्यधिकसप्तशततमसूने कालद्वारे संयमस्थानानां प्रमाणमल्पबहुत्वं चोक्तम् तद्यथा-सामाइयसजयस्त णं भंते केवइया संजमट्ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! असरखेज्जा संजमट्ठाणा पन्नत्ता एवं जाव परिहारविसुद्धियस्स सुहमसपरायसंजयस्स पुच्छा, गोयमा! असंवेज्जा अंतमुहृत्तिया संज महाणा पन्नत्ता । अहक्खायसंजयस्स पुच्छा गोयमा ? एगो अजहन्नमणुक्कोसए संजमट्ठाणे + अत्र धवलाग्रन्थे परिहारविशुद्धिसयमस्योत्कृष्टलब्धिस्थानादसख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमितानि षट्स्थानान्यन्तरवित्वा यत्स्थान प्राप्यते ततः प्रभृत्यसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि स्थानानि गत्वा सामायिकच्छेदोपस्थापनीयसंयम्योरुत्कृष्टलब्धिस्थानमवाप्यत इत्युक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थ-"परिहारविशुद्धिसंजदस्य जहण्णय संजमट्ठाण छे दोवट्ठाणं संजमाभिमुहरस अणतगुणं बणि छट्ठाणाणि अंतरिय समुदभवादो। तस्सव उक्कस्सयं संजमट्ठाणमणतगुणं कुदो? असं खेजज लोकमेत्तछट्ठाणाणि उवरि गतूणुप्प. पत्तीदो उनि सामाइयछेदोवढाणियाण उक्कस्सयं संजमाणमणतगुण कुदो असंखेज्जलोगमेत्तछट्ठाणाणि अंतरिय तत्तियमेत्ताणि चेव ढाणाणि गिरंतरमुवरि गंतुष्णुपत्तीदो।" Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसंयोजकाः ] विसयोजनाधिकारः 1 १०५ एएसिंगंभते सामाइयछेदो वहावणियपरिहारविसुद्रियसुहुम संपराय अहक्वायसंजयाण संजमट्ठाणाणं कमरे कपरे जाव विसेस हिया वा ? गोयमा ! सव्वधोवे अहक्वाय संजमस्स एगे अजहन्नमणुक्कोसए संजमट्ठाणे सुहुभसंपरायसंजयस्स अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा असं वेज्जगुणा परिहारविसुद्धिय संजयस्य संजमहाणा असंखेज गुणा सामाझ्यसंजयस्स छेदविद्वावणियसंजयस्स एएसिं णं संजमट्ठाणा दोह वि तुल्ला असंखेज्जगुणा । प्रतिपादितो देशविरति सर्वविरतिलाभः । संप्रत्यनन्तानुबन्धिविसंयोजना प्ररूप्यते । तत्र विसंयोजना "णि वेत्यास" सिद्धहेम (५।३।१११) भावे 'अन्' प्रत्ययस्तत "आत्" सिद्धहेम (२|४|१८) इति 'आप' प्रत्ययः, आत्मनः कर्मणश्च सर्वथा संयोगविघटनम्, अनन्तानुबन्धि चतुष्कस्य परिशाटनमिति यावद्, न चानन्तानुबन्धिनां विसंयोजनाऽभिधानं चारित्रमोहनीयोपशमनाऽभिधानेऽधिकृतेऽसंगतमिति वाच्यम्, यतो वेदकसम्यग्दृष्टिर्जीवोऽवश्यमनन्तानुबन्धिनः कषायान् विसंयोज्यैव चारित्रमोहनीयमुपशमयितुमारभते, नाऽन्यथा । अत्र केचिदाचार्या अनन्तानुबन्धिनः कषायानुपशमय्याऽपि चारित्रमोहनीयमुपशमयितुमारभत इति वदन्ति तत्स्वरूपं त्वग्रे वक्ष्यते । मूलकारांस्त्वनन्तानुचन्धिनां विसंयोजनैव मन्यन्ते, न पुनरुपशमना । एवं कषायप्राभृतचूर्णिकारा अध्यनन्तानुन्धिनो विसंयोजन स्वीकुर्वन्ति । अतो मूलकारो विसंयोजनां निजिगदिषुराह - चउगइया पज्जत्ता तिन्नि वि संयोजणा विजोयांत । करगोहि तिहिं सहिया नंतरकरणं उवसमो वा ||३१|| चातुर्गतिका पर्याप्ताः त्रयोपि संयोजनान् विसंयोजयन्ति । करस्त्रिभिः सहिताः नांतरकरणमुपशमो वा ॥ ३१ ॥ इति पदसंस्कारः । अनन्तानुबन्धिविसंयोजनायाः क आरम्भक इति चेद् ९ उच्यते "चउगड्या" इत्यादि, चातुर्गतिका नैरकितिर्यग्मनुष्यदेवा अष्टाविंशतिसत्कर्माणो वियोजयन्तीत्यनेनाऽन्वयः । कथंभूता चातुर्गतिका इत्याह- 'पजत्ता" ति पर्याप्ताः सर्वाभिराहारादिलक्षणपर्याप्तिभिः पर्याप्ताः त्रयोऽप्यविरतदेशविरतसर्वविरताः “संजोयणा" त्ति, संयोजनानतानुबन्धिनो विसंयोजयन्ति-विनाशयन्ति । तत्राऽविरतसम्यग्यश्वातुर्गतिका देशविरतास्तिर्यङ्मनुष्या एव, सर्वविरतास्तु मनुष्या एव चतुर्थगुणस्थानकप्रभृतिसप्तमगुणस्थानकपर्यन्तवर्तिनो जीवा विसंयोजयितुमारभन्त इत्यर्थः, पुनः कथं भृताश्चातुर्गतिका अनन्तानुबन्धिनो विसंयोजयन्तीत्याह -- "करणेहिं तिहिं सहिया" त्ति, त्रिभिः करणैर्यथा प्रवृत्तकरणाऽपूर्वक णानिवृत्तिकरण । ख्यैः सहिताः संधी : Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ ? [ गाथा-३१ यन्ते स्म समपूर्वको 'धा' धातुः, ततो भूते क्तः "समस्ततहिते वा" (३।२।१३९) इति मकारस्य लोनः सहिताः = युक्ताश्चातुर्गतिका यथाप्रवृत्तादिकरणत्रयपूर्वकमेव विसंयोजयन्तीत्यर्थः करणस्य पूर्व भूमिका प्रथमसम्यक्त्वोत्पादवज्ज्ञेया । तथाहि - प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशुद्धया प्रवर्ध - मानः शुभलेश्यायां वर्तमानः संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तः परावर्तमानासु प्रकृतिषु शुभानां प्रकृतीनां बन्धकः, अन्तःसागरोपमकोटी कोटिलक्षणां स्थिति बघ्नंस्तामपि प्रत्यन्तमुहूर्त पल्योपमसंख्येयभागहीनाम्, शुभानां प्रकृतीनां चतुःस्थानकमशुभानां च द्विस्थानकमनुभागं बध्नाति तत्राऽपि प्रतिसमयं शुभानामनन्तगुणवृद्धमशुभानां चाऽनन्तगुणहीनं बघ्नानीत्यादिप्राग्भूमिकाऽत्रापि ज्ञातव्या, नवरं प्रकृतिबन्धादिषु विशेषः स्वत एव विमर्शनीयः । पूर्वभूमिकां व्यतिक्रम्य यथाप्रवृत्त करणमारभते । तत्करणस्य वक्तव्यता प्रथमोपशमिक कन्ववज्ज्ञातव्या । ततोऽपूर्वकरणं प्रविशन्नेव के तत्प्रथमममयादेवाऽपूर्वस्थितिघातरसघातस्थितिबन्धान् गुणश्रेणिमनन्तानुबन्धित्रतुकम्य च गुणमङ्क्रममारभते । तत्र गुण श्रेणिनिक्षेपः सर्वविरतिगुणश्रेणिनिक्षेपतः सख्येय गुणहीनः । सर्वविरतिगुणश्रेणिसत्काकृष्यमाणदलिकतः प्रतिसमयमसंख्येयगुणानि दलिकान्याकृपन्ति संयता अनन्तानुबन्धिनां विमंशेजकाः । तथा चोक्तं कर्मप्रकृतौ तच्चूण घ T उपशमनाकरणम् सम्मत्त्पत्तिसावयविरए संजोयणा विणासे य । दंसणमोहकण्ववगे कसायउवसामगुवसंते ॥ १ ॥ खवगेय ग्वीणमोहे जिसे य दुविहे असंग्वगुण सेदी । उदओ तव्विवरीओ कालो संग्वेज्जगुणसेटी ॥२॥ चूर्णि:- “सम्मत्तप्पत्ति गुणसेढी सावग्रगुणसेही संजमगुणसेही ग अणंताणबंधिविस जोगणागण सेढी दंसणमोहक्खवगगुणसेही चरित्तमोहउवसामगगुणसेढी स्ववगगुणसेढी ग्वीणमोहस्स गुणसेढी, सजोगिकेवलीगुणसेढी, अजोगिकेवलीगुणसेढी । 'असग्वगुणसेढी उदओ' त्ति, सव्वम्शेवं समत्तुप्पायसेढीते दलियं सावगगणसेढोते असखेजगुणं जाव सजोगिकेवलोगुणसेढीतो अजोगिकेवलोगणसेढीते दलियं असंग्वेज्जगणं तम्हा उदयं पि पटुच्च असंग्वेज्जगुणा एव । 'नव्विवरीओ कालो संखेज्जगुणसेढी' त्ति-कालं पडुच्च विवरीयाती । सव्वस्थोवो अजोगिकेवलीगुणसेढी कालो, सजोगिकेवली गुणसेढीकालो संग्वेज गुणा । टिप्पणी-५ लब्धिसारे त्वत्र स्थितिखण्ड प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वत संख्येयगुणं तथा रसघातश्चाऽनन्तगुरण उक्तः, तद्यथा - अनुभागकण्डकायामः पूर्वस्मादनः तगुणः । स्थितिकण्डकायामश्च पूर्वस्मासंख्येयगुणः । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणश्रेणि: ] विसंयोजनाधिकारः [ १८७ एवं जाव सम्मत्तप्पत्तिगणसेढीकालो संखेजगणो । ठवणा...एसा पढमा, सेसाती एत्तो उच्चत्तेण (उच्चत्वेन) संखेजगुणहोणातो संखेजगुणहीणातो उवरि पोहत्तण (पृथुत्वेन) विसालातो विसालयराओ कायव्वाओ, जाव अजोगिस्स । कृवणा...। कहं असंग्वेजगणं दलिय ? भण्णा...समत्त उप्पाएतो मिच्छदिहि सो कम्मदव्व थोव खवेति, संमत्त निमित्तं (सांमत्त) पडिवन्नस ततो असंखेज गुणा गुणसेढी भवति । ततो देसविरयस्स गणसेढो असंखेज्जगणा देसोवरमत्तातो, ततो संजयगुणसेढी असंग्वेजगुणा साव्योवरमत्तातो, अणंताणुबंधिविसंजोयणागुणसेढि असंग्वेजगुणा, हेडिल्लतिण्ह अणंताणबंधिणोखताणं तत्थ संजयपडुच्च तिक. रणसहिओ अणंताणुवंधिणो खोत्ति त्ति काउं" इति । गुणश्रेणिनिक्षपश्चाऽपूर्वकरणाऽ. निवृत्तिकरणाद्धाद्वयात्किञ्चिदधिकस्तेन प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वस्याऽपूर्व करणाऽनिवृत्तिकरणाद्धा. द्वयात्कालमधिकृत्याऽनन्तानुबन्धिविसंयोजनाया अपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणकालद्वयं संख्येयगुणहानम् , सम्यक्त्वोत्पादगुणश्रणिनिक्षेपतोऽनन्तानुबन्धिविसंयोजना गुणश्रेणेः संख्येयगुणहीनत्वात् , उक्तश्च कषायप्राभतो स्थितिविभक्त्यल्पवहुत्वाऽधिकारे-"अणंताणबंधिविसंजोए तस्स अणियअडा संखेजगुणा अपुव्वकरणद्धा संखेजगुणा दंसणमोहणीयउवसामयस्स अणियहिअडा संग्वेज्जगुणा अपुव्वकरणडा संग्वेज्जगुणा ।" इति । ___ अत्र गुणश्रेणिनिक्षेपो वेदनतः झीणेषु समयेषु सत्सु शेष शेषसमयप्रमाणो भवति, प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वगुणश्रेणिनिक्षेपवत् न पुनरुपयु परि वर्धत इत्यर्थः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी - "अणंताणबंधोणं विणासणाए जहा पढमसंमत्तं उपादेतस्स तिण्ह वि करणाण लक्वणं भणियं तहा आणताणबंधिविणासणे वि" इति । तथा चाऽपूर्वकरणस्य प्रथमसयादेव गुणसङ्क्रमोऽपि प्रारभ्यते ॥ स चाऽनन्तानुबन्धिनामेव भवति । तद्यथा अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽनन्तानुबन्धिानां दलिकं बध्यमानशेषकषायरूपपरप्रकृतौ स्तोकं संक्रमयति, उपलक्षणमेतत्कपायग्रहणन नोकषायस्याऽपि ग्रहणं कर्तव्यम् । ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं सङ्क्रमयति, एवं तृतीयादिसमयेषु ज्ञातव्यम् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणा"णवरि अपुवकरणस्स पढमसमते अर्णतानुबंधीणं गुणसंकमो आठवेति" इति । एवं कषायप्राभतचूर्णावपि-"अपुव्वकरणेऽत्थि हिदिघादो अणभागघादो गुणसंढी ___ टिक उक्तञ्च जयधवलाका: “गुणसंकमो पुण अणंताणुबंधीणमेव नाण्णेसि कम्माणमिदि वत्तव्यं।" Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३१ च गुणसंकमो वि" इति । तथैव पञ्चसङ्ग्रहोपशमनाऽधिकारे-"उवरिमगे करणदुगे दलिय गुणसंकमेण तेसिं तु नासेह'' इत्यादि, एवमेव मृलटीकायामपि केवलगुणसङक्रमः प्ररूपितस्तद्यथा-"उपरिमे करणद्विके निवृत्यनिवृत्तिकरणाख्ये दलिकं कर्मपरमाण्वा. स्मकं गुणसङक्रमेण प्रागभिहितेन तेषामनन्तानुपन्धिनां नाशयति शेषकषायत्वेन स्थापयति । इति । श्रीमन्मलयगिरिसूरीश्वरैस्तु पञ्चसङ्ग्रहस्य टोकायामुट्ठलनाऽनुविद्धगुणसङ्क्रम उक्तः, तथा च तद्ग्रन्थः "उपरितने करणद्विके पूर्वकरणोऽनिवृत्तिकरणाख्ये तेषामनन्तानुबन्धिनां दलिकं परमाण्वात्मकं गुणसङ्कमेणोद्वलनासक्रमानुविडेन नाशयति शेषकषायत्वेन स्थापयति" इति । किञ्च कमप्रकृतावपि यासु प्रकृतिद्वलना मङ्कमा प्रवर्तते, तास्वनन्तानुबन्धिचतुष्कमपि प्रख्यातम् , तथा च तद्ग्रन्थः- छत्तीसाए णियगे संजोयणदिहिजुअले य ।।६७।। इति एवं पञ्चसङ्ग्रहेऽपि अक्षराणि त्वेवम्-सम्माSणमिच्छमासे छत्तीसऽनियटि जा माया ।७४।" इति । अतो विसंयोजनायामुद्वलनासक्रमेणाऽपि भाव्यमेवाऽन्यत्राऽनन्तानुवन्धिनामुद्वलनासंभवात् । अत एव श्रीमन्मलयगिरिपादैरुद्वलनानुविद्धगुणसङ्क्रम उक्तः । केवलमुद्वलनामऊ मेण ह्याहारक सप्तकादीनां निर्मलीकरणवत्पल्योपमाऽसंख्येयतमभागरूपकालो न गच्छेत , किन्त्वनन्तानुवन्धिनोऽन्तमुहर्तकालेन सर्वथा विसंयोज्यन्त इत्येतद् विशेषतोऽवसेयम् , किचोद्चलनासक्रमेण तत्तत्खण्डाऽपेझया प्रतिममयमसंख्येयगुणकारेण दलिकान्युत्कीर्य प्रथमसमये परस्थाने स्तोकं स्वस्थाने च ततोऽसंख्येयगुणम् , द्वितीयादिसमयेषु स्वस्थानेऽसंख्येयगुणं परस्थाने च विशेषहीनक्रमेण दलं प्रक्षिपति, अत्र तु गुणसङ्क्रमस्याऽपि प्रवर्तमानत्वात्परस्थानेऽपि प्रतिसमयमसंख्ये यगुणकारेण दलनिक्षेपो भवति, इति युक्तियुक्त उद्वलनाऽनुविद्धगुणसङ्क्रमः । यद् वा प्रथमस्थितिखण्डाद् द्वितीयस्थितिखण्डं विशेषहीनमेवमुत्तरोत्तरखण्डानि विशेषहीनक्रमेण नेतव्यानि यावत्पल्योपमप्रमाणं स्थितिपत्कर्म भवतीति विशेषहीनक्रमेण स्थित्यपेक्षयोद्वलनासक्रमस्तथा प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण परप्रकृतो दलिकनिक्षेपमाश्रित्य गुणसङ्क्रम इत्युद्वलनानुविद्धगुणसङ्क्रम उच्यते । उक्तश्च मिथ्यात्वादिकोशिकभास्करैरुपाघ्यायप्रवरैः-.'नवरमिहाऽपूर्वकरणे प्रथमसमयादेवारभ्य गुणसङ्क्रमो पि वक्तव्यः तथाहि-अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये. ऽनन्तानुषन्धिनां दलिकं शेषकषायरूपपरप्रकृती स्नोकं संक्रमयति, ततो द्वितीय. समयेऽस ख्येयगुणम् , ततोऽपि तृतीयसमयेऽसख्यगुणम् , एवं तावद्वाच्यं यावदपूर्वकरणचरमसमयः । एष च गणसंक्रमः, एष च प्रथमस्थितिखण्डस्य स्थि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तघातः ] विसंयोजनाधिकारः [ १०६ त्यपेक्षया वृहत्तरस्य द्वितीयादिस्थितिखण्डानां च विशेष विशेषहीनानां (स्थिति. खण्डानां) ययातनं तेन निष्पन्नो य उद्वलनासंक्रमस्तदनुविडो द्रष्टव्यः।" इत्येबमपूर्वकरणे सहसः स्थितिघातैः स्थितिमपचित्याऽनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयेऽनन्तानुबन्धिः चतुष्कस्य स्थितिरन्तःसागरोपमकोटिप्रमाणा भवति, सागरोपमलक्षणपृथक्त्वप्रमाणा भवतीति यावत् , शेषकर्मणां चाऽन्तःसागरोपमकोटाकोटिप्रमाणा स्थितिर्भवति । अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयादेवाऽनन्तानुबन्धिनो देश पशमनानिद्धत्तिनिकाच नाकरणानि व्यवच्छिद्यन्ते । इदानीमनन्तानुबन्धिनां देशोपशमितं निधत्तं निकाचितं च दलं सत्कर्मतः सर्वात्मनाऽपगच्छति, सत्तायामनन्तानुबन्धिनां सर्वदलिकमदेशोपशमितमनिद्धत्तमनिकाचितं विद्यते तथाऽतःप्रभृत्यनन्तानुवन्धिनां दलिकेषु देशोपशमनानिङ्कत्तिनिकाचनाकरणानि न प्रवर्तन्त इत्यर्थः । अत्राऽपि स्थितिघातस्थितिबन्धरसघातगुणश्रेण्युद्वलनानुविद्धगुणसङ्क्रमाः पूर्ववत्प्रवर्तन्ते । “नंतरकरणं उवासमो वा" इत्यादिनाऽन्तरकरणमुपशमो वा, अत्राऽनिवृत्तिकरणेऽन्तरकरणं न भवति नवा. ऽनन्तानुबन्धिन उपशमो भवति, कुत इति चेद् ? उच्यते, नाऽत्रऽनन्तानुबन्धिनामुपशमनाऽ. धिक्रियतेऽत उपशमनाऽनुभाशन्क्षयस्य चाऽधिकृतत्वाच्चाऽन्तरकरणं न क्रियते, यत्रोपशमनाया अनधिकारः झपकश्रेणिवर्जक्षयस्य चाऽधिकारः, तत्राऽन्तरकरणं न क्रियते । क्षपकश्रेण्यां न्वन्तरकरणस्य प्रवचने प्रतिपादितत्वेन तत्राऽन्तरकरणेऽविरोधः। ततः सहस्रषु स्थितिखण्डेषु गतेष्वनिवृत्तिकरणस्यैकसंख्येयतमभागेऽनाशिष्टेऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्योत्कृष्टस्थितिबन्धेन तुन्यं मागरोपमसहस्रप्रमाणमनन्तानुबन्धिनः स्थितिसत्कर्म भवति । असंज्ञिपञ्चेन्द्रियसमस्थितिसत्कर्मतः स्थितिखण्ड सहस्रपृथक्त्वे गते सति चतुरिन्द्रियाणां स्थितिबन्धेन तुल्यं स्थितिसत्कर्म भवति । ततः स्थितिखण्डसहस्रषु गतेषु त्रीन्द्रियस्थितिबन्धेन तुल्यं स्थितिसत्कर्म भवति । ततः स्थितिखण्डसहस्रषु गतेषु द्वीन्द्रियस्थितिबन्धेन समाना स्थितिसत्ता भवति । ततः स्थितिखण्डसहस्रं षु गतेष्वेकेन्द्रियस्थितिबन्धेन तुल्यं स्थितिसत्कर्म भवति । ततः स्थितिखण्डसहस्रषु गतेष्वनन्तानुबन्धिनः स्थितिसत्ता पल्योपमप्रमाणा भवति । अतः परं प्रतिस्थितिघातं सत्तागतस्थितेः संख्येयभागान् कृत्वैकसंख्येयतमभागं मुक्त्वा शेषान् सर्वान संख्येयान् भागान् विनाशयति । प्राक्तु पल्योपमसंख्येयतमभागप्रमाणां स्थिति घातयति स्म । ततो भूयोऽन्यस्थितिघाते प्रामुक्तस्यैकसंख्येयभागं मुक्त्वा शेषान् संख्येयान् __ टिप्पणी • उक्तं च जयधवलाकार:-"दसणचरित्तमोहोवसमणाए चरित्तमोहखवणाए च अंतरकरणस्स संभवोणाण्णत्थेति णियमदंसरगादो।" Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. ] उपशमनाकरणम् [ गाथा-३१ भागान् विनाशयति, एवं स्थितिघाताः सहस्रशो व्रजन्ति । ततो दृगपकृष्टिसंज्ञं सत्तास्थानं विसंयोजकेन प्राप्यते । इतः प्रभृति प्रत्येकस्थितिघानेन स्थितिसत्कर्मणोऽसंख्येया बहु. भागा नाश्यन्ते, एकभागश्च सत्तायामवतिष्ठते । एषमनेकसहस्रस्थितिघातेषु गतेष्वेकाऽऽचलिकामात्रा स्थितिरवशिष्यते, यत उदयावलिका सकलकरणाऽयोग्या । शेषाऽनन्तानुबन्धिनः सर्वाऽपि स्थितिविनाश्यते, अवशिष्टाऽऽवलिकामपि स्तिबुकसङ्क्रमेण वेद्यमानकपाये सङ्क्रमय्य सत्कर्मतोऽनन्तानुवन्धिनः सर्वथा विनाशयति, प्रदेशोदयेनाऽनुभूय सवथा निलेपो भवतीत्यर्थः, ततो विसंयोजकेन मोहनीयस्य चतुर्विंशतिप्रकृत्यात्मकसत्तास्थानं प्राप्यते ! ततोऽनन्तरमन्तमुहूर्त यावच्छेषकर्मणां स्थितिघातादयो भवन्ति । ततः स्वभावस्थो भवति, स्वभावस्थे वर्तमानम्य स्थितिघातादयो न सन्ति । उक्तं व कर्मप्रकृतिचूणौं-"तता अणं. ताणपंधिषिसंजोतितो अन्तोमुहुत्तेण हितिघातासघायगुणसेढी एतेहि रहितो सभावत्यो होति" इति । एवं पञ्चस ग्रहोपशमनाऽधिकारेऽपि प्रतिपादितम्"नासेई तो पच्छा अंतमहत्ता सभावत्यो" (गाथा ३५) इति । नन्वत्राऽनिवृत्तिकरणं कदा समाप्तिमेतीति चेद् ? उच्यते, कर्मप्रकृतिटीकायाम-“अनिवृत्तिकरणे च प्रविष्टः सन् प्रागुक्तरुपेणोदलनासक्रमेन निरवशेषान्विनाशयति, किन्त्वधस्तादावलिकामानं मुञ्चति । तदपि च स्तिबुकसङ्क्रमेण वेद्यमानासु प्रकृतिषु संक्रमयति । ततोऽन्तमुहूर्तात्परतोऽनिवृत्तिकरणपर्यवसाने शेषकर्मणां स्थितिघातरसघातगुणश्रेणयो न भवन्ति किन्तु स्वभावस्थ एव भवति" इत्याहुत्तिकाराः श्रीमन्मलय. गिरिसूरीश्वरादयः । अत्र वयं महे-उपयक्तम्य शब्दार्थों द्वौ भवितुमर्हतः । अनिवृत्तिकरणाऽन्ते शेषकर्मणां स्थितिघातादीनां विच्छेदस्तत्स्थितिघातादयश्चाऽनन्तानुबन्धिन आवलिकानिःशेषतो. ऽन्तमुहर्ते व्यतिक्रान्ते व्यवच्छिद्यन्ते, तच्छब्देन सङ्क्रमणाऽऽवलिकानिशेषस्य परामर्शात , इत्येकोऽर्थः, द्वितीयस्तु यदि तच्छब्देनाऽऽवलिकाशेषः परामृश्येत, तह यनन्तानुबन्धिचतुष्कस्याऽऽवलिकाशेषतः प्रभत्यन्तमुहर्ते व्यतिक्रान्ते स्थितिघातादयो व्यवच्छिद्यन्त इति भावार्थो लभ्यत इति । नन्वर्थद्वयेऽपि प्रश्न उत्तिष्ठति, यदुपरिव्याख्यातः शेषकर्मणां स्थितिघातादीनां विच्छेदकालोऽनिवृत्तिकरणस्य पर्यवसानं कथं भवितुमर्हतीति । तथाहि-अनन्तानुबन्धिनः सर्वस्थितिमत्कर्मोद्वलनाऽनुविद्धगुणसङ्क्रमेण व्यनाङ्क्षीत् , नवरमावलिकामात्रा स्थितिरवशिष्टा टि० + यतिस्तस्थानभवनात् स्थितिघातेन सत्तागतस्थित्यसंख्येय बहभागा धात्यन्ते तस्सत्तास्थानं दूरापकृष्टिसंज्ञमिति विशेषस्तु दर्शनत्रिकक्षपणाऽधिकारे व्याख्यास्यामः। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमका: ] अनन्त० उपशमनाधिकार : [ १९१ • भवति यद्वाssवलिका प्रमाणस्थितिरणिस्तिकसङ्क्रमेण सङ्क्रमय्य निःमत्ताका क्रियते । ततः परमन्तर्मुहूर्तं यावदनिवृत्तिकरणं कथमवशिष्यते १ एवं स्वीक्रियमाणे ह्यनिवृत्तिकरण एव गुणप्राप्तिरभ्युपगमः स्यात् न चैतादृग् गुणप्राप्तिग्न्यत्र प्रतिपादिता द्रष्टा तर्ह्यत्र कथं स्वीक्रियते ? तथा चाऽनन्तानुबन्धिविनाशतोऽन्तमुहूर्ते गते शेषकर्मणां स्थितिघातादयो निवर्तन्त इति चूर्णि काराणामभिप्रायः, न हि तैरुक्ता ISनिवृत्तिकरण पर्यवसाने शेषकर्मणां स्थितिघातादीनां निवृत्तिरिति चेद् ? उच्यते - श्रोमन्मलयगिरिसुरोश्वराणामक्षगणि सङ्गमयितुकामैः सति शब्दोऽध्याहार्यते तच्छब्देनाssवलिका शेषः परामृश्यते । तेनाऽयमर्थः- तत आवलिका शेषतोऽनन्तरमनिवृत्तिकरणपर्यवमाने सत्यन्तमुहूर्तात्रतः शेषकर्मणां स्थितिघातादयो व्यवच्छिद्यन्ते । ननु स्थितिघातादीनां निश्चयो जातः, तथाऽपि विमुच्यमानोदयाऽऽवलिकाऽनिवृत्तिकरणसम्बन्धिनी भवत्याहोस्विन्नेतिचेद् ? अत्रोच्यते, अनिवृतिकरणे च वर्तमानः सन् गुणसङ्क्रमानुविनोलनासकमेण निरवशेषान्विनाशयति किन्त्वधस्तादावलिकामात्रव्यतिक्रान्ते स्थितिघातादयो व्यवच्छिद्यन्त इत्यर्थः, अनिवृत्तिकरणस्य चरमसमये चाssवलिकावर्ज सर्वमनन्तानुबन्धिनां सत्कर्म विनाशयति, प्रतिपादितश्चाऽनन्तानुबन्धिनामावलिकावर्ज सर्वस्थितिविनाश उपाध्याय पादैरपि तथा च तद्ग्रन्थः- अनिवृत्तिकरणे च वर्तमानः सन् गुणसङक्रमानुविद्धे नोलनासङ्क्रमेण निरवशेषान् विनाशयति किन्त्वधस्तादावलिकामात्र मुञ्चति" इति एतैरपि वाप्यत आवलिका मात्रास्थितिरनिवृत्तिकरणे न विनाश्यते, चरमममय आवलिकामात्रवर्ज सर्वस्थिती घातितायामनन्तरसमयेऽनिवृत्तिकरणं व्यवच्छिन्नं मातीत्यर्थः । अनिवृत्तिकग्णतः परमावलिकामात्रस्थिति स्तिबुकसङ्क्रमेण निःसत्वां करोति । तत्व पुनरस्थानद्वयं ऽपि बहुश्रुता विदन्ति । तदेवमुक्ताऽनन्तानुबन्धिनां विसंयोजना | अत्र केचिदाचार्या अनन्तानुबन्धिनामुपशमनामध्यभ्युपगच्छन्ति तन्मतेनोपशमनाविधियते । अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताऽप्रमत्तेष्वन्यतमोऽमनुष्योन्यतमयोगे वर्तमानस्तेजःपद्मशुक्ललेश्यास्वन्यतमलेश्यया युक्तः साकारोपयोगेनोपयुक्तोऽन्तः सागरोपमकोटाकोटी स्थितिसत्कर्मा करणकालात्पूर्वमन्तर्मुहूर्त यावत्पूर्ववत्परावर्तमानाः प्रकृतीः शुभा एवं बध्नाति तथा • * उक्तश्व धवलाटोकायामपि "तो चरिमट्ठिदिखंडय लिदोवमस्स श्रमखेज्जदिभागायामं अतोमुहुत्तमेत्तुक्कीरणकालेन श्रदिक्कतो श्रणियट्टिकरणच रिमसमए उदयावलिबाहिर सम्वद्विदिसंतकम्म. परसरूवेण सकामिय तोमुहुत्तकाले मदिरकते दसणमोहणीयक्खपणं पटुवेदि ।” 2 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] [ गाथा ३१ तेषामनुभागं प्रति समयमनन्तगुणवृद्धयाचतुःस्थानकं बध्नाति, अशुभानां च प्रकृतीनां द्विस्थानकं प्रतेिसमयमनन्तगुणहीनं बध्नाति । स्थितिबन्धश्च पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरान्तमुहूर्त कालेन पल्योपममख्येयभागहीनो भवति, एवमन्तर्मुहूर्ते गते यथाप्रवृत्तकरणं करोति तत्स्वरूपं च पूर्ववज्ज्ञातव्यम् । तद्यथा - अनन्तगुणवृद्धया विशुद्धया प्रवर्धमानो भवति । अध्यवसायस्थानानि च नानाजीवापेसा प्रतिसमय मसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानपतितानि भवन्ति । पूर्वपूर्वसमयतश्वोत्तरोत्तरसमये विशेषाऽधिकानि । एवं विशोध्यादिसर्व प्रथमसम्यक्त्वोपादवज्ज्ञेयम् । यथाप्रवृत्तकरणं समाप्याऽपूर्वकरणं प्रविशति । अपूर्वकरणं च प्रविशन पञ्चाऽपूर्वपदार्थाः प्रारभ्यन्ते तद्यथा स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिगुणमङ्क्रमोऽभिनवस्थितिबन्धश्च । तत्र स्थितिघातादीनां स्वरूपं पूर्ववज्ज्ञेयम् । स्थितिघातसहस्र र पूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत्स्थितिसत्कर्माऽऽसीत्तस्यैव चरमसमये संख्येयगुणहीनं जातम् | अनेक महस्रै रसघातैश्वाऽनुभागसच्चमनन्तगुणहीनं कृतम् | उपशमनाकरणम् P तत्रगुणश्रेणिमन्तर्मुहूर्तप्रमाणानां स्थितिस्थानकानामुपरि याः स्थितयो वर्तन्ते, तन्मध्याद्दलिकं गृहीत्वाऽनन्तानुबन्ध्याद्यनुदयव-प्रकृतीनामुदयावलिकाया उपरितनीवन्तमुहूर्तप्रमाणासु स्थितिषु प्रतिसमयमसंख्येयगुणनया निक्षिपति, उदयवत्प्रकृतीनां चोदयसमयादारभ्यान्तमुहूर्तप्रमाणस्थितिषु निक्षेपः संभवति । तथा च दलिकग्रहणमपि पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणं भवति, गुणश्रेणिनिक्षेपोऽपूर्व करणाऽनिवृत्तिकरणकालाभ्यां मनागतिरिक्तस्तथा करद्वयसमयेष्वनुभवतः क्रमशः क्षीणेषु समयेषु गुणश्रेणिदलिकनिक्षेपः शेषे शेषे भवति, न चोपयु परिवर्धत इत्यादिसर्वस्य प्रागभिहितात्वन्न पुनर्विस्तरतोऽभिधीयते । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य गुण सङ्क्रमेणाऽनन्तानुबन्धिनां दलानि परप्रकृतिषु सङ्क्रमयति । तत्राऽयं क्रमो वाच्यः, प्रथमसमये स्तोकं दलं संक्रमयति, द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणम् । एवं तावद्वक्तव्यम्, यावच्चरम् समयः । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयेऽभिनव स्थितिबन्धः प्रारभ्यते ! स च पूर्वपूर्वतः पल्योपमसंख्येयभागहीनो भवति । स्थितिघातरसघातौ च युगपदारभ्येते युगपदेव निष्ठां यातः । एवमेते पञ्च पदार्था अपूर्वकरणे प्रवर्तन्ते । अपूर्वकरणकालमतिक्रम्याऽनिवृत्तिकरणं करोति, तस्याऽध्यवसायविशोध्यादीनां सर्ववक्तव्यता प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वोत्पादवज्ज्ञेया । अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य पूर्वोक्ताः पञ्च पदार्था अत्राऽपि प्रर्वतन्ते, तथाऽनिवृत्तिकरणस्य संख्येयेषु बहुभागेषु गतेष्वेकस्मिन संख्येयतमे भागेऽवतिष्ठमानेऽनन्तानुबन्धिनामधस्तादावलिकामात्रं मुक्त्वाऽन्तर्मुहूर्त मात्रमन्तरकरणं करोति, कतुमारभत इत्यर्थः । आवलिकाया उपरितनाऽन्तमुहूर्त प्रमाणस्थितेर्दलान्युत्कीर्य परप्रकृतिषु बध्यमानासु प्रक्षिपति । आवलिकायाः समये वेदिते स्थितिबन्धाद्धा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यवसायस्थापनावर्णनम् ] अन्तानु-उपशमनाधिकारः [ ११३ प्रमाणाऽन्तर्मुहूतं यावदावलिकोपर्यु पारे वर्धते, उपरितना निषेकाः क्रमेणोदयावलिकायां प्रविशन्तीत्यर्थः । स्थिनिबन्धाद्धारूपाऽन्तमुहर्तकालेनाऽन्तरकरणं भवति, अन्तमुहर्तप्रमाणा स्थितिग्नन्तानुबन्धिदलिकाऽभाववती जायत इत्यर्थः। प्रथमस्थितिश्चावलिकाप्रमाणा भवति, अन्तरकरणे कृते मत्यनन्तर समयादनन्तानुबन्धिनामुपरितनलक्षणद्वितीयस्थितिगतं दलिकमुपशमयितुमारभते तथाऽऽवलिकां स्तिबुकसङ्क्रमेण मडक्रमयति । उपशमक्रमश्वाऽयम्-प्रथमसमये स्तोकमुपशमयति, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणम् । नतोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् , एवं यावदन्तमुहूर्तम् , एतावता च कालेन साकल्येनाऽनन्तानुवन्धिनः सर्वथोपशामता भवन्ति । नन्वन्तरकरणक्रियासमाप्तिकालेऽवशिष्यमाणाऽनन्तानुबन्धिन आवलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिर्भवति, उपशमना स्वन्तमुहूतं यावत् प्रवर्तते, तह निवृत्तिकरणं कदा पर्यवसितं भवतीति चेद् ? उच्यते, अनन्तानुबन्धिनामुपशमनक्रियायां पूर्णायामनिवृत्तिकरणं परिसमाप्तं भवतीति संभाव्यते । न च स्तिबुकसङ्क्रमेण प्रथमस्थित्यां क्रमश आवलिकायां सडवामितायामनन्तानुबन्धिप्रथमस्थित्यभावादन्तरकरणे कृते ऽनन्तरसमयादन्तमु हृतं यावदनन्तानुगन्धिनामुपशमना कथं भवेदिति वाच्यम् , प्रथमस्थित्यः भावेऽपि तदुपशमनाविरोधाभावात पुरुषवेदोदयारूढस्य नपुसकवेदोपशमनावद् । उपमिता नाम यथा रेणुनिकरः सलिलबिन्दुनिवहैरभिषिच्याऽभिषिच्य द्रघणादिभिनिष्कुट्टितो निस्पन्दो भवति, तथा कमरेणुनिकरोऽपि विशोधिसलिलप्रवाहेण परिषिच्य परिषिच्याऽनिवृत्ति करणरूपद्रुघणनिष्कुट्टितः सङ्क्रमणोदीरणानिद्धात्तनिकाचनाकरणानामयोग्यो भवति । इति भणिताऽनन्तानुबन्धिनामुपशमना । SWWW Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ क्षायिकसम्यक्त्वप्रतिपत्तिः ॥ अनन्तानुबन्धिनां विसंयोजनां विस्तरतोऽभिधाप संप्रति क्षायिकसम्यक्त्वप्रतिपत्तिंप्रतिपिपादयिषुराह दंसणमोहे वि तहा कयकरणद्धाइ पच्छिमे होइ । जिण कालगो मस्सो पट्टवगो वासुप्पिं ॥३२॥ दर्शन मोहेऽपि तथा कृतकरणाद्धायां पश्चिमे भवति । जिनकालको मनुष्यः प्रस्थापको वर्षाष्टकस्योपरि ||३२|| इति पदसंस्कारः । ननु कः क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्तये प्रभवतीति चेद् ? उच्यते, इह दर्शनत्रिकस्य क्षपणाय 'पट्ठवगे' त्ति प्रस्थापकः, प्रस्थापयतीति प्रस्थापकः "णकतृची" सिद्धहेम (५ | ११४८) कर्तरि 'णक' प्रत्ययः, आरम्भक इत्यर्थः ' जिणकालगो" त्ति, जिनकालको - जिनानां तीर्थकृतां कालः जिनकालः; यस्मिन्काले जिना उत्पद्यन्ते, स जिनकाल इत्यर्थः, स चाऽवसर्पिण्यास्तृतीयारकपर्यन्तमागश्चतुर्थाश्कश्चोत्सर्पिण्याः पुनः प्रथमभागः, तत्र काले व उत्पद्यते स जिनकालको जिनकालसंभत्रीत्यर्थः, जिनकालमंभवी मनुष्योऽविग्तसम्यग्दृष्टिदेश विरत सर्व विरतेष्वन्यतमोऽष्टवर्षाणामुपरिवर्तमानो वज्रर्षभनाराचसंहननश्च भवति स क्षपयति । तथा चोक्तं श्री पश्च सङ्ग्रहमूलटीकग्राम - " जिणकालीअं त्ति, जिनविहरेणकालसंभवः" अष्टवर्षाणामुपरि वर्तमानो वज्रर्षभनाराचसंहननश्च भवति । इति । - इदमत्रावधेयम् - देवसंहृतो देवकुर्वादौ सुषमसुषमादिकालप्रतिभागे जिनका लोत्पन्नो दर्शनत्रिकं क्षपयति । कषायप्राभृतचूर्णो प्रस्थापकम्य शुभलेश्यात्रि केऽन्यतरा लेश्या प्रोक्ता तथा च तद्ग्रन्थः–“स्ववणाए पट्ठवगो जहण्णगो तेउलेस्साए " । कर्मप्रकृतिचूण तु कृतकरणवेदनाद्वायां लेश्यापरावृत्ति दर्शयद्भिः श्रीमच्चूर्णिकारैरिदमुक्तम् - "पुच्चं सुक्कलेसा आसि संपयं अन्नपरीए वि होज्जा" । अत्र यदि पूर्वशब्देनाऽव्यवहितपूर्व गृह्यंत, तर्ह्य निवृत्तिकरणाद्वायां शुक्ललेश्या संभवेत् ततोऽवांग पूर्वभूमिकायां यथाप्रवृत्तकाणादौ च प्रस्थापकस्य लेश्यात्रयमपि संभवेत् । यदि पुनः पूर्वशब्दस्य व्यवहितपूर्वं गृह्यंत, तर्हि यथाप्रवृत्तकरणतोऽवागपि प्रस्थापकस्य शुक्ललेश्यैव स्यात् । तत्त्वं त्वतिशयज्ञानिनो विदन्ति । टि० जयधवलाकारास्तीर्थकर गणधरश्रुत केबलिनां पादमूले दर्शनत्रिकक्षपणायाः प्रस्थापको भवतीत्याहुः तथा च तद्ग्रन्थ: "कम्मभूमिजादो वि तित्थयर केवलिसुद केवलीणं पादमूले दसणमोहणीम खवेदुमाढवे णाण्णत्थ । " י Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपकविवेचनम् ] यथाप्र०क० अपू० करणाधिकारः [ . ११५. "दंसणमोहेऽपि" इत्यादि, दर्शनमोहेऽपि मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमोहनीयलक्षणेऽपि क्षपणा तथा यथा प्रागनन्तानुबन्धिना विसंयोजना प्रोक्ता, तथैवेत्यर्थः । सामान्येनाऽतिदिष्टे विशेष इहाऽभिधीयते । इह दर्शनत्रिक चिक्षिपयिषुः प्रथमं वेदकसम्यगदृष्टिरनन्तानुबन्धिचतुष्कं पूर्ववद् विनाशयति । ततोऽन्तमुहूर्ते गते कश्चिज्जन्तुदेशनविकक्षपणार्थ मुद्यतः सन्नन्तमुहूत यावदनन्तगुणवृद्धथा विशुद्धयां प्रवर्धमानः करणत्रयं कतु मारमते, न सर्वेऽनन्तानुबन्धिना विसंयोजकाः, यतः कतिचिज्जीवा अनन्तानुबन्धिचतुष्कं विसंयोज्य तत्रैव चतुर्थप्रभृतिगुणस्थानकेऽवतिष्ठन्ते, केचिद्मिश्रगुणस्थानकं प्राप्नोति, कियन्तश्चिज्जीवा मिथ्यात्वोदयाद् भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिचतुष्कं बन्धद्वारेण प्राप्नुवन्ति तद्बीजम्य मिथ्यात्वस्याऽविनाशात् । केचिल्लब्धपराक्रमा अनन्तानुबन्धिचतुष्कं विसंयोज्याऽन्तमुहूर्तमवस्थाय दर्शनत्रिकं क्षपयितु. मारमन्ते, तत्र दर्शनत्रिकसपणार्थं कश्चिदन्तमुहूतं यावत्पूर्वभूमिकायामनन्तगुणवृद्धथा विशुद्धिमनुभवन् करणत्रयं कतु प्रवर्तते । तत्र प्रथमं यथाप्रवृत्तकरणम् , ततोऽपूर्वकरणम् , ततोऽनिवृत्तिकरणम् । तथाहि-यथाप्रवृत्तकरणे स्थितिघातं रसघातं गुणश्रेणिं गुणसंक्रमं च न करोति । केवलं पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तराऽन्तमुहूर्ते पल्योपमसंख्येयभागेन हीनं हीनतरमायुवर्जकर्मणां स्थितिवन्धं करोति । तथा प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशुद्धया प्रवर्धमानो भवति, अध्यवसायस्थानविशोधीत्यादिकं सर्व पूर्ववनिश्चेतव्यं । ततोऽपूर्वकरणं प्रविशति । तत्राऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमये नानाजीवाऽपेक्षयकजीवतोऽपरजीवस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणं तुल्यं विशेषाऽधिकं वा भवति । विशेषाऽधिकं चाऽत्र द्विविधम्-(१) संख्यातभागाऽधिकम् , (२) असंख्यातमागाधिकं च । स्थितिसत्त्वतारतम्यादेकजीवस्य स्थितिखण्डतोऽपरस्य स्थितिखण्डं संख्येयगुणं विशेषाऽधिकं तुल्यं वा भवति । करणसत्कविशद्धौ स्थितिखण्डस्य प्रायशः स्थितिसत्वाऽनुसारित्वात् । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"अपुधकरणस्स पढ मसमए दोण्हं जीवाण डिदिसंतकम्मादो हिदिसंतकम्मं तुल्ल वा विसेसाहियं वा संखेज्जगणं वा। विदिखंडयादो वि द्विदिखंडयं दोण्हं जीवाणं तुम्लं वा विसेसाहियं वा संखेज्जगुणं वा" इति । भावना वित्थं कार्या-द्वौ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टी जन्तू युगपदुपशमश्रेणि प्रतिपद्येते, ततश्च्युत्वा भूयः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टी भूत्वा दर्शनत्रिकं क्षपयितुमुपक्रमेते, तह्य पूर्वकरणप्रथमसमये तयोः स्थितिसत्त्वं सदृशं भवति, कथमेतदवसीयत इति चेद् ! उच्यते, प्रथमत उपशमश्रेणिप्रतिपन्नानामनिवृशिकरणे प्रथमस्थितिखण्डेऽपगते सर्वेषां जीवानां स्थितिसत्त्वं समानं भवतीति नियमो वक्ष्यते, एवं स्थितिसत्त्वस्य समानत्वादुभयोः स्थितिखण्डमपि समानं भवति । अथ तयोर्दर्शनत्रिकक्षपणाऽपूर्वकरणे स्थितिसचं विशेषाऽधिकं स्थितिखण्डं च भाव्यते Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३२ उपशमश्रेणी जातसमानस्थितिसन्चकयोरेकतरो जन्तुः पुनरुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते, ततः पतित्वा क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिस्सन् तत्रैव तिष्ठति, ततोऽपरो जन्तुन्तमुहूर्तात्परमुपशमश्रेणिमारुह्य ततश्च परिभ्रश्य क्षायोपशमिकदृष्टिर्भवति। ततः परमन्तमुहर्ते व्यतीने द्वावपि जन्तू युगपद् दर्शनत्रिकम्य क्षपणाय यतेते, तमु पूर्वकरणप्रथमसमये स्थितिसत्त्वं प्रथमतोऽपरस्य जन्तोविशेषाऽधिकं भवति, यतः श्रेणितः पतित्वा प्रथमपुरुषेणोपशमश्रेणेरनन्तरं द्वावन्नमुहूर्तकालौ व्यतिक्रान्ती द्वितीयेन वेक एवऽन्तमुहूर्तकाल इति द्वितीयपुरुषस्य स्थितिसत्वं प्रथमपुरुषस्य स्थितिसत्वतोऽन्तम हत कालेनाऽधिकं भवति, एवं यावदप्राप्तमिथ्यात्वयोस्तयोरुपशमश्रेणेरुत्कृष्टाऽन्तरं साधिकद्विषष्टिसागरोपममात्रं संभवति, तेनोत्कृष्टत एकजन्तुतोऽपरम्य द्वात्रिंशदधिकशतसागरोपमैरप्यधिक स्थितिसचं घटते । इदन्तु दिग्दर्शनमात्रम् , प्रकाराऽन्तरेणाऽपि निसर्गतो विशेषाऽधिकं ममानं वा स्थितिसत्त्वं प्राप्यत इति कृतं प्रपञ्चेन । दर्शनत्रिकक्षपणाऽपूर्वकरण एकजीवतोऽपरस्य संख्येयगुगं स्थितिसत्वं भवति, तद्भावना विन्ध कर्तव्या । अपूर्णकरणस्य प्रथमममय उपशमश्रेणितः पतित्वाऽऽगतस्य क्षायिकसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य स्थितिसवतश्चारित्रमोहनीयस्याऽनुपशमकस्य क्षायिकसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य स्थितिमा संख्येयगुणम् , चारित्रमोहनीयोपशमनायां प्रभृतस्य स्थितिसत्कर्मणो विशुद्धया नष्टत्वात् । उकर्क च कषायप्राभतो -दोण्हं जीवाणमेक्कोकसाए उससामेयूण वीणदंसणमोहणीयो जादो । एक्को कसाए अणुवसामेयूण खोणदंसणमोहणीयो जादो। जो अणवसमेयूण खीणदसणमोहणीओ जादो तस्स हिदिसंतकम्मं संग्वेज्जगुणं " इति । अत्र खीणदंमणमोहणीयो जादो, इत्यनेनाऽपूर्वकरणे वर्तमानः दर्शनत्रिकं क्षपन्नित्यर्थः कर्तव्यः, कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते, "क्षी क्षये' ज्ञानेच्छाार्थत्रीच्छीलादिभ्यः (सिद्धहेम. ५।२।९३) इत्यनेन वर्तमाने 'क्त' प्रत्ययः क्षीणं झीयमाणं दर्शनमोहनीयं येनाऽपूर्वकरणस्थितेन क्षीणदशनमोहनीय इति व्युत्पत्त्याश्रयणात् । अथ प्रकाराऽन्तरेण विवक्षितजन्तुतोऽन्यस्य स्थितिसता संख्येयगुणं प्रदर्शयते, तुल्यस्थितिसत्कर्मणोः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयोर्जन्त्वोरेकः करणद्वयेन देशविरति सनविरतिं वा प्राप्नोति, स चाऽपूर्वाकरणे स्थितिसत्त्वां संख्येयगुणहीने कुयात , अन्यः पुनः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिजन्तुरविरत एव तिष्ठेत् । यद्यमी तौ युगपदर्शनत्रिक क्षपयितुमुपक्रमेते, तर्हि देशविरतस्य सर्गविरतस्य वा क्षायिकसम्यक्त्वाऽभिमुखस्य स्थितिसत्कर्मतोऽविरतस्य क्षायिकसम्यक्त्वा. ऽभिमुखस्य स्थितिसचं संख्येयगुणं भवेत् । एवमनेकधा मख्यातगुणं स्थितिसत्त्वं भावनीयम् । तथैव स्थितिखण्डमपि । अथ कषायप्राभूतचूर्णी-स्थानद्वयस्याऽपि जीवभेदेनाऽल्पबहुत्वं Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिसत्वम् ] अपूर्वकरणाधिकरः निदिष्टम् । तथा च तद्ग्रन्थः-"(१) जो अपुव्वं दसणमोहणीयं खवेदूण पच्छा कसाए स्वसामेदि जो वा दसणमोहणीयमक्खेदूण कसाए उवसामेइ, तेसि दोण्ह पि जीवाणं कसायेसु उवर्मतेसु तुल्लकाले समधिच्छिदे तुल्लं ठिदिसंतकम्म (२) जी पुत्वं कसाए उवसामेयूण पच्छा सणमोहणीयं खवेह,अण्णो पुत्वं दंसणमोहणीयं ग्ववेयूण पच्छा कसाए उवसामेह, एदसि दोण्हं पि वीणदंसणमोहणीयाणं खवणकरणेसु उवासमकरणेसु च णि ट्ठिदेसु तुल्ले काले विदिक्कते जेण पच्छा दंसणमोहणीयं खविदं तस्स ठिदिसंतकम्म थोवं जेण पुव्व दसणमोहणीयं खवेयूण पच्छाकसाया उवासामिदा तस्स हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं।" इति । अमरार्थस्त्वेवम्-(१) एको जीवो दर्शनत्रिकं झपयित्वोपशमश्रेणिमारोहति, अन्यश्च दर्शनत्रिकमक्षपयित्वोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते, उपयोर्जन्त्वोः कषायोपशान्तितस्तुल्ये काले गते स्थितसत्कर्म समानं भवति । (२) एको जीवः कपायोपशान्तलक्षणोपशमश्रेणितोऽवरुह्य दर्शनत्रिक क्षपायतुमारभते, इतरो जीवो दर्शनत्रिकं क्षपयित्वा कषायानुपशमयितुमारभते, द्वयोर्जीवयोः क्षपणक्रियाया उपशमनक्रियायाश्च परिसमाप्तितस्तुल्ये काले व्यतिक्रान्ते सति श्रेणितः पतित्वा दर्शन त्रिकक्षपणारम्भकस्य स्थितिसत्त्वमन्पम् , ततो दर्शनत्रिक परिक्षपश्य कषायाणामुपशमकस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणम् । अथाऽऽद्यस्थाने विशेषोऽभिधीयते-यथा चारित्रमोहनीयक्षपणाऽधिकारेऽनिवृत्तिकरणे प्रथः मखण्डे व्यतीते सर्वेषां जीवानां स्थितिसत्त्वं समानं तिष्ठति, तथैवोपशमश्रेणावप्यनिवृत्तिकरणे प्रथमे खण्डे व्यतीते सर्वेपा जीवानां स्थितिसचं तुल्यं भवेत , तेन दर्शनत्रिक परिक्षपय्योपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य स्थितिसत्कर्मतो दर्शनत्रिकमक्षपयित्वोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानस्याऽनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयपर्यन्तं स्थितिसत्वं प्रभृतं संभवति, पूर्वोक्तपुरूषस्य प्रभूतस्य स्थितिसत्त्वस्य दर्शनत्रिकसपणायां नाशो जातः, तथाऽपि चारित्रमोहनीयोपशमनासत्काऽनिवृत्तिकरणे प्रथमस्थितिचाते जिते स्थितिसत्वं समानं जायते । तेनोभयोर्जन्त्वोः कषायोपशान्तितस्तुल्ये काले गते स्थितिसत्वस्य सदृक्त्वोपलम्भे न कश्चिद् बाधः । ननूपशमश्रेणी सर्वेषां जीवानां स्थितिसचं समान कथं संभवति, संख्येयगुणत्वसंभवात् ? तथाहि-एकजन्तुः सकृदुपशमश्रेणिं प्रतिपद्य ततश्च च्युत्वा मिथ्यात्वमगत्वा भूयो द्वितीयवारमुपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते, अन्यो जन्तुःपुनः प्रथमत उपशमश्रेणि प्रतिपद्यते, तत्र प्रथमपुरुषतो द्वितीयस्थ स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणं प्राप्यते, यतः प्रथमवारं श्रेणि प्रतिपन्नेन प्रथमपुरुषेणाऽपूर्वकरणे स्वस्थितिसत्त्वं संख्यातगुणहीनं कृतं श्रेणितश्च्युत्वा मिथ्यामं न गतः, तेन बन्धद्वारेणाऽपि श्रेणिगतस्थितिसत्त्वतो नाऽभिवर्धितम् , अविरतसम्यग्दृष्टि Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् ११८ ] [ गाथा ३२ गुणस्थानक उत्कृष्ट स्थितिबन्धस्याऽपि श्रेणिगतजघन्यस्थितिसत्त्वतः संख्यातगुणहीनत्वात् । स यदि द्वितीय वारमुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते, तर्हि पुनः स्वस्थितिसत्त्वं संख्यातगुणहीनं कुर्यात्, अन्यो जन्तुः प्रथमवारमेव श्रेणिं प्रतिपद्यते, तेन पूर्वपुरुषतोऽस्य स्थितिसत्त्वं संख्यातगुणं संभवति, प्रागुपशमकाऽनिवृत्तिकरणे स्थितेरघातित्वादिति कृत्वा तुल्यं कथं घटत इति चेद् ? उच्यतेएतत्समीचीनम्, किन्त्वत्र तौ द्वौ जन्तू ग्राह्यौ, याभ्यां प्रथमवारमुपशमश्रेणिरारूढा, तेन तयोः समानास्थितिः संभवति, न संख्येयगुणा । संप्रति द्वितीयस्थाने विशेषोऽभिधीयते -एको जीवो दर्शनत्रिकमक्ष पयित्वोपशमश्रेणि समारोहति, अन्यः पुनर्दर्शनत्रिकं परिक्षपय्योपशमश्रेणिमारोहति तत्र दर्शनत्रिकमक्षपयित्वोपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य प्रभृतं भवति, द्वितीय पुरुषेण दर्शनत्रि कक्षपण [Sपूर्व करणे प्रभृतिस्थितेर्घातितत्वात् । अथोपशमश्रेण तेन क्रमेण प्रथमपुरुषः स्थिति घातयति, पेनाऽनिवृत्तिकरणे प्रथमस्थितिखण्डे, घातित उभयोः पुरुषयोः स्थितिमत्त्वं तुल्यं जायते श्रेण्यनिवृत्तिकरणे सर्वेषां जीवानां स्थितिसच्चसमानत्वसंभवात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टिनोपशमश्रेणी स्तोका स्थितिर्धातिता, इतरेण पुनः प्रभृता घातिता इति फलितार्थः । ततः परं श्रेणितोऽवरुह्याऽक्षीणदर्शनमोहनीयो दर्शन त्रिकक्षपणायै पुनः करणत्रयं करोति, तत्र चाडपूर्णकरणे स्वस्थितिं संख्येयगुणहीनां करोति, तेनोपशमनाक्रियातोऽन्यस्य पुनः क्षपणाक्रियातस्तुल्ये विश्रान्तिकाले व्यतिक्रान्ते श्रेणितः पतित्वा दर्शनत्रिकं क्षपयतो जन्तोः स्थितिमुच्चनो दर्शनत्रिकं क्षपयित्वा कषायोपशमकस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणं भवति । अपूर्वकरणस्य प्रथममयतः प्रभृत्यायुर्वर्जशेषकर्मणां स्थितिघातरसघातगुणश्रेणि गुणसङ्क्रमस्थितिबन्धाः प्रारभ्यन्ते नवरं दर्शन त्रिकस्योद्वलनानुविद्धगुणसङ्क्रमः प्रवर्तते । अत्र पूर्वपूर्वतः स्थित्यपेक्षयोत्कीर्यमाणखण्डानां विशेषहीनत्वेनोद्वलना, दलिकाःपेक्षया सङ्क्रमस्याऽसंख्येयगुणकारत्वेन गुणसङ्क्रम इत्युद्वलनानुविद्धगुणसङ्क्रमः, ज्ञातव्यः । उवतं च पञ्चसङ्ग्रहे श्रीमन्मलयगिरिपादै: "नवरमपूर्वकरणस्य प्रथमसमय एव गुणसङ्क्रमेण मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वयोर्दलिकं सम्यक्त्वे प्रक्षिपति, उबलनासङ्क्रमोऽपि तयोरेवमारभ्येते । तद्यथाप्रथमं स्थितिखण्ड वृहत्तरं घातयति, ततो द्वितीयं विशेषहीनम् एवं तावद्वक्तव्यं यावदपूर्वकरणचरमसमयः ।" इति । जघन्यस्थितिसत्कर्मणो जन्तोः स्थितिखण्डम पूर्णकरणस्य प्रथमसमये पल्योपमसंख्येयभागमात्रं भवति, तथोत्कृष्टस्थितिसत्कर्मणो जीवस्य सागरोपपृथक्त्वमात्रं मत्रति । पूर्वपूर्वोत्कीर्यमाणस्थितिखण्डत उत्तरोत्तरोत्कीर्यमाणस्थितिखण्डं विशेषहीनं तावद्वक्तव्यम्, यावदपूर्वकरणस्य चरमस्थितिखण्डम् । अत्र प्रथमस्थितिखण्डतः परम्परोप " Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिधाताादयः] अपूर्वकरणाधिभर: [ ११९ निधया कानिचित्स्थितिखण्डानि संख्येय गुणहीनान्यपि भवन्ति, किन्न्वनन्तरोपनिधया पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्थितिखण्डानि विशेषहीनान्येव भवन्ति । न चाऽपूर्वकरणे प्रतिसमयं पूर्वपूर्वतो विशुद्धे. रनन्तगुणत्वेन स्थितिखण्डानां विशेषडीनत्वं कथमुच्यते, अधिकं वक्तव्यमिति वाच्यम् , स्थितिखण्डस्य सत्तागतस्थित्यनुसारित्वेन केवलं विशुद्धयनाश्रयणात् ।। अत्रोद्वलनानुविद्धगुणसङ्क्रमस्य प्रवर्तमानत्वाद् घात्यमानखण्डानां मिथ्यात्वमोहनीयस्य दलिकं स्वस्थानेऽधी तथा मिश्रमोहनीये सम्यक्त्वे च निक्षिप्यते, मिश्रमोहनीयस्य च दलिका मधः स्वस्थाने तथा मम्यक्त्वमोहनीये च प्रक्षिप्यते, तथा व्याघातभाव्यपवर्तनया सम्यक्त्वमोहनीयस्य दलिकं स्वस्थानेऽधो प्रक्षिप्यते । स्थितिघातरसघातगुणश्रेणीनां स्वरूपं पूर्ववज्ज्ञेयम् । गुणश्रेणिनिक्षेपस्त्वपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणाद्धाद्वयादधिको द्रष्टव्यः, स च गलिताऽवशेषमात्रः, उदयेन पूर्वपूर्वसमये क्षीणे हीनो हीनतरो भवति, एवं संख्यातसहस्रः स्थितिधातैरपूर्व करणं परिसमापयति । तथाऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यस्थितिसत्कर्माऽऽसीत् , तस्यैव चरमसमये संख्येगुण हीनं भवति । उक्तं च पश्चसङ्ग्रहोपशमनाकरणस्य मूले अपुवकरणसमगं गुण उव्वलणं करेह दोण्हं पि । तकरणाई जं तं हिइसतं संग्वभागन्ते ।। ३७ ।। " इति । तथैव मूलटोकायामप्युक्तम्-'तं च गुणसङक्रमपूर्वकरणेन "समं" ममकालमुद्वलनविधिना करोति, द्वयोरप्यनुदितपुञ्जयोमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वाख्ययोस्तस्करणादौ यह स्थितिखण्ड (ततो द्वितीयं विशेषहीनं) एवं यावत्करणसमाप्तिरिति यत्करणादौ स्थितिसत्कर्म तस्य करणाऽन्ते संख्येयभागो भवतीति" गाथार्थः । इति । तथैव मलयगिरिटोकायामपि निगदितम्- 'अपूर्वकरणसमकमपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्येत्यर्थः, गुणसङ्कममुद्रलनं च द्वयोरनुदितयोमिथ्यात्वयोः करोति । तत्करणादावपूर्वकरणादौ यस्थितिसत्कर्माऽऽसीत् , तत्तस्यैव करणस्यान्ते चरमसमये संख्येयभागमात्रं भवति प्रथमसमयाऽपेक्षया संख्येयगुणहीनं भवतीश्यर्थः" इति । तथाऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यः स्थितिबन्ध आसीत् , स करणाऽन्ते संख्येयगुणहीनो भवति । उक्तं च पञ्चसङ्ग्रहोपशमनाऽधिकारे-"एव हिबंधो विहु, पविसह अणि. यटिकरणसमयंमि।" इति । तथैव टीकायामपि "एवमनेनैव सत्कर्मन्यायेन स्थिति बन्धोऽपि योऽपूर्वकरणादासीत् , तस्मादन्तसमये संख्येयगुणहीनो भवति।" इति । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा- ३२ ततस्तृतीयमनिवृत्तिकरणं प्रविशति । अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयतो दर्शनत्रिक देशोपशमनानिकाचनानिद्धत्तिकरणरहितं भवति । अतः प्रभृति सत्कर्मणि दर्शनत्रिकस्य दलिकमदेशोपशमितमनिकाचिनमनिद्धत्तं भवति, तथा सत्कर्मणि विद्यमानेषु दलिकेषु देशोपशमनानिद्धत्तिनिकाचनाकरणानि न प्रवर्तन्ते । १२० ] उक्तं च पञ्चसङग्रह उपशमनाऽधिकारे-"देव समणानिकायणनिहत्तर हियं 'च । होइ दिट्ठितिगं" तथैव तट्टीकायां "अनिवृत्तिकरणे प्रवर्त्तमान निदेशोपशमनानिकाचनानिधत्तिकरणरहितं वियुक्तं दर्शनत्रिकं भवति ।" इति । अनिवृत्ति करणेऽपि पूर्वस्थितिघातादयः पञ्च पदार्थाः प्रवर्तन्ते, तत्प्रथमसमयत एवाऽपूर्वस्थितिघातोऽपूर्व रसघातोऽपूर्वस्थितिबन्धश्च भूयो युगपदारभ्यन्ते । ॐ अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये दर्शनमोहनीयस्य स्थितिसत्त्वं सागरोपमलक्षपृथक्त्वप्रमाणं भवति, अन्तःमागरोपमकोटीप्रमाणं भवतीति यावत, शेषकर्मणां स्थितिसत्त्वं सागरोपमकोटीप्रमाणं भवतीति यावत्, शेषकर्मणां स्थितिमचं सागरोपमलक्ष कोटीपृथक्त्व प्रमाणं भवति, अन्तः सागरोपमकोटी कोटीप्रमाणं भवतीति यावत् उक्तं च कषायप्राभृतचूण-अणिय टिकरणम्स परमसमए दंसणमोहणीयस्स ठिदिसंतकम्मं सागरोवमसदसहस्स पुधत्तमंत कोडोए । सेसाणं कम्माण कोडी सदसरसपुधत्तमंतो कोडाकोडीए ।" इति । महस्रैः स्थितिघातैरनिवृत्तिकरणस्य संख्यातबहु भागेषु गतेष्वेकसंख्येय मागोऽवतिष्ठते तदा दर्शन मोहत्रिकम्य स्थितिमत्कर्माऽमंज्ञि पञ्चेन्द्रियस्थितिसत्कर्मसम नं भवति, ततः सहस्रैः स्थितिघातैर्घात्यमानं दर्शनत्रिकम्य स्थितिमत्कर्म चतुरिन्द्रियस्थितिमत्कर्मसदृक्षं भवति, ततोऽपि स्थितिखण्डसहस्रपृथक्त्वे गते सति दर्शनत्रिकस्य स्थितिमच्चं त्रीन्द्रियस्थितिमत्कर्म सदृग्भवति । अत पृथक्त्वशब्दो बहुत्वाची ज्ञातव्यः तेनाऽनेक महस्र ेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु दर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्कर्म त्रीन्द्रियस्थितिसत्कर्मसदृग्भवतीत्यर्थी लभ्यते, ततोऽप्यनेकसहस्रपु फलब्धिसारेऽनिवृत्तिकरणम्थानां सर्वजीवानां दर्शन त्रिकस्य स्थितिसत्कर्म समानं भवतीत्युक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थः " अत्र सर्वेषां जीवानां विशुद्धिपरिणामसादृश्येन जधन्योत्कृष्टविकल्पं विना स्थितिसत्वमेकादृशमेव भवति" श्रनिवृत्तिकरणे जीवानां स्थितिसत्त्वं प्रथम स्थितिखण्डे घातिते सां संभवति, कथमेतदवसीयत इति चेद् ? श्रणुत चारित्रमोहनीयक्षपणाऽधिकारे द्वितीयादिस्थितिसत्वं समानं दर्शितं तथैवाऽत्रापि संभवति । जयधबलाकारैरनिवृत्तिकरणे प्रथमखण्डस्य नानाजीवाऽपेक्षया वैषम्यं दर्शयित्वा द्वितीयादिखण्डानां समानत्वं दर्शितम् अक्षराणि त्वेवम्-"बिदिया दिखंडयाणि पुखं सब्वेसि जीवाणं सरसारिण चैव तत्थ विसरोसत्ते कारणाणुवलहीदो ।" तेन स्थितिसत्त्वस्याऽपि तदानीमेव सहक्षत्वं संभवति । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 矍 स्थितिसत्त्वम् ] [ १२१ स्थितिखण्डेषु गतेषु दर्शनत्रिकस्य स्थितिमत्त्वं द्वीन्द्रियस्थितिसत्कर्म तुल्यं भवति, ततः सहस्त्रेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु दर्शनत्रिकस्य स्थिति सच्च मे केन्द्रियस्थितिमत्व तुल्यं भवति, ततो भूयः संख्यातेषु सहस्त्रेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु दर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्त्वं पत्योपमप्रमाणं भवति यदुक्तं कर्मप्रकृतिचूण- "ततो ठिदिखडगपुहुतेणं जायं पलिओक्मट्ठितियं दंसणमोहणिज्जद्वितिसंतकम्मं” एवं कषायप्राभृतचूर्णावपि "तदो ठिदिखंडयपुधत्तेण पनिओवमट्ठिदिगं जादं दंसणमोहणीयडिदिसंतकम्म" इति पञ्चसङग्रहे तु दर्शनत्रिकसपणाऽधिकारे दर्शनत्रि कम्यै केन्द्रियस्थितिसत्कर्म तुल्य मत्कर्मतः स्थितिखण्डपृथक्त्वे ते पल्योपमसंख्येयतमभागमात्र स्थितिसत्त्वमुक्तम्- "एक के अंतरंभि गच्छंति पलिओवमसंखंसे दसणसंते तओ जाए|| २ || इति । तथैव पञ्चसङ्ग्रहस्य श्रीमन्मलयगिरिमूरीश्वरप्रणीतटीकायामप्येकेन्द्रियस्थितिसत्कर्मतः संख्येयेषु स्थितिघातसहस्रेषु गतेषु पच्योपमसंख्येयभागप्रमाणं स्थितिसत्वं भवतीत्युक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थः "ततोऽपि तावन्मात्रेषु खण्डेषु गतेष्वेकेन्द्रिय स्थिति सत्कर्मसमानं ततोSपि तावन्मात्रेषु गतेषु पत्योपमसंख्येयभागमात्रप्रमाणं भवति ।" इति । अनिवृत्तिकरणाधिकारः चूर्णिकारमतेन पल्योपमप्रमाण स्थितो जातायां पञ्चसङ्ग्रहमतेन पुनः पल्योपममंख्येयतमभागमात्रस्थितौ सत्यां ततः परं सत्तागनदर्शन त्रिकथितेः संख्येयान् भागान् कृत्यैकं संख्येयं भागं मुक्त्वा दर्शनत्रिकम्य शेषान् सर्वान्संख्येयान् भागान् विनाशयति, भूयोऽपि द्वितीय स्थितिघाताद्वायां प्राग्मुक्तस्य संख्येयतम भागस्यैकसंख्येयतमभागं विमुच्य शेषान्संख्येयान् भागान् विनाशयति । एवं प्रतिस्थितिघाताद्धं स्थितिसत्कर्म सख्येयगुणहीनं करोतीति यावत् । एवं तावद्वक्तव्यम्, यावत्सहस्राणि स्थितिघाता व्रजन्ति । तदनन्तरं मिथ्यात्वस्य सत्तागतस्थितेरसंख्येयान्भागान् कृत्वैकमसंख्येयभागं मुक्त्वा शेषानसंख्येयान् बहुभागान् खण्डयति । सम्यक्त्वमिश्रयन्तु पूर्ववत् संख्येयान् भागान् खण्डयति एवमनेकसहस्रेषु स्थितिघातेषु व्रजितेषु मिथ्यात्वस्याऽऽवलिकाप्रमाणं विमुच्य सर्वस्थितिमत्त्वं विनाश्यते, तेन तदानीं मिथ्यात्वस्याssवलिकाप्रमाणं स्थितिसत्त्वं भवति, सम्यक्त्वमिश्रयोस्तु स्थितिसच्वं पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणं भवति । ततः प्रभृति सम्यक्त्वमिश्रयोः स्थितेरसंख्येयान्भागान्खण्डयति, एकभागश्चाऽवतिष्ठते । उक्तं चकर्मप्रकृतिचूर्णो 'तं िकए ठिदिसंतकम्मस्स संखेज्जभागा आधायिज्जंति, आघायिज्जति णाम वंडिज्जंति अहवा द्विज्जति एगो सेसो भागो गनो दंसणमोहणिज्जम्स | ततो ठितिखंडगसहस्त्राणि गयाणि ततो पलिओवमस्स संखेज्जतिभागे संतकम्मस्स सेसे तो बहुसुठितखंडग गेसु गयेसु) ठिइंसंतकम्मस्स असंखेज भागा मिच्छत्तस्स आघाइज्जति । संतकम्मस्स सम्मत्तमीसाणं संखेज्जाभागा चेव आघाइज्जति, ततो बहुसु ठिदिखडगेसु गतेसु मिच्छत्तस्स आवलियाबाहिर दलियं आघातियं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ३२ भवति-सम्मत्तसम्मामिच्छतेसंछुढमित्यर्थः । समत्तसम्ममिच्छत्ताणं पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागो सेसो मिच्छत्ते पढमसमयसंकते णिहिए संमत्ते सम्मामिच्छत्ताणं असंखेज्जाभागा आघाइता भवन्ति, संकामिता भवंति ज वुत्तं होति ।। ” इति । - पूज्यमलयगिरिपादमिथ्यात्वसत्काऽऽवलिकामाने शेपे सम्यक्त्वमिश्रयोः स्थितिसत्वं पल्योपमाऽसंख्येयभागं दर्शितम् । तथा च तद्ग्रन्थः-'दाना च सम्यक्त्वसम्यक्त्वमिथ्या. त्वयोर्दलिक पल्पोपमाऽसंख्येयभागमात्रमवतिष्ठते" इति । कपायप्राभृतचूर्णिकारमतेन पुनदर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्कर्मणः संख्येयगुणहानिप्रारम्भतः संख्येयेषु स्थितिखण्डसहस्रपु गतेषु दापकृष्टिमंझंक दर्शनत्रिकस्य सत्कर्मस्थानं प्राप्यते । ननु किन्नान दुरापकृष्टिसंझं सत्तास्थानमिति टिप्पणी उक्तं च "जयधवलायामपि-का दुरापकिट्री णाम बुच्च दे । जत्तो ठितिसंतकम्मावसेसादो संखेज्जे भागे घेतूण टिदिखंडए घादिज्जमाणे घादिदसेसं णियमा पलिदोदमस्स असंखेज्जादिभागपमाणं होदुण चिदि तं सव्वपच्छिमं पलिदो० संखे० भागपमाणं ठिदिसंतकम्मं दूराकिट्टि त्ति भण्गदे। कि कारणमेदस्स ठिदिविसेसस्स दूरावकि ट्टिसण्णा जादा त्ति चे ? पलिदोवर्माठदिसतकम्मादो सुदूर यरमोसरिय सम्वजहष्णपलिदोवमसंखेज्ज भागसरूवेणवट्ठाणादो" इति । पल्योपस्थितिकर्मणोऽधस्ताद्दूरतमप्रकृष्टत्वादतिकृशत्त्वाच्च दुराप्रकृष्टिरेषा स्थितिरित्युक्तं भवति अथवा दूर तरमपकृष्यतेऽस्याः स्थितिकण्डकमिति दूरापकृष्टिः। इतः प्रभृत्यसंख्येयान्भागा-गृहीत्वा स्थितिकण्डकघातमाचरतीत्यतो दूराकृष्टिरिति यावत् । ननु दूगपकृष्टिस्थानमेकमने कं वा भवतीति चेद् ? उच्यते, असंख्यातगुणितपल्योपमवर्गमूलमात्राणि दूरापकृष्टिस्थानानि भवन्ति, तेभ्य: किमप्येकमेव सर्वजीवानामेकादशं स्थानं भवति, अनिवृत्तिकरणे युगपत्प्रविष्टानां नानाजीवानां प्रथमखण्डेऽपगते स्थितिसत्कर्मण: समानत्वसंभवत् । पल्योपमं जघन्यपरिताऽसंख्येयरूपभागहारेण भक्त्वैक तत्र प्रक्षिप्यते, तत्स्थानं दुराप्रकृष्टित्वेन व्यपदिश्यते, इति केचित् । उक्तं च जयधवलायाम् “किमेसादुरावकिट्री एगविगप्पा पाहो अणेगवियप्पा ति? के वि भणति एयवियप्पा एसा, णिवियप्पपलिदोवमास संखेज्जदि भ गवियप्पपडिबद्धत्तादो। सो च णिव्वियव्वो पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो पलिदोवम जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडिय तत्थ रूवाहिय एयखड मेत्तो, एत्तो एक्कस्स वि द्विदिविसेसस्स परिहाणीए पलिदोवमासंखेज्जभागवियप्पुप्पुत्तीप्रो. त्ति" इति। जयधवलाकारास्त्वहः-पल्योपममुत्कृष्टसंख्यातेन विभज्य लब्धित एकैकरूपं न्यून न्यूनं तावद्वक्तव्यं यावत्पल्योपमं जघन्यपरित्ताऽसंख्यातेन खण्डयित्वा लब्धिर्न प्रप्यते पत्योपमं सर्वोत्कृष्टसंख्यातेन सर्वजघन्याऽसंख्यातेन च भक्त्वा द्वयोर्लब्ध्योरन्तरालगतानि स्थानानि दूरापकृष्टसंज्ञितानि भवन्तीति यावत् । तानि चाऽन्तरालगतस्थानानि सर्वोत्कृष्टसंख्यातगुणितजघन्याऽसंख्यातभक्तपल्योपममात्राणि भवन यायसंख्यातगुणितपल्योपमप्रथमवर्गमूलप्रमितानि भवन्ति, असत्कल्पनया पल्योपममेकादशसहस्रसमयमात्रम् Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # कृष्टिः ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १२३ चेद् ? उच्यते-संख्येयबहु भागघातैः प्राप्यमाणचरमपल्योपमसंख्येयभागमात्रं स्थितिस्थानं दुरापकृष्टिस्थानमुच्यते, तत एकस्मिन् स्थितिघाते पूर्णे स्थितिसत्त्वं पत्योपमाऽसंख्येय भागमात्रं भवति, यत्स्थितिस्थान भवनात्स्थितिघातेन सत्तागतस्थितेऽरसंख्येयबहुभागा नाशाय प्रयतन्ते तत् सत्तास्थानं दूरापकृष्टिसंज्ञमिति फलितार्थ: । अयं शब्दार्थ:- अपकृष्यते तनुक्रियते स्मेत्यपकृष्टिः कर्मणि "स्त्रियां क्तिः " ( सिद्धहेम ५।३।९१ ) इत्यनेन 'क्तिः,' दूरमतिशयेनाऽपकृष्टिः दुरापकृष्टिः पन्यापम मात्र स्थिति सच्च भवनात्संख्यातसहस्र ेषु गतेषु सत्सु प्राप्यमाण स्थितिसत्त्वस्य पल्योपमतोऽत्यन्तहीनत्वेन दूरापकृष्टिरिति व्यपदेशो भवति । यद्वा अप पूर्वकः कृष् धातुः । दूरमपकृष्यतेऽपनीयते स्मेति दूरापकृष्टिः, पल्योपमस्थितिसत्कर्मत इदं सत्तास्थानमतिशयेन दूरमपनीयते तेनेदं सत्तास्थानं दूरापकृष्टिरिति व्यवह्रियते । यद्वा दूरमपकृष्यते दूरमपनीयते सत्तागत स्थिति 1 = असत्कल्पनयोत्कृष्टसंख्यातंम् असत्कल्पनया जघन्यपरित्ता संख्यातम् = पल्योपम: उत्कृष्ट संख्यातः = ११०००÷५०=११०० पल्योपम: जघन्यपरित्त संख्यातम् = ११०००÷११=१००० शताऽवि कसहस्त्रसंख्याकस्थानादे को नहान्या सहस्र संख्याकस्थानं यावद्वक्तव्यम । एतेन शतं दूरापकृष्टिस्थानानि (११००-१००० = १०० ) यद्वा पल्योपमम् उत्कृष्ट संख्यातम् जघन्यपरित्ताऽसंख्यातम् । प .=१०० _ ११००० उ. सं. ज. प. प्र. सं १०:४११ इदं च दिग्दर्शनमात्रमेव मैवमन्येषामपि दूरापकृष्टिस्थानानां संभवात्, तथाहि पल्योपमे जघन्यपरित्ताऽसंख्याताऽर्थेन जधन्यपरित्तस्य चतुर्भागेन वाऽपि भक्ते दूरापकृष्टिस्थानं प्राप्यते, एतेषु स्थानेषु केवलिदृष्टयैकतमदेव स्थानं दूरापकृष्टित्वेन दर्शन त्रिकस्य क्षपको लभते । उक्तं च जयधवलायाम् "वयं तु भणामो, प्रणेयविया एसाति । किं कारणं पलिदोवमा संखेज्ज भागमेत्तट्ठि दिसंतुप्पदित्तणिबंधणाणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागद्विदिविष्वाणमसंखेज्जप लिदो वमपढमवग्गमूलमेत्ताणमुवलंभादो । तं जहा - उक्कस्ससंखेज्जं विरलेयण पलिदोवमं समखंडं करिय दिष्णे एक्के कस्स रूवस्स श्रसंखेज्जाणि पलिदोवमपढमवगमूलाणि पावेति । तत्थेयरुवधरिदप्पमाणं सव्वजहण्णयं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागोत्ति भण्गदे । संपहि सभंतरे जइ एगरूवं परिहायदि तो वि पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो चेव । दोसु रूवेसु परिहोणेसु विपलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो चेव । एवमेगुत्तरवड्डीए रूवेसु परिहीयमाणेसु जदि सुट्टु बहुगं परिहादि तो मेरूवधरिदं पुणो जहन्नपरित्तासंखेज्जेण खंडेयूणेयखंडमेत्तं जाव ण परिहोणं ताव पलिदोवमस्स संखेज्जदि भागमेत्तमे दस्स ण फिट्टदि । सपुण्णेगखंडपरिहोणो वि ( णा) जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खडदपलिदोवममेत्तट्ठिदिसंत वियप्पाणुप्पत्तदो । तम्हा दूरावकिट्टी श्रसंखेज्जप लिदोवमपढमवग्गमूलमेतवियप्पसहिदा त्तिसिद्ध ं । दिरिसणमेत्तं चेदं परुविदं एदीए दिसाए अण्णे विदूराव किट्टीवियप्पा समुप्पाएया, जहष्णपरित्ताऽसंखेज्जस्स श्रद्धच उभागादिरूवेहिम्मि (हि पि) पलिदोषमे खंडिडे दूरावकिट्टि विय पुत्ती पडिसेहाभावादो । एदेसु वियत्पेसु जिर्णादिट्टभावण्णदर वियत्पपडिबद्धा दूरावकिट्टि एयवियप्पा इह यव्वा, प्रणियट्टिकरणपरिणामेहिं घादिदावसिट्टाए तिस्से प्रणेयवियप्पत्तविरोहादो । " इति । १० ११ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३२ स्थितिघातैर्यतः, तत् स्थानं दूरापकृष्टिरिति व्यवहीयते । इतः प्राकसत्तास्थितेः संख्येयभागान् घातयति स्म, अतः प्रभृति सत्तास्थितेरसंख्येयान् भागान् घातयतीतिकृत्वा स्थितिघातेन सत्तागतस्थितिरतिद्रमपनीयते । ततः परं दर्शनत्रिकस्य स्थितेरसंख्येयवहभागा घान्यन्त एकश्व सत्कर्मण्यवशिष्यते। संख्ये येषुस्थितिखण्ड सहस्रषु गतेषु. सम्यक्त्वस्याऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा जायते । इदमुवतं भवति-कषायप्राभतर्णिकारमतेन गुणश्रेणिरुदयावलिकाया उपरितननिषेकात्प्रभृति भवति, अतः प्राग्गुणश्रेण्यर्थ गृहीतदलिकमसंख्येयलोकभागहारेण भक्त्वैकभागमुदयावलिकायां विशेषहीनक्रमेण ददाति स्स, बहुभागांस्तूदयावलि. काया उपरितनेषु निषेकेषु गुणश्रेणिशिरःपर्यन्तमसंख्येयगुण क्रमेण ददाति स्म, तेनोदयावलि. कायामेकसमयप्रबद्धस्याऽसंख्येयभागमात्रमागच्छति स्म । इदानीं तु गुणश्रेण्यथं गृहीतदलं पल्योपमाऽसंख्येयभागेन विभज्य कभागप्रमाणं दलमुदयावलिकायां कषायप्राभतमतेन विशेषहीनक्रमेण कर्मप्रतिमतेन त्वसंख्येयगुणक्रमेण प्रक्षिपति, तेनोदयावलिकायां दलिक पूर्वतोऽसंख्येयगुणं भवदसंख्ये यसमय विद्दल बध्यते तावद्भवति । अतः प्रभृति सर्वत्र सम्यक्त्वस्याऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा वक्तव्या। असंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणातः संख्येयेषु स्थितिखण्ड सहस्रषु गतेषु मिथ्यात्वस्योदयावलिकां वर्जयित्वा सर्वमिथ्यात्वस्थितिसत्कर्म घातयति तदानीं च सम्यक्त्वसम्पग्मिथ्यात्वयोः स्थितिसत्कर्म पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रमवशिष्यते न ततो हीनम् , उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी -"तदो सेसस्स संखेजाभागा आगाइदा । एवं ठिदिखंडयसहस्सेसु गदेसुदूरावकिट्टी पलिदोवमस्स संखेज्जे भागे द्विदिसंतकम्मे सेसे तदो सेसस्स असंखेजा भागा आगाहदा। एवं पलिदोवमस्स असंखेन्जादिभागिगेसु बहुए सु हिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु तदो सम्मत्तस्स असंखेज्जाणं समयपबडाणमुदीरणा । तदो बहुसु हिदिखंडएसु गदेसु मिच्छत्तस्स आवलिय बाहिरं सव्वमागाइद, सम्मत्तसम्ममिच्छताणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो सेसो" इति । टिप्पणी उक्तं च जयधवलायामपि दुरावकिट्टोदो हेटा संखेज्जसहस्समेत्ताणि असंखेज्जगुणहाणिट्रिदिखंडयाणि प्रोसरियूण मिच्छत्तचरिमट्ठिदिखंडयं च संखेज्जसहस्सटिदिखंडएहि (एण्हि)ण पावदित्ति एदम्मि अतराले सम्मत्तस्स पसंखेज्जाण समयपबद्धाणमुदीरणा पारद्धा त्ति सुत्तत्थणिच्छयो । एत्तो पव्वं च सम्वत्थेव असंखेज्जलोगपडिभागेण सव्वकम्माणमुदीरणा एण्हि पुण सम्मत्तस्स पलिदोवमस्सासंखेज्जदिभागपडिभागेगुदीररणा पयट्टात्ति ज वुत्तं होइ -प्रोकट्टिदिसयलदव्वस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेपडिभागियं दव्वमुदयबलियबाहिरे गुणसेढीए णिविखवदि । गुणसे ढिदव्वस्स वि असंखेज्जभा. गमेत्तं दव्वमसंखेज्जसमयपबद्धपमाणपडिबद्धमेण्हिमुदोरेदि त्ति एदेण सुत्तेण जाणाविदं । एतोप्पटुडि सम्वत्थेव उदीरणा कमो एसो चेव सम्मत्तरस दट्रव्यो। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज. स्थितिसंक्रमः ] अनिवृत्तिकरणाऽधिकारः [ १२५ मिथ्यात्वस्य चरमस्थितिखण्डे घात्य माने घातिते मिथ्यात्वस्य जघन्यस्थितिसङ्क्रमो भवति, गुणितकर्माशम्य जीवस्य चोत्कृष्ट प्रदेशसक्रमो भवति, यो जीवो मिथ्यात्वस्योत्कृष्टप्रदेशाग्रं सङ्क्रमयति तस्य जीवस्य मिश्रस्योत्कृष्टप्रदेशसत्कर्म भवति । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी "तदो हिदिवंडये णिहायमाणे णिट्ठिदे मिच्छत्तस्स जहण्णओ हिदिसंकमो उकोसओ पदेससंकमो ताधे सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सगं पदेससंतकम्म"। इति । एवं. कमप्रकृतिचूर्णावपि "मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणं अप्पप्पणो खवणचरिमखंडगेवटमाणो मणुत्तो अविरतसम्मदिट्ठी देसविरतो वा विरतो वा जहण्णठितिसंकामगो लब्भति... स्थितिसंक्रमे) अप्पप्पणो खवगस्स चरिमसंछोभणातो-दोण्हं मोहाणं ति मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणं उकोसपदेससंकमो सव्वसंकमेण लब्भति...(संक्रम करणे प्रदेशसंक्रमे) । ततो लहुमेव खवणोए अन्भुडिओ जंमि समते मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते सव्वसंकमेण संकंतं भवति तंमि समते सम्मामिच्छत्तस्स सकोसपदेससंतं भवति (उत्कृष्टप्रदेशसत्तास्वामित्वे) इति"। ननु मिथ्यात्वस्य पल्योपमाऽसंख्येय भागमात्रं चरमस्थितिखण्डं स्थितिघाताद्धायाः प्रथमसमयादारभ्याऽन्तम हृतं यावद् घात्यते, तर्हि मिथ्यात्वस्य जघन्यस्थितिसङ्क्रमोऽन्तमुहूर्त यावत्कृतो नोच्यते, स्थितिघाताद्धायाश्चरमसमय एव कथमिति चेद् । उच्यते चरमस्थितिखण्डं घातयन् स्थितिघाताद्धायाः प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमुदयावलिकाया उपरितनीः सर्वस्थितीघोतयति । तथा वेदनत उदयसमयेषु क्षीणेषु सत्सु स्थितिखण्डस्याऽधस्तनसमयाः क्रमश उदयावलिकायां प्रविशन्ति । उदयावलिकागतं सकलकरणाऽयोग्यमितिकृत्वा स्थितिघाताद्धायाः प्रथमसमयत उत्तरोत्तरसमये वेदिते स्थितिसत्त्वे स्थितिखण्डस्य न्यूनत्वं भवति । अतः स्थितिघाताद्धाया। प्रथमममये यस्थितिखण्डमासीत् , तत्स्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये समयोस्थितिघाताद्धाप्रमाणाऽन्तमुहर्तकालेन न्यूनं भवति । अतो जघन्यस्थितिसङ्क्रमः स्थितिघाताद्धायाश्चरमसमय एव प्राप्यते, इयांस्त्वत्र विशेष:-इतरस्थितिखण्डानामेताहशक्रमेण न्यूनत्वं न भवति, यतस्तत्रोदयावलिकाया अनन्तरस्थितिस्थानास्थितिघातो नाऽऽरभ्यते, अपि तु स्थितेरग्रिमभागतः स्थितिखण्डं घान्यते. अतो वेदनत उदयसमयेषु क्षीणेषु यद्यप्युदयावलिकोपर्युपरि वर्धते, तथाऽपि ये समया उदयावलिकायां प्रविशन्ति, ते स्थितिखण्डतो न्यूना न भवन्ति । मिथ्यात्वस्य चरमस्थितिखण्डे घातिते मिथ्यात्वस्याऽऽवलिकामात्र स्थितिसत्कर्माऽवतिष्ठते । ततो मिथ्यात्वस्याऽऽवलिकामात्रां स्थिति प्रतिसमयं सम्यक्त्वे स्तिबुकसङ्क्रमेण संक्रमयन् द्विसमयोनावलिकायां गतायां मिथ्यात्वस्य जघन्यस्थितिसत्कर्म प्राप्यते, मिथ्यात्वस्याऽ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् १२६ ] [ गाथा-३२ नदयवत्वादनन्तरसम ये स्तिबुकसक्रमेणोदयवतीषु प्रकृतिषु मध्ये प्रक्षिपति तत्स्वरूपेण चाऽनुभवति तेन तदानीं तस्य दलिक स्वरूपेण न प्राप्यते, किन्तु पररूपेण । उक्तं च कषायमाभत. चौँ "तदोआवलियाए दुसमयू गाए गदाऐ मिच्छत्तस्स जहण्णहिदिसंतकम्म" इति। मिथ्यात्वस्य चरमस्थि तेघाततः पामुभयेषां कषाप्रप्राभूतचूर्णिकाराणां कर्मप्रकृतिचूर्णिकाराणां च मतेन सम्यक्त्वमिश्रयोः स्थितेग्संख्येयभागाः प्रतिस्थिनिखण्डेन घात्यन्ते, एकभागश्च सत्कर्मणि मुच्यते । इदमुक्तं भवति-सम्यक्त्वमिश्रयोः स्थितेरसंख्येयबहु भागान् घातयति. एकासंख्येयभागं च मश्चति, स्थितिघाताद्धाप्रमाणेन्तमुहूर्ते गने प्राग मुक्तम्याऽसंख्येयभागान् खण्डयति, एकमसंख्येय भागं च सत्कर्मणि परित्यजति, एवं क्रमेण तावद्वक्तव्यं यावदनेकसहस्राणि स्थितिघाता व्रजन्ति, ततो मिश्रस्याऽऽवलिकामात्रां स्थिति भुक्त्वा शेषां सर्वां स्थिति घातयति, सम्यक्त्वम्य त्वष्टवर्षमात्रां स्थिति मुक्त्वा शेषां सर्वा घातयति उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-"एवं संखेज्जेहिं सम्मामिच्छत्तठिनिखंडगेहिं गऐहिं सम्मामिच्छत्त आवलियाघाहिरं सव्व आघातियं भवति । ताहे चेव समत्तसंतकम्म अहवासठियं होति" इति । एव कषायप्राभूतचूर्णावपि "सम्मामिच्छत्तं पि खवेंतस्स सेसस्स असंवेज्जा भागा जाव । सम्मामिच्छत्तं पि ग्वविज्जमाणं खविदं, संछुन्भमाणं संळुह" इति । मिश्रमोद्वनीयस्य चरमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये मिश्रस्य जघन्य स्थितिसक्रमस्तदानीमेव च गुणितकर्माशजन्तोरुस्कृष्टप्रदेशसक्रमो भवति । तथा तम्यैव गुणतकर्माशजन्तोः सम्यक्त्वमोहनीयस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्वमपि भवति ।"तथा चोक्तं कषायप्राभूतचूर्णी-"एदम्मि हिदिखंडए निदिदे ताधे जहण्णगो सम्मामिच्छत्तस्स हिदिसंकमो, उक्कसओ पदेससंकमो, सम्नतस्स उकस्सपदेससंतकम्मं ।" इति । ___ अष्टवार्षिकसम्यक्त्वसत्कर्मा च निश्चयनयमतेन सम्यग्दर्शनं प्रति मिथ्यात्वमिश्रमोहनीययोः सत्त्वस्यापि प्रत्यूहरूपत्वेन क्षयात् सकलप्रत्यूहापगमाद्दर्शनमोहनीयक्षपक उच्यते, उक्तं च कर्मप्रकतिचूर्णौ " ताहे चेव सम्मत्तसंतकम्मं अट्ठवासट्ठीइयं होति । ताहे दंसणमोहणिजस्स खवगो त्ति भन्नति"। इति । एवं कषायप्राभूतचूर्णावपि-"ताधे चेव सम्मत्तस्स संतकम्ममहवस्सहिदिगं जादं । ताधे चेव दंसणमोहणीयक्खवगो त्ति भण्णा । इति । केचिद् भणन्ति-मिश्रम्य प्रक्षेपे सम्यक्त्वस्य स्थितिसत्त्वं संख्येयसहस्रवर्षप्रमाणं भवतीति । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-"ताधे सम्मत्तस्स दोष्णि उवदेसा । केवि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसिकनिक्षपः ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १२७ भण्णति संवेज्माणि वस्ससहरसाणि हिदानि ति । पवाइज्जतेण उवदेसेण अहवस्साणि सम्मत्तस्स सेसाणि, सेसाओ हिदाओ आगाइओ" त्ति ।" अथ कषायप्राभृतचूर्णिकारमतानुसारेणाऽपूर्वकरणादारभ्य दलिकनिक्षेपो भण्यते-अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य मित्रमोहनीयस्य पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणचरमस्थितिखण्डाद्धाया द्वि चरमपमयपर्यन्तमुत्कीर्य माणदलिकमधम्तनोदयावलिकायां विशेषहीनं विशेषहीनं विरचयति । ततः परं गुण श्रेणिशिरःपर्यन्तमसंख्ये पगुणकारेणोत्तरोत्तरस्थितिस्थान के निक्षिपति, गुणश्रेणिशिरस उपरितेन प्रथमस्थितिस्थानकेऽसंख्येयगुणहीनं दलं निक्षिपति । कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते-फसत्तागतदलमपकर्षणोत्कर्षणभागहारेण पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणे न विभज्यकभागमुत्किरति । उत्कीर्णदलं पुनः एल्योपमाऽसंख्येयभागेन खण्डयित्वैकमागं गुणश्रेण्यर्थ गृणालि बहुभागांस्तु गुणश्रेणेरुपरितनेषु निकस्थानेषु प्रक्षिाति । तत्र गुणश्रेण्यर्थ गृहीतदलस्याऽसंख्येयभागमात्र दल दयावलिकायां ददाति, बहुभागांस्तु गुणश्रेणी प्रथमनिषेकतोऽसंख्येयगुणक्रमेणददाति । तत्र प्रयमनिषेकेऽपि दीयमानं दलमसंख्येयसमयप्रबद्ध मात्र भवति । तत उत्कीर्णदलस्य वहूनसंख्येय पागान मार्धद्विगुणहान्या पल्योपमाऽसंख्येयभागमाच्या विभज्यैकभागं गुणश्रेणिशिरस उपरितने प्रथमस्थितिम्थानके प्रक्षिपति तेन तत्र दीयमानं दलमेकसमयप्रबद्धस्याऽसंख्येयमागमात्र भवति . गुणश्रेणिशी त्वसंख्येय समयप्रबद्धदलस्य प्रक्षिप्तत्वाद्गुणश्रेणिशिरस उपरितने प्रथस्थितिस्थानके दीयमानदलस्पाऽसंख्येयगुणहीनत्वं सूपपद्यते । ___ तत उत्तरोत्तरस्थितिस्थानके विशेषहीनक्रमेण दलिकं निक्षिपति, यावदतित्थापनाऽप्राप्ता भवति, उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-'अपुव्वकरणस्स पढमसमयादो पाए जाव चरिमं पलिदोवमस्स असंखेज्जभागहिदिखंडय ति एदम्मि काले जं पदेसग्गमोकडडमाणो सव्वरहस्साए आवलियबाहिरहिदिए पदेसग्ग देदि, त यो । समयुत्तराए विदोए जं पदेसग्गं देदि तमसंखेजगुण । एवं जाव गुणसेढीसीसयं ताव असंखेजगुणं तदो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणतरविदोए पदेसग्गमसंखेनगुणहीनं, तदो विसेसहोणं । सेसासु वि हिदीसु विसेसहोणं चैव, णत्थि गुणगारपरावत्ती । इति । यद्यप्यत्रोदयावलिकायां निक्षेपो नोक्तस्तथापीयान् विशेषोऽत्र सभवति, यदुदयवतीनां प्रकृतीनां जटिप्पगो-लब्धिसारटोकायामुक्तम-अस्मिन् सत्त्वद्रव्ये तत्कालापकृष्टद्रव्यमिदं-पल्याऽसंख्यातभागेन खण्डयित्वा तद्बहुभागमुपरितन स्थिती "दिवड्ढगुणहाणि भाजिदे'' इत्यादि विधानेनाऽपकृष्टस्याऽधोऽ तिस्थापनावलिं मुक्त्वा विशेषहीनक्रमेण दद्यात् । पुनस्तदेकभागं....... पल्याऽसख्यातभागेन खण्डयित्वा बहुभागं ....- गुणश्रेण्यां दद्यात् । अवशिष्टक भागं .....उदयावल्यां दद्यात् । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] [ गाथा - ३२ निक्षेप उदयावलिकायां विशेषहीनक्रमेण भवति, अनुदयवतीनां तूदयवलिकाय दलिकं न निक्षिपति । उपशमनाकरणम् उपर्युक्त निक्षेपक्रमो यद्यपि चूर्णिसूत्र ऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य पल्योपमा - संख्येयभागप्रमाणं चरम स्थितिखण्डं यावत्खण्डयति, तावदुक्तस्तथाऽप्युत्कीर्यमाणपल्योपमाऽसंख्येय मागरूप चरमस्थितिखण्डाद्धाया द्विचरमसमयपर्यन्तमेव क्रमो वाच्यः, यत उत्कीर्य - माणपन्योपमाऽसंख्येय मागरूपच रमस्थितिखण्डाद्धायाश्वरमसमय एव दलिकमष्टवर्षप्रमाणस्थितौ प्रक्षिपतोर्जन्तोर्भिन्नक्रमश्च चूर्णौ दर्शितः तथा चाऽत्र कषायप्राभृतचूर्णि - पलिदोवमस्स असंखेज भागिय मपच्छिमं हिदिखंडयं तस्स डिदिखंडयस्स चरिमसमये गुणगारपरावत्ती "इति । उपर्युक्तानामक्षराणामयं भावः सम्यक्त्वमोहनीयस्य मिश्रमोहनीयस्य चोत्कीर्यमाणपल्योपमाऽसंख्येय भागप्रमाण चरम स्थितिखण्डाद्धायाश्चरमसमये तत्खण्ड गतं सर्वदलिकमुत्कीर्याऽधः प्रक्षिपति, तत्प्रक्षेपक्रमो न पूर्ववत्, किन्तु परावर्तते, तत्प्रक्षेपोऽन्यक्रमेण भवतीत्यर्थः । गुणकारपरावृत्तिर्नाम क्रियाभेदः, स तु पल्योपमाऽसंख्येय भागप्रमाण चरम स्थितिघाताद्धाचरमसमये भवति, नाग् । तेनेदं ज्ञापितं भवति - यत्पल्योपमाऽसंख्येय भागप्रमाण चरम स्थितिघाताद्वाया द्विचरमसमयं यावत्प्रागुक्तक्रमेण दलिकनिक्षेपो भवति । अथाऽपूर्वकरणप्रथमसमयात्प्रभृति मिश्रमोहनीयस्य द्विचरम स्थितिखण्डं यावद् दृश्यमानदलस्य दीयमानदलस्य च प्ररूपणा क्रियते यद्दलं निक्षिप्यते तद्दीयमानं दलमुच्यते, तेन सहितं पुरातनसत्तागतदलं दृश्यमानदलत्वेन व्यवह्रियते । तत्रादावेकैकनिषेकमाश्रित्य दृश्यमानदलस्य दीयमानदलस्य चाऽल्पबहुत्वमभिधीयते ' उदयावलिकायाः प्रत्येकस्मिन्निषेके पुरातन सत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागमात्रमेव दीयते, तेनोदयावलिकाया एकैकस्मिन्निषेके पुरातन सत्तागतदलिकतो दृश्यमानदलिकं विशेषाऽधिकं भवति । विशेषाधिक्यं च दीयमानदलेन ज्ञातव्यम् । गुणण्या एकैकस्मिन्निषेके पुरातनसत्तागतदलिकतो दीयमानं दलिकम संख्येयगुणं भवति । न च गुणश्रेण्यां दीयमानं दलिकं सर्वसत्कर्मद लिकस्याऽसंख्यात भागमात्रं भवति, यतः सर्वसत्वदलिकमप्रकृष्टभागहारेण भक्त्वा तदेकभागं पुनः पल्योपमाऽसंख्यात भागेन विभज्यैकभागगतदलं गुणश्रेण्या दीयते, तर्हि गुणश्रेणि सत्कनिषेकगत पूर्वसत्वदलिकतो दीयमानदलिकम संख्येयगुणं कथं भवतीति वाच्यम्, यतो गुणण्यां निक्षिप्यमाणदलिकस्य सर्वसत्वदलिकसत्काऽसंख्यात भागमात्रत्वेऽपि गुणश्रेण्यां निषेकाणामल्पत्वेन प्रतिनिषेकण प्राप्यमाणदलिकस्य तत्र पूर्वसच्चदलिकतोऽसंख्यातगुणत्वेन फ टीप्पणी- उदयावल्यां दत्तद्रव्यं प्राक्तन सत्त्वद्रव्यस्याऽसंख्यातैकभागमात्रमिति तेन सत्त्वद्रव्यं साधिकं भवति । । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 蠱 दलनिक्षेप: ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १२६ कश्चिद्दोषः । अतो गुणश्रेण्या एकैकनिषेके दीयमानदलिकतो दृश्यमानदलिकं विशेषाऽधिकं भवति विशेषाधिक्यं च पुरातन सत्तागतदलेन बोध्यम् । गुण रोरुपरितने एकैकनिषेके पुरातनसत्तागतदलस्याऽसंख्येयभागमात्रं दलं प्रक्षिप्यते तेन तत्र पुरातनसत्तागतदलिकतो दृश्यमानं दलं विशेषाऽधिकं भवति, विशेषाधिक्यं च दीयमानदलेनाऽवगन्तव्यम् । तथा गुणश्रेणिप्रथम निषेकाच्चर मनिदेकं यावद् दृश्य मानदलमसंख्येयगुणं भवति, गुणश्रेणिचरमनिषेकादनन्तरोपरितन निषेकेऽसंख्येयगुणहीनं भवति, तत ऊर्ध्वं विशेषहीनम् । अथोत्कीर्यमाणपल्योपमाऽसंख्येय भागरूपचरम स्थि तिखण्डाद्धायाश्वरमसमये दलनिक्षेपक्रम उच्यते - पल्योपमाऽसंख्येय भागरूप चरम स्थितिखण्डगतान्य संख्येय बहुभागप्रमाणदलिकानि तत्रिथतिघाताद्धायाश्चरमसमय उत्किरति, उत्कीर्यचोदय समयादारभ्य गुणश्रेणिशिरः पर्यन्तमसंख्येयगुणकारेण विरचयति । अयं गुणश्रेणिनिक्षेपोऽवस्थितो भणितव्यः, वेदनतः समये क्षीण उपयु परिवर्धत इत्यर्थः । ततो गुणश्र णिशिरस उपरितनैकस्थितिस्थानके गुणश्रेणिचरम स्थानकतोऽसंख्येयगुणं विरचयति । अतः प्रभृति वेदनत उदयसमयेषु श्रीयामणेषु वेदितसमयप्रमाणनिक्षेपः पूर्वपूर्वनिक्षेपतः प्रतिसमयं न्यूनो न्यूनतरो न भवति, किन्तु गुणश्रेणिनिक्षेप उपर्युपरि वर्धते, पूर्व स्वनुभवतः क्षीणेषु समयेषु शेषशेषसमयप्रमाणनिक्षेप आसीत्, न च गुणश्रेणिनिक्षेप उपर्युपरि वर्धते स्मेत्यर्थः । गुणश्रेणिशिरस उपरितने प्रत्येक स्थितिस्थानके विशेषहीनक्रमेण गुणश्रेणिनिक्षेपन्नाऽष्टवर्षप्रमाणस्थितौ निचिपति । ★ उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "ताघे पाए ओवटिजमाणासु द्विदिसु उदये थोवं पदेसग्गं दिज्जदे । से काले असंखेज्ञगुणं जाव गुणसेढीसीसयं ताव असंखेज्जगुणं तदो उवरिमाणंतरडिदिए वि असंखेजगुणं देदि । तदो विसेस होणं । एवं जाव दुचरिमडिदिखंड यं ति "इति । भावार्थः पुनरयम्सम्यक्त्वमोहनीय मिश्र मोहनीययोः पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्र चरम स्थितिखण्डस्य दलिकं किश्चिन्यून सार्धगुणहानिगुणितसमयबद्धप्रमाणं भवति यतः सत्तागतसर्वदलिकमपि किश्चिन्न्यूनसार्धगुणहानिगुणितसमयबद्धप्रमाणं भवति, अत्र च मिश्रमोहनीयस्योदयावलिकामात्रवर्ज - ★ उक्तं च धवलाटीकायामपि "पलिदोवमस्त प्रसंखेज्जादिभगियं चरमट्ठिविखंडयं चरिमफालिपदेसग्गमट्ठवरसम्म निक्खियमाणो उदयादिगवद्विदगुणसेढी करेहि । तं जहा - उबए थोवं पवेसग्गं दे दि से काले प्रसंखेज्जगुणं देदि । एवं जाव गुणसेढीसीसयं ताव श्रसंखेज्जगुणं तदो उवरिमणतरष्ट्ठिदिए वि असंखेज्जगुणं देवि । तदो विसेसहीणं बेदि । पुणो प्रणेण विधिणा सेसप्रमसमेत्तट्ठिदिसंत कम्मम्मि विसेसहोण चेव देदि त्ति ।" Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] उपशमनाकरणम् [ गाथा-३२ सत्तागतसर्वदलिक तथा सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽष्टवर्षमात्रस्थितिवर्जसर्वसत्तागतदलिकं पल्यो. पमाऽसंख्येयभागप्रमाणचरमखण्डस्योत्कीर्णाद्धाश्चरमसमय उत्कीयते, अतश्चरमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये मिश्रसम्यक्त्वयोः पन्योपमाऽसंख्येयभागमात्रचरमस्थितिखण्डे दलिकं किश्चिन्यूनसार्धगुणहानिगुणितसमयप्रबद्धप्रमाणं भवति । तद्दलिकं पल्योपमाऽसंख्येयतममागलक्षणभागहारेण भक्त्वा तदेकमसंख्येयतमभागमुदयसमयादारभ्य प्रागारब्धगलितावशेषगुणश्रेणिशीर्षपर्यन्तं पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणकारेण विरच्य शेषान् बहुभागान् गुणश्रेणिनिक्षेपन्यूनाष्टवर्षप्रमाणस्थितौ प्रक्षिपति, एवं गुणश्रेणौ निक्षिप्तदलिकतोऽसंख्येयगुणं दलिकं गुणश्रेण्यायामतः संख्येयगुणायामे गुणश्रेण्यायामन्यून वर्षाष्टकलक्षणे प्रक्षेपणीयम् । अतो गुणश्रेणिचरमनिषेके प्रक्षिप्तदलिकतस्तदुपरितनाऽनन्तरनिषेकेऽसंख्येयगुणे दलिके प्रक्षिप्त एवाऽसंख्येयबहुभागमात्रं दलं गुणश्रेणितः संख्यातगुण आयामे विशेषहीनक्रमेण विभक्तं स्यात् , असंख्येयगुणहीने प्रक्षिप्ते त्वसंख्येयवहुभागदलस्य निक्षेवो न स्यात्, तेन गुणश्रेणिचरमनिषेकतस्तदुपरितननिषेकेऽसंख्येयगुणं दलिकं प्रक्षिपति । तत उपरि विशेषहीनक्रमेण तावत्प्रक्षिपति यावदष्टवर्षप्रमाणस्थितेश्वरमनिषेकः, अनेन क्रमेण दलिके प्रक्षिप्ते गुणश्रेणेरुपरितनप्रथमनिषेकात्प्रभत्यष्टवपंप्रमाणस्थितेश्वरमनिषेकं यावत्प्रत्येकस्मिन् निषेके प्रक्षिप्तं दलिक गुणश्रेणिचरमनिषेके निक्षिप्त. दलिकतोऽसंख्येयगुणं भवति । इत्थमसंख्येयबहुभागमात्रं दलं गुणश्रेणेरुपरितननिपेकेषु प्रक्षिप्त भवति, तेनाऽसंख्येयबहुभागमात्रदलस्य निक्षेपः सूपपद्यते, अयं तु गुणश्रेणेः शिर इत्युच्यते, गुणस्य-असंख्येयगुणकारेण श्रेणिस्तस्य शिरः अवसानमिति व्युत्पत्तेः । अग्रे दृश्यमानप्ररूपणायां गुणश्रेणिशिरम्पदेनाऽयमेव निषेको बोध्यः । अतः परं गुणश्रेणिरुदयाद्यवस्थिता भवति, सा च प्राग्व्याख्याता । तत उपरि विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति, यावदतीत्थापनाऽप्राप्ता भवति । एवं क्रमेण के टिप्पणी-उक्त च जयधवलायाम-एत्थ ताव सम्मामिच्छत्तस्स चरिमफालीए सह सम्मत्तस्स अपच्छिमं पलिदो असंखे० भागिगं टिदिखंडयमोवट्टियूण प्रटुवस्समेत्त सम्मत्तस्स टिविसंतकम्म टुवेमाणस्स गुणगारपरावत्ति वत्तइस्सामो तं जहा....तक्कालभाविसगचारिमफालिदव्वेण सह सम्मामिच्छत्तार. मफालि घेत्तण अहवस्समेतदिदिसंतकम्मस्सुवरि णिसिंचमाणो उदए थोवं प्रदेसग्गं देदि । से काले प्रस. खेज्जगण देदि एवं जाव गुणसेडिसोसयं पुस्विल्लं ताव असंखे० गुणं देदि। तदो उपरिमाणतराए द्विदीए असंखे० गुणं चेव देदि । किं कारणं ? सम्मामिच्छत्तचरिमफालिवावं किचूणदिवडगुणहाणिगुणिदसमयप. बद्धमेत्तमोकणभागहारादो प्रसंखेज्जगुणेण पलिदो० असंखे. भागेण खडेयूण तत्थेयखडमेत्तमेव दव्वं गुणसेढोए णिक्खविय पुणो सेसबहुभायदवमंतोमुहूत्तण?वस्सेहि खंडिदेयखंडस्स णिरुद्धगोवुच्छायारेण णिक्खेव दसणादो । तम्हा एत्तोप्पहुडि सम्मत्तस्स उदयानि प्रवटिदिगुणसेढीणिक्खेवो होइ त्ति घेत्तध्वो। एवं गुणसेढीसीसयादो अणंतरोवरिमाए वि एकिस्से द्विवीए प्रसखेज्जगुणं पदेसग्गं णिक्विवियूण तदो उवरि सम्पत्य प्रणंतरोवणिधाए विसेसहोणं चेव देदि जाव प्रवासाण चरिमणिसेम्रो त्ति।" Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिधातः] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १३१ दलिके प्रक्षिप्ने प्रत्येकस्मिन्निषेके दीयमानदलं पुरातनसत्तागतदलतोऽसंख्येयगुणं भवति । उपयुक्तो दलिकनिक्षेपक्रमः सम्यक्त्वमोहनीयस्यैव ज्ञातव्यः, कुत इति चेद् ? उच्यते-मिश्रमोहनीयस्य चरमपन्योपमाऽसंख्येयभागमात्रे खण्डे घातित आवलिकामात्रस्थितिरवशिष्यते, पन्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाण चरमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमय आवलिकामात्रस्थितिवर्जसर्वमिश्रमोहनीयम्य सम्यक्त्वमोहनीयरूपेण परिणमनात्,सम्यक्त्वमोहनीयस्य तु पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रे चरमस्थितिखण्डे घातितेऽष्टवर्षप्रमाणस्थितिरवशिष्यत इतिकृत्वा पल्योपमाऽसंख्येयमागप्रमाणचरमस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमये घातितस्थितेर्दलिकान्यष्टवर्षप्रमाणस्थिता उपयुक्तक्रमेण निक्षिप्यन्ते । वर्षाऽष्टकस्थितिसत्कर्मणि जाते स्थितिखण्डान्यन्तमुहूर्त प्रमाणानि भवन्ति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी "अपत्तापाओ सम्मत्तस्स अंतोमुहुत्तियं हितिखंडगं करोति इति ।" एवं कषायप्राभूतचूण वपि । दृश्यमानं दलमुदयसमयादरभ्य गुणश्रेणिशीष यावद्दलिकमसंख्येयगुणक्रमेण वक्तव्यम्, गुणश्रेणि चरमनिपेकतोऽनन्तरोपरितननिषेकश्च गुणश्रेणिशीर्षम् तस्योपरि विशेषहीनक्रमेण वक्त व्यम्। पल्योपमाऽसंख्येय भागप्रमाणचरमखण्डस्योत्कीर्णाद्धायाश्चरमसमय उत्कीर्णदलिकतस्तस्परेषामन्तमु हतप्रमाणानां स्थितिखण्डानां प्रत्येकस्थितिखण्डोत्कीर्णाद्धायाः प्रथमसमयात्प्रभूतिद्विचरमसमयपर्यन्तदलिकमसंख्येयगुणहीनमुत्कीर्यते, चरमसमये तु संख्येयगुणहीनमुत्कीयते । कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते-पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणचरमखण्डोत्कीर्णाद्धायाश्चरमसमये पल्योपमाऽसंख्येयभागलक्षणचरमस्थितिगतानि शेषाणि सर्वाणि दलिकान्युत्कीर्याऽधस्तनऽष्टवर्षप्रमाणस्थितौ प्रक्षिपति । अथाऽष्टवर्षप्रमाणस्थितेरन्तमुहूर्तप्रमाणानि संख्यातानि खण्डानि क्रियन्ते, अतः पन्योपमाऽसंख्येययभागप्रमाणचरमखण्डोत्कीर्णाद्धायाश्चरमसमये पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाण चरमखण्डगतशेषदलिकस्य संख्येयतमभागः प्रत्येकखण्डे प्राप्तः, पन्योपमाऽसंख्येयभागचरमस्थितिखण्डगतावशेषदलिकस्यासंख्येयखण्डेषु विभजनात् । अन्तमुहूर्तप्रमाणखण्डस्य च प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण तदुत्कीर्णाद्धाचरमसमयपर्यन्तमुत्किरति, अतस्तत्खण्डगतदलिकस्याऽसंख्येयतमभागस्तत्स्थितिघाताद्धाया द्विचरमसमयपर्यन्तमुत्कीर्यते, शेषानसंख्ययभागांश्च चरमसमय उत्किरति । एतेनाऽन्त मुहूर्तप्रमाणखण्डे यावन्ति दलिकानि सन्ति, तेषामसंख्येयतमभागं मुक्त्वा शेषाऽसंख्येयबहुभागमानं दलिकं तत्खण्डसत्कस्थितिघाताद्धायाश्चरमसमय उत्किरति । एवं स्थितिघाताद्धाया द्विचरमसमयपर्यन्तं केवलमेकाऽसंख्येयभागमात्रं दलिकमुत्कीयते । सत्तागतदलिकतो यद्वा पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणचरमखण्डस्योत्कीर्णाद्धायाश्चरमस Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] [ गाथा ३२ मय उत्कीर्यमाणदलिकतः संख्ये यतमभागप्रमाणं दलिकमन्तर्मुहूर्त प्रमाणखण्डे तिष्ठति, पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्र चरम खण्ड दलिकस्याऽन्तर्मुहूर्त प्रमाणेषु संख्येयखण्डेषु विभजनात् । तेनोत्कीर्णाद्धायाश्चरमसमयेऽन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिखण्ड गतदलिकस्याऽसंख्येयभागमात्र दलिकस्य प्रागुकीर्णत्वेन शेषसर्वदलिकस्योत्कीर्यमाणत्वात् पन्योपमाऽसंख्येय भागप्रमाणचग्मस्थितिखण्डचरमसमयतः संख्ये गुणहीनमन्तर्मुहूतप्रमाण स्थितिखण्ड गत दलिकमुत्कीर्यमाणं भवति । अथाष्टवर्षप्रमाणस्थितिसत्कर्मंणि जातेऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणां स्थितिमुत्किरतो जीवस्य दलिकनिश्चेषो भण्यते - अन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थितिखण्डतो दलिकमुत्कीर्योदयसमयादारभ्य गुणश्रेणिशिर:पर्यन्त गुणकारेण निक्षिपति । तदुपरितनस्थितौ विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति । तथाहिउदयसमये सर्वस्तोकं दलिकं निक्षिप्यते, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणम्, ततोऽपि तृतीयसमयेसंख्येपगुणमेवं तावद्वक्तव्यम्, यावदुणश्र णिशिरः, तत ऊर्ध्वं विशेषहीनक्रमेण तावन्निक्षिपति, यावच्चरमनिक्षेपस्थानम् । अयं क्रमस्तावद् वक्तव्यः, यावद् द्विचरमस्थितिखण्डम् । कर्मप्रकृतिचूर्णौ तु यावच्चरमनिक्षेपस्थानमित्यनुक्त्वा यावदुत्कृष्टस्थितिरित्युक्तम्, तथा च तद्ग्रन्थः"ततो पमिति उवट्टिजमाणासु ठितीस जं पदेसग्गं तं उदते सव्वधोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं एवं जाव गुणसेढीसीसगं सिताव असंखेज्जगुणं असंखेज्जगुणं, एतो उवरिल्लाते ठितीते पएसा विसेसहीणा जाव उक्कोसिया ठिति न्ति, एवं जाव दुरिमखंडग त्ति " इति । अत्र उक्कोस्सिया ठिति इत्यस्य द्वा अर्थों भवितुमर्हतः । तद्यथा-घात्यमानखण्डवर्जशेष स्थिते श्वरमस्थितिस्थानकमिति प्रथमोऽर्थः, सत्तागतस्थितेः समयाधिकाssवलिकावर्जशेषमत्तागत स्थितेश्वरमसमयस्थिनिस्थानकमित्यपरोऽर्थः । आवलिकाया अतिस्थापनात्वेन तद्वर्जनम् । आद्यपक्षे स्वीक्रियमाणमुत्कीर्णाद्वायाः प्रथमसमयादुत्कीर्णाद्वाया द्विचरमसमयं यावद् वात्यमानस्थितौ दलिकनिक्षेपो न भवेत्, अपि तु घात्यमानस्थितेरधस्ताद् उपशमनाकरणम् | टिप्पणी - इदमेवोक्तं भङ्ग्यन्तरेण जयधवलाकार:, तथा च तदुग्रन्थ:- " पुरखो से काले सम्मत्तस्स अंतमुत्तमेत्तायामेट्ठिदिखयं घेत्तूण गुणसेट करेमाणस्स गुणगारपर वत्ति बत्तहस्सामा । तं जहा...... ता पाए अंतोमुहुत्तट्ठिदिखंडयघा देणो वट्टिज्जमाणासु सम्मत्तट्ठिदिसु जं पदेसग्गं प्रो कड्डुरण भागहारपडिभागेण घेत्तणुदयादिगुणसे ढिणिवखेवं करेमाणो उदये थोवं पदेसग्गं देदि, से काले प्रसंखेज्जगुणं देदि । एवमणेण कमेण प्रसंखेज्जगुणं णिसिचमाणो गच्छइ जाव हेट्ठिमसमयगुण सेढिसीमय पत्तो त्ति । पुणं एदम्हादो उवरिमाणंतराए वि एक्किस्से द्विदीए पदेसग्गमसंखेज्जगुरण णिसिचदि । किं कारणं ? प्रव दिगुणसे ढकखेवे कयपण्णत्तादो। एहिमोकडिददव्वस्स बहुभागे अंतोमृहुत्तूणट्टवस्सेहि समए खंडियतत्थेयखंडमेत्तदव्वं विसेसाहियं काढूण संपहियगुणसे ढिसीसये णिक्खिर्वाद त्ति वृत्तं होइ । एत्तो उवरिसव्त्रत्थ विसेसहीणं चेव निसिचदि जाव चरिमद्रिदिमइच्छावणावलियमेत्तेण अपत्तो त्ति । एवमवस्सडिदिसंतकम्मियस्स पढमसमए दिज्जमाणस्स परुवणा कया ।" Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दृश्यमानदलम् ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १३३ दलिकप्रक्षेपः स्यादिति । द्वितीयपक्षे स्वीक्रियमाणे तूत्कीर्णद्धाया द्विचरमसमय यावद् चात्यमा नस्थितावपि दलिकनिक्षेपः स्त्रीक्रियेत । तेनाऽनयोरन्यतरो बहुश्रुतेभ्योऽवगन्तव्यः । श्रीमन्मलयगिरिपादादिभिवृत्तिकारैश्वरमस्थितिरित्युक्तम्, न कश्चिद्विशेषो दर्शितः । अथ दृश्यमानदलप्ररूपणा क्रियते-पल्योपमाऽसंख्येय भागमात्र चरमखण्डस्योत्कीर्णाद्धायाश्चरमसमये गुणश्रेणिशीर्षसत्कदृश्यमानं दलिकं तु विशेषाऽधिकं भवति, इतः प्रभृति पोर्वसमयिक गुणश्रेणिशीर्षसत्कदृश्यमानदलिकत औत्तरसमयिकगुणश्रेणिशीर्षसत्कदृश्यमानं दलिकं विशेषाऽधिकं वक्तव्यम् । कथमेतदवसीयत इति चेद् १ उच्यते- 5 अष्टवर्षप्रमाणस्थितो जातायां प्रतिसमय सत्तागतदलिकस्याऽसंख्यातभागमात्रं दलिकमुत्कीर्यमाणं भवति, तेन प्रत्येकस्मिन् स्थितिस्थानके पुरातनगतदलिकतोऽसंख्येय भागमात्रं दलिकं प्राप्यते । अष्टवर्षस्थितिकरणसमये गुणश्रेणिशीर्षे यावद् दृश्यमानं दलिकमासीत्, ततस्तस्मिन्नेव काले दृश्यमानदलिकं विशेनं तदनन्तरोपरितनस्थितिस्थानके भवति, गुणश्रेणिचर मनिषेको परितन निषेकादुपरि विशेपहनक्रमेण दलिकदर्शनात्, यत्प्रमागोन हीनम्, ततोऽसंख्येयगुणं दलिकमनन्तरसमये तस्मिन् टिप्पणी० उक्तं च जयधवलायाम् - संपहि तत्थेव दिस्समाणदव्वं कधमवचिट्ठदित्ति एदस्स पिण्णयं वत्तइम्समो । तं जहा पुब्बिल्ल गुणसे ढिसीसयादो संपहिय गुण सेढिसीसयमसंखे० गुणं ण होइ । कि कारणमिदि भणिदे संपहि श्रोकड्डियूण गहिदसव्वदल पि मिलियूण अट्ठवस्सेगट्टिदिदव्वं पलिदोवमस्स असंखे • - भागेण खंडेयूनिय खंडमेत्तं चेव होइ, प्रटुवस्समेत्तणिसेगाणमोकड्डुरण भागहारपडिभागियत्तादो । पुणो तस्स वि असंखे० मागमेत्तं चैव हेट्ठा गुणसेढिम्हि णिसिचदि सेसप्रसंखेज्जे मागे संपहिय गुण सेडिसीसयपहुड उवरिमगो वुच्छेसु समया विरोहेण गिसिंचदित्ति एदेण कारणेणासंखेज्जगुणं ण जादं, किंतु विसेसाहियमेत्र दिस्समरणदव्वं होइ त्ति णिच्छेयव्वं । होंन पि प्रसंखेज्जमागुत्तरं चेव णत्थि अण्णो वियप्पो । संरहि एदस्सेवासंखेज्जभागाहियत्तम्स फुडीकरणट्टमेसा परुवणा कीरदे । तं जहा - हेट्टिमगुणसेढिसोसयदव्वमिच्छामो त्ति दिवडगुणहाणिगुणिदमेगं समयपबद्धं दृविय तस्स अंतोमुहुत्तूणट्टवस्समेत्तो भागहारो वेव्व । एवं द्वविदे पुव्विल्लसमय गुण से ढिसीसय बव्वमागच्छइ । संपहियगुण से ढिसीसय दध्वे इच्छिज्जमाणे एदं चैव दध्वमेयगोवच्छ विसेसहीणं ट्ठविय पुणो एहिमोक्कडिददव्त्रस्स बहुभागे अट्ठवसेहि अंतमहुतू हि खंडिय तस्थेयखंडमेत्तेणेदं दव्वमब्महियं कादव्वं । एदं च प्रहियदव्वं पुव्विल्लगुणसेसीसम्म समहिगो वुच्छ विसेसादो तत्थेव एव्हि पदिदा संखेज्जसमयपबद्धमेत्त गुणसे ढिदव्वादो च असंखेज्जगुणं, तप्पाप्रोग्गपलि दोवमासंखेज्जभागमेत्तरूवाणमेत्थ गुणगारभावेण समुवलंमादो । तत्थतणसव्वदव्वं पेक्खियूण पुण असंखेज्जगुरणहीणं, तम्मि सादीरेग प्रोफड्डुक्कडुरण भागहारेण खंडिदे तत्थयखं• उपमाणत्तादो । तदो एत्तियमेत्तमहियदव्वमवणिय पुष दुवेयूण तत्थ हेट्ठिमगुणसेढिसीसयम्मि समहियदव्वे एयगोवच्छ विसे साहियतक्कालपदिदासंखेज्जसमयपबद्धमेत्ते प्रवणिदे अवणिदसेसमेत्तेण पुब्विमसेसीसयादो पहियगुण से ढिसी सयदव्यमहियं होदि ति णिच्छओ कायव्वो । एवमुवरि वि समयं पड असंखे •गुणं दव्वमोकड्डियूण उदयादिभवद्विदगुण से ढिरिंग क्खेवं• कुणमाणस्स एसा चेव दिज्जमाणा दिस्समाणपरुवणा णिरव से समरणुगंतव्वा" । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३२ स्थितिस्थान के निक्षिप्यते तस्य स्थितिस्थानकस्येदानीं गुणश्रेणि शीर्षत्वेनाऽसंख्येय गुणक्रमेण दलिकप्रक्षेपेणा संख्येयममयप्रबद्धदलिक निक्षेपात्तथा साम्प्रतगुणश्रेणिशीर्षे निक्षिप्तदलतस्तत्पूर्ववर्निस्थितिस्थानकेऽसंख्यात भागमात्रं दलिकं प्रक्षिप्यते, साम्प्रतिक गुणश्रेणिशीर्षतः पूर्ववर्तिनि पेकत्वात्तस्य। अतः पूर्वसमयगुणश्रेणिशीर्षसत्कदृश्यमान दलिकतोऽस्मिन्समये गुणश्रेणिशीर्षसत्कदृश्यमानदलिकं विशेषाधिकं भवति, सत्तागतदलस्याऽसंख्येय भागमात्रदलस्योत्कीर्णत्वेन तत्स्थितिस्थानके दीयमानदलस्य पुरातन सत्ता गतदल सत्काऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । यद्यपीदानीं यद्गुणश्रेणिशोर्पमस्ति, तस्मिन् किञ्चिद्धीनं दलिकं पूर्वसमय आसीत्, किन्तु तस्य नूतननिक्षिप्यमाणदलिकसत्काऽसंख्यातभागमात्रत्वेनाऽविवक्षितत्वात् । एवं शेषसमयेष्वपि भाव्यम्, नवरं स्थितिखण्डाद्धायाश्वरमसमये सर्वत्र ( स्थितिखण्डाद्धायाश्चरमसमये) तत्तत्स्थितिस्थान के पुरातन सत्तागतदलिकतोसंख्येयभागमात्रं दलं प्रक्षिप्पते, सत्तागतस्थितिसत्कसंख्येय भागमात्र स्थितेर्घात्यमानत्वात् । तेन तदानीं पौर्वसामयिक गुणश्रेणिशीर्षत औत्तरसामयिकगुणश्रेणिशीर्षे दलं संख्येयभागेनाऽधिकं भवति । एवं तावद्वक्तव्यं यावद् द्विचरम स्थितिखण्डम् | 1 यदा सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽष्टवर्षेप्रमाणं स्थितिसत्कर्म भवति, ततः प्रभृति प्रतिसमयमनुभागाऽपवर्तनया सत्कर्मणोऽनन्तगुणहीनमनुभागं करोति, प्राक्तु प्रत्यन्तमुहूर्तं रसघातेना * (टिप्पणी) णरि अट्ठस्सट्ठिदिसंतकम्मयस्स पढमट्ठिदिखंडयप्पहूडि जाव दुचरिमखंडयं ति ताव एस्सिं संखेज्जसहस्समेत्ताणं द्विदिखड़याण चरिमफालियासु णिवदमाणियासु भेदो प्रत्थि, तत्थुः इसे गुणसठसीसम्म विदमाणदव्वस्स पुल्लितत्थतरण संचयगोवुच्छ पेक्खियूग संखेज्जदिभाग भहियत्तदंसणा दो । तस्सोवट्टरणामुहेण णिण्णयं वत्तहस्सामा । तं जहा .... पुव्विल्लसंचयं तत्थ तणमिच्छा. मोति दिवगुणहाणिगुणिदमेगं समयपबद्ध दुविय पुणो एदस्स भागहारो अट्ठवस्सायामो अंतोमुहुत्तूणो | संपपिढमट्ठदिखडयचरिमफालीए पडमाणाएं खंडय दव्वमिच्छामो त्तिदिवड्ढगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धस्त अंतोमुहुत्तोवट्टिदअट्ठवस्सायामो भागहारतेण दुवेयव्वो । एवं द्वविदे पढमट्ठिदिखंडयचरिमफालिकवमागच्छइ । पुष्पो एदस्सासंखेज्जभागमेन्तमेव हेट्ठा गुणसेढीए णिक्खिविय सेस बहुभागे श्रवद्विदगुणसे ढिसोसयप्पड अंतोमुहुत्तूणट्ठवस्सेसु गोवच्छायारेण निसिचदित्ति अंतोमुहुत्ताट्टवस्सेहि एदमि खंडयदव्वे प्रोट्टिदे णिरुद्धसमयम्म श्रवद्विदगुण से डिसीसयम्मि रिगवदमाणदव्वं पुव्विल्लतत्थतणस - चयस्स समणंतरगुणसेढिसीसयस्स च हेट्टिमसंखेज्जभागमेत्तश्रा (मा) गच्छदि । तदो सिद्धं तदवत्थाए दुचरिमगुणसे डिसीसयादो चरिमगुणसे डिसीसयदवं संखेज्जभागुत्तरं होऊण दीसइति । एवमुवरि वि सव्वत्थ यव्वं जाव दुचरिमट्टिदिखडयचरिमफालित्ति, रूवराट्ठदिखंड मुक्कीरणद्धामेत्त कालम संखे ० मागुत्तरं खडयचरिमसमए च संखे० भागुत्तर गुणसेढिसीसयम्भि दीसमाजदव्बं होइ त्ति एदेण भेदावलंभादो । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिघातः ] अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १३४ ऽनन्तगुणहीनं करोति स्म । उक्तं च कषायमाभृतौँ -"जाधे अट्ठवासहिदिगं संतकम्म सम्मत्तस्स ताधे पाए सम्मत्तस्स अणुभागस्स अणसमयं ओवट्टणा । एसो ताव एको किरयापरिवत्तो"इति । सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽवर्षप्रमाणस्थितिसत्कर्मणि जाते यान्यन्तमुहूर्तप्रमाणानि खण्डानि भवन्ति, तत्र पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरखण्डमसंख्येय गुणं भवत्येवं तावद्वक्तव्यम्. यावद् द्विचरमसमयखण्डम्, चरमखण्डं तु पूर्वतः संख्यातगुणं बृहत्तरमिति पञ्चसग्रहकारादीनामभिप्रायः, अक्षराणि त्येवम् "उकिरह असंखगुणं जावदुचरिमंति अंतिमे खंडे । संखेज्जंसो खंडा गुणसेढोए तहा देह ॥१॥" इति । तन्मूलटीका-स्थित्यग्रादुत्किरति खण्डयत्यन्तर्मुहूर्तम, भूयोऽसंख्येयगुणनया यावद् द्विचरमखण्डम्, अन्तिमवण्डस्य संख्येयभागं खडयति, गुणश्रेण्यां तथा तेनैव प्रकारेण ददाति, तद्दलमिति गाथार्थः । "इति । तथैव तद्गाथायाष्टोकायां श्रीमन्मलयगिरिसूरीश्वरैरप्युक्तम्-"ततो रितीयस्थितिखण्डमन्तमुहर्तप्रमाणं पूर्वस्मादसंख्येयगुणमुत्किरति-खण्डयति, प्रागुक्तप्रकारेण चोदयसमयादारभ्य निक्षिपति । एवं पूर्वस्मात्पूर्वस्मादसख्येयगुणं स्थितिखण्डकमुत्किरस्तावद्वक्तव्यो यावद् द्विचरमस्थितिखण्डम्, द्विघरमाच्च स्थितिखण्डादन्तिमं स्थितिखण्डं संख्येषगुणम् ।" तथैव चोक्तं कर्मप्रकृतिटीकायामुपाध्यायप्रवरैरपि-"ततो द्वितीयं स्थितिखण्डमन्तमुहूर्तप्रमाणं पूर्वस्मादसंख्येयगुणमुत्किरति, उत्कीर्य च प्रागुक्तप्रकारेणोदयसमयादारभ्य निक्षिपति, एव पूर्वस्मात्पूर्वस्मादसंख्येयगुणान्यन्तमौहर्तिकान्यनेकानि स्थितिखण्डान्युतिकरति निक्षिपति च तावद्यावद् द्विचरमस्थितिखण्डम, द्विचरमाच्च स्थितिखण्डादन्तिम स्थितिखण्डं संख्येयगुणम् ।" इति । * टिप्पणी-जं सम्मत्तागुभागस्स पुर्व विद्यारिणयसरुवस्स एण्हिमेगट्टाणियसरुवेणाणसमयोवट्टणा पारद्धा त्ति । पुनमंतोमुत्तेण कालेणाणुभागखडयं रिणवत्तेदि। इदारिंण पुरण खंडयघादमुक्संहरियूण समए समए सम्मत्तस्स प्रणुभागमण गुणहाणीए ओवदि त्ति वृत्तं होइ। तं पुण अणुसमयोवट्टणमेवमणुगतवं -अरणंतरहेट्ठिमसमयाणभागसंतकम्मादो सपहियसमये अणुमागसंतकम्ममुदयालयबाहिरमणतगुणहीण एण्हिमुदयावलियबाहिराणभागसतकम्मादो उदयावलियम्भंतरमणप्पविसमा मणतगुणहीण एवं समये समये जाय सनयाहियावलियमक्खीण सणमोहो ति। तत्तो परमावलियमेत्तकालमुदयं पविसमारणाणभागस्स अणुसमयोवट्टरपा ति । (भाग-१३ पृ. सं. ६३) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ३२ कर्मप्रकृति तथा श्रीमन्मलयगिरिपादानां कर्मप्रकृतिटीकायां पूर्वपूर्वखण्डत उत्तरोत्तरखण्डं कियद्गुणं तन्न निर्दिष्टम्, अपि तु द्विचरमखण्डाच्चरमखण्डं संख्येयगुणमित्येवोक्तम् । अक्षराणित्वेवम्-“सम्मंतचरिमखंडगातो चरिमखंडंगं संखेज्जगुणम्" इति कर्म प्रकृतिचूर्णि । तथा च " एवमान्त मौहितिकान्यनेकानि स्थितिखण्डान्युस्किरति निक्षिपति च तावद् यावद् द्विचरमं स्थितिखण्डम् । द्विचरमात्तु खण्ड च्चरमखण्डं संख्येयगुणम् ।” इति मलयगिरीया टीका । उपर्युक्तैरक्षरैरिदं ज्ञापितं भवति - यत्पञ्चसङ्ग्रहकारमतेनाऽष्टवर्षप्रमास्थितिसत्कर्मणि जाते पूर्वपूर्वखण्डतो द्विचरमखण्डपर्यन्तमसंख्येयगुणानि खण्डानि भवन्ति, किन्तु कर्मप्रकृतिकारैस्तच्चूर्णिकारैश्च पूर्वपूर्वखण्डतः कियद्गुणं स्थितिखण्डं भवति यावद् द्विचरमखण्डमिति तन्त्र निर्दिष्टम्, पञ्चसङ्ग्रह मूलकाराननुसृत्य श्रीमन्मलयगिरिपादैः पञ्चसङ्ग्रहटीकायां पूर्वपूर्वखण्डतो द्विवरमखण्डं यावदसंख्येयगुणमुक्तम् । किन्तु कर्मप्रकृतिटीकायां नोक्तं तैः । उपाध्याय प्रवरैस्तु पञ्चसङ्ग्रह काराणामभिप्रायेण पूर्वपूर्वतो द्विचरमखण्डं यावदसंख्येय गुणमभिहितमित्यस्माकं मतिः । कषायप्राभृतचूर्णिकारैरपि द्विचरमखण्डाच्चरमखण्डं संख्येयगुणमित्युक्तं न तु द्विरमात्पूर्वेषां खण्डानां पूर्वपूर्वतोऽसंख्येयगुणत्वम् । किञ्चाऽल्पबहुत्वाऽधिकारे चरमखण्डतोऽष्टवर्षप्रमाणस्थितौ सत्यां प्रथमखण्डं संख्यातगुणमिति कषायप्राभृतचूर्णिकारै निगदितम्, तथा चाsत्र कषायपाभृतचूर्णि:-"सम्मत्तस्स दुचरिमडिदिखंडयं संखेज्जगुणं तस्सेव चरमद्विदिखंडयं संखेज्जगुणं अट्ठवसम्स द्विदिगे संतकम्मे सेसे जं पदम डिदिखंडयं तं सखेज्जगुणं " इति पूर्वपूर्वतोऽसंख्येयगुण उत्तरोत्तरखण्डे स्वीक्रियमाण इदमन्पबहुत्वं न संगच्छेत्, प्रथमखण्डस्याऽसंख्येयगुणहीनत्वप्रसंगात्, अतः पञ्चसङ्ग्रहकारादिभिर्यदसंख्येयगुणमुक्तं तन्मतान्तरं प्रतिभाति, द्विचरमखण्डात्तु चरमखण्डं संख्येयगुणमित्यत्र न कश्चिद्विसंवादः । यद्यष्टवर्षप्रमाणस्थितिसत्कर्मणि जाते पूर्वपूर्वखण्डत उत्तरोत्तरखण्ड मसंख्येयगुणं स्वीक्रियेत, तर्हि प्रथमखण्डप्रभृतित्रिचरमखण्डपर्यवसानानि समुदितान्यपि खण्डान्यावलिकाया असंख्येयभागमात्राणि भवेयुः, तथा द्विचरमखण्डं वर्षाष्टकस्यैकसंख्येय भागमात्रं स्वीकर्तव्यं चरमखण्डं चाऽष्टवर्षस्य संख्येयबहुमागमात्रं मन्तव्यम् । कुत इति चेद् १ उच्यते - आत्रिचरमखण्डं कस्यचिदपि खण्डस्यऽऽवलिकायाः संख्ये यतम भागमात्रत्वे स्वीक्रियमाशे तदुत्तरवर्तिखण्डस्याऽसंख्येयाऽऽवलिकाप्रमाणत्वं स्यात्, तच्च नेष्टं स्थितिसत्कर्मणोऽष्टवर्षप्रमाणत्वेन संख्येयाऽऽवलिका प्रमाणखात् । इत्थं पूर्वोक्तक्रमेण चरमखण्डं वर्जयित्वा सम्यक्त्वस्य सर्वस्थितिसत्त्वं विनाशयति । संप्रति चरमखण्डस्य प्ररूपणा क्रियते । चरमखण्डं द्विचरमखण्डतः संख्येयगुणं चरमस्-ि १३६ ] उपशमनाकरणम् • Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमखण्डप्रमाणम् ) अनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १३७ थतिखण्डं घातयंस्तदन्तर्गतगुणश्रेण्याः संख्येयतमभागमप्युत्किरति, तथा चाऽभिनवगुणश्रेणिशिरः करोति गुणण्यायामश्च पूर्वतम्तनसंख्येयमागमात्रेण हीनो जायते, चरमखण्डेन सह गुणश्रेणिसत्कसंख्ये यमागस्य खण्डयमानत्वात् । अतो गुणश्रेण्याः संख्येयतमभागोऽन्याश्च तदुपरितन्या घ त्यमानगुणण्यायामतः संख्ये यगुणाः स्थितयश्वरमखण्डेन घात्यन्ते । चरमखण्डमुत्कीर्य नलिक.मुदयममयादारभ्याऽसंख्येय गुणक्रमेण प्रक्षिपति, । तद्यथा- उदयसमये सर्वस्तीकम् , ततो द्वितीयममयेऽयंख्येयगुणमेवं क्रमेण तावद् वक्तव्यम्, यावद् गुणश्रेणेभिनवशिरएक्रमेणचरमखण्डे विनष्टे गुणश्रेण्यायाममात्रे च स्थितिसत्कर्मणि जाते आत्मा कृतकरण इन्युच्यते । तथा चाऽऽह मूलकार:- कयकरणडाए पच्छिम होइ'' त्ति पश्चिमे' चरमखण्ड उत्कीर्णे कृतकरणाडायां "भवति' वर्तते कृतकरणो भवतीत्यर्थः । उपतं च कर्मप्रकृतिचूरें"सम्भत्तदुचरिमवंडगातो चरिमखंडगं संखेजगुणं चरिमखंडगं आघातिज्जमाणं गुणसे.ीए संग्वेजतिभागो अन्नाओ य उवरि संखेज्जगुणाओ ठितीती आघातिज्जति सम्मतस्स चरिमे ठिनिखंडगे पढमसमये आघानिए ओवहिज्जमाणीसुठितीसु जं पदेसरगं उदये दिज्जति तं थोवं से काले असंखेज्जगुणं असंग्वेज्जगुणंजाव द्वितीखडगस्स पढमसमयं पत्तो त्ति । सा चेव द्वितीगुणसेढीसीसयं जात। एवं समए समए उकिरिज्जमाणं दलियं चरमसमए उक्कडमाणो उदए पदेसरगं थोवं देति । से काले असग्वेज्जगणं जाव गुणसेढीसोसयं चरमहितिखडगे निहिए कयकरणिज्जो त्ति भण्णत्ति" इति । तथैव मलयगिरोयटोकायामपि-द्विचरमात्त खण्डाच्चरम खण्डं संख्येयगुणं तदपि च गुणश्रेण्याः संख्येपतमो भाग: अन्याश्च तदुपरि सख्येयगुणस्थितयः । उत्कीर्य च तद्दलिकमुदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणतया प्रक्षिपति । तद्यथा-उदयसमये स्तोकं ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणम्, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येषगुणम्, एवं तावद्वाच्यं यावद् गणश्रेणिशिरः। अत ऊर्ध्वमुत्कोर्यमाणमेव चरमस्थितिखण्ड ततो न तत्र प्रक्षिपति । चरमे च स्थितिखण्ड उत्कीर्णे सत्यसौ क्षपकः कृतकरण इत्युच्यते।" इति । तथैव चोक्तं कर्मप्रकृतिटोकायामुपाध्यायप्रवरैः-द्विचरमाच्च स्थितिवण्डादन्तिम स्थितिखण्डं सख्येयगुणं तमंचाऽन्तिमे स्थितिखण्डे खण्ड्यमाने संख्येय भागं गुणश्रेण्याः खण्डयति, अन्याश्च तदुपरितनीःसंख्ये यगुणा स्थितीस्तावन्मात्रत्वादेव चरमरखण्डस्य, उत्कीर्य च तद्दलिकमुदयसमयादारभ्याऽसंख्येयगुणनया प्रक्षिपति । तद्यथा-उदयसमये स्तोकं ततो द्वितीयसमये संख्येयगणं ततो. ऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणमेवं तावद् वाच्यं यावद् गुणश्रेणिशिरः । अत ऊर्ध्व Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३२ तुत्कीर्यमाणमेव दलिकं प्राप्यते न तत्प्रक्षेपाधारभूतमिति न तत्काऽपि प्रक्षिपति चरमे च स्थितिखण्ड उत्कीर्णे सत्यसौ क्षपकः कृतकरण इति परिभाष्यते"। इति । ननु चरमखण्डमुत्किरन्नुत्कीर्यमाणदलिकं प्रक्षिपत्युत नेति चेद् ? उच्यते-उपयुक्तष्टीकाकारादीनामक्षरैरिदं ज्ञायते, चरमखण्डमुत्किरन् घात्यमानस्थितौ प्रक्षिपतीति। कर्मप्रकृतिचूर्णिकाराणां मतेन चरमखण्डस्य प्ररूपणा परिसमाप्ता । ___ अथ कषायप्राभृतचर्णिकारमतेन चरमखण्डस्योत्कीर्णविधिः प्रदर्श्यते-सम्यक्त्यमोहनीयस्य द्विचरमखण्डाच्चरमखण्डं संख्येयगुणम् । चरमखण्डं च घातयन् गुणश्रेणेः संख्येयतमभागमप्युत्किरति । तद्घात्यमानगुणश्रेणिसत्कबहुसंख्येयभागमात्रस्थितयस्तथा ततः संख्यातगुणा अन्या गुणश्रेणिसंख्येयभागोपरितनस्थितयश्चरमखण्डे घात्यन्ते । उक्तं च कषायप्राभतची"सम्मत्तस्स चरिमहिदिखडए णिहिदे जाओ हिदिओ सम्मत्तस्स सेसाओ ताओ हिदिओ थोवाओ। दुचरिमट्टिदिखंडयं संखेजगुणं । चरिमहिदिखंडय संखेज्जगुणं । चरिमहिदिखंडयमागाएंतो गुणसेढोए संखेजे भागे आगाएदि अण्णाओ च उवरि संखेज्जगुणाओ द्विदीओ।" इति । इदमुक्तं भवति-सम्यक्त्वमोहनीयस्य चरमखण्डं द्विचरमखण्डतः संख्येयगुणम्, चरमखण्डेन सहावस्थितगुणश्रणेः संख्येयबहुभागा घात्यन्ते । अतश्चरमखण्डमुत्किरंस्तद्गताऽवस्थितगुणश्रेणे: संख्येयवहुमागानुत्किरति । खंडयमानाऽवस्थितगु श्रेण्यायागतः संख्येयगुणाः स्थितीगुणश्रेणिशीर्षस्योपरितनीश्वरमखण्डेनोत्किरति, अवस्थित. गुणश्रेणिसंख्येयभागमुक्त्वा शेषसर्वस्थितिसत्त्वं चरमखण्डे घात्यत इत्यर्थः । चरमखण्ड उत्कीर्णे सम्यक्त्वमोहनीयस्थितिसत्त्वमवस्थितगुणश्रेणिसंख्येभागामाणमन्तम हुतं भवति । अथ चरमखण्डस्य दलिकनिक्षेपः-चरमखण्डं घातयंस्तदुत्कीर्णोद्धाया प्रथमसमये दलिका. न्युत्कीर्योदयममयादारभ्याऽसंख्येयगुणकारेण तावत्प्रक्षिपति, यावदुत्कीर्यमाणखण्डस्य प्रथमस्थितिस्थानकमप्राप्तं भवति । उदयसमयादारभ्य घात्यमानखण्डवसस्थितिस्थानकेऽसंख्येय गुणकारेण प्रक्षिपतीति यावत् । असंख्येयगुणकारेण प्राप्तं चरमस्थितिस्थानं गुणश्रेणि नूतनशीपमुच्यते । गुणश्रेणिशीर्षतस्तदुपरितनप्रथमस्थितिस्थानके ऽसंख्येयगुणहीनं दलिक प्रक्षिपति, ततःपरं विशेषहीनक्रमेण तावन्निक्षिपति यावत्पुरातनगुणश्रेणिशिरः, गुणश्रेणि निक्षेपश्च गलितऽवशेषमात्रो योध्यः,वेदनतः समयेषु शेषेसु दलप्रक्षेपो भवाते.पुनरुपरि न वर्धत इत्यर्थः । गुणश्रेणिशिरसोऽनन्तरस्थानकेऽसख्यातगुणहीनं तत उपरितनस्थानकेषु विशेषहीनक्रमेण तावत्प्रक्षिपति,यावदतीत्थापनारूपसमयाधिकावलिका वजेयित्या शेषसर्वस्थितिः । अयं निक्षेपक्रमस्तावद् वक्तव्य', यावदुन्कीर्णाद्धाया द्विचरमसमयः, यदुक्तं कषायप्राभृतो -"सम्मत्तस्स चरिडिदिखंयुए Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 劈 दृश्यमानदलिकम् ] श्रनिवृत्तिकरणाधिकारः [ १३६ पदमसमयमागाइदे ओव हिज्जमाणासु ट्ठिदीसु जं पदेसग्गमुदए दिज्जदि तं थो | से काले संखेज्जगुणं ताव जाव द्विदिखंडयस्स जहण्णियाए द्विदीए चरिमसमयअपत्तो त्ति सा चैव ट्ठिदी गुणसेढीसीसयं जादं । जमिदाणिं गुणसेढिसीसयं तदोउदरिमाणंतरए द्विदीए असंखेज्जगुणहीणं । तदो विसेसहीणं जाव पोराण गुणसेटोसोसयं ताव । तदो उवरिमाणंतरडिदिए असंखेज्जगुणहीनं तदो विसेसहीणं | सेसासु वि विसेसहीणं । विधियसमये जमुक्कीरदि पदेसग्गं तं पि एदेणेव कमेण दिज्जदि । एवं ताव जाव डिदिखंडयउक्कोरणडाए दुधरिमसमयो त्ति" इति । इदमत्र हृदयम् - सम्यक्त्वमोहनीयस्य चरमखण्डे दलिकं किञ्चिन्न्यूनसार्धद्विगुणहानिगुणिसमयबद्धप्रमाणं भवति तदपकृष्टभागहरेण भक्त्वैकभागमुत्किरति । उत्कीर्णं दलिकं च पल्योपमा संख्यात भागेन भक्त्वाऽसंख्येयचभागानुदयसमयादारभ्य गुणश्रेणिसत्काऽभिनवशीर्षं यावदसंख्येयगुणक्रमेण निक्षिपति, शे पैकभागं भूयः पल्योपमाऽसंख्येयभागेन भक्त्वा बहुभागगतदलं गृहीत्वा गुणश्रेणिशिरस उपरितने प्रथमे निषेकेऽसंख्येय गुणहीनं प्रक्षिष्योत्तरोत्तरनिषेके विशेषहीनक्रमेण तावत्प्रक्षिपति यावत्पुरातनगुणश्रेणिशिरः । ततः शेषै कभागगतदलमादाय पुरातनगुणश्रेणिशिरस उपरितने प्रथम निषेकेऽसंख्येयगुणहीनं दलिकं प्रसिष्योत्तरोत्तरनिषेके विशेषहीनक्रमेण तावत्प्रक्षिपति यावदतीत्थापनावर्जस्थितेश्वर मनिषेकः । उपर्युक्त दलनिक्षेपक्रमश्चरमस्थितिखण्डस्योकीरणाद्वायाद्विचरमसमयपर्यन्तं ज्ञातव्यम् । अथ चरम स्थितिखण्डस्य प्ररूपणा प्रस्तावे दृश्यमानं दलं निरूप्यते - उदयसमयादारभ्य गुणश्रेणिसत्कनूतनशीर्ष यावदसंख्येयगुणकारेण दृश्यमानं दलं भवति । तदनन्तरोपरितननियेकेऽसंख्येयगुणहीनं भवति, ततः परमसंख्येयगुणक्रमेण तावद्वक्तव्यम् यावत्पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाण चरमस्थितिखण्डाद्धाचरमसमयकृताऽवस्थितगुणश्रेणिशिरः । ततः परमन्तर्मुहूर्तप्रमाणचरम स्थितिखण्डाद्धाप्रथमसमयतः प्राक्तनसमयकृताऽवस्थितगुणश्रेणिशीर्ष यावद्दलं विशेषाऽधिकक्रमेणदृश्यते, तदुपरितनसर्वनिषेकेषु विशेषहीनक्रमेण दलं दृश्यते, एवं तावद्वक्तव्यम्, यावच्चरमखण्डोत्कीरणाद्वायाद्विचरमसमयः । अथ चरमखण्डस्योत्कीरणाद्धायाश्वरमसमये दलनिक्षेप उच्यते-चरमखण्डस्योत्कीरणाद्वायाश्चरमममये चरमखण्डगतशेष सर्वदलिकमुत्कीर्योदयसमयादारभ्य गलिताऽवशेषगुणश्रेणिसत्कनूतन शीर्ष पर्यन्तमसंख्येयगुणकारेण निक्षिपति, तत ऊर्ध्वं चरमखण्डे न प्रक्षिपति । तत्राऽप्ययं विशेषः- उत्कीर्णदलिकमसंख्यातगुणितपल्योपमप्रथमवर्गमूलरूपाऽसंख्यात भागहारेण विभज्य तदेकाऽसंख्यात भागमुदयसमयादारभ्य गुणश्रेण्यायामस्य द्विचरमस्थानपर्यन्तमसंख्येय गुणकारेण Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३२ प्रक्षिपति । शेषबहुभागांश्च गुण श्रेण्यायामस्य चरमस्थाने प्रक्षिपति । अतो द्विचरमनिक्षेपस्थानगतदलिकतश्वरमनिक्षेपस्थानके दलिकमसंख्यातगुणितपल्योपमप्रथममूलरूपाऽसंख्यातगुणं भवति । उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी -"हिदिखंडयम्स नरिमसमए ओकडुमाणो उदये पदेसरगं थोव देदि, से काले असंखेजगणं देदि एव जाव गणसेढिसोसयं ताव असंखेज्जगणं । गुणगारो वि दुचरिमाए विदोए पदेसग्गादो चरिमाए हिदीए पदेसग्गस्स असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि ।" इति + तथोदयसमयलक्षण प्रथमनिक्षेपस्थानके यद् दलिकं शिपति, ततोऽमख्येयगुणं द्वितीयस्थितिस्थाने प्रक्षिपति । अस्माद् गुणकाराद् द्वितीयस्थानके निक्षिप्तालिकाऽपेक्षया तृतीयनिक्षेपस्थानके निक्षिप्यमाणदलिकस्य गुणकारोऽसंख्यातगुणः । एवं तावद् वक्तव्यं यावद् द्वि चरमसमयः । उदाहरणार्थ प्रथमनिक्षेपस्थान के पञ्चकोटीकोटीप्रमाणं दलिकं निक्षिपति, द्वितीयनिक्षेपस्थानके पञ्चाशत्कोटाकोटीप्रमाणं दलिकं प्रक्षिपति, तृतीयनिक्षेपस्थानके पश्चसहस्रकोटीकोटीप्रमाणं दलिक निक्षिपति । चतुथनिक्षेपस्थानके पश्चाशच्छतसहस्रकोटीकोटीप्रमाणं दलिकं प्रक्षिपति । क्षायिकसम्यक्त्वाधिकारे निक्षेपभेदेन गुणश्रेणिस्त्रिधा भवति, सा पुनः समासतः स्मृतिविषयी क्रियते, तद्यथा (१) अपूर्वकरणस्य प्रथमसमयादारभ्य सम्यक्त्वमोहनीथमिश्रमोहनीययोः पल्योपमाऽरंख्येयभागमात्र चरमखण्डम्योत्कीर्णाद्वाया द्विचरमममयपर्यन्तं गलिताऽवशेषा गुणश्रेणिः, इति प्रथमा । (२) सम्यक्त्व मोहनीयमिश्रमोहनीययोः पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणचरमखण्डस्योकीर्णाद्धायाश्चरमसमयात्प्रभृति सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽन्तमुहूर्तप्रमाणद्विचरमखण्डस्योत्कीर्णाछायाश्चरमपमयपर्यन्तमवस्थिता गुणश्रेणिः, इति द्वितीया । ___ (३) सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽन्तमुहूर्तप्रमाणचरमखण्डस्योत्कीर्णाद्धायाः प्रथमसयाप्रभृतिगलिताऽवशेषगुणश्रेणिः, इति तृतीया।। कपायप्राभृतचूर्णिकारमतेन दलिकनिक्षेपविवरणं समाप्तम् । अथ कृतकरणस्याऽन्य तरगतावुत्पत्तिः क्षायिकसम्यक्त्वप्राप्तिश्च निरूप्यते एवं सम्यक्त्वमोहनीयस्य चरमस्थितिखण्डे घातिते गुणश्रेणेः संख्येयभागस्य घातितत्वाद् गलिताऽवशेषगुणश्रेणि सत्कमंख्येयवहुभागमात्रस्थितिसत्कर्मा कृतकरणः, कृतं-निष्पादितं करणं यथाप्रवृत्ताऽपूर्वकरणाऽ जटिप्पणो-उक्तं च जयधवलायामपि एदं घेत्तूण कदकरणिज्जद्धामेत्तहेट्टिमणि सेगेसु पदेसविण्णासं कुण. माणो उदए थोवं पदेसगं देदि, असंखेज्जसमयपबद्धपमारपत्ते वि तस्स उवरिमणिसेगेसु णिसिंचमाणदव्वावेक्वाए थोवभावाविरोहादो ।से काले असंखेज्जगुणं देदि । को गुणकारो? तप्पाओग्गपलिदोवमासंखे. ज्जभाग मेत्तरूवाणि एवं जावदुचरिमणिसेगो त्ति । रणवरि हेट्रिमाणंतरणिसेगगुणगारादो उपरिमाणंतरणिसेगगुणगारो असंखेज्जगुणवड्डीए सव्वत्थ णेयव्वो।' Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थापकः ] क्षायिकसम्यक्त्वप्राप्तिः [ १४१ निवृत्तिकरण लक्षणं येन स इति व्युत्पत्तिः । जतदानीं तस्याऽनिवृत्तिकरणं समाप्तं भवति, क्षीणायुष्ककृतकरणश्चतुर्गतिवन्यतमायामुत्पद्यते कृतकरणे जाते लेश्याऽपि परावर्तते, पूर्व शुक्ललेश्याऽऽसीत्, सम्प्रत्यन्यतमा लेश्या भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-"कयकरणो तंमि काले कालं पि करेज्जा तेण च उगति लगभति । लेस्सा परिणामं विपरिणामेज्जा पुध्वं सुक्कलेसा आसि संपयं अन्नयरीए वि होज्जा इति । क्षीणायुष्को गतिचतुष्टयेऽक्षीणायुष्को मनुष्यगतावेवाऽवशिष्टाऽन्तमुहूर्तप्रमाणसम्यक्त्वमोहनीयस्थितिसत्त्वमुदयोदीरणाभ्यामनुभवति । सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽऽवलिकामाने शेषे स्थितिसत्त्वे उदीरणाऽपि व्यवच्छिद्यते । शेषाऽऽवलिकामात्रं स्थितिसत्त्वं केवलं शुद्धेनोदयेनाऽनुभूय निर्लेपी भवति । सम्यक्त्वमोहनीये नाशितेऽनन्तरसमये जन्तुः क्षायिकसम्यक्त्वमश्नुत इत्यर्थः । ननु मिथ्यात्वादिदर्शनत्रिकस्य क्षये किमसौ जन्तुरदर्शनो जायते उत नेति चेद् ? उच्यते-सम्यग्दृष्टि रेवाऽसौ । ननु सम्यन्दर्शनपरिक्षये कुतः सम्यग्दृष्टित्वम् ? उच्यते, निर्मदनीकतकोद्रवकल्पा अपनीतमिथ्यात्वभावा मिथ्यात्वपुद्गला एव सम्यग्दर्शनम्, सम्यक्त्वमोहनीयपुद्गला इत्यर्थः । तत्परिझये च तत्त्वश्रद्धानलक्षणपरिणामाप्रतिपातः, सूक्ष्माभ्रपटलापगमे चक्षुर्दनिमिव विशुद्वतरापत्तेः यदाह-भाष्यसुधाम्भोनिधिः खीणम्मि दंसणतिए किं होह तओ तिदंसणाईओ। भन्नइ सम्मदिहि सम्मत्तखए कओ सम्म ? ॥२॥ निव्वलियमयणकुद्दवरूवं मिच्छत्तमेव सम्मत्तं । खीणं न उ जो भावो सद्दहणा लक्खणो तस्स ॥२॥ सो तस्स विसुद्धयरो जायइ सम्मत्तपुग्गलक्खयओ। दिहिव्व सण्हसुलभपडल विगमे मणसस्स ॥३॥ यदि वा जह सुद्ध जलाणुगयं, दुद्धं सुद्धं जलक्खए सुतरं । सम्मत्तसुद्धपुग्गलपरिक्खए दसणं एवं ॥ (विशेषा० भा० गा० १३१८.२१). जटिप्पणि० उक्तं च जयधवलायां स्थिति विभक्त्यधिकारे-"तदो तेसु गदेसु सम्मत्तचरिमफालिमागाएंतो कदकरणिज्जकालमत्तानो द्विदीयो मोत्तूण आगाएदि । पुणो तं घेत्तूण गुणसे ढिणिक्खेवेण णिक्खिते प्रणियट्टिकरणं समप्पदि।" Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमन करणम् [ गाथा-३२ एवं क्षायिकसम्यक्त्वप्रस्थापको मनुष्यो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी- “जिणकाले वट्टमाणो मणुस्सो अट्ठवासाउओ उप्परं वट्टमाणो मणुस्सो पट्टेवेंतो, विगो चउसु वि गतीसु भवति।” इति । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्तेरनन्तरं बद्धवैमानिकसुरायुष्केषु जन्तुषु कचिल्लब्ध पराक्रम उपशमश्र ेणिमपि समारोहति नाऽन्यगतिबद्धायुष्कः, अबद्धायुष्कस्तु क्षपकश्रेणिमारभते, उक्तं च पञ्चसङ्ग्रह उपशमनाऽधिकारेकयकरणो तक्काले कालपि करेई चउसु वि गईसु । वेइयसेसो सेठी अण्णयरं वा समारुहइ | ४६ ।। इति । १४२ तथैव चोक्तमुपाध्यायप्रवरै: - " तत्र यो वैमानिके ध्वेव बडायुष्कः क्षीणसप्तकः स उपशमश्रेणिमारोहति, अवडायुष्कस्तु क्षाकश्रेणिम्, अन्यगतिवडा युष्कस्तु न कामपि श्रेणिमारभते श्रेणिकादिवदिति ज्ञयम् इति । नन्वबद्धायुष्कः कश्चिन्मनुष्यः साम्प्रतभवे तीर्थकुन्नाम कर्मनिकाच्याऽऽयुश्चाऽबद्ध्वा क्षायिक सम्यक्त्वमुत्पादयेत्, तहि स क्षपकश्रेणिमारोहेत् ? उत न ? इति चेद् ! उच्यते, तद्भवे निकाचितजिननामकर्माऽबद्धायुष्कः क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्तेरनन्तरं तद्भवे क्षपकश्रेणिनाऽऽरोहति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूण- "अहन बडाउओ तो खवगसेढिमेव पडिवज्जति, जति तित्थयर संतकं मिगो ।” अथ कषायप्राभृतचूर्णिकारमतेन कृतकृत्यवेदको विवर्णयते कृतं निष्पादितं कार्य स्थिति घात्यादिलचणं येन, स कृतकृत्यः, तस्य हि स्थितिघातादयो न भवन्ति । 5 कृतकृत्ये जाते तत्प्रथमसमयात्प्रभृत्यन्तमुहूर्त यावद् म्रियेत, तर्हि नियमतः सुरगतावुत्पद्यते । शेषगतिपूत्पद्यमानः टिप्पणि० कृतकृताद्धायां वर्तमानः कश्चित्कालमपि कृत्वा चतसृणां गतीनामन्यतमायां गतावुत्पद्यते, लब्धिसारे कृत्कृत्याद्धायाश्चत्वारो विभागाः कृताः, यदि प्रथमविभागे कालं करोति तहि देवगतावेवोत्पद्यते । द्वितीयविभागे कालं करोति तर्हि देवगतो मनुष्यगतौ वोत्पद्यते, तृतीयविभागे म्रियते, तहि देवनर तिर्यक्ष्वन्यत्मायां गतावुपजायते, चतुर्थविभागे कालं कृत्वा देवनरतिर्यग्नरकेष्वन्यतमायां गतावुत्पद्यते । इति लब्धिसारकाराऽऽह तट्टीका - तस्मिन्नेव कृतकृत्यवे दकसम्यक्स्वकाले चतुर्भागी कृते प्रथमसमयादारभ्याऽन्मुहूर्त मात्रे प्रथमे चतुर्थभागे मृतो देवेष्वेवोत्पद्यते, नाऽन्यगतिषु तत्काल इतरगतित्रयगमनकारण संक्लेश (रिमाणामाभावात्तदनन्तरं द्वितीयचतुर्थम गेऽन्तर्मुहूर्तमात्रे मृतो देवमनुष्यगन्योरेबोत्पद्यते । नाऽन्यगतिद्वये, तत्काले तद्गतिद्वयगमननिबन्ध न संक्लेश परिणामऽनुपपत्ते । तदनन्तरं तृतीये चतुर्थभगेऽन्तर्मुहूर्त मात्रै मृतो देवमनुष्यतिर्यगगतिष्वेवोत्पद्यते, न नरकगतो तत्काले नरकगतिगमन हेतुसंक्लेशपरिणामास भवात् । तदनन्तरं चरमचतुर्थभागे मृतः कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि चतसृष्वपि देवमनुतिथेग्नरकगतिषूत्पद्यते, तत्काले त दूतिगमननिबन्धन संक्लेश परिणामोपलम्भात् । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 निष्ठापकलेश्या ] क्षायिक सम्यक्त्वप्राप्ति: [ १४३ कृतकृत्याऽद्वाया अन्तमुहूर्ते व्यतिक्रान्त एव म्रियते लेश्यापरावृत्तिश्वाऽपि भवति । इदमुक्तं भवति, ★ यथाप्रवृत्त करण प्रारब्धा तेजः पद्मशुक्ललेश्यास्वन्यतमा लेश्या, कृतकृत्याद्धायामन्तमुहूर्त यावद् वर्तते, ततो लेश्या परावर्तते, यद्वा यथाप्रवृत्त करणे प्रारब्धाऽन्यतरा या शुभालेश्याऽऽसीत् सा कृतकृत्याद्धायां शुक्लेश्या भवति । ततः कृतकृत्य वेदकाद्धायामन्तर्मुहूर्त गत्वाऽन्यतरा लेश्या भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो - "ताघे मरणं पि होज्ज लेस्सापरिणामं पि परिणामेज्ज काउते उपम्म सुक्कलेस्साणामण्णतरो | ......पदमसमयकदकर णिज्जो जदि मरदि देवेसु उववज्जदि णियमा । जइ गरेइएस वा तिरिक्खजोगिएसु वा मणसेसु वा उववज्जदि णियमा अंतोमुहुत्तकदकरणिज्जो । " इति । कृतकृत्यवेदकाद्धां वर्तमानो जन्तुर्विशुद्धयां संक्लेशे वा भवन्नपि प्रतिसमयमसंख्येयगुणकारेण दलिकमुदीरयति एवं क्रमेणोदीरयतस्तस्याऽसंख्येय समयप्रबद्धोदीरणा भवति । ★ टिप्पणी० लब्धिसारे लेश्यापरावृत्तिरित्थं दर्शिता - तद्यथा - प्रथमभागे म्रियमाणस्य लेश्यापरावृत्तिर्न भवति, तस्य जन्तोर्देवगतावेवोत्पत्त: । 'द्वितीये तृतीये चतुर्थे वा भागे यो म्रियते स शुभलेश्याया हान्या क्रमशो जघन्यकापोतलेश्यां प्राप्नोति । तत्राऽपिदेवगतावुत्पद्यमानस्य जीवस्य लेश्यापरावृत्तिर्न भवति, इदं सर्व कृतकृत्याद्धायां म्रियमाणाऽपेक्षया प्रोक्तम् । यः पुनर्बद्धायुष्कः कृतकृत्याद्धायमक्षीणाssesो भवति, तस्य क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्तितो मृत्युकालेऽनुगति लेश्या परावर्तते । टिप्पणी प्रतिसमयं सम्यक्त्वमोहनीययाऽनुभागोऽनन्तगुणहीनो मवति एवं क्रमेण हीयमानाऽनुभागस्तावद्वक्तव्यो यावत्कृतकृत्याद्धायाश्वरमसमयः । यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमये दर्शन मोहक्षपणाप्रारम्भ - कस्य तेजःपद्मशुक्लेश्यानां शुभानां मध्ये गया लेश्यया क्षपणा प्रारब्धा तल्लेश्योत्कृष्टांशः प्रतिसमयमनन्तगुण विशुद्धि क्रमेणानिवृत्तिकरणच रमसमये परिपूर्णो भवति । पुनस्तदनन्तरं कृतकृत्यवेदककालस्याऽभ्यन्तरे प्रथमे भागे यदि म्रियते तदा तत्राऽपि तल्लेश्यापरावृत्तिर्नास्ति तस्य देवेष्वेवोत्पादात् । यदि द्वितीयभागे म्रियते तदा तभ्य भोगभूमिजमनुष्यगतावुत्पत्तिसंमवात्प्रागारब्धशुभलेश्याया उत्कृष्टमध्यमजघन्यांशानां संक्रमक्रमेण हान्या मरणकाले कापोतलेश्या जघन्यांशो भवति । अथ पुनस्तृतीयभागे यदि म्रियते तदा तस्याऽपि मोगभूमिजमनुष्यतिर्यग्गतिष्वेव जन्मसंभवात् । प्रागुक्तप्रकारेण कापोतलेश्याजघन्यांशो भवति, तद्भागमृतमनुष्यतिरश्वोः पूर्ववद् देवेव गत्यामुत्पद्यमानस्य सर्वेषु मागेषु मृतस्य लेश्यापरावृत्तिर्नास्ति । इदं कृतकृत्यवेदककाले मरणाऽपेक्षया भणितम् तत्काले मरणरहितस्य पुन: प्रादुर्भूतक्षायिक सम्यक्त्वस्य पूर्वचतुर्गतिषु बद्धायुष्को मरणकाले गत्यनुसारेण लेश्यापरावृत्तिरुक्तप्रकारेण ज्ञातव्या । कृतकृत्यवेदककाले संभवत्क्रियाविशेषप्रतिपादनार्थमाह- दर्शन मोहनीयस्याऽनुभागस्याऽनिवृत्तिकरणकालसंख्य। तैकभागे यथा काण्डकघातं संहृत्य ऽनन्तगुणहान्या प्रतिसमयमपवर्तनं प्रारब्धं तथाऽत्रावि कृतकृत्यवेदक कालचरमसमयपर्यन्तमप्रतिघातं वर्तते एवाऽपूर्वकरणपरिणामविशुद्धिविशेषस्य संस्कारशेपसंभवात् । तथाऽत्रैव कृतकृत्यवेदककालोऽसंख्यात समय प्रबद्धानामुदीरणाऽपि तत्काले यावत्समयाऽधिकोच्छिष्टावलिरवशिष्यते तावत्प्रतिसम यम सख्यातगुणितक्रमेण वर्तते । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ३२ कृतकृत्यवेदकाद्धायां दल निक्षेपविधिः उदयावलिकाया उपरितननिषेकेभ्यः सत्तागतसम्यक्त्वमोह नीय दलिकमपकृष्टभागहारेण खण्डयित्वा भूयस्तदेकाऽसंख्येयभागं पल्योपगाऽसंख्येय भागरूपभागहारेण विभज्यते विभक्तादेकभागमुदयावलिकायामुदयसमयात्प्रभृत्य संख्येयगुणकारेणोदयावलिकायाश्वर मनिषेकपयन्त प्रक्षिपति शेषबहुभागांस्तदुपरितनस्थितिषु विशेषहीन क्रमेण समयाऽधिकाऽतिस्थापनाऽऽवलिकावर्ज सर्वासु प्रक्षिपति । कृतकृत्याद्धायां लेश्यापरावर्तनात्संक्लेशयुक्तो यद्वा विशुद्धः सन् भूतपूर्वकरणपरिणामविशोधेः संस्क रात्प्रतिसमयमसख्येयगुरणकारेण दलिकम प्रकृष्टयोदीरयति । श्रत्र यद्यपि पूर्ववद्गुणश्रेणिनं भवति किन्तु दलिकानामसंख्यात समयबद्ध प्रभाणो दीरणा प्रवर्तत एव न व्यवच्छिद्यते, तथा पूर्ववदुत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणं दलिकमुदीरयति किन्तुदयगतदलितोऽसंख्येय भागमात्रं दलिकमुदीरयति, यतोऽसंख्यातगुणित पत्थोपम प्रथम वर्ग मूलरूपभागहारेण सर्वसत्तागतं दलिकं विभज्य तदेकभागमात्रमुदयसमयगत दलिकं भवति । उदीरणागतं दलिकं तु सत्तागत दलिक मपकृष्टभ गहारेण खण्डयित्वा तदेकभागं भूयः पत्योपमाऽसंख्येय भागरूपभागहारेण विभज्य तदेकभागप्रमाणं भवति । कृतकृत्याद्धायाः समयाऽधिकाssवलिकायां शेषायामुदयावलिकायामुपरितन स्थितिस्थानकाद् दलि कम प्रकृष्योदय समयात्समयाऽधिकाऽऽवलि कात्रिभागे रचयति, समयोनाऽऽवलिकाद्वित्रिभागे न प्रक्षिपति तस्याऽतिस्थापनात्वात् । अपत्य मानदलिकं पल्योपमाऽसंख्येयतमभागेन विभज्य तदेकभागमुदयसमयादसंख्यगुणकारेण यथः योगम संख्येयसमयप्रमाणस्थितिस्थानकेषु प्रक्षिपति तद्बहुभागमतीत्थापनावर्जशेष समयाऽधिकाऽऽवलिका त्रिभागे विशेष होन क्रमेण प्रक्षिपति । इयमेव सम्यक्त्वमोहनीयस्योत्कृष्टप्रदेशादोरणा । श्रवशिष्टाऽबलिकां केवलेन विशुद्धोदेययेनानुभवति तथा पूर्ववत्प्रतिसमयमनन्त गुणहीनोऽनुभागोदयः प्रवर्तते । तथा चात्र लब्धिसाराऽक्षराणि उदयहि 1 कट्टिय श्रसंखगुणमुदयावलिम्हि खिवे : उवर विसेग्रहीणं कदकिज्जो जाव प्रइत्थवरणं । १४९ ।। जदि संकिलेस जुत्तो विसुद्धिसहिदो वतोऽपि पडिसमयं । दव्वमसंखेनगुणं उत्रहृदि णत्थि गुणसेढी ॥ ५०॥ जदि वि असंखेज्जाणं समयपबद्धाण्डशेरणा तो वि । उदयगुणसेढिदिए प्रसंखभागो हु पडिसमयं ॥ १५१ ॥ तट्टीका - अत्र कृतकृत्यवेदककालमात्रस्थितिषु प्रविस्य किचिनन्यून द्वय गुण हानि गुणितसमयप्रबद्धमात्रस्याऽपकर्षणभागहारेण खण्डितस्यैकभागमुदयावलिबाह्य निषेकेभ्यो गृहीत्वा पुनः पल्याडसंख्यात= भागेन खण्डयित्वा तदेकभ गमुदयावल्यामुदय प्रथमसमयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यन्तं प्रतिनिषेकम संख्यातगुणितक्रमेण 'प्रक्षेपयोगे' त्यादिना विधिना निक्षेपेत् । पुनस्तद्बहु भागद्रव्य मुदयावलिन्यूनोपरितन स्थितावन्तर्मुहूर्तप्रमाणायामुपरि समयाऽधिकमतिस्थापनावलिधजेयित्वा 'अद्धागेण सव्वधण' इत्यादि विधिना विशेषहीन क्रमेण निक्षेपेत् । एवं द्वितीयादिसमयेष्वपि । यद्यपि विशुद्धिसंक्लेशपरावृत्तिवशेन कृतकृत्यवेदकस्य शुभाशुभलेश्या परिणाम सङ्क्रमो भवति तथाऽपि प्राक्तनकरणत्रयविशुद्धिसंस्कारवशात् प्रतिसम्यम संख्यातगुणितत्र मेण द्रव्यमपकृष्योदीरणां कुरुते कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिः । गुणश्रेण्यायामं विना केवल मुदय' वल्यामेव किञ्चिद् द्रव्यं प्रवेश्याऽवशिष्टस्योपरितन स्थितौ निक्षेपणमुदीरणा, इदमेव मनस्यबधाचार्यै: 'त्थगुणसेढी' इत्युदीरणालक्षणमुदीरितम् । एवं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण 矗 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतिभवेषु मोक्षगमनम् ] क्षायिकसम्यक्त्वप्राप्तिः चोदीरणाकरणेनाऽऽगतदलिकमुदयगतदलिकस्याऽसंख्येयभागमात्रम् । यत उदये गुणश्रेण्या प्राक्प्रभूतं दलिकं रचितम् । एवं रीत्योदोरणा तावद्वक्तव्या, यावत्सम्यक्त्वमोहनीयस्य समयाऽ धिकाऽऽवलिका सत्तायामवतिष्ठते । तत उदीरणा व्यवच्छिद्यते, चरमाऽऽवलिका केवलेन शुद्धनोदयेनाऽनुभूय सम्यक्त्वमोहनीयं निःसत्ताकं करोति क्षायिकसम्यक्त्वं च लभते । उक्तं च कषायप्राभतचूर्णी-- "उदीरणा पुण संकलिहस्सदु वा विसुजादु वा तो वि असंखेज्जसमयपषद्धा असंखेजगुणाए सेटीए जाव समहिया आवलिया सेसा त्ति । उदयस्स पुण असंखेज्जदिभागो उक्कसिया वि उदीरणा ।" इति । ननु क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्जन्तुः कतिषु भवेषु मोक्षमुपयातीति चेद् ? उच्यते-अबद्धायुष्कः क्षीणसप्तकस्तद्भवोपार्जिततीर्थकुनामानं वर्जयित्वा तद्भवे मोक्षमभिगच्छति इत्येको भवः । बद्धसुरायुष्को बद्धनरकायुष्को वा स्वर्ग नरकं वा गत्वा स्वर्गभवाऽन्तरितो नरकभवाऽन्तरितो वा तृतीयमवे मोक्षं याति, इति त्रयो भवाः । ननु कतितमं नरकं यावत्क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्यातीति चेद् ? उच्यते,क्षायिकसम्यग्दृष्टिः प्रथमनरकं यावद् गच्छति । उक्तं च पश्वसङ्ग्रहमूलटीकायाम्“यतो यस्माद बद्धायुष्को वैमानिकदेवेषु रत्नप्रभानारकेषु वा क्षपितसप्तका गच्छन्ति, ते तु तदुभवानुभवनात्तृतीये भवे सेत्स्यन्ति" इति । तथैवोक्तं च जीवसमासेद्रव्यमपकृष्य निक्षेपे समयाधिकावल्युपरितननिषेकादिपकृष्टद्रव्यस्य बहुवारमसंख्यातगुणितस्य तदानीतनोदयनिषकादीनामधिकमावशङकायां परिहार उच्यते, यद्यप्यसंख्येयसमयप्रबद्धानामदोरणाचरमपर्व. पूर्वोदोरणाद्रव्यादसंख्यातगुणित द्रव्यं तथाऽपि चरमकालिकगुणश्रेण्यायामोदय निषेकद्रव्यादसंख्यातेकभ.गमात्रमेवोदीरणाद्रव्यमुदयनिषके दीयमानमपकर्षणभागहारेण खण्डितसर्वद्रव्यस्य पल्यासंख्यातमागेन भक्तस्यैकभागमात्रत्वादुदयनिषेकस्य सर्वद्रव्यस्याऽसंख्यातपल्यप्रथमवर्गमूलभक्तस्यैकमागमात्रत्वाद् । कि पुनः कृतकृत्यवेदकप्रथमादिसमयेषूदीरणाद्रव्यं तत्र तत्रोदयावलिनिषकेषु दीयमानं तत्तदुदयावलिनिषेकसत्त्वद्रव्यादसंख्यातगुणहीनमित्युच्यते । कृतकृत्यवेदककालस्य समयाऽधिकावलिमात्रेऽवशिष्टे सर्वाग्रनिषेकात्पूर्वपूर्वाऽकृष्टद्रव्यादसंख्यातगुणितद्रव्यमपकृष्य समयोनाऽऽवल्या द्वित्रिभागमपि संस्थाप्य तदधस्तने तत्रिधागे समयाऽधिक उदयसमयात्प्रभति इदानीमपकृष्टद्रव्यस्य पल्यासंख्यातभागभक्तस्यैकभागं तद्योग्याऽसंख्यातसमयपर्यन्तमसंख्यातगुणितक्रमेण दत्वाऽवशिष्टबहुभागद्रव्यं तथाऽऽवलिविभागसमयेष्वतिस्थापनाऽधस्तनसमयं मुक्त्वा सर्वत्र विशेषहीनक्रमेण निक्षेपेत् । एषवोत्कृष्टोदीरणा। एवमनुभागस्याऽनुसमयमनन्तगुणिताऽपवर्तनेन कर्मप्रदेशानां प्रतिसमयमसंख्यातगुणितोदीरणया च कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वप्रकृतिस्थितिमन्तमु हुायाममुच्छिष्टावलि मुक्त्वा सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशविनाशपूर्वक मुदय मुखेन गालयित्वा तदनन्तरसमय उदीरणारहितं केवलमनुभागसमयापवतनेनैव प्राक्तनापवतन क्रमविलक्षणेनोदयसमयात्प्रभृति प्रतिसमयमनन्तगुणितक्रमेण प्रवतैमानेन प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रवेशविनाशपूर्वक प्रतिसमयमेकैकनिषेकं गालयित्वा तदनन्तरसमये क्षायिकसम्यगदृष्टिर्जायते जीवः। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] उपशमनाकरणम् वेमानिया य मणुया रगणाए असंखवास तिरिया य । तिविहा सम्मदिट्ठी वेद्यगउवसामगा सेसा ॥१॥ इति । ननु ग्रन्थाऽन्तरेषु कृष्णस्य तृतीय नरकगमनं श्रूयते तत्कथं संगच्छेत ? इति न वाच्यम्, उत्सवचनस्य प्रायिकत्वात् कुतश्चित्कारणान्तर द्वा । यदुक्तं जीवसमासवृत्तौ' ननु वासुदेवादीनां क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां तृतीयनरकपृथ्वीं यावदुत्पत्तिरागमे श्रूयते तत्किमिति शर्करा प्रभावालुकाप्रभानारकाणामपि क्षायिकसम्यक्त्वं निषिध्यते ? सत्यम, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टयः प्रागो रत्नप्रभामेव यावद् गच्छन्ति परतस्तु स्वल्पा एव केचिद् गच्छन्तीति स्वल्पत्वात् इह ग्रन्थे न विवक्षिताः, अन्यतः कुतश्चित् कारणादीनि केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति ।" इति । 3 यदि क्षायिकसम्यग्दृष्टिः पल्योपमाऽऽद्य संख्यातवर्षायुष्केषु तिर्यक्षु मनुष्येषु वा समुत्पद्यते ते चाऽसंख्येवर्षायुष्कास्तिर्यञ्चो मनुष्या वा मोक्षं नाऽधिगच्छन्ति तस्तद् भवाऽनन्तरे देवभवेऽसा उत्पद्यते, यतोऽसंख्येयवर्षायुष्कास्तिर्यञ्चो मनुष्या वा नियमतो देवेष्वेवोत्पद्यन्ते । ततो देवभवाच्च्युत्वा मनुष्यभवे समुत्पद्य मोक्षं यातीति चत्वारो भवाः । उक्तं च पञ्चसङग्रहे गाथा - ३२ तइय चउत्थे तम्मि व भवम्मि सिज्झन्ति दंसणे खीणे 1 ज देवनिरयसंखाउचरमदेहेसु ते हुति ॥ १॥ तट्टीका - " तृतीये चतुर्थे तस्मिन्वा भवे सिद्ध्यन्ति सप्तके क्षीणे जीवा गम्यते यतो यस्माद् बढायुष्का वैमानिकदेवेषु रत्नप्रभानारकेषु वा क्षपितसप्तका गच्छन्ति, ते तु तद्भवानुभवनात्तृतीयभवे सेत्स्यन्ति, असंख्येयवर्षायुस्तिर्यग्मनुष्येषु ये बडायुष्काः सप्तकं क्षपयन्ति तेऽपि द्विभवानुभवनाच्चतुर्थ भवे सेत्स्थन्ति ये वायुकाः सप्तकें क्षपयन्ति ते चरमदेहाः स्वस्मिन्नेव भवे सिद्धयन्तीति गाथार्थः । " तथैव कषायप्राभृतचूर्णिकारैर्गाथायामुक्तम् स्ववणाए पट्ठवगो जम्हि भवे णियमसा तदो अण्णे । णाविच्छुदि निष्णि भवे दंसणमोहम्मि खीणम्मि || अक्षरगमनिकास्त्वेवम्-यस्मिन्भवे दर्शनत्रिकस्य प्रस्थापको भवति, तदितरांस्त्रीन्भवान् नाऽतिक्रामति, प्रारम्भकस्य मनुष्यस्योत्कृष्टतश्चत्वारो भवा एव भवन्तीति वाच्यम् । तथैवोक्तं Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसखण्डाद्यल्पबहुत्वम् ] अल्पबहुत्वाधिकारः [ १४७ चाऽन्यत्र-"तम्मि य तइयचउत्थे भवम्मि सिज्झंति खहअसम्मत्ते सुरनरपजुगलिगइ इमं तु जिणकालियनराण ।" इति । नन्विह क्षायिकसग्यदृष्टीनां कृष्णादीनां पञ्चमभवेऽपि मोक्षगमनं शास्त्रे श्रृयत इति पञ्च भवा अपि क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां भवन्तीति कृत्वा यावचतु भवेषु मुक्तिः प्रायिकी संभाव्यते । उक्तं चोपाध्यायप्रवरैः श्रीयशोविजयैः"इदं च प्रायोवृत्योक्तमिति संभाव्यते, यत.क्षीणसप्तकस्य कृष्णस्य पञ्चमभवेऽपि मोक्षगमनं श्रूयते, उक्तं च "नरयाउ नरभवम्मि देवो होऊण पंचमे कप्पे । ततो चुओ समाणो बारसमो अममतित्थयरो॥१॥इति ।" इत्यमेव दुःप्रसहादीनामपि क्षायिकसम्यक्त्वमागमोक्तं युज्यत इति यथागमं विभावनीयम् ।" अत्र कषायप्राभृतचूर्णिकारमताऽनुसारेणाऽपूर्वकग्णस्य प्रथमसमयादारभ्य कृतकृत्यवेदकाऽद्धाप्रथमसमयपर्यन्तं विद्यमानानामनुभागखण्डोत्कीर्णाद्धादीनां कालतोऽल्पबहुत्वमभिधीयते । तथा च तद्ग्रन्थ:-दसणमोहणीयक्खवगम्स पढमसमए अपुव्वकरणमादि कादूण जाव पढमसमयकदकरणिज्जो त्ति एदम्हि अंतरे अनुभागखंडयहिदिखंडयउक्कीरणडाणं जहण्णुकस्सियाणं हिदिखंडयहिदिबंधहिदिसंतकम्माणं जहण्णुकरसयाणं आचाहाणं च जहण्णुक्कस्सियाणमण्णेसि च पदाणमप्पबहुअं वन्नइस्सामो तं जहा (१)सव्व. त्थोगा जहणिया अणभागखंत्यउक्कोरणडा । (२)उक्कस्सिया अणुभागखंडयउक्कीरणद्धा विसेसाहिआ। (३)द्विदिखंडय उकीरणद्धा हिदिबन्धगडा च जहणियाओ दोवि तुल्लाओ संखेजगुणाओ।(४) ताओ उक्कस्सियाओ दो वि तुल्लोओ विसेसाहियाओ । (५) कदकरणिजस्स अद्धा संखेज्जगुणा।(६) सम्मत्तक्खवणद्धा संखेनगुणा। (७)अणियट्टिअडा संखेजगुणा(८)अपुव्वकरणडा संखेज्जगुणा (8)गणसेदिणिक्खेवीविसेसाहिओ। (१०)सम्मत्तस्स दुचरिमहिदिखंडयंसखेज्जगणं (११)तस्लेव चरिम हिदिखंडयं संखेज्जगणं । (१२)पट्ठवगस्स अट्ठच रिसगे संतकम्मे सेसेज पढमं हिदि. खंडयं तं संखेजगुणं। (१३)जहणिया आपाहासंखेज्जगुणा।(१४)उक्कस्सिया आवाहा संखेज्जगुणा ।(१५)पढमसमयअणभागं अणुसमयो वट्टमाणगस्स अहवस्साणि हिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । (१६)सम्मत्तस्स असंखेज्जवरिसयं चरमट्टिदिखंडयं असंखेजगुणं(१७)सम्मामिच्छत्तस्स चरिममसंखेज्जवरिसयं हिदिखंडयं विसेसाहिों। (१८)मिच्छत्ते खविदे सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं पढमहिदिसंख्यमसंखेज्जगुणं ।(१६) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम १४८ ] [गाथा ३२ मिच्छत्तसंतकम्मियस्स सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं धरमट्टिदिखंउयमसंखोज्जगुणं । (२०)मिच्छत्तस्स चरिमहिदिखंडयं विसेसाहियं (२१)असंखेज्जगणहाणिढिदिखंडयाणं पढमहिदिखंडयं मिच्छत्तसम्मत्तसम्ममिच्छत्ताणमसंखज्जगणं (२२ संखेज्जगणहाणिहिदिखंडयाणं चरिमट्ठिदिखडयं जं तं संखेज्जगणं । (२३)पलिदोषमहिदिसं. तकम्मादो बिदियं हिदिखाडयं संखेज्जगुण (२४)जम्हि हिदिखंडए अवगदे दंसणमोहणीयस्स पलिदोवममेत्तं हिदिसतकम्मं होइ तं हिदिखंडयं संखेज्जगुणं ।(२५) अपुवकरणे पढमहिदिखंडयं संखेज्जगुणं । (२६) पलिदोवममेत्ते हिदिसंतकम्मे. जादे तदो पढम हिदिखंडयं संखेज्जगुणं । (२७) पलिदोवमहिदिसंतकम्मं विसेसाहियं (२८)अपुठवकरणे पढमस्स उक्कस्सगहिदिखंडयस्स विसेसो संखेज्जगुणो।(२९) दसणमोहणीयस्स अणियटिपढमसमयं पविट्ठस्म टिदिसंतकम्म संखेज्जगणं । (३०) दसणमोहणीयवज्जाणं कम्माणं जहण्णओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो । (३१,तेसिं चेव उक्कसओ हिदिबंधो संखेज्जगुणो।(३२)दसणमोहणीयवज्जाणं जहण्णयं हिदिसं. तकम्म संखेज्जगणं । (३३) तेसिं चेव उक्कसयं डिदिसंतकम्म संखेजगणं ।" इति । भावार्थः पुनरयम्-(१)सर्वस्तोका जघन्यतोऽनुभागखण्डोत्कीर्णाद्धा, वर्षाऽष्टकसत्कर्मभवनादनन्तरपूर्वो योऽनुभागघातस्तस्य कालोऽत्र दर्शनमोहनीयस्य जघन्याऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालत्वेन ग्राह्या,ज्ञानावरणादीनां पुनः कृतकृत्यकरणाद्धाप्रथमसमयात्पूर्व समाप्यमानाऽनुभागघात. कालो ग्राह्यः, स स्तोको भवति, विशुद्धेः प्रभूतत्वात् ।। (२)तत उत्कृष्टाऽनुभागखण्डोत्कीणीऽद्धा विशेषाधिका, कुत इति चेद् । उच्यते-उत्कृष्टाऽनुभागखण्डोत्कीर्णकालेऽपूर्वकरणस्य प्रथमसमय आरभ्यमाणाऽनुभागखण्डस्योत्कीर्णकालो भवति । स च पूर्वतो विशेषाऽधिको भवति, विशुद्धेरल्पत्वात् । (३)ततो जघन्यतः स्थितिखण्डोत्कीर्णकालः स्थितिबन्धकालश्च संख्येयगुणौ परस्परं च तुन्यौ। अनिवृत्तिकरणे सम्यक्त्वमोहनीयस्य यच्चरमखण्डमुत्किरति तत्खण्डोत्कीर्णकालस्तात्कालिकश्च उक्तं च लब्धिसारे-"दर्शनमोहस्य जधन्यानुभागखण्डोत्करणकालसम्यक्त्वप्रकृत्यष्टवर्षस्थितिसमयात्प्राक्तनाऽनन्तराऽवस्थायां संभवन्वक्ष्यमाणद्वात्रिंशत्पदेभ्यः स्तोकोऽल्प इत्यर्थः । ज्ञानावरणाद्यायुर्वजितशेषकर्मणां जघन्याऽनुभागखण्डोत्करणकालोऽनिवृत्तिकरणचरमभागे संभवन सर्वतः स्तोकमिति सामान्येन जघन्याऽनभागखण्डोत्करणकालः संख्याताऽऽवलिमात्रोऽप्युत्तरपदापेक्षयाऽल्प इत्यूच्यते" । अत्र जघन्याऽनुभागवण्डोत्करणकालः संख्याताऽऽवलिकाप्रमाण उक्तः, स च चिन्त्यो रसघातस्याऽऽवलिकासत्कसंख्याततमभागमात्रत्वसिद्धेः तत्सिद्धिश्च रसघाते प्रारदर्शिता प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वाऽधिकारे। तत्त्वं केलिनो विदन्ति । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिधातकालाद्यल्पबहुत्वम् ] अल्पबहुत्वाधिकारः [१४९ स्थितिबन्धकालः पूर्वतः संख्येयगुणौ परस्परं च तुल्यौ भवतः, यतः समकालीनयोस्तयोस्तुल्यत्वं तथा चैकस्मिन्स्थितिघाते सहस्राणि रसघाता भवन्ति ।। (४) तत उत्कृष्ट द्वे(अद्धे )परस्परं तुल्ये पूर्वतश्च विशेषाधिके । अपूर्वकरणप्रथमसमय आरभ्यमाणस्थितिघातकालस्तात्कालिकश्च स्थितिबन्धकालःपरस्परं तुल्यौ पूर्वतश्च विशेषाऽधिको विशुद्धरत्पत्वात् । (५)ततः कृतकृत्यस्यस्याऽद्धा संख्यातगुणा, कृतकरणाऽद्धायां संख्येयस्थितिबन्धगमनोपलम्भात्संख्यातगुणेन बृहत्तराऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वात् । (६) ततः सम्यक्त्वमोहनीयस्य क्षपणाद्धा संख्यातगुणा, अष्टवर्षप्रमाणे सम्यक्त्वमोहनीयस्थितिसत्कर्मणि जाते तद्वेदनाय यः कालो व्यतिक्रान्तो भवति, स पूर्वतः संख्यातगुणः ।। (७) ततोऽनिवृत्तिकरणाऽद्धा संख्यातगुणा । अनिवृत्तिकरणस्य संख्येयतमे भागे शेषे सम्यक्त्वमोहनीयशपणाकाला प्रारभ्यते, अतोऽनिवृत्तिकरणकालः पूर्वतः संख्यातगुणः ।। (८) ततोऽपूर्वकरणाद्धा संख्यातगुणा । सर्वत्राऽनिवृत्तिकरणतोऽपूर्वकरणस्य संख्येयगुणत्वात् । ___(6,ततो गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः, कुत इति चेद् ? उच्यते-गुणश्रेणिनिक्षेपस्याऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणाद्धाद्वयात्किश्चिदधिकत्वेन पूर्वतो विशेषाऽधिकत्वम् । (१०) ततः सम्यक्त्वमोहनीयस्य द्विचरमखण्डस्य पूर्वतः संख्यातगुणेन बृहत्तगऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वात् (११)ततस्तस्यैव चरमखण्ड संख्यातगुणम्, द्विचरमखण्डतश्वरमखण्डस्य संख्येयगुणत्वस्य प्रागुक्तत्वात् । (१२) ततोऽष्टवर्षप्रमाणस्थितिसत्कर्मणि शेषे यदन्तमुहूर्तप्रमाणं स्थितिखण्डं तत्संख्यातगुणम्, प्रथमखण्डस्याऽन्मुहूर्तप्रमाणत्वेऽपि पूर्वतः संख्येयगुणेन बृहत्तराऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वात् । (१३) ततो जघन्याऽबाधा संख्यातगुणा, ज्ञानावरणादिकर्मणो जघन्य स्थितिवन्धस्याऽ. न्तःकोटाकोटीप्रमाणत्वेन जघन्याऽवाधाया अन्तमुहृतप्रमाणत्वेऽपि पूर्वतः संख्यातगुणेन बृहत्तराऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वात् । (१४) तत उत्कृष्टाऽवाधा संख्यातगुणा, अपूर्वकरणप्रथमसमये ज्ञानावरणादिकर्मस्थितिबन्धस्य जघन्यस्थितिवन्धतः संख्यातगुणत्वेन जघन्याऽबाधात उत्कृष्टाऽवाधायाः संख्यातगुगत्वं न विरुध्येत । एतावत्पर्यन्तमुपयुक्ताः कालाः सर्वेऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणाः। (१५) ततोऽनुसमयमनुभागमपवर्तयतोर्जन्तोः प्रथमसमयेऽष्टवार्षिकं सम्यक्त्वमोहनीय स्थ. तिसत्कर्म संख्यातगुणम् । पूर्वपदस्थाऽन्तमुहूर्तत्वेनाऽस्याष्टवर्षप्रमाणत्वात्संख्यातगुणत्वं न्याय्यम् । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] उपशमनाकरणम् [ गाथा-३२ (१६)ततः सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽसंख्येयवर्षप्रमाणं चरमस्थितिखण्डमसंख्येयगुणम् । पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणचरमखण्डस्याऽसंख्यातवर्षप्रमाणत्वादसंख्येयगुणं सिद्धयति । (१७)ततः सम्यक्त्वमिथ्यात्वस्य चरममसंख्येयवर्षप्रमाणं स्थितिखण्डं विशेषाऽधिकम् कथम् ? इति चेत्, उच्यते-पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणद्विचरमखण्डं यावत् । सम्यक्त्वमोहनीयस्य मिश्रमोहनीयस्य चोमययोः स्थितिसत्त्वं स्थितिखण्डं च समाने भवतः । पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणे चरमखण्डे घात्यमाने मिश्रस्याऽऽवलिकासत्कर्मणि मुच्यते, सम्यक्त्वमोहनीयस्य त्वष्टवर्षप्रमाणा स्थितिः परित्यज्यते, इति कृत्वा सम्यक्त्वमोहनीयस्य चरमखण्डतो मिश्रस्य चरमखण्डमावलिकान्यूनवर्षाऽष्टकेनाऽधिकं भवति । (१८) ततो मिथ्यात्वे क्षपिते सम्यक्त्वसम्यक्त्वमिथ्यात्वयोः प्रथमस्थितिखण्डमसंख्येयगुणम्। कुतः? इति चेद्, उच्यते- मिथ्यात्वक्षपणाऽनन्तरमनेकसहस्रषु स्थितिघातेषु व्यतिक्रान्तेषु मिश्रस्य चरमखण्डं प्राप्यते, मिथ्यात्वक्षपणाऽनन्तरं च प्रतिस्थितिघाते सत्तागतस्थितिसत्त्वस्याऽसंख्येयबहुभागा घात्यन्ते, एकभागश्च सत्तायामवतिष्ठत इति कृत्वा मिश्रस्य द्विचरमखण्डतोऽपि चरमखण्डस्याऽसंख्यातभागमात्रत्वेन चरमखण्डतो द्विचरमखण्डस्याऽसंख्यातगुणत्वं सिध्यति, तर्हि मिथ्यात्वे क्षपिते सम्यक्त्वसम्यक्त्वमिथ्यात्वयोः प्रथमखण्डस्य सुतरामसंख्येयगुणत्वं सिध्यति ।। (१९) ततो मिथ्यात्वसत्कर्मणि सति सम्यक्त्वसम्यक्त्वमिथ्यात्वयोश्चरमस्थितिखण्डमसंख्येयगुणम् । कथमिति चेद्, उच्यते-मिथ्यात्वस्य चरमखण्डे घात्य माने तात्कालिकसम्यक्त्वमिश्रखण्डमसंख्यातगुणं भवति, मिथ्यात्वे क्षपिते प्रथमखण्डतोऽस्य खण्डस्य पूर्ववर्तित्वात, क्षीणमिथ्यात्वस्य च जीवस्य मिश्रस्य स्थितिखण्डस्य स्थितिसत्त्वसत्काऽसंख्येयबहुभागमात्रत्वात् । (२०) ततो मिथ्यात्वस्य चरमस्थितिखण्डं विशेषाऽधिकम् । कथमिति चेद, उच्यतेमिथ्यात्वस्य द्विचरमस्थितिखण्डं यावदर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्त्वं समानं भवति । तस्मात्स्थितिसत्कर्मतो मिथ्यात्वस्थाऽऽवलिको मुक्त्वा शेषस्थितिसत्वं घात्यते, सम्यक्त्वमिश्रयोस्तु पल्योपमाऽसंख्येयभागप्रमाणं परित्यज्य शेषस्थितिसत्त्वं घात्यते, अतो मिथ्यात्वस्य चरमखण्ड तात्कालिकसम्यक्त्वमिश्रखण्डत आवलिकान्यूनपल्योपमाऽसंख्येयभागेनाऽधिकम् । (२१ ततोऽसंख्यातगुणहानिस्थितिखण्डेषु मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वानां प्रथमस्थितिखण्डमसंख्यातगुणम् कुतः? इति चेद्, उच्यते-दापकृष्टिमात्रस्थितिसत्कर्मणि जाते सत्तागतस्थितेरसंख्येयवहुभागप्रमाणं खण्डं भवति । तत्र मिथ्यात्वचरमखण्डमाश्रित्याऽनेकसहस्रस्थितिघातः पूर्ववर्तित्वात्प्रथमखण्डस्य पूर्वपदतोऽतोऽस्य स्थितिखण्डस्याऽसंख्यातगुणत्वं सिध्यति । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरमखण्डाद्यल्पबहुत्वम् ] अल्पबहुवाधिकारः [ १५१ (२२) ततः संख्यातगुणहानिस्थितिखण्डानां चरमखण्ड संख्यातगुणं, पन्योपमप्रमाणे स्थितिमत्कणि जाते सत्तागतस्थितेः संख्यातबहुभागाः प्रतिस्थितिघाते पात्यन्ते, एवमनेकसहस्रं षु स्थितिघातेषु वजितेष्विदं चरमखण्डं प्राप्यते, परं सत्तागतस्थितेः संख्यातबहुभागा एव नाश्यन्ते इदं खण्डं वातयता जन्तोः सत्तागतस्थितेः संख्येयभागमात्रस्थितिसत्वमवशिष्यते शेषसंख्येयबहुमागाश्च चरमखण्डेन विनाशिता भवन्ति, दगपकृष्टिस्थानात् प्राक सत्तागतस्थितेह मागविनाशात् पूर्वपदस्याऽवशिष्टसंख्यातभागगता संख्येयवहुभागमात्रत्वात् पूर्वत इदं स्थितिखण्डं संख्यातगुणं विनिश्चीयते । (२३) ततः पन्योपमस्थितिमत्कर्मणि जाते द्वितीयस्थितिखण्ड संख्येयगुणम् । कामति चेत् ? उच्यते-अनन्तरोकाखण्डतोऽने पहलस्थितिघातैः प्रागिदं स्थितिखण्डं प्राप्यते । पूर्वपूर्वस्थितिघाते च पूर्ण उत्तरोत्तरखण्डेन संख्येयबहुभागप्रमाणा स्थितिर्घात्यते तेन पूर्वपदत इदं पदं संख्येयगुणं सुनिश्चितं भवति, न चात्र प्रथमस्थितिखण्डं विहाय द्वितीयस्थितिखण्डं कुतो गृहयते इति वाच्यम्, प्रथमखण्डस्य संख्येय भागन्यूनपल्योपमप्रमाणत्वात्, अस्य पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणत्वात् । (२४) ततो यस्मिन् स्थितिखण्डेऽपगते दर्शनमोहनीयस्य पल्योपमितं स्थितिसत्कर्म भवति तस्थितिखण्डं संख्येयगुणं भवति । कुत इति चेत् ? उच्यते-इदमपि स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणं भवति, यतः पल्योपमप्रमाणा स्थितिर्यावन्न भवति, तावस्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागमात्रं भवति, तथाऽपि पूर्वतः संख्येयगुणम् । (२५)ततोऽपूर्वकरणे जघन्यस्थितिखण्डं संख्यातगुणम् । कुत इति चेत् ? उच्यतेइदमपि स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणं भवति तथा पूर्वपूर्वखण्डत उत्तरोत्तरखण्डस्य विशेषहीनत्वेनाऽपूर्वकरणस्य प्रथमस्थितिखण्डतः पल्योपमप्रमाणस्थितिकरणकाले समाप्यमानस्थितिखण्डं संख्यातगुणहीनं भवति, अपूर्वकरणस्य प्रथमखण्डतस्तच्चरमखण्डस्याऽपि संख्येयगुणहीनत्वात् उक्तञ्च कषायप्रातचर्णिसूत्रे-पढमहिदिखंण्डयं बहुआं विदियं द्विदिखंडयं विसेसहीणं, तदीयं हिदिखंड्यं विसेसहीणं एवं पढमादो द्विदिखंडयादो अंतो अपुव्वकरणडाए संखेजगुणहीणं पि अस्थि ।" इति । अत इदं खण्डं पूर्वतः संख्यातगुणम् ।। (२६) ततः पल्योपममात्रे स्थितिसत्कर्मणि जाते प्रथमस्थितिखण्ड संख्येयगुणम् । कुत इति चेद् ? उच्यते-पल्योपमप्रमाणे स्थितिसत्कर्मणि जाते सत्तागतस्थितिः संख्येयगुणहीना भवति । इत्थं पल्योपमप्रमाणे स्थितिसत्कर्मणि जाते प्रथमखण्डस्य पस्योपमसंख्यातबहुभागप्रमाणत्वेन पल्योपमसंख्याततमभागप्रमाणापूर्वकग्णवर्तिप्रथमखण्डतः संख्यातगुणमेव । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३२ (२७) ततः पल्योपममात्रं स्थितिसत्त्वं विशेषाऽधिकं पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्त्वस्य पूर्वतः पन्योपमसंख्याततमभागेनाऽधिकत्वात् । (२८) तनोऽपूर्व करणे प्रथमस्योत्कृष्ट स्थितिखण्डस्य विशेषः संख्यातगुणः, कथमिति चेद् ! उच्यते - अपूर्वकरणे जघन्यस्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येय भागमात्रं तथोत्कृष्टस्थितिखण्डं सागरोपपृथक्त्वप्रमाणं भवति, जघन्यखण्ड मुत्कृष्टखण्डतो विशोध्य शुद्धशेषं संख्येयभागोनसागरोपमपृथक्त्व प्रमाणं भवत्पूर्वपदतः संख्येयगुणं भवति । (२९) ततो दर्शनमोहनीयस्याऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमयं प्रविष्टस्य स्थितिसत्कर्म संख्येयगुणम्, कुत इति चेद् ? उच्यते अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमये दर्शनत्रिकस्य स्थितिसत्कर्मणः सागरोपमलक्षपृथक्त्व प्रमाणत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणत्वं सिध्यति । (३०) ततो दर्शनमोहनीयवर्जानां कर्मणां जघन्यतः स्थितिबन्धः संख्यातगुणः । कथमिति चेद् १ उच्यते – शेषकर्मणां जघन्यस्थितिबन्धस्याऽन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणत्वं भवति । (३१) ततस्तस्यैवोत्कृष्टस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये य उत्कृष्टस्थितिबन्धः प्राप्यते स च पूर्वतः संख्यातगुणो भवतीत्यर्थः । (३२) ततो दर्शनमोहनीयवर्णानां जघन्यं स्थितिसत्कर्म संख्येयगुणम् । स्थितिघाते व्यवच्छिन्ने शेषकर्मणः स्थितिसच्वं पूर्वतः संख्येयगुणं भवति । (३३) ततस्तस्यैवोत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म संख्येयगुणम्, शेषकर्मणामपूर्वकरणस्य प्रथमसमये संभवदुत्कृष्ट स्थितिसवं पूर्वतः संख्ये यगुणं ज्ञातव्यम् । इति समाप्तमल्पबहुत्वम् । चारित्रमोहनीयमुपशमयितुकाम आदावनन्ताऽनुबन्धिविसंयोजनां कृत्वा दर्शन त्रिकं च क्षपयित्वोपशमश्रेण समारोहतीति प्रकार उक्तः । सम्प्रति यो वेदकसम्यग्दृष्टिः सन्नुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते, स बद्धायुष्कोऽबद्धायुष्को वा भवति, स च चतुर्थप्रभृतिसप्तम पर्यवसान गुणस्थानके - ऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोज्य ततोऽन्तर्मुहूर्ते व्यतिक्रान्ते यथाप्रवृत्तः सन् चतुर्विंशतिसत्कर्मा दर्शनत्रिकमुपशमयितुमुपक्रमते, उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी- तदो अणंतानुबंधी विसंजोइदे अंत्तोमुहुत्तमधापवत्तो जादो असादअरदिसोगअजसगिन्त्तियादिणि तावकम्माणि बंधादि तदो अंतमुत्तेण दंसणमोहणीयमुवसामेदि" इति । केषांचित्पुनर्मतेन मनुष्यगतावेवाऽनन्तानुबन्धिकपायानुपशमय्याऽष्टाविंशतिसत्कर्मा पष्ठप्रभृतिगुणस्थानके दर्शनत्रिकमुपशमयितुमारभत इति दर्शनत्रिकोपशमनामाविश्चिकीषु राह Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # अपूर्वकरणप्ररूपणा ] दर्शन मोह त्रिकोपशमनाधिकारः उवसामइत्तु सामन्ने । दोराहं श्रादियाणं ||३३|| ग्रहवा दंसणमोहं पुव्वं पदमडिमावलियं करेड छाया - अथवा दर्शन मोहं पूर्वमुपशमय्य श्रामण्ये | प्रथम स्थितिमावलिकां करोति द्वयोरप्यनुदितयोः ||३३ | , अथवा प्रकारान्तरे, आदौ दर्शनमोहनीयं क्षपयित्वोपशमश्रेणि प्रतिपद्यते, अथवा यद्वा दर्शन त्रिकं प्रथममुपशमय्याऽप्युपशमश्रेणि प्रतिपद्यते । कुत्र स्थितः १ इत्याह- श्रामण्ये, अयं शब्दार्थः-श्राम्यति=तपस्यति इति श्रमणः " नन्द्यादिभ्योऽनः " (५-१-५२) कर्तरि अनप्रत्ययः तस्य भावः कर्म वा श्रामण्यम् “पति - राजान्त - गुणोङ्ग - राजादिभ्यः कर्मणि च ' (७-१-६०) इति सिद्धहेमसूत्रेण 'टयण' प्रत्ययः, तत्र स्थितः, षष्ठसप्तमयोरन्यतर गुणस्थानकवर्तीति यावत् उक्तं च कषायप्राभृतचूणौं- "विरतो वेयगसम्मदिट्ठि उवसमसेतों पडिवज्जडकामो उवसमसम्मत्तं उप्पादेति" तथैव कर्मप्रकृतिचूर्णी टोकायां चोक्तं तद्यथा-'अहवे त्ति' अन्नाहिगारे जई वेयगसम्म हिट्ठी सेटिं पडिवज्जति तो पुच्वं दंसणतिगं जुगवं उवसामेति, 'पुण्वंउवसामित्त' जहा पुव्वं दंसणमोहस्स उवसामणा भणिया तवत्थवि सामन्ने त्ति ठिच्चा उवसामेइ । सामन्नमिच्छत्तमोचसमेव " तथैव कर्मप्रकृतिटीकायामपि - "इह यदि वेदकसम्यग्दृष्टिः सन्नुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते ततो नियमाद् दर्शनमोहनीयत्रितयं पूर्वमुपशमयति तच्च श्रामये स्थितः सन्नुपशमयति ।" इति तदुपशमनाविधिश्च सकलोऽपि प्रथमोपशमिकसम्यक्त्ववज्ज्ञातव्यः । तद्यथा यथाप्रवृतकरणे स्थितिघातो रमघातो गुणश्रेणिश्च न भवन्ति । अपूर्वकरणे च स्थितिघातो रातो गुणश्रेणिश्च भवन्ति । गुणश्रेणिनिक्षेपश्च अपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणाभ्यां किंचिदधिको गलिताऽवशेषश्च । i १५३ ॐ ननु दर्शनत्रिकस्योपशमनाऽधिकारे मिथ्यात्वस्य गुणसंक्रमो भवति, आहोस्विन्न ? इति चेद्, उच्यते- कर्मप्रकृतिचूर्णिकारैरेतदेव निर्दिष्टम् "उकिरज्जमाणं दलिय घवलादौ दर्शन त्रिकोपशमनाऽधिकारे गुणसंक्रमः सर्वथा निषिद्धः । तथा चाहुर्घवलाकाराः । “सम्म सस्स पढमट्ठिदिए झीणाए मिच्छत्त पवेसग्गं सम्मत्त सम्ममिच्छन्तं सु गुणसंकमेण ण संकमदि इमस्स विज्झाय संकमो चेव ।" इति । तथा चोक्तं लब्धिसारेसप्ताधिकद्विशततमगाथायाम् - दंसण बोहुवसमणं तक्खवणं वा हु होदि गरि तु । गुणसंक्रमो ण विज्जदि विज्भद वाघापवत्तं च ॥ तट्टीका - दर्शन मोहोपशमनविधाने गुणसंक्रमो नास्ति केवलं विध्यातसंक्रमो वा यथाप्रवृत्तसंक्रमो वा संभवति । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३३ सम्मत्तस्स पढमहितीते चेव छुभति सेसं जहा पुव्वं तहेव उवसमसम्मदिहि जातो अंतोमुहत्तो ता विझायसंकमो भवति" भावार्थ पुनरयम्-चूर्णिकारैः प्रथमौपशमिकसम्यक्त्वस्याऽतिदेशः कृत, किन्तु यथा प्रथमोपशमसम्यक्त्वाधिकारे सम्यक्त्वप्राप्तिसमयादन्तमुहूर्तपर्यन्तं गुणमंक्रमो भवति तथाऽत्रोपशमसम्यक्त्वप्राप्तिप्रथमसमयाद् यद्वाऽपूर्वकरणप्रथमसमयाद् गुणसंक्रम आरभ्यत इति न स्पष्टीकृतम्, यद्यपि प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वप्राप्त्यधिकारेऽपूर्वकरणे मिथ्यात्वस्य बध्यमानत्वेन गुणसंक्रमो निषिध्यते, तहयपि अपूर्वकरणे मिथ्यात्वस्याऽवध्यमानत्वेन गुणसंक्रमः संशीयते, अयं भावः-यथा दर्शनत्रिकक्षपणाधिकारेऽनन्ताऽनुबन्धिविसंयोजनाऽधिकारे तदुपशमनाधिकारे च गुणसंक्रमोऽपूर्वकरणयुपदिष्टः, तथा दर्शनत्रिकोपशमनाऽधिकारे गुणसंक्रमो भवति आहोस्विन्न भवति ? इति शंका कैश्चिदपि ग्रन्थकारनं परिहता। यद्यपि गुणसंक्रमपर्यवसानं टीकाकारैर्दर्शितम् , किन्तु तदारम्भो न दर्शितः तथाचाऽत्र पञ्चसंग्रहमूलम् "पढमुवसमं व सेस अंतमुहुत्ताल तस्स विज्झाओ।" तट्टीका-अन्तर्मुहूर्ताद् व्यतीताद् गणसंक्रमाऽवसाने विध्यातसंक्रमः सम्यक्त्वस्य भवति । तथैवमलयगिरिसूरीश्वराणां पञ्चसंग्रहटीका अन्तरकरणप्रवेशसमयादा. रभ्याऽन्तमुहूर्तेऽतिक्रान्ते गुणसंक्रमाऽवसाने विध्यातसंक्रमस्तस्य सम्यक्त्वस्य भवति । किमुक्त भवति ? विध्यातसक्रमेण मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोलिक सम्यक्त्वे प्रविशतीति एवमेवोपाध्यायप्रवरा अप्याहुः । एवं प्रकारेण गुणसंक्रमारम्भकालोऽस्माभिर्न निर्णीयत इति बहुश्रुता निश्चिन्वन्तु । अपूर्वकरणस्य प्रथमसमये यत् स्थितिसत्त्वमासीत्, तदेव नच्चरमसमये संख्येयगुणहीनं भवति । अपूर्वकरणानन्तरमनिवृत्तिकरणं प्रविशति । अनिवृत्तिकरणेऽपि पूर्ववत् स्थितिघातादयः प्रवर्तन्ते। अनिवृत्तिकरणम्य संख्येयबहुभागेषु गतेषुष्वसंख्येयसमय प्रबद्धप्रमाणा उदीरणा भवति ।' उक्त च कषायप्राभृतो "दसणमोहणोयउवसामणअणियटिअडाए संखेज्जे. सुभागेसुगदेसु सम्मतस्स असंखेजाणं समयप्रबडाणमुदीरणा" ततोऽन्तमु हुतं गत्वाऽन्तरकरण कतु मारभते ।उक्तं च कषायप्राभतचूर्णौतदोअंतोमुहूत्तेण दंसणमोहणीयस्स टिप्पणी * तथैवलब्धिसारेऽाधिकद्विशततमगाथायां तथा नवाऽधिकद्विशततमगथायामुक्तम् उवमामण प्रणिट्टिसंखाभागानु तीदासु ॥२०८।। सम्मस्स असंखेज्जा समयपबद्धाणुदीरणा होदि। ततो मुहुत्तअंते दंसण मोहंतरं कुणई । २०६ ।। जलब्धिसारस्यदशाधिकद्विशततमगाथायाष्टकायामप्युक्तम्-उदयवत्या सम्यक्त्वप्रकृतेरन्तमुहूर्तमात्रीमनुदितयोरितरयो मिथ्यात्वमियोश्चावलीमात्री प्रथमस्थिति मुक्त्वोपयंन्तमुहूर्त निषेकाणामन्तर Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतरकरणप्ररूपरणा ] दर्शनमोहत्रिकोपशमनाधिकारः [ १५५ अंतरं करेदि"इति। तत्र सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽन्तमुहूर्तप्रमाणां प्रथमस्थितिं 'अणुदयाण' इति। अनुदितयोमिथ्यात्वमिश्रयोरावलिकामात्रां प्रथमस्थितिं कृत्वाऽन्तमुहूर्तेन पूर्ववदेकस्थितिबन्धाद्धाप्रम.णेन कालेनाऽन्तरकरणं विधाय दर्शनत्रिकमुपशमयितुमारभते । दर्शनत्रयस्य द्वितीयस्थितेः प्रथमः निषेकाः समानाः तथाऽन्तकरणस्याऽधस्तनप्रथमस्थितिसत्कचरमनिषका विषमा इति कृत्वाऽन्तरकणमधस्ताद् विपतमुपरि च सदृशम् । अत्र मिथ्यात्वमिश्रपुञ्जयोः प्रथम स्थतिरावलिकाप्रमाणा मुच्यते, सा चाऽन्तरकरणक्रियाकाले चलनाऽऽत्रलिका संभाव्यते । किमुक्तं भवति ? उच्यते-अन्तरकरणक्रियाकालस्य प्रथमसमये मिश्रमोहनीयस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्य चोदयाऽऽवलिकाया उपरितनप्रथमनिषेकादारभ्याऽऽद्वितीयस्थितिसत्कप्रथमनिषेकपर्यन्ते विद्यमाना ये निषेकाः, तेभ्यो दलिकान्युत्कीर्यन्ते । न चाऽन्तरकरण क्रियाकाले समाप्त एक द्वितीयस्थितिर्ववतुं शक्यते, नार्वागिति वाच्यम्, भाविनिभूतवदुपचार इतिन्यायेनाऽन्तकरणक्रियायाः प्रथमममयात्प्रभृत्यपि द्वितीयस्थितित्वेन व्यपदेशात अन्तरकरण क्रियाया द्वितीयसमयेऽपि पूर्ववदावलिका वर्जयित्वोपरितनस्थितिस्थानकेभ्यो दलिकान्युत्किरति (किन्तु पूर्वसमययुत्कीय माणाऽन्तकरणगतस्थितितः समयेन न्यूना हीदानीमुत्कीर्यमाणाऽन्तरकरणगतस्थितिर्भवति, उदयेन प्राक्तनसमये वेदिते उपरितनसमयस्योदयावलिकायां प्रविष्टत्वात् ) एवमन्नमुहूत यावदुदयसमयेषु क्षीणेष्वावलिका प्रतिसमयमुपयुपरि वर्धते, अन्तरकरणक्रियाया अन्तमुहूतसत्कचरम समये मिथ्यात्वमिश्रयोर वलिकावोंपरितन्य प्राप्तद्वितीयस्थितिसत्कप्रथमनिषेकाऽन्तमुहूर्तप्रमाणास्थितिर्दलिकाभाववती क्रियते । अत्र चरमसमय एव सर्वथा दलिकाऽभाववती क्रियते, तत्प्राक्तनेषु समयेषु तु सर्वथादलिकाऽभाववती न क्रियत, अपितु प्रतिसमयं कानिचिद् कानिचिद् दलिकान्यपनयति । इत्थं मिथ्यात्वमिश्रयोरन्तरकरणक्रियाप्रथमसमये यथाऽऽवलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिर्भवति तथैवाऽन्तरकरणक्रियाचरमसमयेऽप्यावलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिर्भवति । सम्यक्त्वमोहनीयस्य त्वधस्तादन्तमुहर्तमात्रां स्थितिमुक्त्वो. परितनस्थितिं च विष्कम्भयित्वाऽन्तरालगतस्थितेरन्तमुहूर्तमात्रमन्तरकरणं करोति । (अत्राऽधस्तनमुच्यमाणाऽन्तमुहर्तप्रमाणा स्थितिर्नोपयु परि वर्धतेऽपितूदयेन क्षीणेषु समयेषु सत्स्वन्तरकरण क्रियायाः समाप्ति यावदधस्तन विमुच्यमाणास्थितिन्यू ना न्यूनतरा भवति ।अन्तरकरणगतस्थितिस्तु तावत्येव, न्यूना न भवतीत्यर्थः ] . एकस्थितिबन्धाद्धाप्रमाणाऽन्तम हूतेन सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽधस्तनाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाभावन्तमुहूर्तेन कालेन करोति उपरि तिसृणां प्रकृतीनां द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकाः सदृशा एव, अधः प्रथमस्थित्यग्रनिषेकाः विसदृशा इति ग्राह्यम् । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ३३ णां स्थिति मुक्त्वोपरितनाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्थितिं तदलिकाऽभाववतीं करोति । एवमन्यत्राऽप्यन्तरकरणाऽवसर उदयवत्प्रकृतीनामन्तमुहूर्तप्रमाणा प्रथमस्थितिग्नुदयवतीनां च प्रकृतीनांचलनावलिका प्रथमस्थितिर्ज्ञातव्या । अन्तरकरणाऽऽयामः-अपूर्वकरणप्रथमसमयाद् गुणश्रेणिनिक्षेपोऽपूर्व करणाऽनिवृत्तिकरणद्वयात किश्चिदधिके काले भवति स्म,अत्राऽनिवृत्तिकरणस्योपरितननिक्षेपो गुणश्रेणिशीर्षमुच्यते । ॐ गुणश्रेणिशीर्ष तथा तत: संख्यातगुणा या तदुपरितनस्थितिः सासर्वाऽप्यन्तरकरणे भवति, तावन्त्यः स्थितयः सम्यक्त्वस्य दलिकाऽभाववत्यः क्रियन्त इत्यर्थः। मिथ्यात्वमिश्रयोरुदयाऽऽवलिको. परितनसम्पूर्णगुणश्रेणिस्तथा ततः संख्यातगुणास्तदुपरितनस्थितयोऽन्तरकरणे भवन्ति, तावन्त्यः स्थितया दलिकाऽभाववत्यः क्रियन्त इति यावदन्तरकरणदलप्रक्षेपविधिः-*दर्शनत्रिकस्याऽन्तरकरणत उत्कीर्यमाणानि दलानि सम्यक्त्वमोहनीस्य प्रथमस्थिती प्रक्षिपति । न चात्र मिथ्यात्व. मिश्रयोः प्रथमस्थितावन्तकरणत उत्कीर्यमाणदलिकं कथं न प्रक्षिप्यत इति वाच्यम् , उदयावलिकायां दलिकनिक्षेपस्य निषिद्धत्वेनोदयरहितयोस्तयोर्दलिकस्य सम्यक्त्वमोहनीयस्य प्रथमस्थिती प्रक्षेपात् । ननूकीर्यमाणदलिकानि मिथ्यात्वमिश्रयोर्द्वितीयस्थितो कुतो न प्रक्षिप्यन्ते ?इति चेद्, उच्यते-बध्यमानप्रकृतेरेव दलानि द्वितीयस्थितावपि प्रक्षिप्यन्ते, अत्र तु दर्शनत्रिकस्य बध्यमानस्वाऽभावेन द्वितीयस्थितौ तदलिकनिक्षेपाभावः सिद्धः । एवं सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽप्यन्तरकरणत उत्कीर्यमाणदलं द्वितीयस्थितौ न प्रक्षिपतीनि संभाव्यते । 5 उक्तं च दशाऽधिकद्विशततमगाथायाम-सम्यक् वेप्रकृतेर्गुणणिशीर्ष ततः संख्यानगुणितानुपरितनस्थिति निषेकांश्च गृहीत्वान्तरं करोति, मिथ्यात्वमिश्रयो: गलितावशेषगुणश्रेण्यायाम सर्वम्, तत: संख्यातगुणितानुपरितनस्थितिनिषेकांश्च गृहीत्वान्तरं करोतीत्यर्थ:। * उक्तं च लब्धिसारे "वर्शनमोहत्रयस्याऽन्तरे उत्कीर्णद्रव्य मुदयवत्याः सम्यक वप्रकृते: प्रथमस्थिता. वेव निक्षिपति, न द्वितीय स्थिती यत्र नूतनबन्धाऽस्ति तत्रोत्कृष्य द्वितीयस्थितावपि निक्षिपति । अत्र. पुनरप्रमत्तगणस्थाने दर्शनमोहस्य बन्धाऽभावात द्वितीयस्थितौ न निक्षिपतीत्यर्थः" (लब्धि २११) । द्वितोयस्थितित उत्कीयमाणदलिकानि तथोदयावलिकावर्जप्रथमस्थितित उत्कीर्यपाणलिकानां निक्षेप विधिः विशेषतः लब्धिसार उक्तः तद्यथा"गुणश्रेणिनिजरार्थमुदयावलिबाह्यप्रथमसमयादारभ्य सर्वनामकृष्टद्रव्यं पल्याऽसंख्यातभागेन खण्ड. यित्वा बहुभागमन्तरऽऽयाम मुक्त्वा स्वस्वोपरितनद्वितीयस्थित निक्षिप्य शेषेकभागं फ्ल्याऽसंख्यातकभ गेन खण्डयित्वा बहभागं सम्यक्त्वप्रकतिप्रथमस्थितौ गुणण्याय मे निक्षिप्य तदेकमानमुदयावल्यां निक्षिपति । एवमन्तरस्य द्वितीयादिफालिद्रव्यं दर्शनमोहसम्बन्धि प्रतिसमयमसंख्यात गुणितक्रमण गृहोत्वा सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथम स्थितावेव निक्षिपति। अंते (तर) उपरि चाऽपकृष्टद्रव्यमपि प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण गृहीत्वा सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थिता अन्तरस्योपरि स्वस्वद्वितीयस्थिती चाऽग्रे. ऽतिस्थपनावलि मुक्त्वा निक्षिपति ।" इति । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिगतोपशमसम्यक्त्वः ] दनमोहत्रिकोपशमनाधिकारः [ १५७ अन्तरकरणक्रियाकाले पूर्णे प्रथमोपशमिकसम्यक्त्ववदत्राऽप्यनन्तरसमयात्प्रभृति द्वितीयस्थितिगतदर्शनत्रिकदलिकं प्रतिममयमसंख्यगुणकारेणानिवृत्तिकरणचरमसमयं यावदुपशमयति चरमसमये च सत्तागतदर्शन त्रिकसर्वदलिकं सर्वथोपशमितं संभवति । सम्यक्त्वमोहनीयस्य प्रथमस्थितेरावलिकाद्वये शेषे सम्यक्त्वस्य आगालो गुणश्रेणिश्च व्यवच्छिद्यते । सम्यक्त्व. मोहनीयस्य प्रथमस्थितेरावलिकायां शेषायां दर्शनमोहस्य स्थितिघातो रसघातो सम्यक्त्वमोहनीयस्य चोदीरणा विच्छिद्यन्ते । ततः सम्यक्त्वमोहनीयस्याऽऽवलिकाप्रमाणां स्थिति केवलेन शुद्धेनोदयेनाऽनुभयाऽन्तरकरणं प्रविशन्नेव श्रेणिगतोपशमिकसम्यक्त्वं लभते । अन्तरकरण औपशमिकसम्यग्दृष्टिः प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशुद्धयाऽन्तमुहर्त यावत् प्रवर्धमानो भवति । अपमिकसम्यक्त्वप्राप्तितोऽन्तर्मुहूर्तेऽतीते गुणसंक्रमा लब्धिसारस्य त्रयोदशाधिकद्विशततमगाथायामेतदुक्तम् मिथ्यात्वमोहनीयस्य मिश्रमोहनोयस्य चोदयावलिकाया उपरितनान्तरकरणगता या स्थितयः सम्यक्त्वमोहनीयस्य प्रथमस्थिति पर्यन्तं विद्यन्ते तस्थितिगतदलिकानि सम्यक्त्वमोहनीयस्य ताभिः(मिथ्यात्वमिश्रसत्कस्थितिभिः) सहक्षासु स्थितिषुप्रक्षिप्यन्ते। अक्षराणित्वेवम्-मिथ्य त्वमिश्रयोरुदयावलिबाह्यान्तरायामे सम्यक्त्व प्रकृतिप्रथमस्थितिसदश स्थितः ये निषेकास्तानुरकीर्य स्वसमानस्थितिष सम्यक्स्वप्रकृतिप्रथमस्थितिनिपेकेष्वेव निक्षिपति, म तेषां निक्षेपविभागोऽस्ति यदुपरिस्थितान्तराऽऽयामनिकाःफालिगता:सर्वेऽपि पूर्वोक्त विधानेनैव सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थितौ गुणश्रेण्यामुदयावल्यां च विभज्य निक्षिपतीत्यर्थः ।। (लब्धि. २१३) भावार्थः पुनरयम-मिश्रमोहनायस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्य च प्रथमस्थितिरावलिकाप्रमाणा, सम्यक्रवमोहनीयस्य च प्रथमस्थितिर तमुहर्तप्रमाणा। मिथ्यात्वमोहनीयस्य मिश्रमोहनीयस्यच प्रथम स्थिते. परितनप्रथमनिषेकगतद्रव्यं सम्यक्त्वमोहनीयस्य प्रथमस्थिते रावलिकाया उपरितनप्रथमनिषेके प्रक्षिपति । एवं मिथ्यात्वमोहनीयस्य मिश्रमोहनीयस्य च प्रथमस्थितरुपरिनन द्वतीयनिकगतदलं सम्यक्त्वमोहनीयस्य च प्रथमस्थितेरावलिकाया उपरितन द्वितीयनिषेके निक्षिपति एवं तावद्ववक्तव्यम, यावद सम्यक्त्वमोहनीयप्रथमस्थितेश्चरमनिषेकेण सहश: मिथ्यात्वमोहनीयाय मिबमोहनीयम्य च निषेकः । ततः परं दर्शनत्रिकस्यान्तरकरणायामत उत्कीयमाणदलिकं सम्यक्त्वप्रथम स्थिती कोऽर्थः ? गुणबेण्यामुदयवल्यां च विभज्य निक्षिपति । फालिद्रव्यं प्रथमस्थितावपकृष्टद्रव्यं प्रथमस्थिती द्वितीयस्थितौ यथायोगं प्रक्षिपति, ताचाऽन्तरकरणक्रियाकालस्य द्विचरमसमयपर्यन्तं ज्ञातव्यम् । अन्तरकरणक्रियाकालचरमसमये फालिद्रव्यमपकष्टद्रव्यं च सम्यक्त्वमोहनीयप्रथमस्थितौ निक्षिपति । उक्त च लब्धिसारे "जावंतरस्स दुचरिमफालि पावे इमो कमो ताव । चरिमतिदंसपदव्वं छह दि सम्मस्स पढमम्हि ।।२१४ । एव फलिद्रध्यस्याऽपकृष्टद्रव्यस्य च यावदन्तरद्विचरमफालि प्राप्नोति तावदयमेवनिक्षेपक्रमः । पुनर्दशनमोहत्रयस्य चरमफालिद्रव्यं तत्राऽपकृष्टद्रव्यं च सर्व सम्यक्त्वप्रकृति प्रथमस्थितावेव निक्षिपति न पूर्व वदन्तरापकष्टबहुभागस्य द्वितोयस्थिती निक्षेप कर्तव्य इति भावः'। चरम समयेऽस्य निक्षेपक्रमस्य कारणं न विद्मः । तत्वं तु तद्विदो विदन्ति । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] [ गाथा ३४ saara मिध्यात्वस्य मिश्रस्य च विध्यातसंक्रमो भवति । इदमुक्तं भवति - विध्यातसंक्रमेण मिथ्यात्वसम्यङ्मिथ्यात्वयोर्दलिकं सम्यक्त्वे प्रक्षिपति । उक्तं च पञ्चसंग्रहे - "पदमुचसमं व सेस अतिमुहुलाउ तस्स विज्झाओ न्ति ।" यथा प्रथमोपशमिकसम्यक्त्वप्राप्तिसमयात् प्रतिसमयमनन्तगुणहृद्धया विशुद्धिरन्तर्मुहूकालं यावत् प्रवर्धते स्म, तथैवापशमश्रेणिगतौ पशमिक पम्यक्त्व लाभसमयात् प्रतिसमयमनन्तगुणवृद्धया विशोधिः संख्यातगुणेन वृहत्तराऽन्तमुहूर्तकालं यावत् प्रवर्धते । उक्तं च कषायमाभृतचूर्णो "पढमदाए सम्मत्तमुपादयमाणस्स जो गुणसंकमेण पूरणकालो तदो संजगुणं कालमिमो उवसंतदंसणमोहणीओ विसोहीए वढदि,, । औपशमिकस - क्लामा व्यतिक्रान्ते कश्चिन्तुर्हीयमानपरिणामः कश्चित्प्रवर्धमानः कश्चिदवस्थितपरिणामो वा भवति । दर्शनत्रिकमुपशमय्य किं करतीत्याह उपशमनाकरणम् C4 श्रद्धा परिवित्तायो पमत्तइयरे सहस्तसो किच्चा । करणानि तिन्नि कुणा तइयविसेसे इमे सुणसु || ३ ४ || T अद्धापरिवृत्तिः प्रमत्त इतेरे सहस्रशः कृत्वा । करणानि त्रीणि करोति तृतीयविशेषानिमान् शृणुत ।। ३४|| इति पदसंस्कार; 'अद्धा' इत्यादि, संक्लेशविशोधिवशात्प्रमत्तभाव इतरे चाऽप्रमत्तभावे कालपरावृत्तिः सहस्रशः कृत्वा चारित्रमोहनीयोपशमनाथ त्रीणि करणानि यथाप्रवृत्तादीनि करोति । तथा चोक्तंप्राभृतचूर्णी - "तहा चेव ताव उवसंत दंस मोहणिजो असादअरदिमोगअज• सागित्तिआदोसु बंधपरावत्तसहस्साणि कादृण तदो कसाए उवसामेडु कच्चे अधावतकरणस्स परिणाम परिणमइ ।" इति । एवं दर्शनत्रिकमुपशमय्य वा क्षपयित्वा जीवः पष्ठगुणस्थानकं सप्तमगुणस्थानकं च सहस्रशः स्पृष्ट्वा चारित्र मोहनीयोपशमनार्थ करणत्रयं करोति । तत्राऽप्रमत्तगुणस्थान के यथाप्रवृत्तकरण मपूर्वकरण गुणस्थान के पूर्व करणमनिवृत्तिकरण गुणस्थान के चानिवृत्तिकरणं क्रमशो भवति । तानि करणानि प्रागिव वक्तव्यानि । तद्यथा - - यथाप्रवृत्त करणे स्थितिघातो रातो गुणश्रेणिश्च न भवन्ति, केवलमनन्नगुणवृद्धया विशुद्धयां प्रवर्धमानो भवति । नानाजीवाऽपेक्षयाऽध्यवसायस्थानानि विशोधिश्व सर्व पूर्ववज्ज्ञातव्यम् । उक्तं च कषायप्रभृतचूर्णो - "तं चेच इमस्स वि अद्धापवत्तकरणलक्खणं जं पुव्व परुविद" इति। यथाप्रवृत्त करणकालात्पूर्वावस्थायां पूर्ववदत्राऽपि योग्यता वक्तव्या, नवरं बन्ध उदये च संयमयोग्याः प्रकृतयो ज्ञातव्याः ।सत्तायां चाऽयं विशेषो ज्ञातव्यः । नरकतिर्यगायुरनन्तानुबन्धिचतुष्करूपाः षटू प्रकृती Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 अपूर्वकरणे स्थितिघातादयः ] चारित्र मोहोपशमनाधिकारः [ १५६ मुक्त्वा द्वाचत्वारिंशदधिकशतं प्रकृतयः सत्तायां विद्यन्ते, अबद्धायुष्कस्त्वेक चत्वारिंशदधिकशतं प्रकृतयः विद्यन्ते, अनन्तानुबन्धि चतुष्कस्योपशमनामभ्युपगन्तृगामाचार्याणां मतेन पूर्वतश्चतस्रः प्रकृतयोऽधिकाः सत्तायां वाच्याः । क्षीणसप्तकस्य तु पूर्वतस्तिस्रः प्रकृतयो न्यूना वक्तव्याः । प्रथमसमय अपूर्वकरणप्रथमममयादारभ्य स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिरपूर्व स्थितिबन्धथाऽऽरभ्यन्ते तेषां स्वरूपं पूर्ववदवगन्तव्यम् । तथापि स्थानाशून्यार्थमत्र किञ्चिदभिधीयते - अपूर्वकरणस्य औपशमिकसम्यग्दृष्टेर्जघन्य स्थितिखण्डं पल्योपमसंख्येय भाग मात्र मुत्कृष्टतस्तु सागरोपमपृथक्त्व प्रमाणं भवति । क्षायिकसम्यग्दृष्टेस्तु घात्यमानं : स्थितिखण्डमुत्कृष्टोऽपि पल्योपमसंख्येयतम भागमात्रं भवति, न तु सागरोपमपृथक्त्वमात्रम् । उक्त च कषायप्राभृतचूर्णो - "जो खीणदंसणमाहणिज्जो कसायउवसामगो तस्स खीणदंसणमोहणिज्जस्स कसा उवसामणाए अपुव्यकरणे पढमट्ठिदिखंडय णियमा पलिदोषमस्स संखेज्जदिभागो ।" इति । अत्र कारणमिदं संभाव्यते-स्थितिखण्डस्य स्थितिसत्कर्माऽनुसारित्वाद् दर्शन मोहनीयम्लपणायां स्थितिघातैः प्रभूतानां स्थितीनां विनष्टत्वादुत्कृष्टतोऽपि स्थितिखण्डं पल्योरम संख्येय भागमात्रं भवति । अभिनवस्थितिबन्धश्च प्रत्यन्तमुहुर्त पल्योपमसंख्येयभागेन हीनो भवति । एकस्मिन् स्थितिघातेऽभिनवस्थितिबन्धे वाऽनेकसहस्राणि रसघाता व्रजन्ति । स्थितिघातोऽभिनव स्थितिबन्धश्च युगपदारभ्येते युगपन्निष्ठां च यातः । सप्तकर्मणां गुणश्रेणिः पूर्ववद् गलिताऽवशेषमात्री भवति तदायामश्च पूर्ववदन्तमुहूर्त प्रमाणो पूर्वकरणानिवृत्तिकरण कालद्वयात्किञ्चिदधिकः । स च गुणश्रेण्यायामोऽपूर्वकरणाद्वानिवृत्तिकरणाऽद्धामूक्ष्म संपरायाद्धोपशान्तकषायगुणस्थान मत्कसंख्येय भागप्रमाणो भवति, तथा चाऽपूर्वकरणान्प्रारब्धा गलितावशेषप्रमाणा गुणश्रेणिः सूक्ष्मसंपराय चरमसमयं यावत्प्रवर्तते, तदानीं च प्रवर्तमानाया गुणश्रेण्या निक्षेप उपशान्तमोह गुणस्थानकसंख्ये यतमाऽऽयामे भवति, तथा पूर्वकरणप्रथमसमये गुणश्रेणिशीर्षमासीत्, तदेव सूक्ष्मसंपरायचरसमयेऽपि भवति, तेनेदं लब्धिसारेऽपि क्षायिक सम्यग्दृष्ट रुत्कृष्टतोऽपि स्थितिखण्ड पल्योपमसंख्यात भागमात्रमे वाऽक्षराणि वेत्रम्" तस्मिन्नवापूर्वकरण प्रथमसमये वर्तमानस्य चारित्रमोह पशमकस्य क्षायिक सम्यग्दृष्टेर्जघन्यमु त्कृष्टं च स्थितिकाण्डक पल्य संख्यात भागमात्र मेव तथाऽपि जघन्यादुत्कष्टं संख्यातगुणितम्, दर्शनमोहनक्षपणकाले विशुद्धिविशेषेण कर्मस्थिते बहुशः वण्डितत्वात्स्थित्यनुसारेण च काण्डकाल्पबहुत्वस्य न्यायत्वात् ܙܕ ★ उदयावलि बहिः प्रथमसमयः दारभ्याऽतिवृत्तिकरणसूक्ष्मसंप रायगुणस्थानककालेभ्य उपशान्तकषायकाल संख्यातैकभागमात्रेणाऽभ्यधिका गुणश्रंणिरपूर्वकरणप्रथमसमये गलिताऽवशेषप्रमाथा प्रारब्धा सा चायुत्र जितसप्तक्रमण मुदयाबलिवाह्यद्रव्य मपकृष्य प्रागुक्तविधानेन निक्षेपस्वरूपा (इति लब्धिसा र २२४) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ३४ १६० ] उपशमनाकरणम् सिद्धं भवति-अपूर्वकरणप्रथमस नये गुणश्रेण्यायामोऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसंपरायाऽद्धाया अग्र उपशान्तकषायसंख्यातभागं यावत्संभवति । अपूर्वकरणप्रथमममयादेव मर्गसामबध्यमानानां प्रकृतीनामशभानां गुणसंक्रमः प्रवर्तते । उक्तं चोपाध्यायप्रवरै. कर्नप्रकृतिटीकायाम्- मन्त्राऽपि स्थितिघातादयः पूर्ववदेव प्रवर्तन्ते । नवरमिह सर्वासामशुभप्रकृनीनामबध्यमानानां गुणसक्रमः प्रवर्तत इति वक्तव्यम्" इति । यद्यपि कषायप्राभूतचूर्णिक रैः साक्षाद् गुणसंक्रमो नोक्तस्तथाऽपि *परिशेषाऽनुमानन्यायेन गुणसंक्रमः संभाव्यते, तथाहि-- अबध्यमानाऽशुभप्रकृतीनामपूर्वकरणगुणस्थानकात्प्रभृति कः संक्रमो वाच्यः । न च विध्यातसङ्क्रमः संभवति, तस्य सप्तमगुणस्थानकपर्यन्तं प्रर्तमानत्वात् । तथैव यथाप्रवृत्त संक्रमोऽपि न प्रवर्तते, बन्धयोग्यप्रकनीनां तस्य भवनात । उद्घलनाऽपि न प्रवर्तते, प्रकृतिविनाशे तस्य सद्भावादिति परिशेषाद् गुणमङ्कमः संभवति । किं च कषायप्राभूतचूर्णी श्रेणितः प्रतिपाताऽधिकारे यथाप्रवृत्त करणे गुण मक्रमस्य विच्छेद उक्तः, तद्यथा 'पढमसमय अधापवत्तकरणे गणसंक्रमो वोच्छिन्नो' इति । तेनाऽऽराहकस्याऽपूर्वकरणे गुणसङ्क्रमः प्रर्वतते स्मेति सिद्धं भवति, अन्यथा विच्छेदस्याऽनुपपत्तेः । विहितस्यैव निषेधः सार्थक इति भावः । अपूर्वकरणगुणस्थानसत्कप्रथम भागस्य प्रान्ते निद्राद्विकस्य बन्धो व्यवनिछद्यते । तत्षष्ठभागान्ते - देवद्विकाञ्चेन्द्रियजातिवक्रि यद्विकाऽऽहारकद्विकतेजसकामणशरीरवर्णचतुष्कसमचतुरस्त्रसंस्थानशुभव गतित्रमानवकाऽऽनशेयोतवर्जितप्रत्येकपटकरूपत्रिंशत्प्रकृतीनां बन्धो विच्छिन्नो भवति । अपूर्वकरणगुणस्थान कस्य सप्तम भागान्तेऽपूर्वकरणगुणस्थानकस्य चरमसमये हास्यरतिभयजुगुप्सालाण चतुःप्रकृतीनां बन्धो हास्यादिषट्कस्य चोदयो व्यवच्छिद्यते । यद्यप्यनुक्रमेण त्रयो बन्धविच्छेदा भवन्ति, तथान्यपूर्वकरणगुणस्थानकस्य सप्त विभागाः क्रियन्ते, तोद कारणं वयं ब्रुमहे-अपूर्व रणगुणस्थानकस्य समाः सप्तविभागाः क्रियन्ते तत्रप्रथम विभागान्ते निद्राद्विकस्य पष्ठविभागान्ते त्रिंशताकृतीनां सप्तमविभागान्ते च चतमृणां प्रकृतीनां बन्धी व्यवच्छिन्नो भवति । उक्तं च कषायप्रभृतची-अपुवकरणपविठ्ठस्स. ★नपुंसक वेदादिप्रकृतीनां गुणसङ्क्रमाऽप्यत्रैव प्रारब्धः। बन्ध्वत्प्रकृतीनां गुणसक्रमो नास्तीति लब्धिसार जपढमे छ8 चरिमेबंधे दुगतीस चदुरा वोच्छिण्णा । छण्णोकसाय उदयो प्रवचरिम'म्ह वोच्छिण्णा । (लब्धिसारगाथा२२५) प्रपूर्वक रणक लस्य सप्तभागेषु प्रथनभागे द्वयोनिद्राप्रचलयोर्बन्धो व्युच्छिन्नः । षष्ठे भागे तीर्थकरत्वादानां त्रिंशत्यकृतीनां बन्धो व्युच्छिन्नः। सप्तमभागचरमसमये हास्यादिचतु:प्रकृतीनां बन्धो व्युच्छिन्न । हास्यादिषण्णां कषायाणामुदयोऽपूर्वकरणचरमसमये व्युच्छिन्नः । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिवृत्तिकरणः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ १६१ जम्हि णिहापयलाओ वोच्छिण्णाओ, सो क लोथोवो परभवियणामाणं वोच्छिण्णकालो संग्वेजगणो अपव्वकरद्वापिसेसाहिआ" । इति । एवं सहस्रः स्थितिघातरपूर्व करणं परिमपापयाते, परिसपाप्य चाऽनिवृत्तिकरणं प्रविशति । अनिवृत्तिकरण इमान्वक्ष्य माणाविशेषान् शणुत । अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमयात्प्रभृति स्थितिघातादयः प्रवर्तन्ते । उक्तं च कषायप्राभृतचौँ “पढमसमयअणियट्टिकरणस्स हिदिरखंडयं पलिदोवमस्स संग्वे. जदिभागो। अपुव्वो हिदिबंधोपलिदोवमस्स संखेज दिभागेण हीणो । अणभागखडयं सेसस्स अणंता भागा । गुणसेढीअसंखगुणणाए सेढीए सेसे सेसे णिग्वेवा । ' इति । तान् स्थितिघातादीन्विशेषान्विस्तरतो वक्तुकाम आदावायुर्वजैसप्तकर्मणां स्थितिसत्त्वं स्थितिबन्धं चाऽऽह यंताकोडाकोडीसंत अनियट्टिणो य उदहीणं । बंधो अंतोकोडी पुवकमा हाणि अप्पबहु ॥३५॥ अन्तः कोटाकोटीसत्तानिइत्तेश्वोदधीनाम् । बन्धोन्तःकोटो पूर्षक्रमासानिरल्पबहत्वम् ।। ३५ ॥इति पदसंस्कारः। अनिवृत्तिकरणस्य प्रथमसमय आयुर्वर्जसप्तकर्मणां स्थितिसत्कर्माऽन्तःसागरोपमकोटाकोटिप्रमागं स्थितिबन्धः पुनरन्तःसागरोपमकोटीप्रमाणो ज्ञातव्यः, कषायप्राभतचूर्णिकारमतेऽपि स्थितिबन्धऽन्तःसागरोपमकोटीप्रमाण एव, अक्षाराणि त्वेवम् “आउगवज्जाणं कम्माणं हिदिसंतकम्ममतोकोडाकोडीए द्विदिषंधो अतोकोडीए सदसहस्सपुधत्तं" इति पञ्च. संग्रह त्वत्र बन्धस्य सत्तायाश्चाऽविशेषेणाऽन्तःकोटाकोटीसागरोपमप्रमाणत्वमेवोक्तम्। तथा च तद् ग्रन्थः "अंतकोडाकोडीपंधं संतं च सत्तण्हं(उपशमना गाथा ५)"इति तथैव मूलटीकायाम् * तथा चोक्तं धवलायामपि "प्रणेण आदीदोप्पहुडि द्विदिखंडपुधत्ते गदे निद्दापयलाणं बंध वोच्छेदो भवति । अपुवकरणद्धं सत्तखडाणि कादूण पढमखंडे वोच्छिण्णा इदि उत्तं होदि। तदो अंतोमुहत्त गदे परभवियाण बधवोच्छेदो पंचसत्तभागे गंतूणे त्ति उत्तं होदि । अपुवकरणद्धाए जम्हिं निद्दापयलायओ वोच्छि. ण्णाम्रो, सो कालो थोवो परभवियाणमाणं वोच्छिन्नकालो पंचगुणो। अपुवकरणद्धा बे सत्त भागाहिया वा तदो अपुवकरणद्धाए चरिमसमये टिदिखंडयमणुभागखडयं दिदिबंधो च समगं निविदा । तम्हि चेव समये हस्सरदिभयदुगंछाणं बंधो विच्छिण्णो हस्सरदिअरदिसोगभयदुगंछाछकम्माणमुदप्रो च तत्थेव वोच्छिण्णो ।" तथैव लब्धिसारेऽपि "अंतकोडाकोडी अतोकोडी च संत बंधं च । सत्तण्हं पयडोणं प्रणियट्टीकरणपढमम्हि ।।(लब्धिसार २२७)" Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ३५-३६ “किन्त्वत्र तृतीये करणे भेदः, अन्तःकोटा कोटीमानं बन्धं सत्कर्म च सप्तानामायुवर्णानां कर्मणां करणादौ भवतीति । " इति । तथैव पञ्चसमहमलयगिरिटीकायामप्युक्तम्- केवलमत्र तृतीयकरणे भेदस्तमेवदर्शयति-3 -अन्तः कोटा कोटी मानं बन्धं सत्कर्म च सप्तानामायुर्वर्ज । नां करणप्रथमसमये करोति ।" इति । अत्र यद्यपि प्रागुक्तेष्वपि करणेष्वेतावान् (अन्तःसागरोपमकोटाकोटियमाणः ) बन्ध एतावच्च सत्कर्म सप्तकर्मणां प्राप्यते स्म तथाऽप्यत्र तदपेक्षया बन्धसत्कर्मणी असंख्येयगुणहीने द्रष्टव्ये इति विशेषः । अनिवृत्तिकरणभाव्यपि बन्धः पूर्वक्रमेण हानिं गच्छति, तद्यथा-अन्तर्मुहूर्ते व्यतिक्रान्ते स्थितिबन्धे पूर्णे सत्यन्यं पल्योपमसंख्येय भागहीनं करोति, तस्मिन्नपि पूर्णे सत्यन्यं स्थितिबन्धं पल्योपमसंख्येय भागहीनं करोतीत्यादि । अल्पबहुत्वमपि बन्धसत्ताऽपकर्षेऽपि पूर्वक्रमेणेव वेदितव्यम् । तद्यथा-बन्ध सत्कर्मणोः स्थित्यपेक्षया सर्वस्तोके नामगोत्रे, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्ये । ततो ज्ञानावरणवेदनीयाऽन्तरायाणि विशेषाऽधिकानि स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि । ततोऽपि मोहनीयं विशेषाऽधिकम् । एतच्चा बहुत्वं सर्वकालमपि द्रष्टव्यं यावदेतत्स्थानमिति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ- "अप्पबहुत्ति पुव्वकम्मेणेव अप्पा बहुग पि सव्वधोवाणि नामगोयाणि नाणावरणदंसणावरणवेय fuxअंतराइयाणि चत्तारि वि तुल्झाणि विसेसाहिगाणि चरित्तमोहणिज्जं विसे. साहियं । सव्वकालं जाव एयंठाणं ताव एवं अप्पाबहुगं" इति । स्थितिखण्डस्य विशेषं प्रदर्शयितुकाम आह टिइकंड मुक्कस्सं पि तस्स पलस्स संखतमभागो । टिबंध बहुसहस्से सेक कं जं भणिस्सामो ॥३६॥ स्थितिखण्डमुत्कृष्टमपि तस्य पत्यस्य संख्येधतम भागः । स्थितिबन्धबहुसहस्रष्वेकैकं यद्मष्यामि ||३६|| इति पदसंस्कार: उत्कृष्ट स्थितिखण्डं घात्यमानं तस्य = अनिवृत्तिकरणे प्रविष्टस्य चारित्रमोहोपशमकस्य पत्योपमसंख्येयभागमत्रमेव भवति, नाऽधिकम् जघन्यमपि तावदेव, केवलमुत्कृष्टपल्योपमसंख्य ये तमभागप्रमाणस्थितिखण्डतो जघन्यमिदं स्थितिखण्डं लघुतरं ज्ञातव्यम् । तत्राऽयं विशेषः - सप्तकर्मण स्थितिखण्डस्य पल्योपमसंख्येयतममागमात्रत्वेऽपि नामगोत्रयोः स्थितिखण्डं सर्वस्तोकम्, ततो ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयाऽन्तरायाणां विशेषाऽधिकम् ततोऽपि मोहनीयस्य विशेषाऽधिकम् । उक्तं च पञ्चसंग्रह उपशमनाऽधिकारे मूलटीकायाम् - " यद्यपि सप्तानामपि कर्मणां Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वः स्थितेर्बन्धो घातश्च ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ १६३ पल्योपमसंख्येयभागोऽहितो घातः।तथाऽपि नामगोत्रयोःस्तोको हीनस्थितत्वात्, ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां विशेषाऽधिको मोहनीयस्य तस्मादपि विशेषाऽधिक इति गाथार्थः ।" इति अनिवृत्तिकरणप्रथमसमय एव देशोपशमनानित्तिनिका चनाकरणानि व्यवच्छेदमायान्ति । किमुक्तं भवति ? उच्यते-अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये किमपि दलिकं कस्यचिदपि कर्मणो देशोपशमितं वा निधत्तं वा निकाचितं वा सत्तायां न तिष्ठति, तथा चाऽतः प्रभृति कस्मिन्नपि कर्मणि देशोपशमनानिद्धत्तिनिकाचनाकरणानि न प्रवर्तन्ते । एवं संख्यातसहनेषु स्थितिघातेषु स्थितिबन्धः पहस्रपृथक्त्वसागरोपमप्रमाणो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूौं--"ततो द्वितिकंडगसहस्सेसु गएसु बज्झमाणहितिबंधो सागरोपमसहस्सपुहुत्तं भवति" इति । अततोऽनिवृत्तिकरणस्य संख्ये येषु भागेषु गतेषु सत्स्वेकस्मिंश्च संख्येयतमे भागेऽवशिष्टमाने सति स्थितिबन्धोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियबन्धतुल्यो भवति, इदमुक्तं भवति-नामगोत्रयोः सागरोपमस्य द्विसहस्रसप्तमभागप्रमाणो स्थितिबन्धो भवति, ज्ञानदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां सागरोपमत्रिसहस्रसप्तभागप्रमाणो मोहनीयस्य च सागरोपमचतुःसहस्रसप्तभागप्रमितः । तदनन्तरं स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सति चतुरिन्द्रियवन्धतुल्यः स्थितिबन्धो भवति, पृथक्त्वशब्दस्य बहुत्ववाचित्वेन संख्यातसहस्रषु स्थितिखण्डेषु गतेष्विति व्याख्येयम्, इदमुक्तं भवति-स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सति चतुरिन्द्रियवन्धतुल्यास्थितिवन्धो भवति, असंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्थितिबन्धतुल्यबन्धभवनानन्तरं संख्यातसहस्रशु स्थितिखण्डेषु ब्रजितेषु सत्सु नामगोत्रयोःसागरोपमशतद्विसप्तभागमात्रः, ज्ञानदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां सागरोपमशतत्रिसप्तभागप्रमाणो मोहनीयस्य च मागरोपमशतचतुःसप्तभागमितः स्थितिबन्धो भवति । ततो भूयः स्थितिखण्डपृथक्त्वे गते सति त्रीन्द्रियबधन्तुल्यः स्थितिबन्धो भवति । इदमुक्तं भवति-चतुरिन्द्रियस्थितिवन्धतुल्यबन्धात्संख्यातसहस्रषु स्थितिखण्डेषु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु नामगोत्रयोः पञ्चाशत्सागरोपमद्विसप्त मागप्रमितः,ज्ञानदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां पञ्चाशत्सागरोपमत्रिसप्तभागमात्रश्चारित्रमोहनीयस्य च पञ्चाशत्सागरोपमचतुःसप्तभागप्रमाणः स्थितिबन्धो +-तथैवोक्तं लब्धिसारेऽपि-दिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा बादरे गदा भागा तत्थ असण्णिजस्स दिदिसरिसदिदिबंधणं होदि । (लब्धिसार गाथा २२८) तट्टीका-अनिवृत्तिकरणप्रथमसयादारभ्याऽन्तमुहूर्त प्रति पल्यसंख्यातभागमात्रस्थितिबन्धाऽपसरणक्रमेण संख्यातसहस्रस्थितिबन्धेषु तत्करणकालस्य संख्यातबहभागा यदा गच्छन्ति तदाऽसंज्ञिस्थितिबन्धसदृशस्थितिबन्धो भवति । सहस्रसागरोपमप्रतिभागेननामगोत्रयोद्विसप्तमभागप्रमितः । ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायसातवेदनोयानां स्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रत्रिसप्तमभागप्रमितः, चारित्रमोहस्थ स्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रचतुःसप्तभागप्रमितो भवतीत्यथः। एवं विशतिकत्रिंशत्कचत्वारिंशत्ककर्मणां प्रतिभागक्रम उत्तरत्रापि ज्ञातव्यः। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] उपशमनाकरणम् [ गाथा-३६-३६ भवति, ततः पुनः स्थितिबण्डपृथक् गते मति द्वन्द्रियबन्धतुल्यः स्थितिबन्धो भवति । अयं भावः-त्रीन्द्रियस्थितिवन्धतुल्यबन्धात्संख्यातसहस्रपु स्थितिखण्डेष्वतीतेषु नामगोत्रयोः पञ्चविंशति पागरोपमद्विसप्तमागमात्रः, ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणां पञ्चविंशतिसागरोपमत्रिसप्तमागमितो मोहनीयस्य च पञ्चविंशतिसागरोपमचतुःसप्तभागप्रमाणः स्थितबन्धो भवति । ततः स्थितिखण्डपृथक्त्वे गत एकेन्द्रियस्थितिबन्धतुल्यः स्थितिबन्धो भवति । इदमुक्तं भवति-द्वीन्द्रियवन्धतुल्यबन्धभवनतः संख्यातसहस्रषु स्थितिखण्डेष्वतिक्रान्तेषु सत्स्वेकेन्द्रियवन्धतुल्यस्थितिबन्धो भवति, तद्यथा-नामगोत्रयोःसागरोप पद्विसप्त भागप्रमाणाः । ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणां सागरोपमत्रिसप्तभागमात्रो मोहनीयस्य च सागरोपम चतुःसप्तम गमितः स्थितिबन्धो भवति । इत ऊध्वं स्थितिबन्धसहस्रषु गतेषु सत्स्वायुवर्जानां सप्तानां कर्मणामेकैकं यद्वक्तव्य भवति, तद्भणिष्यामः । अथ प्रतिज्ञा निर्वोढुकाम आह-- पल्लदिवड्डविपल्लाणि जाव पल्लस्सं संखगुणहाणी। मोहस्स जाव पल्ल संखेजइ भागहाऽमोहा ॥३७॥ तो नवरमसंखगुणा एकपहारेण तीसगाणामहो । मोहे वीमगहेट्ठा य तीसगाणुप्षि तइयं च ॥३८॥ तो तीमगाणमुप्पिं च वीमगाई असंखगुणणाए । तइयं च वीसगाहिय विसेसमहिंय कमेणेति ॥३|| पल्यद्वयर्धद्विपल्यानि यावत्पल्यस्य संख्येय गुण हान्या ।। मोहस्य यावत्पल्यं संख्येयतमभागहा अमोहयोः ॥३७॥ ततो नवरमसंख्येय गुणहीनमेकप्रकारेण त्रिशत्कानामध, । मोहस्य विंशतिकयोरधस्ताच्च त्रिशतिकानामुपरि तृतीयं च ॥३८ ।। तस्त्रिंशत्त्कानामुपरि च वितिकान्यसंख्येय गुणनया । तृतीयं च विंशातिकाभ्यां च विशेषाधिकं क्रमेणैति । ३६ ।। इति ५ दसंस्कार: पल्योमसार्धपल्योपमद्विपल्यानि यावत्पूर्व क्रमेणेव हानिरल्पबहुत्वं च । इदमत्र कहदयम्--- एकेन्द्रिय स्थितिवन्धतुल्यबन्धाऽनन्तरं स्थितिखण्ड सहस्रषु स्थितिबन्धमहस्रेषु वा गतेषु नाम: गोत्र यो स्थितिबन्धः पल्पोरम मात्रः, ज्ञानदर्शनावरण वेदनीयाऽन्तरायाणां सार्धपल्योपमप्रमाणो टिप्पणो० उक्त च लब्धिमारेऽपि-दिदिबंध पुधत्त गदे पत्तेयचदु। तिय वि एएदि । दिदिबंधसमं होदि हु टिदिबंधमरण कमेणेव । (लब्धिसारगाथा२२९)एइंदियट्टिदोदो संखसहस्से गदे दु दिदिबंधो पल्लेक्कदिवदृदुगेदिदिबंधो विसियतियाण । (लब्धिसारगाथा २३० ) Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वस्थितिबन्धः ] चारित्रमोहनोयोपशमनाधिकारः [ १६५ मोहनी यस्य च द्विपन्योपममितो भवति । पल्योपमपापल्योपमादिस्थितिबन्धं यावत्प्राक्तनस्थितिवन्तः सर्वोऽपि पूर्वस्मात्पूर्वम्मात्पल्योपमसंख्येयतमेन भागेन हीनो हीनतरो ज्ञातव्यः । आयुर्व नानां सप्तानां कर्मणां स्थिति मकांडनासागरोपनकोटाकोटीप्रमाण मेव भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिौँ – “सव्वेसिं संताणि जहक्कमहोणाणी अतोकोडाकोडीए" इति । स्थितिमत्कर्मणश्चाऽल्पबहुत्व तथैव तेन नामगोत्रयोः स्थितिसत्वं स्तोकम्, ततो ज्ञानदर्शनावरणवे. दनीयाsनरायाणां विशेषाधिकार ! सतो मोहनीयस्य च विशेषाधिकम् उक्तं च पञ्चसंग्रहमूलटोकायाम् - "सत्कर्मणि चाऽल्पबहुत्वं बन्धक्रमेण वक्तव्यम् । यद्यप्यन्तःकोटाकोटिः सप्तानामपि तथाऽपि नामगोत्रयोः स्तोक वेदनीयघातिकर्मणां विशेषाऽधिक मोहनीयस्यविशेषाऽधिकम् । ___पल्यस्ये" ति षष्टी पञ्चम्यर्थे, अध इति चाऽध्याइर्तव्यम् । ततः पल्योपमादधः स्थितिबन्धस्य संख्येय गुणहानिर्भवतीत्यर्थः । इदमुक्तं भवति-यस्य कर्मणो यस्मिन्काले पल्योपाप्रमाणस्थितिबन्धो जातः, तम्य कर्मणस्तकालात्प्रभृत्पन्योऽन्यः स्थितिबन्धो जायमानः संख्येयगुणहीनो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी -"जस जस्स पलिओवमसमगो हितिबंधो होमि तप्पभिति तस्स तम्स संवेज्जगुणहाणीए ओसरति ।" इति । ततश्चेदानीं नाममात्रयोः स्थिनिबन्धात्पल्योपमप्रमाणस्थितिबन्धं मंख्येय गुणहीनं करोति, शेषाणां तु कर्मणां पल्पोपमसंख्येयमागहीनं करोति, उक्तं च कषायाभृतचूर्गों-'णामगोदाण पलिदोवमढिदिगादो बंधादो अण्णं जं हिदिबंध बंधहिदि सो हिदि. बंधो संग्वेज्जगुगहोणो । सेसाणं कम्माणं विदिधंधो पलिदोवमस्स संग्वेज्जदिभागहोणो "इति । एवं क्रमेण कतिपणेषु स्थितिबन्धमहस्रेषु गते ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयाऽन्तरायाणां पस्योपममात्रः स्थितिबन्धो भवति. नामगोत्रयोश्च पल्योपमसंग्व्येयतमभागप्रमाणो मोहनीयस्य च साधपल्योपममानो भवति, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-“एवं संखेज्जेसु हितिबंधसहस्सेसु गएसु नाणावरणदसणावरणवेयणीयअंतराईयाणं पलिओवम हितिबंधो मोहणिज्ज स दिवड्डपलिओवमहितिबंधो" इति । कषायप्राभत वूगौ त्यत्र मोहनीयस्य एल्योपमत्रिभागेनाऽधिकः पन्योपमप्रमाणः स्थितिबन्धो भवती + उक्तं च लब्धिसारे ....अन्तःकोटाकोटीमात्रस्थितिबन्धात्प्रभृति पल्योत्पत्तिपर्यन्तं पल्यसंख्यातकभागमात्रं स्थितिबन्धाऽपसरणं भवति । पल्पमात्रस्थितिबन्धात्प्रभृति पल्यसंख्यातबहुमागमात्र. स्थिति बन्धाऽपसरणं भवति । पल्यस्थिते रनन्तरं दूरापकृष्टिस्थितिपर्यन्तं संख्यातगुणहोना पल्यसंख्यातकभागमात्री स्थिति बध्नातीत्यर्थः । (लब्धि सार० २३१ टीका) Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] उपशमनाकरण [ गाथा ३७-३९ त्युक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थः-मोहणीयस्स तिभागुप्तरं पलिदोवमट्ठिदिगो बंधो।"इते। अतः प्रभृति नामगोत्रवज्ज्ञानावरगदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणामन्योऽन्यः स्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति, ज्ञानावरणादीनां पल्योपममात्रस्थितिबन्धस्य प्राप्तत्वात, मोहनीयस्य तु संख्यातमागहीनो भवति । तत ऊ स्थितिबन्धसहस्र पु गतेषु सत्सु मोहनीयस्य पल्योपममात्रस्थितिबन्धो भवति, तदानीं च शेषाणां षट्कर्मणां स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागमात्रो भवति । तत्राऽल्पबहुत्वं चेत्थम् (१) नामगोत्रयोः साऽल्प: स्थितिबन्धः स्वस्थाने तु मिथस्तु. ल्यः । (२) ततोऽपि ज्ञानदर्शनावरण वेदनीयान्तरायणां संख्यातगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः (३) ततो मोहनीयस्य संख्येयगुणः ।। "मोहस्स जाव पल्लं संखेज्जभागहा" ति, यावत् 'मोहस्य' मोहनीयस्य 'पन्यं' पत्योपममात्रः स्थितिबन्धो न भवति, तावत्प्राक्तनसर्वोऽपि मोहनीयस्य स्थितिबन्धः "संखेन्जइभागहा" इति पल्योपमस्य संख्येयतमेन भागेन हीनो हीनतरो वेदितव्यः । पल्योपममात्रे च स्थितिबन्धे जाते सत्यन्यं स्थितिबन्धं संख्ये यगुणहीनं करोति, एतच्च मावितमेव । अस्माच्च संख्येय गुणहीनान्मोहनीयस्य स्थितिबन्धात्प्रभृतेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्सु मोहनीयस्याऽपि स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयभागमात्रो भवति । इदमुक्तं भवति-संख्येयगुणहीनान्मोहनीयाय स्थितिबन्धात्प्रभूनेषु स्थितिबन्ध महस्र पु वा स्थितिघातसहस्रषु वा गतेषु सत्सु सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धः पल्योपमसंख्येयतमभागमात्रो भवति, तथाऽपि स्थितिबन्धस्याऽल्पबहुत्वं पूर्ववदेव वक्तव्यम् । तद्यथा (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः सर्वाऽल्पः, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः (२) ततो ज्ञानदर्शनावरगवेदनीयाऽन्तरायाणां संख्यातगुणः, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्य (३) ततोऽपि मोहनीयस्य संख्यातगुणो भवति । तदानीं च यद्भवति तदाह-"अमोहो तो नवरम संखगुण" इत्यादि, 'तो'' ति, ततः सर्वेषां कर्मणां पल्योपमसंख्येयभागमात्रस्थितिबन्धभवनाऽनन्तरं संख्येयेषु स्थितिबन्धसहस्रं षु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु "अमोहे" इति द्विव ननतात्पोन्मोहनीयवर्जे नामगोत्रे गृह्यते नवरं केवल. मन्यं स्थितिबन्धमधिकृत्याऽख्येयगुणहीने भवतः, इदमुक्तं भवति-सर्वेषां कर्मणां पल्योपमसंख्येयभागप्रमाणस्थितिबन्धभवनाऽनन्तरं संख्येयेषु स्थिनिबन्धसहस्त्रे ष्वतिक्रान्तेषु सत्सु नामटिप्पणी० ॥ लब्धिसारेऽप्येवम्-वीसीयतीसोयमोहानां पल्यद्वयर्द्धपल्यद्वयमात्रस्थितिबन्धभ्यः पर संख्यातसहस्रषु नाम गोत्रयो; पल्यसंख्यातबहभागमात्रेष तिसियमोहयोः पत्योपमसंख्यातक भागमात्रषच स्थितिबन्धाऽपसरणेषु गतेषु वीमियादीनां ययासंख्यं पल्यसंख्यातकभागमात्रपल्यमात्र त्रिभागाधिकमात्राः स्थितिबन्धाः एकस्मिन्काले जायते, तत: संख्यातसहस्रषू वीसितिसिययोः पल्यसंख्यातबहुभागमात्रेप मोहस्य पल्यसंख्यातेक भागमात्रेषु च स्थितिबन्धाऽपसरणेषु गतेषु वीसियादीनां यथासंख्यं पल्यसंख्यातक. . Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वस्थितिबन्धः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ १६७ गोत्रयोरन्यं स्थितिबन्धमसंख्येयगुणहीनमारभते, पश्चानां कर्मणां तु पूर्ववत्संख्येयगुणहीनम् । अतःप्रभृति नामगोत्रयोः पल्योपमाऽसंख्येयतमभागप्रमाणः स्थितिबन्धः प्रवर्तते, स च पूर्वपूर्व तोगुणहीनो भवति शेषकर्मणां तु पल्योपम संख्ये यतम भागप्रमाणो भवति, स चोत्तरोत्तरः संख्येयगुणहीनो भवति । अत्र स्थितिबन्धमाश्रित्याऽल्पबहुत्वं विचार्यते - ( १ ) नामगोत्रयोः सर्व स्तोकः स्थितिबन्धः । ( २ ) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयाऽन्तरयाणामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । (३) ततोऽपि मोहनीयस्य संख्यातगुणो भवति । तत उक्तक्रमेण स्थितिबन्धसहस्रेषु वा गतेषु सत्सु ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयाऽन्तरायाणां स्थितिबन्धोऽसंयेयगुणहीनो भवति । अयं भावः - नामगोत्रयोः पन्याऽसंख्येय भागप्रमाणस्थितिबन्धभवात् सहस्रेषु स्थिनिबन्धेषु गतेषु ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तरायाणां स्थितिधोऽसंख्य गुणहीनो भवति पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रो भवतीत्यर्थः । एवं नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः पन्योपमाऽसंख्येयभागमात्रो भवति, मोहनीयस्य तु पल्योपमसंख्येयतमभागप्रमाणो भवति । तदानीं स्थितिबन्धमधिकृत्याऽल्पबहुत्त्वं निगद्यते - (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः सर्वाल्पः, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः (२) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणाम संख्यातगुणः, स्वस्थाने तु मिथस्समानः । (३) ततोऽपि मोहनीयस्याऽसंख्यातगुणः । ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु जितेषु सत्सु " एक पहारेण तीसगाणमहो मोहे" त्ति, एकप्रहारेणैकहेलयैव त्रिंशत्कानां त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटीस्थितिकानां ज्ञानावरणदर्शनावरण वेदनीयाऽन्तरायाणामधस्तान्मोहनीये कर्मेगि स्थितिबन्धमधिकृत्या संख्येयगुणहीनो भवति । नात्र कश्चिदन्यो विकल्पः करणीयः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ- "ततो द्वितिबंध सहस्सेसु बहुसु गएसु 'एक्कष्पहारेण तीस गाणमहो मोहे' ति एक्कप्पहारेण चैव त्ति एक हेल्लाए 'तो सगाणं'ति नाणावरणदंसणावरणवेपणियां न राईयाणि एएसि द्वितीतो मोहणिजस्स द्विती असंखेज्जगुणहीणा नथ अन्नोविकप्पो । "इति । पूर्वं हि मोहनीयस्य स्थितिबन्धो ज्ञानावरणीयदीनां स्थितिवन्तोऽसंख्येयगुणो भवति स्म । संप्रति पुनरेकहेलयैव ज्ञानावरणीयादीनां स्थितिबन्धतोऽपि भागमात्रः पल्यमात्रः स्थितिबन्धो जायते । वोसियस्थितिबन्धात्तिसियस्थितिबन्धः संख्ये यगुण इति विशेषो ज्ञेयः । (लब्धिसारटीका २३२ ) नामगोत्रयोर्ट्स रापकृष्टिस्थितो जातायां स्थितिबंधाऽपसरणमसंख्यात बहुभागप्रमाणं भवति । एवमसंख्या बहुभागप्रमाणं स्थितिबन्धाऽपसरणं तावद्वक्तव्यं यावदसं ख्यातवर्ष प्रमाणः स्थितिबन्धो भवति । लब्धिसाराऽक्षराणि त्वेवम् दूरापकृष्टस्थिते: प्रभृति संख्यातवर्षसहस्रमात्रस्थितिबन्धोत्पत्तिपर्यन्तं पल्याऽसंख्यात बहुभागमात्रं स्थितिबन्धाऽपसरणं भवति । दूरापकृष्टरेनन्तरसंख्यातसहस्रमात्रस्थितिबन्ध पर्यन्तमसंख्यातगुणहीनां पल्या संख्यातैकभागमात्रस्थिति बध्नातीत्यर्थः । (लब्धिसार गाघाटीका २३१) Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम १६८ ] मोहनीयस्य स्थितिबन्धेनाऽसंख्ये यगुणहीनेन भवितव्यम् । अथ स्थितिबन्ध अधिकृत्याऽल्पबहुत्वं चिन्त्यते - (१) नामगोत्रयोः सर्वाऽल्पः स्थितिबन्धः, स्वस्थाने तु मिथस्समानः (२) ततो मोहनीयस्यासंख्येयगुणः (३) ततोऽपि ज्ञानावरणीयदर्शन:वरणीय वेदनीयाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः, स्वस्थाने तु परस्परं समानः ततः परमुकाल्पबहुत्वक्रमेण सहस्रपुव्यतिक्रान्तेषु सत्सु 'वोसग हेडाये' त्ति, मोहनीयस्य स्थितिबन्ध एकहेलयैव विंशतिकयोविंशतिसागरोपम कोटाकोटीस्थितिक पोर्नामगोत्रयोरधस्तादसंख्येयगुणहीनो जातः, किमुक्तं भवतिपूर्वं हि मोहनीयस्य स्थितिबन्धो नामगोत्र योः स्थितिबन्धतोऽसंख्येयगुण आसीत्, संप्रति पुनरेकयैवेत्थं स्थितबन्धोऽसंख्येपगुणहीनो भवति, येन मोहनीयस्य स्थितिबन्धो नामगोत्रयोःस्थितिबन्धतोऽसंख्येयगुणहीनो भवेत् । तदानीमल्पबहुत्वं स्थितिबन्धमाश्रित्य विचार्यते (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्सर्व स्तोकः ( २ ) ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः । (३) ततोऽपि ज्ञानावरण दर्शनावरणवेदनीयऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः स्वस्थाने मिथम्समानः । ततः महस्रेषु स्थितिबन्धेषु व्यतीतेषु सत्सु " तो सगाणमुप्पि तइयं च" त्ति, स्थितिबन्धमधिकृत्य 'त्रिंशत्कान' त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटीस्थितिकानां ज्ञानावरण दर्शनावरणाऽन्तरायाणामुपरि तृतीयं वेदनीयं भवति । किमुक्तं भवति १ प्राग् हि ज्ञानावरणादीनां चतुर्णा स्थितिबन्धो मिथस्तुल्य आसीत्, मंप्रति तु ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणामपि मध्ये ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां स्थितिबन्धो वेदनीयस्याऽधस्तादसंख्येय गुणहीनो जातः, वेदनीयस्य तु सर्वोपरि जातः । वेदनीयस्य सर्वेभ्योऽसंख्येयगुणः स्थितिबन्धो भवतीत्यर्थः । अत्र स्थितिबन्धमाश्रित्याऽल्पबहुत्वमभिधीयते - (१) सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धः । (२) ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः (३) ततोऽपि ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्पः समानः । ( ४ ) ततोऽपि वेदनीयस्याऽसंख्येयगुणः । ततोऽनेन विधिना स्थितिबन्धसहस्रं ष्वतीतेषु सत्सु त्रिंशत्कानां ज्ञानावरणदर्शनावरणातरायणां स्थितिबन्धो विशतिकयोर्नामगोत्रयोः स्थितिबन्धादधस्तनोऽरं ख्येयगुणहीनो भवति । अयं भावः - प्राहि नामगोत्रयोः स्थितिबन्धतो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामसंख्येय गुणः निबन्ध आसीत् संप्रति ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां स्थितिबन्धो नामगोत्रयोः स्थितिबन्धतोऽसंख्येयगुणहीनो भवति तथा नामगोत्रयोः स्थितिबन्धतो ★ वेदनीयस्य केवलं विशेsiधको द्रष्टव्यः । [ गाथा ३७-३९ ★ टिप्पणी० उक्तं च लब्धिसारे.... तेत्तियमेत्तेबधे समोये वीसीयाऐ हेद्वादु, तौसियघादितियाओ गुणहीणनया होंति (लब्धिसार ३३६) तक्काले वेयणीयं गोयादुसाहिय होदि इयि मोहतीस वीसयदेर्याणआरणं कमो जादो (लब्धिसार० २३७ ) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 彝 अल्पबहुत्वम् ] चारित्र मोहनोयोपशमनाधिकारः [ १६६ अत्राऽल्पबहुत्वमुच्यते - (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वाऽल्पः । (२) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाण।मसंख्येयगुणः, स्वस्थाने तु मिथस्तुन्यः । (३) ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येगुणः, स्वस्थाने तु परस्परं समानः । ( ४ ) ततो वेदनीयस्य विशेषाऽधिकः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी - " ततो नाणावरणदंसणावरणअं तराइयाणं बंधहितीओ उवरिं नामगो इति जाया । एत्थ द्वितीणं अप्पाबहुगं- सव्वत्थोचा मोह णिज्जडिति, नाणावरणदंसणावरणअतराइयाण ति वि द्वितीतो तुल्लाओ असंखेज्जगुणातो, नामगोया दोन्हं वि डीतितो असखेज्जगुणातो वेयणिज्जहिती विसेसाहिया ।" इति । अत्र पञ्चसङ्ग्रहटीकायां नामगोत्रयोः स्थितिबन्धतो वेदनीयस्य स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुण उक्तः तथा च तद्ग्रन्थः- “ततः स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेषु सत्सु विंशतिकयोर्नामगोत्र योरसंख्येयभागे घातीनि ज्ञानावरणीयादीनि त्रीणि बध्यन्ते । नामगोत्राऽपेक्षया ज्ञानावरणीयादोनां स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणहीनो भवतीत्यर्थः । अत्राऽल्पबहुस्वम्- (१) सर्वस्तोको मोहनीयस्य स्थितिबन्धः । (२) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । (३) ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । (४) ततोऽपि वेदनोयस्याऽसंख्येयगुणः ।" इति । "असंखगुणणाए "त्ति, यत्र मोहनीयं ज्ञानावरणादिभ्यो ऽसंख्येयगुणहीनं कृतम्, ततः परं सर्वत्राऽपि ज्ञानावरणादिभ्योऽसंख्येय गुणहीनमेव क्रमेण "एति " = आगच्छति । एतत्सर्व प्राग्भावितम् । तथा तृतीयं वेदनीयं विंशतिकाभ्यां नामगोत्राभ्यां विशेषाऽधिकं जातं सत्सर्वत्राsपि विशेषाऽधिकमेवैत्यनुवर्तते, किमुक्तं भवति १ नामगोत्रसत्कस्थितिबन्धतो वेदनीय स्थितिबन्धस्य विशेषाऽधिकभवनाऽनन्तरं मोहनीयस्य स्थितिबन्धोऽल्पः, ततोऽसंख्येयगुणो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणाम्, ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः, ततो वेदनीयस्य विशेषाऽधिकः, इत्थं स्थितिबन्धस्य क्रमोऽग्रेऽपि वक्तव्यः । नामगोत्रयोः स्थितिबन्धतो वेदनीयस्य स्थितिबन्धे विशेषाऽधिके जाते सत्यपि सप्तानां कर्मणां स्थिति सत्कर्मीऽन्तःसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणं विद्यते । उक्तं चकर्मप्रकृतिचूर्णौ- "तंमि समए एतेसिं पुव्वं संतं अंतोकोडाकोडीए जहन्नमहीय त्ति" । अत्र स्थितिसत्कर्मणोऽल्पबहुत्वं नोक्तम्, तथाऽपि पूर्ववत्संभाव्यते, इदमुक्तं भवति ( १ ) नामगोत्रयोः स्थितिमच्वं सर्व॑स्तोकम्, (२) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणां विशेषाऽधिकम्, (३) ततोऽपि मोहनीयस्य विशेषाऽधिकम् । स्थितिसत्त्वस्येदमन्पबहुत्वं कषायप्राभृतचूर्णौ चारित्रमोहनीयक्षपणाऽधिकारगतसत्त्वेन संभाव्यते, कथमेतत्संभवतीति चेद् ? उच्यते- क्षपकश्रेण्यधि:: कारे स्थितिबन्धमाश्रित्योपयुक्तचरमाऽल्पबहुत्वाऽधिगमनतः स्थितिघातसहस्रेषु गतेष्वसंज्ञिबन्ध - Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् [ गाथा ४१:४१ तुल्यं स्थितिसत्त्वं भवति, तथाऽसंज्ञिवन्धतुल्पस्थितिसत्वभवनादर्वाक् स्थितिसत्त्वमवलम्ब्याऽल्पबहुत्वं पूर्ववज्ज्ञातव्यम्, इत्युक्तम् । नामगोत्रयोः सर्वाऽम्पस्थितिसत्वं ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयाऽन्तरायाणां विशेषाऽधिकं ततोऽपि मोहनीयस्य विशेषाऽधिकं वर्तत इन्युक्तमिति भावार्थः । इत्थं झपकश्रेण्यधिकार उपयुक्तचरमस्थितिबन्धाऽल्पबहुत्वतः सहस्रस्थितिघातान्यावदुपयुक्तस्थितिसत्वाऽल्पबहुत्वं वर्तते तस्य पशमश्रेण्यां स्थितिबन्धमाश्रित्योपयुक्त. चरमाइल्पबहुत्वे प्राप्ते स्थितिसत्वाऽल्पबहुत्वं नामगोत्रयोः सर्वाऽल्पमित्यादि सुतरां भवे दति वयं ब्रूमः !, पञ्चसङ्ग्रहे पल्योपमप्रमाणस्थितिबन्धभवनास्थितिमत्वाऽल्पबहुत्वं सर्वस्थानेषु स्थितिबन्धाऽल्पबहुत्ववत्प्रोक्तम् । तच्च कर्मप्रकृतिकषायप्राभृतचूर्णितो मतान्तरं प्रतिभाति । यतः कर्मप्रकृतिचूणौँ स्थितिबन्धमेवाऽऽश्रित्याऽल्पबहुन्वं विहितं तथैव कषायप्राभृतचूर्णावपि । स्थितिसत्कर्माऽनुलक्ष्य कर्मपनौ-"तम्मि समए एसिं पुवसंतं अंतकोडाकोडीए जहन्नमहिणत्ति" केवलमेतदेव निर्दिष्टम्, न किश्चिदधिकम् । यद्यपि कर्मप्रकृतिटीकायां टीकाकारमहर्षिभिः स्थितिसत्वाऽन्पबहुत्वं बन्धवद् विहितं तदपि पश्चसङ्ग्रह मतानुसारेण तैरमिहितमिति संभावयामहे । संप्रत्यसंख्येयसमयप्रबद्धानामुदीरणां बन्धे च दानान्तगयादीनां देशघातिरसमाविश्चिकीषु राह अहुदीरणा असंखेजसमयबद्धाण देसघाइत्थ । दाणंतरायमणपज्जवं चतो : श्रोहिदुगलाभो ॥४०॥ सुयभोगाचक्खूयो चक्खू य ततो मइसपरिभोगा। विरियं न असे दिगया बधंति उ सव्वघाईणि ॥४१॥ अथोदीरणाऽसंख्येयसमयबद्धानां देशघात्यत्र । दानान्त रायं मनःपर्यव च ततोऽधिद्विकलाभौ ॥४०॥ श्रतभोगाचक्ष षि चक्षश्च ततो मतिः सपरिभोगः। वीयं चाश्रेणिगता बध्नन्ति तु सर्वधातिनि ॥४१॥ इति पदसस्कारः अथशब्दोऽधिकागऽन्तरसूचकः किमिदमधिकारान्तमिति चेद् ? उच्यते-असंख्येयसमयप्र. बद्धानामुदीरगा, पूर्वोक्तचग्माल्पबहत्वतः सहस्र पु स्थितिघातेषु गतेषु कषायप्राभृतचूर्णा असंख्ये. यसमयप्रबद्धानां कर्मणामुदीरणा प्रोक्ता । * तथा च तद्ग्रन्थः-' एदेण अप्पाबहुअवि. *टिप्पणी जयषवादिग्रन्थेष्वपीत्थमेव । तथा चाऽत्र ज्यधवला-एदेण अप्पाबहुगेण संखेज्जाणि द्विदिबंधसहस्साणि कादूण उवरि गच्छमाणस्स बज्झमारण पय डीणं दिदिबंधो पलिदोवमस्स प्रसंखज्जदि. भागो चेव तदो प्रसंखेज्जाणं समयपबद्धारणामुदीरणा च जादा' (पृ० नं० २६६ पु० नं-६) Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकार: हिणा संखेज्जाणि हिदिबंधसहस्साणि कादूण जाणि पुण कम्माणि बझंति ताणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तदो असंखेज्जाणं समयपषडाणमुदीरणाच ।" इति । यदा पल्योपमाऽसंख्येयभागमात्रः स्थितिबन्धो भवति, तदाऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा भवतीति कर्मप्रकृतिचूरें पञ्चसङ्ग्रहे चापि निर्दिष्टम्, तथा चाऽत्र कर्मप्रकृतिचूर्णिः "जम्मिकाले एरिसो द्वितिघंधो तंमि काले केवतिकालहितीगो उदीरणा एइ तं निरूवणत्पं भण्णति । अह उदीरणा असंखेज्जसमयबडाणं कम्माणं उदीरणा । कहं भण्णाजाहे पलिओवमस्स असंखेज्जतिभागं ठितिं बंधन्ति तम्मि काले जातो कम्महि. तीओ बज्झमाणहितीओ समयादिहीणातो तातो हितितो उदीरणं एन्ति, उपरिमाओ न इंति उदीरणं " तथा च पश्वसङ्ग्रहे "वीसग असंखभागो मोहं पच्छाउ घाइ तइयस्स। वीसाण तओ घाई असंखभागम्मि बज्झंति ॥१७॥ असंखसमयबद्धाणमुदीरणा होइ तम्मि कालम्मि ।" इति । नहोका- 'यस्मिन्काले पल्पोपम संख्येयभागमानं स्थितिषन्धं बध्नाति तस्मिन्काले या बध्यमाना स्थितयाताभ्यो याः समयादिहीना असख्येयसमयनिपतितास्तासामुदोरणा भवति " ननु किं नामाऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा इति चेद् ? उच्यते- यावन्त्यः स्थितयो वध्यन्ते. तदपेक्षया याः पूर्वबद्धाः सत्तागताः समयादिहीनाः स्थितयः, ता एवोदीरणामुपगछन्ति, नाऽन्याः, कर्म प्रकृतिचूादिषुः तथैवोक्तत्वात् । ' "देसघाइत्थ" इत्यादि, असंख्येयसमय उदीरणाप्रारम्भाऽनन्तरं सहस्रषु स्थितिघातेषु व्यतीतेषु सत्सु 'अत्र" अस्मिन्प्रस्तावे दानान्तरायं मनःपर्यवज्ञानावरणं च, देशघाति युध्नाति, लब्धिसारेऽपि तथैव-तीदे बंध सहस्से पल्लासंखेज्जयं तु दिदिबंधो । तत्थ प्रसखेज्जाणं उदीरणा समयपबद्धाणं ।। (लब्धिसार०२३८) मोह तीसिवोसियवेदनीयानां स्थितिबन्धक्रमप्रारम्भात्परं संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धाऽपसरणेष्वतीतेषु (यदा कमकरणाऽवसाने) मोहादीनां पल्याऽसंख्यातकमागमात्राः स्थितिबन्धा जातास्तदाऽसंख्येयसमयप्रबन्धानामुदोरणा भवति। जटिप्पणो लब्धिसारेऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा प्रकाराऽन्तरेण दशिता: अतीते बन्धसहस्र पल्यासंख्येयः तु स्थितिबन्धः । तत्रासंख्येयानामुदारणा समयप्रबद्धानाम् ॥२३॥ सं० टो० मोहतीसियवीसियवेदनीयानां स्थितिबन्धक्रमः प्रारम्भात्परं संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धाऽपसरणेष्वतोतेषु यदा क्रमकरणावसाने मोहादोना पल्यासंख्यातेकभागमात्राः स्थितिबन्धाजातास्तदाऽस 1 । । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ । उपशमनाकरणम् [ गाथा ४२ दानान्तरायमनःपर्यवज्ञानावरणयोरनुभागबन्धं देशघातिनं करोतीत्यर्थः । ततः संख्यातेषु स्थितबन्धेषु गतेषु सत्स्ववधिज्ञानावरणाऽवधिदर्शनावरणलामाऽन्तरायाणामनुभागं देशघातिनं बध्नाति, ततोऽपि संख्येयेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्सु श्रुतज्ञानावरणभोगाऽन्तरायाऽचक्षुर्दर्शनावग्णानामनु. भागं देशघातिनं बध्नाति । ततो भूयोऽपि स्थितिबन्धेषु सहस्रष्वतीतेषु चक्षदर्शनावरणस्याऽनु. भागबन्धं देशघातिनं करोति । ततो पुनरपि संख्येयेषुः स्थितिबन्धसहस्र पु व्यतिक्रान्तेषु सत्सु "मइसपरिमोग"ति, मतिज्ञानावरणस्य परिभोगान्तरायसहितस्याऽनुभागं देशघातिनं बध्नाति, मतिज्ञानावरणपरिभोगान्तराययोरनुभागं देशघातिनं बध्नातीत्यर्थः । ततःपुनरपि स्थितिबन्धसहनेषु गतेषु सत्सु वीर्यान्तरायस्याऽनुभागं देशघातिनं बाध्नाति असे ढिगया'त्ति, क्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणिवाऽनधिगताः सर्वे जन्तवः संसारे पूर्वोक्तानि दानान्तरायादीनि कर्माणि सर्वघातीनि बध्नन्ति तेषामनुभागं सर्वघातिनं बध्नन्तीत्यर्थः । मोहनीयस्य त्रयोदशप्रकृतीनां देशघातिकरणस्याकथनं तु षष्ठगुणस्थाने तासां देशघातित्वस्य बंध उहये च भावात् । बन्धमाश्रित्य पूर्वोक्तानां वीर्यान्तरायस्य च देशघातिरसभवनान्तरं सहस्रषु स्थितबन्धेषु गतेष्वन्तरकरणं कतु भारभते, तद्वक्तुकाम आह संजमघाईणंतरमेत्थ उ पढमठिई य अन्नयरे । संजलणावेयाणं वेइज्जतीण कालसमा ॥१२॥ संयमघातिनामन्तरमत्र तु प्रथमस्थितिश्चान्यतरस्य । संज्वलनवेदाना वेद्यमानानां कालसमा ॥४२॥ इति पदसंस्कारः । "संजमघाईणं" ति, बन्धे वीर्यान्तरायस्य देशपात्यनुभागभवनाऽनान्तरं संख्येयेषु स्थितिबन्धेषु गतेपु मत्सु मंयमघातिनां कर्मणामनन्तानुबन्धिवर्जाना द्वादशानां कषायाणां नवनोकरायाणां च "अतरं" त्ति, अन्तरकरणं करोतीत्ये कविंशतिप्रकृतीनामन्तरकरणं कतु मुपक्रमतेऽनन्तानुबन्धिनां तु मर्वोपशमनात् सर्वक्षयाद्वा तदर्जनम् । तत्र चतुर्णा क्रोधादीनां संज्वलनानामन्यनमस्य यस्य संज्वलनस्योदयस्त्रयाणां च वेदानां पुरुषादीनामन्यतमस्य यस्य वेदस्योदयम्तयोर्वेदकपाययोः कर्मणोः प्रथमास्थितिः स्वोदयकालप्रमाणाऽन्तम हूतप्रमाणा भवतीत्यर्थः । यद्यपि संज्वलनकाधेनापशमश्रेणिं प्रतिपन्नम्य यावदप्रत्याख्यानप्रत्यख्यानक्रोधोपशमोन भवति, तावरज्वलख्येयसमयप्रबद्धानामुदोरणा भवति । इतः पूर्वमपकृष्टद्रव्यस्य पल्याऽसंख्यातभागखण्डितस्य बहभागद्रव्यमुपरितनस्थिती निक्षिप्य तदेकभागं पुनरसंख्यातलोकेन खण्डयित्वा तद्वहभागद्रव्य गुणश्रेण्यायामे निक्षिप्य तदेकमागमुदयावल्यां निक्षिपतीति समयप्रबद्धासंख्यातकभागमात्र मेवोदीरणाद्रव्यम् । इदानी पुनरसंख्यातलो मितं भागहारं त्यक्त्वा पल्यासंख्यातभागेन खण्डितकभागमुदयावल्यां निक्षिपतीत्यसं. ख्येयसमयप्रबद्ध मात्रमुदीरणाद्रव्यमित्यर्थः ॥२३॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 अंतरकरणम् ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ १७३ नक्रोधस्योदयः, संज्वलनमानेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य यावदप्रत्यख्यान वत्याख्यानावरणमानोपशमो न भवति तावत्संज्वलनमानस्पोदयः, संज्वलनमायया चोपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य यावदप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमायोपशमो न भवति तावत्सञ्ज्वलनमायाया उदयः, सज्ज्वलन लोभेनोपशमश्रेणिमधिगतस्य यावदप्रत्यारूपानप्रत्याख्यानावरणलोभोपशमो न भवति, तावद् बादरसज्ज्वलन लोभस्योदयो भवति, तथाप्युदयवतीनां क्रोधादीनां प्रकृतीनां प्रथमस्थितिरुदयकालत अवलियाऽधिका द्रष्टव्या, आवलिकाया अल्पकालत्वेन तदविवचितत्वात् पुरुषवेदस्य तु प्रथमस्थितिरुदयकालेन समाना भवति, न तु कषायत्रदावलिकयाऽधिका । अन्येषामुदयरहितनां चैकादशक पायाणामष्टानां च नोकषायाणां प्रथमस्थितिरावलिकामात्रा । तत्र चतुर्णां संज्वलनानां त्रयाणां च वेदानामुदयकालप्रमाणमिदम् - स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोरुदयकालः सर्वस्तोकः, स्वस्थाने तु मिथस्तुल्यः, ततः पुरुषवेदस्य संख्यातमागाऽधिकः, ततोऽपि संज्वलनक्रोधस्य विशेषाऽधिकः, ततोऽपि सज्ज्वलनमानस्य विशेषाधिकः, ततोऽपि संज्वलनमायाया विशेषाऽधिकः, ततोऽपि संज्वलनलोभस्य विशेषाऽधिकः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णो- “पुरिसवेयस्स दीहो वेयणाकालो, इथिवेनपुं सगवेयाणां वेगणाकालो दोण्ह वि तुल्लो सखेज भागहीणो, कोहस जलणाए सव्वथोवो, माणसं जलणाए विसेसाहियो, मायास जलणाए विसेसाहिओ. सतां लोभस जलणाए विसेसाहितो ।" इति किन्तु पञ्चसङ्ग्रहे नपुस्त्रीवेदकालतः पु वेदस्य कालः संख्यातगुण उक्तः, तथा च तद्ग्रन्थः थीअमोदकात सखेज्जगुणो उ पुरिसेवयस्स | तस्स वि विसेस अहिओ कोहे तत्तो वि जहकमसो || १ | इति । इत्थमुदयरहितानां प्रकृतीनां प्रथमस्थितिः मिथः सदृशा एकावलिकामात्रत्वात्, उदयवप्रकृतीनां तु मिथो विसदृशाः । न च वेद्यमानस्य कषायस्य वेदस्य च प्रथमस्थितिरन्तमुहूर्तप्रमाणा, अन्यासामनुदयवतीनां प्रकृतीनां त्वावलिकामात्रा, तर्हे प बताऽल्पबहुत्वं कथं संगच्छत इति वाच्यम्, नानाजीवाऽपेक्षया ऽल्पबहुत्वस्य विहितत्वात् । अयं भात्रः - कश्चित्पुरूषवे दे नोपशमंश्रेणिमारोहति, अन्यः स्त्रीवेदेन श्रेणि प्रतिपद्यते, इतरो नपुंसकवेदेन समारोहति । त्रयो जन्तवो युगपच्छ्रेणि प्रतिपद्यमाना अन्तरं कुर्वन्ति, तदा स्त्रीवेदेनोपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य कालमाश्रित्य स्त्रीवेदस्य यावती प्रथमस्थितिस्तावत्येव नपुंसक वेदेनोपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमास्य नपुंसकवेदस्य भवति, ततः संख्यात भागाधिकप्रथमस्थितिः पुरुषवेदेनोपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य पुरुषवेदस्य भवति । एवमेको जन्तुः संज्वलनक्रोधेनोपशमश्रेणि प्रतिद्यते, अन्यः पुनः संज्वलनमानेन, इतरः संज्वलनमायया, कश्चिल्लोमेन । एषु Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम १७४ ] | गाथा ४२ युगपदुपशमश्रेणि प्रतिपद्य मानेषु चतुर्यु जन्तुषु संचलनक्रोधेनोपशमश्रेणि मधिगच्छतो जन्तोः क्रोधस्य यावती प्रथमस्थितिः,ततो विशेषाधिका मंजलनमानेनोपशश्रेणिमधिगच्छतो जन्तोनि. स्य,ततो विशेषाधिका मंज्वलनमाययोपशमश्रणि मधिगम्छरो जन्नोर्मायायाः,ततोऽपि विशेषाऽधिका संज्वलनलोभेनोपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानम्य उन्नोलो भम्य । तत्राऽपि संज्वलनक्रोधेन पुरुषवेदेन चोपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य पुरुषवेदस्य प्रथस्थितितः संज्व ननक्रोधस्य प्रथमस्थिति विशेषाऽधिका । बाऽनुदयवतीनां प्रकृती।। प्रथमथितिरावलिकामणा भवति, मा चाऽऽवलिका दर्शनत्रिकोपशमनाऽधिकारगतमिथ्यात्वमिश्रयोगवलिकावच्च ननावलिका ज्ञातव्या। अन्तरकरणमुपरितन भागाऽपेश या गमानस्थितिकम्, मर्वामा प्रकृतीनां द्वितीयस्थितिसन्कप्रथमनिषेकाणां समानत्वात. अधस्तनभागमाश्रित्याऽन्तरकग्णं विषमस्थितिकम् । उदयवतीनां प्रकृतीनां प्रथमस्थितेरन्तम हूर्तपात्रत्वेन तत्राऽपि वेदम्य प्रशमस्थितितः संज्वलनक्रोधम्य प्रथ. टिप्पणो० जयघवलायां प्रथमस्थित्यन्तरकरणाऽऽयामयोरवस्थितत्वं निर्दिष्टम् । अयं भाव:-- अन्तरकरणक्रियायाः प्रथमसमयात्प्रभृति चरमसमयं यावत्प्रतिरन्तर रणायामश्चाऽवस्थिती भव. तिः । अन्तरकरणक्रियाकाले पूर्वपूर्वसमयेषु क्षीणेषु सत्सु ग्थमस्थितावन्त रकरणस्यकः ममयः प्रविशति, अन्तरकरणे च द्वितीयस्थितिरेकसमय प्रविशति, एवं प्रतिसमय द्वितीयस्थितिीयते। प्रथमस्थित्यन्त राऽऽ. यामौ चाऽवस्थितौ भवत इति जयधवलाकारमतम् । तथा च तद्ग्रन्थ:-"एवमेदेरणायामेणंतर करेमाण स जाव अंतरकरणं समप्पह ताव अंतरम्मि उक्लिरिज्जमाणदिदिनो अवटिदपमाणाओ चेव भवति पदम द्विदोए वि अवट्टिदायामो चेव होइ कि कारणम् ? पढमद्विदोए एगनिसेगे हेढागलिदे उवरिमेदिदि पढमटिदिए पविसदि,अंतरट्टिदोसु एगनिसेगस्म पढमट्टिदीए पवेस उबलं भादो। तकाले चेव बिदियट्रिदिए आदिट्ठीदिवि अतरट्ठिदीसु पविसहि त्ति,एदेण कारणेन अंतरायामो पढमट्टिदीयायामो च अवट्टिदो चेव होदि। "इति । लब्धिसारेऽपि प्रथमस्थितिरन्तराऽऽयामश्चाऽवस्थिताम , इत्युक्त-तद्घटना त्वेवं दशितावेदनत उदयसमयेषु क्षीयमाणेषु सत्सु गुणश्रेणे:समय उदयालिकां प्रविशति.गुणश्रेणि चाऽन्तरकरणस्य समयः प्रविशति,प्रन्तरकरणेच द्रितीयस्थते: समयःप्रविशति, तथा च तद्ग्रन्थ:-"प्रत्रान्तरकरणप्रा. रम्भसमयादारभ्य प्रथमस्थित्यन्तर ऽऽयामौ व्यवस्थितप्रमाणौ द्रष्टव्यो। उदयावल्यामकेस्मिन्समये गलिते गुणश्रेणिसमयस्यै कस्योदयावल्यां पवेशात । एवं द्वितीयस्थितिीव हीयते। प्रथमस्यित्यन्तराऽऽयामौ तद. वस्थावेवेति निश्चेतव्यम् । (लब्धिसार०२४७) इति । प्रथमस्थित्यन्त राऽऽयामो तदवस्थौ स्वीकृत्य द्वितीयस्थितिश्च होयमाना स्वीक्रियेत, तीयं समस्योत्तिष्ठति, तथा हे-अतः प्राग्गुणश्रेण्यायामो गलिताऽवशेष प्रामीत, इतःप्रभृत्यवस्थितोऽभ्यपगन्तव्यः,यतोऽपूर्वकरणप्रथम समयात्प्रति यद्गुरगश्रणिशीर्ष प्रथम समय प्रासीत् तदेव द्वितीयसमयेऽपि भवति स्म, वेदनत उदयसमयेष क्षीणेसु सत्सु गुणश्रेण्या उपयु परि न वर्धते स्म इत्यर्थः, एव तावद् बक्तव्यं यावदन्तरकरणक्रियायाः पूर्वसमयः,किन्त्वतः प्रभृति अन्तरकरणक्रियाप्रथमसमयात्प्रतिसमयं गुणश्रेण्यायामैकैकसमयस्य प्रवेशात , गुणश्रेण्यायामोऽवस्थितः स्वीकर्तव्यः । न" कुचिदप्युपशमवेणिमारोहकस्यानिवृत्तिकरणेऽवस्थितगुणश्रेष्यायामः प्रतिपादितः । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेदकषायाणामंत रकरणम् ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः मस्थितेर्विशेषाऽधिकत्वेनाऽनुदयवतीनां च प्रकृतीनां प्रथमस्थितेरावलिकाप्रमाणत्वेन प्रथमस्थितेवैषम्यात् । अधोभागाऽपेमयाऽन्तरकरणस्य विषमस्थितिकत्वेन तत्प्रथमसमयोऽपि भिन्नोऽवाप्यते। । स्थापना चेत्थम् । प्रन्तरकरणम द्वि. स्थितिः नपूसकवेदोदयारुढः प्रथमस्थितिः मन्तरकरणम् .द्वि. स्थितिः स्त्रोवेदोदयारुढः प्रथम स्थितिः अन्तरकरणम् पुरुषवेदोदयारुढः प्रथमस्थितिः द्वि. स्थितिः सज्व.क्रोधोदयारुढः प्रथम स्थितिः अन्तरकरणम् वि. स्थितिः | संज्व.मानोदयारुढः प्रस्तरकरणम प्रथम स्थिति अन्तरकरणम संज्व.मायोदयारूढः प्रथमस्थितिः द्वि. स्थिति द्वि. स्थितिः द्वि. स्थितिा संज्वलोभोदयारुढः अन्तरकरणम् प्रथमस्थितिः -- अनुदयवतोनांप्रकृतानाम् । प्र। अन्तरकरणम् | द्वि.स्थितिः प्रथमस्थितितोऽन्तरकरणाऽऽयामः संख्यातगुणः, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणों-"पढमहित्तिसंखेजगुणातो हितितो उचिरति ।" इति । किञ्चाऽन्तरकरणस्य चरमनिषकगतसर्वदलिकान्येकस्मिन्न व समय उत्कीर्येरन्,एवं द्विचरमनिषकगतः सर्वदलिकानि द्वयोः समयोरूत्कोर्यरन् इत्यपभ्युगन्तव्यम्, उपर्युक्ताऽभ्युपगमनतो निम्नस्वीकृतिःसम्यक् प्रतिभासते तद्यथा-उदयवत्प्रकृतीनामन्तरकरक्रियाकालस्य प्रथमसमयेऽन्तरकरणस्याऽधो या प्रथमस्थितिमुच्यते साऽन्तरकरणक्रियाकालसमाप्ति यावत्प्रतिसमय वेदनतःक्षीणेषु समयेष सत्सु न्यूना न्यूना भवति. अन्तरकरणाऽऽयामश्चाऽवस्थितो भवति। द्वितीयस्थितेश्च प्रथमनिषेकस्तदवस्थस्तिष्ठति । अनुदयवतीनां च प्रकृतीनामावलिकाप्रमाणा प्रथमस्थितिरवस्थिता मन्तव्या । इदमुक्तं भवतिअन्तरकरणकालस्य समयेषु वेदनतः क्षोणेषु सत्स्वन्तरकरणसमयः प्रथमस्थितिलक्षणाऽऽवलिकां प्रविशति द्वितोयस्थितेश्च प्रथमनिषेकस्त्ववस्थितो भवति तेनाऽनुदयवतीनां प्रकृतीनामन्तरकरणमन्तकरणक्रियाकालचरमसमयं यावत्प्रतिसमयमेकादिभिः समयैरन्तरकरणं न्यूनं न्यूनं भवति । अन्तरकरणक्रियाकाले च समाप्त उदयवतीनां प्रकृतीनां प्रथस्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमाणाऽवशिष्यते, अनुदयवतीनां च प्रकृतीनां प्रथमस्थितिरावलिकामात्रऽवशिष्यते। इत: प्रभृत्युदयरहितानां प्रकृतीनामावलिकामात्रा प्रथम स्थितिश्चलनावलिका न भवति, अपि तु क्षीयमाणाऽऽवलिकामवति । किमुक्तं भवति? अन्तःकरणक्रियाकालसमाप्तितःपरंवेदनत उदयसमयेषु क्षीणेषसत्स्वनुवयवतीनों प्रकृतीनामावलिकामात्राप्रथमस्थिति रेकादिसमयन्यूना मवति तदुपरितनस्थितौ दलिकाऽभावादन्तरकरणक्रियासमाप्तित आवलिकायां व्यतिक्रान्तायामुदयरहितप्रकृतीनां प्रथमस्थितिमनुभूयाऽन्तरकरणं प्रविशति । तत्त्वं त्वतिशयज्ञानिनो विदन्ति । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ गाथा ४२ १७६ ] अन्तरकरण क्रियाकालोऽमिनवस्थितिबन्धः स्थितिघातश्च युगपदारभ्यन्ते युगपन्निष्ठ यान्ति । एकेन स्थितिघातकालेन स्थितिबन्धकालेन वाऽन्तरकरणं करोतीत्यर्थः । अंतरकरणक्रियाकाले च रसघातसहस्राणि व्यतिक्रामन्ति । अथाऽन्तरकरण सत्कोत्कीर्यमाणदलिकस्य प्रक्षेपविधिर्भण्यते । (१) यासां प्रकृतीनां बन्ध उदयश्व विद्यते, तासान्तरकरण सत्कदलिकं स्वप्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च प्रक्षिपति, यथापुरुषवेदारुढः पुरुषवेदस्य | (२) यासां प्रकृतीन मुदय एव केवलो विद्यते न बन्धः, तामामन्तरकरण सत्कदलिकं प्रथमस्थितौ प्रक्षिपति न पुनर्द्वितीयस्थितावपि यथा स्त्रीवेदारूढः स्त्रीवेदस्य । 9 (३) यास प्रकृतीनां पुनरुदयो न विद्यते, किन्तु केवलो बन्धस्तासामन्तरकरण सत्कदलिकमनुत्कीर्यमाणायां द्वितीयस्थितौ प्रक्षिपति, न तु स्वप्रथमस्थितौ यथा संज्वलनक्रोधोदयारुहः संज्वलन मानादीनाम् । (४) यासां प्रकृतीनां पुनर्न बन्धो नाऽप्युदयस्तासामन्तरकरण सत्कदलिकं स्वस्थाने न प्रक्षिपति, स्वप्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ वा न प्रक्षिपतीत्यर्थः, किन्तु परप्रकृतौ प्रक्षिपति, यथा अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानदलिकम, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-अंतर करें तो जे कम्म से बन्धति वेदेति तेसि उक्किरिजमाणदलियं पढमे डिईए बिइए ठितोए विदेति, जे कम्मंसा ण बज्झति ण वेतिजन्ति तेसि उक्किरजमाणा पोग्गले पढमडितिसु अणुविकरज्जमाणीसु देति, जे कम्मंसा बज्झंति न वेतिज्जंति तेसि उक्किरिजमाणगं दलियं अणुक्किरिज माणीसु बितियट्ठितिसु देति । जे कम्मंसा ण बति ण वेतिजं - ति तेसि उक्किरमाणं पदेसग्गं सहाणे ण दिज्जति परहाणं दिज्जति एएण विहिणा अंतरं उकिरिल्ल' भवति । " इति । 1 पुरुष वेद रूढस्य पुरुषवेदस्य स्त्रीवेदारूढस्य स्त्रीवेदस्य उपशमनाकरणम् संज्वलन क्रोधोदयारूढस्य संज्वलन क्रोधस्य सज्वलन मानस्य श्रप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाण म् बन्धः भर्वात न भवनि भवति भवति न भवति उदयः भवति भवति भवति न भवति न भवति स्वप्रथम स्थितौ | स्वद्वितीयस्थिती दल निक्षेपः दलनिक्षपः भवति भवति भवति न भवति न भवति भवति न भवति भवति भवति न भवति । किन्तु परप्रकृती प्रक्षिपति Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरकरणे दलनिक्षेपः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ १७७ . ननु प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थिती चाऽन्तरकरणसत्कदलनिक्षेपः स्वस्थानाऽपेक्षयोक्तः । अन्तरकरणदलिकं तु परस्थानेऽपि प्रक्षिप्यते। तत्र कः क्रमो बोद्धव्यः?अतः परस्थानदलिकनिक्षेपोऽभिधीयते । (१) यामां प्रकृतीनां वन्ध उदयश्च भवति, तासां पतद्ग्रहरूपप्रकृतीनामनुत्कीर्यमाणायांप्रथमस्थिती द्वितीयस्थिती च पूर्वोक्तचतुर्विधप्रकृतीनामन्तरकरणासत्कदलिक प्रक्षिपति, यथा पुरुषवेदोदयेनाऽऽरूढः पुरूषवेदस्याऽनुत्कीर्यमाणार्या प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च चारित्रमोहनीयस्य पुरुषवेदवर्जविंशतिप्रकृतीनामन्तरकरणमत्कालिक प्रक्षिपति । (२)यामा प्रकृतीनां बन्धो विद्यन उदयश्च न भवति, तासां पतद्ग्रहरूपप्रकृतीनामनुत्कीर्यमाणायां द्वितीयस्थितावेव तदितरप्रकुनीनामन्तरकरणसत्कदलिकं प्रक्षिपति यथा संज्वलनक्रोधोदयारूढः पतद्ग्रहरूपप्रकृतीनां मानादीनामनुत्कीर्यमाणायां द्वितीयस्थितावेव तदितरविंशतिप्रकृतीनामन्ताकरणसत्कालिकं प्रक्षिपति । (३)यासां प्रकृतीनां बन्धो नाऽस्ति किन्तूदयो विद्यते, तासां प्रकृतीनां प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ वा तदितरप्रकृतीनामन्तरकरणसत्कदलिकं न निक्षिपति, अबध्यमानत्वेन पतद्ग्रहत्वाऽभावात् । यथा स्त्रीवेदोदयारूढः स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थितो द्वितीयस्थितो वा तदितरप्रकृतीनामन्तरकरणसत्कदलिकं न प्रक्षिपति । (४) यासा प्रकृतीनां बन्धो न भवति नाऽप्युदयस्तामामपि पूर्ववत्प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ वा वा तदितरप्रकृतीनामन्तरकरणमत्कदलिक न प्रक्षिपति, अबध्यमानत्वेन पतद्ग्रहत्वाऽभावाद । यथा पुरुषवेदोदयारूढः स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ तदितरप्रकृतीनामन्तरकरणसत्कदलिकं न प्रक्षिपति । उक्तं च कषायाप्राभृतची-"अतरं करेमाणस्स जे कम्मंसा बज्झन्ति वेदिज्नति तेसि कम्माणमंतरहिदिओ उकोरेतो तासिं हिदीणं पदेसग्गंबंधपयरोणं पढमहिदीए च देदि गिदि यहिदीए च देदि। जे कम्मंसाण गझंति ण वेदिजंतिते. सिमुक्कोरमाणं पदेसग्गं सत्थाणे ण देदि, बजझमाणीणं पथडोणमणकीरमाणीस हिदीसु देदि। जे कम्मंसा ण बज्ति वेदिजति च तेसिमुक्कोरमाणयं पदेसरगं अप्पणो पढमहिदिए च देदि। बज्झमाणोणं पयडीणमुक्कीरमाणीसु च हिदिसु देदि । जे कम्मंसा बज्झंति ण वेदिजति तेसिमुक्कोरमाणं पदेसग्गं बज्झमाणीणं पयहोणमणकोरमाणीसु हिदोसु देदि । " इति । "अन्नयरे"इत्यात्विादेकवचनं पुस्त्वनिर्देशश्च, ततोऽयमक्षरार्थ:-संज्वलनवेदानामन्यतमयोर्वेदमानयोः प्रकृत्योः प्रथमा स्थितिः कालसमा उदयकालसमाना । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] उपशमनाकरणम् [गाया ४३-४४ अथ पुरुषवेदोदयेन संज्वलनक्रोधोदयेन चाऽऽरूढम्य जन्तोरुपशमनाविधिरभिधीयते । अन्तरकरणे कृते सति सप्तपदार्था युगपत्प्रवर्तन्ते, तानभिधित्सुराह दुसमयकयंतरे थालिगाण छराहं उदीरणाभिनवे । मोहे एकट्ठाणे बंधुदया संखवासाणि ॥४॥ संखगुणहाणिबंधो एत्तो सेसाणऽसंखगुणहाणी । पउवसमए नपुसं असं खगुणणाइ जावंतो ॥४४॥ द्विसमयकृतान्तर पावलिकानां षण्णामुदीरणाभिनवः । मोहस्यैकस्थानको बन्धोदयौ संख्येयवर्षाणि ।।४३॥ संख्येयगुणहानिबंध इतः शेषारणामसंख्येवगुणहानिः। प्रोपशमयति नपुंसकमसंख्येयगुणनया यावदन्तः ॥ ४४॥ इति पदसंस्कारः । "दुसमयकयंतरे" त्ति, उत्पत्तितदनन्तरलक्षणाभ्यां द्वाभ्यां समयाभ्यां कृतेऽन्तरे सत्यन्तरकरणे कृतेऽनन्तरममय इत्यर्थः इमे सप्त अधिकारा युगपत्प्रवर्तन्ते, उक्तं च कर्मप्रकृतिचौँ "दुसमयकयंतरे" त्ति,अतरकरणे उकिपणे ततो अणंतरे समते इमे सत्त अहिगारा जुगवं पयति ।" इति । (१) मोहनीयस्याऽऽनुपूयैव संक्रमः । (२) संज्वलनलोभस्य संक्रमाऽभावः । (३) पडावलिकायां व्यतिक्रान्तायामुदीरणा । (४) 'मोहे' मोहनीये एकस्थानकोऽमिनवो रसबंध उदयश्च भवति । (५) संख्येयवार्षिको मोहस्य स्थितिबन्धः। () उदयोऽसंप्राप्त्युदय उदीरणाख्यः, सोऽपि संख्येयव पिको मोहस्य । (७) 'पढमसमए' त्ति, अन्तरकरणे कृते सति प्रथमसमये नपुसकवेदं चोपशमयति, असंख्येयगुणनयोपशमयितुमारभत इत्यर्थः,तं च तावद्यावदन्तश्वरमसमयः । विशेषव्याख्यानं पुनरिदम् ॥ (१) मोहनीयस्याऽऽनुपूत्येव सह क्रमः । आनुपूया सङ्जटिप्पणीजयघवलायामानुपूर्वीसंक्रमस्वरुपमित्थ दर्शितम्-नपुसकवेदात्रीवेदयोर्दलिकं पुरुषवेद एव सङक्रमयति णां दलिक संज्वलनक्रोधएव । क्रोधस्य दलिकं माम एष, मानस्य दलिकं मायायामेव मायायाश्च लोभेष्वेव सड़क्रमर्यात । अक्षराणि त्वेवम्-"मोहणीयस्साणपुव्वीसंकमो जाम पढमकरणं तमेवमणुगंतव्वं । तं जहा-इस्थिणसयवेदपदेसग्गमेत्तो पाए पुरिसवेदे चेव णियमा संछुहादि। पुरिसवेद छण्णोकसायपच्चखाणाऽपच्चखाणकोहपदेसरगं कोहसंजलणस्सुवरि संछुहदि। पाण्णात्थ कत्थ वि । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तरकरणकृते सप्तपदार्थाः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [१७६ क्रमो नाम क्रमपुर्वकः सङ्क्रमः ।इतः प्राक् संज्वलनक्रोधस्य दलिक पुरुषवेदसंज्वलनमानमायालोमेषु सङ्क्रमयति स्म । अतः प्रभृति संज्वलनक्रोधम्य दलिकं मानादिषु सङ्क्रमयति, पुरुषवेदे तु न सक्रमयति । एवं पुरुषवेदस्य दलिक संज्वलनक्रोधादिषु, संज्वलनमानस्य दलिक संज्वलनमायादिषु संक्रमयति, न तु पुरुषवेदे वा सञ्जवलनक्रोधेवा । तथा संज्वलनमायाया दलिक संज्वलनलोमे सक्रमयति, न पुरुषवेदसञ्जवलनक्रोधमानेषु । अयं सङ्क्रमः क्रमपूर्वक उच्यते । (२) संज्वलनलोभस्य सङ्क्रमाऽभावः-अन्तरकरणे कृते सत्यनन्तरसमयात्प्रभृति मोहनीयस्याऽऽनुपूर्वीसङ्क्रमभवनात्संज्वलनलोभस्याऽन्यत्र सङ्क्रमो भवितु नाऽर्हति इति कृत्वा लोमस्य सङ्कमाऽभाव उक्तः ।। (३) षडावलिकायां व्यतिक्रान्तायामुदीरणा। मोहनीयसत्काऽमोहनीयसत्का याः प्रकृतयो बध्यन्ते, तासां षण्णामावलि कानां मध्य उदीरणा न भवति, किन्तु षट्स्वावलिकास्वतिक्रान्तासु । अधुनातननूतनबन्धस्य तथाविधम्वभावसंभवात्, इतः पूर्व तु बद्धं कर्म बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायां प्राक्तनोदयसत्कर्माऽनुविद्धामुदीरणायामायाति स्म । (४) मोहनीस्यैकस्थानको रसबन्धोऽभिनवो भवति, अतः प्राग्मोहनीयस्याऽनुभागबन्धो द्विस्थानको भवति स्म,इतः प्रभृति विशुद्धवृद्धत्वादेकस्थानको रसबन्धो भवति । (५) मोहस्य संख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः, इतः पूर्वमन्तरकरण क्रियासमाप्तिपर्यन्तं सप्तानां कर्मणां स्थितिबन्धोऽसंख्येयवर्षप्रमाणो भवति स्म। संप्रति मोहनीयस्य संख्यातवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति, सोऽपि पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धः संख्येयगुणहीनो भवति । शेषकर्मणां च पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणहीनो भवति । (६) उदयाऽसंप्राप्तोदय उदीरणाख्यः, सोऽपि संख्येयवार्षिको मोहस्य । यद्यपि मोहनीयस्य स्थितिसत्कर्माऽसंख्येयवर्षप्रमाणं भवति, तथाऽप्युदीरणासंख्यातवार्षिका भवति तत्कारणं त्विदं ज्ञा. यते, मोहनीयकर्मणः स्थितिबन्धस्य संख्यातवर्षप्रमणत्वादसंख्ये यसमय प्रबद्धोदीरणायाश्च विद्यमानत्वाद् बन्धतः समयादिहीनाः संख्येयवर्षेप्रमाणाः सत्तागतस्थितय उदीरणामायान्तीति संख्येयवार्षिकोदीरणा सम्यग्युज्यते उपरितनस्थितय उदीरणायां नागच्छन्ति तथास्वभावादिति संभावयामहे। कोहसंजलणदुविहमाणपदेसग्गं पि माणसंजलणे णियमा संछुहदि, गाण्णहम्मि वि कम्हि विमाणसंज़लणविहमायापदेसग्गं च णियमा मायासंजलणे णिक्खिवदि मायासंजलणदुविहलोहपदेसग्गं च रिणयमा लोहसंजलणे संछुहदि त्ति एसो माणुपुग्वीसंकमो जाम।" Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] उपशमनाकरणम [ गाथा-५३-४४ * कषायप्राभूतचूनौं संख्यातवार्षिकोदीरणा नोक्ता, किन्तु तत्स्थाने मोहनीयस्यैकस्थानको रस उदये भवति इत्युक्तः,मोहनीयस्यैकस्थानाऽनुभागोदयोऽत्र संभवति, यतः मंज्वलन चतुष्कस्य पुरुष. वेदस्य च य एकस्थाने रसोदय उदीरणाकरणे उदयविधौ चोक्त सोऽत्रैव संभवति । उक्तं च कषायप्राभाचुर्णी(१)ताचे चेव मोहणीयस्स आणुपुचीसंकमो २ लोभस्स असंकमो(३) मोहणीयस्स एगट्ठाणिओ बंधो।(४)णवुसयवेदस्स पढमसमय उवसामगो (५) छसु आवलियासुगदासु उदीरणा ६)मोहणीयम्स एगट्ठाणिओ उदयो ७) मोहणीयस्स संखेजवरसहिदिओ बंधो, एदाणि सत्त विधाणि करणाणि अंतरकदपढमसमए होति" नपुसकवेदम्योपशमनाप्रारम्भ:-अतः प्रभृति नपुंसकने दम्य दलिकम्य प्रतिसमयमसंख्य गुणकारेणोपशमयति, गुणसंक्रमोऽपूर्वकरणादारन्धोऽत्रापि प्रवर्तते. नपुसकवेदोपशमन!प्रथमसमयादारभ्य सर्वेषां कर्मणामुदीरणागतं दलिकं स्तोकम्, ततोऽसंख्येय गुणं दलिकमुदये वर्तते, गुणश्रेण्या रचितप्रभृतदलिकानां निषेकाणामुदयात् तथोदयगतदलिकतोऽसंख्येयगुणमुपशमय त ततोऽप्यसंख्येयगुणं परप्रकृतिषु सङ्क्रमयति, एवं तावद्वक्तव्यम्, यावद् द्विचरमसमयः। परप्रकृतिषु च प्रतिसमयमुपशम्यमानदलिकतोऽसंख्येयगुणं दलिकं तावत्सक्रमयति यावद् द्विचरमसमयः । चरमसमये तु सङ्क्रम्य माणदलिकतोऽसंख्येयगुणमुपशमयतीति ज्ञातव्यम् । टिप्पणी-धवलायां लब्धिसारे चाऽपि सख्येयवार्षिकोदोरणास्थान एकस्थानिकोऽनुभागोदय उक्तः, तथा चाऽत्र धवला-"ताधे चैव मोडणीयस्स आणपव्वीसंकमो लोभस्स प्रसंको मोडणीयस्स एगठाणीग्रो बंधो गउंसयवेदस्स पढमसमय उधसामगो छसु प्रावलियासु गदासु उदोरणा मोहणीयस्स एगट्टणीओ उदओ मोहणोयस्स संखेज्जवस्सद्विदियो बंधो एदाणि सविधारिश करणारिण अंतरकवपढमसमए होन्ति"। तथैव चोस्त लब्धिपारेऽपि -... "अन्तरकृतस्य निष्तिान्तरकरणस्य प्रथमेऽनन्तरसमये सप्तकर. णानि युगपदेव प्रारभ्यन्ते। तत्र पूर्वमन्त रसमाप्तिपर्य तं चारित्रमोहस्य द्विस्थानानुभागबन्ध प्रवृत्तः; इदानों लताममानकस्थानाऽनुभागबन्धातस्य प्रति इत्येक करणम् । तथा मोहनीयस्य द्विस्थानुभागो. दयपूर्वमन्तरकरणचरमसमय यर्यन्तमायातः, इबानी पुनस्तम्य लतासमानेकस्थान नुभागोदय एव प्रवर्तत इत्यपरं करणम् तथा पूर्वमन्तरकरणकालसमाप्तिपर्यन्तम सख्येयवर्षम त्रो मोहनीयस्य स्थितिबन्ध: प्रवृ. त्त इदानीं पुनरपसरणमाहात्म्यात्सख्येवर्षमात्रो मोहस्य स्थितिबन्धः प्रारब्ध इत्यन्यत्करणम् । तथा पूर्वमन्तरकरणक लपरिसमाप्तिपर्यन्त चारित्रमोहम्य यत्र यत्रापि द्रव्यसड क्रम: प्रवृत्तः इदानीं पुनर्वक्ष्यमागा प्रतिनियताऽऽनुपूा तद् द्व्यं संक्रामति तथा पूर्वमन्तर करणसमाप्तिपर्यन्त संज्वलनलोभस्य शेष संज्वलनपु वेदेषु यथासंभवं सह कम: प्रवृत्त इवानों पुनः सज्वलनलोभम्य कुत्राऽपि सङ्क्रमो नाऽस्त्येवेत्ग. परं करगम, तथे दानी प्रथमं नपुसकवेदस्योपशमन क्रिया प्रारभ्यते तदुपशमनाऽनन्तरमेवेतरप्रकृतीना. मुपशम विधानादित्येतदेकं कम्णम,तथा पूर्वमन्तरकरणसमाप्तिपर्ध-तं प्रतिसमयबध्यमानसमय प्रबद्धोऽचलाऽऽवल्यतिकम उदीरयितु शक्यः प्रवृत्तः इदानीं पुनर्बध्यमानानां मोहस्य वाज्ञानावरणादिकर्मणां वा समयप्रबद्धबन्धमथमसमयादारभ्य षट्स्वावलिसु गतास्वोदीरयितु शक्यो नैकसमयोनेस्वपि इत्यन्यत्करणम्" (लब्धिसार २४८ टेका) इति । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपुंसकवेदोपशमना ] चारित्रमो.नोयोपशमनाधिकारः [ १८१ ___उक्तश्च कर्मप्रकृनिचों नस्स णपुंसगवेयम्स उवसामणपढमसमयपभिनि जस्स व तस्स व कम्मस्सोदोरणा योग उदओ असंखेजगुणो, उवसामिजमाणणपुसगवेगरस पदेसरगं असंखेनगुणं नपुंसगवेयम्स अन्नपगति संकामिज्जमाणगं पदेसरगं असंखेज गुणं एवं समदे समदे असंखेजगुणं भणियां जाव दुचरिम समउत्ति । नरिमसमए उवसमिजमाणं सकामिजमाणगातो असंखेजगुणं । जाव न. पुसगवेय उवसागणाए चरिम समत्तो।" इति । कषायप्राभतचूणौँ नपुंसक वेदोपशमनारम्भप्रथम मम यात्प्रभन्युदीग्णागतं दलिक सर्वस्तोकम् . ततोऽसंख्येयगुणदलमुदये भवति, ततोऽ. प्यमंख्येयगुणं दलिक परप्रकृतो सक्रपयति, ततोऽप्युपशम्यमानं दलिकमसंख्यातगुणम् , एवं तावद्वक्तव्यम, यावन्न पुसकावेदापशमनायाश्चम्मममयः, न तु कर्मप्रकृतिचूणायादिवच्चरमसमय एव सङ्कम्प माणदलिकत उपशम्यमानदलमसंख्येय गुणं भवतीयुक्तम् तथा च तद्ग्रन्थः अंतरा. दो पढमसमयकदादो पाए णास पवेदस्स * आउत्तकरण उवसमगो सेसाणं कम्माण ण किंचि उवस मेदि । जं पढमसमए पदेसग्गमुषसमदितं योवं। जं बिदियसमये उघसामेदि नमसंवेजगुणं एवमसंग्वेजगुणणाए सेढीये उवसामेदि जाव उवसंतं । णवु सयवेदस्स पढमसमय उपसामगस्स जस्स वा तरस वा कम्मस्स पदेसगास उदीरणा थोवा उदयों असंखेजगुणो णवु सयवेदस्स पदेसग्गमऽण्णपयडि सकामिज माणयमसंबंजगुणं उपसामिजमाणयमसंखेजगुणं । एवं जाव चरिमसमय उवसतेत्ति " इति । नपुसकदेदोपशमनारम्भसमयेऽमि वः स्थितिबन्धो सघातो स्थितिघातश्चाऽऽरम्यन्ते । महस्रं षु स्थितिबन्धेषु स्थितिघातेषु वा गतेषु नपुमकवेदः सर्वथोपमितो भवति । यथा धूलिः धवलायां लब्धिसारे चाऽनेनैव प्रकारेण नपुसकवेदोपशमना उक्ता, नपुसकवेदोपशमकस्य प्रथमसमये विवक्षितस्योदयप्राप्तस्य पुवेदस्योदोरणाद्रव्यमिदं तत्कालाऽपकृष्टस्य पल्यसंख्यातकभागेन भक्तस्य बहुभागमुपरितनस्थिती दत्वा तदेक भागं पुन: पल्याऽसंख्यातमागेन खण्ड यित्वा बहुभागं गुणश्रेण्या निक्षिप्य तदेकभागस्यैवोदयनिक्षेपात् । तस्मादुदोरणाद्रव्यात्तदात्वे पुवेदस्यैवोदयमानं द्रव्यमसंख्यातगुणः सगुणश्रेण्यां प्राग्निभिप्तपल्पामख्य तब हुभागमात्रत्वात् । तस्मादुदयद्रव्यान्नपुंसकवेदस्य सङ्क्रमणद्रव्यमसंख्या. तगुरणम् स " तद्भागहारादसंख्य तगुणहीनेन गुणसङक्रम भागहारेण खण्डितकमगमात्रत्वात्तदात्वे नपुंसक स्योपशमनाफालितद्रव्यं संख्यात गुणं, स तद्भागहारात्संख्यातगुणहीनेन भागहारेण खण्डितकभागमात्रत्वादेवं द्वितीयादिसम षु चरमपर्यन्तेषूदोरणाद्रव्यचतुष्टाऽल्पबहुत्वं नेतव्यम् (लब्धिसार २५७) * किमाउत्तकरणं नाप ? माउत्तकरणमुज्जत्तकरण पारंभकरणादि एयट्ठो तात्पर्येण नपुंसकवेदमितः प्रभवत्युपशमतीत्यर्थः ( जयधवला)। धवलायां लब्धिसारे चाऽन्तरकणे कृते मोहनीयस्य स्थितिघातरसघातो न भवतश्शेषकर्मणां तु Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] उपशमनाकरणम् ( गाथा ४५ मलिलेनोपशमिता भवत्येवं कर्मदलिकं भावविशुद्धयोपशमितं भवति । नपुंसकोदोपशमनामभिहित्वा स्त्रीवेदोपशमना निजिगदिषुराह एवित्थी संखतमे गम्मि घोईण संखवासाणि । संखगुणहाणि एत्तो देसावरणाणुदगराइ ॥४५॥ एवं स्त्रीवेदस्य संख्येयतमे गते घातीनां संख्येयवर्षाणि । संख्येयगुणहानितो देशावरणानामुदकराजिम् ॥ ४५ ॥ इति पदसंस्कार: नपुंसकवेदोपशान्ते सति स्त्रीवदेमुपशमयितुमारभने स्त्रीवेदोपशमनारम्भप्रथमसमयऽभिनःस्थितिबन्धः स्थितिघातो रमघातश्वऽऽरभ्यन्ते । स्त्रीवेदविध्यनिदेशं शेषविशेषं चाऽऽह"पवित्थी"एवं पूर्वोक्तप्रकारेण नपुमकवेदोपशमनास्त्रीवेदमुपशमयति. उपशम्यमानस्य स्त्रीव दम्योपशमनाऽद्धायाःसंख्येयतमे मागे गते सति घातिनां ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां "संग्ववासाणि" संख्ये यवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति, अत्र सर्वेषां कर्मणां स्थितिबन्धमाश्रित्याऽल्पबहुत्वं विचायते प्रवर्तत इत्युक्तस्तद्यथा-"अतरकरणे कदपढमसमयादो पहुडि मोहणीयस्स णस्थि दिदिघादो प्रणमागधादो वा, कूदो? उवसंतपदेसग्गस्स टिदिप्रणुभागेहि चलणामाय. लब्धिसारेऽपि तथैवोक्तम, तथाहि::अतरकरणास्यऽपि नसकवेदोपशमनाप्रथमसयादारभ्य मोहनीयस्य स्थितिखण्डमनु भागखाडनंच नाऽस्ति उपशम्यमानकर्मस्थितेः कण्डकघातो नास्तीति परमगुरुपदेशात् ।" इति । स्थिति घातरसघात निषेधे धवलाकारैरुपशान्तदलिकस्य स्थित्यनुभागो न वर्धते हीयते वा । न चाऽनुपशम्य प्रकृतीस्थितिघातरसधातो कुतो न भवतोति वाच्यम् , यतःपूर्वमुपशान्तप्रकृतिस्थितिसत्वतः पश्चादुपशमिष्यमाणप्रकृतिः स्थितिसत्वं स्थितिघातः संख्येयगुणहीनं भवेत तच्च नेष्टम् उपशमनकाले (उपशमश्रेणी) सर्वासा मोहनीयप्रकृतीनां समानस्थितिकत्वात इति लब्धिसारधवला योरभिप्रायः । प्रक्षराणि त्वेषम-उवसंतुवसामिज्जमाणमोहपयडीओ मोत्तण सेसाणं दो घादाकिण्ण ह ति? ण पुव्वमुक्संतपयडि दिदि संतकम्मा दो पच्छा उवसंतपय डिट्टिदिसंतकम्मम्स सखेज्जगुणं होणत्तपसंगादो" इति धवलाकारः। तथा चाऽत्र लब्धिसारः-तह्यनुपशम्यमानमोहप्रकृतीनां स्थितिकण्डकघातौ भवेदिति नाशङ्कितव्यम्, उपशमनकाले मोहप्रकृतीनां सर्वासामपि स्थितिसदृश्यादिति च परमसप्रदीपस्य परमगुरुपर्वक्रमायातस्य सद्भावात स्थित्यनुसारित्वादनुभागस्याऽपि खण्डनं विना तदरस्थं सिदमेव इति कर्मप्रकृतिचूणिकारैःकषाय प्रा. भतचूणिकारश्च मोहनीयकर्मण:स्थितिघात रसघातयोनिषेधो न दशितः। तथा च जयधवलाकारस्याऽनुभागऽधिकारगतान्यक्षराणि-अवेदकाऽवस्थाामपि मोहनीयस्य रमघातं साधयन्ति तदक्षराणि त्वेवम-" अवेदगस्स उक्कोसप्रणमागाविहत्तिकस्स? जो अवगतवेद अनियट्टिउवसामग्रो पढमप्रणुभागकंडए वट्टमाणो तस्स उक्नोसप्रणूभागविहत्ति हते अणुक्कोसा। इति । अवेदकाऽवस्थायां मोहनीयस्य रसधातो मवतीति उपयुक्तैरक्षरैः सिद्धं भवति, । इति तत्त्वं तु केवलिनी विदन्ति । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीवेदोपशना] अल्पबहुवाधिकारः [ १३ (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वाऽल्पः । (२) ततो ज्ञानावरणाऽन्तरायाण संख्येयगुणः । (३) ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः । (४) ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकः । उक्तं च कषायप्राभूतचूणौँ-"तम्मि समए सव्वकम्माणभप्पाबहुअं। तं जहा- मोहणीयस्स सव्वत्थोवो हिदिबंधोणाणावरणदंसणावरणअंतराध्याणं द्विदिवंधो संखेजगुणो, जामगोदाणं हिदिबंधो असं. खेजगुणो, वेदणीयस्स हिदिवंधो विसेसाहिओ।" इति । "एत्तो" इत्यादि, इतश्च संख्येयवर्षप्रमाणस्थितिबन्धादारभ्याऽन्योन्यो घातिकर्मणां स्थितिबन्धः पूर्वपूर्वस्मात्संख्येयगुणहीनो भवति । अस्मादेव च संख्येयवर्षप्रमाणघातिकर्मप्रथमस्थितिबन्धादारभ्य देशघातिनां केवलज्ञानावरणकेवलदर्शन'रण वर्जानां ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणाम् "उदकराजिम्" उदकराजिसमान पायकृतं रसं बध्नाति, एकस्थानकमनुभागं वघ्नातीत्यर्थः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-- "जं समयं संखेनवरिसगो हितिबंधोतं समयं चेव केवलणाणावरणकेवलदसणावरणवज्जाणं देसघाईणं पगतीण एगट्ठापि गो बंधो पयति" इति । तथैव कषायप्राभृतचूर्णावप्युक्तम्- "जाधे संग्वेज्जवस्सहिदिओ बंधो तस्समए चेव एदासिं तिण्हं मूलपयडोणं केवलणाणावरणदंसणावरणवज्जाओ सेसाओ जाओ उत्तरपयडीओ तासिमेगट्ठाणिओ बंधो।"इति । तत एवंक्रमेण संख्येयेषु स्थितिघातसहस्रषु गतेषु सत्सु स्त्रीवेदः सर्वथोपशान्तो भवति । स्त्रीवेद उपशान्ते हास्यपटकं पुरुषवेदं चोपशमयतीति तदुपशमनाविधिमाविश्चिकीषु राह ता मत्तगह एवं संखतमे संखवासितो दोगहं । बिइयो पुण टिइबंधो सव्वेसि संखवासाणि ॥ ४६॥ ततः सप्तानामेव सख्येयतमे संख्येयवार्षिको द्वयोः । द्वितोय :पुनःस्थितिबन्ध सर्वेषां संख्येयवर्षाणि ॥ ४६ ॥ इति पदसंस्कारः "ता" इत्यादि, स्त्रीवेद उपशान्ते ततः शेषान सप्तनोकपायानुपशमयितुमारभते, तदुपशमनारम्पप्रथमसमयेऽभिनवस्थितिबन्धः स्थितिघातो रसघातश्च प्रारभ्यन्ते संख्यातेषु स्थितिघातसहस्रषु बजिनेषु मन्सु एवं" इत्यादि. नपुसकवेदोक्तप्रकारेण सप्तानां नोकषायाणामुपशमनाऽद्धायास्संख्येयतमे भागे गते सति ''दोण्हं"त्ति द्वयोर्नामगोत्रयोः संख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धो भवति वेदनीयस्य पुनरसंख्येयवार्षिक एव, तस्मिन स्थितिबन्धे पूर्णे सत्यन्यो द्वितीयस्थितिवन्धो वेदनीयस्याऽपि संख्येयवार्षिको भवति । तथा च सति सर्वेषामपि कर्मणामितः प्रभति संख्येयवर्षप्रमाण Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरण १८४ ] [ गाथा ४६-४७ एपस्थितिबन्धो मवति। तथा च पूर्वम्मादन्योऽन्यः स्थिनियन्धः संख्येयगुणहीनः प्रवतते । उक्तं च कर्मपकृतिचणौं-'सत्तण्हं णोकसायाणं उघसामणडाए संग्वेज्जतिभागे गए "दोह' त्ति, नामगोयाणं' एएसितंमिकाले संखेन्जवासिगो हितिबंधो वेदणिज्ज. स्स असंखेज्जवरिसगो चेव ठितिबधो वितितो पुण डिनिबंधो सव्वेसिं संखवा साणि त्ति तम्मि हितिबंधे पुन्ने जो अन्नो वितिनो ट्ठितिबंधा तम्मि काले सव्वकम्माणं वि संखेन्जपरिसगा द्वितिबंधो । सम्वकम्माणं संग्विजवरिस गातो हिनिबंधानो सं खेज्जगुणहोण होगट्ठितिगंधी पवति " इति कमायाभतचू! तूपशम्यमानानां सप्तनोकायाणामुपशमनाद्धायाः संख्येयतमे भागे गते नामगोत्र वेदनीयानां त्रयाणां संख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धो भवतीत्युक्तम्, तथा च तद्ग्रन्थः-"एवं संखेज्जेषु हिदिगंधसहस्सेषु गदेसु सत्तण्इं गोकसायाणामुवसामणडाए संखेन्जदिमागे (संखेज्जभागे) गते तदो णामगोयवेयणीयाणं कम्माणं संखेज्जवस्सहिदिगो बंधो।" इति । अत्र कषायप्राभृतचूर्णिकारीः स्थितिबन्धमाश्रित्याऽल्पबहुत्वमुक्तम् , नद्यथा-"ताधे हिदिगंधस्स अप्पाबहुअंतं जहा सम्वत्थो मोहणीयस्स हिदिधो।णाणापरणदंसगावरणअतगइयाणं हिदि. बंधो संखेज्जगुणो । नामगोदाणं हिदिबंधो संग्वेज्जगुणो। वेदणीयस्स हिदिबंधोविसेसाहिओ।" इति । ततःसंख्यातेषु स्थितिघातसहस्रेषु स्थितिबन्धसहस्रषु वा गतेषु सत्सु सप्ताऽपि नोकषाया उपशान्ता भवन्ति । संप्रति पुरुषवेदोपशमनाद्धायां यो विशेषः तं व्याजिहीर्ष राहछस्सुवसमिजमाणे सेक्का उदयट्टिइ पुरिससेसा ।। समऊणावालगदुगे बद्धा वि य तावदाए ॥४७॥ षट्सू शम्यमानेषु तस्मिन् समय एका उदयस्थिति: पूरूवम्य शेषा । समयोनावलि कादिकेन बद्धामपि च ताबदद्धया । ४७ ।। इति पदसंस्कारः "छस्सु" इत्यादि, पटमु नोकषायेपशम्यमानेषु यस्मिन्समये पण्णीकपाया उपशान्ताः, तस्मिन्समये पुरुषवेदस्य प्रयमस्थितो शेषा एकचोदया स्थितिः समयमाध्यऽवतिष्ठते । अयं भाव:पुरुषवेदस्योदयचरमसमये हास्यषट्कस्य शेषाणि सर्वाणि दलिकान्युपशम्यन्ते । न च हास्यषट्कं पुरुषवेदोदयद्विचरमसमय उपशमयेत्, यतः पुरुषवेदोदयस्याऽवशिष्यमाणचरमसमये तु सर्वथोप धवलालब्धिसारादिषु ग्रन्थेष कषायनाभृतवत त्रयाणामपि कर्मणां युगपत्संख्येयवार्षिक:स्थितिबन्धो भवतीत्युक्तम् । तद्यथा-थोउवसमिदाणंतरसमयादो सत्तणोकसायाणं । उवसमगो तस्सद्धा संखेज्जदिमे गदे ततो ।। णामदुगवेयनिटिदिबंधो संखवस्सयं होदि । ५३ ।। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषवेवहास्याद्युपशमना ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः । १८५ शान्तं प्राप्यत इति वाच्यम्, यतः पुरुषवेदोदयस्य समयोनाऽऽवलिद्वयशेषे पुरुषवेदस्य पतद्ग्रहताऽपगच्छति, ततः प्रभृत्यौपशमिकसम्यग्दृष्टेः संज्वलनचतुष्केऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनक्रोधत्रिकमप्रत्याख्यानावरणादिमानविकमप्रत्याख्यानावरणादिमायात्रिकमप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभद्विकं चेत्येकादश हास्यषट्कं तथा पुरुषवेदः सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोश्च मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वं चेति विंशतिप्रकृतीनां सङ्क्रमः तावद्भवति, यावत्समयोनाऽऽवलिका. प्रमाणः पुरुषवेदोदयः तावत विंशतिः प्रकृतयः निरुक्तषट्प्रकृतिषु पुरूषवेदस्य चरमोदयेऽपि सङक्रामन्तीत्यर्थः । ततो हास्यपटूक उपशान्ते पूर्वाक्तषट्प्रकृतिषु हास्यषट्कस्योपशान्तत्वाद्धास्यषटकमृते चतुर्दश प्रकृतयः संक्रामन्ति, ताथाऽपि तावत्संक्रान्ति यावदवेदकाद्धायाः समयोनाऽऽवलिकाद्वयं व्यतिक्रामति । ततः पश्चात्पुरूषदस्य सर्वथोपशान्तत्वात्पुरूषवेदं विना पूर्वाक्तषटप्रकृतिषु पुरुषवेदरहितपूर्वोक्तत्रयोदश प्रकृतयः संक्रामन्ति । उक्तं च कर्मप्रकृतिौँ -"ततो पुरिसवेगस्स पढमद्वितियसमयूणदुआवलियसेसाए पुरिसवेदो पडिग्गहो ण होति त्ति वीसा तेसु चेव सत्तसु पुरुषवेयरहिएमु छसु संक्रमति जाव समयूणाउ दो आ. पलियाउ। ततो छसु णोकमाएसु उवसंतेसु चोहस्स भवंति, ते चोद्दस तेसु चेव छम संकमति जाव समयूणाओ दो आवलियाओ। ते चेव चोहस्सा पुरिसवेदे उवसंते तेरस भवंति ।" इति। __ तेन पुरुषवेदस्य चरमोदयसमयेऽपि हास्यषट्कस्य संक्रमभवनात्तदानीं सर्वथा तदुपशान्तत्वं न संभवति । एवं पुरुषवेदोदयचरमसमये वर्तमानः शेषं हास्यषट्कं संक्रमयति सर्वथा चोपशमयति, ततोऽनन्तरसमये पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्वयवद्धनूतनदलं विना शेष पुरुषवेदं हास्यषट्कं च युगपदुपशान्तत्वं प्राप्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णावपि-एदेणकमेण हिदिघंधसहस्सेसु गदेस सत्तणोकसाया उवसंता णवरि पुरिसवेदस्स घे आवलिया बंधसमयूणा अणुवसंता" इति । पुरुषवेदोदयचरमसमये पुरुषवेदस्य चरमस्थितिबन्धः षोडशवार्षिकः सज्वलनानां क्रोधादीनां संख्येयवार्षिको भवति । उक्तं चकर्मप्रकृतिचूर्णी-जंमि समते छ नोकसाया उवसंतातंमि समते पुरिसवेयरसहितिचंधो सोलसवरिसाणिसंजलणाणं बंधो संखेज्जाणिवाससहस्साणि"इति . कषाय धवलादिग्रन्थेष्वपि पुरुषवेदस्य बन्धविच्छेदसमये संज्वलनचतुष्कस्य द्वात्रिंशद्वार्षिकस्थितिबन्ध उक्तः तथा चाऽत्र जयधवलास वेदचरिमसमए पुरिसवेद-चउसंजलरणाणं जहाकम सोलस-बत्तीसबस्समेत्तो जादो सेसाण पुण कम्माणमज्ज वि संखेज्जवस्ससहस्समेत्तो चेव दट्टन्वो त्ति भणिदं होदि । तथैव लब्धिसारेऽपि ... .... तच्चरिमें पुबंधो सोलसबस्माणि संजलजाण । तदुगाणं सेसाणं संखेज्जसहस कासाणि ॥ २६३ ।। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ] उपशमनाकरणम [ गाथा १७ प्राभूतचूर्णौ तु तदानीं संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धो द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाण उक्तः । तदनन्तरसमयेऽवेदकाद्धायाः प्रथमसमय इत्यर्थः,संज्वलनक्रोधादीनां स्थितिबन्धम्न्वन्तमुहर्तन्युनद्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणः कर्मप्रकृतिचूर्णावप्युक्तः, तद्यथा-"पढमसमय अवेयगस्स संजलणोणं हितिबंधो बत्तोस वरिसाणि अंतोमुहत्तणाणि,सेसाणं णाणावरणीयाणं संखेज्जाणि वाससहस्साणि हितिबंधो"इति । कषायप्राभूतचूर्णावप्यवेदकस्य प्रथमसमये संज्वलन चतुष्कस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहुर्तानो द्वात्रिंशद्वार्षिक उक्तः,नथा च तद्ग्रन्थः-"पढमसमयअवेदस्स संजलणाणं हिदि. बंधो बत्तीसवस्साणि अंतोमुहूत्तणाणि ।" इति । अवेदकप्रथम समये संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धस्याऽन्तमुहुर्तन्यूनद्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणत्वात्, तत्पूर्वसमये पुरुषवेदस्य बन्धविच्छेदसमय इति यावत् संज्वलनचतुष्कस्य द्वात्रिंशद्वार्षिकस्थितिबन्धः संभवत्येव । कर्मप्रकृतिचूणों तु संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धः संख्येयानि वर्षसहस्राण्युक्तः,तदानीं शेषकर्मणां स्थितिबन्धो न भावितः, तेनेयंसंभावनाऽस्माभिमपस्थीयते - संजलणाणंबंधो" इति शब्दात्परं बत्तोस वस्ताणि सेसाणं कम्माणं कम्माण" इत्येतावन्तः शब्दा अशुद्धिवशाल ताः संभवन्ति । अयं माव:पुरुषवेदस्य बन्धविच्छेदसमये शेषकर्मणां मंख्यातवार्षिकः संज्वलनचतुष्कस्य च स्थितिबन्धो द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणो घटते । यद्वापुरुषवेदस्य प्रथमस्थिति चरमसमये संख्येयवापिका स्थिति बद्ध्वाऽनन्तरसमये पूर्वतः संख्यातगुणहीन आरब्धः स्थितिबन्धोऽन्तमु हुतोनद्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणो वाच्य इति गणितशास्त्राऽपेक्षया तूमयमप्यविरूद्धम् । कर्मप्रकृतेरुमयटीकयोः पुरुषवेदस्य बन्धविच्छेदममये संज्वलनचतुष्कम्य बन्धः संख्येयसहस्रवार्षिक उक्तः । तथा पुरुषवेदे सर्वथोपशान्तेऽर्थादवेदकस्य द्वितीयावलिकाया द्विचरमसमये संज्वलन चतुष्कम्याऽन्तमुहूर्तानद्वात्रिंशद्वर्षप्रमाण :, स्थितिबन्ध उक्तः, तथा चाऽत्र मलयगिरिटीका- 'नतः पुरुषवेद उपशान्तः तदानीं च संज्वलनानां द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणोऽन्तहोंनः स्थितिबन्धो भवति ।" इति । तथैवोपाध्यायप्रवरैरप्युक्तम्। पञ्चसंग्रहेऽवेदकस्य द्वितीयाऽऽवलिकाया द्विचामसमये संज्वलनचतुष्कस्य द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणः स्थितिबन्ध उक्तः, न त्वन्तम होनद्व त्रिंशद्वर्षप्रमाणः । अक्षगणि न्वेवम् - "ताव कालेण चिय परिस उवसामए अवेदो सो बंधो बत्तीसमा संजलणियराणउ सहस्सा । मूलटीका “समरोनद्रयावलिकाकालेन यदद्धं दलं तत्तावन्मात्रेण काले. नावेदको भूवोपशमयति । पुरुषवेदो यदोपशान्तस्तदा संज्वलनानां द्वात्रिंशद्वार्षिको बन्धः,"इति । तट्टीका-.... तस्य पुवेदोपशमनकालस्य सवेदानिवृत्तिकरणस्प चरमसमये षोडशवर्षमात्रः पुवेद. स्थितिबन्ध संज्वलनचतुष्टस्य स्थितिबन्धो द्वात्रिंशद्वर्षप्रमितः। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास्यादिपुरुषवेदोपशमना ] चारित्र मोहोपशमनाधिकारः [ १६७ मलयगिरीयटीका- "ततः पुरुषवे दोपशान्तः तदानीं च संज्वलनानां द्वात्रिंशत्समा द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणः स्थितिबन्धः । इति । पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिता आवलिकाद्विके शेषे प्रागुक्तस्वरुप आगालो व्यवच्छिद्यते, इतः प्रभृति द्वितीयस्थितितः पुरुषवेदस्य दलिकं प्रथमस्थितौ नाऽऽगच्छति, उदीरणा तु भवत्येव । ५ आगालव्यवच्छेदसमय एव हास्पट्कस्य दलिकं पुरुषवेदे न संक्रमयति, किन्तु संज्वलनेषु । किमुक्तं भवति ? आवलिकाद्वये शेषे पुरुषवेदस्य सङ्क्रमाधारतालक्षणा पतद्ग्रहता व्यवच्छिद्यत इति कृत्वा ततः प्रभृति नोकषायमत्कं दलिकं पुरुषवेदे न संक्रमयति, किन्तु संज्वलनक्रोधादिषु । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ ' पुरिसवेधस्स पढमद्वितिते दुयावलियसेसाए आगालो वोच्छिन्नो अणंतरावलिगात्ती उदीरणा एन्ति ताहे उन्हें नोकसायाणं संछोभो स्थि पुरुषवेदे संजलणेसु संभंति । " इति । अत्र केचित्परिशङ्कन्ते - ननु प्रस्तुत आवलिकाद्वये शेषे आगाल विच्छेदसमये हास्यष्ट्कसत्कं दलिकं पुरुषवेदे न सङ्क्रमयतीत्युच्यते सङ्क्रमाऽधिकारे तु पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिति - सत्कयोः समयोनयोर्द्वयोरावलिकयोः सन्योः पुरुषवेद: पतद्ग्रहो न भवतीत्युक्तम्, अतो मिथो विरोध उत्तिष्ठति । अत्र परिहार उच्यते न कश्चिद्विरोधो विवक्षाभेदमात्रस्य सत्वात् तथाहि अत्राssaलिकाद्विके शेषे आगालस्य व्यवच्छेद उक्तः, तस्याऽयमाशय:- द्विचरमाssवलिकायाः प्रथमसमये हास्यषट्कं पुरुषवेदे सङ्क्रमयति, ततः परस्मिन्समये हास्यषट्कं पुरुषवेदे न सङ्क्रमयतीति सङ्क्रमाऽधिकारे तु हास्यपटुकस्य सङ्क्रमाऽभावमाश्रित्य पतद्ग्रहविच्छेद उक्तः, अतः समयISS लिकाद्विके शेषे नष्टता नाऽनुपपन्ना विवक्षा मेदस्य सत्त्वात् । अथवा निश्चयनयेन व्यवच्छिद्यमानो व्यवच्छिन्न उच्यते, व्यवहारनयेन तु समयोनावलिकाद्वये शेष आगालोव्यवछिद्यत उच्यते । तदेवमिह निश्चयनयेन संक्रमाधिकारे तु व्यवहारनयेन प्रोक्तत्वेन समयोनावलिकाद्वये पतद्ग्रहाभावे व्यवच्छिन्नो भवति तच्चं तु केवलिनो विदन्ति । ततः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितावावलिकायां शेषायामुदीरणा व्यवच्छिन्ना भवति । पुरूषवेदस्य प्रथम स्थितेश्वरम निषेकवेदिते एते पदार्थाः प्रवर्तन्ते । तद्यथा--- (१) हास्यषट्कं नपुंसकव वेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशान्तम् । (२) पुरुषवेदस्य चन्धविच्छेदः । (३) तदुदयविच्छेदश्व (४) समयोनाऽऽवलिकाद्विकेन बद्धदलिकं विना पुरुषवेदस्य दलं सर्वथोपशान्तम् । (५) क्रोध त्रिकोपशमनाप्रारम्भः । टिप्पणी एत्तो पाए पुरुषवेदरस गुणसेढि पि नारिथ ।" इति जयघवला । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ४. ___ समयोनाऽऽवलिकादयेन बद्धं पुरुषवेदस्य यदनुपशान्तं दलम्, तदप्यवेदकाद्धायां तावता कालेनोपशमयति । नन्वपगतवेदप्रथमसमयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धं दलिकं कथमुपशान्तं न भवतीति चेद् ? उच्यते, पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितौ तद्वन्धः प्रथमतः प्रवर्तते, यथा पूर्ववद्धदलमुपशमयति तथैव नूतनबद्धमपि दलमुपशमयति किन्तु कस्मिन्नपि नूतनबद्धे कर्मणि बन्धसमयादाराभ्याऽऽवलिकापर्यन्तं किमपि करणं न प्रवर्तते, बन्धाऽऽवलिका सकलकरणाऽयोग्येति कृत्वा । अतः पुरुषवेदे प्रथमस्थितिसत्काया द्विचरमाऽऽवलिकायाः प्रथमममये पुरुषवेदस्य बद्धंदलिकं बन्धसमयादारभ्याऽऽवलिकाचरमसमयपर्यन्तं तदवस्थं तिष्ठति, तदुपशमनं नास्तीत्यर्थः,सकलकरणा. ऽयोग्यत्वाद् ।बन्धाऽऽवलिकायां व्यतिक्रान्तायां तदनन्तरं घरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसमयात्प्रभृत्युपशमयितुमारमते, एकसमयेन बद्धंदलिकमुपशमयितुमावलिकाप्रमाणः कालो गच्छेदिति नियमाद् द्विचरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसमये पुरुषवेदस्य बद्धदलिकं चरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसम. यात्प्रभृति प्रतिसमयमुपशमयंवरमाऽऽवलिकाचरमसमये पर्वथोपशमयति, अर्थात्पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिचरमसमये द्विचरमाऽऽव लकाप्रथमममयेन बदलं सर्वथोपशम्यत एवं द्विचरमाऽऽव. लिकाया द्वितीयपमये बद्धपुरुावेदस्य दलिकं चरमाऽऽवलिकायाः प्रथमसमयं यावत्तदवस्थं तिष्ठति, तदुपशमनं नाऽस्ति । ततः परं चरमाऽऽवलिकाया द्वितीयसमयात्प्रभृति प्रतिसमयमुपशमय जन्तुश्वरमाऽऽवलिकायाश्चरमसमये सर्वथा नोपशमयांत, किन्त्वपगतवेदोदयेन जन्तुना प्रथम. समये द्विवरमाऽऽवलि काद्वितीयममयेन बद्ध दलिकं सर्वथोपशम्यते, नाऽ,गिति पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिनेर्द्वि नरमावलिकाप्रथमममयेन बद्धदलिकं प्रथमस्थिति चरमसमये हास्यषटकेन महोपशम्यते, किन्तु प्रथ पम्थितेचिरमाऽऽवलिकाद्वितीयादिसमयबद्ध दलिकं प्रथमस्थितेश्वरमसमये सर्वथा नोपशम्यते । एवं पुरुषवेदोदयचरमसमये वेदिते समयोनद्विचरमावलिकायां बद्ध संपूर्णश्चरमाऽऽवलिकाया बद्धं चेति सर्व मिलित्वा समयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धं दलिकमनुपशान्तमवतिष्ठते। अवेदको भूत्वा तावना कालेन तदपि सर्वथोपशमयनि । तत्र ममयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धम्य दलिकस्यावेदकाद्धायामुपशमनाविधिश्चाऽयम्-अवेदकाऽद्धायाः प्रथमसमये स्तोमुपशमयति, तते द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणम्.ततोऽपि तृतीय समयेऽसख्येयगुणम् । एवं प्रतिसमयमसंख्येय गुणका. रेण तावदुपशमयति, यावच्चरमसमयः, परप्रकृतिषु च प्रतिसमयं समयोनाऽऽवलिकाद्विकचरमसमयं यावद्यथाप्रवृत्तमंक्रमेण सङक्रमयति । सङ्क्रमक्रमश्चाऽयम् - अवेदकाऽद्धायाः प्रथमममये प्रभृतं मक्रमयति, ततो द्वितोयममये विशेषहीनं ततोऽपि तीयममये विशेषहीनम्, प्रतिसमयं विशेषहीनक्रमेण संज्वलनक्रोधादिषु सङ्क्रमयति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणौँ- "अवेयगो जं तं समऊण दुआवलिबंध अणुषसंतं तं अपवेज्जगुणसेढीए उवसामिज्जति, Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · पुरुषवेदनूतन दलिकोपशमना ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ १८६ परपगतिए पुण अह पवत्तस कमेण संकामेति पढमसमय अवेयगस्स संकमो बहुगो, से काले विसेसहीणी, एवं जाव उवसामणतो ।” इति अत्र परप्रकृतिषु प्रवर्तमानस्य यो विशेषहीनक्रम उक्तः स एकममयेन बद्धदलिकाऽपेक्षया ज्ञात। एतदुक्तं भवति तत्तत्समये बद्धदलिको बन्धसमयादारभ्याऽऽवलिकायां तदनन्तरसमये प्रभूतं दलिकं संक्रम रतितना द्वितीयसमये विशेषहीनम्, ततोऽपि तृतीयसमये विशेषहीनमेव तावद्वाच्यम्, यावत्तत्तत्समयबद्धदलिकस्य मङ्क्रमचरमसमयः । उतं च कषायमाभृतचूर्णौ"पढमसमयअवेद स स कामिज्जदि बहुअं से काले विसेसहीणं एस कमो एकसमयपिबद्धस्स चेव ।' इति । ननु विशेषहीनक्रमस्तत्तत्समयेन बद्धदलिकाऽपेक्षयोच्यते, अनेकसमयबनून दलिकाऽपेक्षया कथं नोच्यते १ इति चेत्, शृणु, दलिकं योगानुरूपं बध्यते, नानासमयाsपेक्षया योगोऽसंख्यात भागहीनः संख्यातगुणहीनोऽसंख्यातगुहीनो वा संभवति । एवं नानासमयाऽपेक्षया योगोऽसंख्यात भागवृद्धो संख्याभागवृद्धो वा संख्यातगुणवृद्धो वाऽसंख्यातगुण वृद्धो वा संभवति । योगस्य वृद्धिनिर्वा चतुर्धा संभवति, तेन चन्धद्वारेण दलिकमपि चतुर्विधया वृद्धया वा हान्या वा संनीयते । अतो भिन्नभिन्नममयद्धदलिकस्यैव समयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धदलिकस्य यः पूर्वपूर्वत संख्यातगुण उपशमनाक्रम उक्तः सोऽपि तत्तत्समयेन चद्धदलिकस्यैव वाच्यः । दुक्तं नलिकाद्वयेन बद्धं नूतनदलिकमवेदकाऽद्धायां तावता कालेनोपशान्तं भवति तत्र पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितेद्वि नरमाऽऽवलिका सत्कद्वितीयसमयेन बद्धदलिकं बन्धावलिकायाव्यतिक्रान्तायां चरमावलिकाया द्वितीयसमये कियच्चिद् दलिकमुपशमयति, एवं तृतीयसमये कतिपयचिद्दल मुपशमयति । एवमवेदकाद्ध याः प्रथमसमये सर्वथोपशमयति एक समयेनव द्धस्य दलिकस्योपशमनाय कालस्यावलिका प्रमाण वनियमात् । तथैव प्रथमस्थितेद्विचरमावलिकायारतुतीयसमयेन बद्धदलिकं तच्चरमावलिकायास्तृतीयममये कियचिहलिकमुपशमयति कतिपयचिद्दलिक तच्चतुर्थममय उपनयति एवं क्रमेगाऽवेदका या द्वितीयसमरे सर्वथोपशमयति । पूर्ववत्प्रथमास्थनेर्द्विचरमावलिकायाश्चतुर्थममयेन बद्धाद्दलिका त्तच्चरमाऽऽवलिकायाश्चतुर्थसमयात्प्रभृति दलिकमुपशमयितुमारभते, अवेदक द्वायाश्च तृतीयसमये सर्वथोपशमयति । एवं क्रमेण तत्तत्सम बदलिकम्यापशमनविधिर्द्रष्टव्यः । इदमुक्तं भवति - प्रथमस्थितेर्द्वि चरमावलिका 5 तथैव चोक्तं धवलायां लब्धिसारे - “पढमसमयअवेदेणं संकामिज्ज माणपदेसग्गं बहुअं से काले विसेसहीणं एस कमो जाव सव्ववसंतं इदि । जोगसमयपबद्धमधिकिञ्च एवं उत्तं जोगापत्ताणं णाणासमयबद्धाणं उत्त कमाणुववत्तीदो" इतिधवलाकारः । प्रथ लब्धिसारः - " तथा पुंवेदनवकबंधस्यैकसमय प्रबद्धद्रव्यं-प्रगतवेद" इति । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० ] [ गाथा ४७ याश्रमममये बद्धं दलिकं तच्चरमावलिकासत्कचरमसमय उपशमयितुमारभते, अवेदकाद्धायाश्च प्रथमावलिका सत्कद्वि चरमममये सर्व दलमुपशमयति । एवं पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितेश्वरमावलिकायाः प्रथमसमयेन बद्धस्य दलिकस्योपशमनारम्भोऽवेदकाद्धायाः प्रथमसमये जातः । अवेदकाऽद्धायाश्च प्रथमावलिका पर्यवसाने सर्वदमुपशान्तं जातम् । पुरुषवेदस्य प्रथम स्थिते वरमावलिकाया द्वितीयेन समयेन बद्धस्य दलिकस्योपशमनाप्रारम्भोऽवेदकाद्धाया द्वितीयममये भवति । अवेदका - द्वायाः प्रथमसमये तु तदुपशमनं नाऽस्ति, बन्धावलिकाया व्यतिक्रान्तत्वाऽभावात् तेनाऽवेदका द्वायाद्वितीयसमये तदुपशमनारम्भो भवति, द्वितीयावलिकायाश्च प्रथमसमये सर्व नद्दलिकं सर्वात्मनोपशमयति, एतेन पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितेर्द्विचरमावलिकाया द्वितीयसमयात्प्रभृति तच्चरमावलिका सत्कप्रथमसमयपर्यन्तं विद्यमान समयेर्वद्धा दलिका त्कियच्चिद्दलिकमवेदकाद्धायाः प्रथमसमय उपशमनायां वर्तते, ततः परेण प्रथमस्थितिचरमालिकाद्वितीयादिरूपेण समयेन बद्ध किमपि दलिकं तस्मिन्समये (अवेदकाद्धा सत्कप्रथमममये) उपशमनाय न वर्तते, एवमवेदकाद्वाया प्रथमसमय आवलिका प्रमाणसमयैर्वद्धा इलिकात्कियच्चिहकिमुपशान्तं भवति । तथैवाऽवेदकाद्रायाद्वितीयसमयेऽपि प्रथमस्थितेर्द्विचरमावलिकासत्व तृतीयसमयात्प्रभृति चरमावलिकासत्क द्वितीयसमयपर्यवसानैः समयै बदलिका त्कियच्चिद्दलिकमुपशमयति । ततः परेण समयेन बद्धदलिकान किमपि दलमुपशमयति, अतोऽवेदकाद्धाया द्वितीयसमये यदुपशमयति, तद्दलमावलिकासमयबद्धदलिकस्य किच्चिद्भागप्रमाणम् । एवमवेदकाद्वायाः प्रथमावलिकायाश्चरमसमयपर्यन्तमावलिकासमयैर्बद्धदलिकस्य क्रियच्चिद्भागप्रमाणमुपशमयति । किन्त्ववेदकाद्वायाद्वितीयावलकायाः प्रथमसमये समयोनाssवलिकया बद्धद लकस्य किच्चिद्भागप्रमाण दलमुपशमयति, न त्वावलिकया बद्धदलिकम् । कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उयते - प्रथम स्थितेश्वरमावलिका सत्क प्रथमसमयेन बद्धदलिकमवेद काऽद्धायाः प्रथमाऽऽवलिकायाश्वरमसमयये शेषं सर्व सर्वात्मनोपशमयति, न कियच्चिदनुपशान्तं तिष्ठति, तेन केवलं समयोनाऽऽवलिकया बद्धदलिकतः कियच्चिद्द वेदकाऽद्धायाद्वितीयावलिकायाः प्रथमसमय उपशम्यते । एवमवेदकाऽद्धाया द्वितीयावलिकाया द्वितीयसमये द्विसमयन्यूनावलिक बद्धदलिकतः कियच्चिद्दलमुपशम्यते । एवमेवाऽवेदका इंद्रायाद्वितीयावलिकाया द्विचरमसमय एकसमयमात्रेण बद्धदलिकतोऽवशेषं दलं सर्वथोपशम्यति तस्मिन्समये पुरुषवेद: सर्वथोपशम्यते । अथासत्कल्पनयोपयुक्तं परिभाष्यते, असत्कल्पनया स्थापना चेत्थम् - १ उपशमनाकरण १७. २७. ३उ. ४उ ५५ ६उ. उ. ८उ. १प्रा. प्रा. ३प्रा. ४ प्रा. ५प्रा. ६प्रा ८ € १० प्रा. प्रा. ७ २ ३ ૪ ५ ६ ११ १२ १३ १४ १५ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ गाथा-४८ ____संकेतसूचिः-(१) असत्कल्पनया ४ समया: आवलिका । (२) प्रथमसमयतश्चतुर्थसमयं यावत् पुरुषवेवप्रथमस्थितेद्विचरमावलिका, (३) पञ्चमसमयतोऽष्टमं यावत् प्रथमस्थितिघरमावलिका, (४) नवमसमयतो द्वादशं यावदवेदकप्रथमावलिका (५) त्रयोदशसमयतोऽवेदकद्वितीयावलिका। (६) प्रा उपशमनाप्रारंम । उ-उपशमना । प्रथमसमयेन बन्धद्वारेण सङ्क्रमणद्वारेण वाऽऽगतं दलिकं पञ्चमसमय उपशमयितुमारभते, अष्टमसमये च सर्वथोपशमयति,द्वितीयसमयेन बद्धं दलिकं षष्ठसमय उपशमयितुमारभते,नवमसमये च सर्वथोपशमयति, तृतीयसमयेन बद्धं दलिकं सप्तमसमय उपशममितुमारभते दशमे च समये पर्वथोपशमयति, चतुर्थ समयेन बद्धं दालिकमष्टमसमय उपशमयितुमारभत एकादशे च सबथोपशमयनि, पञ्चमसमयेन बद्धं दलिकं नमसमय उपशमयितुमारभते द्वादशे च समये सर्वथोपशमयति, पष्ठसमयेन बद्धं दलिकंदशमसमय उपशमयितुमारभते त्रयोदशे च समये सर्वथोपशमयति । मप्तमसमयेन बद्ध दलिकमेकादशे समय उपशमयितुमारभते चतुर्दशे च समये सर्वथोपशमयति । ____ अष्टमसमयेन पुरुषवेदोदय चरमममयेन बद्धं दलिक द्वादशे समय उपशमयितुमारभते पश्चदशे च समये सर्वथोपशमयति । अवेदकाऽद्धायाः प्रथमावलिकासत्कप्रथमसमय अर्थानवमसमये द्वितीयसमयात्प्रभति पञ्चमसमयपयन्तः समयेबद्धदलिकमुपशमयति । अवेदकाऽद्धायाः प्रथमावलिकामत्कद्वितीयममय अर्थादशमममये तृतीयपमयात्प्रभृति षष्ठममयपर्यन्तैः समयैर्वद्धदलिकमु. पशम यति । अवेदकाद्धायाः प्रथमावलिकासकतनीयसमयेऽर्थादेकाशसमये चतुर्थसमयात्प्रभ ति सप्तमममयपयन्तैः समयबद्ध दलिक मुपशमयति । अवेदकाद्धायाः प्रथमावलिकासन्कचतुर्थसमयेऽथोद् द्वादशपमये पश्चमममयात्प्रभूत्यष्टम समयपर्यन्तैस्समयबद्धदलिकमुपशमयति । अवेदकाद्धाया द्वितीयावलिकामत्कप्रथमसमयेऽर्थात् त्रयोदशसमये षष्ठसमयादारभ्याऽष्टमसमयपर्यन्तैः समयबदलिकापशमयति । अष्टमसम यात्परतो बन्धाऽभावात् अवेदकाऽद्धाया द्वितीयावलिकासत्कद्वितीयममयेऽर्थाच्चतुर्दशसमये सप्तमसम यात्प्रभत्यष्टमसमयपयन्तैस्समयैर्वद्धदलिकमुपशमयति । अवेदकाऽद्भाया द्वितीयावलिकासत्कद्वि चरमसमयेऽर्थात्पश्चदशसमयेऽष्टमसमयेन बद्धदलिकमुपशमयति । ननु यथा पुरुषवंदस्य ममयोनाऽऽवलिकाद्वयेन नतनबद्धदलिकमनुपशान्तमवतिष्ठते, तथैव समयोनावलिकाद्वयेन पुरुपवे दे हास्य षटकरूपस्वजातीयपरप्रकृतेः सङ्क्रमत आगतं दलिकमपि कथमनुपशान्तं न तिष्ठति, इति चेत् ? उच्यते-पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिता आवलिकाद्वये शेषे तत्पतद्ग्रहनाया नष्टत्वात्पुरुषवेदम्य पतद्ग्रहतायां नष्टायां सत्यां ततः प्रभृति तस्मिन्संक्रमतो दलिकं नाग छनीति कृत्वा पुरुषवेदोदय वरमसमये समयोनाऽऽवलिकाद्वयेन बद्धमेव दलिकमनुपशान्तं न तिष्ठति सङ्क्रमत आगतम्, इत्यलं प्रपञ्चेन । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ४८ पुरूपवेदस्योपशमनामभिधाय क्रोधस्योपशमनां प्रदिदर्शयिषुराह तिविहमवे यो कोहं कमेण सेसे वि तिविहतिविहे वि । पुरिससमा मंजलणा पढमठिई थालिगा अहिगा ॥४८॥ त्रिविधमवेदक: क्रोधं क्रमेण शेषानपि त्रिविधत्रिविध नपि। पुरुषसमाः संज्वलना प्रथमस्थितिरावलिका माधिका ।४८॥ इति पदसंस्कारः । यस्मिन्समये पुरुषवेदस्याऽवेदको जातः, तस्मादेव समयादारभ्याऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वल नक्रोधान् युगपदुपशमयितुमारमते, पुरुषवेदम्य प्रथ मस्थितितः संज्वलनक्रोधसत्क याः प्रथमस्थितेविशेषाऽधिकत्वात्पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिनो समाप्तायामपि संज्वलनक्रोधम्य प्रथमस्थि तिरवशिष्यते । तस्याः प्रथमममयात्प्रभृति एते पदार्था भवन्ति(1) क्रोधत्रिकोपशामनाप्नारम्भः। (२) ममयोनाऽऽवलिकाद्वियेन पुरुषवेदस्य बद्धदलिक यदनुपशान्तं तिष्ठनि, तस्योपशमनासक्रमौ भवतः, उपशमनाविधेः मङ्क मविधेश्च प्रागुक्तत्वेन पिष्टपेषणप्रसंगान पुनरत्राऽभिधीयते । (३) अभिनवस्थितिवन्धरसघाताश्चारभ्येते, स्थितिबन्ध पूर्वोक्तः । तद्यथा-अपगतवेदाद्धायाः प्रथमममये संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूतेन्यूनद्वात्रिंशद्वार्षिक, मोऽपि पूर्वपूर्वतः संख्ये. य भागहीनो भवति, शेषकर्मणां च संख्येयसहस्रवार्षिकः पूर्वपूर्व नश्व संख्येयगुणहीनो भवति । (४) अल्पबहुत्वमपि पूर्ववद् द्रष्टव्यम्,तथाहि-मोहनीयस्य ग्थितिबन्धः सर्वाऽल्पः ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां मंख्यातगुणः स्वस्थाने मिथस्तुल्यः, नतोऽपि नामगोत्रयोः संख्यातगुणः, ततो वेदनीयस्य विशेषाऽधिकः । पुरुषवेदोदयस्याऽपगमनात्सम योनाऽऽवलिकाद्वये गते सति पुरुषवेदः सर्वथोपशान्तो भवति । यावत्मज्वलनकोधस्य प्रथमस्थिता आवलिकात्रिकं शेपं तावदप्रत्याख्यानावरणप्रत्यारव्यानावग्णय लिक संज्वलन क्रोधे पंक्रमयति । ततः परं मंज्वलन क्रोधस्य प्रथमस्थितौ समयोनाऽऽवलिकात्रिके शेपे सति संज्वलनकोधस्य पतद्ग्रहता नश्यति । ततः प्रभ लब्धिसारे संज्वलन कोधस्य पतद्ग्रहतायामपगतायामप्रत्यारव्यानावरणप्रत्याख्यानाव. णयोलिक. संज्वलनमाने एकालिकापयन्तं संक्रमयति."अपगतवदे प्रथमसमयादारभ्य संज्वलनकोधप्रथमस्थिति। वलिकयावशेषा यावद्भवति तावदप्रत्यारव्यानप्रत्यारव्यानक्रोधहयद्रव्यगुणसङ्क्रमेणगृहीत्वा सम्वलनतो. घे संक्रमयति । तत्र प्रथमासक्रमावलिद्वितयोपशमनावलिस्तृतीयोच्छिष्टावलिरिति व्यपदिश्यते । तत:परं तद्व्यं सक्रमावलिचरमयपर्यन्तं सज्वलनमाने संक्रमय ति" इति यदुक्तं तन्न सम्यग्हेतुपूर्व कमवबुध्यते, प्रद्यप्रभृत्यावलिकाद्विकं यावदप्रत्याख्यानावरणप्रत्यारध्यानावरणकषायाणामनुपशान्तत्वेनाऽऽवल का. द्विकपर्यन्तं तयोः सहक्रमसंभवात् । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजन. क्रोधोपशमना ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ १९३ याप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणयोदलिकंतत्र न सङ्क्रमयति, किन्तु संज्वलनमानादावित्यर्थः। नतः संज्वलनक्रोधस्य द्वयावलिकाशेषायां संज्वलनक्रोधस्याऽऽगालो व्यवच्छिद्यते, ततः परं द्विनीयस्थितेदलानि प्रथमस्थितो नागच्छन्तीत्यर्थः, तदानीं प्रत्यागालव्यवच्छेदोऽपि कषाय प्राभूतचूर्णायुक्तः। उदीरणा तु प्रवर्तते । साऽपि तावत्प्रवर्तते यावदेकालिकाशेषा भवति, उदीरणावलि कायाश्चरमसमय इमे वक्ष्यमाणाः पदार्थाः प्रवर्तन्ते (१) संज्वल नक्रोधादिचतुष्कस्य स्थितिबन्धश्चातुर्मासिकश्शेषकर्मणां च संरव्यातवर्षसहस्र. प्रमितः अल्पबहुत्वं तु पूर्ववद् द्रष्टव्यम् । (२) संज्वलन क्रोधस्य जघन्यस्थित्युदीरणा तथा तदुदयस्य चरमसमयः । उक्तं च कमप्रकृतिचूणों - - जाव आवलिया पहिआवलिगसेसा कोहसंजलणाए, ताहे वितिय. द्वितितो आगालो वोच्छिन्ना, पडिआवलिगातो उदीरणा एति, कोहसंजलणाए पहिआवलिगात एगंमि समते सेसे कोहसंजलणाए जहनिगा हिति उदोरणा "इति । ततोऽनन्तरसमये प्रथमास्थ तरेकावलिकाशेषेऽमृनि वक्ष्यमाणानि वस्तूनि सञ्जायन्ते (१) अप्रत्याख्यानप्रत्यख्यानावरणक्रोधदयस्य सर्वथोपशमः । (२) प्रथमस्थितेरेकावलिको समायोनऽऽवलिकाद्विकवद्धं च दलिक मुक्त्वा संज्वल नक्रोधस्य शेष मन्यत्ममुपशान्तम् । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-"तमि समते चत्तारि मासा हिधो संजलणाणं सेसाणं कम्माणं परिससहस्साणि हितिबंधो । पडिओवलियवोच्लेदसमये चेव दो कोहा उवसंता। कोहसंजलणाए पढमाहितिते आवलियं समऊण दुआवलियं बई च सेसं सव्वं उवसंतं दलिपं।" इति । (३) संज्वलनबन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नाः,यस्मिन्समय चरमबन्धः प्रवर्तते, व्यवहारनयेन तदनन्तरसमयस्तविच्छेदस्याऽत्र विवक्षितः, तेन चरमबन्धस्याऽनन्तरसमये बन्धविच्छेद उक्तः। एवमुदयोदीरणागालपतद्ग्रहादिष्वप्यवगन्तव्यम् ।। ननु कर्मप्रकृतिचूर्णी बन्धादीनां विच्छेदः संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थिता आवलिकायां शेषायामुक्तः,तथा च तद्ग्रन्थः- "कोहस्स पाहमष्ठितितेआवलिगावसेसाते, ताहे कोहस्स बंधो उदतो उदोरणा य तिन्नि य वि वोच्छिन्नाणि" इति कषायप्राभूतचूौँ तु प्रथमस्थिते समयोनावलिकाशेषे संज्वल नक्रोधस्य बन्धोदयौ व्यवच्छिद्येत इत्युक्तम्, तथा च तद्ग्रन्थः-"जाधे कोहसंजलणस्स पढमहिदिए समयुणावलिया सेसा ताधे चेव कोहसंजलणस्स बधादया • जयधवलायामत्र गुणश्रेणिविच्छेदोऽपि कथितस्तथा च तद्ग्रन्थः- 'पागालपडिमागालवोच्छेदे संजादे तदोपहुडि कोहसंजलणस्स पत्थि गुणसेमिनिस्खेवो।” (१८५१) Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम १६४ ] [ गाथा-४८ वोच्छिण्णा" इत्युभयोः परस्परं विरोधः स्यादिति चेत् ? उच्यते, यस्मिन्समये संज्वलनक्रोधस्यबन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिद्यन्ते, तस्मिन्न समये द्वितीयस्थितितो मानस्य दलिकं गृहीत्वा तत्तत्प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । उक्तं च वर्मप्रकृतिचूौँ-"जाहे चेव कोहस्स बंधोउदो उदीरणा च वोच्छन्नाणि, ताहे चेव माणस्स हितिबीयिहितितो दलियं घेत्तण करोति पढमसमयवेयगो पढमहितिंकरमाणो" इत्यादि संज्वलनमानस्य वेद्यमात्वात् संज्वलनक्रोधस्योदयसमयगतदलिकं संज्वलनम ने स्तिबुकसङ्क्रमेण सङ्क्रान्तं भवति, अत एव समयोनाऽऽवलिकागतनिषेकेषु स्वस्वरूपेण तदलिकमवतिष्ठते । एकनिषेकगतसंक्रान्तसंज्वलनक्रोधदलिकस्य मानत्वेन विवक्षामनाश्रित्य कर्म प्रकृतिचूर्णिकारैरुक्तम, तद्विवक्षा त्याश्रित्य कषायामाभृतर्णिकारैः समयोनावलिकाशेषे बन्धोदयोदीरणा व्यवन्छिद्यन्त इत्युक्तम्, अतो न कश्चित्पदार्थभेदः, विवक्षाभेदस्य संभवात् । तथा च कर्मप्रकृतिचूर्णी प्रत्यावलिकाया विच्छेदकाले समयोनावलिकाद्वयेन संज्वलनक्रोधस्य बद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठतीत्युक्तम् , कषायप्राभृतचूर्णिकाराणां तु द्विसमयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनकोधस्य नूतनबद्धपलिकमनुपशान्तं तिष्ठतीत्यभिप्रायः, तथा च तद्ग्रन्थः-पडिआवलिया उदयावलियं पविसमणा पविट्ठा । ताधे चेव कोहसंजलणे दो आवलियबंधे दुसमयूणे मोत्तण सेसा तिविहा कोधपदेसा उवसामिजमाणा उवसंता" इति । अत्राऽपि पूर्ववद्विवक्षाभेदोऽस्ति, न पदार्थभेदः । तद्यथा-प्रन्यावलिकायाः प्रथमसमये प्रवृत्तोपशमनक्रियातः परं संज्वलनक्रोधस्य द्विसमयोनद्वयावलिकाबद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति । तस्मिन्समये प्रवृत्तोपशमनक्रियाया विवक्षामना. श्रित्य समयोनावलिकाद्विकेनबद्धं दलिकमनुपशान्तं तिष्ठतीत्युच्यते। संज्वलनमानोदये वर्तमानस्सन् संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थितेः शेषावलिकां संज्वलनमाने स्तिवुकसङ्क्रमेण सङ्क्रमय्य वेदयति तथा च ममयोनावलिकाद्विकेन बद्धदलिकमपि पुरुषवेदोक्तप्रकारेण तावता कालेनोपशमयति सङ्क्रमय त च, तथाऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनमानोपशमनायाः प्रारम्भं करोति । 'कमेण इत्यादि, अनेनैव क्रमेण शेषानपि कषायान त्रिविधान् त्रिप्रकारान् मानमायालो. मरूपान, पुनः कथं भूतान् ? हत्याह- त्रिविधान् प्रत्येक त्रिप्रकारान् । तथाहि- अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदात् त्रिविधो मानः, एवं मायालोभावपि, तानुपशमयति । तत्र संज्वलनोपशमना पुरुषवेदसमाऽवसेया, अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरणमानादीनां चोपश कुद प्रत्थ उच्छिद्रमावलियाए समयूणत्तमिदि णासंकणिज्जं, तम्मि चेव समये उदयवोच्छेदणवसेणपढमणिसेगट्टिदिए माणसंजलणोदयम्मि स्थिक्कसकमेण संकमनाए तिस्से तहा भावोवल मादो ( जयधबला पृष्ठ१८५३) Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 संज्व मानोपशमना ] मनापणोपाय समाना, अप्रत्याख्यान वरणप्रत्याख्यानावरणक्रोधसमानावा, नवरं संज्वलनानां प्रथमस्थितावेकावलिका पुरुषवेदाऽपेक्षयाऽवशिष्टा द्रष्टव्या । तथाहि पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिः पट्सु नोकषायेषु सर्वात्मना शान्तेष्वेकमयो भवति स्म तेषूपशान्तेषु पुनः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिर्न तिष्ठति । अत्राऽनुपशान्ताऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमानादिषु पुनरुपशान्तेषु संज्वलन मानादीनां प्रथम स्थितिरेकावलिका प्रमाणाऽवशिष्यत इतीदमतिसंक्षेपेण प्रोक्तमित्यतः विस्तरतः प्रदर्श्यते er मोहोपशमनाधिकारः संज्वलनमा नोपशमना - ( १ ) संज्वलन क्रोधस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छेदसमय एव संज्वलननमानस्य द्वितीयस्थितेः सकाशाद्दलिकं समाकृष्य प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । अत्रैकस्मिन्नेव समये द्वितीय स्थितितो दलिकं समाकृष्य प्रथमस्थितेः रचनं निषेकस्य च वेदनं युगपत्प्रवर्तते । तत्र दलरचना चेत्थम् - प्रथमस्थितेरुदयसमये स्तोकं दलं रचयति, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं प्रक्षिपति, ततो भूयोऽसंख्येयगुणं तृतीयममये प्रक्षिपति, एवं तावद्वाच्यम् यावत्प्रथमस्थितेश्वरमसमयः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णो जाहे चेव कोहरस बंधो उदओ उदीरणा य वोच्छिन्नाणि ताहे चेव माणस्स पढमट्टितिं बीयट्टित्तितो दलियं घेत्तूण करेति, पढम. समये वेगो पढमट्ठितिं करेमाणो पढमसमते उदतं पदेसग्गं थोवं देति, से काले असंखेज गुणाए सेटीए देति, जाव पढमट्ठितिए चरमसमतो ति ।" इति । यदोपरितनस्थितितो दलमाकृष्य प्रथमस्थितिं रचयति, तदा द्वितीयस्थितावपि दलप्रक्षेपो भवति, प्रथमस्थितेवरमसमये निक्षिप्यमाणदलिकतो द्वितीयस्थितेः प्रथमनिषेकेऽसंख्येयगुणहीनं दलं निक्षिपति, तदुपरितननिषेषु विशेषहीनक्रमेण प्रतिपतीति कपायाभूत चूर्णिकारः । अक्षराणि त्वेवम् फ्र १६५ க - द्वितीयस्थितेः प्रथम निषेकेऽसंख्ये यगुणहीन निक्षेप इदं कारणं लब्धिसार उक्तम् — सत्तागत दलिकमपकृष्टभागहारेण विभज्य तदेकभागं भूयः पल्योपमाऽसंख्यात भागेन भक्त्वैकमागमुदयसमयादारभ्य प्रथम स्थितेश्वरमसमयपर्यन्तं प्रक्षिप्य बहुभागान् द्वितीयस्थितेराद्यनिषेकात्प्रभृति तावत्प्रक्षिपति यावदतिस्थापना प्राप्ता भवति; एवं प्रथम स्थितेश्वर मनिषेके निक्षिप्यमाणदलिकतोऽसंख्येयगुहीनं दलं द्वितीय स्थितेः प्रथमनिषेके निक्षिप्यते कुत: ? इति चेद् ? उच्यते, प्रथमस्थितेश्वरम निषेक उत्कीर्णदलिकसत्कपल्योपमाऽसंख्येयतमभागप्रमाणदलिकम संख्येयसमय प्रबद्धप्रमाणं निक्षिप्यते, द्वितीयस्थितेः प्रथमनिषेकेतूत्कीर्णदलिक सत्काऽसंख्यातबहुभागगतदलिकं द्वयर्धगुणहानिभागहारेण विभज्य तदेकभागमेकसमयप्रबद्धाऽसंख्येय भागमात्रं निक्षिपतीति प्रथम स्थितेश्वरम निषेके निक्षिप्यमाणदलिकतोऽसंख्येयगुणहीनं दलं द्वितीयस्थितेः प्रथमनिषेके निक्षिप्यते द्वितीय स्थितेः प्रथमनिषकात्परं विशेषहीन क्रमेण तावत्प्रक्षिपति यावदतिस्थापना प्राप्ता भवति मानस्य प्रथमस्थिति कुर्वन् प्रथमसमय उपर्युक्तक्रमेण बलिकं निक्षिपति, एवं द्वितीयादिसमयेष्वपि निक्षेपक्रमो वाच्यः, तदानीं च कर्मप्रकृतिचूण कषायप्राभृतिचूणच निक्षपेक्रमो नोक्तः । लब्धिसाराऽक्षराणि त्वेवम् --- Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ४८ "विदिय हिदिए जा आदिट्ठीदी तिस्से असंखेज्जणं होणं तदो विसेसहीणं चेव"इति (२) संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितिप्रथमसमय एवाऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्व. लनमानत्रिकं युगपदुपशमयितुमारमते । (३) तस्मिन्नेव समये संज्वलनमानादित्रिकस्य स्थितिवन्धोऽन्तर्मुहुर्तोन चातुर्मासिकः शेषकर्मणां तु ज्ञानावरणीयादीनां संख्येयवर्षसहस्रप्रमाणः, अल्पबहुत्वं तु पूर्ववज्ज्ञाव्यम् । (४। संज्वलनक्रोधस्याऽवशिष्टाऽऽवलिको संज्वलनमाने स्तिबुकसङ्क्रमेण सङ्क्रमयति । (५)तदानीं समयोनाऽऽवलिकाद्वयेन सज्वलनक्रोधस्य बद्धदलिकं पुरुषवेदोक्तप्रकारेण तावता कालेन सङ्कमयत्युपशमयति च यावत्संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितावावलिकात्रिक शेषं भवति तावद. प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणयोर्दलिक संज्वलनमानेसंक्रमयति, ततःपरं प्रथमस्थिती समयोनावलि. कात्रिके शेषे सति संज्वलनमानस्य पतद्ग्रहताया अपगमा तत्र न प्रमिपति,किन्तु संज्वलनमायालोभयोः सङ्क्रमयति । संचलनमानस्य प्रथमस्थिता आलिकाद्विके शेषे पूर्वोक्तस्वरूपागालो व्यवच्छिद्यते। तदानीं च कषायप्राभतचूर्णिकारमते प्रत्यागालोऽपि व्यवच्छिद्यते, उदीरणा तु तावत्प्रवर्तते सेकाले माणस्स य पढमट्टिदिकारवेदगो होदि । पढमट्टिदिम्मि दव्वं असंखगुणियक्कमे देदि ।। २७२ ।। पढदिदिसोसादो बिदिया दिम्ह य प्रसंखगुणहीणं । ततो विसेसहोणं जाव अइच्छावणमपत्तं ।। २७३ ।। संस्कृतटोका-कोषत्रयोपशम नाऽनन्तरसमयेऽयमनिवृत्तिकर गसंयतः संज्वलनमानस्याऽन्तमुहूर्तमात्रप्रथमस्थितेः कारको वेदकश्च भवति तद्यथा-संज्वलनमानस्य द्वितीयस्थितौ स्थितिसत्त्वद्रव्यावस्मास- अपकर्षणभागहारखण्डितकभागं गहीत्वा पुन:पल्याऽसंख्यातभागेन खण्डयित्वा तदेकभागमुदया वलिप्रथमसमयादारभ्येदानी क्रियमाणप्रथम स्थितिचरमसमयपर्यन्तं 'प्रक्षेपयोग' इत्यादिना प्रतिनिपेके. ऽसंख्यातगुणितक्रमेण निक्षिपति । पुन पल्याऽसंख्यातबहुभागं द्वितीय स्थिती 'दिवडगुणहाणिभाजिदे पढमा' इत्पनेन विशेषहीनक्रमेण उपर्यतिस्थापनावलि मुक्त्वा निक्षिपति पुनद्वितीयादिसमयेष्वपि प्रथमसमयाद. पकृष्टद्रव्यादसंख्येयगुणितक्रमेण द्रव्यमपकृष्य प्रागुक्तप्रकारेण प्रथम द्वितोयस्थित्योनिक्षिपति । प्रतिसमयं प्रथम स्थितिप्रथमनिषेक मेकैक मृदयमानमन भवति च ।। २७२ ।। प्रथमस्थितिचरमसमयानाक्षप्तद्र द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेके द्रव्यमसंख्यातगुणहीनम, प्रथमस्थितिशीपंद्रव्यस्य पल्य मागहार भूताऽसंख्यातबाहुल्याद्विशेषादसंरू समयबद्धमात्रत्वात् । द्वितीय स्थितिप्रथम निक्षेपनिक्षिप्तद्रव्यस्य च द्वयर्धगुणहान्य. पकर्षणभाहारभक्तत्वे कामय प्रबद्धःऽसंख्येयभागमात्रत्वात् । ततो द्वितोयस्थितेः प्रथमनिषकद्रव्या. दुरितननिषेकेषु विशेषहीनक्रमेणाऽतिस्थापनावलेरधो निक्षप्तद्रव्यं विशेषनोऽसंख्येयगुणहीन मेव । प्रत्राऽपि सज्वलनमायायामप्रत्य ख्यानावरणप्रत्याख्य नावरणमानद्विकमावलियापर्यन्तमेव सड़क्र. मर्यात इति लब्धिसार उक्तम, तद्य या "संज्वलनमानप्रथम तो सावदार्शल त्रयमवशिष्यते तावदप्रत्या. ध्यान प्रत्याख्यान वर,मानदयद्रव्यं संज्वलनमान एव पूर्वोक्तविधानेन सङक्रमावलिकाचरमसमयपर्यन्तं तद्रव्यं संज्वलनमायादिद्विक एव सङक्रामति (लब्धिमार०२७५) । "इति । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्व. मानमायोपशमना ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ १९७ यावदावलिका शेषा भवति, उदीरणालिकायाश्चरमसमये संज्वलनमानस्य जघन्यस्थित्युदीरणा तदुदयस्य च चरमसमयः, तत ऊर्धमनन्तरसमये प्रथमस्थिता आवलिकाकाले शेष इत्यर्थः एतानि वस्तूनि प्रवर्तन्ते (१) संज्वलनमानस्य बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्ना भवन्ति । (२) तदानीं चाऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमाद्विकमुपशान्तं भवति । (३) प्रथम स्थितिसत्काऽवशिष्टाऽऽवलिको समयोनालिकाद्विकेन च बद्धं दलिकं विमुच्य मर्वमन्यद् दलिकं संज्वलनमानस्योपशान्तं भवति । ____मायोदये वर्तमानः सन् संगालनमानस्थाऽवशिष्टावलिकां स्तिबुकसङ्क्रमेण संक्रमय्य वेदयति तथा समयोनावलिकाद्विकन पद्धदलिकमपि तावता कालेन पुरुषवेदोक्तक्रमेण संक्रमयति उपशमयति च । कषायप्राभूतचूर्णा अ वलिकास्थाने समयोनावलिकायां शेषायां संज्वलनमानम्य बन्धोदयौ व्यवच्छिद्यते तथा द्विसमयोनालिकाद्विकेन संज्वलनमानस्य बद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठनीत्युक्तम् । तच पूर्ववद्भावनीयम् । संज्वलनमायोपशमना-यस्मिन्समधे सज्वलनमानस्य बन्धोदयोदीरणा विच्छिद्यन्ते, तस्मिन्नेव . समय एते पदार्थाः प्रवर्तन्ते(१) संज्वलनमायाया द्वितीयस्थितितो दलिकं ममाकृष्य संज्वलनमानवत्प्रथमस्थिति करोति । उवतं च कर्मप्रकृतिचूर्णी "दलियनिक्वेवो जहा भाणस्स।" (२) तदानीं च मायात्रिकं युगपदुपशमयितुमारभते । (३) तथा संज्वलनमायालोमयोरन्तमुहतोनी द्वैमासिकः स्थितिबन्धश्शेषकर्मणां च संख्येयानि वर्षाणि । (४) तत्समयादेव मंज्वलनमानस्याऽवशिष्टावलिकामात्र स्थिति संज्वलनमायायां स्तिबुकसंक्रमण संक्रमयति वेदयति च। (५) तथा समयोनावलिकाद्वयेन संज्वलनमानस्य बद्धदलिक यदनुपशान्तं तिष्ठति, तत्पुरुषवेदोकताकारेण संक्रमयत्युपशमयति च, यावत्संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितेरावलिकात्रिकमात्रा शेषा भवति, तावदप्रत्याख्यानावरणप्रत्यारल्यानावरणमायाद्विकं संज्वल नमायायां संक्रमयति । ततः परं समयानावलिकात्रिके शेपे मायायाः पतद्ग्रहताया अपगमात् तत्र न संक्रमयति, किन्तु ★ संज्वलनलाभे संक्रमयति । संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितेरावलिकाद्विके शेष आगालो व्यव * अत्राऽपि संज्वलनमायायाः पत्द्ग्रहताया अपगमात्संज्वलनलोभेऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याध्यानावरणमायाद्विकमावलिकापयन्तं संक्रमयति । ततः परं न संक्रमयति इत्युक्तम् अक्षराणि त्वेवम् Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ४९ च्छिद्यते तदानीं च कषायप्राभृतचूर्णिकारमतेन प्रत्यागालोऽपि व्यवच्छिद्यत इत्युक्तम् उदीरणा तावद्वक्तव्या, यावदावलिका शेषा भवति । उदीरणावलिकायाश्चरमममय इमो पदार्था भवतः (१) संज्वलनमायालोभयोः स्थितिबन्ध एकमासिकश्शेषाणां च संख्येयानि वर्षाणि । (२) तदानीं च संज्वलनमायाया जघन्यस्थित्युदीरणा तदुदयस्य च चरमसमयः । ततोऽनन्तरसमये प्रथमस्थितेरावलिकाप्रमाण क ले शेप इत्यर्थः, अमी पदार्था प्रवर्तन्ते (१) संज्वलनमायाया बन्धोदयोदीरणा व्यच्छिद्यन्ते (२) अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमायाद्विकं सर्वथोपशान्तं भवति (३) प्रथमस्थितेरवशिष्टा लिंका तथा समयोनालिकाद्वयबद्धं दलिय विमुच्य सर्वमन्यत्संज्वलनमायाया दलमुपशान्तम संज्वलनलोभमनुभवन मायाप्रथमस्थितेरवशिष्टावलिका स्तिबुकमंक्रमेण संक्रमयति तथा समयोनाबलिक द्वये बद्धं दलिक.मपि तावता कालेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेण संक्रमयत्युपशमयति च । संज्वलनलोभोपशमना- यस्मिन् समये मायाया बन्धोदयोदीरणा विच्छिद्यन्ते तस्मिन्नेव समयेऽमी पदार्था प्रवर्तन्ते-(१)द्वितीयस्थितिसक शात्संचलनलोभम्य दलिकं गहीत्वा संज्वलनमानवत्प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । अतो मूलकार संज्वलनलोभस्य प्रथमस्थितेप्रमाणमाह लोभस्स बेतिभागा बिइभागोत्थ किट्टिकरणादा। एगफडगण अणंतभागो उ ता हेट्टा ॥४१॥ लोभस्य द्वौ त्रिभागो, द्वितीयत्रिभागोऽन्न किट्टकरण द्धा । एकस्पर्धकवर्गणानन्तभागस्तु ता प्रधस्त त् ॥ ४९ । इति पदसंम्कार: * लोभवेदकाद्धाया द्वित्रिभागप्रमाणां प्रथमस्थिति सेति । इदमुक्तं भवति, लोभत्र यो:शमनाप्रथपसमयादारभ्याऽनिवृत्तिकरणचरमसमयपर्य तं संज्वलनबादरलोभवेदककालो भवति, ततः परं सूक्ष्मसंपरायचरमसमयपर्यन्तं सक्षमलो भवेदककाली भवति, उभावपि मिलित्वा लोभवेदकाऽद्धा आन्तर्मोहुर्तिकी. तस्यास्त्रयो विभागाः कतव्या । नत्र द्वयोस्त्रिभागमोद्वितीय स्थितितः ममाकृष्य "मायासंज्वलनप्रथम स्थिता प्रावलिकात्रयं यावदवशिष्यते तावदप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरमायाद्वयद्रव्यं मायासंज्वलने सड़क्रमयति ततः परं संक्रमाणावल्यां संज्वलनलोभे संक्रमयति (लब्धिसार २७६ टोका) *लब्धिसारेऽपि द्वित्रिभागतोऽधिका प्रथमस्थितिरुक्ता तद्यथा-"स च लोमकालोऽन्तमुहतमात्र: इदं संख्यातेन खण्डयित्वा तद्बहुमागं त्रिषु स्थानेषु विमज्य स्थापयेत् पुनस्तदेकभार्ग संख्यातेनखण्डयित्वा बहुमागं प्रथमस्थाने दद्यात् । पुनरवशिष्टंकभागमपरेण संख्यातेन खण्डयित्वा तद्बहभागं द्वितीयस्थाने दद्यात् तदेकमागं तृतीयस्थाने दद्यात् । अत्र प्रथमभाग; संज्वलनबादरलोभवेदकाऽद्धा प्रथमार्थः । द्वितीयमागः समसंपरायकालः। प्रत्र प्रथमद्वितीयभागयोमलने लोमवेदकाऽद्धात्रिभागमात्र साधिकं प्रथमस्थितिप्रमाणं भवति ।" Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वकणकरणाद्धा] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [१९१ दलिकं निझिपति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी "लोभवेयगडाए येतिभागमेत्ता लोभस्स पढमहितिं करेति" तथैव कषायप्राभूतचूर्णावपि "ताधे चेव लोभसंजलणमोकड़ियूण लोभस्स पढमहिदि करेदि एत्तो पाए जा लोभवेदगडा होदि। तिस्से लोभवेदगडाए बेत्तिभागा । पत्तियमेत्ती लोभस्स पढमहिदी कदा।" इति । तत्राऽपि प्रथमस्त्रिभागोऽश्वकर्ण करणाद्धासंज्ञः, द्वितीयरित्रभागः किट्टिकरणाद्धासंज्ञः । (२) तदानी च संज्वलनलोभस्य स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तन्यूनकमासिकः शेषकर्मणां च संख्येयमहसूवार्षिकः । (३) तम्मादेव ममयादारभ्य संज्वलनमायाया अवशिष्टावलिको संज्वलनलोभे स्तिबुकसक्रमेण संक्रमय्य वेदयति । ( ज्वलनलोभोद पप्रथमसमयात्प्रमति समयोनावलिकाद्विकेन संज्वलनमायायावद्धं दलिकं तावता कालेन संक्रमयति सर्वात्मना चोपशमयति । (५) तदानीमेवाऽप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनलोभत्रिकं युगपदुपशमयितु. मारभते उपशमनाविधिश्च प्राग्वदवधेयः । (६) प्रश्वकर्णकरणाद्धा - मंज्वलनलोभम्य प्रथमस्थितेः प्रथमसमयादारभ्याऽश्वकर्णकरणाऽद्धायां वर्तमान सन पूर्वस्पधकेभ्यः प्रतिसमयं पालिकं गृहीत्वा तस्याऽत्यन्तनीरसतामापाद्याऽपूर्वस्पर्धकानि करोति । इदमत्र हृदयम् -इदं तावदनन्तानन्तपरमाणुनिष्पन्नान् स्कन्धान जीवः कर्मतया गृह्णाति, तकस्मि परमाणो यः सर्वजघन्यो रसः, मोऽपि सर्वजीवानन्तगुणान रसाऽविभागान धारयति । तदुपेतकामणपरमारणूनां समुदायः प्रथमा वर्गणा, ततः क्रमेणैकोत्तररसविभागवृद्धया सिद्धानन्त भागाऽभव्याऽनन्तगुणा वर्गणा वाच्याः, तावतीनां वर्गणानां समुदायः म्पर्धकमुच्यते । इन ऊध्वमेकोत्तावृद्धया वर्धमानरसेन युक्तः कार्मणपरमाणुनं लभ्यते । किन्तु मरजीवाऽनन्तगुण रेव रसाविभागेरधिकः,ततः प्राक्तनक्रमेण द्वितीयस्पर्धकमारभ्यते, एवं तावदाच्यानि, यावदनन्तानि स्पर्धकानि । एतेभ्यः सत्तागतस्पर्धकेभ्य इदानीं प्रथमादिवर्गणा गृहीत्वा विशुद्धिप्रकर्षवशात्तत्कालबध्यमानसंज्वलनलोभस्पर्धकवदनन्तगुणहीनरसाः कृत्वा पूर्ववत्स्पर्धकानि कंगेति । आसमारं हि परिभ्र-ता न कदाचनाऽपि बन्धमाश्रित्यैतादृशानि स्पर्धकानि कृतानीत्यपूर्वाण्युच्यन्त इति । नन एवमपूर्व स्पर्धकानि कुर्वतः संख्येयेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्स्वश्वकर्णकः रणाऽद्ध। परिसमाप्ता भवति, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-"अस्संकनकरणद्धाते वहमाणो लोभसंजलणाए पुत्व फड्डगेहितो समते समते अपुवाणि फड्डगाणि करेति अपुवाणि नाम बंधरूपेण व उप्पातियाणि ण होति, विसोहिए अन्नहा फहगस्स रुपेणेव Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० उपशमनाकरणम् | गाथा ४६ णिवत्तियाणि ततो संखेज्जेसु हितिणं बंधेसु गतेसु अस्सकन्नकरणद्धा गता भवति " इति । कषायप्राभचूर्णौ स्वश्वकर्णकरणाऽद्धायामपूवस्पर्धकप्रक्रिया नोक्ता, तथैव प्रथमस्थितेः प्रथमाऽर्धाऽश्वकणकरणाद्धासंज्ञा इत्यपि नोक्तम्, किन्तु यावत्प्रथमाऽधस्तावत्स्पधकमवमित्येवोक्तम् । तथा च तद्ग्रन्थः "तदो संखेज्जेहिं द्विदिबंधसहम्सेहिं गदेहिं तिस्से लोभम्स पढमहिदिए अहं गद ताधे पुण फद्दयगदं संतकम्मं ।" इति । प्रथम स्थितिमत्कप्रथमार्ध प्रमाणामश्वकर्णकरणाद्धां व्यतिक्रम्य किट्टिकरणाऽद्धां प्रविशति ।। किट्टीकरणाडा--"षिहयति भागोत्थ" इत्यादि, लोमवेदकाऽद्धायाद्वितीयस्त्रिविभागः किट्टिकरणाद्धासंज्ञ इत्युक्तः,नत्र किट्टिकरणाऽद्धायाः प्रथमममये संज्वलनलोमस्य स्थितिबन्धो दिनपृथक्त्वप्रमाणः शेषकर्मणां पुनः वर्षपृथक्त्वप्रमाण: उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्गों- 'इयाणिं किकिरणडा-तिसे पढमसमते लोभसंजलणाए द्वितिबंधी दिवसपुछत्तं सेसाण कम्माणं हितिबंधो वाससहस्सपुहुत्तं" इति । टीकाकारपि तथैवोक्तम् । कषायप्राभृतचूर्णिकारस्तु प्रथमस्थितेः प्रथमाऽद्धान्त उपयुक्तस्थितिबन्ध उक्तः,तथा च तद्ग्रथः- "तदो अबस्स चरिमसमए लोहसंजलणस्स हिदिबंधो दिवसधत्तं । सेसाणं कम्माणं द्विदिषंधो वस्ससहस्सपुधत्त" इति । किट्टकरणाऽद्धायाः प्रथमसमयात्प्रभृति सत्तागतेभ्यः पूर्वस्पर्धकेभ्योऽपूर्वस्पर्धकेभ्यश्च दलिकं गृहीत्वा प्रतिसमयमनन्ता. मिट्टीः करोति ।। किट्टयो नाम पूर्वस्पर्धकेभ्योऽपूर्वस्पर्धकेभ्यश्च वर्गणा गृहीत्वा तासामनन्तगुणहीनरसतामापाद्यैकोत्तरवृद्धित्यागेन बृहदन्तरालतया व्यवस्थापनं यथा स्पधषु यासामेव वर्गणानामसत्कम्पनयाऽनुभागविभागाः शतमेकोत्तरं द्वयुत्तरमासीत् (१००-१०१-१०२), तासामेवाऽनुभागविभागा पञ्च पश्चदश पञ्चविंशति भवन्तीति (५-१५-२५) । उक्तं च कर्मप्रकृति - "किट्टी णाम अणुभागपंधलखणस्वरुपविपर्यासन अणुभागरचना ।" इति । अपूर्व स्पर्धकप्रक्रियायामत्यन्तनीरमतामापाद्य स्पर्धकेष्वेकोत्तरवृद्धाया वर्गणा व्यवस्थापयन्ति । अत्र स्वत्यन्ननीरसतामपाद्य स्पर्धकेषु वर्गणा एकोत्तरवृद्विपरित्यागेन व्यवस्थापयन्ति । .प्रत्र पृथक्त्वशब्दस्य बहुत्व वाचित्वेन प्रभूतानि वर्षसहस्त्राणि स्थितिबन्धो भवतीति व्याख्येयम । तेनोतरत्र स्थितिबन्धः प्रभूतवर्षसहस्राणि संगच्छते । ★लब्धिसारेऽपि तथैव प्रतिपादितं तद्यथा पढमट्ठिदिपद्धते लोहस्स य होदि दिणपुधत्तं तु । वस्ससहस्सपुधत्तं सेसाणं होदि टिदिबंधो ॥ (लब्धिसार २८२) ॐ कृष्टिशब्दस्याऽथं उच्यते, कर्शनं कृष्टिः कर्मपरमार शक्तेस्तनूकरणामत्यर्थः 'कृश तनूकरणे" इति धात्वर्थमाश्रित्य प्रतिपादनात् । अथवा कृष्यते तनूक्रियत इति कृष्टिः प्रतिसमयं पूर्वस्पधंकजधन्य. वगंणाशक्तेरनन्तगुणहीनशक्तिवर्गणाकृष्टिरिति भावार्थ: । इति लब्धिसारः। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २०१ किट्टीनां प्रमाणम् ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः किट्टीनां प्रमाणम्-'एगफडगवग्गण अणंतभागो' त्ति, एकस्मिन्ननुभागस्पर्धके या अनन्ता वर्गणास्तासामनन्ततमे भागे यावत्यो वर्गणास्तावतीः किट्टीः प्रथमसमये करोति । ताश्चाऽनन्ताः। ननु ताः किट्टयः किमपूर्वस्पर्धकसत्कसर्वजघन्यमनुभागस्पर्धकाऽनुभागेन सदृशाः करोत्युत ततोऽपि हीनाः ?उच्यते, ततोऽपि हीनाः, तदेवाऽऽह 'हेट्ठा' ति, # यत्सर्वजघन्यमनुभागस्पर्धकं तस्याऽधस्तात्करोति,ततोऽप्यनन्तगुणहीनरसा करोतीत्यर्थः । किट्टिकरणाऽद्धायां यावतीः किट्टीः करोति तत्प्रदिदर्शयिषुराह श्रणुसमयं सेढीए असंखगुणहाणि जा अपुवायो। तविरियं जहन्नगाई विसेसूणं ॥५०॥ अनुसमय श्रेण्याऽसंख्यगुणहानिर्या अपूर्वाः ।। तद्विपरीतं दलिकं जघन्यादितो विशेषोनम् ॥५०॥ इति पदसंस्कारः 'अनुसमयं' इति समये समय इति वीप्साम् “योग्यतावीप्स." इति सिद्धहेम(३-१-४०) सूत्रेणाऽव्ययीभावसमासः, प्रतिसमयमपूर्वां या नवा नवाः किट्टीः करोति, ताः प्रतिसमयमसंख्येयगुणहानियुक्तश्रेणिभाजो द्रष्टव्याः । नवत्वं चाऽत्र प्रतिसमयं यथोत्तरमनन्तगुणहीनरसत्वापादनेन द्रष्टव्यम् । भावार्थः पुनरयम्-किट्टिकरणाऽद्धाया प्रथमसमये प्रभूताः किट्टीः करोति, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणहीनाः करोति, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणहीनाः। एवं क्रमेण तावद् वक्तव्यम्,यावकिट्टिकरणाऽद्धायाश्चरमसमयः । अथ किट्टिगतं दलिकमभिधीयते 'तविवरियं' ति, दलिकं तद्विपरितं किट्टिसंख्याविपरितं द्रष्टव्यम् । तथाहि प्रथमसमये सकलकिट्टिगतं दलिकं सर्वस्तोकं ततो द्वितीयसमये सकलकिट्टिगतं दलिकमसंख्येयगुणम् ततोऽपि तृतीयसमये सकलकिट्टिगतं दलिकमसंख्येयगुणम् । एवं तावद्वक्तव्यं यावत्किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः । ___ संप्रति प्रथमसमयकृताना किट्टीनां परस्परं प्रदेशप्रमाणं निरूपणार्थमाह-'जहन्नगाइ विसेसूणं'त्ति, जघन्यकादिविशेषोनं जघन्यमादिं कृत्वा परतः क्रमेण प्रतिकिट्टि विशेषोनं विशेपोनं प्रदेशाग्रमभिधातव्यम् । इदमत्र हृदयम्-प्रथमसमयकृतास्ववनन्तासु किट्टिषु मध्ये या सर्व ॐ अस्माद् (संज्वलनलोभसत्त्वद्रव्यात) प्रथमसमये द्रव्यमपकृष्य संज्वलनलोभजघन्यस्पर्धकलतासमानादिवर्गणाविभागप्रतिच्छेदेभ्योऽधस्तादनंतगुणहीनाऽविभागप्रतिच्छेदकतया एकस्पर्धकवर्गणाशलाकानन्तकभागप्रमिता अनुभागसूक्ष्म किट्टी: करोति। अन्तमुहर्तकालनिवर्त्यमानाऽनुभागकण्डकघातं विनेदानी प्रतिसमयं सर्वजघन्यशक्त्यनन्तकभागप्रमितत्वेन कृष्टिघातं कतु प्रारभत इत्यर्थः। (लब्धिसार: २८३) Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] [ गाथा ५१ मन्दाऽनुभागा किट्टिस्तस्यां दलिकं सर्वप्रभूतम्, ततस्तन्मध्यगत द्वितीय विद्यावनन्तरेणाऽनन्तगुणा. Sनुभागेनाऽधिकार्या दलिकं विशेषहीनम्, ततोऽप्यनन्तरेणाऽनन्तगुणेनाऽनुभागेनाऽधिकायां तन्मध्यगततृतीय किट्टौ विशेषहीन मेवमनन्तरानन्तरानन्तगुणाऽनुभागाऽधिकासु किट्टिषु विशेषनं तावदभिदध्याद् यावत्प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्ट किट्टिरिति । अयं क्रमः सर्वेष्वपि समयेषु प्रत्येकस्मिन् किट्टिसमुदाये वाच्यः । किट्टिगताऽनुभागमाश्रित्याऽल्पबहुत्वं मोहनीयस्य च स्थितिबन्धं निजिगदिपुराह -- अणुभागोणंतगुणो चाउम्मासाइ संखभागूणो । मोहे दिवसपुहुत्तं किट्टिकरणा इसमयम्मि || ५ १ ॥ उपशमनाकरणम् श्रनुभागोऽनन्तगुणश्र्वातुर्मासिकात् संख्येयभागोनः । मोहस्य दिवस पृथक्त्वं किट्टीकरणादिसमये ।। ५१ ।। इति पदसंस्कार: प्रथमसमयकृतासु किट्टिषु सामान्येनानुभागः सर्वप्रभूतः ततो द्वितीय समय कृतासु किट्टिषु सामस्त्येनाऽनन्तगुणहीनः, ततोऽपि तृतीयसमयकृतास्वनन्तगुणहीनः । एवं तावदभिधातव्यम्, यावत्किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमयः । अथ विशेषतस्तत्समयकृतकिट्टिगताऽनुभागमाश्रित्याऽन्पबहुत्वमाह - "अणुभागोणंतगुणो' त्ति, प्रथमसमयकृतानां किट्टीनामनुभागो यथोत्तरमनन्तगुणो वाच्यः । तद्यथा- प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वमन्दाऽनुभागा किट्टिः, तस्याः सर्वस्तोकोऽनुभागः, ततो द्वितीय किट्टरनन्तगुणोऽनुभागः, ततोऽपि तृतीय किट्ट े रनुभागोऽनन्तगुणः, एवं तावद्वक्तव्यम्, यावत्प्रथमसमये कृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वोत्कृष्टाऽनुभागा किट्टिरिति । एवं द्वितीयादिष्वपि समयेषु कृतानां किट्टीनामनुमागमाश्रित्याऽल्पबहुत्वमभिधातव्यम् । इदमत्र हृदयम्-तत्तत्समयकृताः किट्टयः क्रमशः स्थापयितव्याः । किमुक्तं भवति १ प्रथमसमये कृतासु किट्टिषु सर्वपूर्वतोऽधिकाऽनुभागाः किट्टयः तावत्स्थापयितव्याः, यावत्सर्वोत्कृष्ट किट्टिः, एवं द्वितीय समय कृतकिट्टयः स्थापयितव्याः । स्थाप्यमानानां किट्टीनामनुभागः पूर्वपूर्वतोऽनन्तगुणो वाच्यः, दलिकं तु विशेषहीनं विशेषहीनं वाच्यम्, तच्च प्राग्भावितमेव । तथा प्रथमसमये कुतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वमन्दाऽनुभागा किट्टिः, तस्याः सर्वप्रभूतोऽनुभागः, ततो द्वितीयसमये कृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वोस्क्रुष्टाऽनुभागा किट्टिः, तस्या अध्यनन्तगुणहीनः । ततो द्वितीयसमयकृतसर्वमन्दाऽनुभागकिट्टग्नुभागोऽनन्तगुणहीनः, ततस्तृतीयसमय कृत सर्वोत्कृष्टानुभाग किट्ट रनन्तगुणहीनोऽनुभागः । एवं किट्टिकरणाऽद्धायाश्वरमसये कृतानां किट्टीनां मध्ये सर्वमन्दाऽनुभाग किट्टे रनन्तगुणहीनोSनुभागो वक्तव्यः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिषु दलनिक्षेपः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २०३ ____ ननु प्रथमसमयकृतसकलकिट्टिगतं दलिकं स्तोकम्, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणं दलिकं गहीत्वा किट्टीः करोतीत्यादि यदुक्तम्, तत्र द्वितीयादिसमयेषु किट्टयर्थं गृह्यमाणदलिकतो नवा नवाः किट्टी: करोति, तदा पूर्वकिट्टष्वपि दलिकं प्रक्षिपति न वा इति चेद् ! उच्यते-कर्मप्रकृतिचूादौ न कश्चिद्विशेषोऽभिहितः, किन्तु कषायप्राभृतचूर्णा इदमुक्तम् । तद्यथा-प्रथमसमयकृतसर्वोस्कृष्टप्रदेशविशिष्ट किट्टिगतदलिकतोऽसंख्येयगुणं दलिकं द्वितीयसमयकृतायां जघन्याऽनुभागकियां प्रक्षिपति,ततः परमुत्तरोत्तरकिट्टिषु विशेषहीनं दलिकं प्रक्षिपति, एवं तावद्वक्तव्यम्, यावदोघो. त्कृष्टा किट्टिः । अत्रौधोत्कृष्टशब्देन द्वितीयसमयेऽपि प्रथमसमयसत्कोकृष्टानुभागां किट्टि यावद्विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपतीति व्याख्येयम् । अन्यथा कषायप्राभृतचूर्णौ द्वितीयसमये तत्समयकृतामुत्कृष्टाऽनुभागां फिट्टि यावद्वक्तव्यं स्यादित्यस्माकं तात्पर्यव्याख्यानम् । तथा च तद्ग्रन्थः-* पढमसमए जहणियाए किट्टिए पदेसग्गं बहुअं,बिदियाए पदेसग्गं विसेसहीणं। एवं जाव चरिमाए किट्टिए पदेसग्गं तं विसेसहीणं । बिदियसमए जहणियाए किट्टीए पदेसग्गमसखेजगुणं । विदियाए विसेसहीणं । एवं जाव ओघुक्कसियाए विसेसहीणं ।" इति । परः शङ्कते--ननु प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्टकिट्टिगतदलिकतो द्वितीयसमयकृतसर्वोत्कृष्टकिट्टयामसंख्येयगुणदलिकं भवतीति कर्मप्रकृतिचूर्णिकाराणामभिप्रायः, तथा च तद्ग्रन्थः- "जा पढमसमयकयाणं किट्टीणं सव्वषहुपयेसा किट्टी सा बितियसमयकयाणं सव्वबहुपदेसातो किहितो असंखेजगुणहीणा एवं अणंतराणंतरेण णेयव्वं" इति । पूर्वोक्तनिक्षेपक्रमे कथं कर्मप्रकृत्यक्षराणि संगच्छन्ते ? इदमुक्तं भवति-प्रथमसमयकृतकिट्टिपु प्राग् यद्दलिकमासीत्पुनर्द्वितीयसमयेऽपि किट्टीः कुर्वस्तत्र नूतनदलिकं प्रक्षिपति, द्वितीयसमये क्रियमाण किट्टिषु तु केवलमभिनवदलिकं भवत्यतो द्वितीयसमयकृतसर्वोत्कृष्टकिट्टिगतदलिकं प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्टकिट्टिगतदलिकतोऽसंख्येयगुणं कथं सिध्यति ? अत्रोत्तरम् - उपयुक्ताऽल्पबहुत्वे प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्टकिया दलिकं द्वितीयसमयकृतसर्वोत्कृष्ट प्रदेशविशिष्टकिट्टिगतदलिकतोऽसंख्येयगुणहीनं यदुक्तम्, तद् द्वितीयसमये प्रथमसमयकृतकिट्टयां निक्षेपविवक्षामनाश्रित्योक्तम् । अयं भावः-प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्ट टिप्पणी-किट्रिकरणाऽद्धायाः सर्वसमयेषु कृताः किट्टयो जघन्याऽनुभागादारभ्य क्रमश उत्कष्टाऽनुभागपर्यन्तं स्थाप्यते तहि पूर्वपूर्वत उत्तरोत्सरकिट्टयोऽनुभागमाश्नित्याऽनन्तगुणहीना दलिकमाश्रित्य विशेषहोना गोपुच्छाकारो भवन्तीति लब्धिसार उक्तम्, तच्च तेषां मतानुसारेण,ततो दलिकनिक्षेपविधिज्ञतिव्यः । *जयधवलायां तु स्पर्धकेष्वपि निक्षेपोऽभिहितः, तथाहि "तदो जहण्णफड्डया दिवग्गणाए अणंतगुणहीणं ततो विसेसहीणं अणंतमागेण त्ति णेदव्यं जाव उक्कस्सफड्डयादो जहण्णाइच्छावणामेत्तफड्डयाणि हेद्रा प्रोसरिदूण द्विदतदित्थफड्डयस्स उक्कस्सिया बरगणा त्ति ।" इति । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ५२-५३ प्रदेशविशिष्टकिट्टियां ये प्रदेशा आसन्, ते द्वितीयसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्ट किट्टिगतप्रदेशतोऽ संख्येयगुणहीना अर्थात् प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्ट किट्टिगता ये प्रदेशा आसन , ततोऽ. संख्येयगुणप्रदेशा द्वितीयसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्टायां किट्टी भवन्तीत्यर्थः । कर्मप्रकृतिटीकाकारैः प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टप्रदेशविशिष्टकिट्टिगतदलिकतो द्वितीयसमयकृतसर्वजघन्यप्रदेशविशिष्टकिट्टिगतदलमसंख्येयगुणमिति यदुक्तं तदप्यनया नीत्या संगच्छते । विशेषस्तु आपकश्रेण्यां विवृत्तमस्माभिस्तथा मलयगिरिटीकायामपि प्रथमसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वबहुप्रदेशा किट्टिः, सा स्तोकप्रदेशा ततो द्वितीयसमयकृतानां किट्टीनां मध्ये या सर्वाऽल्पप्रदेशा किट्टिः साऽसंख्येयगुणप्रदेशा, एवं तावद्वाच्यम्, यावच्चरमसमयः । एवमुपाध्यायपुगवैरप्युक्तम् ।। _ 'मोहे' मोहनीये संज्वलनानां चातुर्मासिकास्थितिबन्धादारभ्याऽन्योऽन्यः स्थितिबन्धः संख्येयभागेनोनोऽन्तरस्तावद्वक्तव्यः, यावकिट्टिकरणाऽद्धायाः प्रथमसमये दिवसपृथक्त्वप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति । स च प्राग्यथास्थानमुक्तः। किट्टिकरणाऽद्धायाः संख्येयेषु भागेषु गतेषु सत्सु यद्भवति, तदाह-- भिन्नमुहुत्तो संखेज सु य वाईण दिणपुहुत्तं तु । वाससहस्सपुहुत्तं यतो दिवसस्म अंते सिं ।। ५२ ।। वाससहस्सपुहुत्ता बिवरिस अंतो अघाइकम्माणं । लोभस्स अणुवसंतं किट्टियो जं च पुवुत्तं ।। ५३ ।। भिन्नमुहूर्तः संख्येयेषु च घातिनीनां दिनपृथक्त्व ततः । वर्षसहस्रप्रथक्त्वमन्तदिवसस्यान्ते तेषाम् ॥५२॥ वर्षसहस्रपृथक्त्वाद् द्विवर्षस्यान्तोऽघातिकर्मणाम् । लोभस्यानुपशान्तं किट्टय यच्च पूर्वोक्तम् ॥५३ ।। इति पदसंस्कार! "भिन्नमुहूत्तो" इत्यादि, अस्याः किष्टिकरणाऽद्धायाः संख्यातेषु मागेषु वजितेषु सत्सु संज्वलनलोभस्य स्थितिबन्धो भिन्नमुहुर्तप्रमाणो भवति, अन्तमुहतंप्रमाणो भवतीत्यर्थः, त्रयाणां घातिकर्मणां दिनपृथक्त्वप्रमाणः, नामगोत्रवेदनीयानां च वर्षसहस्रपृथक्त्वम्, प्रभूतवर्षसहस्रप्रमाणः,किट्टिकरणाऽद्धाया द्विचरमस्थितिबन्धं यावस्थितिबन्धो नामगोत्र वेदनीयानां प्रभृतवर्षसहस्रप्रमाणो भवति, पृथक्त्वशब्दस्याऽत्र बहुत्ववाचित्वात । किट्टिकरणाद्धायाः (बादरसंज्वलन लोभस्य प्रथमस्थितेः) समयोनावलिकात्रिके शेषेऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणयोर्दलिकं संज्वलनलोभे न संक्रमयति, तस्य पतद्ग्रहतानिवृत्तेः। किन्तु स्वस्थान एव स्थितमुपशमं नीयते,किट्टि Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमगुण. चरमसमयः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २०५ करणद्धाया आवलिकाप्रत्यावलिकालझणद्वयाऽऽवलिकाशेषायां पुनः बादरसंज्वलनलोभस्याऽऽगालो व्यवच्छिद्यते । उदीरणा तु प्रथमस्थितेर्द्विचरमावलिकातस्तावत्प्रवर्तते,यावदावलिका शेषा भवति । उदीरणावलिकाचरमसमय एते पदार्थो भवन्ति (१) अनिवृत्तिवादरसंपरायगुणस्थानकचरमसमयः नवमगुणस्थानकस्य चरमसमय इत्यर्थः । (२) बादरसंज्वलनलोभोदयोदीरणायाश्चरमसमयः । (३) संज्वलनलोभमत्कचरमस्थिति बन्धः । (४) संज्वलनलो भस्य अन्ते' किट्टिकरणाद्धायाश्चरमसमये स्थितिबन्धोऽन्तमुहूर्तप्रमाणस्तथा 'सिं' त्ति तेषां घातिकर्मणामन्तर्दिवसस्याऽन्तरहोरात्रस्य स्थितिवन्धः, अघातिनां तु नामगोत्रवेदनीयानां स्थितिबन्धादन्यो हीनो हीनतरः स्थितिबन्धो भवंस्तस्मिन् किट्टिकरणाद्धाचरमसमये 'द्विवर्षस्य' द्वयोर्वर्षयोरन्तर्मध्ये भवति ___ ततोऽनन्तरसमये किट्टिकरणाद्धाया आवलिकाकाले शेषेऽमी पदार्थाः प्रवर्तन्ते(१) संज्वलनलोभस्य बन्धो व्यवछिद्यते । (२) बादरसंज्लनलोभम्योदयोदीरणयोर्व्यवच्छेदः । (३) अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकस्य व्यवच्छेदः । (४) अप्रत्याख्यानप्रन्याख्यानावरणौ सर्वथोपशान्तौ । (५) 'किटिओ'त्ति, किट्टिकृतं द्वितीयस्थितिगतं यद्दलिकं तथा जं च पुन्वत्तं यत्पूर्वोक्तं समयोनावलिकाद्विकेन बद्धमभिनवदलिकं यच्च प्रथमस्थितेरुदयावलकारूपैकाऽऽवलिकागतदलिकं शेषीभूतमेतत्सर्व 'लोभस्स' ति, लोभस्य' संज्वलनलोभस्याऽनुपशान्तं वर्तते, शेषं पुनः सर्वात्मनोपशान्तम् । प्रथमस्थिते_दरसंज्वलनलोभस्य शेषीभृतामावलिकामानां स्थिति सूक्ष्मकिट्टिमनुभवन् स्तिबुक - सङ्क्रमेण च संक्रमय्य वेदयति तथा समयोनावलिकाद्वयेन संज्वलनलोभस्य बद्धं दलिकमपि सूक्ष्मसंज्वलनलोभमनुभवन् किट्टीचोपशमयंस्तावता कालेन संज्वलनक्रोधोक्तप्रकारेणोपशमयति । अथ सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्य वक्तव्यतां व्याजिहीषु राह सेमद्धं तणुरागो तावईया किट्टिऊ य पढमठिई । वज्जिय असंखभागं हे?वरिमुदीरए सेसा ॥ १४ ॥ शेषाद्धो तनुरागस्तावतों किट्टितश्च प्रथमस्थितिम । वर्जयित्वाऽसंख्येयभागमधश्वोपयुदोरयति शेषाः । ॥५४॥ इति पदसंस्कारः Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम २०६ ] [ गाथा ५४ "सेसड'त्ति,शेषाद्धां शेषकालं तृतीये विभाग इत्यर्थः । तनुरागः सूक्ष्मसंपरायो भवति, स च बादरसंज्वलनलोमोदयविच्छेदसमय एवं प्राकृताः कियतीश्चिकिट्टीर्द्वितीयस्थितेः सकाशासमाकृष्य तावती सूक्ष्मसंपरायाद्धातुल्यां संज्वलनमानोक्नप्रकारेण प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च सूक्ष्मसंपरायप्रथमस्थितिश्च बादरसंज्वलनलोभस्य प्रथमस्थितितः किश्चिन्यूना तदर्धप्रमाणा क्रियते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी "जा पढमसमथलोभवेदगस्स पढमहिदि तिस्से पढमहिदीए इमा सुहमसंपराइयस्स पढमहिदि दुभागो थोऊणाओ।" इति । अत्र कषायप्राभृतचूर्णिकाराणामिदं तात्पर्यम् -- लोभवेदकाद्धायास्त्रयो विभागाः क्रियन्ते ।(१) । प्रथमो विभागः केवलस्पर्धकसत्त्वकालः,अश्वकर्ण करणाऽद्धा (२) द्वितीयो विभागःकिट्टिकरणाऽद्धा (३) तृतीयो विभागः किट्टिवेदनाऽद्धा । तत्र कालाऽपेशया प्रभृतः प्रथमो विभागः,ततो विशेषहीनो द्वितीयविभागस्ततोऽपि विशेषहीन स्तृतीयो विभागः । प्रथमद्वितीयविभागाद् द्वयाद्धातो बादरसंज्वलनलोभस्य प्रथमस्थितिरेकावलि कयाऽधिका । सूक्ष्मलोभस्य प्रथम स्थितिश्च द्वितीयविभागलझणकिट्टिवेदकाऽद्धा प्रमाणा भवति, न न्यूनाऽधिका,वक्ष्यते चेतत्सर्वमल्पबहुत्वाऽधिकारे तद्यथा-"उवसामगस्स सुहमसंपरायडा किट्टिणमुवसामणडासुहमसंपराइयस्स पढमहिदि च तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहिया। उवसमगस्स किटिकरणद्धा विसेसा. हिया पडिवदमाणगस्स बादरसंपराइयस्स लोभवेदगडा संखेजगुणा, तस्सेव लोहस्स तिविहस्सवि तुल्लो गुणसेदिनिक्खेवो विसेसाहियो उवसामगस्स यादरसंपराइयस्स लोभवेदगडा विसेसाहिया। तस्सेव पढमहिदि विसेसाहिया । इति । उपयुः क्ताऽल्पबहुत्वस्येदं तात्पर्यम्-सूक्ष्मसंपरायऽद्धातः किट्टिकरणाद्धा विशेषाधिका, ततोऽपि श्रेणितः प्रतिपततो बादरसंपरायस्य लोभवेदकाद्धा संख्येयगुणा तनोऽपि श्रेणितः प्रतिपततो जीवस्य लोभत्रयस्य गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः,तत उपशमकस्योपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमानस्य जन्तोर्बादरसंपरायगुणस्थानके लोभवेदकाद्धा विशेषाऽधिका । अत्र किट्टिकरणाद्धातः श्रेणितः प्रतिपततो जन्तोर्वादरसंपरायकालस्य संख्यातगुणत्वेन संख्यातगुणस्य जघन्यतोऽपि द्विगुणत्वेन श्रेणिं प्रतिपद्यमानस्य जन्तोर्वादरसंपरायकालो द्विगुणतोऽप्यधिको भवति । बादरसंपरायलोभवेदकाऽद्धाया द्वौ विभागौ क्रियेते, तत्रैकोऽऽश्वकर्णकरणाद्धा अन्यश्च किट्टिकरणाद्धेति कृत्वा प्रथमाधोंऽश्वकर्णकरणाद्धा द्वितीयकिट्टिकरणाद्धातो विशेषाधिको भवति । न च पूर्व लोभवेदकाद्धाया द्वित्रिभाग: प्रमाणा प्रथमस्थितिः क्रियत इत्युक्तम् कथमेतत्संगच्छते ? यतो लोभवेदकाऽद्धाया द्वित्रिभागतः किश्चिदधिकः केवलो बादरलोभवेदककालः प्रथमस्थितिस्तु ततोऽप्यावलिकाऽधिकेति वाच्यम्, पूर्वकथनस्य सामान्यत्वेन विरोधाऽभावात् । अयं भावः-अनिवृत्तिकरणवक्तव्यतायां लोभवेद Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किट्टिवेदन विधिः ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ २०७ काऽद्धायाः कालतः सदृशस्त्रीन विभागान् कृत्वा द्वित्रिभागप्रमाणा प्रथमस्थितिः क्रियत इति नाऽ भ्युपगन्तव्यम्, किन्तु लोभवेदकाऽद्धायां मुख्यतः त्रीणि कार्याणि भवन्ति तदपेक्षया त्रयो विभागाः क्रियन्ते, न कालाऽपेक्षया सदशाः । तत्र विषमेभ्यः त्रिभ्यो भागेभ्यो द्वित्रिभागे लोमस्य प्रथमस्थितिः कर्तव्या । यद्वा त्रयाणामश्वकर्ण करणाऽद्धाकिट्टि करणाऽद्धाकिट्टिवेदनाऽद्धानां परस्परं किश्चिन्यूनाधिक्यं भवति, तेन तद् विवक्षामनाश्रित्य ग्रन्थकारैः 'बितिभाग'इत्याद्युक्तम् । किहिवेदनविधि:- "वजिय" इत्यादि, सुक्षमसपरायस्य प्रथमसमये सत्तागतकिट्टीनामसंख्येयबहुभागमात्राः किट्टीवेदयति, तत्राऽपि याः किट्टयः किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयचरमसमयकृतास्ता वर्जयित्वाऽनुभवति । तत्राऽप्ययं विशेषः-सर्वोत्कृष्टाऽनुभागकिट्टरारभ्य प्रथमसमयकृतसकलकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमाणा: किट्टीः सर्वमन्दानुभागकिट्ट श्वारस्य चरमसमयकृतसकलकिट्टीनामसंख्येयभागप्रमाणाः किट्टीः वर्जयित्वा शेषकिट्टीरनुभवति। किमुक्तं भवति? प्रथमसमयकृतसर्वोत्कृष्टनुभागकिट्टरारभ्य प्रथमसमयकृतकिट्टीनामुपरितनमसंख्येयभागं परित्यज्य शेषसर्वकिट्टि. गतं कियश्चित्तथा चरमसमयकृतमर्वजघन्याऽनुभागकिट्ट रारभ्य चरमसमय कृतकिट्टीनामधस्तनाऽ संख्येयतमभाग विमुच्य शेषसर्वकिट्टिगतं दलं तथा द्वितीयादिद्विचरमसमयपर्यवसानसमयकृतसर्वकिट्टिगतदलमुदयेनानुभवति। उक्तं च कर्मप्रकृतितिची-'जाओ अपदमसमयअचरिमेसु समएसु अपुव्वातो कथातो तातो पढमसमते सव्वतो दिन्नातो । जातो पढमसमते कयोतो तासिं अग्गगातो असखेजितभागं मोत्तणं, जातो य चरिमसमयकयाओ किहितो तासिं च जहन्नगपभिई असखेजतिभागं मोत्तणं जातो य चरिमसमयकया किहोतो तासिं च जहन्नगपभितिई असंखेज्जतिभागं मोत्तणं सेसानो उदोरेति। पढमसमयकयाण उवरिं चरिमसमयकयाणं हेहतो असंखेज्जति. भागं मोत्तण उदीरेत्ति। "इति । सूक्ष्म संपरायगुणस्थानकस्य द्वितीयादिसमयेषु यो विशेषो भवति, तमाविश्चिकीर्ष राह गेराहतो य मुयंतो असंखभागो य चरिमसमयम्मि । उवसामेई बिईयटिइपि पुव्वं व सव्वद्धं ॥ ५५ ॥ गृह्णश्च मुञ्चन्नसंख्येयभागं तु चरमसमयम् ।। उपशमयति द्वितीयस्थितिमपि पूर्ववत्सर्वाद्धाम् ॥५५॥ इति पदसंस्कार; किट्टिवेदनाऽद्धाया द्वितीयसमय उदयप्राप्तानां किट्टीनामुपरितनाऽसंख्येयभागं मुश्चति, अधस्तादपूर्व चाऽसंख्येयभागनुभवितुगृह्णाति । इदमत्र हृदयम्-प्रथमसमय उत्कृष्टाऽनुभागकिट्ट. रारभ्याऽमुकाः किट्टीः सर्वजघन्यकिट्ट रारभ्याऽमुकाः किट्टीश्च वर्जयित्वा शेषाः किट्टय उदय आ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ५४ गच्छन्ति द्वितीयसमय उत्कृष्टाऽनुभागाकिट्टरारभ्य पूर्वतोऽधिकाः किट्टीस्तथा सर्वजघन्यानुभागकिट्टरारभ्य पूर्वतो न्यूनाः किट्टीर्वजयित्वा शेषा उदये वर्तन्ते । एवं तावद्वक्तव्यम्, यावत्सूक्ष्मसंपरायस्थ चरमसमयः । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी - वितियसभते उदिन्नाणं अस खेज्ज. भागं मुयंति हेतृतो अपुच्वं असंखेज्जणो एवं जाव सुहुमरागचरिमसमतो।" इति । भावार्थः पुनरयम्-सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमसमये किट्टिकरणाद्धाप्रथमसमयकृतोपरितना यावत्यः किट्टयो मुच्यन्ते, ततो द्वितीयसमयेऽसंख्यातमागेनाऽधिका उपरितना विमुच्यन्तेऽधस्ताच्च सर्वजघन्याऽनुभागकिट्टरारभ्य यावत्यः किट्टयो मुक्तास्तद्गततीव्राऽनुभागकिट्ट रारभ्य द्वितीयसमयेऽसंख्यातभागप्रमाणा अधस्तनाः किट्टीगृहीत्वोदयन्ति । इदमुक्तं भवति-द्वितीयसमये प्रथमसमयतः सर्वमन्दानुभागकिट्टरारभ्याऽसंख्येयभागहीना मुच्यन्त उदयप्राप्ताः हियो मुच्यन्त इति यदुप. युक्तम् , तस्य द्विधा व्याख्यानं भवितुमर्हति-(१) उदये तावतीः किट्टीनं गलाति, तावदनुभागाः किय उदये न भवन्तीत्यर्थः । एवमुदीरणाकरणेनाऽपि ताः किट्टय उदये न भवन्तीति प्रथमव्याख्यानम् । (२) सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमस्थितिं कुर्वस्तत्सर्वनिषेकेषु सर्व किट्टिगतदलं विरचयति । तत्र प्रथमसमये या वय॑न्ते, ताः स्वरूपतो न वेदयति, अपि तु तासामनुभागमल्पीकृत्याऽभिबऱ्या वाऽनुभवति, रमस्य वृद्धिर्हानिर्वोदयसमये भवतीत्यपरार्थः वज्जिय' इति पदस्याऽर्थः स्वरूपतऽननुभूय'मुयंतो 'इति पदस्याप्यर्थः स्वरूपतोऽननुभवन्निति कर्तव्यः ।। प्रथमाऽर्थ दोषापत्तिः-प्रथमाऽर्थे स्वीक्रियमाणे कर्मप्रकृतिची- "उदिन्नाणं असंखेज्जहभागं मुयति" त्ति, सूक्ष्मसंपरायद्वितीयसमये यदुक्तं तन्न घटते, उदयप्राप्तानां दलिकानां विपाकोदयतः प्रदेशोदयतो वा विनाशस्याऽवश्यंभावेन तद्वर्जनस्य वैफल्यप्रसंगात । द्वितीयाऽर्थे दोषाऽऽपत्तिः-द्वितीयार्थे स्वीक्रियमाण उदयावलिकायां प्रविष्टानां किट्टीनामनुभागरूपवृद्धिर्हानिर्वा कथं भवेत् ? उदयावलिवर्जशेषसर्वाऽनुभाग उद्वर्तनाकरणेनाऽपवर्तनाकरणेन वा साध्यः । उक्तं च कषायप्राभृते-सव्वे षि य अणुभागे ओकडदि जे ण आवलियपवितु । उक्कडुदि बंधसमे णिरूवक्कम होदि आवलिया ॥१५९॥ इति । तच्चूर्णि:-उदयावलिपविढे अणु भागे मोत्तण सेसे सव्वे चेव अणुभागे ओकडदि एवं चेव उक्कडदि।" इति । किश्चाऽऽरोहकस्य किट्टिकरणाद्धा प्रथमसमयादारभ्य सूक्ष्मसंपरायचरमसमयपर्यन्तमुद्वर्तना न भवति । तथा चाऽत्र कषायप्राभृतः-किट्टी करेदि णियमा ओवह तो ठिदी य अणुभागे। वड्तो किट्टीए अकारगो होदि बोडवो ।। १६४ ॥ इति । तच्चूर्णि:-"उवसामगो पुण पढमसमय किटोकारगमोदि कादूण जाव चरिम समयकसायो ताव ओकड्डगो ण पुण उक्कडगो । पडिवदमाणगी पुण पढमसमय. Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्मसंपराय उदयः गाथा ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारा [ २०९ कसाय पाहुडि ओकड्डगो वि उक्कड्डगो वि ।" इति । तथैव क्षपकश्रेण्यधिकारेऽपि "हंदि किटीकारगो किटोवेदगो वा दिट्ठी अणुभागेण ण उकडदित्ति" इति ।अत्र द्वितीयार्थ एवाऽऽश्रीयते, उदयसमयगताऽनुभागस्य वृद्धर्वा हानेर्वा संभवात् । उक्तं च कषायप्राभृते क्षपणाऽधिकारे "पच्छिम आवलिचाए समयूणाए दु जेय अणुभागा उक्करस हेहिमा मजिझमासु णियमा परिणमति ॥ २२८ ॥ इति । तच्चूर्णि-"विहासा पच्छिम आवलिया"त्ति, का सण्णाजा उदयावलिया सा पच्छिमावलिया तदो तिस्से उदयावलियाए उदयसमयं मोत्तण सेसेसु समएस जा संगहकिट्टी वेदिज्जमाणिगा तिस्से अंतरकिहोओ सव्वाओ ताव धरिज्जन्ति जाण ण उदयं पबिहाओ त्ति । उदयं जाधे पविट्ठाओ ताधे चेव तिस्से संगहकिट्टीए अग्गकिट्टीमादि कादूण उवरिं असंखेज्जदिमागो जहणियं किट्टीमादि कादूण हेहा असंखेज्जदिभागो घ मज्झिमकिटोसु परिणमदि"इति । ननु द्वितीयार्थे स्वीक्रियमाणे पूर्वोक्तदोषसंभवात्कथमसा आश्रीयते इति चेद् ? उच्यते, यद्यप्युदयावलिकायामपवर्तनोद्वर्तना वा न भवति, तथाऽप्युद्वर्तनाकरणेनाऽपवर्तनाकरणेनोदयगतानुभागस्य वृद्धि हानिर्वा संभवति, तथास्वभावात्, सा च नोद्वर्तनाकरणाऽपवर्तनाकरणसाध्या इत्यर्थः । सूक्ष्मसंपरायाद्धाप्रथमसमये याः किट्टयः किट्टिकरणद्धाप्रथमसमयकृतसकलकिट्टीनां सर्वोत्कृष्टकिटेरारभ्याऽग्रिमाऽसंख्येयभागप्रमाणायुक्ता आसन् , तद्गताऽधस्तनास्तदसंख्येयभागप्रमाणा अभिनवकिट्टयः पुनः सूक्ष्मसपरायस्य द्वितीये समये मुच्यन्त उदये न भवन्तीत्यर्थः । एवं किट्टिकरणाऽद्धायाश्चरमसमयकृतसकलकिट्टीनां सर्वजघन्यकिटेरारभ्य तदुपरितन्योऽसंख्येयप्रमाणा अभिनवाः किट्टयः पुनः सूक्ष्मसंपरायस्य द्वितीयसमये मुच्यन्त उदये न भवन्तीत्यर्थः, एवं प्र तथैव लब्धिसारेऽपि द्वितीयाऽर्थ प्राषितः, अक्षराणि त्वेवम्-सूक्ष्म कृष्टिकरणकालस्य प्रथमसमयकृतानां सूक्ष्मकृष्टीनां पल्याऽसंख्यातैकमात्रकृष्टयः स्वस्वरूपेण नोदयमागच्छन्ति शेषास्ते बहुभागा. द्वितीयादिद्विचरमसमयपर्यन्तेषु समयेषु कृतकृष्टयश्चरमसमयकृत कृष्टीनां पल्याऽसंख्यातबहुभागमात्रकृष्टयश्च स्वशक्तियुक्ता एवोदयमागच्छन्ति । चरमसमयकृतकृष्टीनां पल्याऽसंख्यातैकमागमात्रकृष्टयस्तु स्वशक्तिरूपेण नोदयमागच्छन्ति। या उदयमनागताः प्रथमसमयकृतकृष्टीनां चरमकृष्टेरारभ्य पल्यासंख्यातक भागप्रमिताः कृष्टयस्ताः स्वस्वरूपं परित्यज्य स्वशक्तेरनन्तगुणहीनशक्तिरूपतया परिणम्योदयमागच्छन्ति । याश्चाऽनुदयप्राप्ताश्चरमसमयकृतकृष्टीनां जघन्यकृष्टेरारभ्य पल्यासंख्यातैकमागप्रमाणाः कृष्टयस्ताश्चस्वस्वरूपं परित्यज्य स्वशक्तेरनन्तगुणशक्त्यात्मकतया परिणम्य मध्यमकृष्टि स्वरूपेणोदयमागच्छन्तीति तात्पर्यम् ।" Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] । उपशमनाकरणम् [ गाथा ५५ किट्टिकरणाऽद्धायाश्वरमसमयकृतसकलकिट्टीना सर्वजघन्यकिरारभ्य तदुपरितनाऽसंख्येयप्रमाणा सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमसमये या विमुच्यन्ते, तद्गता उपरितन्यस्तदसंख्येयभागमात्रा द्वितीयसमये पुनः गृह्यन्त उदय आगच्छन्तीत्यर्थः । प्रथमसमये यास्तीवाऽनुभागा उदयाऽयोग्याः किट्टय आसन्, तासामनुभागस्य हानिर्जाता याश्च मन्दानुभागा उदयाऽयोग्याः किय आसंस्तासा वृद्धिर्जाता । तत्राऽप्यं विशेषः-प्रतिसमये विमुच्यमानकिट्टितो विशेषहीनाः किट्टय उदयार्थ गृह्यन्ते, अतः प्रतिसमयमुदयगताः कियः पूर्वपूर्वसमयतो विशेषहीना लभ्यन्ते । एवं तावद्वक्तव्यम् , यावत्सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्य चरमसमयः । सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमसमये वेद्यमानाः किट्टयः-सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमसमये किट्टिकरणा. ऽद्धाप्रथमसमयकृता उदयाऽयोग्याः किट्टयः, असत्कम्पनया सर्वोत्कृष्टकिरारभ्य शततमकिट्टिपर्यन्तशतम् (१००) सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमममये किट्टिकररणाद्धाचरमसमयकृता उदयाऽयोग्याः किट्टयः, एवं सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमसमय ओघतः सर्वजघन्यकिट्टरारभ्याऽसत्कल्पनयाऽशीतितमकिट्टिपर्यन्तं विद्यमाना अशीतिः८० उदयाऽयोग्याःकिट्टयः सर्वसंख्यायऽशीत्युत्तरशतम् १८०, सूक्ष्मसंपरायस्य द्वितीयसमय उपयुत्कृष्टरसा विंशतिः २० किट्टयः पूर्वतोऽधिका मुच्यन्ते । किमुक्तं भवति ? सूक्ष्मसंपरायद्वितीयसमये सर्वोत्कृष्टकिट्टरारभ्य विंशत्यधिकशततमकिष्टि पर्यव. साना विंशत्यधिकशतं कियो विमुच्यन्ते उदयायोग्या भवन्तीत्यर्थः, तथा सूक्ष्मसंपरायप्रथममुक्तकिटिभ्यः षोडशकिट्टीगृह्णाति, तेन सर्वजघन्यकिटेगरम्य चतुःषष्टिः किट्टय उदयाऽयोग्या भवन्ति, अतः पूर्वसमयतोऽत्रोदयायोग्याश्चतस्रः विहयोऽधिका भवन्ति सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथम समयेऽशीत्यधिकशतं किसय उदयायोग्या आसन्, द्वितीयसमये चतुरशीत्यधिकशतमुदयायोग्याः किटयो भवन्ति । अतः पूर्वसमयत उत्तरसमये विशेषहीनाः किट्य उदयमागच्छन्ति । एवं ग्रहणमोशौ कुर्वस्ताव द्वक्तव्यम्, यावन्सूक्ष्मसंपरायस्य वरमसमयः। सूक्ष्मसंपरायाऽद्धायाः प्रथमसमयात्प्रमत्येते पदार्था युगपत्प्रवर्तन्ते । (१) द्वितीयस्थितितः किट्टीः समाकृष्य प्रथम स्थिति कुर्वन्वेदयति । (२) बादरलोभस्याऽवशिष्टावलिका किट्टिषु स्तिबुक राक्रमेण संक्रमय्याऽनुभवति । (३) समयोनावलिकाद्विकेन लोमस्याभिनवबद्धदलि.कं तावता कालेनोपशमनाकरन सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानके सर्वथोपशमयति, संज्वलनलोभस्याऽन्यत्र सड़क्रमाऽभावेन केवलयोपशमनया सर्वात्मनोपशमयति । (४) द्वितीयस्थितिगतसर्वकिट्टिगतमपि दलमसंख्येयगुणकारेण सूक्ष्मसंपरायाद्धाप्रथमसमयादारभ्योपशमयितुमुपक्रमते । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशान्तमोहकालः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः । ११ उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणौं-"ताहे चेव सव्वासिं किट्टीणं पदेसग्गं स्वसामे आढवेद ।" इति । उक्तं च कषायप्राभृतचूणों-"ताहे चेव सव्वासु किहिम पदेसग्ग उवसामेदि गुणसेहीए" । इति । "सव्वद्ध" ति, सर्वाद्धां सकलामपि सूक्ष्मसंपरायाऽद्धा यावत्पूर्ववदुपशमयति । सूक्ष्मसंपरायचरमसमय एते पदार्थाः प्रवर्तन्ते-(१) सर्वकिट्टिगतं दलं सर्वथोपशम्यते (२) ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामान्तौहर्तिकः स्थितिबन्धो नामगोत्रयोष षोडशमुहूर्तप्रमाणः, वेदनीयस्य च चतुर्विशतिमुहूर्तमानः ।। __(३) सूक्ष्मलोभकिः प्रथमस्थितिमनुभूयाऽनन्तरसमय उपशान्तमोहगुणस्थानकं प्राप्नोति । तदानी च सकलोऽपि लोभ उपशान्तो भवति । एवं तत्र सर्व मोहनीयं सर्वथोपशान्तं प्राप्यते । उक्तं च कर्मप्रकृतिौँ "सहमरागस्स नाणावरणदंसणावरणअंतरातियाणं अतोमुहुत्तिगो हितिबंधो, नामगोयाणं सोलसमुहुत्तिगो हितिबंधो, वेयणिजस्स चउधीसमुहुत्तितो हितिबंधो से काले सव्वं मोहं उपसंतं भवति।" इति । अथोपशान्तमोहगुणस्थानकं व्याचिख्यासुराह उवसंतद्धा भिन्नमुहुत्तो तीसे य संखतमतुल्ला। गुणसेढी सव्वद्धं तुलाय पएसकालेहिं ॥५६॥ वसंताय अकरणा संकमणो वट्टणा य दिट्टितिगे। उपशान्ताद्धा भिन्नमुहूर्त तस्याश्च संख्येयतमतुल्या । गुणश्रेणिः सवद्धिां तुल्याश्च प्रदेशकालाभ्याम् ॥५६॥ उपशाम्ताशाकरणाः संक्रमोद्वर्तने च दृष्टित्रिके । इति पदसंस्कारः "वसंतद्धा"त्ति, उपशान्तमोहगुणस्थानककालोऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः । तत्र चोपशान्ताद्धायां तत्संख्येयतमभागमात्री मोहायुर्वर्जषट्कर्मसत्कानां सत्तासम्भविनां सर्वोत्तरप्रकृतीनां गुणश्रेणिमारचति, साऽपि च 'सव्वद्ध' ति, सर्वाद्धां सकलमप्युपशान्तमोहगुणस्थानककालं यावत्प्रदेशाऽपेक्षया कालाऽपेक्षया च तुल्या विरच्यते । अयं भाव:-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकस्य चरमसमयं यावद् गुणश्रेणिर्गलिताऽवशेषाऽऽसीत् , इतः प्रभृत्युपशान्तमोहगुणस्थानकस्य संख्येयभागमात्रा कालाऽपेक्षया प्रदेशाऽपेक्षया चाऽवस्थिता भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूणों "उवसंतहाते संखिजतिभागतुल्लं गुणसेटिं करेति सव्वं उवसंतड अवहितो गुणसेदिकालो "सव्वड तुल्लाय पदेसकालेहि"ति पदेसग्गेण वि कालेण वि तुल्लो।" इति । भावार्थः पुनरयम्-उपशान्तमोहगुणस्थानप्रथमसमये गुणश्रेण्यर्थ यावद्दलं गृहीत्वोपशान्तमोह Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम २१२ ] [ गाथा ५६-५७ गुणस्थानकसंख्येयतमभागप्रमाण उदयसमयाद्यावत्यायामेऽसंख्येयगुणकारेण निक्षिपति, तद्वितीयसमयेऽवस्थितपरिणामात्तावदेव दलमादायोदयसमयात्तावत्येवाऽऽयामेऽसंख्येयगुणकारेण प्रक्षिपति, एवं पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमये त' वदेव दलं गृहीत्वा तावत्येवाऽऽयामे निक्षिपति, उपशान्तमोहगुणस्थानकपूर्वपूर्वसमयेषु क्षीणेषु सत्सु गुणश्रेणिशिर उपयु परि वर्धत इत्यर्थः । तेनोपशान्तमोहगुणस्थानकपर्यन्तं गुणश्रेणिः कालाऽपेक्षया दलाऽपेक्षया चाऽवस्थिता भवति, अवस्थितपरिणामरूपहेतोरेकरूपत्वात । कथमेतदवगन्तव्यमिति चेद् ? उच्यते। उपशान्ताऽद्धायां स्थितोऽवस्थितपरिणामो भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी "सब्वं कालं सव्वं उवसतद्धं अवहितो परिणामो भवति" इति । न चोपशान्तमोहगुणस्थानके वर्तमानो जन्तुरवस्थितपरिणामः कथं भवतीति वाच्यम् . यतो मोहनीयकर्मण उदयेन परिणामस्य संक्लिष्टत्वं वा विशुद्धत्वं वा भवति, अत्र तु मोहनीयकर्मणः सर्वथोदयाऽभावेनऽवस्थिता एव परिणामा विद्यन्ते । सूक्ष्मसंपरायचरमसमये गुणश्रेण्यर्थ याबद्दलं गृह्णाति, ततोऽसंख्येयगुणमुपशान्तमोहगुण. स्थानकप्रथमसमये गुणश्रेण्यर्थ गृह्णाति, यतश्चारित्रमोहनीयोपशमनातो विशुद्धराधिक्येनोपशान्तमोहगुणस्थानके दलिकाऽपेक्षया निर्जराऽसंख्येयगुणा भवति, कषायोदयाभावजघन्य यथारख्यातचारित्रमप्यस्मिन्गुणस्थानके जन्तुरवाप्नोति । उस्कृष्टप्रदेशोदय :- यदोपशान्त मोहगुणस्थानकसमयाननुभवजन्तुम्तद्गुणस्थानकप्रथमसमयकृतगुणश्रेणिशिरोनिषेकमुदयेऽवाप्नोति, तदा स ज्ञानावरणादीनामुत्कृष्टप्रदेशोदयमनुभवति । न चाऽयोगिगुणस्थानकचरमसमय उत्कृष्टप्रदेशोदयसंभवादत्रोत्कृष्टप्रदेशोदयः कथमुच्यते, इति वाच्यम् , उपशमश्रेण्यपेक्षयात्रोत्कृष्ट प्रदेशोदयम्योक्तत्वात् । ननूपशमश्रेण्यामत्रोत्कृष्टप्रदेशोदयो भवतीति कथमेतदवगन्तव्यमिति चेद् । उच्यते-उपशान्तमोहगुणस्थानकस्य प्रथमममयकृतगुणश्रेणिनिक्षेपस्य चरमनिषेकेण प्राप्यमाणं यद्दलं यच्च द्वितीयसमयकृतगुणश्रेणिनिक्षेपस्य द्विचरिमनिषेकेण प्राप्यमाणं भवति तथा यत्ततीयसमयकृतगुणश्रेणिनिक्षेपस्य त्रिचरमनिषेकेण प्राप्यमाण मेवं तावद्वक्तव्यं यावदुदयसमयकृतगुणश्रेणिनिक्षेपस्य प्रथमनिषेकेण प्राप्यमाणम् । एतत्सर्व दल तस्मिन्नुदयसमये संग्रहीतं भवति, अत उपशान्तमोगुणस्थानके गुणश्रेण्यर्थमेकममयेन याबद्दलमुत्किरति, तावद्दलं गुणश्रेण्या प्राप्त तथा सत्तागतमन्यद्यद्गोपुच्छाकारेण पूर्व सत्त्वमासीत् , एतत्सर्वदलं तस्मिन्नुदयममय उदेतीति कृत्वोत्कृष्ट प्रदेशोदयो भवति । न च प्रथमसमयकृतगुणश्रेणिशीर्षस्योपरितनसमयेष्वपि गुणश्रेण्यर्थमेकसमयेन यावद्दलंमुत्किरति तावद्दलं संभवति, ततः कथं प्रथमसमयकृतगुणश्रेणिशीर्षसमय एवोत्कृष्टप्रदेशोदय उच्यत इति वाच्यम्, उपरितनसमयेषु गुणश्रेण्या प्राप्यमाणदलिकस्य समानत्वेऽपि प्रथमसमय Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 穆 [ २१३ B. मोहेऽनुभागादयः ] कृतगुणश्रेणिशीर्षसमये यत्सत्तागतगोपुच्छाकारदलिकं तत उत्तरोत्तरसमये सत्तागतगोपुच्छाकारदलिकस्य विशेषहीनत्वेन तदानीमुदयमानदलिकस्य न्यूनत्वसंभवात् । न चैवमपूर्वकरणप्रथमादिसमयकृतगलिताऽवशेषगुणश्रेणिशीर्षसमय उदयमान उत्कृष्टप्रदेशोदयः कथ न भवति ? यतो गलिताऽवशेषगुणश्रेणिशीपेऽपूर्वकरण प्रथम समयादारभ्योपशान्तमोहगुणस्थानकेऽपि दल प्रक्षिप्यत इति वाच्यम्, सूक्ष्म संपशयगुणश्रेणिचरम समयपर्यन्तनिक्षिप्तप्राक्तन गुणश्रेणिसर्वदलिकतोऽप्युपशान्तमोहगुणस्थानकस्य विशुद्धिमाहात्म्येन तद्गुणस्थानकप्रथमसमये गुणश्रेण्यर्थं गृह्यमाणदलिकस्याऽसंख्येयगुणत्वेन गलिताऽवशेषगुणश्रेणिशीर्ष उदयमान उत्कृष्ट प्रदेशोदयासंभवात् । ननु सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानक नरम समयकृतगुणश्रेणिशीर्षसमय उपशान्तमोहगुणस्थानकप्रथमसमयकृतगुणश्रेणिशीर्षतोऽर्वाकू कथं प्राप्यत इति चेद् ! उच्यते - अल्पबहुत्वाऽधिकारे वक्ष्यते सूक्ष्मसंपरायचरमसमयकृतगुणश्रेण्यायामत उपशान्तमोह गुणस्थानकप्रथम समय कृतगुणश्रेण्यायामः संख्ये गुणः, तत्राऽक्षराणि त्वेवम् - "चरिमसमय सुहुमसां पराइयस्स गुणसेदणिकखेवो संखेज्जगुणो त चेव गुणसेढिसोसयं ति भण्णदि । उवसंतकसायस गुणसेहिणिक्खेवो संखेज्जगुणो ।" इति । इत्थमुपशान्तमोहगुणस्थानकप्रथमसमयकृतगुणश्रेण्यायामतः संख्ये यगुणहीनः सूक्ष्मसंपरायचरमसमयकृतगुणश्रेण्यायामो भवति । तेनोपशान्तमोहगुणस्थानकप्रथम समय कृतगुणश्रेण्यायामस्य संख्येयतमे भागे सूक्ष्म संपरायस्य चरमसमयकृत गुणश्रेणिशीपं प्राप्यते । ततः परं संख्येयेषु बहुभागेषु गतेषूपशान्तमोह गुणस्थानकप्रथमसमयकृतगुणश्रेणिशीर्षं प्राप्यते, अत उपशान्तमोह गुण स्थानक प्रथमसमय कृतगुण श्रेणिशीर्पतोsa सूक्ष्मसंपरायस्यगुणस्थानकचर मसमय कृतगुणश्रेणिशीर्षं लभ्यते । चारित्रमोहनोयोपशमनाधिकारः अनुभाग:- उपशान्तमोहगुणस्थानके वेद्यमानपञ्चविंशतिप्रकृतीनामनुभागोऽवस्थितो भवति, कथमेतद्भवतीति चेद् ! उच्यते, नामकर्मणस्तैजसकार्मणशरीरवर्णगन्धरसस्पर्श स्थिराऽस्थिरशुभाऽशुभाऽगुरुलघुनिर्माणरूपा ध्रुवोदया द्वादश नामकर्मणः सुभगादेययशः कीर्तयस्तिस्रो ध्रुवोदया अन्तरयपञ्चकमुच्चैर्गोत्रं केवलज्ञानावरणं केवलदर्शनावरणं निद्राद्विकं चेति पञ्चविंशतिप्रकृतीनां परिणामप्रत्ययत्वादवस्थितोऽनुभाग उदये वर्तते । उपश न्तमोहगुणस्थान केऽवस्थित परिणामसद्भावात् मतिज्ञानावरणश्रुतज्ञानावरणाऽवविज्ञानावरण मनः पर्यवज्ञानावरण चक्षुर्दर्शनावरणाऽचशुर्दर्शनावरणाऽवधिदर्शनावरणीय वेदनीयाद्विकमनुष्यायुर्मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकद्विका-ऽऽद्यसंहननत्रिक संस्थानषट्कख गतिद्वि कोपघातपराघातश्वासोच्छ्वासत्र स चतुष्कसुस्वरदुःस्वररूपाण चतुस्त्रिंशतः प्रकृतीनां परिणामप्रत्ययाभावेन तदनुभाग उदये षट्स्थानपतितो वृद्धो हीनो Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ । उपशमनाकरण [ गाथा ५६-५७ वाऽवस्थितो वाऽपि भवति । उक्तं च कषायमाभनौँ -"केवलणाणापरणकेवलदंसणावरणीयाणमणुभागदुएणसव्वउवसंतद्धाए अवहिदवेदगो। णिद्दापयलाणं पि जाव वेदगो ताव अवहिदवेदगो अंतराइयस्स अपहिदवेदगो सेसाणं लद्धिकम्मसाणमणुभागुदओ षड्डी वा हाणीवा अवठ्ठाणं वा । णामाणि गोवाणि जाणि परिणामपच्चयाणि तेसिमवहिदवेदगो अणुभागोदएण।" इति उवसंता' इत्यादि, उपशान्तमोहगुणस्थानक उपशान्तचारित्रमोहनीयप्रकृतयः 'अकरणा' करणरहिता भवन्ति सडक्रमणोद्वर्तनाऽपवर्तनोदीरणानिद्वत्तनिकाचनाकरणानामयोग्या भवन्तीत्यर्थः । 'दिष्ठितिगे' दृष्टित्रिके पुनरुपशान्तेऽपि सङ्क्रमणाऽपवर्तने भवतः । तत्र सङ्क्रमो मिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वयोः 'सम्यक्त्वे मिथ्यात्वस्य च मिश्रेऽपि, अपवर्तनातु त्रयाणामपि मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वानां भवति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचौँ-"वसतातो मोहपगडीतो करणाय ण भवंति । संकमणाते उवणाए ओव्धट्टणातो उदीरणाते णिहलिए णिकायणाए य ण जायंति । "सकमणो वणाय दिहितिगे" त्ति, सकमण च उघट्टणं च विहितिगस्स अस्थि । कहं ? भण्णइ-तंमि काले मिच्छत्तसंमामिच्छुत्ताण समत्ते संकमो, तिहविउव्वदृणा अस्थि चेव ।" इति । उक्तः पुवेदक्रोधोदयारूढस्याऽऽरोहणक्रमः । अथ तस्यैव प्रतिपातोऽभिधीयते । प्रतिपातः य उपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते स अवश्यमेव श्रेणितः प्रतिपतति, ततस्तस्य प्रतिपातं वक्तुकाम आह टिप्पणी . तथैव लब्धिसारेऽप्युक्तम्"इति पञ्चविंशतिप्रकृतयः परिणामप्रत्यया , प्रात्मनो संक्लेशपरिणामहानिवृद्धयनुसारेण एतत्प्रकृत्यनुभागस्य हानिवृद्धिसभावात् । तासां पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनुमागोदय उपशान्तकषाये प्रथमसमयादारभ्य तत्कालचरमसमयपर्यन्तमवस्थित एव तत्र यथाख्यातविशुद्धचारित्रस्य प्रतिसमयं हानिवृद्धिभ्यां विनाऽवस्थितत्वेन तत्कर्मप्रकृत्यनुभागोदयेऽस्याऽपि हानिवृद्धिम्यां विनाऽवस्थितत्वं सिद्धम् । शेषा मतिभुतावधिमन:पर्यवज्ञानावरणचतुष्टयं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणनयं साताऽसातवेदनीयद्वयं मनुष्यायुमनुष्य गतिपञ्चेन्द्रियजात्यौदारिकशरीरत्तदङ्गोपाङ्गऽऽद्यसंहननत्रयषटसंस्थानोपघातपराघातोच्छवासविहायोगतिद्वयप्रत्येक त्रसबादरपर्याप्तस्वरद्वयनामप्रकृतयश्चतुर्विंशतिरिति चतुस्त्रिशत्प्रकृतयो भवप्रत्यया एतासामनुभागस्य निशुद्धिसंक्लेशपरिणामहानिवृद्धिनिरपेक्षतया विवक्षित भवाश्रयेणेव षट्स्थानपतितहानिवृद्धिसभवात् । अत: कारणाववस्थितविशुद्धिपरिणामेऽप्युप. शान्तकषाय एतच्चतुस्त्रिशत्प्रकृतीनामनुभागोदर्यास्त्रस्थानसभवी भवति कदाचिद्धीयते कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धानिवृद्धिभ्यां विनैकादश एवाऽवतिष्ठन्त इत्यर्थः ।" इति । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उप. मोहप्रतिपात: चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २१५ पच्छाणुपुब्विगाए परिवडइ पमत्तविरतो त्ति ॥५७॥ पश्चानुपूा. प्रतिपतति यावत्) प्रमत्तविरतिमिति ॥५४॥ इति पदसंस्कारः एको जन्तुरूपशान्तमोहगुणस्थानकस्य प्रथमसमयान्प्रभति तच्चरमसमयपर्यन्तं विद्यमानेषु समयेवायुषि पूणे मृत्वोपशान्तमोहगुणस्थानकतश्च्युत्वा देवः सनविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानक गच्छति, अन्यो जन्तुः पुनरुपशान्तमोहगुणस्थानकस्याऽन्तमुहूर्ते काले व्यतीते ततः परिच्युस्याऽधस्तनगुणस्थानकानि क्रमशः स्पृशतीति प्रतिपातो द्विविधो भवति (१) भवक्षयेण (२) अद्धाक्षयेण च । तत्राऽऽद्यो भवक्षयानिमित्तकः प्रतिपातो विविच्यते । उपशान्तमोहगुणस्थानककाले प्रथमसमयादारभ्य चरमसमयपर्यन्तमायुषि क्षीण उपशान्तमोहकाले मृत्वा देवगता अविरतसम्यक्त्वगुणस्थानके प्रतिपतति, तम्य प्रथमसमय एच बन्धनोदीरणासङ्क्रमणनिधत्त्यादीनि सर्वाण्यपि करणानि युगपत्प्रवर्तन्ते, अविरतिसम्यग्दृष्टित्वभावादुपशान्तप्रकृतीनामुपशान्तत्वं प्रणश्यतीत्यर्थः । प्रथमममय एवं कमदलं समाकृष्याऽन्त करणं पूरयति ।। अन्तरकरणे दलप्रक्षेपविधिश्वाऽयम्-प्रथमसमये यानि कर्माण्युदयप्राप्तानि तेषां दलिकान्युदयसमयादारभ्योदयावलिकायां सदुपरि च रचयति । यानि कर्माण्युदयाप्राप्तानि तेषां दलिकान्युदयावलिकाबहिर्विशेषहीनक्रमेण गोपुच्छसंस्थितानि विरचयत्यन्तरकरणं च *दलिकैः । किमुक्तं भवति-विशेषहीनक्रमेणोदयप्राप्तानामप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनक्रोधमानमायालोभानामन्यतमस्य कषायस्य पुरुषवेदहास्यरतीनामुदयवतोयजुगुप्सयोयथासंभवं दलिकमुदयः समयात्प्रक्षिप्रति. उदयाऽप्राप्तानां नपुसकवेदादीनां शेषमोहनीयप्रकृतीनां दलमुदयावल्युपरितन. प्रथममम माद्विशेषहीनक्रमेण निशिपति । अथाऽद्धाक्षयहेतुकः प्रतिपातो विवर्ण्यते-यस्तूपशान्तमोहगुण स्थानकस्याऽन्तमुहुर्ते काले समाप्त आयुषि सति प्रतिपतति, स पश्चादानुपूर्त्या येन कमेणाऽऽरूढस्तेनैव क्रमेण प्रमत्तगुणस्थानकं यावत्प्रतिपतति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचुरें-"जो उवसमडाखएणं परिपउति तस्स विभासा पच्छाणपुब्विगए परिवडति पमत्त टिप्पणी ★ लब्धिसारेऽन्तरपूर्णेऽयं दर्शितः- भवक्षयादुपशान्तकषायगुणस्थानकात्प्रतिपतितदेवाऽसंयतः प्रथमसमय उदयवतामप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनक्रोधमानमायालोभानामन्यतमस्य कषायस्य पुवेदहास्यरतीनों भयजुगुप्सयोयथासंभवमन्यतरस्य च द्रव्यं स....इदं पुनरसंख्यातलोकेन खण्डयित्वैकमागमुदयावल्यां दत्वा स तद्बहुभागेषूदयावलिबाह्यप्रथमसमयादारभ्याऽन्तरायामे द्वितीयस्थिती च दिवड्वगुणहाणि भजिद इत्यादिविधानेन विशेषहीनक्रमेण ददाति, उदयरहितानां नपुसकवेदादीनां मोहप्रकृतीनां द्रव्यमपकृष्योदयावलिबाह्यनिषेकेष्वन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च पूर्वोक्त विधानेन विशेषहोन क्रमेण प्रतिनिषेकं ददाति । अनेन विधानेन चारित्रमोहस्याऽन्तरं पूरयतीत्यर्थः। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ ] [ गाथा ५७ वीर "त्ति, जेणेव विहिणा आरूढो तेणेव विहिणा पच्छाणुपुन्नीए परिवडति पमत्तसजतो" इति । भावार्थः पुनरयम् - उपशान्तमोहगुणस्थानकतः पतन् प्रथमं सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकं गच्छति, तदनन्तरमनिवृत्तिगुणस्थानकं लभते, ततश्चाऽपूर्वकरणगुणस्थानकमश्नुते, तदन्वप्रमत्त गुणस्थानकं प्रविशति, ततः पश्चात्प्रमत्तगुणस्थानकम् । एवं सामान्येनाऽभिधाय विशेषेणाऽभिधित्सुराह- उपशमनाक रणम उक्कड़ित्ता विईिहि उदयाइस खिवइ दव्वं । सेदीए विसेसूणं श्रावलिउपि संखगुणं ॥ ५८ ॥ अपकृष्य द्वितीयस्थितेरुदयादिषु क्षिपति द्रव्यम् 1 श्रेण्या बिशेषोनमावलिको पर्यसंख्ये यगुणम् उपशान्तमोहगुणस्थानकात्प्रतिपतन्सूक्ष्म संप रायगुणस्थानकं गच्छति । सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकप्रथमसमय एव त्रयो लोभा उपशान्ता भवन्ति सूक्ष्मलोभं वेदयितु ं द्वितीयस्थितेः सकाशकिट्टीः समाकृष्योदयसमयात्सूक्ष्मलोभवेदकाऽद्धातः किञ्चिदधिके काले प्रथमस्थिति करोति । तत्र दलनिक्षेपक्रमश्चाऽयम् 'उदयादिषु' उदयममयप्रभृतिषु स्थितिषु श्रेण्या विशेषोनं विशेषोनं दलं प्रश्चिपति । तद्यथा - उदयसमये प्रभूतम्, ततो द्वितीयसमये विशेषहीनम्, ततोऽपि तृतीयसमये विशेषहीनम्, एवं तावद्वक्तव्यम्, यावदुदयावलिकायाश्रमसमय उदयावलिकाया उपर्यसंख्येयगुणम् । तद्यथा - उदयावलिकाया उपरि प्रथमसमये प्राक्तनाऽनन्तरसमय दलिक निक्षेपाऽपेक्षयाऽ संख्येयगुणं दलम्, ततोऽपि द्वितीयादिसमयेषु यथोत्तरमसंख्येयगुणं वाच्यम्, यावद्गुण श्रेणिशिरः, गुणश्रेणिश्च सूक्ष्मलोभवेदकाऽद्धातः किश्चिदधिककालप्रमाणा भवति । गुणश्रेणिशिरस उपरि प्रथमनिषकेऽसंख्यगुणहीनम्, ततः विशेषहीनं विशेषहीनं दलं प्रक्षिपति उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णौ - "परिवडमाणो लोभाइणोवर्कमे वेयमाणो तेसि बितिपठितितो दलियं घेतण पढमहिती करेति, 'उदयादिसु' त्ति उदयादिसु हिन्ति निक्खिषड् । 'सेढीए विसेसूणं' ति-पढमसमये बहुगं वितिय समते विसेस होणं जाव आवलिगा, आवलिंगाते परतो गुणसेढीकमेण णिक्खिवद्द | आवलिगा उवरिं असरखेज्जगुणाए सेटीए जाव गुणसेढीसोसगमिति परओ बिसेसहीणा चेव द्विति ॥ " इति । कषायप्राभृतचूर्णिकारैस्तदुदय समयादुत्तरोत्तर निषेके संख्येयगुण का रेणदलिक निक्षेप उक्तः । तथा च तद्ग्रन्थ:-"पढमसमयसुहृम संपराइएण तिविह लोभमोकड्डियूण संजलणस्स उदयादिगुणसेढी कदा |" इति । ||१८|| इति पदसंस्कारः " Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाते दलनिक्षेपः। चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २१७ अनुदयवतीनां प्रकृतीनां निक्षेप विधिं व्याजिहीपुरभिधत्ते वेइज्जतीणेवं इयरासिं थालिगाइ बाहिरयो । ण हि संकमोणुपुरि छावलिगोदीरणा उप्पिं ॥५॥ वेद्यपानानामेवमित रासामावलिकाया. बहिः । न हि संक्रम प्रानुपूा , षडावलिकापर्युदोरणा ।। ५६ ॥ इति पदसंस्कारः 'वेद्यमानाम् वेद्यमानां प्रकृतीनाम् 'एव' उक्तप्रकारेणदलनिक्षेपविधिरुक्तः। सम्प्रति 'इतरासाम्'शेपाणामवेद्यमानानामप्रत्याख्यानावरणादीनां प्रकृतीनां दलिकानि द्वितीयस्थितितो गृहीत्वोदयावलिकाया उपरि दलिकनिक्षेपो भवति, तासामुदयाऽभावेनोदयावलिकायां निक्षेपमकृत्वा तदुपरितनेषु निषेकेषु दलं निक्षिपतीत्यर्थः, तद्यथा-उदयावलिकोपरितनप्रथमनिषेके दलिकं स्तोकं प्रक्षिपति, ततोऽनन्तरनिषेकेऽसंख्येयगुणम् , एवं श्रेण्या तावन्निक्षिप्तव्यम्, यावद्गुणोणशिरस्ततोऽसंख्येयगुणहीनम् , ततः परं विशेषहीनक्रमेण दलं निक्षिप्यते । 'न हि'इत्यादि, 'हि' शब्दोऽवधारणे किमवधार्यत इति चेद् ! उच्यते-यः प्रागुपशमश्रेण्यारोहे मोहनीयस्याऽन्त. रकरणे कृतेऽनुपूव्यव सङ्क्रम उक्तः, प इह न, किन्त्वनानुपूाऽपि । ननु सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानके मोहनीयस्याऽनानुपूर्त्या सङ्गमः कस्यां प्रकृती संभवेत् , बन्धाऽभावेन पतद्ग्रहताऽऽसिद्धेरिति चेद् ! उच्यते-अनानुपूर्वीस क्रमस्य स्वरूपयोग्यतया प्रतिपादितत्वमस्ति । वस्तुतो यदा माया भन्त्स्यते, तदेव लोभस्य सक्रमोऽनानुपूर्व्या भविष्यति कषायमाभृतचूर्णी तु संज्वलनलोभे बध्यमाने मोहनीयस्याऽनानुपूा सङ्क्रम उक्तः, तथा च तद्ग्रन्थः "अणियही पहुडी मोहणीयस्स आणाणपुचीसंकमो लोभस्स वि संकमो।" इति । सोऽपि स्वरूपयोग्यतयैव भवितव्यः, अन्यथा तदानीमप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणयोः संज्वलनलोभे यः सङ्क्रमो भवति, सोऽपि आनुपूयेव नाऽनानुपूा । तदानीं च संज्वलनलोभस्य त्वन्यत्र सङ्क्रमो न भवति, अन्यासां प्रकृतीनां बन्धाऽभावेन पतद्ग्रहताऽभावात् । ___ तथाऽन्तरकरणे कृते कस्यचित्कर्मणो बन्धाऽनन्तरं षण्णामावलिकानामपर्यु दीरणा भवतीति यत्पूर्वमुक्तम् , तदपीह न भवति । किन्तु बन्धावलिकायां व्यतिक्रान्तायामुदीरणा भवितुमर्हति । उक्तं च कर्मप्रकृतिची-"घडं छण्हं आवलिगाणं परओ उदीरिज्जति ति तं पि नस्थि बंधावलियाए गयाते उदिरिजति" इति । एवं कषायप्राभूतचूर्णावपि "सव्वस्स पडिवदमाणगस्स छमु आवलियासु गदासु उदीरणा इदि स्थि णियमा आवलियादिक तमुदिरिजाति ।" इति । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ६. ननु गुणश्रेणिशिरःपर्यन्तं निक्षेप उक्तः, किन्तु गुणश्रेण्यायामो नोक्त इति कस्यचिच्छङ्का भवेत् , तत्परिहारार्थमाह वेइज्जमाणसंजलणद्धा अहिगा उ मोहगुणसेढी । तुल्ला य जयारूढो अतो य सेसेहि से तुल्ला ॥६०॥ वेद्यमानसंज्वलनाद्धाया अधिका तु मोहगुणश्रेणिः । तुल्या च येनारूढोऽतश्च शेषाभिः तस्य तुल्या ॥६०॥ इति पदसंस्कारः "मोहे गुणसेढी"इत्यादि, प्रतिपततः सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयेऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनलोममोहनीयस्य गुणश्रेणिः सूक्ष्मसंपरायकालादधिका,सा च कालमाश्रित्य तुल्या। इदमुक्तं भवति-सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये यावान् गुणश्रेण्यायामः,तद्वितीयसमयेऽपि तावन्मात्रः एवं वेदनत समयेषु क्षीणेषु सत्सु गुणश्रेण्यायाम उपयु परिवर्धते, शेषकर्मणां मोहनीयायुर्वर्जानां ज्ञानावरणीयादीनां च गुणश्रेण्यायामोऽवरोहकसूक्ष्मसंपरायाऽनिवृत्तिकरणाऽपूर्वकरण गुणस्थानकत्रयकालादधिको भवति, स च गलिताऽवशेषमात्र उदयेन क्षीणेषु समयेषु सत्सु न्यूनो न्युनो भवतीत्यर्थः, उपशान्तकषाये तु शेषकर्मणां गुणश्रेणिरवस्थिताऽऽसीत्, इदानीं तु गलिताऽवशेषमात्री भवति । उक्तं च कषायप्राभतचूणौँ "सेसाणमाउषजाणं कम्माणं गुणसेढीणि. क्खेवो अणियहिकरणाद्धादो अपुव्वकरणडादो च विसेसाहिओ सेसे सेसे च निक्खेषो । तिविहस्स लोहस्स तत्तियो चेव णिक्खेवो।" इति । एवमग्रेऽपि यदा माया वेदिष्यते, तदा मायाया गुणश्रेणिस्तद्वेदनकालतः किश्चिदधिकायामाऽवस्थिता करिष्यते, शेषकर्मणां च प्रागिव वक्तव्या । 'जया' त्ति, प्राकृतत्वात् स्त्रीनिर्देशो येन संज्वलनेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्तमुदयेन प्राप्तः संस्ततः प्रभृति तस्य क्रोधादिकषायस्य गुणश्रेणि शेषकर्मसत्वगुण. श्रेणिभिस्सह तुल्यामारभते, तदानीं यावत्यायाम शेषकर्मणां गुणश्रेणिं करोति, तावत्येवायामे तत्कपायस्य गुणश्रेणि विरचयति तां च पुनर्गलिताऽवशेषमात्रीं करोति, यथा कश्चित्क्रोधोदयेनोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्ततः श्रेणितः प्रतिपतन् यदा क्रोधमुदयेन प्राप्तस्ततः प्रभृति तस्य कषायस्य गुणश्रणिः शेषकर्मभिस्तुल्या भवति । एवं मानमाययोरपि वाच्यम् । संज्वलनलोभेन पुनरूपशमश्रेणिमारूढस्य प्रतिपातकाले सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयादेवाऽऽरभ्य लोभस्य गुणश्रेणिः शेषकर्मणां गुणश्रेणिभिस्समाना प्रवर्तते, साऽपि च गलिताऽवशेषा । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी"वेतिजमाणसंजलणडाए अहिगा उ मोहगुणसेढी तुल्ला य जयारूढो त्ति वेतिज्जमाणसंजलणडाए अहिगा मोहणिजगुणसेढीकालं पडुच्च, तुल्ला य 'जयारूढो' त्ति-जाए संजलणाए सेहिं पडिवन्नो तातो चेव तं कम्म पत्तस्स सेसमेहि Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 饔 प्रतिपाते स्थित्यनुभागबन्ध: ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २१६ 1 सरिसा गुणसेढी । सेसकम्माणं पुण आरुहंतस्स जं भणियं तारिसं चेव अणुणमतिरित्तं भाणियव्वं । कालतो अमहिया तत्तिया य गुणसेढी कालं पडुच्च काह पत्ते अतो य सेसेहिं तुल्लन्ति - जाहे कोहं पत्तो ततो पभिति सेसं कंमेहिं सरिसा गुणसेढी ।" इति । अथ स्थितिबन्धमनुभागबन्धं च वक्तुकामोऽभिधत्ते — खवगुवसामगपडिवयमाणदुगुणो तहिं तहिं बंधो । भागोऽणं गुण सुभाण सुभाग विवरीयो ||६ १ ॥ क्षपकस्योपशमकस्य प्रतिपततो द्विगुणस्तत्र तत्र बन्धः । अनुभागोऽनन्तगुणोऽशुमानां शुभानां विपरीतः ॥ ६१ ॥ | इति पदसंस्कार: "खवगुवसामग" त्तिक्षपकम्य क्षपकश्रेणिमारोहतो जीवस्य यस्मिन् स्थाने यावान् स्थितिबन्धो भवति, तस्मिन्नेव स्थान उपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानस्य स्थितिबन्धो द्विगुणो भवति, ततोऽपि तस्मिन्नेव स्थान उपशमश्रेणितः प्रतिपततो जन्तोद्विगुणः स्थितिबन्धो भवतीति क्षपकस्य स्थितिबन्धतः प्रतिपततश्चतुर्गुणो भवतीत्यर्थः । अयं क्रमोऽनिवृत्तिकरणस्य किश्चित्कालं यावद्वक्तव्यः, तत परं द्विगुणनियमो नाऽवतिष्ठतेऽधिकतरस्यापि भावात् । तथा क्षपकस्य यस्मिन् स्था शुमानां प्रकृतीनां यावाननुभागो बध्यते, ततस्तस्मिन्नेव स्थाने तासामेवाऽशुभानामुपशामकेन योsनुभागो बध्यते, सोऽनन्तगुणस्ततोऽप्युपशमश्रेणतः प्रतिपततो जन्तोरनन्तगुणो वध्यते । 'सुभाणं विवरिओ'त्ति शुभानां प्रकृतीनां पुनरनुभागो विपरीतो वाच्यः, तथाहि - उपशमश्र - णितोऽवरोहता यस्मिन्स्थाने शुभप्रकृतीनां यावाननुभागो बध्यते, ततोऽनन्त गुणस्तस्मिन्नेव स्थान उपशमकेन तासामेव शुभानां प्रकृतीनां बध्यते, ततोऽपि तस्मिन्नेव स्थानेऽनन्तगुणः क्षपकेण बध्यते । शेषं यथाऽऽरोहतः, तथा प्रतिपततोऽपि वेदियतव्यम्, यावत्प्रमत्तगुणस्थानकम् । एतत्सर्वं संक्षेपेणाऽभिहितम् । अथ विस्तरतोऽभिधीयते । उपशान्तमोहगुणस्थानकतः पतित्वा सूक्ष्मसंपरायप्रथम समय एते पदार्थाः प्रवर्तन्ते (१) द्वितीय स्थितिगतं लोमत्रयमनुपशान्तं भवति । (२) द्वितीय स्थितितः किट्टीः समाकृष्य सूक्ष्मलोभवदेकाऽद्धातः किश्चिदधिककालां प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च । तथोदयावलिकायामुपरितनस्थितौ यथाक्रमं गोपुच्छाकारेणासंख्ये गुणकारेण च प्रक्षिप्य गुणश्रेणिशिरस उपरितनस्थितौ विशेषहीनक्रमेण प्रक्षिपति | Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम २२० ] [ गाथा ६१ 卐 कषाय-प्राभूतचूर्णिकारमतेनोदयसमयादेवाऽसंख्येयगुणकारेण प्रक्षिपति । (३) सूक्ष्मलोमस्य गुणश्रेणिः सूक्ष्मलोभवेदकाऽद्धातः किश्चिदधिकाऽऽयामा भवति, सा चाऽवस्थिता भवति । (४) अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणलोभद्विकस्य गुणश्रोणिरुदयावलिकाया उपरितननिषेकाद्भवति साऽप्यवस्थिता भवति । * (५) शेषकर्मणां गुणश्रेणिः सूक्ष्मसंपरायाऽनिवृत्तिकरणाऽपूर्वकरणगुणस्थानकत्रयकालादधिकायामा क्रियते, सा च गुणश्रेणिर्गलिताऽवशेषमात्री भवति । (६) ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थितिबन्धस्याऽन्तमुहृतप्रमाणत्वेऽप्युपशमश्रेणि प्रतिपद्यमानतो द्विगुणत्वम् । नामगोत्रयोात्रिंशदन्तमुहूर्तप्रमाणः स्थितिबन्धो वेदनीयस्यचाऽष्टचत्वारिंशमुहूर्तमात्रः।। (७) आनुपूा सङ्क्रमस्य यो नियमः प्रागासीत् , स इदानीं व्यवच्छिद्यते । ___(6) आरोहकस्याऽशुभानां योऽनुभागवन्ध आसीत् , ततोऽनन्तगुणवृद्धः श्रेणितः प्रतिपततो भवति, आरोहकस्य शुभानां प्रकृतीनां योऽनुभागबन्धो भवति स्म, ततोऽनन्तगुणहीनः श्रोणितः प्रतिपततो भवति । __(8) येनैव क्रमेण स्थितिबन्धादीन कुर्वन्नारूढः, तेनैव क्रमेण पश्चानुपूा स्थितिबन्धादीन कुर्वन् प्रतिपतति, ततोऽनन्तरसमये सूक्ष्मसंपरायस्य द्वितीयसमय इत्यर्थः, स्थितिबन्धः तावान्नेव भवति, रसबन्धस्त्वशुभानां प्रकृतीनामनन्तगुणवृद्धः शुभाना चाऽनन्तगुणहीनो भवति, एवं पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमये गुणश्रेण्यर्थ दलं च पूर्वतोऽसंख्येयगुणहीनंगहीन्वोत्तरोत्तरनिषेकप्वसंख्येयगुणकारेण श्रेण्या विरचयति एवं प्रतिसमयमनन्तगुणसंक्लेशस्य सत्त्वात्पूर्व पूर्वत उत्तरोत्तरसमयेऽसंख्येयगुणहीनं दलिकं गृहीत्वोत्तरोत्तरनिषेकेष्वसंख्येयगुणकारेण श्रेण्या रचयति । जटिप्पणी-तथैव लब्धिसारेऽपि तत्र तावदुदयवतः संज्वलनलोभस्य द्वितीयस्थितौ स्थितं कृष्टिगतं द्रव्यमपकृष्य पल्यासंख्यातमागखण्डितैकभागमात्रमुदयसमयादारभ्य गुणश्रेण्यायामचरमसमयपर्यन्तं संख्यातगुणितक्रमेण निक्षिप्य पुनस्तबहुभागद्रव्यं गुणश्रेणिशीर्षस्यान्त रायाममुल्लडघ्य द्वितीयस्थिती दिवड्डगुणहानि माजिद इत्यादिना विशेषहीनक्रमेण निक्षिपेत् । उदयरहितयोरप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभयोद्वितीयस्थितौ स्थितं द्रव्यमपकृष्योदयावलिबाह्यप्रथमसमयादारभ्य गुणश्रेण्यायामचरम. समयपर्यन्तमसंख्यातगुणितक्रमेण तदुपर्यन्तराऽऽयाममुल्लङघ्य द्वितीयस्थिती पूर्ववद्विशेषहौनक्रमेण निक्षपेत् एवमुत्तरत्राऽप्युदयाऽनुदयवतोगुणहानिगिनिक्षेपक्रमो वेदितव्यः। लब्धिसारे शेषकर्मणां गुणश्रणिलिकनिक्षेप इत्थं प्ररूपितः-पुनःषण्णामायुर्मोहवजितानां ज्ञानावारणादिकमणां वलिकमपकृष्य पल्याऽसंख्यातभागेन खण्डयित्वा तदेक भागमुदयावल्यां निक्षिप्य बहुभागं गुणश्रेण्यायामेऽवरोहकसूक्ष्मसपरायाऽनिवृत्त्यपूर्वकरणकालेभ्यो विशेषाऽधिकमात्र गलितावशेपेऽसंख्यातगुणितक्रमेण निक्षिप्याऽवशिष्टबहुभागोपरितनस्थिती पूर्ववद्विशेषहीनक्रमेण निक्षिपेत् । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपातसूक्ष्मसंपराये किट्ट रुदयः ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ २२१ सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये चरमसमयकृतकीट्टीनां जघन्यकिट्टरारभ्याऽसंख्येयभागप्रमाणाः किट्टीविमुच्य प्रथमसमयकृतकिट्टीनां चोत्कृष्टकिरारभ्याऽसंख्येयभागमात्री: किट्टीः परित्यज्य शेषाः स्वरूपेणोदयन्ति, सूक्ष्मसंपरायस्य प्रथमसमये यावत्यः किट्टय उदयन्ति, ततो विशेषाधिकाः किट्टयस्तद्वितीयसमये वेद्यन्ते, यथोपशमश्रं णिमारोहन् पूर्वपूर्वसमयतः प्रतिसमयमसंख्येषभागमात्रास्तीवाऽनुभागा अमुकाः किट्टीर्विमुच्याऽसंख्येयभागमात्राश्च मन्दानु. भागाः किट्टीवाति स्म । तथोपशमश्रेणितः प्रतिपतनयं विपरीतमाचष्टे । किमुक्तं भवति ? असंख्येय भागमात्रीर्मन्दानुभागा किट्टीः परित्यज्याऽसंख्येयभागमात्रास्तीवाऽनुभागाः किट्टीर्गलाति, विमुच्यमान किट्टितो विशेषाधिकार किट्टी हाति,तेन पूर्वपूर्वसमयत उत्तरोत्तरसमय उदये विशेषाधिकाः किट्टयः प्राप्यन्ते । + उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"पढम. समए उदिण्णाओ थोवाओ बिदिघसमये उदिण्णाओ किटोओ विसेसाहियाओ सव्वसुहमसंपराइयडाए विसेसाहियघडीए किहोणमुदये" इति । उदयेऽनुभागस्तु पूर्वपूर्वतः प्रतिसम पमनन्तगुणो विद्यते । न चोदये पूर्वपूर्वतः किट्टयो विशेषाधिका भवन्ति, अनुभागो. ऽनन्नगुणः कथमुदये भवति ? इति वाच्यं विवक्षितसमय उदयमाना उत्कृष्टकिरनन्तरमुदयार्थ गृह्यमाणोपरितनकिटिषु प्रथमकिट्टरप्यनन्तगुणरसोपेतत्वादेवमनेन क्रमेण तावद्वक्तव्यम् , यावसूक्ष्मलोभस्य प्रथमस्थितेरावलिकाऽवशिष्यते,तदानीं सूक्ष्मसंपरायकालः पूर्णो भवति, ततोऽनन्तरसमये तदानीमनिवृत्तिकरणबादरसंपरायगुणस्थानकं प्रविशति, अतस्तत्स्वरूपं विविच्यते अनिवृत्ति करणवादग्संपरायगुणस्थानकप्रथमसमय इमे पदार्थाः प्रवर्तन्ते (१) लोभत्रिकस्य बादरलोभवेदककालतः किश्चिदधिकायामाऽवस्थिता पूर्ववद्गुणश्रीणिविरच्यते । (२) शेषकर्मणां गलिताऽवशेषगुणश्रेणिः पूर्ववत्प्रवर्तते । (३) मुश्मलोभम्याऽवशिष्टाऽऽवलिका वादरलोभे सङ्क्रमय्याऽनुभवति । + टिप्पणो-एवं लब्धिसारेऽप्युक्तम-.अवरोहकसूक्ष्मसंपरायप्रथमसमय उदयनिषेककृष्टीनां पल्या. संख्यातखण्डितबहुमागमात्रा मध्यमकृष्टय उदये गच्छन्ति। तदेक भागस्य पुनरसंख्यतभागा द्विपञ्चमभागमात्राः कृष्टय प्रादिकृष्टे रारभ्याऽनुवया उपरि च तस्त्रिपञ्चमभागमात्र्य: कृष्टयोऽग्रकृष्टेरार. म्याऽनुदयास्तासामाद्यन्तकृष्टीनां स्वस्वरूपं परित्यज्य मध्यमकृष्टिस्वरूपेण परिणम्योदयो भवती. त्यर्थः पुनद्वितीयसमय प्रादिकृष्टीनां पल्याऽसंख्यातकभागमात्रीः कृष्टोगहीत्वा मध्यमकृष्टय उदयमा. गच्छन्ति । तत्र ऋणात्.."अस्माद्धनमिदम भ्यधिकमिति धतार्णया विवरे शेषप्रमाणेन प्रथमसमयोदयकृष्टिभ्यो द्वितीयसमयोदयकृष्टयो विशेषाधिकाः । एवं तृतीयादिममयेष्वपि तच्चरमसमयपर्यन्तं विशेषाधिकाः कृष्टय सदयमागच्छन्ति। अत एव प्रतिसमयमनन्तगुणानुमागोदयः कृष्टीनां ज्ञातव्यः । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [ गाथा ६१ (४) अनिवृत्तिकरणप्रथमसमय एवाऽऽवलिकावर्जशेष सर्व विट्टयो नष्टाः, उक्तं च कषायप्रभृतचूण "ताहे चेव फद्दयगढ़ लोभं वेददि किओ सव्वाओ ट्ठाओ वरि जाओ उदयावलियन्तराओ ताओ त्थिबुक्कसंकमेण फइएस विपच्चि - हिंति | इति । " (५) संज्वलन लोभस्य बन्ध आरभ्यते, अतः संज्वलनलो मेऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभद्विकं सङ्क्रमयति । (६) तदानीं स्थितिबन्धश्च स्थम् -संज्वलन लोभस्याऽन्तमुहूर्त प्रमाणः स्थितिबन्धः, ज्ञानाचरण दर्शनावरणान्तरायाणामहोरात्र पृथक्त्वम्, नामगोत्र वेदनीयानां संख्यातवर्षसहस्रमात्रो भवति । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो "एदम्हि पुणो द्विदिबंधे से अण्णो वेदणीयणामगोदाणं द्विदिबंधो सो संखेज्जवस्ससहस्सा णि । तिन्हं घातिक्रम्माणं द्विदिबंधो अहोरत्त पुधत्तिगो लोभ संजलणस्स द्विदिबंधो पुव्वबंधादो विसेसाहियाओ ।" इति । उपशमनाकरणम् यथा श्रेणिमारोहतो लोभवेदकाऽद्धायास्त्रयो विभागाः क्रियन्ते स्म तथैव प्रतिपततोऽपि लोभवेदकाद्धायास्त्रयो विभागाः क्रियन्ते तत्र प्रथमविभागे सूक्ष्मलोभवेदकाद्धा, द्वितीयविभागे बादरसंज्वलनलोभवेदकाऽद्धायाः प्रथमाऽर्धः, तृतीयविभागे बादरलोभवेदकाऽद्धाया द्वितीयाऽर्धः, तत्राऽयं विशेष:-आरोहकस्य लोभवेदककालात्प्रतिपततो लोभवेदककालः किञ्चिन्न्यूनो ज्ञातव्यः एवं सर्वत्राऽऽरोहकस्य कालात्प्रतिपातकस्य मायादिवेदककालेषु किञ्चिन्न्यूनता द्रष्टव्या । तत्र लोभवेदकाद्वायाद्वितीयविभागस्य संख्येयतमे भागे गते बादरसंज्वलनलोभवेदकाऽद्धाप्रथमाऽर्धस्य संख्येयतमे भागे वेदित इत्यर्थः, संज्वलन लोमस्य स्थितिबन्धो मुहूर्त पृथक्त्वमात्रः, ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां पुनरहोरात्र पृथक्त्वतो वर्ष महस्रपृथक्त्वमितो नामगोत्र वेदनीयानां संख्यातसहस्रवर्षप्रमाणः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "लाभवेदगडाए विदियरस तिभागस्स संखेज्जदिभागं गंतृण मोहणीयस्स डिदिबंधो मुहुत्तपुधन्तं णामगोदवेयणीयाणं द्वितिबंधो संखेज्ञाणि वस्ससहस्साणि, तिन्हं घातिकम्माणं द्विदिबंधो अहोरत्तपुत्तिगादो हिदिबंधादो वस्सेसहस्सपुधत्तिगो द्वितिबंधो जादो ।" इति । यद्यप्यघातिकर्मणां स्थितिबन्धस्य संख्यातगुणवृद्धिरनिवृत्तिकरण द्वितीय स्थितिबन्धाजाता, किन्तु घातित्रयस्य संख्यातगुणवृद्धिरितः प्रभृति जाता, इत्थं षण्णामपि कर्मणां स्थितिबन्धवृद्धेः संख्यातगुणत्वं प्रवर्तते । तत्राऽयं विशेषः - घातित्रयस्य स्थितिबन्धादघातित्रयस्य स्थितिबन्धः संख्यातगुणो भवति । एवं स्थितिबन्ध महस्रं षु गतेषु बादर संज्वलन लोभवेदकाऽद्धायाः प्रथमाऽस्याऽवशिष्ट संख्ये बहु भागांस्तथा तद् द्वितीयार्धमनुभूय मायायाः प्रथमस्थितिं करोति वेदयति च | मायावेदकाऽडा - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 彝 संज्व. मानमायानुपशमना ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः संज्वलनबादरलोभवेदकाऽर्द्धा व्यतिक्रम्याऽनन्तरसमय एते पदार्था भवन्ति । (१) मायत्रिकमनुपशान्तं भवति । (२) मायात्रिकस्य गुणण्यायामो मायावेदकाऽद्धातः किञ्चिदधिको भवति, स चाऽवस्थितः । arti assaलिका मात्रं ज्ञातव्यम् । तथैव लोमत्रयस्य प्रथमस्थितिं गुणश्रण्यायामं च विस्तीर्य मायागुणण्यायामप्रमाणं करोति, सोऽपि गुणश्र ण्यायामोऽवस्थितो भवति । किन्तु गुणश्रेणिनिक्षेपः प्रागुदयसमयादासीद्, अत्र तूदयावलिकोपरितनप्रथम निषेकाद् भवति । (३) शेषकर्मणां गलिताऽवशेष पात्री गुणश्र ेणिः पूर्ववत्प्रवर्तते । (४) मायाया बन्ध आरभ्यते तेन लोभत्रिकं मायाद्विकं च संज्वलनमायायां संक्रमयति, यत आनुपूर्वी सङ्क्रमनियमः सूक्ष्मसंपरायप्रथमममय एव व्यवच्छिन्नः । तथैव तदानीं संज्वललोभोऽपि बध्यते, तेन तस्मिन् मायात्रिकं लोभद्विकं च सङ्क्रमयति । (५) प्रतिपतज्जन्तुर्मायावेदकाऽद्धायाः प्रथमसमये संज्वलनमायालोभयोः स्थितिबन्धो द्विमासिकः * शेषाणां षण्णामपि कर्मणां संख्यातवर्षसहस्राणि पूर्ववत् । षण्णामपि कर्मणां पूर्वपूर्वस्थितिबन्धत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धः संख्येयगुणो भवति, मोहनीयस्य पुनर्विशेषाऽधिकः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "पढमसमथमायावेदगस्स दोन्हं संजलणाणं दुमासदिगो बंधो सेसार्ण कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जवस्ससहस्त्राणि । पुण्णे हिदिबंधे मोहणी जाणं कम्माण संखेजगुणो द्विदिबधो मोहणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ " । इति । एवंक्रमेण सहस्रेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्सु मायावेदककालः समाप्तो भवति । मायावेदककालचरमसमये स्थितिबन्धो मोहनीयस्यान्तमुहूर्तोन चतुर्मासप्रमाणः शेषकर्मणां च संख्येयसहस्रवर्षप्रमाणः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णो "एदेण कम्मेण संखेज्जेसु डिदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयमायावेदगो जादो ताघे दोन्हं संजलणाणं डिदिबंधो चत्तारि मासा अतोमुहुत्तूणा सेसाणं कम्माणं द्विदिव घो संखेज्जाणि वस्ससहरसाणि ।" इति । मानवेदकाऽडा अनिवृत्तिकरणे मायावेदककलममाप्त्यनन्तरसमय एते पदार्थाः प्रवर्तन्ते(१) मानत्रि कमनुपशान्तं भवति । (२) मानत्रयस्य मानवेदकाद्धातः किञ्चिदधिकायामा गुणश्र ेणिः क्रियते, साऽप्यव * तत्राऽपि घातित्रयस्थितिबन्धात्संख्येयगुगोऽघातित्रयस्येति लब्धिसारः । [ २२३ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ६१ स्थिता तथा मायात्रयस्य लोभत्रयस्य च गुणश्रेणिनिस्य गुणश्रेण्यायामतुल्याऽवस्थिता चोदयावलिकाया उपरि क्रियते । (३) शेषकर्मणां गलिताऽवशेषमात्री गुणश्रेणिः पूर्ववत्प्रवर्तते । (४) तदानीमेव संज्वलनमानस्य बन्ध आरभ्यतेऽनो मोहनीयस्य तिस्रः प्रकृतयो वध्यन्ते, तासां पतद्ग्रहत्वेन संज्वलनलोभमायामानेषु मानत्रिक मायात्रिकं लोभत्रिकं चाऽनानुपूर्ध्या सङ्क्रमयति, इदमुक्तं भवति- मानवेदकाऽद्धायाः प्रथमसमयादेव संज्वलनमाने मायात्रिक लोभत्रिकं मध्यममानद्विकं च संक्रमयति संज्वलनमायायां च मध्यममायाद्वयं लोभत्रिक मानत्रिकं च संक्रमयति संज्वलनलोभे च मायात्रिक मध्यमलोभद्वयं मानत्रिकं च संक्रमयति । (५) तदानीमेव संज्वलनत्रिकस्य स्थितिबन्धश्चातुर्मासिकः शेषकर्मणां च संख्येयवर्षसहस्रप्रमाणः । अक्तंच कषायप्राभतचूर्णी-"ताधे तिणहं संजलणाणं हिदिबंधो चत्तारि मासा पडिपुण्णा सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखेजाणि वस्ससहस्साणि'। इति । उत्तरोत्तरस्थितिबन्धो मोहनीयस्य विशेषाधिकः, शेषकर्मयां तु संख्येयगुणः । एवं स्थितिबन्धसहस्रषु व्रजितेषु सत्सु मानवेदककालः समाप्तो भवति । तदानीं च मोहनीयस्य स्थितिवन्धोऽन्तम होनाऽष्टमासिकः शेषकर्मणां संख्येयवर्षसहस्रमितः, उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-एवं ट्टिदिबंधसहस्साणि बहूणि गंतूण माणस्स चरिमसमयवेदगरस तिण्हं संजलणाणं हिदिबंधो अह्रमासा अंतोमुहुत्तणा सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखेजाणि घस्स. सहस्साणि ।" इति । क्रोधवेदकाऽद्धामानवेदककाले समाप्तेऽनन्तरसमय इमे पदार्थाः प्रवर्तन्ते-- (१) क्रोधत्रिकमनुपशान्तं भवति । (२) क्रोधस्य प्रथमस्थितिं कुर्वन्नप्यन्तरस्यापुरणात् प्रथमस्थितित्वेन व्यवहीयते, तेन ॐ टिप्पणी-पत्रान्तरमेवं पूर यतीति दशितजयधवला-"शंपहि जाधे एवंविहो गुणसेढीणिक्खेवो जा ताध चेव वारसण्हं एदेसि कम्माणमतरमावुरिज्जदि त्ति घेत्तव्वं । जस्स कसायस्स उदएण सेदि. मारुढो तम्मिकसाये ओकड्डिदे एवंविहो गुणसेडिणिक्खेवो अंतरापरणं च होदि ति णिच्छेयव्यो। एदो तदो एत्थ मंतरावूरणविहाणं किंचि वत्तइस्सामो । तं जहा-बारसविहं कसायमोकडुियूण तक्काले गुणसेडिणिक्खेवं करेमाणो कोहसंजलणस्स ताव उदए थोवं पदेसगं देदि । तत्तो असंखे. ज्जगुणं जाव गाणावरणादिकम्माणं पुवणि क्खित्तगुणसे डिसीसयं पत्तोत्ति । पुणो तदरणंतरो. वरिमअंतरसमयम्मि एकवारमसखेज्जगुणहीणं णिक्खिदि तदो विसेसहीणं कादुरण संछुदि Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 帮 प्रतिपाते क्रोधवेदकाद्धा ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ २२५ गलिताऽवशेषगुणं करोति, तदायामश्च शेषकर्मणां तत्कालीनगुणश्रण्यायामेन सदृशो भवति । इतः प्रभृति मानत्रिकस्य मायात्रिकस्य लोभत्रिकस्य चाऽपि गुणश्र ेणिं प्रागुक्ताऽऽयामं विस्तीर्यं शेवकर्मणां तत्कालीनगुणण्यायामेन सदृशा गलिताऽवशेषमात्री प्रारभ्यते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णावपि पढमसमयकोध वेदगस्स बारसहं वि कसायाणं गुणसेढीणिक्खेवो सेसाणं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवेण सरिसो होदि । जहा मोहनीयवज्जाणं कम्माणं सेसे सेसे गुणसेटिं णिक्खिवदि तहा एतो पाए बारसहं कसायाणं सेसे गुणसेढी णिक्खिवदव्वा । " इति । इदमत्र तात्पर्यम्-यस्य संज्वलन कषायस्योदयेनाऽऽरूढः, तं कषायमुदयेन प्राप्तः सन् प्रतिपतन् गलितावशेषां गुणण्यायामेन च सदृशां गुणश्रं णि रचयति, उक्तं च कर्मप्रकृतिचूण "जाए संजलणाए सेटिं पडिवन्नो तातो चेव तं कम्म पत्तस्स सेसकम्मेहि सरिसा गुण सेढी ।" इति । (३) शेषकर्मणां च प्रागारब्धा गलिताऽवशेषगुणश्र णिरत्राऽपि पूर्ववत्प्रवर्तते । जाव अंतरवरमट्ठिदिति तदो बिदियट्ठिदि श्रादिसमयम्मि प्रसंखेज्नगुणहोणं रिणक्खियदि तत्तो परं सम्वत्थ विमेसहीणं चेव सछुहदि जाव अप्पप्पणी ओकडिदपदेस मइच्छाव णावलियाए प्रपत्तो त्ति एव सेसकसायाणं वि अंतरापूरणविहाणमेत्थ दट्टव्वं विसेसाभावादो णवरि ते सिमुदयावलिबाहिरे चेव गुण सेढिणिक्खेवो त्ति वत्तव्त्रं सत्तणोकसायइत्थिणवसंयवेदाणं पि अप्पप्पणी प्रांतरे जहावसरं पूरिज्जमाणे निसेगपरूवणा एवं चेत्र कायव्वा । " इति । .... लब्धिसारेऽन्तरं पूरयतीति विशेषो दर्शितः, दलिकप्रक्षेपविधिरित्थ दर्शितस्तद्यथा "इतः पूर्व मोहनीयस्याऽवस्थिताऽऽयामा गुणश्रेणिः कृता । इदानीं पुनर्गलिताऽवशेषा प्रारब्धत्यर्थविशेषः यस्य कषायस्योदयेनोपशमश्रेणिप्रारुढो जीवः पुनरवतरणे तस्य कषायस्योदय समयादारभ्य गलिताऽवशेषगुणश्रेणिरन्तरपूरणं च क्रियते तत्रोदयवतः संज्वलनक्रोधस्य द्रव्यमपकृष्य पल्या संख्यात भागेन खण्डयित्वा तदेकभागं स....- उदयादिगुणश्रेण्यायामे निक्षिपति पुनद्वतीयस्थितो प्रथम निषेकद्रव्यं स...... इदम् 'पदहत मुखमादिधन' मित्यनेनाऽन्तर्मुहूर्त मात्राऽन्तरायामेन गुणयित्वा लब्धं समपट्टिकाधनम् . द्वितीय स्थितिप्रथम निषेके द्विगुणहान्या विभज्य द्वाभ्यां गुरिणतेऽधस्तनगुणहानिचयो भवति । संकपदाहतपदफलत्रयहतमत्तू रधनामेत्यानीतं चयधनं स... इदं प्रागानीते समर्पाट्टकाधने साऽधिकं कुर्यात्स । एतावद् द्रव्यमपकृष्टद्रव्यस्य पल्यासंख्यात मागखण्डितबहुभागद्रव्याद् गृहीत्वा श्रद्धाणेण सव्वधणे खण्डि देत्यादिविधिना विशेषहीन क्रमेणऽन्तरायामे निक्षिपेत् । विशिष्टबहुभागद्रव्यं स ...-. द्वितयस्थिती "दिवड़ढगुणहाणिभाजिदे पढमो" इत्यादिविधिना नानागुणानिषु विशेषहीन क्रमेण तत्तदपकृष्टनिषेकम तिस्थापनावलिमात्रेणाऽप्राप्य निक्षिपति । एवं निक्षिप्ते शोषद्रव्यादन्तरायामप्रथम समय निक्षिप्तद्रव्यमसख्यात गुणहीनम् 1 अन्तरायामचरमसमयनिक्षिप्तद्रव्याद् द्वितीयस्थितिप्रथम समय निक्षिप्तद्रव्यमसंख्यातगुणहीनं द्रष्टव्यम् । एवमुदयरहितानां शेषेकादशकपायाणां द्रव्यमपकृष्योदयावलिबाह्यगुणण्यायामेऽन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च द्रव्यनिक्षविधिः कर्तव्यः । " इति । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ६१ (४) संज्वलनक्रोधस्य बन्ध आरभ्यते, तेनेतः प्रभृति मोहनीयस्य चतस्रः प्रकृतयो वध्यन्ते । तासां पतद्ग्रहत्वेन संज्वलनक्रोधमानमायालोमेषु द्वादशकषायाणामनानुपूर्व या सङ्क्रमयति । इदमुक्तं भवति-संज्वलनक्रोधे मध्यमक्रोधद्विकं मानत्रिक मायात्रिकं लोभत्रिकं चेत्ये कादश प्रकृतीः सङ्कमयति,संज्वलनमाने च क्रोधत्रिक माध्यममानद्विकं मायात्रिक लोभत्रिकं चेत्ये कादश प्रकृतीः सङ्क्रमयति, संज्वलनमायायां च क्रोधत्रिक मानत्रिकं मध्यममायाद्विक लोभत्रिक चेत्येकादश प्रकृतीः सङ्क्रमयति संज्वलनलोभे च क्रोधत्रिकं मानत्रिकं मायात्रिक मध्यमलोभद्वयं चेत्येकादश प्रकृतीः सङ्क्रमयति । (५) तदानीं संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धोऽष्टमासप्रमाणश्शेषकर्मणां च संख्यातवर्षसहस्त्रमितः। उक्तं च कषायमाभतचूर्णी-"ताधे हिदिबंधो चउण्हं संजलणाणमट्टमासा पडिवुण्णा सेसाणं कम्माणं हिदिबंधोसंखेज्जाणि वस्ससहस्साणि।" इति । पूर्ववदुत्तरोत्तराऽभिनवस्थितिबन्धो मोहनीयस्य विशेषाऽधिकः, शेषाणां तु कर्मणां संख्यातगुणः। एवं स्थितिबन्धसहस्रषु गच्छत्स्ववेदकस्य चरमसमये संज्वलनचतुष्कस्याऽन्तमु हुोनचतुःषष्टिवर्षप्रमाणो भवति शेषकर्मणां च संख्यातसहस्रवर्षमात्रः। उक्तं च कषायप्राभूतचूर्णी-"ताधे मोहणोयस्स हिदिधो च दुसहिवस्साणि अतोमुहत्तणाणि सेसाणं कम्माणं हिदिबंधो संखे. ज्जाणि वस्ससहस्साणि ।" इति । पुरुषवेदोदयः (१) अवेदकस्य चरमसमये वेदिते सप्तनोकषायाणामुपशान्तत्वमपगच्छति । + द्वितीयस्थितितस्तेषां दलं गृहीत्वा प्रागुपक्रान्तद्वादशकषायगुणश्रेण्यायामसदृशां गलिताऽवशेषां गुणश्रेणि विरचयति । तत्राऽपि पुरुषवेदस्योदयसमयात्प्रभृति शेषाणां पण्णां पुनरुदयावलिकाया उपरितनसमयाद्रचयति । (२) शेषकर्मणां प्रागारब्धा गलिताऽवशेषमात्री गुणश्रोणिरत्राऽपि प्रवर्तते । (३) पुरुषवेदमुदयेनानुभवति तथा पुरुषवेद बद्धमुपक्रमते, सप्तानां च नोकषायाणामनानुपूा सङ्क्रममितः प्रभृत्यारभते। तेन बध्यमानसंज्वलनकोधमानमायालोभपुरुषवेदेषु पञ्चप्रकृ. तिषु मोहनीयस्यैकोनविंशतिप्रकृतीः संक्रमयति । +टिप्पणी-अन्न लब्धिसारे सप्तनोकषायाणां सज्वलनक्रोधनदन्तरं पूरयतीत्युक्तम्, तथा च तद् ग्रन्थः"तन्नोदयवतोः पुवेदसंज्वलनक्रोधयोद्रव्यमपकृष्योदयादिगुणश्रेण्यायामेऽन्तरायामे द्वितीयस्थितो च संज्वलन क्रोधोक्तप्रकारेण द्रव्यनिक्षेपं करोति । उदयरहितानां शेषकषायनोकषायाणां द्रव्यमकृष्योदयावलिबाह्यगुणण्यायामऽन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च पूक्तिप्रकारेण निक्षिपति ।" Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 寡 पुरुषस्त्रोवेदाऽनुपशमना ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ २२७ (४) तदानीं पुरुषवेदस्य स्थितिबन्धो द्वात्रिंशद्वर्षप्रमितः संज्वलनचतुष्कस्य चतुषष्टिवर्षप्रमाणः शेषकर्मणां च संख्यातवर्षसहस्राणि । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ- "ताधे चेव पुरिसवेदस्स द्विदिबंधो बत्तीसवस्साणि पडिवुष्णाणि संजलगाणं द्विदिबंधो च दुसविरसाणि सेसाणं कम्माणं द्विदिबंधो संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि " इति । पुरुपवेदोपशामनाऽपगमतः सहस्र ेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु स्त्रीवेदोऽनुपशान्तो भवति । पुरुषपशमनात यावति काले स्त्रीवेदोनुपशान्तः, तावतः कालस्य संख्यातेषु बहुभागेषु गतेषु सत्सु नामगोत्र वेदनीयानामसंख्येयवर्षसहस्रप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति । अतः प्रभृति पूर्वपूर्वस्थितिबन्धतो नामगोत्रवेदनीयानां स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणो भवति, यतः प्रभृति यस्य कर्मणः स्थितिबन्धोऽसंख्येयवार्षिको भवति ततः प्रभृति तस्य कर्मणः पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धोSoगुणो भवत्येवं तावद्वाच्यम्, यावत्पन्योपमसंख्येय भागप्रमाणः स्थितिबन्धो न भवतीति नियमसंभवात् उवतं च कषायप्राभृत्तचूर्णौ-जन्त्तो पाए असंखेज्जवस्सट्ठि दिगंधो तत्तो पाए पुष्णे पुणे हिदिगंधे अण्णं द्विदिगंधमसंखेज्जगुणं बंधइ एदेण कमेण सत्तण्हं पिकम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदि भगियादो डिदिगंधादो एक्कष्पहारेण सत्तण्हं पि कम्माणं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागिओ हिदिगंधो जादो एशो पाए पुणे पुणे दिगंधे अण्णं द्विदिबंध संखेज्जगुणं बंधइ ।" इति । तत्रेदमन्पबहुत्वम् - मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः, ततो घातित्रयस्य संख्येयगुणः, ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः, ततोऽपि वेदनीयस्य विशेषाधिकः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ “पुरिसवेदे अणुवसंते जाव इत्थिवेदो उवसंतो एदिस्से अडाए संखेज्जेसु भागे गदेसु णाम गोद वेदणी गाण ससंखेज्जवस्सियडिदिगो बंधो अप्पानहुअं काव्वं सव्वथोवो मोहणीयस्स डिदिबधो तिण्हं घादिकम्माणं द्विदिबंधो संखेजगुणो णामगोदाणं द्विदिबंधो असखेज्जगुणो वेदणीयस्स ट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ।" इति । एवं सहस्र षु स्थितिबन्धेषु गतेषु स्त्रीवेदस्योपशमना नश्यति । तेन तद्दलिकं समाकृष्योदयावलिकोपरितन- 5 प्रथमनिषेकादारभ्य शेषकर्मसत्कगुणश्र णिशीर्षपर्यन्तं गलिताsaशेषमात्र गुणश्रेणिं रचयति । एवमितः प्रभृति मोहनीयस्य विंशतिप्रकृतीनां गलिताऽवशेष I फुं श्रत्र लब्धिसारे स्त्रीवेदस्याऽन्तरपूरणमुक्तम्, तथा च तद्ग्रन्थ: "तत: संख्यात सहस्रस्थितिबन्धेष्वतमुहूर्त काले गतेकस्मिन् समये स्त्रावेदोपशमो विनष्टस्ततः प्रभृति स्त्रीवेदद्रव्यं सङ्क्रमणाऽपकर्षणादिकरणयोग्य सञ्जातमित्यर्थः । तस्मिन् स्त्रीवेदोपशमन विनाशप्रथमसमये स्त्रीवेदमपकृष्य तस्योदयरहितत्वादुदयावलिबाह्यगुणश्रेण्यायामेऽन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च पूर्वोक्तविधानेन निक्षिपति ।" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा-६१ गुणश्रेणिं करोति बध्यमानपञ्चप्रकृतिषु च विंशतिप्रकृत्यात्मकं सङ्गमस्थानं प्राप्नोति । स्त्रीवेदोपशमनानाशतः सहस्रषु स्थितिबन्धेषु व्रजितेषु नपुसकवेदोऽनुपशान्तो भवति । स्त्रीवेदोपशमनानाशतो यावति काले नपुसकवेद उपशान्तनाशस्तावतः कालस्य संख्येयेषु बहुभागेषु गतेषु ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्थितिबन्धोऽसंख्येयवर्षप्रमाणो भवति । तेनेत: प्रभृति षण्णामपि कर्मणामसंख्येयवर्षमात्रः स्थितिबन्धो भवति, अतः प्रभृति स्थितिबन्धः पूर्वपूर्वतोऽसंख्येयगुणो भवति, नियमस्य प्रागुक्तत्वान्नाऽत्र पुनरभिधीयते । तत्राऽल्पबहुत्वम्मोहनीयस्य स्थितिवन्धः सर्वम्तोकस्ततोऽसंख्येयगुणो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणाम्, ततोऽप्यसंख्येयगुणो नामगोत्रयोः,ततो वेदनीयस्य विशेषाऽधिकः । उक्तं च कषायप्राभृतचौँ"त्थिवेदे अणुवसंते जाव णसयवेदो उवसंतो एदिस्से अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णाणावरणदसणावरणअंतराइयणमसंखेजवस्सिय हिदिबंधो जादो ताधे मोहणीयस्स हितिष धो थोवो तिण्हं घादिकम्माणं हिदिबंधो असंखेजगुणो नामगोदाणं हितिबंधो असंखेजगुणो। वेदणीयस्स हितिबंधो विसेसाहिओ । इति । ततः प्रभूत्येव ज्ञानावरणचतुष्कदर्शनावरणत्रिकाऽन्तरायपश्वकरूपद्वादशदेशघातिप्रकृतीनां द्विस्थाकमनुभागं बध्नाति । इतः प्रागेतासा प्रकृतीनां बन्ध एकस्थानाऽनुभाग आसीत् । सहस्रषु स्थितिबन्धेषु गतेषु नपुसकवेदस्योपशमनाऽपगच्छति । .(१) तदानीमेव द्वितीयस्थितितो दलिकं गहीत्वा नपुसकवेदस्य गलिताऽवशेषां गणश्रेणिमुदयावलिकोपरितननिषेकाच्छेषकर्मरणश्रेण्यायामेन सदृशां करोति । एवं ततः प्रभृति माहनीयस्यैकविंशतिप्रकृतीनां गलिताऽवशेषगुणश्रेणिं करोति । (२) शेषकर्मणां प्रागारब्धा गलिताऽवशेषगुणश्रीण स्तत्रापि प्रवर्तते ।। (३) तदानीमेव बध्यमानपुरुषवेदसंज्वलनक्रामानमायालोभेष्वनानुपूर्व्या चारित्रमोहनीयस्यैकविंशतिप्रकृत्यात्मकं सक्रमस्थानं प्राप्यते । नपुंसकवेदानुपशमनप्रथमसमयात्प्रभृति श्रेणिप्रतिपन्नसत्काऽनिवृत्तिकरणस्याऽन्तरकरणक्रियासमाप्तिचरमसमयपर्यन्तो योऽन्तमुहर्तकालस्तस्य संख्यातबहुभागेषु गतेषु मोहनीयस्याऽसंख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धो द्विस्थानकश्चाऽनुभाग उदयमागच्छति । इदमुक्तं भवतिश्रेणितः प्रतिपातकोऽन्तरं न करोति, अतोऽन्तरकरणसमाप्तिचरमसमयोऽपि तेन नावाप्यते, .लब्धिसारेऽत्र नपुंसकवेदस्याऽन्तरपूरणं प्राग्वदभिहितम् । अक्षराणि त्वेवम्"तत्प्रथमसमये नपुंसकवेदद्रव्यमपकृष्येतरकर्मगलिताऽवशेषगुणण्यायामसमान उदयावलिबाह्यगुरगश्रेण्यायामेऽन्तरायामे द्वितीयस्थितौ च पूर्वोक्तविधानेन निक्षिपति।" Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपुंसकवेदोदये प्रक्रियाविशेषः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २२६ किन्तूपशमश्रीणितः प्रतिपततो यः स्वनपुंसकवेदाऽनुपशमनप्रथमसमयो यश्चाऽऽरूढाऽन्तरकरणनिष्ठानचरमसमये सदृशः प्रतिपातुककालम्तयोरन्तरगतकालस्य संख्येयेषु बहुभागेषु गतेष्ववशिष्टसंख्येयतमभागस्य प्रथमसमयं प्राप्नोति, तदा मोहनीयस्याऽसंख्येयवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धः, तथेतः प्रभृति मोहनीयस्योत्तरोत्तरस्थितिवन्धोऽसंख्येयगुणो भवति, नियमस्य प्रागुक्तत्वेन पिष्टपेपणप्रसंगान पुनरभिधीयते । मोहनीयस्य चाऽनुभागबन्धो द्विस्थानको भवति, एवमुदयेऽपि द्विस्थानकोऽनुभागो भवति । इतः प्राग्मोहनीयस्यैकस्थानकोऽनुभागबन्ध एकस्थानकश्चाऽनुभागोदय आमीत , सत्तायां तु प्रागपि द्विस्थानकोऽनुभाग आसीत्, अन्यथा तत्कालबध्यमानद्विस्थानकम्याऽऽवलिकाया अन क्रान्तत्वेन द्विस्थानकाऽनुभागोदयस्याऽनुपपत्तेः । बन्धमाश्रित्य तदानीमल्पबहुत्वं वित्थम्-(१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वम्तोकः (२) ततोऽसंख्येयगणो घातित्रयस्य (३) ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः (४) ततो वेदनीयस्य विशेषाधिकः । __ अन्तरकरणसमाप्त्यनन्तरसमयात्सप्त पदार्थाः प्रागुक्तास्तेभ्यो मोहस्याऽसंख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धो द्विस्थानकाऽनुभागबन्धो द्विस्थानकाऽनुभागोदयश्चेति त्रयः पदार्था अवरोहकस्य विपरीतेनेतः प्रभृति प्रवर्तन्ते (लोभस्याऽसङ्कमो नपुसकवेदोपशमना चेति द्वे वस्तुनी विमुच्य) इतः प्रागेवानिवृत्तिकरणे व्यक्तिरूपेण लोभस्य सङ्क्रमो नपुंसकवेदोपशमनाऽपगमश्च प्रवृत्ती मोहनीयस्याऽऽनुपूर्वीसङ्कमो बद्धकर्म च षडावलिका व्यतिक्रम्योदीर्यन्त इति नियमौ परित्यज्य मोहनीयस्याऽनानुपूर्वी सङ्क्रमो बन्धाऽऽवलिकाव्यतिक्रमणे चोदीरणेति द्वौ पदार्थों प्रतिपातुकसूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयादेव प्रवृत्ती। न च ये सप्त पदार्था आरोहकस्याऽन्तरकरणक्रिया. समाप्तितः प्रवृत्ताः तेभ्यस्त्रयः पदार्था विपर्ययेणाऽवरोहकस्याऽऽरोहकाऽन्तरकरक्रियासमाप्तिसमकाले प्रवर्तनीयाः । प्रतिपातुकस्य यो नपुंसकवेदाऽनुपशमनप्रथमसमयश्चाऽऽरोहकाऽन्तरकरणसमाप्ति चरमसमयमदृशः प्रतिपातुककालः, तयोरन्तरगतकालस्य संख्येयतमेऽवशिष्यमाण कथं प्रवर्तन्ने ? इति वाच्यम् , यद्यपि येनैव क्रमेणोपशमश्रेणिमारोहति. तेनैव विपरीतक्रमेण पदार्थाः प्रवर्तन्ते, तथाऽप्यारोहकस्य यस्मिन काले प्रवृत्ता आसन , तस्मिन्नेव काले न प्रवर्तन्ते, आरोहककालतोऽवरोहककालस्य किश्चिन्यूनत्वनियमसत्त्वात् तथा च सत्यारोहकस्य यत्स्थाने मोहनीयस्य संख्येयवार्षिकः स्थितिबन्ध एकस्थानकोऽनुभागवन्ध एकस्थानकश्चाऽनुभागोदयो भवन्ति स्म । ततोऽर्वागेवाऽवरोहकस्य तेषां त्रयाणां पदार्थानां प्रवर्तनं संभवति । सर्वघातिरसबन्धारम्भ:--मोहनीयस्याऽसंख्येयवार्षिकस्थितिबन्धभवनान्तरं पूर्वोक्ताऽल्पबहुत्वक्रमेण संख्येयेषु सहस्रेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु वीर्यान्तरायकर्मणोऽनुभागः सर्वघाती बभ्यत इतः प्रागबन्धे देशघात्यनुभाग आसीन् , ततः संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धेषु व्रजितेषु मतिज्ञानावरणोपभोगान्तराययोर्देशघात्यनुभाग परित्यज्य सर्वघात्यनुभागं बध्नाति, ततः स्थितिबन्ध Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] [ गाथा ६१ थक्त्वे गते चक्षुर्दर्शनावरणस्याऽनुभागः सर्वघाती बध्यते । ततः स्थितिबन्धपृथक्त्वे गते श्रुतज्ञानावरणाऽचक्षुर्दर्शनावरणभोगान्तरायाणां देशघात्यनुभागं परित्यज्य सर्वघात्यनुभागं बध्नाति । ततः संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रेषु गतेष्ववधिज्ञानावरणाऽवधिदर्शनावरणलाभान्तरायाणां देशघात्यनुभागं मुक्त्वा सर्वघात्यनुभागं बध्नाति । ततः सहस्र ेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु मनःपर्यवज्ञानावरणदानान्तराययोर्देशघात्यनुभागं परित्यज्य सर्वघात्यनुभागं बध्नाति, बन्धे मनः पर्यवज्ञानावरणदानान्तराययोः सर्वघात्यनुभागभवनान्तरं सहस्रेषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्स्वसंख्येय समयप्रबद्धोदीरणा व्यवच्छिन्ना भवति । ) उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णौ- "तदो ठितिबंधसहस्सेसु गदेसु असंखेज्जाणं समयपबडाणुदीरणमुदीरणा पडिहम्मदि असंस्वेज्जलोग भागो समयपबद्धस्स उदीरणा पवत्तदि ' इति । यदाऽसंख्येयसमय प्रबद्धोदीरणा भवति, तदानीमुदीरणायामसंख्येयसमयप्रबद्धप्रमाणदलमायात्, इतः प्रभृति समयप्रबद्धस्याऽसंख्येयलो काकाशभागप्रमाणं दलमुदीरणामायाति । स्थितिबन्धस्य क्रमपरावृत्तिः उपशमनाकरणम्म यस्मिन्कालेऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा नश्यति, तदानीमपि सप्तकर्मणां पत्योपमऽसंख्येयभागरूपोऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः प्रवर्तते । अन्पबहुत्वं त्वित्थम् - (१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः ( २ ) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणामसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं सदृश: ( ३ ) ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः स्वस्थाने लब्धिसारेऽयं विशेषो दर्शित:- प्रसंख्येसमय प्रबद्धोदीरणाऽवसरेऽपकृष्टं द्रव्यंपल्योपमाऽसंख्येयभागेन मक्त्वा बहुभागान् गुणश्रेण्यायामोपरितनायां द्वितीयस्थितौ निक्षिप्याऽवशिष्टेक भाग भूयः पल्याऽसंख्यात भागेन खण्डयित्वा तद्बहुभागानुदयावलिकोपरितन निषेकात्प्रक्षिप्य शेषैकभागमुदयावलिकायां निक्षिपति स्म, इतः प्रभृत्यपकृष्टद्रव्य पल्योपमाऽसंख्येयभागेन विभज्य बहुभागान् गुणश्रेव्यायामोपरितनायां स्थितौ निक्षिप्याऽवशिष्टकभागं पल्याऽसंख्यात भागस्थानेऽसंख्येयला काकाशप्रदेशप्रमाणरूपभागकारेण भक्त्वा बहुभागानुदयावलिकोपरितन निषेकाद्गुणश्रेण्यायामे निक्षिप्याऽवशिष्टक भागमुदयावलिकायां प्रक्षिपतीतः प्राग्गुणश्रेण्यर्थं गृहीत दलिकस्य पल्योपमाऽसंख्यात भागमात्र दलिकस्योदयावलिकायां निक्षेपात्तत्राऽसंख्येयबद्धदलं निक्षिपति स्म । प्रतः प्रभृति गुणश्रेण्यर्थं गृह्यमाणदलिकस्याऽसंख्येयलोकभाग प्रमाणस्य दलस्योदयावलिकायां निक्षपात्तत्र समय प्रबद्धस्याऽसंख्येय भागे मात्रे दलं प्रक्षिपति | लब्धिसाराऽक्षराणि त्वेवम् "गुणश्रेणिकरणार्थं मपकृष्टद्रव्यस्याऽऽरोहको यः पल्याऽसंख्यातमात्र भागहारः प्रागुक्तः सोऽधो यावदायातोऽस्मिन्नवसरे प्रतिहतः । इदानीम संख्यात लोकमात्रो भागाहारोSपकृष्टद्रव्यस्य संजातः । ततः करणादसंख्येय समय प्रबद्धोदीरणां विनैकसमयप्रबद्धाऽसंख्येयभागमात्रोदीरणा संजातेत्यर्थः ।" इति । 。 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितिबन्धक्रमपरावृत्तिः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २३१ मिथः तुल्यः (४) ततोऽपि वेदनीयस्य विशेषाऽधिकः । अथ स्थितिबन्धेऽल्पबहुत्वस्य क्रमः परावर्तते, पूर्वोक्तक्रमेण सहस्रषु स्थितिबन्धेषु व्यतीतेषु ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायत्रिकं नामगोत्रयोरुपरि गच्छति । प्राग हि घातित्रयस्थितिबन्धो नामगोत्रस्थितिबन्धस्याऽसंख्येयभागमात्र आसीत्, अधुना तु घातित्रयस्य स्थितिबन्धो नामगोत्रतो विशेषाऽधिको भवति । तदानीमल्पबहुत्वं विचार्यते-(१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वस्तोकः (२) ततो नामगोत्रयोरसंख्येयगणः स्वस्थाने तु मिथः सदृशः (३) ततोऽपि धातित्रयस्य विशेषाधिकः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः (४) ततोऽपि वेदनीयस्य विशेषाधिकः । ततः स्थितिबन्धसहस्रषु व्यतिक्रान्तेषु घातित्रयस्य स्थितिबन्धो वेदनीयस्य स्थितिबन्धेन सदृशो भवति । अल्पबहुत्वं वित्थम्-(१) मोहनीयस्य स्थितिबन्धः सर्वाऽल्पः (२)ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगणः स्वस्थाने मिथस्तुल्यः(३)ततोऽपि ज्ञानावरण दर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां विशेषाधिकः स्वस्थाने मिथस्समानः । एवंक्रमेण सहस्रषु स्थितिबन्धेषु व्रजितेषु मोहनीयस्य स्थितिबन्धो नामगोत्र योरुपरि गच्छति । मोहनीयस्य स्थितिबन्धो नामगोत्रतो विशेषाऽधिको भवतीत्यर्थः । स्थितिबन्धमाश्रित्याऽल्पबहुत्वं त्वेवम्- (१) नामगोत्रयोः स्थितिबन्धः सर्वाल्पः, स्वस्थाने तु परस्परं तुन्यः (२) ततो मोहनीयम्य विशेषाऽधिकः (३) ततोऽपि ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां विशेषाऽधिकः स्वस्थाने तु मिथस्समानः। ___उपयुक्तक्रमेण सहस्रषु स्थितिबन्धेषु गतेषु मोहनीयस्य स्थितिबन्धो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तराय वेदनीयानामुपरि गच्छति, एतदुक्तं भवति-मोहनीयस्य स्थितिबन्धो ज्ञानावरणदिचतुष्कतोऽपि विशेषाधिको भवति । स्थितिबन्धमवलम्ब्याऽल्पबहुत्वमभिधीयते (१) नामगोत्रयोः सर्वाल्पः स्थितिबन्धः (२) ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयानां विशेषाधिकः (३) ततः पुनर्मोहनीयस्य विशेषाधिका, इदमल्पबहुत्वमग्रेऽपि सर्वत्र वक्तव्यम् । उक्तक्रमेण सहस्र षु स्थितिबन्धेषु जितेषु सप्तानामपि कर्मणां युगपत्पल्योपमसंख्यातभागमात्रः स्थितिबन्धो भवति, ततः प्रभृति सप्तानामपि कर्मणां पूर्वपूर्वस्थितिबन्धत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धः संख्यातगुणो भवति, उक्तक्रमेण सहस्रषु स्थितिबन्धेषु व्रजितेषु पल्योपमसंख्यातभागमात्रस्थितिबन्धान्मोहनीयम्य स्थिातिबन्धः पल्योपमप्रमाणः, ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायवेदनीयाना पल्योपमसंख्यातभागस्थितिबन्धात्पल्योपमस्य त्रिचतुर्भागप्रमितः नामगोत्रयोः पन्योपमसंख्यातभागस्थितिबन्धात्पल्योपमाऽर्धप्रमाणः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] उपशमनाकरणम [गाथा ६१ इदानी स्थितिषन्धः पूर्वस्थितिवन्धस्तदृष्टिप्रमाणं च यन्त्रे दर्यते-- प्रकृतयः स्थितिबन्धस्य वृद्धिप्रमानगम् स्थितिबन्धः नामगोत्रयोः पल्यसख्यातभागन्यूनपल्याऽर्धमात्र: पल्याऽर्धमात्रः ज्ञानदर्शनावरणाऽन्तपल्यसंख्यातभागन्यूनपत्रिक पल्यत्रिचतुर्भागरायवेदनीयानाम् चतुर्भागमात्रः प्रमाणः भोहनीयस्य पल्याऽसंख्यातभागोनपल्यमात्र: पल्यमात्रः इतः प्रति पूर्वपूर्वस्थितिबन्धत उत्तरोत्तरस्थितिबन्धः पल्योपमसंख्यातभागमात्रेण वर्धते, पल्योपमसंख्यातभागमात्रवृद्धिक्रमेण संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सप्तानामपि कर्मणां स्थितिवन्ध एकेन्द्रियस्थितिबन्धसदृशो भवति । ततः संख्यातसहस्रस्थितिबन्धेषु वजितेषु सप्तानामपि कर्मणां स्थितिबन्धो द्वीन्द्रियस्थितिवन्धतुल्यो भवति । ततः संख्यातसहस्रस्थितिबन्धेष्वतिक्रान्तेषु नामकर्मादीनां सप्तकर्मणां स्थितिबन्धस्त्रीन्द्रियस्थितिबन्धसदृक्षो भवति । ततः स्थितिबन्धपृथक्त्वेऽपगते सप्तकर्मणां स्थितिबन्धश्चतुरिन्द्रियस्थितिबन्धसदृग्भवति । ततः संख्यातेषु स्थितिबन्धसहस्रषु व्यतिक्रान्तेषु सप्तकर्मणां स्थितिबन्धोऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्थितिबन्धःसमानो भवति । ततः संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धेषु व्यतीतेषु प्रतिपन्ननिवृत्तिकरणचरमसमयं प्राप्नोति । तदानीं नामकर्मादीनां स्थितिबन्धोऽन्तःकोटीवर्षप्रमाणो भवति सागरोपमलक्षपृथक्वप्रमाणो भवतीत्यर्थः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी-"चरिमसमयअणियटिम्स डिदिबंधो सागरोपमसदसहस्सपुधत्तमंतोकोडीए ।" इति ।। ___ अस्मिन्प्रकरणे प्रागुक्ता गुणश्रेणिः स्मृतिहेतवे पुनभिधीयते-प्रतिपातुकसूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकप्रथमसमयादारभ्याऽवरोहकाऽपूर्वकरणचरमसमयपर्यन्तं मोहनीयवर्जज्ञानावरणादिषट्कर्मणां सूक्ष्मसंपरायाऽनिवृत्तिकरणाऽपूर्वकरणकालत्रयात्किश्चिदधिकाऽऽयामा गलिताऽवशेषमात्री गुणश्रेणिर्भवति, ततः प्रतिपातुकयथाप्रवृत्तकरणेऽवस्थिताऽऽयामा, एवं प्रमत्तगुणस्थानकेऽपि । मोहनीयकर्मणत्वयं विशेषः-सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयाद्यस्य कषायस्योदयेन श्रोणि प्रतिपन्नः, तं कषायमुदयेनाऽप्राप्तस्य प्रतिपातुकस्य शेषकषायाणामव स्थिताऽऽयामा गुणश्रोणिर्भवति, यथा क्रोधेनाऽऽरूढस्य प्रतिपातुकस्य कियन्तं कालं यावल्लोभस्य गुणश्रेण्यायामोऽवस्थितो भवति तद्गुणश्रेण्यायामय त्रिवर्धते । ततः परं गलिताऽवशेषो भवति, तथाहि-क्रोधोदयेनाऽऽरूढः प्रतिपातुका सूक्ष्मसंपरायलोमस्याऽवस्थिताऽऽयामगुणश्रीणि कृत्वाऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमये बादरलोभस्य प्रथमस्थितिं कुर्वन्नायामं वर्धयति, स च बादरलोभवेदकाऽद्धायाश्चरमसमयपर्यन्त. मवस्थितो भवति । ततः पुनर्मायावेदकाऽद्धायाः प्रथमसमये द्वितीयवारमायामं वर्धयति, स च मायावेदकाऽद्धायाश्चरमसमयपर्यन्तमवस्थितो भवति, ततः पुनस्तृतीयवारं मानवेदकाऽद्धा प्रथम Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 彝 प्रतिपाते यथाप्रवृत्तापूर्वकरणे ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २३३ समय आयामं वर्धयति, स च मानवेदकाद्धा चरमसमयं यावदवस्थितो भवति । ततः क्रोधवेदकाऽद्धाप्रथमसमयाच्चतुर्थवारमायामं वर्धयित्वा गलिताऽवशेषमात्रशेषकर्मगुणश्र ेण्यायामसदृशां करोति । अतः प्रभृति गुणश्रेण्यायामश्च गलिताऽवशेषो भवति । इदानीं च द्वादशकषायाणां गलितावशेषगुणश्र णि करोति । ततो नोकषायाणामुपशान्तत्वे नष्टे तेषामपि गुणश्रेणिः कषायवगलितावशेषगुणश्रेणिर्भवति । अपूर्वकरणम् - प्रतिपातुकाऽनिवृत्तिकरण चरमसमयमनुभूयाऽपूर्वकरणे प्रतिपतति, अपूर्वकरणप्रथमसमय एव देशोपशमनानिधत्तिनिकाचनाकरणान्युद्घाटितानि भवन्तीति मूलकारावर्णिकाराश्च स्वयमेव चतुःषष्टितमगाथायां वक्ष्यन्ते, तदानीं हास्यरतिभयजुगुप्सारूपचतुष्प्रकृतीनां बन्धमारभते, तेन मोहनीयस्य नवप्रकृत्यात्मकं बन्धस्थानं बध्नाति, नानाजीवऽपेक्षया च हास्य षट्कमुदेति ततोऽवरुह्य द्वितीयभागारम्भाद् देवद्विकादित्रिंशत्प्रकृतीनां बन्धको जायते । ततोऽपूर्वकरण सप्तम भागप्रथमसमयं प्राप्य निद्राद्विकं बद्धुमुपक्रमते । ततः संख्यातसहस्रषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्स्व पूर्वकरणं परिसमाप्तं भवति । तदानीं स्थितिबन्धोऽन्तः सागरोपमकोटाकोटीवर्षप्रमाणो भवति । इदानीमेव सप्तानामपि कर्मणां गलिताऽवशेषगुणभ्रं विच्छिन्ना भवति, ततः परं गलिताऽवशेषगुणश्र ेणिर्न भवति । यथाप्रवृत्तकरणम् - अपूर्वकरणं परिसमाप्य श्रेणितः पातुको जन्तुर्यथाप्रवृत्त करणे प्रतिपतति । यथाप्रवृत्त करणेऽपूर्वकरणवद्गलिताऽवशेषगुणश्रेणिं न करोति, किन्तु प्रतिसमयमसंख्येयगुणद्दोनक्रमेण दलं गृहीत्वा संयम हेतुकामवस्थिताऽऽयामगुणश्र ेणिं करोति । श्रेणिनिमित्तकात्वपूर्वकरणेन सह व्यवच्छिन्ना । इदानीं च गुणश्रेण्यायामः सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयात्प्रारब्धप्राक्तनगुणश्रेण्यायामतः संख्ये यगुणोऽन्तर्मुहूर्त प्रमाणश्च । एवं प्रतिसमयं दलिका ऽपेश्चयाऽसंख्येयगुणहीन क्रमेणाऽवस्थितां गुणश्रेणिं यथाप्रवृत्त करणेऽन्तमुहूर्त पर्यन्तं करोति ततः परं स्वभावस्थो भवति । ततः परं यदि संयत एव तिष्ठेत् तर्हि तावदायामाम्, देशविरति गच्छेत् तर्हि संख्यातगुणाऽऽयामाम् यः पुनरुपशमश्र णिं क्षपकश्रणिं वा प्रतिपद्यते, तर्हि संतगुणहीनायामां गुणश्रेणि कुर्यात् । यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमयादेव गुणसङ्क्रमो व्यवच्छिन्नो भवति, बन्धयोग्यप्रकृतीनां यथाप्रवृत्तसङ्क्रमस्तद्गुणस्थानके च बन्धाऽयोग्यप्रकृतीनां विध्यातसङ्क्रमः प्रवर्तते । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी “पढमसमय अधापवत्तकरणे गुणसंकमो वोच्छिष्णो सन्चकम्माणमधापत्रत्तसंकमो जादो णवरि जेसिं विज्जादसंकमो अत्थि तेसिं विज्जादस कमो चेव ।" इति । श्रणिप्रतिपन्नस्याऽपूर्वकरण प्रथमसमयादारभ्य प्रतिपातुकाऽपूर्वकरण चरमसमयपर्यन्तं यः कालः, ततः संख्येयगुण औपशमिक 9 , Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ६२ सम्यक्त्वेन सह प्रतिपततः यथाप्रवृत्तकरणकालः । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णी - "उवसामगस्स पढमसमय अपुव्वकरण पहुडि जाव पडिवदमोणगस्स चरिमसमयअपुव्वकरणोति तदो एत्तो संखेज गुणकालं पडिणियत्तो अधापवत्तकरणेण उवसमसम्मत्तमणुपालेदि ।” इति । भावार्थः पुनरयम् - यद्यप्यारोहकाऽपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य प्रतिपातुकाऽपूर्वकरण चरमसमयपर्यन्तं विद्यमानकालतो यथाप्रवृत्तकरणकालस्य संख्यातगुणत्वे न कश्चिदोषः, तथाऽपि यथाप्रवृत्तकरणकालेन स्वभावसंयतो विवक्षितव्यः । यथाप्रवृत्त करणं व्यतिक्रम्य प्रतिपातुकः प्रमत्तसंयत गुणस्थानकं प्रतिपद्यते ततः परं यत्करोति तद्वयाजिहीर्षु राह किच्चा पमत्ततदियरठाणे परिवत्तिवहुसहराणि । हिट्टिला गांतरदुगं श्रासाणं वा वि गच्छेज्जा ॥ ६२ ॥ -- प्रतिपातुकः प्रमत्तगुणस्थानके विश्राम्यति, यथा समुद्रतरणश्रान्तपुरुषस्तदे यद्वा सङ्ग्रा - मागणविनिर्गतपुरुषो युद्धाङ्गणबहिर्भूमौ विश्राम्यति, ततः परं 'पमत्ततदियर ठाणे' इति, प्रमत्ताऽप्रमत्तसंयत गुणस्थानकयोः प्रभूतानि सहस्राणि यावत्परावृत्तीः कृत्वा प्रतिपातुकः 'हिडिल्लाणंतरदुगं' त्ति, अधस्तनगुणस्थानकद्विकं देशविरताऽविरतलक्षणं गच्छति कोऽपि देशविरतिं प्रतिपद्यते कश्चिच्चतुर्थगुणस्थानकं लभत इत्यर्थः । तत्र यदि देशविरतिं प्रतिपद्यते, तहिं गुणश्रेण्यायामममित्रर्ध्य गुणश्रेणि करोति, यत एकादशगुणश्रेणिषू तरोत्तरगुणश्रेण्यायामः संख्यातगुणहीनो भवति । कृत्वा प्रमत्ततदितरस्थानयोः परिवृत्ती बहु सहस्राणि । प्रधस्तादनन्तरद्विकमासादनं वाऽपि गच्छेत् ।। ६२ ।। इति पदसंस्कार: "आसान" मित्यादि, 5 कश्विदौपशमिकसम्यक्त्वाऽद्धाया उत्कृष्टतः षट्स्वावलिकासु शेषासु जघन्यतः समयमात्रे शेषे सास्वादनभावमपि भजेत् सास्वादन गुणस्थानकं प्राप्नुयादित्यर्थः । श्रेणिगतोपशमिकसम्यक्त्वकाले म्रियमाणः कस्यां गतावुत्पद्यत इति शङ्कापरिहारार्थमाह फ्र उपशमश्रेणितः पतन् केषाञ्चिन्मतेन सास्वादनं गच्छति केषाखिमतेन पुनर्न प्राप्नोतीति लब्धिसारग्रन्यकाराः । अक्षराणि त्वेत्रम् तःससमत्तद्धाए असज मं देससंजमं वाऽपि I गच्छेज्जावलिछक्के से से सासणगुणं वापि ॥३४८ ॥ जदि मरदि सासणो सो णिरयतिरिक्ख णरं ग गच्छादि । णियमा देवं गच्छदि जइवसहमुणिदवयणेण ।।३४६ ॥ उवसम सेढीदो पुरण ओदिष्णो सासणं ण पाठणदि । भूदबलिणाहणिम्मल सुत्तस्स फुडो देसेण ।। ३५० ।। . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३५ प्रतिपाते करण चारित्रमोहोपशमनाधिकारः उवसमसम्मत्तद्धा अंतो श्राउखया धुवं देवो । तिसु श्राउगेसु बद्धसु जेण सेढिं न श्रारुहई ॥६३|| उपशमसम्यक्त्वाद्धान्तरायुःक्षयाद्ध्वं देवः । त्रिष्वायुष्केषु बद्धेषु येन श्रेणि नारोहति ॥६३।। ओपशमिकसम्यक्त्वाऽद्धाया अन्तर्मध्ये वर्तमानो यदि कश्चिदायुःक्षयात्कालं करोति, तर्हि स ध्रुवमवश्यं देवो भवति । किश्च सास्वादनं गतः सन्नपि यदि कालं करोति, तथाऽपि देव एव भवति, किं कारणमिति चेद् ! उच्यते, येन यस्मात्कारणावायुर्वर्जेषु शेषेषु विष्वायुष्वन्यतमा. ऽऽयुषि बद्ध श्रेणिं नाऽऽरोहति, तस्मत् श्रेणिस्थितः पतन् वा कालं कृत्वा देव एव भवति । अबद्धायुष्कस्तु कालमेव न करोति । उक्तं च कमप्रकृतिचूर्णी-"जई सासायणो कालं करोति, सो वि णियमा देवो भवति, किं कारणम् ? भन्नति-तिसु आउगेसु बढेसु जम्हा उवसामगो सेढीते अणुरुहो भवति तम्हा सासायणो वि देवलोगंजाति।" इति । प्रतिपततः करणान्युदयस्थित्यादिकं कथं प्रवर्तन्त इत्यतः प्राह उग्घाडियाणि करणाणि उदयठिइमाइगं इयरतुल्लं । एगभवे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उखसमेज्जा ॥६४॥ उद्घाटितानी करणाणि उदयस्थित्या दिक मितरतुल्यम् । एक भवे द्विकृत्वश्चारित्रमोहमुपशमयति ॥६४।। इति पदसंस्कारः "उग्घाडियाणि" त्त, "करणाणि" ति, बन्धनसक्रमणादीनि करणान्युपशमश्रेणि समारोहतो येन क्रमेण यानि यानि व्यवच्छिद्यन्ते तेनैव क्रमेण श्रेणितः प्रतिपततस्तानि तान्युद्घाटितानि भवन्ति प्रवर्तन्न इत्यर्थः । तथोदयस्थित्यादिकमुदयस्थितिबन्धादिकमितरतुल्यमारोहकतुल्यम्, येन क्रमेणाऽऽरोहकस्योदयस्थित्यादिकं व्यवच्छिद्यते, तेनैव क्रमेण प्रतिपातुकस्य तत्प्रवृत्तिरित्यर्थः । एतत्सर्वं विस्तरतः प्रसंगतः प्रागुक्तम् । नन्वेकस्मिञ्जन्मनि जन्तुः कतिकृत्वोपशमश्रेणि समारोहतीति शङ्का परिहतुकाम आह"एगभवे" इत्यादि एकस्मिन्भवे द्वौ वारौ चारित्रमोहनीयमुपशमयति परिणामविशेषेण द्विरुपशश्रेणिं समारोढुं शक्नोति, न तु तृतीयमपि वारमित्यर्थः, यश्च द्वौ वारावुपशमश्रेणिप्रतिपद्यते, स तस्मिन्भवे क्षपकश्रेणिं न प्रतिपद्यते । यस्त्वेकवारमुपशमनं जिं समारोहति, स तस्मिन्भवे क्षपकोणिमपि समारोहेदपीति मन्यन्ते कार्मग्रन्थिकाः,सैद्धान्तिकमतेन त्वेकस्मिन्मवे य उपशमश्रेणिमारोहेत , स झपकणि नारोहेत् । इदमुक्तं भवति-एकस्मिन्भवे यद्यपि द्विरुपश Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ! उपशमनाकरणम् [ गाथा ६५ मश्रेणिं प्रतिपत्तप्रभवति, किन्तूपशमणिं समारुह्य तस्मिन्नेव भवे आपकश्रेणिं न समारोहेत , उक्तं चाऽन्यत्राऽपि-"अन्नयरसेढिवज एगभवेणं च सम्वाई" इति । इत्थमुक्ता पुरुषवेदोदयविशिष्टस्य जन्तोरारोहणाऽवरोहणप्रक्रिया । अथ स्त्रीवेदोदयविशिष्टस्य नपुंसकवेदोदयविशिष्टस्य च प्रक्रियाविशेषमभिधित्सुराह उदयं वजिय इत्थी इत्थीं समयइ अवेयगा सत्त। तह वरिसवरो परिसवरि इत्थिं समगं कमारद्धे ॥६५॥ उदयं वर्जयित्वा स्त्री स्त्रीं शमयत्यवेदका सप्त । तथा वर्षवरो वर्षवरं स्त्री समकं कमारब्धे (सति) ॥६५॥ पुरुषवेदारूढो नपुंसकम्त्रीवेदद्विकस्योपशमने यावन्तं कालं गमयति, स्त्रीवेदारूढस्तावकालमात्रीं स्त्रीवेदस्य प्रथमस्थिति विमुच्याऽन्तरकर प्रकरोति । अन्तरकरणं कृत्वाऽऽदौ नपुसकवेदं प्रोपशमयति, अन्तमुहूर्तकालेन सर्वथोपशम्य स्त्रीवेदमुपशमयितुमुपक्रमते, तं च तावदुपशमयति यावत्म्वोदयस्य चरमसमयः। तस्मिंश्च समय एका चरमसमयरूपामुदयस्थिति वर्जयित्वा शेषसकलमपि स्त्रीवेदलिकं सर्वथोपशमयति वेदनतो नाशयति । • तदानीं पुरुषवेदस्य स्थितिबन्धो संख्यातसहस्रवर्षप्रमाणः संभवति । कथमेतदवगन्तव्यम् ! इति चेत् , उच्यते--पुरुषवेदारूढस्य पुवेदबन्धविच्छेदतः स्त्रीवेदाऽऽरूढस्य पुरुषवेदसत्ककालबन्धस्याऽर्वाग्व्यवच्छेदादिति ब्रुमः ततोऽनन्तरसमये पुरुषवेदस्य बन्धो व्यवच्छिन्नो भवति । ततः प्रभृत्यवेदका सति हास्यषट्कपुरुषवेदरूपसप्तनोकषायान युगपदुपशमयितुमारभते । अन्तमुहूर्तेन कालेन सर्वथोपशमयति । उक्तं च कर्मप्रकृलिचूौँ- 'अवेतिगा सति छन्नोकसाते पुरिसवेयं च सत्तकंमपगडीओ जुगव उवसामेति।" इति । तथैव कषायप्रा. भूतचूर्णावपि-"इत्थिवेदेणं उपहिवस्म णाणत्त पत्तहस्सामो तं जहा अवेदो सत्त. कम्मसे उवसामेदि सत्तण्हं पि उवसामणद्धा तुल्ला । एदं जाणत्तं । सेसा सव्वे वियप्पा परिसवेदेण सह सरिसा।" इति । अा पुरुषवेदाऽऽरूढवद् हास्यषट्के सर्वथो. पशान्ते पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धनूतनदलिकमनुपशान्तं न तिष्ठति, किं कारणमिति चेद् ! उच्यते-पुरुषवेदोदयारूढस्य हास्यषटकसत्कस्य सर्वथोपशमनस्य चरमसमयेऽपि पुरुषवेदो बध्यमान आसीत् , स्त्रीवेदारूढस्य तु हास्यषट्कोपशमनाप्रारम्भादेव पुरुषवेदस्य बन्धव्यवच्छिन्नो भवति । ततः परमन्तमुहूर्ते व्यतिक्रान्ते सप्तनोकषाया युगपत् सर्वथोपशम्यन्ते, .टिप्पणी- महाबन्धे स्त्रीवेदमार्गणायां पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातसहस्रवार्षिक: प्रोक्तः स च क्षपकश्रेणा उशमश्रेणी वाऽत्रैव सङ्गच्छते। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्रीनपुंसकवेदोदयः ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २३७ तेन हास्यपटक उपशान्ते समयोनावलिकाद्विकबद्धदलिकं पुरुषवेदारूढवदनुपशान्तं न तिष्ठति, शेषं पुरुषवेदारूढवदवगन्तव्यम् । तह' इत्यादि, 'वर्षवरो' नपुसकः 'कमारडे', ति, क्रमारब्धे सति 'तह' ति, एकामुदयस्थिति मुक्त्वा नपुंसकवेदस्त्रीवेदी नपुसकवेदारूढसमकं युगपदुपशमयति । पुरुषवेदारूढस्य यावान् नपुसकवेदस्त्रीवेदोपशमनकालो भवति, तावन्मात्रीं प्रथमस्थिति नपुसकवेदस्य शेषवेदद्विकस्य पुनरावलिकाप्रमाणां विमुच्य नपुसकवेदारूढोऽन्तरकरणं प्रकरोति, अन्तरकरणं च कृत्वा नपुसकवेदं प्रोपशमयति, यावत्पु वेदोदयारूढः सर्वथा नपुसकवेदमुपशमयति, नपुंसकवेदारूढस्तावत्केवलं नपुसकवेदमुपशमयन्नपि न सर्वथोपशमयति, ततः परं स्त्रीवेदमुपशमयितुमुपक्रमत इति नपुसकवेदस्त्रीवेदी द्वावुपशमयन्नपुसकवेदसत्कप्रथमस्थितेश्वरमसमयपर्यन्तमुपशमयति, चरमसमये द्वावपि वेदौ सर्वथोपशम्येते । .. तदानीं पुरुषवेदस्य स्थितिबन्धाः संख्येयसहस्रवार्षिकः संभवति, ततोऽनन्तरसमये नपुसकवेदस्योदयो व्यवच्छिन्नो भवति, पुरुषवेदस्य च बन्धोऽपगच्छति । ततः प्रभति पुवेदहास्यादिषट्कलमणसप्तप्रकृतीयुगपदुपशमयितुभारभते युगपच्च सर्वथोपशमयति । उक्तं च कर्मप्रकृतिचूर्णी-"तदो अवेदो सत्तकम्माणि उवसामेदि । तुल्ला च सत्तण्ड पि कम्माणमुपसमणा।" अत्राऽपि हास्यपदक उपशान्ते पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलिकमनुपशान्तं न तिष्ठति स्त्रीवेदोदयारूढवत् । शेषं सर्व पुरुषवेदारूढप्रकारेणाऽवगन्तव्यम् । इत्थं संज्वलन क्रोधोदयेनाऽऽरूढस्याऽऽरोहणाऽवरोहणप्रक्रिया दर्शिता। संप्रति संज्वलनमानोदयेन संज्वलनमायोदयेन संज्वलनलोभोदयेन चोपशमश्रेणिमारूढानामारोहणाऽवरोहणप्रक्रियाविशेषो भण्यते । संज्वलनमानोदयेनारूढस्याऽऽरोहणक्रियायामयं विशेषः ___ यदा तु पुरुषवेदसंज्वलनमानोदयेनोपशमश्रेणि प्रतिपद्यते, तदा संज्वलनक्रोधोदयारूढस्य यावती संज्वलनक्रोधस्याऽन्तमुहर्तप्रमाणा संज्वलनमानस्य चाऽन्तमुहूर्तप्रमाणा समुदिता प्रथमस्थितिर्भवति, तावती केवलस्य संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितिं करोति संज्वलनक्रोधस्य चोदयाऽभावेन तत्प्रथमस्थितिरावलिकामात्री क्रियते । पुरुषवेदस्य चरमसमयं यावत्क्रोधोदयारूढवदवगन्तव्यम् । पुरुषवेदोदयचरमसमये हास्यषट्कं सर्वथोपशम्यते पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्वयनूतनबद्धदलिकं वर्जयित्वा सर्व पुरुषवेदस्य दलिकमुपशम्यते । समयोनावलिकाद्विकाऽभिनवबद्धदलं तावता कालेनाऽवेदको मानमनुभवन्नप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनक्रोत्रिकं चोपशमयन् पुरुषवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति । अवेदकप्रथमसमयात्संज्वलनमानमनुभवन्पुरुषवेदोक्तप्रकारेण क्रोधत्रिकमुपशमयितुमुपक्रमते । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ६५ पुरुषवेदक्रोधोदयप्रतिपन्नस्याऽपगतवेदस्य यावान कालः क्रोधोपशमनायां गच्छति, तावता कालेन मानोदयारूढः क्रोधत्रयमुपशमयति, संज्वलनक्रोधस्य केवलं समयोनावलिकाद्विकनूतनबद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति, तदानीमेव संज्वलनक्रोधस्य बन्धो व्यवच्छिद्यते । ततः प्रभूति मानविकमुपशमयन् संज्वलनक्रोधस्य समयोनावलिकाद्विकेन बद्धदलिकं तावता कालेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेणोपशमयति, शेषं पूर्ववत् , यथा-मानमुपशमयतो जन्तोः संज्वलनमानस्य प्रथमस्थितेः समयोनावलिकात्रिके शेषे संज्वलनमानस्य पतद्ग्रहताऽपगच्छति, आवलिकाद्विके शेष आगालो व्यवच्छिन्न आवलिकायां च शेषायां बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिद्यन्ते, तदानीं च मानत्रिकं सर्वथोपशान्तं भवति, नवरि संज्वलनमानस्य समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलं तथाऽऽवलिकामात्रप्रथमस्थितिगतं दलमनुपशान्तं तिष्ठतीत्यादि पूर्व वदवसे यम् । प्रतिपाते प्रक्रियाविशेषः मानोदयेनाऽऽरूढो यदि प्रतिपतेत्तहि स सूक्ष्मपरायप्रथमसमयादारभ्य मायावेदाद्धाचरमसमयं यावत्पुरुषवेदक्रोधोदयेनारूढवत्प्रक्रियां करोति,न कश्चिद्विशेषः । ॥ ततो मानोदयारूढः प्रतिपातुको मानवेदकाऽद्धायाः प्रथमसमयादारभ्य नवानामपि कषायाणां गलिताऽवशेषमात्री गुणश्रेणिं विरचपति, तदायामश्च शेषकर्मगुणश्रेण्यायामेन एकादशो भवति । इह मानवेदकाऽद्धा क्रोधारूढप्रतिपातुकक्रोधमानोदयसमृहितकालप्रमाणः। पुरुषवेद क्रोधोदयारूढस्य मानवेदकाऽद्धायां व्यतिक्रान्तायां पुरुषवेदमानारूढस्य प्रतिपततः क्रोधत्रयमनुपशान्तं भवति, तदानीं द्वितीयस्थितितो दलिकं गृहीत्वोदयावलिकाया उपरितननिषेकाक्रोधत्रिकदलानि शेषकर्मगुणश्रेण्यायामेन सदृशे गुणश्रेण्यायामे रचयति, स चाऽऽयामो गलिताऽवशेषमात्रः, इत्थं तदानीं द्वादशकषायाणां गलिताऽवशेषगुणश्रेणिर्भवति तथा चारित्रमोहनीयस्य द्वादशप्रकृत्यात्मकं सक्रमस्थानं क्षायिकसम्यग्दृष्टिना प्राप्यते । शेषं पुरुषवेशक्रोधोदयारूढप्रतिपातुकवदवगन्तव्यम् । अथ मायावेदोदयारूढस्याऽऽरोहणप्रक्रियायां विशेषो भण्यते । अथ आरोहणप्रक्रियाया विशेषः पुरुषवेदक्रोधोदयारूढस्य, संज्वलनक्रोधमानमायानां त्रयाणां समुदिता यावन्मात्री प्रथमस्थितिरासीत् , तावन्मात्री पुरुषवेदमायारूढम्य संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितिर्भवति । शेषाणामनुदयवतीनां प्रकृतीनामावलिकामात्री प्रथमस्थितिः क्रियते । पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधोदय द्वयारूढवतावद्वक्तव्यम् , यावत्पुरुषवेदस्योदयचरमसमयः, पुरुषवेदोदयस्य चरमसमये हास्यपटकं पुरुषवेदं काटिप्पणीः-लब्धिसारे यत्कषायेन श्रेणि प्रतिपन्नस्तं कषायं प्राप्याऽन्तरं पूरयतीत्युक्तम् । यस्यकषाय स्योदयेन श्रणिमारुह्य पतितस्तस्मिन्नप्रकृष्टेऽन्तरमापूरयति । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायारूढस्यारोहणावरोहणे ] चरित्रमोहोपशमनाधिकारः [ २३६ च सर्वथोपशम्यते नवरं पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति, तदपि तावता कालेन संज्वलनमायां वेदयन्क्रोधत्रिकं चोपशमय नवेदकोऽयं सर्वथोपशमयति । पुरुषवेदक्रोधोदयेनोपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य संज्वलनक्रोधस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धं नूतनदलं विमुच्य क्रोधत्रिकस्योपशमनायां यावन्तं कालं गमयति, तावति कालेऽयं पुरुषवेदमायोदयारूढः क्रोधत्रिक नपुसकवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति नवरं समयोनावलिकाद्विकनूतनबद्धदलमनुपशान्तं तिष्ठति, तदानीमेव संज्वलनक्रोधम्य बन्धो व्यवच्छिद्यते । ततः प्रभृति संज्वलनमानत्रिकमुपशमयितुमारभते मानत्रिकं चोपशमयन संज्वलनक्रोधस्य नूतनबद्ध दलिक समयोनावलिकाद्विकेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति । पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधारूढो यद्वा संज्वलनमानोदयारूढो यावति काले समयोनाबलिकाद्वयबद्धनूतनदलं वर्जयित्वा मानत्रिक सर्वथोपशमयति, तावति काले पुरुषवेदमायोदयारूढो मानत्रिक नपुसकवेदोक्तप्रकारेणोपशमयति, केवलं संज्त्रलनमानम्य समयोनावलिकाद्विकेन बदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति, तदानीं च संज्वलनमानस्य बन्धो व्यवच्छिद्यते । ततः प्रभृति मायात्रिकमुपशमयितुमुक्रमते मायात्रिकं चोपशमयन संज्वलनमानस्य समयोनावलिकाह येन बद्धनूतनदलिवं तावता कालेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेणोपशमयति संज्वलनमायायाः प्रथमस्थिते समयोनालिकाद्वयेन बद्ध नूतनदलिकं तावताकालेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेणोपशमयति, संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितेः समयोनावलिकाद्विके शेषे संवज्लनमायायाः पतद्ग्रहता व्यवच्छिद्यते, आवलिकाद्विके शेष आगालो व्यवच्छिन्न आवलिकायां च शेषायां बन्धोदयोदीरणा अपगच्छन्ति । तदानीमेव समयोनाबलिकाद्वयबद्धाऽभिनवदलमनुपशान्तं तिष्ठति शेषं पूर्ववदव सेयम् । प्रतिपाते प्रक्रियाविशेषः श्रेणितः प्रतिपतन मुश्मसंपरायप्रथमसमयादारभ्य बादरलोभवेदकाऽद्धाचरमसमयपर्यन्तं पुरुषवेदक्रोधारूढप्रतिपातुकवज्ज्ञातव्यम् । ततोऽनन्तरं मायावेदकप्रथमसमये षण्णामपि कषायणां गलिताऽवशेषगुणश्रेणिं करोति तदायामश्च शेषकर्म गुणश्रेण्यायामेन सदृक्षो भवति । मायावेदकाऽद्धा च क्रोधोदयारूढप्रतिपातुकस्य क्रोधमानमायानां समुदितो यावानुदयकालस्तावान्मायोदयारूढ प्रतिपतनस्य केवलमायावेदककालो भवति, यदा क्रोधारूढाऽवतारकस्य मायावेदकाऽद्धायां व्यतिक न्तायां मानविकमनुपशान्तं भवति, तदा मायोदयारूढस्य प्रतिपातुकस्य मानत्रिकमनुपशान्तं भवति तदानीमेव द्वितीय स्थितितो मानविकम्याऽपि दलं गृहीत्वोदयावलिकाया उपरि शेषकर्मगुणश्रेण्यायाममदृशां गलिनाऽवशेषां गुण) णि रचयति, तदानीं मानत्रिकस्याऽनुपशान्तत्वेन चारित्रमोहनीयम्ए नवप्रकृत्यात्मक सङ्क्रमस्थानं क्षायिकसम्यग्दृष्टिना प्राप्यते । ★ टिप्पणी० मायावेदकप्रथमसमयेऽन्तरं पूरयतीति लब्धिसारः। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० ] उपशमनाकरणम् [ गाथा-६५ ततः परं क्रोधारूढप्रतिपातुकस्य मानवेदकस्य यावान्कालो भवति, तावति काले व्यतीते क्रोधत्रिकमनुपशान्तं भवति, द्वितीयस्थितितो दलं समाकृष्य क्रोत्रिकस्योदयावलिकोपरितननिषेकाच्छेषकर्मगुणश्रेण्यायामसदृशां गलिताऽवशेषामात्रीं गुणश्रेणि विरचयति । इतः प्रभृति मोहनीयस्य द्वादशप्रकृतीनां गलिताऽवशेषगुणश्रेणिःप्रवर्तते. क्रोधोपशमनाऽपगमनाच्चारित्रमोहनीयस्य द्वादशप्रकृत्यात्मकं सङ्क्रमस्थानं प्राप्यते, शेषं क्रोधारूडप्रतिपातुकपुरुषवदवधेयम् । अथ पुरुषवेदसंज्वलनलोभोदयारूढस्याऽऽरोहणप्रक्रियायां विशेष उच्यते । आरोहणप्रक्रियाविशेषः पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधोदयारूढेन संज्वलनक्रोधमानमायाबादरलोभानां संपिण्डिता यावन्मात्री प्रथमस्थितिः क्रियते, तावन्मात्री संज्वलनलोभस्य प्रथमस्थितिः पुरुषवेदसंज्वलनलोभोदयारूढेन क्रियते, अर्थादन्तरकरणक्रियाकालप्रथमसमयादारभ्याऽनिवृत्तिकरणचरमसमयादग्रेतना. ऽऽवलिकापर्यन्तं संज्वलनलोभस्य प्रथमस्थितिः क्रियते, शेषाऽनुदयवतीनां च प्रकृतीनामावलिकामात्री, शेषप्रक्रिया पूर्ववत्तावद्वक्तव्या, यावत्पुरुषवेदोदयस्य चरमसमयः, तदानीं पुरुषवेदस्य वन्धो व्यवच्छिद्यते । हास्यषटकं पुरुषवेदं च सर्वथोपशमयति, केवलं समयोनावलिकाद्विकबद्धदलिकमनुपशान्तं तिष्ठति, तदपि ततोऽनन्तरसमयान्क्रोधत्रिकमुपशमयन् संज्वलनलोभं वेदयनपगतवेदोदयं तावता कालेन सर्वथोपशमयति । पुरुषवेदक्रोधोदयारूढः क्रोधत्रिकोपशमनायां यावन्तं कालं नयति, पुरुषवेदलोभोदयारूढस्तावति काले क्रोधत्रिकं नपुसकवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति, नवरं संज्वलनक्रोधस्य समयोनावलिकाद्विकबद्धनूतनदलमनुपशान्तं तिष्ठति । तदानीमेव संज्वलनक्रोधस्य बन्धो व्यवच्छिद्यते,अतः प्रति मानविकमुपशमयितुमारभते मानत्रिकं चोपशमयन् संज्वलनक्रोधस्य बद्धनूतनदलमपि समयोनाऽऽवलिकाद्विककालेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति । पुरुषवेदक्रोधोदयप्रतिपन्नो यावति काले समयोनाऽऽवलिकाद्वयबद्धनूतनदलं विमुच्य मानत्रिकमुपशमयति, तावति कान्ले पुरूषवेदसंज्वलनलोभोदयारुढो मानत्रिक नपुंसकवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति, केवलं संज्वलनमानस्य समयोनावलिकाबद्धनूतनदलमनुपशान्तं तिष्ठति । तदानीं संज्वलनमानस्य बन्धो व्यवच्छिन्नो भवति । ततः प्रभति मायात्रिकमुपशमयन् संज्वलनमानस्य बद्धनूतनदलं समयोनावलिकाद्विकेन कालेन पुरुषवेदोक्तप्रकारेण सर्वथोपशमयति । पुरुषवेदक्रोधप्रतिपनो यावति काले समयोनावलिकाद्वयबद्धदलं वर्जयित्वा मायात्रिकमुपशमयति, तावति काले पुरुषवेदोक्तप्रकारेण लोभोदयारूढो मायात्रिकमुपशमयति, नवरं समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलमनुपशान्तं तिष्ठति तदानीमेव मायाया बन्धो व्यवच्छिद्यते । अतः प्रभृति लोभत्रिकमुपशमयितुमारभते पुरुषवेदक्रोधोदयारूढवदपूर्वस्पर्धकानि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्व. लोभारूढस्य प्रतिपातः । चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २४१ किट्टीश्च करोति, किन्तु संज्वलनबादरलोभस्य प्रथमस्थितिर्न करोति तस्यैव वेद्यमानत्वात् । संज्वलनबादरलोमस्य प्रथमस्थितेः समयोनावलिकात्रये शेषे संज्वलनलोभस्य पतद्ग्रहताऽपगच्छति, आवलिकाद्विके शेषे संज्वलनलोभस्याऽऽगालो व्यवच्छिन्नो भवति, आवलिकायां शेषायां संज्वलन लोमस्य बन्धो बादरसंज्वलन लोभस्य चोदयोऽपगच्छति लोभत्रिकं सर्वथोपशन्तं तिष्ठति, नवरं बादरसंज्वलन लोभस्य समयोनावलिकाद्वयबद्धदलं तथा प्रथमस्थितिसत्काऽवशिष्टाऽऽवलिकागतं दलं किट्टिगतं च दलमनुपशान्तं भवति, शेषं पूर्ववत्तावदवगन्तव्यम्, यावदुपशान्तमोह गुणस्थाजकस्य चरमसमयः । अवतरणे प्रक्रियाविशेषः सूक्ष्म संपरायस्य प्रथमसमयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यन्तं सर्वाऽपि प्रक्रिया संज्वलनक्रोधारूढवदवगन्तव्या, ततोऽनिवृत्तिकरणप्रघमसमयतो लोभारूढप्रतिपातुको लोभत्रिकस्य गलिताऽवशेषमात्र शेषकर्मगुणण्यायामेन समानां गुणणि करोति । क्रोधारूढप्रतिपातुकस्य यावान् लोममायामानक्रोधानां समुदितोदयकालस्तावान् लोभोदयारूढाऽवतारकस्य केवललो मस्योदयो भवति । क्रोधोदयारूढप्रतिपतनस्य लोभवेदकाऽद्धायामतीतायां यदा मायात्रिकमनुपशान्तं भवति, तदा लोमारूढप्रतिपादुकस्याऽपि मायात्रिकमनुपशान्तं भवति । तदानीं द्वितीयस्थितेर्मायात्रिपदलं गृहीत्वोदयावलिका बहिः शेषकर्मगुणश्रेण्यायामसदृशां गुणश्र णिं विरचयति, इतः प्रभूति षण्णां कपायाणां गलिताऽवशेषा गुणश्र ेणिः प्रवर्तते । मायात्रिकस्याऽनुपशमना तत्सङ्क्रमश्च प्रवर्तते । तदानीं षण्णां कषायाणामनानुपूर्व्या सङ्क्रमो भवति । मायात्रिकस्योपशमनाऽपगमनात्क्रोधारूढप्रतिपातुकस्य मायावेदकाऽद्धायां व्यतिक्रान्तायां यदा मानमनुपशान्तं भवति, तदा संज्वलनलोभारूढप्रतिपादुकस्याऽपि मानत्रिकमनुपशान्तं भवति । इदानीं द्वितीयस्थितितो मानत्रिकस्य दलं गृहीत्वोदयावलिकाया उपरि शेषकर्मगुणश्रेण्यायामसदृशां गलिता彝 Saशेष गुण णिं करोति । मानत्रिकस्याऽनुपशान्तत्वेन तत्सङ्क्रमसंभवात् नवकषायाणामनानुपूर्व्या सङ्क्रमः प्रवर्तते । मानत्रिकस्योपशमननाशाद्यस्मिन्काले क्रोधारूढप्रतिपातुकस्य मानवेदकाऽद्धायां व्यतिक्रान्तायां क्रोधत्रिकमनुपशान्तं भवति, तस्मिन्काले लोभारूढाऽवतारकस्याऽपि क्रोधत्रिकमनुपशान्तं भवति । तेन द्वितीयस्थितितः क्रोधत्रिकं गृहीत्वोदयावलिकाया बहिः शेषकर्मगुणण्यायामसदृशां गलिताऽवशेषमात्रीं गुणश्र ेणिं विरचयति । क्रोधत्रिकस्योपशमनाऽपगमनेन तत्सङ्क्रमप्रारम्भाद् द्वादशकषायाणां सङ्क्रम इतः प्रभृति प्रवर्तते, शेषं क्रोधारूढप्रतिपातुकवद्विनिश्च तव्यं यदा संज्वलन क्रोधमानमायालोभपुरूष वेदानामुपशान्तत्वं नश्यति, तेषां बन्ध आरभ्यते । तदा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ६५ अल्पबहुत्वम् संप्रति पुरुषवेदसंज्वलनक्रोधोदयारूढस्याऽऽरोहकाऽपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्याऽपूर्वकरणचरमसमयपर्यन्तं संभाव्यमानानामष्टानवतिपदानां कालतोऽल्पबहुत्वमभिधीयते (१) जघन्याऽनुभागखण्डोत्कीर्णोद्धा सर्वाऽल्पा । सा चाऽऽरोहकस्य सूक्ष्मसंपरायचरमसमये समाप्यमानाऽनुभागखण्डोत्कीर्णोद्धा संभवति । (२) तत उत्कृष्टानुभागखण्डोत्कीर्णोद्धा विशेषाधिका, सा चाऽऽरोहकाऽपूर्वकरणप्रथमसमये प्रारभ्यमानाऽनुभागखण्डोत्कीर्णोद्धा निश्च तव्या पूर्वतश्च विशेषाऽधिका । (३)ततो जघन्यस्थितिबन्धाद्धाजघन्यस्थितिवाताद्धाच संख्येयगुणे परस्परं च तुल्ये पण्णामपि कर्मणामारोहकसूक्ष्मसंपरायचरमसमये समाप्यमानस्थितिघातस्य कालस्तत्कालीनस्थितिबन्धकालश्च पूर्वतः संख्यातगुणौ परस्परं च तुल्यौ भवतः। कथमेतदवसीयत इति चेद् १उच्यते,एकस्मिन स्थितिघाते रसघातसहस्राणां भवनास्थितिघातकालेन च स्थितिबन्धकालस्य तुल्यत्वनियमादारोहकसूक्ष्मसंपरायचरमसमये समाप्यमानस्थितिघातकालेन तत्कालीनस्थितिबन्धस्य तुल्यत्वं सिध्यति । (४) ततोऽवतारकस्य जघन्यस्थितिबन्धाऽद्धा विशेषाधिका । यदा जन्तुःश्रेणिमारोहति, तदा तस्य जन्तोर्विशुद्धिवर्धते । आरोहकस्य विशुद्धेः प्रवर्धमानत्वादुत्तरोत्तरस्थितिबन्धाद्धा हीना भवति, प्रतिपातुकस्य तु संक्लेशस्याऽभिवर्धनादुत्तरोत्तरस्थितिबन्धाऽद्धा विशेषाधिका सञ्जायते । तेनाऽऽरोहकस्य सूक्ष्मसंपरायचरमसमयसमाप्यमानस्थिनिबन्धकालतोऽवतारकस्य सूक्ष्मसंपराय प्रथमसमयमा वेस्थितिबन्धकालो विशेषाऽधिकः । श्रेणितः प्रतिपततस्तु स्थितिघाता न भवन्ति। कथमेतदनुगन्तव्यमिति चेद् ? उच्यते, यद्यवतारकस्य स्थितिघाता मन्येरन्, तो वतारकस्य जधन्यस्थितिबन्धाद्धा तत्कालीना स्थितिघाताद्धा च परस्परं समाने पूर्वतश्च विशेषाऽधिके के टिप्पणी- ततोज्ञानावरणादिकर्मणां जघन्यस्थितिकण्डकोत्कीर्ण काल : सूक्ष्मसंपरायचरमसमयसंभव्यनिवृत्तिकरणचरमसमयसंभत्री मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धकालश्च संख्यात गुणो परस्परं समाना इति लब्धिसारे यदुक्तं तच्चिन्त्यं किं कारणमिति चेद् ? उच्यते सप्तानामपि कर्मणामनिवृत्तिकरणचरमसमये समानस्थितिबन्ध काल: परस्परं तुल्य : संभवति, अन्यथा स्वीकारे प्रत्येक कर्मणां स्थितिबन्धाद्धा पृथक वक्तव्या स्यात् ' अनिवृत्तिकरणचरमसमयतः परं सहस्रषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सूक्ष्मसंपरायचरमसमये समाप्यमानस्थितिबन्धस्य कालोऽवाप्यते, तेनानिवृत्तिकरणचरमस्थितिबन्धकालतः सूक्ष्मसंपराय. चरमस्थितिबन्धकालो विशेषहीनो वक्तव्यः,उत्तरोत्तरस्थितिबन्धकालस्य विशेषहोनत्वादतो मोहनीयस्य जघन्य स्थितिबन्धकालतः शेषषटकर्मणां जघन्य स्थितिबन्धकालो विशेषहीन एव संभवति न तुल्यः ।। .एदेण सुत्तणिवेसेण जाणिज्जदे जहा ओदरमाणस्स सव्वावस्थासु ट्ठिदि अणुभागघादा स्थिति जह प्रत्थि ते अोदरमाणस्स ट्ठिदिबधगद्धाए सह ट्ठिदिखंडयउक्कीरणद्धपि भणेज्ज ण च एव तहाणु। वठ्ठत्तादो। (१९२६) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] चारित्रमोहनी योपशमनाधिकारः [ २४३ वक्तव्ये स्याताम् , नैवमुच्यते । तेनाऽवतारकस्य स्थितिघाताः न भवन्तीति सिध्यति । एतच्च कषायप्राभूतचूर्णिकारमतेन संभवति, अल्पबहुत्वस्य कषायप्राभूतचूर्णिमतानुसारित्वात् । पञ्चसंग्रहटीकाकुन्मतेन प्रतिपातुकस्यापि स्थितिघाता भवन्त्येव । यदुक्तम् "तथा यत् यत्र स्पाने जातं स्थितिरसघातादि तत्तत्र स्थाने तद्वीधमेव भवतोति।" (५) ततोऽन्तरकरणक्रियाकालो विशेषाधिकः। न चाऽन्तरकरणक्रियाकालस्यैकस्थितिबन्ध कालेन तुल्यत्वेनाऽवतारकजघन्यस्थितिबन्धाऽद्धातोऽन्तरकरण क्रियाकालस्य विशेषाधिक्यं न संभवतीति वाच्यम् , यतोऽनिवृत्तिकरणसत्के संख्येयतमे भागेऽवशिष्टेऽन्तरकरणं स्थितिघातोऽभिनवस्थितिबन्धश्च युगपदारभ्यन्ते, एकेन स्थितिबन्धकालेनाऽन्तकरणं करोति, अत्र यद्यपि तत्कालीन स्थितिबन्धकालेनाऽन्तरकरणं करोतीति नोक्तं तथाऽपि प्रकृतत्वात्तत्कालेनाऽन्तरं करोतीत्येवाऽर्थसंभवेनाऽवतारकस्य जघन्यस्थितिबन्धकालतोऽनिवृत्तिकरणसंख्येयतमे भागेऽव. शिष्यमाण आरभ्यमाणस्थितिबन्धकालो विशेषाऽधिकः संभवति, तत्स्थितिबन्धकालेन चाऽन्तरकरणक्रियाकालतुल्यात्वात्पूर्व पदतोऽन्तरकरणक्रियाकालो विशेषाऽधिको भवति । (६) तत उत्कृष्टस्थितिबन्धाद्धा उत्कृष्टस्थितिखण्डोत्कीर्णाऽद्धा च विशेषाधिके । सप्तानामपि कर्मणामारोहकस्याऽपूर्वकरणप्रथमसमय आरभ्यमाणस्याऽभिनवस्य स्थितिबन्धस्य स्थितिघातस्य च यः कालः पूर्वतो विशेषाऽधिक इति निश्चेतव्यः, किं कारणमिति चेत् ? उच्यते-उत्तरोत्तरस्थितिबन्धकालस्य स्थितिघातकालस्य च विशेषहीनत्वेनाऽनयोः स्थितिबन्धकालस्थितिघातकालयोरन्तरकरणक्रियाकालतुल्यस्थितिबन्धकालतो विशेषाऽधिकत्वसंभवात्पूर्व पदत उत्कृष्टस्थितिबन्धकालस्थितिघातकालौ विशेषाऽधिको परस्परं च तुल्यो भवतः । (७) तत आरोहकसूक्ष्मसंपरायचरमसमयभाविगलिताऽशेषगुणश्रेण्यायामः संख्यातगुणः । स च गुणश्रेण्यायामः षण्णामपि कर्मणां सूक्ष्मसंपरायचरमसमये भवति, पूर्वतश्च संख्यातगुणः प्रागन्तमुहूर्ततोऽस्याऽन्तर्मुहूर्तकालस्य संख्यातगुणत्वात् । (८) तत उपशान्तमोहगुणस्थानकगुणश्रेणिनिक्षेपः संख्यातगुणः । सूक्ष्मसंपरायचरमसमय. गलिताऽवशेषगुणश्रेण्यायामत उपशान्तमोहगुणस्थानकप्रथमसमये संख्येयगुणामवस्थिताऽऽयामा गुणश्रेणिं करोतीत्युक्तत्वात्पूर्वत उपशान्तमोहगुणश्रेणिनिक्षेपः संख्यातगुणः सिध्यति । (९) ततः प्रतिपातुकस्य सूक्षमसंपरायाऽद्धा संख्यातगुणा । (१०) ततः प्रतिपातुकस्य सूक्ष्मसंपरायलोभगुश्रेणिनिक्षेपो विशेषाधिकः। श्रेणितः प्रतिपतन सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये द्वितीयस्थितितः किट्टीः समाकृष्य मूक्ष्मवेदकाऽद्धात आवलिकाऽधिक Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ६५ प्रमाणाऽऽयामे गुणश्रेणिं रचयति, अतः प्रतिपातुकसूक्ष्मसंपरागुणश्रीणिनिक्षेपः पूर्वतो विशेषाऽधिको भवति । (११) तत आरोहकसूक्ष्मसंपरायकालः सूक्ष्मकिट्टिप्रथमस्थित्यायामः सूक्ष्मकिय पशमनकालश्च विशेषाधिकाः स्वस्थाने च मिथस्तुल्या भवन्ति । आरोहकः सूक्ष्मसंपरागुणस्थानकप्रथमसमये द्वितीयस्थितितः किट्टीः समाकृष्य सूक्ष्मसंपरायाऽद्धाप्रमाणं सूक्षमलोभस्य प्रथमस्थिति करोति तथा तत्प्रथमसमयात्सूक्ष्मकिट्टीरनुभवन्सूक्ष्मसंपरायचरमसमयपर्यन्तमुपशमयति, तेन सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमयात्तचरमसमयपर्यन्तं सूक्ष्मकिट्टयु पशमनकालोऽपि संभवतीति कृत्वा त्रयः ।। कालाः परस्परं तुल्या भवन्ति । आरोहकस्य सूक्ष्मलीभवेदककालतोऽवरोहकसूक्ष्मलोभवेदक. कालस्य किश्चिन्न्यूनत्वस्य प्रागुक्तत्वाच न्यूनत्वमावलिकातोऽधिकमितिकृत्वा पूर्वत एते त्रयः कालाः विशेषाधिकाः परस्परं च तुल्या भवन्ति ।। (१२) ततः किट्टिकरणाऽद्धा विशेषाऽधिका । लोभवेदकाऽद्धायास्त्रयो विभागाः क्रियन्ते तद्यथा-(१) अश्वकर्णकरणाऽद्धा (२) किट्टीकरणाऽद्धा (३) किट्टीवेदनाऽद्धा च । एतेषां क्रमशो विशेषहीनन्वं प्रागुक्तमिति किट्टिवेदनाऽद्धालक्षण सूक्ष्मसंपरायाऽद्धातः किट्टिकरणाऽद्धा विशेषाऽधिका घटते । (१३) ततोऽवतारकस्य बादरलोभवेदकाद्धा संख्येयगुणा। आरोहककिट्टिकरणाद्धाया द्विगुणतोऽप्यधिका आरोहकवादरलोभवेदकाऽद्धा भवति, ततः प्रतिपातुकबादरलोभवेदकाऽद्धायाः किश्चिन्यूनत्वस्यै वोक्तत्वादवतारकलोभवेदकाऽद्धा पूर्वतः संख्यातगुणा संभवति । (१४) ततः प्रतिपातुकस्य लोभत्रयस्य गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः परस्परं च तुल्यः । अनिवृत्तिकरणप्रथमसमये प्रतिपातुको द्वितीयस्थितितो दलं गृहीत्वा लोभत्र यस्य गुणश्रेणिं बादरलोभवेदकाऽद्धात आवलिकामात्रेणाऽधिक आयामे रचयनि । यद्यप्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणद्विकप्त्योदयावलिकाया उपरि गुण श्रेणिर्भवति, तथाऽपि संज्वलनलोमस्य गुणश्रेणिशीणेतर. लोगद्विकस्य गुणश्रेणिशीर्षस्य ममानत्वात्तयोरायामस्याऽपि सदृक्षात्वादिति कृत्वा पूर्वतोऽवतारकाऽनिवृत्तिकरणगणश्रेणिनिक्षेप आवलिकया विशेषाधिकः । अत्राऽयं विशेषः-लोभेतरकषायोदयेनाऽऽरूढप्रतिपातुकस्याऽपि लोभस्य तावानेव निक्षेपो भवति । (१५) तत उपशमकस्याऽनिवृत्तिकरणगुणस्थान के बादरलोभवेदकाऽद्धा विशेषाधिका । आरोहकलोमवेदकाद्धादितोऽवरोहकलोभवेकाऽद्धादीनां किश्चिन्यूनत्वमिति नियमान्न्यूनत्वं आऽऽवलिकातोऽधिक संभवतीति कृत्वाऽऽरोहकवादरलोभवेदकाऽद्धा पूर्वतो विशेषाधिकाः। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] चारित्रमोहनोयोपशमनाधिकारः [ २४५ (१६) ततो बादरलोभस्य प्रथम स्थितिर्विशेषाधिका । आरोहकस्य मायावेदनाऽनन्तरं बादरलोभवेदकाऽद्धातः श्रेणिं प्रतिपयमानस्य लोभस्य प्रथमस्थितिरावलिकाकालेनाऽधिका भवतीति कृत्वा बादरलोभस्य प्रथम स्थितिः पूर्वतो विशेषाऽधिका जायते ।। ___# (१७) ततः प्रतिपातुकलोभवेदकाद्धा विशेषाधिका । अस्याः सूक्ष्मवादरलोमवेदकाऽद्धाद्वयप्रमाणत्वेन पूर्वत आधिक्यं भवति । (१८) ततः प्रतिपततः मायावेदकाद्धा विशेषाऽधिका । लोभवेदकालतो मायावेदाऽद्धाया आधिक्यात्पूर्वतो विशेषाऽधिक्यं संभवति किं कारणमिति चेद् ? उच्यते---श्रेणि प्रतिपद्यमानस्य मानवेदककालतो मायावेदककालो विशेषहीनः, ततोऽपि लोभवेदककालो विशेषहीन इति नियमाप्रतिपातुकस्य लोभवेदककालतो मायावेदककालो विशेषाऽधिको भवति, एवमग्रेऽपि यथास्थानं भावनीयम् । (१६) ततः प्रतिपातुकस्य मायात्रिकलोभत्रिकरूपषट्कषायाणां गुणश्रेण्यायामो विशेषाऽधिकः । प्रतिपतन् लोभवेदकाऽद्धायां व्यतिक्रान्तायां द्वितीयस्थितितोमायात्रिकं समाकृष्य वेदयति, तदानीं संज्वलनमायाया उदयसमयादप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणमायाद्विकस्य लोभत्रिकस्य चोदयावलिकोपरितननिषेकाद्गुणश्रेणि मायावेदककालत आवलिकयाऽधिक आयामे विरचयति, तेन षण्णां कषायाणां गुणश्रेणिनिक्षेपः पूर्वतो विशेषाधिकः संभवति । अत्राऽपि लोभमायाभ्यामितरकषायेणाऽऽरूढप्रतिपातुकस्य षण्ण कषायाणां गुणश्रेणिनिक्षेपस्तावानेव भवति । (२०) अवतारकस्य मानवेदकाऽद्धा विशेषाऽधिका हेतुस्त्वष्टादशपद उक्त एव बोद्धव्यः । (२१) ततो मानवेदयतः प्रतिपातुकस्य नवानां कषायाणां गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः । मायावेदकाद्धायां व्यतीतायां प्रतिपातुको मानं समाकृष्य वेदयति । तदानीं मानत्रिकमायात्रिकलोभत्रिकरूपनवप्रकृतीनां गुणणि मानवेदकाऽद्धात आवलिकयाऽधिकायामे रचयति । (२२) तत आरोहकस्य मायावेदकाऽद्धा विशेषाधिका। (२३) तत आरोहकस्य संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितिविशेषाऽधिका, संज्वलनमायावेदककालतः संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितेराबलिकयाऽधिकत्वात् । (२४) ततो मायोपशमनकालो विशेषाऽधिकः, यतो मायोपशमनकालः पूर्वतः समयोनाऽऽवलिकयाऽधिको भवति । कथमेतदवसीयते ? इति चेद्, उच्यते-संज्वलनमायासत्कप्रथमॐ “ततः पतत्बादरलोमवेदककालो विशेषाऽधिक इति लब्धिसारटोकायां यदुक्तं तञ्चिन्त्यं तस्य त्रयोदशपद उक्तत्वात । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४: ) उपशमनाकरणम् [ गाथा ६५ स्थितेःप्रथमस मयादारभ्य तच्चरमसमयपर्यन्तं मायात्रिकमुपशमयन्नपि न सथोपशमयति, किन्तु समयोनावलिकाद्वयेन बद्धनूतनदलमनुपशान्तत्वेन सत्तायां स्थापयति, ततोऽनन्तरं तावता काले नोपशमयतीति कृत्वा मायाप्रथमस्थित्याद्यसमयानच्चरमसमयपर्यन्तं यो मायावेदककालः, ततः समयोनावलिकाद्वि केनाऽधिक उपशमनकालः, तथा मायावेदकालतो मायाप्रथमस्थितिराव. लिकयाऽधि केन्युक्तत्वाद् मायाप्रथमस्थितितो मायोपशमनकालः समयोनावलिकयाऽधिकः । (२५) ततः प्रतिपद्यमानस्य मानवेदकाऽद्धा विशेषाधिका । (२६) ततः प्रतिपद्यमानस्य मानकषायम्य प्रथमस्थितिर्विशेषाधिका । इदं पदं पूर्वत आवलिकयाऽधिकं भवति, प्रथमस्थितेरावलिका यां शेष यां मानोदयस्य व्यवच्छेदात् । (२७) ततो मानोपशमन कालो विशेषाऽधिकः, समयोनावलिकामात्रेणाऽधिकत्वात् । तत्र कारणं तु चतुर्विंशतितमपदवज्ज्ञातव्यम् । नवरमत्र मायास्थाने मान इति वक्तव्यम् । (२८) ततः क्रोधोपशमनाऽद्धा विशेषाधिका । यद्यपि क्रोधवेदकाऽद्धायां पूर्णायां क्रोधस्य प्रथमस्थितिरावलिकामाव्यवतिष्ठते, तथा ततः प्रभृति समयोनावलिकाद्वयेन बद्धनूतनदलमुपशमयतस्तावता कालेनोपशमयति. तथाऽपि मानादिवत्क्रोधवेदककालतः क्रोधप्रथमस्थितिर्विशेषाऽधिका. ततोऽपि क्रोधोपशमन कालो विशेषाधिक इति न वक्तव्यम् , यतो यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्संज्वलनक्रोधं तावद्वेदयति, यावदनिवृत्ति करणे यावत्संज्वलनक्रोधोदयम्य चरमसमयः । तेन यथाप्रवृत्त करणप्रथमसम याद निवृनिकरणे क्रोधवेदनस्य चरमसमयपर्यन्तं क्रोधवेदवाऽद्धोच्यते, तथाऽनिवृत्तिकरणेऽन्तरकरण क्रियायां समाप्तायामनन्तरसमयादारभ्य क्रोधवेदन चरमसमयत आवलिकयाऽधिका प्रथमस्थितिभवति, क्रोधोपशमना तु प्रथमस्थितेनपुसमवेदस्त्रीवेदहास्य षटकानामुपशमनाकाले व्यतीते क्रोधस्योपशमना प्रारभ्यते, सा च तावत् प्रवर्तते यावत्क्रोधचरमोदयसमयात्समयोनाऽऽवलिकाद्विकप्रमाणः कालो व्यतिक्रान्तो भवति, ततः क्रोधवेदनकालः सर्वप्रभूतः, ततो हीना क्रोधस्य प्रथमस्थितिः, ततोऽपि न्यूनः क्रोधोपश. मनकाल इत्येव भवति, न तु मानादिक्रमेणाऽल्पबहुत्वं वक्तव्यम् । स्थापना चेत्थम् यथाप्रवृत्तकरणम | अपूर्वकरणम् | प्र- निवृ-त्ति | क | | र । णम् य .................. 'क्रोधवेदनकालः क.............-... बप्रथमस्थिति.ब'... झ समयोनावलिकद्वयबद्धानुपशान्तं तावत्कालेनोपशान्तम् ब'.................. . बउच्छिष्टालिका स्ति बुकसंगमेण संक्रमति मानकषाये ज ................... झक्रोधोपशमनकाल: Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] चारित्र मोहनीयोपशमनाधिकारः [ २४७ (२९) ततो हास्यपट्कोपशमनकालो विशेषाऽधिकः, क्रोधोपशमनकालतो हास्यषट्कोपशमनकालस्य विशेषाऽधिकत्वात् । (३०) ततः पुरुषवेदोपशमनकालो विशेषाऽधिकः । यतो हास्यषट्कोपशमनकालतः समयोनावलिकाद्विकेनाऽधिकपुरुषवेदोपशमनकालो भवति पुवेदारूढस्य, न सर्वस्य, कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते-यद्यपि हास्यषटकं पुरुषवेदं च युगपदुपशमयितुमुपक्रमते, तथाऽपि हास्यषट्के सर्वथोपशान्तेऽपि पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्विकेन बद्धनूतनदल मनुपशान्तं तिष्ठति, तदपि तावता कालेनोपशमयतीति कृत्वा पुरुषवेदोपशमनकालो समयोनावलिकाद्विकेनाऽधिको भवति ।। (३१) ततः स्त्रीवेदोपशमनाद्धा विशेषाधिका, पुरुषवेदोपशमनकालतः स्त्रीवेदोपशमनकालो विशेषाऽधिकः, किं कारणमिति चेद् ? उच्यते- श्रेणिमारोहतः पूर्वपूर्वत उत्तरोत्तरसमये विशोधिः प्रवर्धते, तेन प्रागुपशम्यमानप्रकृतीनामुपशमनायां कालः प्रभूतो गच्छति, पश्चादुपशम्यमानप्रकृतीनामुपशमनायां कालो हीनो हीनतरो व्यतिक्रमति, तत्र विशुद्धराधिक्यादिति संभावयामहे। (३२) ततो नपुसकवेदोपशमनकालो विशेषाऽधिकः । हेतुस्तु पूर्ववदवगन्तव्यः । (३३) ततः क्षुल्लकभवो विशेषाऽधिकः । षट्पञ्चाशदधिकद्विशतावलिकाप्रमाणः पूर्वतश्च विशेषाऽधिकः । (३४) तत उपशान्ताऽद्धा द्विगुणा, उपशान्तमोहगुणस्थानककालः पूर्वतो द्विगुणो भवतीत्यथः । (३५) ततः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिर्विशेषाऽधिका । (३६) ततः क्रोधस्य प्रथमस्थितिर्विशेषाऽधिका । अन्तरकरण क्रियायां पूर्णायां क्रोधस्य पुरुषवेदस्य च प्रथमस्थितिर्भवति, तस्यां च क्रमेण नपुंसकवेदहास्यषटकपुरुषवेदानुपशमयति । तत्र हास्यषट्के सर्वथोपशान्ते पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितिरपगच्छति, ततः परं क्रोधस्य प्रथमस्थितिमनुभवन् क्रोधत्रिकं चोपशमयन्नपि क्रोधवेदकाऽद्धाचरमसमयपर्यन्तमुपशमयति, तत आवलिकाऽनन्तरं क्रोधस्य प्रथमस्थितिरपगच्छतीति कृत्वा पुरुषवेदस्य प्रथमस्थितितः क्रोधस्य प्रथमस्थितिर्विशेषाऽधिका भवति, आधिक्यं च तस्याः किश्चिन्न्यूनपुरुषवेदप्रथमम्थितिसत्कत्रिभागेन संभवति । कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यते, क्रोधस्य प्रथमस्थितौ क्रमशश्चत्वारि कार्याणि भवन्ति, प्रथमं नपुसकवेदोपशमना द्वितीयं स्त्रीवेदोपशमना तृतीयं च पुरुषवेदेन सह हास्यषट्कोपशमना चतुर्थं च समयोनावलि Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम् २४८ ] [ गाथा ६५ काद्वयवर्जक्रोधोपशमना तथा पूर्वपूर्वप्रकृत्युपशमनकालप्रमाणत उत्तरोत्तरप्रकृत्युपशमनकालस्य हीनत्वेन पुरुषवेदप्रथमस्थितितः किश्चिन्न्यूनत्रिभागेनाऽधिका क्रोधप्रथमस्थितिर्भवति । स्थापना-- स अ .................-- ब पुरुषवेदस्य प्रथस्थितिः अ.................. स२ संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थितिः प्र ................ १ नपुंसवेदोपशमनाद्धा १-....--.-.... २ स्त्रीवेदोपशमनाद्धा २... ........ ...... व समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलवर्जपुरुषवेदेन सह हास्यषटकोपशमनाऽद्धा ब - ..........-... स'पुरुषवेदस्य समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलेन सह समयोनावलिकाद्विक. बद्धनूतन दलबर्जक्रोधोपशमनाद्धा स'क्रोधोदयस्य चरमसमय: (३७) ततो मोहनीयस्योपशमनाद्धा विशेषाऽधिका । मोहनीयोपशमनकालः पूर्वतो मानमायालोमरूपत्रयप्रकृतीनामुपशमनकालेनाऽधिकः । कथमेतदवसीयत इति चेद् ? उच्यतेनपुसकोपशमनाप्रथमसमयादारभ्य समयोनावलिकाद्वयबद्धनूतनदलवर्जक्रोधोपशमनाचरमसमयपयन्तं क्रोधस्य प्रथमस्थितिर्भवति, मोहनीयस्योपशमन कालस्तु नपुसकवेदोपशमनकालप्रथमसमयात्सूक्ष्मलोभोपशमनाकालचरमसमयपर्यन्तं दृश्यत इति कृत्वा क्रोधप्रथमस्थितितो मोहनीयोपशमनकालो मानमायालोभानामुपशमनकालेनाऽधिको वक्तव्यः । (३८) ततः प्रतिपातुकस्याऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणाकालः संख्यातगुणः । श्रेणि समारोहतो मोहनीयस्य स्थितिबन्धस्स्तोका,ततोऽसंख्येय गुणो ज्ञानावरणदर्शनावरणाऽन्तरायाणां स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः, ततोऽपि नामगोत्रयोरसंख्येयगुणः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यः । ततोऽपि वेदनीयस्याऽसंख्येयगुणः, इति स्थितिबन्धस्य क्रमभवनाऽन्तः सहस्रषु स्थितिबन्धेषु गतेषु सत्सु देशघातिरसभवनात्संख्यातसहस्रस्थितिबन्धतोर्वागसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणा प्रारभ्यते, सा च तावत्प्रवर्तते यावत्प्रतिपातुकस्य सर्वघातिरसभवनाऽनन्तरं संख्यातसहस्रस्थितिबन्धा गता भवन्ति । तत्र प्रतिपातुकसूक्ष्मसंपरायप्रथमयात्प्रभति सर्वघातिरसभवनान्तरं संख्यातसहस्रतमस्थितिबन्धाऽद्धाचरमसमयपर्यन्तं विद्यमानो यः कालो भवति, स प्रतिपततोऽसंख्येयसमय. प्रबद्धोदीरणायाः काल उच्यते, स च पूर्वतः संख्यातगुणः भवतीत्युपद्यते । (३६) तत आरोहकस्याऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणाकालो विशेषाधिकः । आरोहककालतोऽवतारककालस्य न्यूनत्वसंभवात्पूर्वतोऽयं विशेषाऽधिको भवति । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम ] चारित्रमोहोपशमनाधिकार: [ २४९ (४०) ततोऽवतारकस्याऽनिवृत्तिकरणाऽद्धा संख्येयगुणा । आरोहकस्याऽनिवृत्तिकरणमन्कसंख्येयबहुभागेषु गतेष्वसंज्ञिबन्धतुन्यस्थितिबन्धो भवति, ततः परमपि स्थितिबन्धसहस्रषु गतेष्वसंख्येय समयप्रबद्धोदीरणा प्रारभ्यत इति कृत्वाऽऽआरोहकस्याऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणाप्रवर्तन कालोऽनिवृत्तिकरणसंख्येयतमभागप्रमाणो भवति । न च सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकेऽप्य. संख्येयसमयप्रबद्धोदीरणायाः प्रवर्तनादनिवृत्तिकरणसंख्येयतमभागतोऽधिको भवतीति वाच्यम् , मूक्ष्मसंपरायकालस्याऽन्पत्वेनाऽनिवृत्तिकरणसंख्येयतमभाग एव समावेशात् । इत्थमरोहकाऽनिवृ. त्तिकरणकालोऽसंख्येयसमयप्रबद्धोदीरणाकालतः संख्येयगुणः सिध्यति । ततोऽवतारकाऽनिवृत्तिकरण कालस्य किश्चिन्यूनत्वं वक्तव्यम्. आरोहककालतोऽवरोहककालस्य न्यूनत्वनियमात् । इत्थं पूर्वतोऽवरोहकाऽनिवृत्तिकरणकालः संख्यातगुणः सिध्यति । (४१) तत आरोहकस्याऽनिवृत्तिकरणाऽद्धा विशेषाऽधिका । आरोहकतोऽवरोहककालस्य न्यूनत्वात्पूर्वत आरोहकाऽनिवृत्ति करणाऽद्धा विशेषाधिका निश्चेतव्या । ___(४२) ततः प्रतिपातुकस्याऽपूर्व करणाऽद्धा संख्यातगुणा । अस्याः पूर्वतो बहत्तराऽन्तमुहूतेप्रमाणत्वात् संख्यातगुणत्वं न्याय्यम् । (४३) तत आरोहकस्याऽपूर्वकरणाऽद्धा विशेषाधिका । तत्र हेतुस्त्वेकचत्वारिंशस्पदवदवगन्तव्यः। ___ (४४) ततः प्रतिपतत उत्कृष्टगुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः । प्रतिपातुकस्य सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये शेषकर्मणां गुणश्रेणिरपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसंपरायाऽद्धात्रयात्किश्चिदधिककालप्रमाणगलिताऽवशेषाऽऽयामे भवति ।यद्यप्यवतारकाऽपूर्वकरणकाल आरोहकतो न्यूनो भवति, तथाऽपि गुणश्रेणिनिक्षेपोऽनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसंपरायाऽद्धाया अधिककालस्याऽपि समावेशात्पूर्वतो विशेषाधिको युक्तिसहः । अयमुत्कृष्टगुणश्रेणिनिक्षेपो मोहनीयवर्जशेषककर्मणामेव सूक्ष्मसंपरायप्रथमममये वक्तव्यः किं कारणमिति चेद् । उच्यते सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये मोहनीयस्य गुणश्रेणिनिक्षेपस्तत्कालता किश्चिदधिकाऽऽयामप्रमाणो भवति, न त्वपूर्वकरणादिकालत्रयादधिककालप्रमाणश्शेषकर्मवत् । तथा शेषकर्मण्यपि यदि सूक्ष्मसंपरायस्याऽऽद्यसामयिकगुणश्रोणिनिक्षेपो न ग्राह्यते, तर्हि निक्षेपस्य गलिताऽवशेषत्वादन्यसमयेषत्कृष्टनिक्षेपो न प्राप्येत । अत्रेदमपि विशेषतो बोध्यम्, यद् मोहनीयस्य शेषकर्मसदृशोत्कृष्टगुणश्रेणिनिक्षेपो न भवति, तथा प्यारोहकाऽपूर्वकरणतः प्रपततो मोहनीस्योत्कृष्टगुणश्रेणिनिक्षेपोऽपि विशेषाऽधिको भवति । (४५) तत आरोहकाऽपूर्वकरणप्रथमसमये गुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिकः । प्रतिपातुकत आरोह कस्याऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसंपरायकालानामाधिक्यादवरोहकोत्कृष्टगुणश्रेणिनि । क्षेपत आरोहकोत्कृष्टगुणश्रेणिनिक्षेपो विशेषाऽधिको निश्च तव्यः । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] उपशमनाकरणम् [ गाथा ६५ (४६) तत आरोहकस्य क्रोधवेदकाऽद्धा संख्येयगुणा । श्रेणि प्रतिपद्यमानो यथाप्रवृत्तकरणप्रथमसमयात्प्रभृत्यनिवृत्तिकरणसंख्येयबहुभागं यावत्क्रोधमनुभवति, सा क्रोधवेदकाऽद्धोच्यते । गुणश्रेण्यायामस्त्वपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणसूक्ष्मसंपरायाद्धात्र यात्किश्चिदधिककालप्रमाणः यथाप्रवृत्तकरणकालस्य संख्यातगुणत्वेनाऽऽरोहकक्रोधवेदकाऽद्धा संख्यातगुणा भवति । __स्थापना वित्थाम् अ. य"...... छ+Bhb ब""--..."इ गुरणश्रेरिणनिक्षेपः य .. "प क्रोधवेदकाऽद्धा "-"अ यथाप्रवृत्तकरणाऽद्धा ................ब अपूर्वकरणाऽद्धा ब ........ -..."क अनिवत्तिकरणाऽद्धा क....... -... ड सूक्ष्मसंपरायाऽद्धा मानमायालोभवेदकाद्धा न चाऽपूर्वकरणप्रथमसमयात्प्रवर्तमानपदार्थानामेवाऽल्पबहुत्वं प्रावप्रतिज्ञातम्, तर्हि क्रोधवेदकाऽद्धायां यथाप्रवृत्तकरणकालस्य प्रवेशात्प्रतिज्ञाहानिरिति वाच्यम् , अपूर्वकरणादिषु प्रवर्तमानपदार्थे कथ्यमाने तत्सम्बन्धिपदार्थानां कथने न कश्चिद् वाधः, तेनाऽग्रेप्यल्पबहुत्वाऽधिकारे प्रसंगवशाद् यथाप्रवृत्त करणगुणश्रेणिनिक्षेपोऽभिधास्यते । (४७) ततो यथाप्रवृत्तकरणसंयतस्य गुणश्रेणिनिक्षेपः संख्यातगुणः। अत्र प्रतिपातुकस्य यथाप्रवृत्तसंयतगुणश्रेणि निक्षेपो ज्ञातव्यः । (४८) ततो दर्शनमोहोपशान्ताऽद्धा संख्यातगुणा । दर्शनत्रिकमुपशमय्य षष्ठगुणस्थानक सप्तमगुणस्थानकं च सहस्रशः स्पृष्ट्वा चारित्रमोहनीयमुपशमय्योपशान्तमोहगुणस्थानक परिस्पृश्य श्रेणितः प्रतिपतञ्जन्तुः सूक्ष्मसंपरायाऽनिवृत्तिकरणाऽपूर्वकरणयथाप्रवृक्तकरणाऽद्धाचतुष्कमनुभूय यावत्प्रमत्तादिगुणस्थानके क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं न प्राप्नोति, ततोऽग्सिर्वोऽपि कालो दर्शनत्रिको शान्ताद्धा प्रोच्यते । सा च पूर्वतः संख्यातगुणा । (४९) ततश्चारित्रमोहनीयस्याऽन्तराऽऽयामः संख्येयगुणः। न च चारित्रमोहनीयोपशमना. त्पूर्व दर्शनत्रिकमुपशमयति तथा मोहनीयोपशमनाऽपगमनात्पूर्व दर्शनत्रिकोपशमना प्रणश्येत् , तर्हि चारित्रमोहनीयस्याऽन्तरायामो दर्शनत्रिकोपशान्ताऽद्धात : संख्यातगुणः कथं भवितुमर्हति ?हीनो वक्तव्य इति वाच्यम् , चारित्रमोहनीयोपशान्ताऽद्धा दर्शनत्रिकोपशान्ताऽद्धातो हीना युक्ता, चतुस्त्रिशत्तमे पदे तस्या विहितत्वात् , अत्र तु मोहनीयाऽन्तरकरणाऽऽयामस्य मोहोपशान्ताऽद्धातो Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २५१ भिन्नत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणत्वे न कश्चिद्दोषः । कथमिति चेद् ? उच्यते-यावानन्तरकरणाऽऽयामस्तावत्यायामे चारित्रमोहनीयप्रकृतय उपशान्ता न तिष्ठन्ति, अपि त्वन्तकरणाऽऽयामसंख्येयतमभागपर्यन्तमेवोपशान्तास्तिष्ठन्ति, ततः परं क्रमशोऽनुपशान्ता भवन्ति । अन्तरकरणाऽऽयामश्चाऽन्तरकरणक्रियाकाले चारित्रमोहनीयस्य दलिकाऽभाववती कृता स्थितिरुच्यते, सा चेत्थं पूर्वतस्संख्यातगुणा संभवति । (५०) ततो दर्शनमोहस्याऽन्तराऽऽयामस्संख्यातगुणः । अत्राऽपि पूर्ववदर्शनत्रिकाऽन्तरकरण क्रियाकाले दर्शनत्रिकस्य दलिकाऽभाववती कृता स्थितिर्वाच्या । (५१) ततो जघन्याऽबाधा पंख्यातगुणा। सूक्ष्म संपरायचरणसमयवध्यमानमोहनीयवर्जषट्कर्मणां तथा मोहनीयकर्मणोऽनिवृत्तिकरणचरमसमये जघन्याऽबाधा प्राप्यते, सा चान्तमुहूर्तप्रमाणा पूर्वतस्संख्यातगुणा भवति । (५२) तत उत्कृष्टाऽबाधा संख्यातगुणा । उत्कृष्टाऽबाधा चाऽवतारकाऽपूर्वकरणचरमसमये प्राप्यते, आरोहकमुश्मसंपरायचरमसमयसत्कस्थितिबन्धतः प्रतिपातुकाऽपूर्वकरणचरमसमयसत्कस्थितिबन्धस्य संख्यातगुणत्वेनाऽबाधायाश्च स्थितिबन्धाऽनुसारित्वात्तस्याः पूर्वतः संख्यातगुणत्वं सिध्यति । (५३) ततः प्रतिपद्यमानस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातगुणः पूर्वतोऽनिवृत्तिकरणचरमसमयेमोहनीयकर्मणां स्थितिबन्धस्य संख्यातगुणेन बृहत्तराऽन्तमुहूर्तप्रमाणत्वं निश्चेतव्यम् । (५४) ततः प्रतिपातुकस्य मोहनीयस्य जघन्यस्थितिबन्ध संख्यातगुणः । प्रतिपातुका. ऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमयभावी ग्राह्याः, प्रतिपद्यमानस्थितिबन्धतः प्रतिपातुकस्थितिबन्धस्य द्विगुणत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणत्वं सिध्यति । (५५)तत उपशमकस्य घातित्रायस्य जघन्यस्थितिबन्धस्संख्यातगुणः । स चाऽऽरोहकसूक्ष्मसंपरायचरमसमये प्राप्यते, तस्य चाऽन्तमुहूर्तप्रभाणत्वेऽपि पूर्वतः संख्यातगुणत्वं सुमन्तव्यम् । (५६) ततः प्रतिपातुकस्य घातित्रयस्य जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । स चाऽवरोहकस्य सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये भवति, आरोहकतोऽवरोहकस्य स्थितिबन्धस्य द्विगुणत्व. नियमात्पूर्वतः संख्यातगुणत्वं युक्तमेव । (५७) ततोऽन्तमुहूर्तकालः संख्यातगुणः । इतः पूर्वपदानामन्तमुहृतमात्रत्वेऽपि अन्तमुहूर्त कालस्य भेदबाहुल्यादस्य समयोनमुहूर्तप्रमाणस्योत्कृष्टाऽन्तमुहर्तकालस्य पूर्वतस्संख्यातगुणत्वं सयुक्तिकम् । अतः परं पदानां कालो मुहूर्ततोऽधिको भवतीति ज्ञातव्यम् । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ 1 उपशमनाकरणम् [ गाथा ६५ (५८) तत आरोहकस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । उपशमकस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धः सूक्ष्मसंपरायचरमसमये षोडशमुहूर्ताः, तेषां चाऽन्तमुहूर्ततः संख्यातगुणत्वेन पूर्वत आरोहकस्य नामगोत्रयोर्जधन्यस्थितिबन्धसंख्यातगुणः । (५९) ततो वेदनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः। आरोहकसूक्ष्मसंपरायचरमसमये भाविनोर्नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धस्य षोडशमुहूर्तप्रमाणत्वात्तदानीं च वेदनीयस्य चतुर्विंशतिमुहूर्तप्रमाणत्वात्तस्य पूर्वतोऽष्टमुहू राधिक्यं ज्ञातव्यम् । (६०) ततः प्रतिपातुकस्य नामगोत्रयोर्जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाधिकः । उपशमश्रेणिं प्रतिपद्यमाने नामगोत्रयोः सूक्ष्मसंपरायचरमसमय भाविषोडशमहूर्तप्रमाणजघन्यस्थितिबन्धतोऽवरोहकस्य नामगोत्रयोः सूक्ष्मसंपरायप्रथमसमये भाविजघन्यस्थितिबन्धस्य द्विगुणत्वेन द्वात्रिंशन्मुहूर्तप्रमाणत्वेन पूर्वपदतोऽष्टमुहृतैराधिक्यं भवति । (६१) ततः प्रतिपातुकस्य वेदनीयस्य जघन्यस्थितिबन्धो विशेषाऽधिकः । आरोहकस्य सूक्ष्मसंपरायचरमसमये वेदनीयम्य जघन्यस्थितिबन्धतोऽवरोहकस्य जघन्यस्थितिबन्धस्य द्विगुणत्वेनाऽष्टाचत्वारिंशन्मुहूतेप्रमाणत्वेनपूर्वपदरः षोडशमुहुराधिक्यं निश्च तव्यम् । (६२) तत उपशमकम्य मायायाः जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । श्रेणि प्रतिपद्यमा. नस्य मायाया जघन्यस्थितिबन्धकमासिकत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणत्वं युज्यते । (६) ततः प्रतिपातुकस्य मायाया जघन्यस्थितिबन्धः संख्यातगुण: । श्रेणितः प्रतिपातुकस्य मायाया जघन्यस्थितिबन्धस्याऽऽरोहकतो द्विगुणत्वेन द्वैमासिकत्वेनेति यावत्पूर्वपदतः संख्यातगुणत्वं सहेतुकम् । (६४) तेनोपशमकस्य मानस्य जघन्यस्थितिबन्धस्तुल्यः । श्रणि प्रतिपद्यमानस्य मानस्य चरमस्थितिबन्धस्य द्वैमासिकत्वेन पूर्वेण समानत्वं संभवति । (६५) ततः प्रतिपातुकस्य मानस्य जघन्य स्थितिबन्धः संख्यातगुणः । आरोहकतोऽवतारकस्य स्थितिबन्धस्य द्विगुणत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणत्वं सिध्यति । (६६) तेनाऽऽरोहकस्य क्रोधस्य जघन्यस्थितिबन्धस्तुल्यः । आरोहकस्य क्रोधस्य चरमस्थितिवन्धस्य चातुर्मासिकत्वेन पूर्वेण समानत्वं भवति । (६७) ततः प्रतिपततः क्रोधम्य जघन्यस्थितिबन्धसंख्येय गुणः । आरोहकतोऽवरोहक स्य स्थितिबन्धस्य द्विगुणत्वात् । (६८) तत उपशमकस्य पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिबन्धस्संख्यातगुणः । उपशमकस्य चरम स्थितिबन्धस्य षोडशवर्षप्रमाणत्वेन पूर्वतः संख्येयगुणत्वे न कश्चिद्दोषः । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पबहुत्वम् ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २५३ (६६) ततस्तदानीमेवोपशमकस्य संज्वलनचतुष्कस्य जघन्यस्थितिबन्धस्संख्यातगुणः । उपशमकस्य पुरुषवेदसत्कचरमस्थितिबन्धकालीनसंज्वलनचतुष्कस्थितिबन्धस्य द्वात्रिंशद्वार्षिकत्वेन पूर्वतः संख्यातगुणन्वं न्याय्यम् । (७०) तेन प्रतिपातुकस्य पुरुषवेदस्य जघन्यस्थितिबन्धस्तुल्यः, प्रतिपततो जन्तोरपि पुरुषवेदसत्कबन्धप्रथमसमये प्रारभ्य माणस्य स्थितिबन्धस्य द्वात्रिंशद्वर्षप्रमाणत्वात्पूर्वपदेन तुल्यत्वं न्याय्यम् । (७१) ततः प्रतिपातुकस्य तदानीं संज्वलनचतुष्कस्य स्थितिबन्धो द्विगुणः । आरोहकतोऽवतारकस्य स्थितिबन्धस्य द्विगुणत्वेन प्रतिपातुकस्य तदानीं पुरुषवेदबन्धसमय इत्यर्थः, संज्वलनचतुष्कस्य चतुषष्टिवर्षप्रमाणत्वात्पूर्वतः संख्यातगुणत्वं युक्तमेव ।। (७२) तत आरोहकस्य मोहनीयस्य संख्यातवर्षप्रमाणः प्रथमस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । अन्तरकरणक्रियायां समाप्तायां मोहनीयस्य स्थितिबन्धः संख्यातवर्षमात्रो भवति, सोऽत्र ग्राह्यः, नाऽन्यः । (७३) ततोऽवतारकस्य चरमो मोहनीयस्य संख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः संख्यातगुणः । आरोहकतोऽवरोहकस्य संक्लेशाऽधिक्यास्थितिबन्धस्य प्रभूतत्वं संभवति । श्रेणितः प्रतिपततोऽल्पकालपर्यतं द्विगुणनियमस्य सद्भावादत्र पूर्वतः संख्यातगुणत्वे न कश्चिद् बाधः । (७४) तत उपशमकस्य घातित्र यस्य प्रथमःसंख्येयवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धःसंख्यातगुणः । आरोहकम्य स्त्रीवेदोपशमनाकालस्य संख्येयतमे भागेऽतीते प्रवर्तमानसंख्येयवार्षिक आद्यस्थि. तिवन्धः प्रवर्तते, सोऽत्र ग्राह्यः । (७५) ततः प्रतिपातुकस्य घातित्रयस्य चरमसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । अत्र हेतुम्तु त्रिसप्ततितमपदवज्ज्ञातव्यः । अयं विशेषः-श्रेणितः प्रतिपातकस्य स्त्रीवेदोपशमनाऽपगमनत आरभ्य नपुंसकवेदोपशमनाऽपगमपर्यन्तं विद्यमानकालस्य संख्येय बहुभागेषु व्यतिक्रान्तेषु घातित्रयस्य यश्चरमः संख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः, सोऽत्र ग्राह्यः ।। १७६) तत उपशमकस्याऽघातित्रयम्य प्रथमः संख्येयवर्षप्रमाणः स्थितिबन्धः संख्यातगुणः । आरोहकस्य हास्यषट्कोपशमनायाः संख्येयतमे भागे व्यतीते योऽघातित्रयस्याऽऽद्यः संख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धो भवति, सोऽत्र निश्च तव्यः। (७७) ततोऽवतारकस्याऽघातित्रयस्य चरमः संख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । हेतुम्तु त्रिसप्ततितमपदवदवाऽप्यवगन्तव्यः । पुरुषवेदोपशमनानाशतः प्रभृति स्त्रीवेदोपशमनानाशपर्यन्तं विद्यमानस्य कालस्य संख्येयवहुभागेषु व्यतिक्रान्तेषु योऽघातित्रयस्य चरमः संख्येय Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] उपशमनाकरणम [ गाथा ६५ वर्षमात्रःस्थितिबन्धः, सोऽत्राऽभ्युपगन्तव्यः, प्रतिपातुकास्याऽघातित्रयस्य चरमसंख्येयवापिकस्थितिबन्ध तोऽघातित्रयस्य संख्येयवार्षिकस्थितिबन्धस्याऽर्वाप्राप्तत्वेऽपि संख्यातगुणत्वमिदानीमपि= प्रतिपातुकस्य घातित्रयस्य चरमसंख्येयवार्षिकस्थितिबन्धाऽवसरेऽपीत्यर्थः, मोहनीयस्य सर्वाऽल्पस्थितिबन्धः, ततः संख्यातगुणो घातित्रयस्य, ततोऽपि संख्येयगुणोऽघातित्रयस्येत्यल्पबहुत्वसवात् । (७८) तत उपशमकस्य मोहनीयस्याऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिवन्धोऽसंख्येयगुणः । स चाऽन्तरकरणक्रियाकालभावी ग्राह्यः । ततः परं मोहनीयस्य संख्यातवार्षिकः स्थितिबन्धो भवति । (७६) ततः प्रतिपततो मोहनीयस्य प्रथमोऽमंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः । संक्लेशवर्धनात्प्रतिपातुकस्य स्थितिबन्ध आरोहकतोऽसंख्येयगुणः संभवति । (८०) तत उपशमकस्य घातित्रयस्य चरमोऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः । आरोहकस्य स्त्रीवेदोपशमनायाः संख्येयतमे भागे गते धातित्रयस्याऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धो भवति, मोहनीयस्याप्यन्तरकरणक्रियाकालभाविमोहनीयसत्कचरमस्थितिबन्धतोऽसंख्येयगुणो भवति, एवमन्यत्रापि यथास्थानं भावनीयम् । ___ (८१) ततोऽवरोहकस्य घातित्रयस्य प्रथमोऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धोऽसंख्येयगुणः । पञ्चसप्ततितमपदे यो धातित्रयस्य चरमस्संख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धो विहितः, ततोऽनन्तरं प्रवर्तमानः स्थितिबन्धोऽत्र ज्ञातव्यः, हेतुम्तु त्रिसप्ततितमपद उक्तः । (८२) तत उपशम कम्य नामगोत्र वेदनीयानां चरमोऽसंख्येयवार्षिक: स्थितिबन्धोऽ. संख्येयगुणः । प्रतिपद्यमानस्य हास्यपटक पुरुषवेद पशमनाकालस्य संख्येयतमे भागे गतेऽघाति. त्रयस्य चरमोऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धोऽवाप्यते, ( भावना त्वष्टसप्ततितमपदवत्कर्तव्या ।)? (८३) ततः प्रतिपातु कस्य नामगोत्र वेदनीयानां प्रथमोऽसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धोऽसं. ख्येयगुणः । हेतुस्तु त्रिसप्ततितमपदवनिश्चेतव्यः । सप्तसप्ततितमपदेऽघातित्रयस्य चरमसंख्येयवार्षिकः स्थितिबन्धः, ततोऽनन्ताभावी स्थितिबन्धोऽत्र ज्ञातव्यः, अत्राऽयं विशेषतोऽवगन्तव्यः यस्मिन्काल आरोहकस्य यः स्थितिबन्धो भवति, ततोऽन्तमुहर्तेन प्रागवरोहकस्य तत्स्थितिवन्धः प्राप्यते । (८४) तत उपशमकस्य नामगोत्रयोः पल्योपमसंख्यातमागमात्रः प्रथमः स्थितिवन्धीऽसंख्येय गुणः । नामगोत्रयोः एल्योपममात्रस्थितिबन्ध भवनाद्यः पल्योपमसंख्येयभागमात्रो भवति, सोऽत्र बोध्यः। (८५) तत आरोहकस्य धानित्रयवेदनीयानामाद्यपल्योपमसंख्येयभागप्रमाणः स्थितिबन्धो Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 彝 अल्पबहुत्वम् ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकार [ २५५ विशेपाऽधिको भवति, घातित्रयस्य पत्योपममात्रस्थितिवन्धादनन्तरभावी पल्योपमसंख्येयभाग मात्रो ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तराय वेदनीयानां नूतनस्थितिबन्धोऽत्र ग्राह्यः, पूर्वतो वृहत्तरत्वात् । (८६) तत आरोहकस्य मोहनीयस्य पन्योपमसंख्यातभागमित आद्यः स्थितिबन्धो विशेषाऽधिकः, स च पूर्वतो बृहत्तरः । (८७) ततश्चरमस्थितिखण्डं संख्येयगुणम् । तच्च सूक्ष्मसंपरायचरमसमये ज्ञानावरणादिकर्मणां भवति, तस्य च पन्योपमसंख्येय भागप्रमाणत्वेऽपि पूर्वतः संख्यातवृहत्तरत्वं वाच्यम् । (८८) पल्योपममात्र स्थितिबन्धात्प्राग्यः स्थितिबन्ध आसीत्, तस्माद् येन पल्योपमसंख्येयभागेन भूत्वा पयोमप्रमाणः स्थितिबन्धो भवति, स पल्योपमसंख्येयभागः पूर्वतः संख्यातगुणः । (८६) ततः पल्योपमः संख्येयगुण, पूर्वपदस्य पल्योपमसंख्यातभागमात्रत्वात् । (६०) तत आरोहकस्याऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमयभावी स्थितिबन्धः संख्येयगुणः । आरोहकाऽनिवृत्तिकरणप्रथम समय भाविस्थितिबन्धस्याऽन्तः सागरोपमकोटिप्रमाणत्वेन सागरोपमलक्षपृथक्त्वात् पूर्वतोऽस्य संख्येयगुणत्वं संभवति । (६१) ततोऽवतारकाऽनिवृत्तिकरण चरमसमय भावी स्थितिबन्धः संख्यातगुणः । (९२) तत आरोहकस्याऽपूर्वकरण प्रथमसमयभावीस्थितिबन्धः संख्यातगुणः । अपूर्वकरणस्य प्रथमममय आरोह कोऽन्तः सागरोपमकोट | कोटीप्रमाणां स्थिति बनातीति कृत्वा पूर्वत इदं पदं संख्यातगुणं संभवति । (९३) ततः प्रतिपातुकस्याऽपूर्वकरण चरमसमये स्थितिबन्धः संख्येयगुणः | ५ (६४) ततः प्रतिपातुकस्याऽपूर्वकरणाचरमसमये स्थितिसत्त्वं संख्येयगुणम् । (६५) ततोऽवरोहकस्याऽपूर्वकरण प्रथमसमये स्थितिसत्त्वं विशेषाऽधिकम् । येषां मनावतारकस्याऽपूर्व करणे स्थितिघातादयो न भवन्ति तेन तैः स्थितिन्यू ना न भवति किन्तूदयेन क्षीणा भवति । इत्थम पूर्वकरणप्रथमसमये यत्स्थितिसत्त्वमासीत्, तदेवाऽन्तमुहूनिमपूर्वकरण चरमममये भवति, उदयेनान्तमुहूर्त कालस्य वेदितत्वात् येषां मतेनावतारकस्यापि स्थितिघाता भवन्ति तेषां मतेन संख्यातैः स्थितिखण्डैन्यूनं भवति । तच्च न्यूनत्वं संख्येयभागमात्रम्, तेन चरमसमयतः प्रथमसमये स्थिति सच्चमन्तर्मुहूर्तकालेन वा संख्येयभागेन वाऽधिकं भवतीति कृत्वा पूर्वत इदं पदं विशेषाऽधिकं संभवति । 5 अंकोडाकोडीपमाणन्तत्रविसेसेवि सम्माइट्ठिम्मि बंधातो संतस्स संखेज्जगुणभावेन एवं सम्वद्ध अवद्वाणादो ( जयघवला १६३७ ) Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] उपशमाकरणम | गाथा ६५ (६६) ततोऽवतारकस्याऽनिवृत्तिकरणचरमसमये स्थितिसत्त्वं विशेषाधिकम् । प्रतिपातुकस्य स्थितिघातानभिगच्छता मतेन पूर्वपद उदयेन समयमात्रस्थितेः क्षीणन्वेन पूर्वस्थितिसवचतः समयमात्रकालेनाधिकत्वात् । अवतारकस्य स्थितिघातानभ्युपगच्छता मतेनैकेन स्थितिखण्डे नाधिकत्वात् । (९७) नत आरोहकस्याऽनिवृत्तिकरणप्रथमसमये स्थितिसत्कर्म संख्येयगुणम् । आरोहकाऽनिवृत्ति करणादिषु स्थितिघातैः स्थितिमत्कर्मनाशापूर्वतः संख्येयगुणमविरुद्धम् । (१८) तत उपशमकस्याऽपूर्वकरण नरमसमये स्थितिसत्त्वं विशेषाऽधिकम् । पूर्वतश्चरमसमये पल्योपमसंख्येय भागमितघात्य मानखण्डेनाधिकं भवति । (९६) तत उपशमकम्याऽपूर्वकरणप्रथमसमये स्थितिसत्वं संख्येयगुणम् , अपूर्वकरणे बहु. संख्येय भागानां स्थितिघातेर्घातितत्वेन पूर्वपदम्य संख्येयभागमात्रत्वात् । उक्तं च कषायप्राभृतचूर्णा अल्पबहुत्वम् - एत्तो पुरिसवेदेण सह कोहेण उवविदस्स उवसामगस्स पढमसमयअपुत्वकरणमादि कादूण जाव पडिवदमाणगरस चरिमसमयअपुत्वकरणो त्ति एदिरसे अडाए जाणि कालसंजुनाणि पदाणि तेसिमप्पाच हुअ वत्तइस्सामो- त जहा........ सव्वत्थोवा जहणिया अणुभागखंडय उक्कीरणहा। उक्कस्सिया अणुभागखंडय उक्कीरणहा विसेसाहिया। जहणिया ट्ठिदिबंधगडा टिदिखंडयउक्कोरणद्धा च तुल्लाओ सखेजगुणाओ । पडिवदमाणगस्स जहणिया हिदिवधगद्धा विसेसाहिया । अंतरकरणहा विसेसाहिया। उक्वस्सियाटिदिबंधगद्धा हिदिखंडय-उक्कोरणडाच विसेसाहिया। चरिमसमयमुहु. मसांपराइयस्य गुणसे ढिणिक खेवो सखेजगुणो त चेव गुणसे ढिसीसयं ति भण्णदि । उवसंतकसायस्स गुणसेढिणिकखेवो संखेज्जगणो। पडिवदमाणयस्स मुहमसांपराइयडा सखेज्जगुणा । तस्सेव लोभस्य गणसेढीणिक्वेवो विसेसाहिओ। उवसामगस्स मुहमसांपराइयहा किट्टिणमुवसामणडा सुष्टुमसांपराइयस्स पढमहिदी च तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ। उवसामगस्स किटिकरणडा विसेसाहिया । पडिवदमाणगस्स बादरसांपराहथस्स लोभवेदगडा संखेनगुणा । तस्सेव लोहस्स तिविहस्स वि तुल्लो गुणसेढिणिक्वेवो विसेसाहिओ। उवसामगस्स चादरसांपराइयस्स लोभवेदगडा विसेसाहिया, तस्सेव पढमहिहि विसेसाहिया। पडिवदमाणयस्स लोभवेदगडा विसेसाहिया, पडिवदमाणगस्स Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रल्पबहुत्वम् ] चारित्रमोहोपशमनाधिकारः [ २५७ मायावेदगडा विसेसाहिया । तस्सेव मायावेदगस्स छष्णं कम्माणं गुणसेढिणिक्खेवो विसेसाहिओ । विदमाणगरस माणवेदगद्धा विसेसाहिया । तस्सेव पडिवदमाणगस्स माणवेदगस्स णवण्हं कम्माणं गुणसेदिणिक्खेवो विसेसाहिओ । उवसामगस्स मायावेदगडा विसेसाहिया । मायाए पढमट्ठिदी विसेसाहिया । मायाए उवसामणडा विसेसाहिया । उवसामगस्स माणवेदगडा विसेसाहिया । माणस्स पढमट्ठिदो विसेसाहिया | माणस्स उवसामणद्धा विसेसाहिया । कोहस्स उवसामणडा विसेसाहिया । छण्णोकसायाणामुच सामणद्धा विसेसाहिया । पुरिसवेदस्स उवसामणद्रा विसेसाहिया । इत्थिवेदःस उवसामणडा विसेसाहिया । णपुंसयवेदस्स उवसामणडा विसेसाहियां | खुद्दाभवग्गहणं विसेसाहियं । उवसंता दुगुणा । पुरिंसवेदस्स पढमट्ठिदी विसेसाहिया । कोहस्स पढमहिदी विसेसाहिया | मोहणीयस्स उवसामणडा विसेसाहिया | पडिवदमाणगस्स जाव असंखेजाणं समयपषडाणमुदीरणा सो कालो संखेज्जगुणो। उवसामगस्स असंखेज्जाणं समयपबडाणमुदीरणकालो विसेसाहिओ । पडिवदमाणयस्स अणियहिअद्धा संखेजगुणा, उवसामगस्स अणियहिअडा विसेसाहिया । पडिवदमाणयस्स अपुव्वकरणद्धा संखेज्जगुणा । उवसामगस्स अपुव्वकरणडा विसेसाहिया । पडिवदमाणगस्स उक्कस्सओ गुणसेढिणिक्खेवो विसे साहिओ । उवसामगस्स अपुव्वकरणस्स पढमसमयगुणसे टिणिक्खेवो विसेसाहिओ । व्वसामगस्स को वेदगडा संखेज़गुणा । अधापवत्तसंजदस्स गुणसे ढिणिक्खेवो संखेज्जगुणो । दंसणमोहणीयस्स उवसंनडा संखेज्जगुणा । चारित्त मोहणीयमुवसामगो अत्तरं करें तो जाओ ट्ठिदिओ उक्कोरदि ताओ हिदिओ संखेज्जगुणाओ । दंसणमोहणीयस्स अंतरष्ट्ठिदिओ संखेज्जगुणाओ । जहणिया आबाहा संखेज्जगुणा । उक्कस्सिया आबाहा संखेज्जगुणा । उवसांमगस्स मोहणीयरस जहण्णगो हिदिबंधो संखेज्जगुणो | पडिवदमाणयस्स मोहणीयरस जहण्णगो द्विदिबंधो संखेज्जगुणो । उवसामगस्स णाणावरणदंसणावरणअंतराइयाणं जहण्णओ द्विदिबंधो संखेज्ज - गुणो । एदेसिं चेव कम्माणं पडिवदमाणयस्स जहण्णगो डिदिबंधो संखेज्जगुणो । अंतोमुहुत्तो संखेज्जगुणो । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपशमनाकरणम्' २५८ ] [ गाथा-६५ उवसामगस्स जहण्णगो णामागोदार्ण हिदिबंधो संखेजगुणो । वेदणीयस्स जहण्णगो हिदिबंधो विसेसाहिओ, पडिवदमाणगस्स णामागोदाणं जहण्णगो हिदिबंधो विसेसाहिओ। तस्सेव वेदणीयस्स जहण्णगोहिदिबंधो विसेसाहिओ। उवसामगस्स मायासंजलणरस जहण्णगो हिदिबंधो मासो। तस्सेव पडिघदमाणगस्स जहण्णओ हिदिबंधो बे मासा । उवसामगस्स माणसंजलणस्स जहण्णओ हिदिबंधो बेमासा । पतिवदमाणगस्स तस्सेव जहण्णओ हिदिबंधी चत्तारि मासा । उवसामगस्स कोहसंजलणस्स जहण्णओ हिदिबंधो चत्तारि मासा परिवदमाणयस्स तस्सेव जहण्णगो हिदिबंधो अट्ठमासा । उवसामगस्स पुरिसवेदस्स जहण्णगो हिदिबंधो सोलस वस्साणि तस्समये चेव संजलणाणं हिदिबंधो बत्तीस वस्साणि | पडिवदमाणगस्स पुरिसवेदस्स जहण्णओ हिदिबंधो बत्तीसवस्साणि। तस्समये चेव संजलणाणं हिदिषधी च उसद्विवस्साणि। उवसामगस्स पढमो संखेजवस्सहिदिगो मोहणीयस्स हिदिबंधो संखेजगुणो । पउिवदमाण यस्स चरिमो संखेजवरसहिदिओ मोहणीयस्स हिदिबंधो संग्वेजगुणो।उवसामगस्सपाणावरणदंसणावरणअंतराइयाण पढमो संखेजवरसहिदिओ बंधो संखेजगुणो। पडियदमाणयस्स तिण्हं घादिकम्माण चरिमो संग्वेजवस्स हिदिगो बंधो संग्वेजगुणो। उधसामगस्स णामागोदवेदणीयाणं ए ढमो संग्वेजवस्सहिदिगो बंधो संग्वेजगुणो । पडिवदमाणगस्स णामागोदवेदणोयाणं चरिमो संखेजवस्स हिदिओ संवेजगुणो। उवसामगस्स चरिमो असंखेजवस्सट्ठिदिगो बंधो मोहणीयस्स असंखेजगुणो। पडिवदमाणगस्स पढमो असंखेजवरसहिदिगो बंधो मोहणीयस्स असंखेजगुणो। उवसामगस्स घादिकम्माण चरिमो असंग्वेज्जवसहिदिगो बंधो असंखेजगुणो। पडिवदमाणगस्स पढमो असंखेजवरसहिदिगो बंधो धादिकम्माणं संखेजगुणा । उवसामगम्स णामागोदवेदणीयाणं चरिमो असंवेजवरसहिदिगो बंधो असंखेजगुणो । पडिवदम पागस्स णामागोदवेदणीयाणं पढमो असंखेजवरसहिदिगो बंधो असंग्वेजगुणो। उवसामग स णामागोदाण पलिदोवमस्स संखजदिभागिओ पढमो हिदिबंधी असंखेजगुणो । णाणावरणदंसणावरणवेदणीयअंतराइयाण पलिदोवमस्स संखेजदिभागिगो पहमी हिदिबंधो विसेसाहिओ मोहणीयम्स पलिदीवमस्स संखेज दिभागिगो पढमो Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलबहुत्वम् ] चारित्रमोहनीयोपशमनाधिकारः [ २५९ हिदिबंधो विसेसाहिओ। चरिमठिदिखंडयं संखेजगुणं । जाओ हिदिओ परिहाहण पलिदोवमहिदिगो बंधो जादो, ताओ हिदिओ संग्वेजगुणाओ। पलिंदोवमं संखेजगुणं । अणियटिस्प्त पढमसमये हिदिवंधो संखेजगुणो। पडिवदमाण यस्त अणियहिस्स चरिमसमये टिदिबंधो संखेजगुणो। अपुवकरणस्स पढमसमए हिदिबंधो संखेजगुणो। पडिवदमाण यस्स अपुव्यकरणस्स चरिमसमए द्विदिबंधी संखेजगुणो । परिवदमाणयस्स अपुव्वकरणम्स चरिमसमये हिदिसंतकम्मं संग्वेजगुणं । पडिवदमारण यस्स अपुव्वकरणस्स पढमसमये हिदिसंतकम्मं विसेसाहियं । पडिवदमाणयस्स अणियटिस चरिमसमये हिदिसंतकम्म विसेसाहियं । उवसामगम्स अणियहिस्स पढमसमये हिदिसंतकम्मं सखेजगुणं । उवसामगम्स चरिमसमए हिदिसंतकम्मं विलेसाहिंयं । उवसामगस्स अपुश्वकरणस्स पढमसमए अपुवकरणस्स हिदिसंतकम्म संखेजगुणं । तदेवं परिसमाप्ता प्रथमोपनिकसम्यक्त्व-देशविरति सर्वविरत्यनन्तानुबन्धिविसंयोजनातदपशमना-क्षायिकसम्यक्त्व-श्रेण्युप शमसम्यक्त्वोपशमश्रेण्यारोहणावहरोहणप्रक्रिया प्ररूपणा । एतत्प्ररूपणाव्यावर्णनेन मया यत् पुण्यमुपार्जितम् , तेन जीवानामेतेषां गुणानां प्राप्तिभवेत्, प्रान्ते च शिवम् । अथ प्रशस्तिः नौमि श्रीवीरनाथ गणधरसुनुतं पादयुग्मं यदीयं, शक्रन्द्रादिधुनाथैः स्तुत इह भरते तीर्थनाथोऽन्तिमो यः । प्राप्ता भव्याश्च यस्यामृतसमवचसा बोधिरत्नं त्वनेके, प्रव्रज्यां यस्य पाश्र्वे शिवसदनफलां चोररीकृत्य सिद्धाः ॥१॥ (स्रग्धरा) यद्विद्याच्छवितो भगः किमुत खं भीत्याधिगम्याऽटति, शुभ्रो यद्यशउच्चयः किमुत खे पर्येति चन्द्रच्छलात् । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] कर्मारेईतये व्यधुः किमुत ये कर्मप्रकृत्यायुधं, दद्युस्ते शिवशर्मसूरिगुरवः कम प्रणाशे बलम् ॥२॥ (शार्दूलविक्रीडितम् ) यस्योपास्तिमवाप्य सच्चरणयोर्लब्ध्वा यदीयां कृपा, बृत्ति प्रेमगुणा मयोपशमनासंज्ञेऽधिकारे खलु । श्रीकर्मप्रकृतौ दृब्धा सुगुरुणा सा येन संशोधिता, जीयात् कर्मकृतान्तवित् स विजयश्रीप्रेमसूरीश्वरः ॥३॥ (शार्दूलविक्रीडितम्) यः स्याद्वादनयप्रमाणविदुरो वैराग्यवारानिधिः, मोहग्रीष्मसुतप्तभव्यभुवने यद्गीः पयोदायते । यो नित्यं तपते तपः कृशतनुः संसारसंतापहम् , श्रीगच्छाधिपतिः स पातु भुवन-श्रीभानुसूरीश्वरः ॥४॥ (शार्दूलविक्रीडितम्) संशोधिताऽपि वृत्तिर्विजयोदयसूरिभिः कृपां कृत्वा । सिद्धान्तदिवाकृभिः पदार्थसंग्राहकः पूज्यैः ॥५।। (पथ्यार्या) आगमकर्मप्रकृतिग्रन्थेष्वपि बुद्धिशालिभिर्विजयैः । जयघोष-धर्मजिद्-हेमचन्द्रसूरीश्वरैरन्यैः ॥६॥ (युग्मम् ) मेवाडदेशमुद्धरति गुरुर्मम यः महोदरश्च । भवजलधितारणतरीतुल्यो स जितेन्द्र सूरीश्वरः ॥७॥ (प्रार्या) प्रेमगुणाटीकारचनेन हि गुणरत्नसूरिणा कुशलम् । यदवापि मया तेनाखिलविश्वं द्रागश्नुवीन शिवम् ॥८॥ (पथ्यार्या) शिशुचेष्टाऽप्येपा मम न भवति हास्यास्पदं कृतिनाम् ।। यस्माद्धि यथाशक्ति शुमे यतनीयमिति ते प्राहुः ॥९।। (उपगीति) छामस्थात् मतिमान्द्यात् वाऽपि यत् किश्चद् विरुद्धमागमतः । स्यादुक्तं तच्छोध्यं बहुश्रुतैर्मयि विधाय कृपाम् ॥१०॥ (पथ्यार्या) संसारोदधिनौ तुल्योऽस्तु संभवजिनः श्रिये । पूरणग्रामवास्तव्याः भक्तितः प्रणमन्ति तम् ॥११॥ (अनु टुप् ) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६१ श्रीमदाद्-वेदान्त-न्याय-भीमांसक-वैशेषिक-सौगतादिविविधदर्शनानामुद्भवस्थलो भारतवर्षः । तत्र च जन्ममरणरागद्वेष-विषयकषायदुर्ध्यानादिसंतप्तभवभ्रमणशीलकलिकालजन्तूनामात्यन्तिकदुःखोच्छेदनममनन्तज्ञानदर्शनाऽक्षयसुखवीतरागभावादिसहजस्वाभाविकात्मगुणानामनन्यहेतुजैनेन्द्रदर्शनं सर्वेषामग्रे विलसति । मोक्षाभिलाषिणोऽनेकभव्यात्मानस्तमा. श्रित्यऽपारमबोदधिं पारयित्वा सर्वोच्चनिर्वाण पदमऽप्रापन , प्राप्नुवन्ति , प्राप्स्यन्ति च। . अध्यात्मोद्भवस्थलभारतवर्षे श्रोशत्रुञ्जयसम्मेतशिखर-रैवतशिखर-चम्पापुरि-पावापुर्याद्यनेकतारकतीर्थानि परिशोमन्ते । तान्याराध्य मुमुक्षव ऐहिकामुष्मिकसर्वसंतापानपहरन्ति । गौरवशालिन्यां तादृश्यां भारतभूमौ गुजर-मरुधर-महाराष्ट्र-कनोटक. हिमाचलप्रदेश-मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेशाद्यनेकाः प्रान्ता विराजन्ते । तत्र च विभिन्नभाषावेशभूषा-जीवनपद्धति-धर्माद्यनेकसंस्कृतयः प्रचलितास्सन्ति । ___ भारतवर्षे धर्मकर्मशूराणां मातृभूमिर्मरुधरो राजस्थानेत्यपरनामा प्रान्तश्चकास्ते । स चार्वादाचल-राणकपुर-कनकाचल-जैसलमेर-जीराउला-ब्राह्मणवाडा-नन्दिवर्धनपुरप्रभृतितीर्थस्थानादिभिः समलङ्कृतोऽस्ति । तत्र चाखिल विश्व प्रतिष्ठामहोत्सवे यस्याभिधानमवश्यमेव गृह्यते, तस्य सुविख्यातजीराउलातीर्थ पायें स्वर्णगिरिदुर्गापलक्षित-जालोरजिलायामपूर्णोऽपि पूर्णतां विख्यापयन्निव पुरणग्रामः सुशोभते । अधुना पुरणग्रामे क्षत्रिएजैनस्वर्णकारब्राह्मण-भील्ल-शूद्रादिजातयः प्रतिव. सन्ति । सर्वेऽपि परस्परं सहकारेण जीवनं यापयन्ति । एकस्यापत्ता इतरे धनधान्यादिसाहाय्यं कुर्वन्ति । तत्र च धनाढ्या जेनाः सन्ति । ते च दानशौण्डाः, दुष्कालादा अर्थान्नपानादिभिर्जनान् पशूश्चोपकुवन्ति । श्राद्धानां जनसमवाये लोकप्रियता वर्तते । पुराऽत्र श्रावकानां श्रद्धापुञ्ज इव षोडशमजिनपतेरुत्तुगशिखरबद्धजिनमंदिरं मासीत् । पूज्यपादाचार्यदेवादीनां सत्प्रेरणया धर्मजिनपतेमूर्तिरुत्था पिता । नवाधिकविंशतिशततमवैकमान्दे (२००६) मृगशीर्षमासे शुक्लपक्षे दशम्यां तिथौ शुभमुहूर्ते परमपूज्यप्रशांतमूर्तिशान्तिसूरीश्वराणां शुभनिभायां प्रशमरसनिमग्नस्तृतीयजिनपतेः श्रीसंभवनाथप्रभोप्रतिष्ठा हर्षोल्ल सेन श्रीसङ्घन कारिता। ग्रामस्योच्चस्तरभागे स्थितो जिनालयमुत्तमाङ्गस्यावतंसक इव परिशोभते । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] यथा समुद्रः पूर्णिमायाः शशिसंयोगे नोर्ध्वतामुपयाति तथा विश्वानन्ददायक श्रीसंभवनाथप्रभोः संयोगेन श्री सङ्घोऽपि धर्मधनधान्यादिभिः समार्थ्यात् । श्रीसङ्घे दीक्षोद्यापनप्रभु भक्तिमहोत्सवादिधर्मानुष्ठानानि विशेषरूपेणाऽऽरण्यानि । एकदा महावातेन जिनालयस्य ध्वजदण्डस्त्रुटितः । ततो नूतनध्वजदण्डः निर्मापितः । तस्य द्वयोथ जिनबिम्बयोः प्रतिष्ठा एकत्रिंशदधिकविंशतितमवैक्रमीयवर्षे (२०३१) परमपुज्य शासनप्रभावकाचार्यदेव श्रीमद विजय राजेन्द्रसूरीश्वराणां निश्रायां कारिता । तदनन्तरं जिनमन्दिरं विचित्रका कलाकृत्यामण्डितस्तया च जिनालयं देवविमान सदृशमुपशोभते । सम्पूर्णशिखरस्य च जीर्णोद्धारः कृतः । शिखरं विशिष्टे पाषाणेन समलङ्कृतम्, तत्र च चतुर्णा मङ्गलमूर्तीनां प्रतिष्ठाऽष्टादशाभिषेकश्च समहोत्सवमस्माकं ( आचार्य गुणरत्नसूरीश्वरादीनाम् ) निश्रायां षट्चत्वारिंशदधिकविंशतिवैक्रमाब्दे ( २०४६ ) वैशाखशुक्लापञ्चम्यां तिथौ कृता । सद्धर्मसुवासित पुरणनगरे निम्नलिखिताः साधू साध्ध्यश्च दीक्षिताः सन्ति । गुरोर्नाम अभिधानम् प. पू. उदयरत्नविजयः ११ प. पू. रत्नरेखाश्रीजी प. पू. विवेकप्रभाश्रीजी " " 19 19 19 " " " 本步 मा. सा. संयमरत्न विजयः मा. सा. 72 म. सा. म. सा. सूरप्रभाश्रीजी म. सा. म. सा. सच्चपूर्णाश्रीजी सौम्यपूर्णाश्रीजी स. सा. कीर्तिरेखाश्रीजी म. सा. गुणज्ञरेखाश्रीजी म. सा. हेमरेखाश्रीजी म. सा. लावण्यरेखाश्रीजी म. सा. नयन रेखाश्रीजी म. सा. नीर्मलशीलाश्रीजी म. सा. तवरसाश्रीजी म. मा. प. पू. आ. नित्यानन्दसूरीश्वराः प. पू. आ. गुणरत्न सूरीश्वराः 11 99 "" " " " "" " 15 " "" 99 रंजनश्रीजी म. सा. त्रिलोचनाश्रीजी म. सा, विवेकप्रभाश्रीजी म. सा. कीर्तिपूर्णाश्रीजी म. सा. म. सा. गुणपूर्णाश्रीजी पुण्यरेखाश्रीजी म. सा. 15 99 " मदनरेखाश्रीजी म. सा. नयन रेखाश्रीजी म. सा. तच्चदर्शिताश्रीजी म. सा. 躯 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! २६३ अनुमानतचतुर्दशसहस्रलोकनमाण प्रेमगुणाख्यावृत्या विभूषित सर्वोपशमनाप्रकरण : श्रीपूरणमङ्घज्ञानद्रव्य साहाय्येन प्रकाश्यते । इति कृतसुकृत श्रीपूरणसङ्घोऽन्ये च भव्यात्मनः पठनपाठन स्वाध्यायादिना क्रमेण कर्मनिर्जगं कृत्वा निःश्रेयसमश्नुवतामिति शिवम् । इति समाप्ता प्रशस्तिः । तत्समाप्ती च समाप्ता * श्रीमत्तपोगच्छ गगनाङ्गर्णादिनमणि- कर्मसाहित्य निष्णात· सिद्धान्तमहोदधिसच्चारित्रचूडामणि- प्रातःस्मरणीयाचार्य शिरोमणि श्रीमद्विजय- प्रेमसूरीश्वरान्तेवासिवर्धमानतपोनिधि स्याद्वादनयप्रमाणविशारद - सुविशाल गच्छाधिपतिः - आचार्य [देवश्रीमद विजयभुवन भानु सूरीश्वर - शिष्यप्रशिष्य - सिद्धान्त दिवाकराचार्यदेवश्रीमद्विजयजयघोष सूरीश्वर - धर्म जित्सूरीश्वर हेमचन्द्रसूरीश्वर - गुणरत्नसूरीश्वरसंगृहीत पदार्थक्या मेवाड देशोद्धारकाचार्य देव श्रीमद्विजय जितेन्द्रसूरीश्वरान्तिषदाचार्य श्री विजयगुणरत्नसूरीश्वरविरचिता श्रीकर्म प्रकृत्युपशमना करणे सर्वोपशमनायाः प्रेमगुणाख्यावृत्तिः । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठानि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमं परिशिष्टम् - उपशमनाकरण भाग १ मूलगाथा: - करणकया करणा वि य दुलहा उवसा भणय बिइयाए। मिच्छत्तुदए खीगो ल हए सम्मत्तमोवसमियं सो भण प्रकरण अणु इन्नाए अणुयोगधरे पणिवामि ॥ जस्स लब्भइ . पाय हयमलद्धपुग्वं जं ॥१ सवस्स य देसस्स य करा व समणादुसन्निएक्किका तं कालं बोठिई तिहणुभागेग देसघाइ स्थ। सध्वस्स गुणपसत्था देसस्स वि तासि विबरीया ॥२ सम्मत्तं सम्निस्स. मच्छत्त सव्वधाईयो ।।१९।। सव्यवसमणा मोहस्सेब उ तरसुवसक्किया जोग्गो। पढमे समए थोत्रो सम्मत्त मीसए प्रसंखगुणो। पंचेंदिगो उ सन्नी पज्जत्तो ल'द्धतिगजुलो ॥३॥ समयमविय कमसो। भन्न मुहुत्ताहि विज्झायो। २० पुव्वं पि विसुज्झनो गठियसत्ताण दुकमिय सोहि । टिहर सघाओ गुण सेढा विय ताव पि आउवषाणं । अन्यरे सागारे जोगे य सुिद्धलेसासु || बहटिइए एगदुगावलिसेसम्मि मिच्छत्त ॥२६॥ ठिंड सत्तकम्म अन्तोकोडाकोडी करेतु सत्तण्ह । । उवसंतद्धा अते बिहिणा ओकडिट यस दलियस्स । टुट्ठाणचट्ठाणे असुमसुम ण च अणुभाग ॥५॥ अज्झवसात गुरुवम्सुदनो तिसु एक्कय रयम्स ॥६॥ बधंतो धुवगडी भवपाउग्गा सुभा प्रणाऊ य ।। सम्मत्तपढमलामो सवोवसमा तहा विगिट्ठो य। जोगवसा य पएसं उकसं मज्झिम जहरण ।६।। छलिगसेसा परं आसाणं कोइ गच्छेज्जा॥२॥ ठिइबंधद्धापूष्णे नवबध पलल्संखभागू णं । सम्दिट्ठी नियमा उवइंटु पवर णं तु सद्दहइ । असुभसुभाणणु भाग अण गुणहाणि वुड्ढाहि ।। सदहइ प्रसभाव'अजाणमाणो गुरुनियोगा ॥२४॥ करणं अप्लापवत्तं भव्य रणमनियट्रिकरणं च । मिछाट्ठिी नियमा उवइट्ठ पदयणं न सद्दहइ। अंतीमूहु त्तय ई उवसतद्धं च लहइ कमा । : सद्दहइ असभा र इटुं वा अणुवइ ॥२५॥ अणममयं वङ् ढतो असाणण णतगुणाए। परिणामट्ठाणाण दोसु कि लोगा असरूज्जा ६॥ सम्मामिच्छट्टिी साग रे ता तहा अणागारे । ग्रह वाजणाराहम्मि य मागारे होइ नाययो ।।६।। म.दोवसोही पढमम्स संखभागाह पढम समय म्मि।। धेय गसम्मट्ठिी चरित्तमोहवसमाइ चिढतो । उक्कासं उलिमहो एकवेदक दोह जीवाश ।१०।। आ चरमायो ससक्कोस पूरप्पवमिइ म ।। प्रजऊ देसई वा विरतो व बिसोहिअद्धाए । २७! वियस्स बिडयसमए जहण्णमवि अणतरुक्कस्सा ।। अन्नाणपन्भु गमजयणहिजमो अवज्जविरईए। नियणमवि ततो से ठिइरसघायठिबन्धगद्धः ऊ ।' एगवयाइ चरिमो अणूमइ मित्तो त्ति देसजई ॥२४॥ गुण सेढी विय समां पढ मे समये पवतंति ।।१२।। अणुमइ विर पो अ जई दोण्ह वि करणा णि दौणि विरन उ तइय। 'उहपुहर क्कास इयरं लिस्स स तमभागो । ठिइकण्डगम भागाणणंमा महत्तत्तं ॥३।। पच्छा गुण सेढी सिं ती या प्रालिंगा उप्पिं ॥१६॥ अणुभाग कण्डगाण बहुहि सहलेहि पूरए एक ।। परिणामपच्चयाओ ण भोगगया गया प्रकरणा उ । ठिइ कण्डमहस्सेहिं तेसिं बोयं समागणेहि ।१५।। गुणसे ढो सि निच्च परिणामा हाणि ढजुया ३६ । गुणसे ही निक्खे वो समये समये असंखगुणणाए । च उगइया पज्जत्ता तिन्नि वि संयोयणा विजोयति । अद्धादगाइरित्तो सेसे सेसे य निक्खेत्रों ।१५। करणहि तीहिं सहिया नंतरकरणं उसमो वा । ३१॥ अनियट्टिम्मि वि एवं तुल्ल काल समाओ नामं। दंसणमा वि तहा कयकरणद्धा य पच्छिमे होइ। संखिज्ज इमे सेसे भिन्नमुहुत्तं ग्रहो मुच्चा ।।६ - जिणकालगो मणस्सो पढवठगो अट्टवासुप्पि ॥३२॥ किंवूण मुत्तसमं ठिइबन्धद्धाएँ अन्तरं किया। अहवा दंसणमोहं पुव्वं उवसामहत्तु सामन्न । प्रावलि दुगेक्कसेसे प्रागाल उदीरणा समिया ॥१७॥ पढभठिइमावलियं करेइ दोण्हं अणुदियाणं ॥३३।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] 1 अद्धापरिवत्ताऊ पमत्त इयरे सहम्ससा किच्चा । करणाणि तिन्नि कुणए तइयविसेसे इमे सुरणसु ||३४| अन्तोकोडाकोडी संतं अनियट्टिणी या उदहीणं । बन्धो अन्तोकोडी पुण्वकमा हाणि श्रप्पबहू ||३५|| footosगमुक्कम्स पि तस्स पल्लस्स संखतमभागो fosबन्धबहुसह से सेकेषक ज भणिस्लामो ३६ पल्लदिवढबिल्ला ण जाव पल्लस्स संखगुणहाणी मोहस्स जाव पल्लं संखेज्जइ भागहाऽमोहा । ३७ । तो नवरमसंखगुणा एक्कपहारेण तोसगाणमहो । मोहे बीसग हट्टा यतो गाण पितइय च ॥ ३८|| तो तीसग णमुप्पि च वीरुगाई असंखगुणगाए । तईयं च बोसगाहिय विसेसमहियं कमेणति ॥ ३९ ॥ अहृदीरणा असंखेज्जसमयबद्धाण देसघाइ त्थ । दाणंत रायमणपज्जवं च तो ओ हदुगलाभो ॥१० ॥ सुयभोगाच क्षो चक्खु य ततो मई सपरिभोगा । विरियं च असे ढिगया बर्धात ऊसव्वधाई । ४१|| संजमधाईणंतरमेत्थ उ पढमठिई य अन्नयरे संजलगावे पाणवेइज्जतीण कालसमा ४२ । दुसमयकयंतरे प्रा लिगाण छन्हं उदीरणामिनवे माहे एक्कठाणे बंधुदया सखवासाणि ॥ ५३ ॥ संखगुणहाणिबंघो एत्तो सेसाण सखगुणहाणी | पडवसमए नपुंसं प्रसंखगुणणार ज वंतो । ४४ । एवित्थी संखतमे गयम्मि घाईण संखवासाणि । संखगुणहारिण एत्तो देसावरणाणुदगराई ||४५।। तो सत्तण्हं संखतमे संखवासितो दोहं । बियो पुण ठरबंध सव्वेसि सखवासाणि १४६|| छस्व समिज्जा सेक्का उदयट्टिई पुरिससेसा । समऊणावलिगदुगे बद्धा वि य तावदद्धाए ||७|| तिविमवेप्रो कोहं कमेण सेसे वितिविहतिविहवि । पुरिससमा संजलणा पढमठिई आलिगा अहिगा ||४८ || tataतिभागा बिइयतिमागोत्थ किट्टिकरणद्धा । एगफडुगवग्ग प्रणंत भागो उता हेठा ॥४६॥ 1 प्रथमं परिशिष्टम् प्रणुसमयं सेढीए असंखगुणहाणि जा अठवाओ । तश्विवरीयं दलियं जहन्नगाई विसेसूणं ॥ ५० ॥ प्रणुभागोतगुणो चाउम्मासाइ संखमागूणो । मोह दिवसपुहुत्तं किट्टीकरणा इसमयस्मि ॥ ५१ ॥ मिन्नमुत्तो संखेज्जेसु य घाईरण दिणपुहृत्तं तु । बास सहसपुहुत्तं भन्तो दिवसम्स अंते सि ||५२ || वास व हस्तपुहुत्ता बिवरिसअन्तो मघाइकम्माणं । लोभस्स प्रणुवसंतं किट्टी जं च पुग्वृत्तं ॥ ५३ ॥ सेस तनुरागो तावइया किट्टो ऊ य पढमठिरं । वज्जिय खमागं हठुवरिमुदीरए सेसा ॥ ५४ ॥ 乖 तो यमुयंतो असंखभागो य चरिमसमय म्मि । वसामेई बीयट्ठिपि पुव्व व सव्वद्धं ॥ ५५॥ उवसतद्धा भिन्नमुहुत्तो त से य संखतमल्ला । गुढी सव्वद्धं तुल्ला य पएमकालेहिं ।। ५६ । उन संताय अकरणा संक मरणोवट्टणा य दिट्टितिगे । पच्छा पुग्विगाए परिवड पमत्तविरतो सि. ५७ । उडिता बीडय ठिईहि उदय इसु खिव दवं । सेढाइ विसेसूणं श्रावालि उप्पि असंखगुणं ॥ ५८ वेइज्जतीवं इयरामि प्रालिगाइ बाहिरओ ! किमाणुपुवी छावळि गोदीरणापि ॥५९० वेइज्ज माणसंजणद्धा अहिगा उ मोहगुणसेढी । तुल्ला य जयारूढो तो य सेसेहि तुल्लति ॥ ६० ॥ खवगुवसामगपडिवयमाणदुगुणा तुहि तह बन्धो । अणुभामोतगुणो प्रमाण सुमाण विवरीओ ॥ ६१ ॥ किच्चा पमत्ततदियर ठाणे परिवत्ति बहुसहस्सा णि । हिट्टिल्लानंतर दुर्ग प्रासाणं वा वि गच्छेज्जा ॥ ६२ ॥ वसनसम्मत्तद्धा प्रन्तो आउवखया धुवं देवो । तिसु प्राउगेसु बद्धेसु जेण मेढि न प्रारुहई ||६३ ॥ उडियार करणाणि उदयठिमा इगं इयरतुल्लं । एग दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उसमेंज्जा ॥ ६४ ॥ उदयं वज्जिय इत्यी इत्थों समयइ प्रवेयगा सत्त ! तह वरिसवरो वरिसवरित्थि समगं कमार ||६५।। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 瘩 १ अन्यत्रापि ४३, १४७, २३६ २ अभिधानचिन्तामणिः ६६ ३ उक्त - ३, ४, ७, ४४, ६६, ६८, ०, ७४, ८०, ४ कर्मप्रकृतिचूर्णिः ४३, ५२-५३, ५६-६०, द्वितीयं परिशिष्टम् ८६, १०६-१०७, ११०, ११४, १२१, १२६, १३६, १४१-१४२, १५३, ४६२, १६५, १६७ ५ कर्म प्रकृतिः १०६, १०७ ६ कर्म प्रकृतिमलयगिरिटीका- ६०-६१, ७४, ११० १११, १३६-१३७, १५३ ७ कर्मप्रकृत्युपाध्याय प्रवरटीका- ६०, १३५, १३७. १४७, १६० = कर्म प्रकृति चूणिटीप्पणक - ६०, १३७ ९ कर्मस्तवः - ५१ २२१-२२८, २३०, २३२-२३४, २३६ १२ गुणस्थानकक्रमारोह: ६७, ७०, १३ जीवसमास:- १५६ १४ जीवसमासवृतिः - १४६ १५ जयधवला - २१, २६, ४९ १० कषायप्राभृतः -४७, २०८-२०१ ११ कषायप्राभृतचूणि-: २१, २४,२६,४१, ४०-४८, ५३, ५५,५१, ६१,७०, ८३,८५.८८, ११, ६७-६८, १०१, १०७, ११४-११७, १२४, १३५..१२९, १३५-१३६, १३८, १४०, १४३, १४५ - १००, १४१, १५३ - १५४, १५८-१६१, १६५ - १६६, १७०, १७, १८०, १८३-१८६, १८९,१९३, १६६ १६- २००, २०३,२०८-२०६, २१४,२१६.२१८, १०८, ५४,७३, १०९, ११४, १२१,१२३-१२४, १३०, १३५, १४०-१४२, १७४, १७८, १८५, १६४, २०३,२२४ १६ तद्यथा-७६ १७ धवला - ५०, ५६, १०४,१११, १२९,१५३,१६१, १८०, १८१, १८४, १८९ १८ नव्यशतककर्म ग्रन्थः - ४२,४८ ११ नव्यशतकवृत्तिः ७६, ८४ २० पञ्चसंग्रह: (मूल : ) – ३९ - ४०, ४२, ४५, ५१ ५४-५६,५९,६२–६३, ६५, ६८, ८६, १०८, ११०, ११, १२१, १३५,१४२, १४६, ५४, १५८, १६१, १७१, १७३, १८६ २१ पञ्चसंग्रहस्वोपज्ञटीका १०८,११४,११९,१२०, १३५, १४२, १५४, १६११६३, १६१,१७१, १८६, २४३ २२ पञ्चसंग्रहोपाध्यायवृत्तिः - १३५ २३ पञ्चसंग्रहमलयगिरिवृत्ति:- २२,६०,७६,१०८, ११८-११-१२१-१२२,१३५,१६२१८७ २४ पञ्चनिग्रन्थिप्रकरणम् - १०४ २५ महाबन्धः - २३६, २६ लब्धिसार:- ७,१७, २७, ३८,५६,६४,८३, १२०, १२७, १४३-१४४, १४८, १५३-१५४, १५६, १५-१६१, १६३-१६५ २७ बिशेषावश्यकभाष्य :- १४१, २८ व्याख्याप्रज्ञप्तिः - १०१, १०५ २१ शतककर्मग्रन्थटीका -२२-२३, [ २६७ ३० शतक चूर्णि :- ५६ ३१ शतकबृहच्चूर्णि:- ६७ ३२ सप्ततिकावृत्ति:- ६० ३३ समराइच्चकहा- ५७ ३४ सम्यक्त्वप्रकरणम्-५७-५८ प्रकारादिक्रमेणोपशमनाप्रकरणे टीकान्तः प्रमाणतया समुद्धृतानां प्रन्थानां नाम्नां सूचि दक्षिणपार्श्वे पृष्ठाङ्को दर्शित । यत्र '' एतच्चिह्न दर्श्यते, तत्र वामपार्श्वस्थ पृष्ठाङ्कतः प्रभृति दक्षिण पार्श्वस्थ पृष्ठाङ्क यावत् पृष्ठाङ्का बोध्याः । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] तृतीयं परिशिष्टम् : प्रकारादिक्रमेणो शमनाक रणटीक'ऽन्तर्गतानां ग्रन्थकृन्नाम्नां सूचिः १. कर्मप्रकृतिणि काराः ४३,५५,११४,१५३.१६४ ६. श्रीमद्देवेन्द्रसूरीश्वराः २. कषायपाभतचूर्णिकाराः २१,२४,४१,६१, ७०, २२. ४८, ८७ ८५,१३८,१४६,१६१,१८४,१६४,२०० ७. श्रीमद्भलय गिरिसूरीश्वराः २२,४२,४४, ६०, ३. पञ्चसंग्रहकाराः ५९ . ___७४,७६,१११,११८,१२२,१३१,१३५,१३६,१५४ ४. भाष्यसुधाम्भोनिधि:(जिनभद्रगणिक्षमाधमणाः) ८. श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरीश्वराः ६० १४१ ९. श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायाः ४८,६९,१११,१३१, ५. शिवशर्मसूरिपादाः २ १३,१४७,१५४,१६० १० सप्ततिकाचूगिकारा: ४८ चतुर्थं परिशिष्टम् उपशमनाकरणटीकान्तर्गता न्यायाः १. श्रेयांसि बहुविध्नानि ४ . : . ५. भाना सत्य भामा ६२ २. नमस्थं तत्सखिप्रेम ६. गङ्गायां घोषः ७४ घण्टारसित सोदरम्। ऋमक्रमशिमनिस्सारमा- ७. यष्टोः प्रवेशय ७४ रम्भगुरुडम्बरम् ५ . २. व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिः ७ , ३. गिरिनदोपाषाणवृत्तता २५ १ . qणाक्षरः ७९ ४. कारणे कार्योपचारः ४७ पञ्जमं परिशिष्टम् उपशमनाक र णटीकान्तर्गतानि व्याकरणसुत्राणि १. प्रात् (२-४-५८) ४,४४, १०५ ६. भागाsकोः (५-३.१८) ४४, ६९ २. कारकं कृता (३-१-६) : १० भूतपूर्वे पचरट (७.२-७८) १०२ ३. गत्यार्थऽकर्मक-पिब-नेः (५-१-१३) ७८ ११ मयुरध्यंस त्यादयः ।३-१-११६) ७ ४. ज्ञानेच्छाऽ ऽथं-त्रीच्छीलादिभ्य : क्तः(५-२-९२) १२ यामादिभ्यः कः (७-३-१५) ७ १३ युवर्ण-व-ह-वश-रण-गमृद्-ग्रहः (५.३.२८ ८१ ५. णकतृचौ (५-१-४८) ११४ १४ योग्यता-वीप्सार्थनितिवृत्ति-सादृश्ये ३-१-४०) ६. णि-वेत्यास-श्रन्थ-घट्ट-वन्देरनः (५-३-१११) २८, २०१ ४,४४,१०५ १५ समस्तत-हिते वा (३-२-१३९) १०६ ७. नन्द्यादिभ्योऽनः (५-१-५२) १५३ १६ स्त्रियां क्ति ५-३-११) ३०, १२३ ८. पति- राजान्त-गुणाङ्ग-राजादिभ्यः कर्मणि च(७-१-६०) १५३२. . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 彝 पृष्ठम् पङ्क्तिः प्रशुद्धिः ६ 5 ८ ७ १२ १६ २६ १२ ६ १८ १८ २१ २५ ८ २५ • 20 x x ३० ३३ ३१ २ ३४ ३ ७ ३८ ३८ १ ३४ ८ ३६ ४० ३५ ४ ४ ५० ५० ५१ 200 ७ २० ८ १०. १३ ४० ४२ ६ ४३ ११ ४४ ४ ४४ २८ ४४ ३० ४४ २० ४५ २७ ४६ ९ ४६ ४६ G १९ २४ १४ 6 १० २५ प्राह विसुद्ध सातवे द्वितीय ५ X अपज्जन्त विद् ०-११ ०वत • तमन्या ०वत्यध्यवसाय सम २२६ ड० इत्कृष्ट ० चिदमसं ० गुण अणि स्मिश्व तद् स्थितिघातद्धा घितूण वधयति X अंत मुहर्ते स्थितिय बंधा लिया ० भागयज www. पश्यन्त ०डिज्जदिन नोतः स्थाने श्रान्ते शुद्धि: प्राहुः विशुद्ध सातवेद द्वितीय ५५+ • अपज्जत्त कश्चित असमयं १०-११ वत् ०तमान्या वत्यध्यवसाय २६४ उ० उत्कृष्ट ०चिदसं गुणश्रेणि स्मिश्व तदा शुद्धिपत्रकम् स्थितिघाताद्धाः धित्तूण वर्धयति एष अन्तर्मुहू स्थितयः बंधावलिया ०भागयोर्ज •तमसमया पश्यन्तु डिज्जदि नोक्तः www3 शान्ते पृष्ठम् पङ्क्तिः प्रशुद्धिः ५१ २३ ।। १५।। ५४ २६ ५४ २७ २१ ५६ ६१ ५ ६ ६१ ६१ ६१ ६१ ६१ ८ १७ २२ २३ ६३ ५ ६३ ५ ६३ १३ ६३ २८ ६४ ६७ १२ २४ ६७ ६९ ४ ६६ ७ ६९ ७१ ३ 6 ७१ ३० ७२ २० २३ प्रत्यागलन उदीरण मीच्छदस्स ० सड़क मरण मिश्र गुणा अतर मुहूता संकमक्रम ० वलीकां " " ० प्रक्रति ० प्रकृति कषाक कषाय व्यतिकालायाम् व्यतिक्रान्तायाम् गुणो अंतर देस देश 2000 / ३६ "भावाsकत्रो : " उक्कीरद्धा कालत! विशेषा परस्परं ०ब ०श्व इ ० चरम समय ७२ ७३ ७३ २४ ७५ ७ ७६ १३ न्यून ७६ १७ मित ७७ १७ ०त्तरम ७७ १६ ०कम ७७ २१ सङक्रम ७७ २७ निवतन शुद्धि: ।।१६।। प्रत्यागलनं उदीरणा मिच्छादस्स • सङ्क्रमण मिश्रे • मुहूर्ता ० संङक्रम • वलिकां देश देश सितश्रद्धा / १८ "भावाऽकर्त्रीः" उक्कीरणद्धा कालता विशेष परस्परे त्व • श्चे ० चरमसमय न्यूनं मि चरम ० क्रम गुणसङ्क्रम निवर्तन Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०वह गुणं शेषेषु सहस्र द्वाण दर्शन २७. ] शुद्धिपत्रकम् पृष्ठम् पक्तिः पशुद्धिः शुद्धिा पृष्ठम् पङ्क्तिः प्रशुद्धिः शुद्धिः ०धिकारः १०६ २० सजोयण संजोयणा ७६ २८ १०६ २२ असख० असंख. त्येयं त्येवं ५०६ २३ गणसेढीते गुणसेढीते ८० ११ ०च्छणोति ०च्छणोति १०६ २४ गणं ८० २२ ०प्रकतीना प्रकृतीनां १०७ ३ सखेज संखेज्जं ८० २३ स्पधकाता० गुणहानं गुणहीनं नेकषाय नोकषाय १०८ २२ सयादेव समयावेव बारभ्यन्ते आरभ्यते १०९ १ तघात: स्थितिघातः ८४ . शेषषु ११० १७ अन्तमुहू० अन्तर्मुहू. गृहोत्मा गृहीत्वा १११ २२ निशेषस्य निःशेषस्य धाद्धा स्वाद्धा १११ १६ मवतीत्यर्थः संम्मा सम्मा ११० २२ निशेषस्य निःशेषस्य ८९ २५ एव ११२ ११ सहस्र: ठ्ठाण ११४ १७ x संख्येय ११७ २ अपूवं पूवं युग ११८ २४ द्वक्त द्वक्तव्यं प्रदेश ११९ १५ सतं संतं ११६ २८ दासीत् दावासीत् १८ ८ बधो घो १२० १८ समन समानं ३ (२)स्थानप्ररूपणा (३) स्थानप्ररूपणा पञ्चसङग्रहे पश्वसमहे ९८ २३ रिकानि रिक्तानि १२१ २२ स्थिति स्थिति रन्यतर १२१ २८ खंडग गेसु खंडगेसु १०० २८ .... स्थित्य उ.सं.प.जप असं.उ.संप.जप असं. १०१ १२ .... विशुद्धि १२४ ५ घान्यन्त घात्यन्त १०१ १३ गणं १२४ १ स्म दहाति स्म १०१ २१ सजय संजय १२४ १० इदानीं इदानीं १.२ १६ कस्य - १२४ १० संत नग्धस्थान सत १०४ समय संयम १०४ २४ ११४ २१ मुवीरणा मुदीरणा १२४ २७ भग १०४ २८ तस्सव माग १०४ ३० - गंतूणुपत्तीदो १२५ १२ उक्कीसपदेससतं उक्कोसपसंत विसेसाहिया १२७ २ ति १०५ १८ विजोयात विजोयंति १२८ १२ भवतीत्कर्थः भवतीत्यर्थः १०५ २५ अनता अनंता १२८ २१ विशेषयाधिक्यं विशेषाधिक्यं सम्यक्त्व । १२८ २६ - सर्वसत्व गुरणं 2033 23.# तस्सेव Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रकम | पृष्ठम पक्क्तिः अशुद्धिः [ २७१ शुद्धिः शुद्धिः रितन मारवंतराए घेतव्धो चूर्णावपि यावद्गुरण १६१ १५ •बहुग १६२ २४ मत्रमेव १६३ २६ यथः १६४ १० १६४ २४ विशाति एवं ०बन्धभ्य पृष्ठम् पक्तिः अशुद्धिः १२९ ३ .रितने १३० २५ माणतरा! १३. २९ घेतघ्यो १३१ ११ !वपि १३१ ११ याददुण १३५ १९ एव १३५ ६ सतकम्मादो १६५ २८ णाणभागस्स १३८ १७ प्यागतः १३८ २ सखात १३८ २८ १४० ५ एक १५. १७ ०द्वाया १४३ १ १४३ १३ .वोत्पतः १४४ ११ - १४४ ३० १४५ १६ षेकादिपक १४५ ३१ पूर्वक १४६ ६ अन्तर द्वा ६४८ ११ दसण संतकम्मादो cणारणभागस्स व्यामतः संख्यात बक्तव्य: १६५ ४ १६६ २५ १६८ २१ १६८ ६५ १६६ १९ १७२ २१ १७२ २१ वैत्य EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE!!!! ०बहूर्ग मात्रमेव व्यर्थः ०भाग विंशति साधं सत्क बन्धेश्य परस्पर स्थिति वेत्य ०कषायारणा "अंतरं" समाना क्षीणेषु तोनामुख्य सत्क वार्षिको ०प्रमाणत्वा० निष्ठिता दलिको "प्रतरं" १७५ २७ क्षीणेष ५७६ ८ तीन मुदय । १७८ २१ १७९ २२ १७६ २० प्रमरणत्वा० समतो चूादि १५४ २२ उक्त १५४ ३० पित द्वाया निष्ठ.पकलेश्या] ०वोत्पत्तेः भागहारेण भागमुदया निषेकादपक पूर्वक अन्तराद्वा दसण तपस्यति उक्तं पर्यन्त वेदित मुहूर्त सम्यक्त्व करोती परिणाम प्राभूत पूवं परुविदं ०सत्क सर्वासा स्थित्य उवसामेदि ग्रन्थेषु पूर्वोक्त १५५ १७ मुहूत १५८ १२ करती १५८ २१ परिणाम प्रभृत १५८ २६ पूम्व परुविद १८१ ७ समत्तो १८१ १० वृयादि उवसमेदि १८४ २७ १८५ १० पूर्वावत. १८६ १३ कम्मारणं १८६ २४ द्वत्रिंश १४६ २५ बत्तीसमा १८७ ६ हास्षटकस्य १९८ २७ १८६ ८ वेद स कामि १८९ २० प्रमाण वनि १६१ १ . ५८ २५ .... द्वात्रिंशद् बत्तीससमा हास्यषट्कस्य तृतीय वेदस्स संकामि प्रमाणत्वनि सर्वथो १६१ १२ ... Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिः * माकृष्यो भागियादो ०याणाम् श्रेणिरत्राऽपि अनाकान्त जुगवं २७२ ] शुद्धिपत्रकम पृष्ठम् अशुद्धिः पङ्कितः शुद्धिः पृष्ठम् पङ्क्तिः अशुद्धिः १६२ १२ वियेन द्वयेन २२५ २९ मकृष्यो १९३ १३ - स्थिति २२७ १४ भगियादो ११४ २२ ०य त यति २२८ ११ ०इयणम १६५ २८ निषके निके २२८ २० १९८ ७ कले काले २२६६ १९८ है शिष्टा लिका शिष्टावलिका २३६ २० जुगष १६९ ११, क द्वये काद्वये २३६ २१ जाणत्त १६४ १६ . स्पर्धेकेभ्यः २३८ १० १९६ २७. प्रस्सकन प्रस्सकन्न ३० श्रणि २०५ १३ - व्यवच्छिद्यते २३१ २६ २०५ १४ संज्लन संज्वलन २४२ १८ २०७ १८-१९ जातो य चरिम २५३ ५ तदवोधमेव .. मोत्तूण २४५ २३ २०८ १ [गाथा ५४ [गाथा ५५ २४८ १६ पयन्तं २०८ ५ जणी ज्जति भाग २४८ २७ स्युपद्यते गेहात २५६ ४ सवत्त्वतः २०६ १. गाथा २५६ १५ २१४ २६ व्योगति योगगति २५६ २७ टिहि २१७ १६ सङ्क्रमस्य २५७ २२ तामा २१९ २० वेदियतव्यम् वेदयितव्यम् २५८ २५ सामग स २२३ २६ वेदककाल २६१ २१ धम २२५ ८ णिविख वदवा णिक्खि विदवा • * * * * * * * * * णाणतं पूर्ववद् श्रेणि व्यतिक्रान्तायां ०भावि तद्विध मेव समान पर्यन्तं त्युपपद्यते स वतः दिदि ताप्रो सामगस्स . धम श्रीपूरण Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरण पृष्ठ २ के चित्र का परिचय इस चित्र में ओक पहाड बताया है। उसके ऊपर ११ सोपान (Steps) बताये हैं । संसार रूपी पहाड के पहले सोपान मिथ्यात्व गुणस्थानक से कोई आत्मा कूदकर चौथे सोपान अविरतसम्यग्द्दष्टि गुणस्थान को प्राप्त करती है। कोई आत्मा पांचवे सोपान देशविरत गुणस्थानक को प्राप्त करती है। कोई आत्मा छट्ट सोपान प्रमत्त विरत गुणस्थानक को प्राप्त करती है । कोई आत्मा सातवे सोपान अप्रमत्त गुणस्थानक को प्राप्त करती है। इसमें गृहस्थ चौथे सोपान पर चढता हुआ बताया है । क्योंकि चौथे गुणस्थानक पर गृहस्थ होता है । कोई आत्मा जब उपशम श्रेणि प्रारंभ करती है । तब आठवें सोपान अपूर्वकरण गुणस्थानक से नौवें गुणस्थानक अनिवृत्ति बादर गुणस्थानक पर चढते मुनिराज बताये हैं। उसके बाद क्रमशः १० वें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक व ११ वें उपशांतमोह गुणस्थानक पर चढते हैं। अन्तर्मुहूर्त के बाद ११ वे उपशांतमोह गुणस्थानक से नीचे उतरते हुए १० वे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक पर आते है । उसके बाद ९,८,७ वे गुणस्थानक पर उतरते हुए आते हैं। यदि कोई आत्मा आयुष्य पूर्ण होने पर मर जाती है, तो वह अवश्य वैमानिक देव बनती है। इसलिये सोपान के ऊपर देवविमान बताया गया हैं । - For Pr & Personal Use Only - Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11) उपशांतमोह गुणस्थानकम् 10) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकम् र गुणस्थानकम् 8) अपूर्वकरण गुणस्थानकम् 7) अप्रमत्त गुणस्थानकम् 2 7) अप्रमत्त गुणस्थानका ) प्रमत्त गुणस्थानका 6) प्रमत्त गुणस्थानकम 5) देशविरत गुणस्थानकम् ४)अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानकम् / 3) मिश्रगुणस्थानकम् 2) सास्वादन गुणस्थानकम् 1) मिथ्यात्व गुणस्थानकम्