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________________ समर्पण यद्यङ्गल्याssकाशो मेयः प्रस्ताभिश्च पाथोधिः I स्यां च यदि सहस्त्रमुखस्तदा क्षमोभवदुपकृतीवक्तुम् ॥ १॥ क्या अङ्गुली से विशाल अनंत गगन नापा जा सकता है। क्या अजलियों से समुद्र नापा जा सकता है ? क्या मुख में १००० जीभ हो सकती हैं। यदि नहीं, तो जिनके उपकार को कहने के लिये भी समर्थ नहीं हूं क्योकि जिन महापुरुष मे अपार संसार सागर में से उठाकर संयाम नौका में आरोहण करवाया १४- १४वर्ष तक अपनी निश्रा में रखकर पंचाचार पालन करवा कर जो संयम नौका के सफल कप्तान बने, शिल्पी की तरह ग्रहण आसेवन शिक्षा देकर पत्थर में से आदरणीय प्रतिमा का सर्जन किया, जिनकी परमकृपा से स्वोपज्ञ चपकश्रेण व प्रकृतिवन्ध की टीका व उपशमनाकरण की टीका सर्जन करने मे समर्थ बना | उन्हीं अनंत उपकारी परम पूज्य कर्मसाहित्य निष्णात सिद्धान्त महोदधि स्वर्गस्थ आचार्य देव श्रीमद्विजय व Jain Education International - प्रेमसूरश्विरजीमहाराज को के पवित्र कर कमलों में For Private & Personal Use Only भवदीय कृपाकांक्षी शिश गुणरत्नसुरि www.jainelibrary.org
SR No.001832
Book TitleKarmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Original Sutra AuthorShivsharmsuri
AuthorGunratnasuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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