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________________ प्रस्तावना शब्द माना है मीमांसक दर्शन में धर्माधर्म और अपूर्व शब्द प्रयुक्त किया है । धर्माधर्म अदृष्ट और संस्कार शब्द विशेषतया न्याय एवं वैशेषिक दर्शनो में प्रचलित हैं | Luck sin, merit, आदि शब्द पाश्चात्य दर्शन एवं साहित्य में प्रचलित है । ___ उक्त प्रमाणों के आधार पर यह एक नितान्त सत्य उभर आता है कि लगभग विश्व के सभी दर्शनों ने कर्मसिद्धान्त को मान्यता दी है । अन्य दर्शनकारों ने कर्म को सिर्फ वासना अदृष्ट आदि स्वरूप में मान्य किया है मगर जैन दर्शन ने जितना गहराइ में कर्म सिद्धान्त का विस्तृत म्वरूप बताया है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। जैन दर्शन ने कर्म को पुद्गल ( metter ) रूप मान्य करके उसके सम्बन्ध में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, संकमण, अपवर्तना उद्वर्तना, आदि बताकर उसकी सूक्ष्म प्रक्रिया को भी बताता हैं। यह एक वास्तविक सत्य है । इसलिए Zimmer mtu À The Doctrine of Karm in Jaia philoshophy at saraar ( ForWord ) में कहा हैं कि No where has physical nature of Karma bas been asserted as in Jaipism क कर्म का स्वरूप विश्व में अनन्त जीव है, ठीक उसी प्रकार अनन्त पुद्गल स्कंध भी है। वे पुद्गल स्कंध आहारक, औदारिक, तेजस, कार्मणवर्गणा आदि के नाम से पुकारे जाते हैं । कार्मणवर्गणा के पुद्गल अतिसूक्ष्म है वे अनंतानं भी इकट्ठे हो नाय तो भी सामान्य मनुष्य को दृष्टिगोचर नहीं हो सकते है जीव प्रतिममय अपने शुभाशुभ भावों के आधार पर जब उन्हें आत्मसात् करता है तब वे पुद्गल क्षीरनीरवत आत्मा से सम्बद्ध हो जाते है और उसे जैन परिभाषा में कर्म कहते है। कर्म की विभिन्न अवस्थाएँ जैनदर्शन कर्म की अनेक अवस्थाओं को मान्य करता है । उनको समझने के लिए हम संक्षेप में ११ भेदों में वर्गीकरण कर सकते है । वे निम्नलिखित है-- १. बंध, २ सत्ता, ३ उदय, ४ उदीरणा, ५ उद्वर्तना, ६ अपवर्तना ७ संक्रमण, ८ उपशमना, ९ निधत्ति, १० निकाचना, ११ अबाधा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001832
Book TitleKarmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Original Sutra AuthorShivsharmsuri
AuthorGunratnasuri
PublisherBharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages332
LanguageSanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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