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अपभ्रंश काव्य सौरभ
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
पाणुजीलीभीची जैनविद्या संस्थान श्री महावीरजी
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
Jan Educallantinomalamil
Trantivataansomnony
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
(काव्य-संकलन, हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ सहित)
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
(पूर्व प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र) सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
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प्रकाशक अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैनविद्या संस्थान दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
राजस्थान
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प्रकाशक
अपभ्रंश साहित्य अकादमी
जैन विद्या संस्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी श्री महावीरजी- 322 220 ( राजस्थान )
प्राप्ति स्थान
1.
2.
जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी साहित्य विक्रय केन्द्र
दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी
सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-302004
द्वितीय संस्करण, 2007
प्रतियाँ 1100
मूल्य 350 रुपये (सजिल्द) 150 रुपये (पेपरबैक)
पृष्ठ संयोजन
आयुष ग्राफिक्स
जयपुर मोबाइल : 94140-76708
मुद्रक जयपुर प्रिण्टर्स प्राइवेट लिमिटेड एम.आई. रोड, जयपुर - 302001
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अनुक्रमणिका
पाठ संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या
,
III
पाठ - 1
2-9
पाठ - 2
10-15
16-23
24-33
34-41
पाठ - 7
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प्रकाशकीय (द्वितीय संस्करण) प्रकाशकीय (प्रथम संस्करण) प्रस्तावना (प्रथम संस्करण) काव्य-अनुवाद पउमचरिउ पउमचरिउ पउमचरिउ पउमचरिउ पउमचरिउ महापुराण महापुराण महापुराण जम्बूसामिचरिउ सुदंसणचरिउ सुदंसणचरिउ करकण्डचरिउ धण्णकुमारचरिउ हेमचन्द्र के दोहे परमात्मप्रकाश पाहुडदोहा सावयधम्मदोहा
42-49 50-57 58-61
पाठ - 8
पाठ - 9
62-69
70-77
पाठ -
पाठ - 12
78-83 84-87 88-95
पाठ- 13
पाठ - 14
96-101
पाठ - 15
102-107
पाठ - 16
108-113
पाठ - 17
114-117
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पाठ संख्या
विषय
पृष्ठ संख्या
व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
120-121
पाठ - 1
पाठ - 2 पाठ - 3
122-139 140-155 156-169 170-186 187-201
- पाठ
पाठ
पाठ
202-217
पाठ - 7
218-234
पाठ -8
235-244
संकेत सूची पउमचरिउ पउमचरिउ पउमचरिउ पउमचरिउ पउमचरिउ महापुराण महापुराण महापुराण जम्बूसामिचरिउ सुदंसणचरिउ सुदंसणचरिउ करकण्डचरिउ धण्णकुमारचरिउ हेमचन्द्र के दोहे परमात्मप्रकाश पाहुडदोहा सावयधम्मदोहा
पाठ - 9
245-261 262-282
पाठ - 10
पाठ - 11
283-296
पाठ - 12
297-307
पाठ - 13
308-330
पाठ - 14
331-342
पाठ - 15
पाठ - 16
343-354 355-367 368-376
पाठ - 17
379-394
परिशिष्ट - 1 परिशिष्ट - 2 सहायक पुस्तकें एवं कोश
कवि-परिचय काव्य-प्रसंग
397-413
414-415
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प्रकाशकीय (द्वितीय संस्करण)
अपभ्रंश काव्य सौरभ का द्वितीय संस्करण पाठकों के हाथों में समर्पित कर हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है। इसके प्रथम संस्करण का पाठकों ने भरपूर उपयोग किया है, अतः हम उनके आभारी हैं।
अपभ्रंश भाषा भारतीय आर्य परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है । विद्वानों का मत है कि "अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग छठी शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव - विनियम और व्यवहार की बोली रही है।" यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार - "हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश की प्रायः पूरी परम्पराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।"
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दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित " जैनविद्या संस्थान" के अन्तर्गत " अपभ्रंश साहित्य अकादमी” की स्थापना सन् 1988 में की गई। वर्तमान में प्राकृत एवं अपभ्रंश का अध्यापन पत्राचार के माध्यम से किया जाता है। अपभ्रंश भाषा के सीखने-समझने को ध्यान में रखकर अकादमी द्वारा अपभ्रंश रचना सौरभ, प्रौढ़ अपभ्रंश रचना सौरभ, अपभ्रंश अभ्यास सौरभ आदि पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में अपभ्रंश काव्य सौरभ प्रकाशित की गई थी। अब यह उसका द्वितीय संस्करण है। इसमें पूर्व की भाँति अपभ्रंश के विभिन्न ग्रन्थों से पद्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किए गए हैं। काव्यों के भावानुवाद के स्थान पर व्याकरणात्मक अनुवाद करने की
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पद्धति आत्मसात की गई है। इससे काव्यों के समीचीन अर्थ के साथ अपभ्रंश काव्यों का रसास्वादन किया जा सकेगा ।
पुस्तक प्रकाशन के लिए अपभ्रंश साहित्य अकादमी के विद्वान विशेषतया श्रीमती स्नेहलता जैन एवं पृष्ठ संयोजन के लिए आयुष ग्राफिक्स तथा जयपुर प्रिण्टर्स धन्यवादाह हैं।
नरेशकुमार सेठी
अध्यक्ष
नरेन्द्रकुमार पाटनी
मंत्री
प्रबन्धकारिणी कमेटी
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
[II]
डॉ.
कमलचन्द
सांगाणी
संयोजक
जैनविद्या संस्थान समिति
वीर निर्वाण सम्वत् 2534
9 नवम्बर, 2007 दीपावली
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प्रकाशकीय (प्रथम संस्करण)
- हमारे देश में प्राचीनकाल से ही लोकभाषाओं में साहित्य-रचना होती रही है। 'अपभ्रंश' भी एक ऐसी ही लोकभाषा/जनभाषा थी जिसमें जीवन की सभी विधाओं में पुष्कलमात्रा में साहित्य रचा गया। 8वीं से 13वीं शताब्दी तक यह सारे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा रही। अपभ्रंश साहित्य की विशालता, लोकप्रियता और महत्ता के कारण ही आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'प्राकृत-व्याकरण' के चतुर्थ पाद में सूत्र संख्या 329 से 446 तक स्वतन्त्ररूप से अपभ्रंश भाषा की व्याकरण-रचना की।
अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषाओं (उत्तर-भारतीय भाषाओं) की जननी है, उनके विकास की एक अवस्था है। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर-भारतीय भाषाओं के विकास के इतिहास के अध्ययन के लिए अपभ्रंश भाषा का अध्ययन आवश्यक है।
___अनेक कारणों से अपभ्रंश का साहित्य प्रकाशित न होने से इसकी रुचि पाठकों में न पनप सकी और इसके समुचित ज्ञान का अभाव बना रहा। धीरे-धीरे यह अपरिचय की ओट में छिप गई, इसके अध्ययन-अध्यापन की भी उचित व्यवस्था न हो सकी, परिणामतः अपभ्रंश का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर हो गया।
, अपभ्रंश साहित्य के अध्ययन-अध्यापन एवं प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान के अन्तर्गत 'अपभ्रंश साहित्य अकादमी' की स्थापना की गई। अकादमी का प्रयास है- अपभ्रंश के अध्ययन-अध्यापन को सशक्त करके उसके सही रूप को सामने रखना जिससे प्राचीन साहित्यिक-निधि के साथ-साथ आधुनिक आर्य भाषाओं के स्वभाव और उनकी सम्भावनाएँ भी स्पष्ट हो सकें।
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इसके लिए अकादमी में अपभ्रंश भाषा के अध्यापन की समुचित व्यवस्था है। अकादमी में अपभ्रंश सर्टिफिकेट कोर्स और अपभ्रंश डिप्लोमा कोर्स विधिवत् निःशुल्क चलाये जाते हैं।
अपभ्रंश भाषा सरल रूप में सीखी जा सके, इस क्रम में 'अपभ्रंश रचना सौरभ' प्रकाशित की गई। उसी क्रम में 'अपभ्रंश काव्य सौरभ' प्रकाशित है। इसमें अपभ्रंश काव्यों से चयनित अंश, उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ दिये गये हैं। मेरा विश्वास है कि विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों के लिए यह कृति उपयोगी होगी और विद्यार्थी अपभ्रंश भाषा के काव्यों का रसास्वाद कर सकेंगे।
इस पुस्तक के प्रकाशन में अकादमी के विद्वान् एवं मुद्रण के लिए मदरलैण्ड प्रिण्टिंग प्रेस, जयपुर धन्यवादाह हैं।
भट्टारकजी की नसियाँ सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-4
डॉ. कमलचन्द सोगाणी
संयोजक जैनविद्या संस्थान
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प्रस्तावना (प्रथम संस्करण)
अपभ्रंश भारतीय आर्य-परिवार की एक सुसमृद्ध लोकभाषा रही है। इसका प्रकाशित-अप्रकाशित विपुल साहित्य इसके विकास की गौरवमयी गाथा कहने में समर्थ है। स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल, वीर, नयनन्दि, कनकामर, जोइन्दु, रामसिंह, हेमचन्द्र, रइधू आदि अपभ्रंश भाषा के अमर साहित्यकार है। कोई भी देश व संस्कृति इनके आधार से अपना मस्तक ऊँचा रख सकती है। विद्वानों का मत है 'अपभ्रंश ही वह आर्य भाषा है जो ईसा की लगभग सातवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण उत्तर भारत की सामान्य लोक-जीवन के परस्पर भाव-विनिमय और व्यवहार की बोली रही है।
यह निर्विवाद तथ्य है कि अपभ्रंश की कोख से ही सिन्धी, पंजाबी, मराठी, गुजराती, राजस्थानी, बिहारी, उड़िया, बंगला, असमी, पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी आदि आधुनिक भारतीय भाषाओं का जन्म हुआ है। इस तरह से राष्ट्रभाषा का मूल स्रोत होने का गौरव अपभ्रंश भाषा को प्राप्त है। वह कहना युक्तिसंगत है- “अपभ्रंश और हिन्दी का सम्बन्ध अत्यन्त गहरा और सुदृढ़ है, वे एक-दूसरे की पूरक हैं। हिन्दी को ठीक से समझने के लिए अपभ्रंश की जानकारी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।''
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- “हिन्दी साहित्य में (अपभ्रंश की) प्रायः पूरी परम्पराएँ ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं।'' अतः राष्ट्रभाषा हिन्दीसहित आधुनिक भारतीय भाषाओं के सन्दर्भ में यह कहना कि अपभ्रंश का अध्ययन राष्ट्रीय चेतना और एकता का पोषक है, उचित प्रतीत होता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपभ्रंश भाषा को सीखना-समझना 1. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवरसिंह, पृष्ठ 287 2. अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, 1979, पृष्ठ 9
[V]
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अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसी बात को ध्यान में रखकर 'अपभ्रंश रचना सौरभ' प्रकाशित की गई थी। उसी क्रम में 'अपभ्रंश काव्य सौरभ' तैयार की गई है। इसमें अपभ्रंश के विभिन्न ग्रन्थों से काव्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किये गये हैं। परिशिष्ट-1 में कवि-परिचय लिखा गया है तथा परिशिष्ट-2 में काव्यांशों के प्रसंग दे दिये गए हैं। इस तरह से अपभ्रंश भाषा सीखने के साथ-साथ काव्यों का रसास्वादन किया जा सकेगा। आभार -
काव्यांशों एवं उनके व्याकरणिक विश्लेषण से सम्बन्धित पुस्तकों का प्रूफ-संशोधन का कार्य अत्यन्त कठिन होता है। किन्तु मुझे गर्व है कि अपभ्रंश के मेरे विद्यार्थी सुश्री प्रीति जैन, सुश्री सीमा बत्रा एवं सुश्री माया शर्मा ने, जिन्होंने अकादमी की 'अपभ्रंश डिप्लोमा परीक्षा उत्तीर्ण की है और जो अकादमी के प्रकाशन विभाग में कार्यरत हैं, इस कठिन कार्य को सहर्ष और रुचिपूर्वक सम्पन्न किया है, अतः मैं उनका आभारी हूँ। मैं सुश्री प्रीति जैन का विशेषरूप से आभारी हूँ जिन्होंने काव्यों के अनुवाद एवं व्याकरणिक विश्लेषण में महत्त्वपूर्ण सुझाव सुझाए।
मेरी धर्मपत्नी श्रीमती कमलादेवी सोगाणी ने इस पुस्तक को तैयार करने में जो सहयोग दिया है उसके लिए आभार व्यक्त करता हूँ।
इस पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए जैनविद्या संस्थान एवं समिति के पूर्व संयोजक श्री ज्ञानचन्द्र खिन्दूका ने जो व्यवस्था की उसके लिए मैं उनके प्रति आभार प्रकट करता हूँ।
कमलचन्द सोगाणी (सेवानिवृत्त प्रोफेसर, दर्शनशास्त्र)
संयोजक अप्रभंश साहित्य अकादमी, जयपुर जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
(काव्य-अनुवाद)
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पाठ - 1
पउमचरिउ
सन्धि - 22
कोसलणन्दणेण आसाढट्ठमिहिँ
स-कलत्ते णिय-घरु आएं। किउ ण्हवणु जिणिन्दहों राएं।
22.1
सुर-समर-सहासेंहिँ दुम्महेण पट्ठवियइँ जिण-तणु-धोवयाइँ सुप्पहहँ णवर कञ्चुइ ण पत्तु 'कहें काइँ णियम्विणि मणे विसण्ण पणवेप्पिणु वुच्चइ सुप्पहाएँ जइ हउँ जे पाणवल्लहिय देव तहिँ अवसरे कञ्चुइ ढुक्कु पासु गय-दन्तु अयंगमु (?) दण्ड-पाणि
किउ ण्हवणु जिणिन्दहों दसरहेण ॥1॥ देविहिँ दिव्वइँ गन्धोदयाइँ॥2॥ पहु पभणइ रहसुच्छलिय-गत्तु ।।3।। चिर-चित्तिय भित्ति व थिय विवण्ण'॥4॥ 'किर काइँ महु त्तणियएँ कहाएँ।।5। तो गन्ध-सलिलु पावइ ण केम'॥6॥ छण-ससि व णिरन्तर-धवलियासु॥7॥ अणियच्छिय-पहु पक्खलिय-वाणि॥8॥
घत्ता
-
गरहिउ दसरहेंण जलु जिण-वयणु जिह
'पइँ कञ्चुइ काइँ चिराविउ। सुप्पहहें दवत्ति ण पाविउ'।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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-
सन्धि 22
अपने घर पहुँचे हुए कोशलनन्दन ( अयोध्या के (राज) पुत्र राजा राम के द्वारा पत्नी सहित अषाढ़ की अष्टमी के दिन जिनेन्द्र का अभिषेक किया गया।
पाठ - 1
पउमचरिउ
-
(1) देवताओं के साथ हजारों युद्धों में कठिनाई से मारे जानेवाले दशरथ के द्वारा (भी) जिनेन्द्र का अभिषेक किया गया । ( 2 ) ( अभिषेक के पश्चात् ) जिनेश्वर के तन को धोनेवाला दिव्य गन्धोदक ( सुगन्धित जल ) देवियों ( राज - पत्नियों) के लिए (कञ्चुकी के साथ) भेजा गया । ( 3 ) कञ्चुकी केवल (रानी) सुप्रभा के पास नहीं पहुँचा । हर्ष से पुलकित शरीरवाला स्वामी (राजा) कहता है- (4) “हे (सुडोल ) स्त्री ! कहो (तुम) मन में दु:खी क्यों (हो) ? (और) पुरानी चित्रित भीत की तरह स्थिर (और) निस्तेज (क्यों हो ) ? ( 5 ) ( राजा को ) प्रणाम करके सुप्रभा के द्वारा कहा जाता है- हे प्रभु! मेरे सम्बन्ध में चर्चा से क्या (लाभ) ? ( 6 ) हे देव! यदि मैं (सुप्रभा) भी इस प्रकार ( आपके लिए) प्राणों से प्यारी (होती), तो गन्धोदक क्यों नहीं पाती? (7) उसी समय पर कञ्चुकी (जिसका ) मुख शरद (ऋतु) की पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह ( वृद्धावस्था के द्वारा ) निरन्तर सफेद किया गया ( था ) । (8) (जिसका ) दन्त (-समूह) टूट गया (था), (जो) जड़ (था), (जिसके) हाथ में लकड़ी (थी), (जिसके द्वारा) पथ नहीं देखा गया, (जिसकी ) वाणी लड़खड़ाती हुई ( थी) (सुप्रभा के ) पास पहुँचा ।
22.1
घत्ता
दशरथ के द्वारा (कञ्चुकी) निन्दा किया गया ( और कहा गया कि ) हे कञ्चुकी! तुम्हारे द्वारा देर क्यों की गई ? ( जिससे) सुप्रभा के द्वारा जिन-वचन के सदृश गन्धोदक शीघ्र नहीं पाया गया ।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
3
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22.2
पणवेप्पिणु तेण वि वुत्तु एम पढमाउसु जर धवलन्ति आय गइ तुट्टिय विहडिय सन्धि-वन्ध सिरु कम्पइ मुहें पक्खलइ वाय परिगलिउ रुहिरु थिउ णवर चम्मु गिरि-णइ-पवाह ण वहन्ति पाय वयणेण तेण किउ पहु-वियप्पु 'सच्चउ चलु जीविउ कवणु सोक्खु
'गय दियहा जोव्वणु ल्हसिउ देव॥1॥ पुणु असइ व सीस-वलग्ग जाय ॥2॥ ण सुणन्ति कण्ण लोयण णिरन्ध ॥3॥ गय दन्त सरीरहों णट्ठ छाय॥4॥ महु एत्थु जे हुउ णं अवरु जम्मु॥5॥ गन्धोवउ पावउ केम राय'॥6॥ गउ परम-विसायों राम-वप्पु॥7॥ तं किज्जइ सिज्झइ जेण मोक्खु॥8॥
घत्ता -
सुहु महु-विन्दु-समु वरि तं कम्मु किउ
दुहु मेरु-सरिसु पवियम्भइ। जं पउ अजरामरु लब्भइ॥
22.3
कं दिवसु वि होसइ आरिसाहुँ को हउँ का महि कहों तणउ दव्वु जोव्वणु सरीरु जीविउ धिगत्थु विसु विसय बन्धु दिढ-वन्धणाइँ सुय सत्तु विढत्तउ अवहरन्ति
कञ्चुइ-अवत्थ अम्हारिसाहुँ।1।। सिंहासणु छत्तइँ अथिरु सव्वु।।2।। संसारु असारु अणत्थु अत्थु ॥3॥ घर दारइँ परिहव-कारणाइँ।।4।। जर-मरणहँ किङ्कर किं करन्ति ॥5॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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22.2
(1) (राजा को) प्रणाम करके, उसके द्वारा भी इस प्रकार कहा गया - हे देव! (मेरे) दिन चले गये, यौवन खिसक गया, (2) बुढ़ापा प्रारम्भिक आयु (युवावस्था) को सफेद करता हुआ आ गया, और कुलटा (स्त्री) की तरह सिर पर चढ़ा हुआ विद्यमान है। (3) गति टूट गई (है), हड्डियों के जोड़ों के बन्धन खुल गये (हैं), कान सुनते नहीं (हैं), आँखें बिल्कुल अन्धी (हैं)। (4) सिर हिलता है, मुख में वाणी लड़खड़ाती है। दाँत टूट गये (हैं), शरीर की कान्ति नष्ट हो चुकी (है)। (5) खून क्षीण हो चुका (है), केवल चमड़ी रह गई (है), मानो मेरा यहाँ दूसरा ही जन्म हुआ (है)। (6) (इसलिए) पैर पर्वतीय नदी के (समान) प्रवाह को धारण नहीं करते हैं, (तो) हे राजा (वह रानी) (उस) गन्धोदक को किस प्रकार पावे। (7) (कञ्चुकी के) उस कथन से राजा (दशरथ) के द्वारा (मन में) विचार किया गया (और वे) राम के पिता (दशरथ) अत्यन्त दुःख को प्राप्त हुए। (8) (उन्होंने सोचा) (यह) सत्य (है) (कि) जीवन चंचल (है), (तो फिर) वह कौनसा सुख (है), (जो) अनुभव किया जाता है, जिससे मोक्ष (शाश्वत पद) सिद्ध होता है।
घत्ता - (इन्द्रिय-) सुख मधु की बिन्दु के समान (होता है), दुःख मेरु-पर्वत के समान लगता (दिखता) है। किया हुआ वह (ही) कर्म अच्छा (होता है), जिससे अजर-अमर पद प्राप्त किया जाता है।
22.3
(1) किसी दिन हम जैसों की (अवस्था) ऐसे (लोगों) के (समान) ही होगी, . (जैसी) कञ्चुकी की अवस्था (है)। (2) (इस पर राजा के द्वारा विचार किया गया कि) मैं कौन (हूँ)? किसकी पृथ्वी (है)? किसका धन (है)? सिंहासन (और) छत्र सभी अस्थिर (हैं)। (3) यौवन, शरीर, धन (और) (चल रहे) जीवन को धिक्कार (है)। संसार असार (है), धन हानिकारक (होता है)। (4) (इन्द्रिय-) विषय विष (हैं), बन्धु कठोर बन्धन (हैं), घर और पत्नी दुःख देने के कारण (बन जाते हैं)। (5) सुत (पुत्र) शत्रु (हो जाते हैं), (वे) उपार्जित (धन) को छीन लेते हैं। बुढ़ापे और मरण के अवसर पर नौकर-चाकर क्या करते हैं? (6) जीव की आयु हवा
अपभ्रंश काव्य सौरभ
5
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जीवाउ वाउ हय हय वराय तणु तणु जें खणखें खयहों जाइ दुहिया वि दुहिय माया वि माय
सन्दण सन्दण गय गय जें णाय॥6॥ धणु धणु जि गुणेण वि वकु थाइ॥7॥ सम-भाउ लेन्ति किर तेण भाय॥8॥
घत्ता
-
आयइँ अवरइ मि अप्पुणु तउ करमि'
सव्वइँ राहवहाँ समप्पेंवि। थिउ दसरहु एम वियप्पेंवि॥
22.7
घत्ता
-
दसरहु अण्ण-दिणे केक्कय ताव मणे
किर रामहो रज्जु समप्पइ। उण्हालएँ धरणि व तप्पड़॥
22.8
णरिन्दस्स सोऊण पव्वज्ज-यज्जं ससा दोणरायस्स भग्गाणुराया गया केक्कया जत्थ अत्थाण-मग्गो वरो मग्गिओ ‘णाह सो एस कालो 'पिए होउ एवं' तओ सावलेवो
स-रामाहिरामस्स रामस्स रज्जं॥1॥ तुलाकोडि-कन्ती-लयालिद्ध-पाया॥2॥ णरिन्दो सुरिन्दो व पीढं वलग्गो॥6॥ महं णन्दणो ठाउ रज्जाणुपालो'॥7॥ समायारिओ लक्खणो रामएवो॥8॥
घत्ता -
'जइ तुहुँ पुत्तु महु छत्तइँ वइसणउ
तो एत्तिउ पेसणु किज्जइ। वसुमइ भरहहों अप्पिज्जई॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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(की तरह) (चंचल) (होती है), (देखो) बेचारे घोड़े (युद्ध में) मारे गये (हैं)। रथ टूटनेवाले (होते हैं), मरे हुए (व्यक्ति) (सदा के लिये) ही गये, (वे) (कभी) नहीं लौटे। (7) शरीर तृण (के समान) ही (होता है), (वह) आधे क्षण में क्षय को प्राप्त होता है। धन धनुष (के समान) (होता है), (जो) प्रत्यञ्चा (रूपी दुर्गुण) से बाँका रहता है। (8) पुत्री दुःखी करनेवाली (होती) है, माता मोह-जाल (होती है), चूँकि (भाई) (सम्पत्ति में) समान हिस्सा लेते हैं, इसलिये (ही) (वे) भाई (हैं)।
घत्ता - इनको (और) दूसरे सबको भी राम को देकर (मैं) स्वयं तप करूँगा। इस प्रकार विचार करके दशरथ स्थिर हुए।
22.7
___ घत्ता - दशरथ दूसरे दिन (जब) राम को राज्य दे देते हैं, तक केकय देश के राजा की कन्या (कैकयी) मन में, (तपती है, दुःखी होती है), जैसे ग्रीष्मकाल में धरती तपती है।
22.8
(1) राजा दशरथ के संन्यास-विधान को और पत्नीसहित आकर्षक (लगनेवाले) राम के लिए राज्य (देने) को सुनकर, (2) द्रोण राजा की बहिन (कैकयी), (जिसका) (राम के प्रति) स्नेह टूट गया (था), (जिसके) पैर लता-रूपी नूपुरों से लिपटे हुए और कान्तिसहित (थे), (6) कैकेयी (उस ओर) गई, जहाँ (राज) सभास्थान का पथ (था) (और) (सभास्थान में) इन्द्र की तरह राजा (दशरथ) आसन पर स्थित (थे)। (7) वहाँ पहुँचने पर उसने कहा -) हे नाथ! यह वह समय (है) (जब) माँगा हुआ वर (पूरा किया जाना चाहिये) (उसने कहा) मेरा पुत्र (भरत) राज्य का पालनकर्ता रहे। (8) हे प्रिये! इसी प्रकार होवे। तब गुणवान श्रीराम गर्व से बुलाए गए।
घत्ता - यदि तुम मेरे पुत्र (हो), तो इतनी आज्ञा पालन की जाए (कि) छत्र, आसन (सिंहासन) और पृथ्वी भरत के लिए दे दी जाए।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #19
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23.3
चिन्तावण्णु णराहिउ जाहिँ दुम्मणु एन्तु णिहालिउ मायएँ 'दिवें दिवें चडहि तुरङ्गम-णाऍहिँ दिवें दिवें वन्दिण-विन्देहिँ थुव्वहि दिवें दिवें धुव्वहि चमर-सहासेंहिँ दिवें दिवें लोयहिँ वुच्चहि राणउ तं णिसुणेवि वलेण पजम्पिउ . जामि माएँ दिढ हियवएँ होज्जहि
वलु णिय-णिलउ पराइउ ताहिँ॥1॥ पुणु विहसेवि वुत्तु पिय-वायएँ॥2॥ अज्जु काइँ अणुवाहणु पाऍहिँ॥3॥
अज्जु काइँ थुन्वन्तु ण सुव्वहि॥4॥ . अज्जु काइँ तउ को वि ण पार्सेहिँ।।5।।
अज्जु काइँ दीसहि विदाणउ'॥6॥ 'भरहहों सयलु वि रज्जु समप्पिउ॥7॥ जं दुम्मिय तं सव्वु खमेज्जहि॥8॥
घत्ता
जे आउच्छिय माय अपराइय महएवि
"हा हा पुत्त' भणन्ती। महियले पडिय रुयन्ती॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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23.3
(1) जब नराधिप (दशरथ) चिन्ता में डूबे हुए (थे), तब (ही) बलदेव (राम) निज भवन को गए। (2) माता के द्वारा आता हुआ उदास मनवाला (राम) देखा गया। फिर भी (माता के द्वारा) हँसकर प्रियवाणी से कहा गया- (3) प्रतिदिन (तुम) घोड़े और हाथी पर चढ़ते थे, आज बिना जूतों के (नँगे) पैरों से कैसे? (4) प्रतिदिन (तुम) स्तुति-गायकों के समूहों द्वारा स्तुति किए जाते थे, आज स्तुति किए जाते हुए कैसे नहीं सुने जाते हो? (5) प्रतिदिन (तुम) हजारों चँवरों से पंखा किए जाते थे, आज तुम्हारे आस-पास में कोई भी क्यों नहीं है? (6) प्रतिदिन तुम लोगों के द्वारा राणा (छोटे राजा) कहे जाते थे, आज (तुम) निस्तेज क्यों दिखाई देते हो? (7) उसको सुनकर बलदेव (राम) के द्वारा कहा गया- भरत को सम्पूर्ण राज्य ही दे दिया गया है। (8) हे माँ! (मैं) जाता हूँ, (तुम) मन की अवस्था में दृढ़ रहना, जो (मेरे द्वारा) कष्ट पहुँचाया गया (है), उस सबको (तुम) क्षमा करना।
घत्ता - जिस तरह से माता पूछी गई (उसके परिणामस्वरूप) हाय पुत्र! कहती हुई (वह) महादेवी अपराजिता धरती पर रोती हुई गिर पड़ी।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ - 2
पउमचरिउ
सन्धि
- 24
गएँ वण-वासहों रामें उज्झ ण चित्तहों भावइ। थिय णीसास मुअन्ति महि उण्हालएँ णावइ॥
24.1
सयलु वि जणु उम्माहिज्जन्तउ उव्वेल्लिज्जइ गिज्जइ लक्खणु सुइ-सिद्धन्त-पुराणेहिँ लक्खणु अण्णु वि जं जं किं पि स-लक्खणु का वि णारि सारङ्गि व वुण्णी का वि णारि जं लेइ पसाहणु का वि णारि जं परिहइ कङ्कणु का वि णारि जं जोयइ दप्पणु तो एत्थन्तरें पाणिय-हारिउ 'सो पल्लङ्कु तं जें उवहाणउ
खणु वि ण थक्कइ णामु लयन्तउ॥1॥ मुरव-वजें वाइज्जइ लक्खणु॥2॥ ओङ्कारेण पढिज्जइ लक्खणु॥3॥ लक्खण-णामें वुच्चइ लक्खणु॥4॥ वड्डी धाह मुएवि परुण्णी॥5॥ तं उल्हावइ जाणइ लक्खणु॥6॥ धरइ सु-गाढउ जाणइ लक्खणु॥7॥ अण्णुण पेक्खइ मेल्लेंवि लक्खणु॥8॥ पुरे वोल्लन्ति परोप्परु णारिउ॥9॥ सेज्ज वि स ज्जें तं जें पच्छाणउ॥10॥
घत्ता -
तं धरु रयणइँ ताइँ तं चित्तयम्मु स-लक्खणु। णवर ण दीसइ माएँ रामु ससीय-सलक्खणु'।
10
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ -2
पउमचरिउ
सन्धि - 24
राम के वनवास (चले) जाने पर अयोध्या चित्त को अच्छी नहीं लगती है, जैसे ग्रीष्मकाल में स्थित पृथ्वी (गर्म) श्वांस छोड़ती हुई (चित्त को अच्छी नहीं लगती है)।
24.1
(1) समस्त जन (-समूह) वियोग में व्याकुल किया जाता हुआ भी नाम लेता हुआ (एक) क्षण भी नहीं थकता है। (2) लक्ष्मण (का नाम) उछाला जाता है, गाया जाता है, लक्ष्मण मृदंगवाद्य में बजाया जाता है। (3) श्रुति सिद्धान्त और पुराणों द्वारा लक्षण (समझा जाता है), ओंकार से लक्ष्मण (व्याकरणशास्त्र) पढ़ा जाता है। (4) अन्य जो-जो कुछ भी लक्षण-सहित है, (वह) लक्ष्मण नाम से लक्षण कहा जाता है। (5) कोई नारी हरिणी के समान दु:खी हुई (और) बड़ी चिल्लाहट निकालकर रोई। (6) कोई नारी जिस आभूषण को पहनती है, (वह) उसको लक्ष्मण समझती है (जो) (उसे) शान्ति देता है। (7) कोई नारी जिस (भी) कंगन को पहनती है, (वह) (उसको) खूब गाढ़ा धारण करती है, (वह) (उसको) लक्ष्मण समझती है। (8) कोई नारी जिस (भी) दर्पण को देखती है, उसमें लक्ष्मण को छोड़कर अन्य को नहीं देखती है। (9) तब इसी बीच में पनिहारिने नगर में नारियों को आपस में कहती हैं- (10) वह ही पलंग, वह ही तकिया, शय्या भी वह ही (और) वह ही ढकनेवाली (चादर) है।
घत्ता - वह (ही) घर, वे (ही) रत्न, लक्ष्मण-सहित वह (ही) चित्र (छवि) (किन्तु) हे माँ! केवल सीतारहित और लक्ष्मणसहित राम नहीं देखे जाते हैं।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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24.3
जं णीसरिउ राउ आणन्दें "हउ मि देव पइँ सहुँ पव्वज्जमि । रज्जु असारु वारु संसारहों रज्जु भयङ्करु इह-पर-लोयहाँ रज्जे होउ होउ महु सरियउ । रज्जु अकज्जु कहिउ मुणि-छेयहिँ दोसवन्तु मयलञ्छण-विम्वु व तो वि जीउ पुणु रज्जहों कइ
वुत्तु णवेप्पिणु भरह-णरिन्दें॥1॥ दुग्गइ-गामिउ रज्जु ण भुञ्जमि ।।2।। रज्जु खणेण णेइ तम्वारहों॥3॥ रज्जे गम्मइ णिच्च-णिगोयहों॥4॥ सुन्दरु तो किं पइँ परिहरियउ॥5॥ दुट्ठ-कलत्तु व भुत्तु अणेयहिँ।।6। बहु-दुक्खाउरु दुग्ग-कुडुम्वु व॥7॥ अणुदिणु आउ गलन्तु ण लक्खइ॥8॥
घत्ता
-
जिह महुविन्दुहें कज्जें करहु ण पेक्खइ कक्करु। तिह जिउ विसयासत्तु रज्जें गउ सय-सक्करु॥9॥
24.4
भरहु चवन्तु णिवारिउ राएं अज्ज वि रज्जु करहि सुहु भुजहि अज्ज वि तुहुँ तम्बोलु समाणहि अज्जु वि अंगुस-इच्छऍ मण्डहि अज्ज वि जोग्गउ सव्वाहरणों जिण-पव्वज्ज होइ अइ-दुसहिय कें जिय चउ-कसाय-रिउ दुज्जय के किउ पञ्चहुँ विसयहुँ णिग्गहु
'अज्ज वि तुज्झु काइँ तव-वाएं॥1॥ अज्ज वि विसय-सुक्खुअणुहुजहि॥2॥ अज्ज वि वर-उज्जाणइँ माणहि॥3॥ अज्ज वि वर-विलयउ अवरुण्डहि॥4॥ अज्ज वि कवणु कालु तव-चरणहों।।5।। के वावीस परीसह विसहिय॥6॥ कें आयामिय पञ्च महव्वय॥7॥ के परिसेसिउ सयलु परिग्गहु॥8॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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I
(1) जब राम हर्ष से निकला (तो) भरत राजा के द्वारा प्रणाम करके कहा गया- (2) हे देव! मैं भी तुम्हारे साथ संन्यास लूँगा । दुर्गति देनेवाले राज्य को नहीं भोगूँगा । ( 3 ) राज्य असार ( है ), संसार का द्वार ( है ), राज्य क्षणभर में विनाश को पहुँचा देता है। (4) राज्य इस (लोक में ) और परलोक में दुःख - जनक ( होता है ) । ( मनुष्य के द्वारा ) राज्य से नित्य - निगोद के लिए जाया जाता है । (5) राज्य के द्वारा मधु के समान रुचिकर हुआ गया ( है ) तो ( यह ऐसा ) होवे । ( किन्तु ) (फिर) तुम्हारे द्वारा ( राज्य ) क्यों छोड़ दिया गया ? ( 6 ) निर्मल मुनियों द्वारा राज्य नहीं करने योग्य कहा गया ( है ) ( वह) अनेक के द्वारा अनुभव किया गया ( है ) जैसे दुष्ट स्त्री ( अनेक ) ( पुरुषों द्वारा ) | ( 7 ) ( वह राज्य ) दोषवाला (होता है) जैसे चन्द्रमा का बिम्ब, (वह) बहुत दुःखों से पीड़ित (होता है) जैसे दरिद्र कुटुम्ब । ( 8 ) ( आश्चर्य है कि) तो भी जीव राज्य की / के लिए इच्छा करता है । प्रतिदिन गलती हुई आयु को नहीं देखता है।
24.3
घत्ता
जिस प्रकार जल की बूँद के प्रयोजन से ऊँट कंकर को नहीं देखता है, उसी प्रकार विषय में आसक्त जीव ने राज्य से अत्यधिक आदर-सत्कार पाया है (इसलिये ) ( वह) ( उससे प्राप्त दुःखों को नहीं देखता है ) ।
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24.4
(1) राजा के द्वारा बोलता हुआ भरत रोका गया । ( राजा ने कहा ) आज ही तेरे लिए तप की बात से क्या (लाभ) ? (2) आज ही राज्य कर ( और उसके ) सुख का अनुभव कर । आज ही विषयसुख को भोग । ( 3 ) आज ही तू पान का उपभोग कर। आज ही (तू) श्रेष्ठ उद्यानों को मान । (4) आज ही (तू) शरीर को स्व-इच्छा से सजा (और) आज ही श्रेष्ठ स्त्रियों का आलिंगन कर । (5) आज भी (तू) सभी अलंकार के योग्य ( है ) । आज ही तप के आचरण का कौनसा समय ( है ) ? ( 6 ) जिन - प्रव्रज्या बहुत असह्य होती है । किसके द्वारा बाईस परीषह सहन किए गए ( हैं ) ? (7) किसके द्वारा दुर्जेय चारों कषायोंरूपी शत्रु जीते गये ( हैं ), किसके द्वारा पंच महाव्रत ग्रहण किए गए ( हैं ) ? (8) किसके द्वारा पाँचों विषयों का
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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को दुम-मूलें वसिउ वरिसालऍ कें उण्हालऍ किउ अत्तावणु
घत्ता
घत्ता
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तं णिसुणेवि भरहु आरुट्ठउ 'विरुयउ ताव वयुण पइँ वुत्तउ किं वालत्तणु सुहिं ण मुच्चइ किं वालहों पव्वज्ज म होओ किं वालों सम्मत्तु म होओ किं वालों जर-मरणु ण दुक्कइ तं णिसुणेवि भरहु णिब्भच्छिउ एवहिँ सयलु वि रज्जु करेवउ
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-
को एक्कंगें थिउ सीयालऍ ॥ 9 ॥ ऍउ तव चरणु होइ भीसावणु ॥10॥
भरह म वड्ढि वोल्लि तुहुँ सो अज्ज वि वालु । भुञ्जहि विसय- सुहाइँ को पव्वज्जहॅ कालु' ॥11॥
24.5
मत्त- गइन्दु व चित्तें दुट्ठउ ॥1॥ किं बालों तव चरणु ण जुत्तउ ॥2॥ किं वालों दय- धम्मु ण रुच्चइ || 3 || किं वालों दूसिउ पर - लोओ ॥4॥ किं वालों उ इट्ठ - विओओ ॥5॥ किं वालों जमु दिवसु वि चुक्कई' ॥6॥ 'तो किं पहिलउ पट्टु पडिच्छिउ ॥7॥ पच्छलें पुणु तव चरणु चरेवउ ' ॥8 ॥
एम भणेपिणु राउ सच्चु समप्र्ष्णेवि भज्जहॅ। भरहहों वन्धे॑वि पट्टु दसरहु गउ पव्वज्जर्हे ॥ 9 ॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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निग्रह किया गया (है)? किसके द्वारा सकल परिग्रह समाप्त किया गया (है)? (9) कौन वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बसा (है)? कौन शीतकाल में केवलमात्र शरीर से रहा (है)? (10) किसके द्वारा ग्रीष्मकाल में शरीर का तपन किया गया (है)? यह तप का आचरण भीषण होता है।
___घत्ता - हे भरत! तू बढ़कर मत बोल। (तू) आज भी वह (ही) बालक (है)। विषयसुखों को भोग। (यह) प्रव्रज्या का कौनसा काल (है)?
24.5
__(1) उसको सुनकर भरत क्रुद्ध (रुष्ट) हुआ। मस्त हाथी की तरह चित्त में दुःखी हुआ। (2) (भरत ने कहा कि हे पिता) तब आपके द्वारा प्रतिकूल (विरोधी) वचन कहे गए। क्या बालक के लिए तप का आचरण उचित (युक्त) नहीं है? (3) क्या बालपन सुखों के द्वारा नहीं ठगा जाता है? क्या बालक के लिए दया एवं धर्म रुचिकर नहीं होता है? (4) क्या बालक के लिए प्रव्रज्या नहीं हुई? क्या बालक का परलोक दूषित (नहीं) (होता)? (5) क्या बालक के लिए सम्यक्त्व नहीं हुआ? क्या बालक के लिए इष्ट वियोग नहीं (हुआ)? (6) क्या बालक के लिए जरामरण नहीं आता है? क्या बालक के लिए यमराज दिन भूल जाता है? (7) उसको सुनकर (राजा के द्वारा) भरत झिड़का गया (कि) तब (तुम्हारे द्वारा) पहले राजपट्ट (सिंहासन) क्यों स्वीकार किया गया? (8) इस समय (तो) (तुम्हारे द्वारा) सम्पूर्ण राज ही किया जाना चाहिये (और) (जीवन के) पिछले भाग में फिर तप का आचरण किया जाना चाहिये।
___ घत्ता - इस प्रकार कहकर पत्नी के वचन को पूरा करके (और) भरत को
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता
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पाठ 3
पउमचरिउ
सन्धि
तो तिणि वि एम चवन्ताइँ दिण पच्छिम - पहरें विणिग्गयाइँ वित्थिष्णु रण्णु पइसन्ति जाव गुरु वेसु करेंवि सुन्दर-सराइँ वुक्कण-किसलय कक्का रवन्ति वण - कुक्कुड कुक्कू आयरन्ति पियमाहवियर को - क्कउ लवन्ति सो तरुवरु गुरु- गणहर- समाणु
-
27
वरि पहरिउ वरि किउ तवचरणु वरि विसु हालाहलु वरि मरणु । वरि अच्छिउ गम्पिणु गुहिल - वर्णे णवि णिविसु वि णिवसिउ अवुहयर्णे ' ॥ 9 ॥
27.14
27.15
उम्माहउ
जहाँ जणन्ताइँ ॥ 1 ॥ कुञ्जर इव विउल - वणहो गयाइँ ॥ 2 ॥ गोहु महादुमुदि ताव ॥3॥ णं विहय पढावइ अक्खराइँ ॥ 4 ॥ वाउलि-विहङ्ग कि- क्की भणन्ति ॥5॥ अणुवि लावि - क्कइ चवन्ति ॥6॥ कंका वप्पीह समुल्लवन्ति ॥ 7 ॥ फल-पत्त-वन्तु अक्खर - णिहाणु ॥ 8 ॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
--
पउमचरिउ
3
सन्धि - 27
27.14
घत्ता
-
( व्यक्तियों के द्वारा ) ( यदि ) प्रहार किया गया ( है ), (तो) अधिक अच्छा (है), (यदि) तप का आचरण किया गया ( है ), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), (यदि) हालाहल विष ( पिया गया है), (तो) (भी) अधिक अच्छा (है), मरना (भी) अधिक अच्छा (है), गहन वन में जाकर टिके हुए ( होना) (भी) अधिक अच्छा (है), किन्तु पल भर ( भी ) मूर्ख - जन में ठहरे हुए ( रहना) (अच्छा ) नहीं ( है ) ।
27.15
(1 ) तब तीनों ही (राम, लक्ष्मण व सीता ) ( उस) जन ( - समूह ) में अतिपीड़ा को उत्पन्न करते हुए (और) इस ( उपर्युक्त ) प्रकार से कहते हुए ( 2 ) दिन के अन्तिम प्रहर में बाहर निकल गए (और) हाथी की तरह (वे) घने वन को चले गये । (3) ज्यों ही विशाल वन में प्रवेश करते हुए (वे) (आगे बढ़े), त्यों ही ( उनके द्वारा) बरगद - महावृक्ष देखा गया । ( 4 ) ( वह वृक्ष ऐसा था ) मानो शिक्षक के रूप को धारण करके पक्षियों को सुन्दर स्वर व अक्षर पढ़ाता हो । (5) कौए नए कोमल पत्तों (वाली टहमी) पर (बैठे हुए) क - क्का, क- क्का बोलते थे (और) बाउलि पक्षी कि क्की, कि- क्की कहते थे। (6) जलमुर्गे कुक्कू, कुक्कू कहते थे, और भी मोर के - क्कई, - क्ई बोलते थे। (7) कोयलें को - क्कऊ, को- क्कऊ बोलती थीं (तथा) पपीहे कंका, कंका बोलते थे । ( 8 ) ( इस तरह से ) वह श्रेष्ठ वृक्ष फल - - पत्तों वाला था (और) गुरु गणधर के समान अक्षरों का भण्डार ( था ) ।
1
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घत्ता
-
घत्ता
पसरइ मेह - विन्दु गयणङ्गर्णे पसरइ जेम तिमिरु अण्णाणहों पसरइ जेम पाउ पाविट्ठहों पसरइ जेम जोण्ह मयवाहहो पसरइ जेम चिन्त धण - हीणहों पसरइ जेम सदु सुर-तूरहों पसरइ जेम दवग्गि वणन्तरें तडि तडयड पडइ धणु गज्जइ
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पइसन्तेहिं असुर - विमद्दर्णेहिँ सिरु णार्मेवि राम-जणद्दर्णेहिं । परिअञ्चेंवि दुमु दसरह - सुऍहिँ अहिणन्दिउ मुणि व सई भु ऍहिँ ॥ 9 ॥
सीस - लक्खणु दासरहि तरुवर - मूले परिट्ठिय जावेंहिँ । पसरइ सु-कइहें कव्वु जिह मेह-जालु गयणङ्गर्णे तावेंहिँ ॥
-
सन्धि
-
28
28.1
पसरइ जेम सेण्णु समरङ्गर्णे ॥1 ॥ पसरइ जेम वुद्धि वहु - जाणहों ॥ 2 ॥ पसरइ जेम धम्मु पसरइ जेम कित्ति पसरइ जेम कित्ति पसरइ जेम रासि - हॅ पसरड़ मेह-जालु तिह जा राम सरणु
धम्मिट्ठों ॥3॥ जगणाहों ॥ 4 ॥ सुकुलीणहों ॥ 5 ॥ सूरहों ॥ 6 ॥ अम्वरें ॥ 7 ॥ पवज्जइ ॥ 8 ॥
अमर- महाधणु-गहिय- - करु मेह - गइन्हें चर्डेवि जस - लुद्धउ | उप्पर गिम्भ - णराहिवहाँ पाउस - राउ णाइँ सण्णद्धउ ॥ १ ॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता - असुरों का नाश करनेवाले दशरथ के पुत्र, राम-लक्ष्मण द्वारा (वन में) प्रवेश करते ही सिर को नमाकर (बरगद का) वृक्ष मुनि की तरह (नमन किया गया) और (उसकी) परिक्रमा करके (उनके द्वारा) अपनी भुजाओं से (भी) अभिनन्दन किया गया।
सन्धि
- 28
ज्यों ही (दशरथ-पुत्र) राम सीता (और) लक्ष्मण के साथ (उस) श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग में बैठे, त्योंही सुकवि के काव्य की भाँति बादलों के सघन-समूह आकाश के आँगन में (चारों ओर) फैल गए।
28.1
(1) जिस प्रकार युद्ध के क्षेत्र में सेना फैलती है (और) आकाश के क्षेत्र में जलकणों का समूह फैलता है। (2) जिस प्रकार अज्ञान (-रूपी अँधेरी रात) का अन्धकार फैलता है, जिस प्रकार बहुत प्रकार का ज्ञान रखनेवाले की बुद्धि फैलती है (मजबूत होती है)। (3) जिस प्रकार अत्यन्त पापी का पाप फैलता है, जिस प्रकार अत्यन्त धार्मिक का धर्म फैलता है। (4) जिस प्रकार मृग को धारण करनेवाले (चन्द्रमा) का प्रकाश फैलता है, जिस प्रकार जिनदेव की महिमा फैलती है। (5) जिस प्रकार धन से रहित (व्यक्ति) की चिन्ता उभरती है, जिस प्रकार अत्यधिक शालीन का यश फैलता है। (6) जिस प्रकार देवों की तुरही का शब्द फैलता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणें आकाश में फैलती हैं। (7) जिस प्रकार दावाग्नि (जंगल की आग) जंगल के अन्दर फैलती है, उसी प्रकार बादलों का समूह आकाश में फैला है। (8) बादल (समूह) गरजा (और) बिजली ने तड-तड किया (और) (पृथ्वी पर) पड़ी, (मानो) (वह) जानकी (और) राम की शरण में गई हो।
घत्ता - (सारा दृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था) मानो पावन (वर्षा ऋतु का) राजा (जो) यश का इच्छुक (है), (जिसका) हाथ इन्द्रधनुष को पकड़े हुए (है),
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28.2
जं पाउस-णरिन्दु गलगज्जिउ गम्पिणु मेह-विन्दें आलग्गउ जं विवरम्मुह चलिउ विसालउ धगधगधगधगन्तु उद्धाइउ जलजलजलजलजल पचलन्तउ धूमावलि-धयदण्डुब्र्भेप्पिणु झडझडझडझडन्तु पहरन्तउ मेह-महागय-घड विहडन्तउ
धूली-रउ गिम्भेण विसज्जिउ॥1॥ तडि-करवाल-पहारेंहिँ भग्गउ॥2॥ उट्ठिउ ‘हणु' भणन्तु उण्हालउ॥3॥ हसहसहसहसन्तु संपाइउ॥4॥ जालावलि-फुलिङ्ग मेल्लन्तउ॥३॥ वर-वाउल्लि-खग्गु कड्ढेप्पिणु॥6॥ तरुवर-रिउ-भड-थड भज्जन्तउ॥7॥ जं उण्हालउ दिट्ठ भिडन्तउ॥8॥
घत्ता -
धणु अप्फालिउ पाउसेण तडि-टङ्कार-फार दरिसन्ते । चोऍवि जलहर-हत्थि-हड णीर-सरासणि मुक्क तुरन्ते॥७॥
28.3
जल-वाणसणि-घायहिँ धाइउ ददुर रडेवि लग्ग णं सज्जण णं पूरन्ति सरिउ अक्कन्दें णं परहुय विमुक्क उग्रोसें णं सरवर वहु-अंसु-जलोल्लिय णं उण्हविअ दवग्गि विओएं
गिम्भ-णराहिउ रणे विणिवाइउ॥1॥ णं णच्चन्ति मोर खल दुज्जण ॥2॥ णं कई किलिकिलन्ति आणन्दें॥3॥ णं वरहिण लवन्ति परिओसें॥4॥ णं गिरिवर हरिसें गजोल्लिय॥5॥ णं णच्चिय महि विविह-विणोएं॥6॥
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(वह) मेघरूपी हाथी पर चढ़कर ग्रीष्म-राजा के ऊपर आक्रमण के लिए तैयार (हो)।
28.2
(1) जब पावस (वर्षा-ऋतु का) राजा गरजा, (तो) ग्रीष्म द्वारा धूल-वेग (आँधी) भेजा गया। (2) (वह) (धूल) मेघ-समूह से जाकर चिपक गई, (फिर) बिजलीरूपी तलवार के प्रहारों से (वह) (धूल) छिन्न-भिन्न कर दी गई। (3) (इसके परिणामस्वरूप) जब (धूल) विमुख चली (तो) भयंकर ग्रीष्म ऋतु (पावस राजा को) 'मारो' कहती हुई उठी। (4) (और) खूब जलती हुई ऊँची दौड़ी (तथा) उत्तेजित होती हुई (पावस राजा की ओर) प्रवृत्त हुई। (5) और (उस ओर) कूच करती हुई तेजी से जली, (तब) (ऊष्ण) लपट की शृंखला से चिनगारियों को छोड़ते हुए (आगे चली)। (6) (और) जब ऊष्ण ऋतु धूम की श्रृंखला के ध्वजदण्डों को ऊँचा करके, तूफानरूपी श्रेष्ठ तलवार को खींचकर, (7) झपट मारते हुए (और) प्रहार करते हुए, श्रेष्ठ वृक्षोंरूपी शत्रु के योद्धा-समूह को नष्ट करते हुए, (8) मेघरूपी महा-हाथियों की टोली को खण्डित करते हुए (पावस राजा से) भिड़ती हुई दिखाई
दी।
___घत्ता - बिजली की टंकार और चमक दिखाते हुए पावस के द्वारा धनुष ताना गया (और) बादलरूपी हाथीघटा को प्रेरित करके (उसके द्वारा) जलरूपी तीर तुरन्त छोड़े गए।
28.3
(1) जलरूपी तीरों के प्रहारों से चोट पहुँचाया हुआ ग्रीष्म राजा युद्ध में (मारकर) (नीचे) गिरा दिया गया। (2) इसलिये मेंढक सज्जनों की तरह रोने लगे (और) शरारती मोर दुष्टों की तरह नाचे। (3) (ऐसा प्रतीत हो रहा था) मानो रोने के कारण नदियों ने (अपने को) (आँसूरूपी जल से) भरा हो
... अपभ्रंश काव्य सौरभ
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णं अत्थमिउ दिवायरु दुक्खें रत्त-पत्त तरु पवणाकम्पिय
णं पइसरइ रयणि सइँ सुक्खें॥7॥ 'केण वि बहिउ गिम्भु णं जम्पिय॥8॥
घत्ता
-
तेहएँ कालें भयाउरएँ वेण्णि मि वासुएव-वलएव। तरुवर-मूलें स-सीय थिय जोगु लएविणु मुणिवर जेम॥9॥
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(और) मानो (वर्षा से प्राप्त) आनन्द से कवि प्रसन्न हुए हों। (4) मानो कोयलें ऊँची आवाज में (बोलने के लिए) स्वतन्त्र की गई (हों) और मानो मोर सन्तोष से बोले हों। (5) मानो बड़े तालाब विपुल आँसूरूपी जल से भरे हए (हों और) मानो बड़े पर्वत हर्ष से पुलकित हो। (6) मानो तप्त दावाग्नि के वियोग से धरती विविध विनोद के कारण नाची (हो)। (7) मानो दु:ख के कारण सूर्य अस्त हुआ हो (और) मानो सुख के कारण रात स्वयं व्याप्त हो गई हो। (8) वृक्ष के पत्ते सुहावने हुए (और) पवन से हिले-डुले, मानो (उनके द्वारा) (यह) बोला गया (है) (कि) ग्रीष्म किसके द्वारा मारा गया।
घत्ता - उस जैसे भयातुर समय में दोनों ही राम और लक्ष्मण सीतासहित (उस) (बड़े) वृक्ष के नीचे के भाग में योग-ग्रहण करके महामुनि की भाँति बैठ .. गये।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ - 4
पउमचरिउ
सन्धि
- 76
76.3
रुअइ विहीसुण सोयक्कमियउ 'तुहुँ णत्थमिउ वंसु अत्थमियउ॥1॥ तुहुँ ण जिओऽसि सयलु जिउ तिहुअणु तुहुँण मुओऽसि मुअउ वन्दिय-जणु॥2॥ तुहुँ पडिओऽसि ण पडिउ पुरन्दरु मउडु ण भग्गु भग्गु गिरि-मन्दरु ॥3॥ दिहि ण णट्ठ णट्ठ लङ्काउरि
वाय ण णट्ठ णट्ठ मन्दोयरि॥4॥ हारु ण तुटु तुटु तारायणु
हियउ ण भिण्णु भिण्णु गयणङ्गणु॥5॥ चक्कु ण ढुक्कु ढुक्कु एक्कन्तरु आउ ण खुटु खुटु रयणायरु॥6॥ जीउ ण गउ गउ आसा-पोट्टलु तुहँ ण सुत्तु सुत्तउ महि-मण्डलु॥7॥ सीय ण आणिय आणिय जमउरि हरि-वल कुद्ध ण कुद्धा केसरि॥8॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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पाठ - 4
पउमचरिउ
सन्धि
