SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० ] प्रस्तावना मिश्रदृष्टि को साकार अथवा अनाकार उपयोग होता है । यदि साकार उपयोग होता है तो व्यंजनावग्रह होता है अर्थावग्रह नहीं होता है क्योंकि संशयज्ञानी अव्यक्त ज्ञानी होता है। चारित्र मोहोपशामक अविरत, देशविरत अथवा सर्वविरत प्ररूपणाधिकार: चारित्रमोहोपशामक क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि (श्रेणि में उपशम अथवा क्षायिक सम्यग दृष्टि) अथवा उसी के साथ तद्युक्त देशयति अथवा सर्वविरत साधु होता है । वह जीव विशुद्वयमान होना चाहिये। अविरत-व्रत को नहीं जानता, नहीं ग्रहण करना, नहीं सावध व्यापार का त्याग करता इत्यादि आठ भङ्गो में से प्रथम सात भङ्गो में अविरत होता है। जघन्य से एक अणुव्रत को भी ग्रहण करने वाला देश विति कहलाता है । सर्वसावद्य योगों को तिविहतिविहेण त्याग करने वाला सर्व विरत कहलाता है। औपशमिक सम्यक्त्व के बाद में देशविरति अादि प्राप्त करने वाला देशविरति अथवा सर्वविरति प्रापक पूवित प्रथम दो करण करता है सिर्फ अपूर्वकरण में गुणश्रेणि नहीं करता है। अपूट करण पूर्ण होने पर देशविरति अथवा सर्वविरति की प्राप्ति होती है। तब उदयावलिका के ऊपर अन्तमुहर्त तक नियमा गुणश्रेणि करता है। उसके बाद भजना है। अनाभोग से परिणाम-ह स होने पर पतित देशविरत अथवा सर्वविरत करण कीये बिना देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त करता है । आभोग पूर्वक पतित तो करण करके ही उक्त दो गुणस्थानक को प्राप्त करता है । यावत् परिणामानुसार हानिवृद्ध अथवा अवस्थित गुणश्रेणि करता है। अनंतानुबंधि विसयोजना अधिकार-चारों गति के पर्याप्ता यथासंभव असत, देशविरत अथवा सर्वविरत अनंतानुबंधि कषाय का विनाश करते है । पूर्ववत् यहां पर भी तीनों करण होते है, सिर्फ अंतरकरण और उपशम नहीं करता है । अनिवृत्ति करण में वर्तमान उद्वलना संक्रम से अनंतानुबंधि को सम्पूर्ण विनाश करता है। दर्शनमोहक्षपणाऽधिकारअनंतानुवंधि विसंयोजना की तरह यहां दर्शन-मोह क्षपणा समझना । दर्शनमोहअपणा का प्रस्थापक जिनकालसंभवी ८ वर्ष से ज्यादा उम्र वाला मनुष्य होता है । अपूर्वकरण के प्रथम समय से मिश्रमोहनीय और मिथ्यात्वमोहनीय का गुणसंक्रम और उद्वलना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001832
Book TitleKarmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Original Sutra AuthorShivsharmsuri
AuthorGunratnasuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy