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________________ प्रस्तावना । १९ अन्तरकरण करने पर गुणश्रेणि निक्षेप के अग्रभागसे उसके संख्यातभाग का खण्डन करता है। उत्कीर्यमाण दलिक प्रथम स्थिति व द्वितीयस्थिति में प्रक्षेप करता है। इस प्रकार अन्तरकरण (रिक्तस्थान) हो जाता है । प्रथमस्थिति में वर्तमान प्रथमस्थितिसत्क दलिक को उदयावलिका में प्रक्षेप करता है वह उदीरणा तथा द्वितीयस्थिति के दलिक को उदयावलिका में प्रक्षेप करता है, वह आगाल कहलाता है । प्रथमस्थिति के दो आवलिका शेष रहने पर आगाल एवं एक आवलिका शेष रहने पर उदीरणा का विच्छेद होता है । मिथ्यात्व का उदय क्षीण होने पर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । मिथ्यादृष्टि जीव अपने चरमसमय में द्वितीयस्थितिगत दलिक को तीन प्रकार में विभाजन करता है-सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व । सम्यक्त्व देशघाति, मिश्र और मिथ्यात्व सर्वघाति होता है । __ औरशमिक सम्यक्त्वप्राप्ति के प्रथमसमय में गुणसंक्रमण से मिथ्यात्व के अल्प दलिक को सम्यक्त्व में उससे असंख्यातगुण मिश्र में संक्रम करता है । द्वितीय समय में मिश्र से सम्यक्त्व में असंख्यातगुण उसी समय में उससे असंख्यातगुण मिश्र में इसप्रकार यावत अन्तर्मुहूर्त, तत्पश्चात् विध्यातसंक्रम होता है । आयु सिवाय सात कर्मों का स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणि ये तीनों गुणसंक्रम तक प्रवृत्त रहते हैं बाद में नहीं होते हैं । परन्तु मिथ्यात्व की प्रथमस्थिति के एकावलिका शेष रहने तक ही स्थितिघात रसघात होते है पश्चात् नहीं होते है। प्रथमस्थिति के दो प्रावलिका शेष रहने तक मिथ्यात्व की गुणश्रेणि होती है । अन्तरकरण के प्रथमसमय से यावदन्तमुहूर्त उपशम सम्यक्त्व होता है। उपशान्ताद्धा के साधिक आवलिका शेष रहने पर जीव तीनों कर्मों के पूजों से दलिक को अन्तरकरणाद्धा के आवलिका में प्रवेश कराता है। आवलिका मात्र अन्तकरणाद्धा शेष रहने पर अध्यवसाय के अनुसार तीनों में से किसी एक प्रकार के दलिक का उदय होता है। उपशान्ताद्धा के जघन्य से १ समय उत्कृष्ट से छ. आवलिका शेष रहने पर कोई जीव सास्वादन भाव को प्राप्त करता है। सम्यग्दृष्टि गुरु के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन की नियमा श्रद्धा करता है । सम्यग्दृष्टि विशेष ज्ञान के न होने पर गुरु की आज्ञापारतन्ध्य से असत्य प्रवचन की भी श्रद्धा करता है । मिथ्यादृष्टि जीव नियमा प्रवचन की निर्मल श्रद्धा नहीं करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001832
Book TitleKarmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Original Sutra AuthorShivsharmsuri
AuthorGunratnasuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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