-76
76.3
(1) शोक से युक्त विभीषण रोया (और) (बोला) - (हे भाई) तुम (ही) समाप्त नहीं हुए (हो), (किन्तु) (मानो) (सम्पूर्ण) वंश (ही) समाप्त हो गया (है)। (2) तुम (ही) नहीं जीते गए हो, (किन्तु) (मानो) सकल त्रिभुवन (ही) जीत लिया गया हो। तुम (ही) नहीं मरे हो, (किन्तु) (मानो) सम्मानित जन-समुदाय (ही) मर गया (हो)। (3) तुम (ही आहत होकर जमीन पर) नहीं पड़े हो, (किन्तु) (मानो) (वहाँ) इन्द्र (ही) पड़ा (है)। (तुम्हारा) मुकुट (ही) टुकड़े-टुकड़े नहीं किया गया है, (किन्तु) (मानो) सुमेरु पर्वत (ही) टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया (हो)। (4) (तुम्हारी) विचार-पद्धति (ही) समाप्त नहीं हुई, (किन्तु मानो) लंकापुरी (ही) समाप्त हो गई। (तुम्हारी) वाणी (ही) नष्ट नहीं हुई, (किन्तु मानो) मन्दोदरी (ही) नष्ट हो गई। (5) (तुम्हारा) हार (ही) नहीं टूटा, (किन्तु) (मानो) तारागण (ही) टूट गए (हों), (तुम्हारा) (व्यापक) हृदय (ही) भंग नहीं किया गया (है) (किन्तु) (मानो) (व्यापक)
आकाश-प्रदेश (ही) भंग कर दिया गया (है)। (6) (लक्ष्मण के पास तुम्हारा) चक्र (अस्त्रविशेष ही) नहीं आया (पहुँचा) (किन्तु) (तुम्हारे लिए) एक परिवर्तित दशा (मृत्यु) आ पहुँची। (तुम्हारी) (लम्बी) आयु (ही) क्षीण नहीं हुई, (किन्तु) (विस्तृत) सागर (ही) क्षीण हो गया। (7) (तुम्हारा) जीवन (ही) विदा नहीं हुआ (किन्तु) (हमारी) आशाओं की पोटली (ही) विदा हो गई। तुम (ही) नहीं सोए, (किन्तु) (मानो) (सम्पूर्ण) पृथ्वी-मण्डल (जगत) सो गया। (8) (तुम्हारे द्वारा) सीता (ही) नहीं लाई गई, (किन्तु) (मानो) (तुम्हारे द्वारा) यमपुरी (ही) लाई गई (हो)। राम की सेना (ही) कुपित नहीं हुई, (किन्तु) (मानो) सिंह (ही) कुपित हुआ (हो)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता
घत्ता
दिट्टु पुण णाहु पिय- णारिहिँ वाहिणिहिँ व सुक्कउ रयणायरु कुमुइणिहि व्व जरढ-मयलञ्छणु अमर - वहूहिँ व चवण- पुरन्दरु भमरावलिहि म्व सूडिय - तरुवरु कलयण्ठीहि म्व माहव - णिग्गमु वहुल-पओसु व तारा - पन्तिहिं दस - सिरु - दस - सेहरु दस-मउडउ
26
1
F
सुरवर
- सण्ढ - वराइणा सयल-काल जे मिग सम्भूया रावण पइँ सीहेण विणु ते वि अज्जु सच्छन्दीहूया ॥ 9 ॥
भाइ - विओएं तिह तिह दुक्खण
76.7
ऍिवि अवत्थ दसाणणहों 'हा हा सामि' भणन्तु स - वेयणु । अन्तेउरु मुच्छा-विहलु णिवडिउ महिहिँ झत्ति णिच्चेयणु ॥9॥
सन्धि
सुत्तु मत्त - हत्थि व गणियारिहिं ॥ 1 ॥ कमलिणिहिं व अत्थवण-1 -दिवायरु ॥2॥ विज्जुहि व्व छुड छुड वरिसिय- घणु ॥3॥ गिम्भ - दिसाहिं व अञ्जण - महिहरु ॥4॥ कलहंसीहि म्व अ - जलु महा-सरु ॥5॥ णाइणिहिँ व हय - गरुड - भुयङ्गमु ॥16 ॥ तेम दसास - पासु ढुक्कन्तिहिँ ॥ 7 ॥ गिरि व स - कन्दरु स-तरु स - कूडउ ॥8॥
-
77
जिह जिह करइ विहीसणु सोउ । -वल- वाणर- लोउ ॥
रुवइ स - हरि
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता हे रावण! बेचारे देवताओं के समूह द्वारा, जो सभी काल में (तुम्हारे
समक्ष ) हरिण ( के समान) रहे, तेरे (जैसे) सिंह के बिना वे ही आज स्वच्छन्दी हुए ।
-
(1) फिर प्रिय पत्नियों द्वारा पति देखा गया, जैसे हथिनियों के द्वारा सोया हुआ मतवाला हाथी (देखा गया) (हो) । (2) जैसे नदियों द्वारा सूखा हुआ समुद्र ( देखा गया) (हो), जैसे कमलिनियों के द्वारा डूबने से ( समाप्त हुआ) सूर्य (देखा गया हो) । (3) जैसे कुमुदिनियों के द्वारा क्षीण चन्द्रमा ( देखा गया हो ), जैसे बिजलियों द्वारा पुनः पुनः बरसा हुआ बादल ( देखा गया हो) । (4) जैसे देवताओं की स्त्रियों द्वारा मरण को प्राप्त इन्द्र ( देखा गया हो ), जैसे ग्रीष्म में दिशाओं द्वारा (सूखे) वृक्षों से युक्त पर्वत ( देखा गया हो ) | ( 5 ) जैसे भँवरों की पंक्तियों द्वारा नाश को प्राप्त श्रेष्ठ वृक्ष (देखे गए) (हों), जैसे राज - हंसनियों द्वारा जलरहित बड़ा तालाब (देखा गया हो) । (6) जैसे कोकिलों द्वारा बसन्त ऋतु का ( चला) जाना (देखा गया हो), जैसे नागिनियों द्वारा गरुड़ से मारा हुआ सर्प (देखा गया हो) । (7) जैसे तारों की पंक्तियों द्वारा दोषों से युक्त कृष्ण पक्ष ( देखा गया हो ), उसी प्रकार दसमुखवाले (रावण) के पास जाती हुई ( रानियों) के द्वारा ( दोषयुक्त) (पति) (देखा गया)। (8) (उसके ) दस सिर, दस शिखा तथा दस मुकुट ( थे ) ( मानो) पर्वत ( ही ) गुफा - सहित, वृक्ष - सहित (तथा) शिखर - सहित (हो) ।
घत्ता रावण की ( ऐसी) अवस्था को देखकर पीड़ासहित हाय-हाय स्वामी कहते हुए अन्त: पुर (रानियों का समुदाय) मूर्च्छा से व्याकुल ( हुआ) (और) शीघ्र ( ही ) पृथ्वी पर चेतना - रहित ( होकर ) गिरा ।
-
76.7
अपभ्रंश काव्य सौरभ
सन्धि
-
भाई के वियोग से विभीषण जैसे-जैसे शोक करता, सहित वानर जाति के लोग दुःख के कारण रोते ।
77
वैसे-वैसे राम-लक्ष्मण
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77.1
दुम्मणु दुम्मण-वयणउ ढुक्कु कइद्धय सत्थउ तेण समाणु विणिग्गय-णाहिँ दिट्ठइँ स-मउड-सिरइँ पलोइँ दिट्ठइँ भालयलइँ पायडियइँ दिट्ठइँ मणि-कुण्डलइँ स तेय. दिट्ठउ भउहउ भिउडि-करालउ दिइँ दीह-विसालइँ णेत्तइँ मुह-कुहरइँ दट्ठोट्टइँ दिट्ठ. दिट्ठ महब्भुव भड-सन्दोहें दिट्ठ उर-त्थलु फाडिउ चक्कें अवणियलु व विझेण विहजिउ
अंसु-जलोल्लिय-णयणउ। जहिँ रावणु पल्हत्थउ।।1।। दिट्ट दसाणणु लक्खण-रामेंहिँ॥2॥ णाइँ स-केसराइँ कन्दोदृइँ।।3।। अद्धयन्द-विम्वाइँ व पडियइँ॥4॥ णं खय-रवि-मण्डलइँ अणेयइँ॥5॥ णं पलयग्गि-सिहउ धूमालउ॥6॥ मिहुणा इव आमरणासत्तइँ।।7।। जमकरणाइँ व जमहों अणि?इँ॥8॥ णं पारोह मुक्क णग्गोहें॥9॥ दिण-मज्झ अ(?) मज्झत्थे अक्कें।।10॥ णं विहिँ भाऍहिँ तिमिरु व पुजिउ॥11॥
घत्ता -
पेक्खेंवि रामेण समरङ्गणे रामण (हों) मुहाइँ। आलिङ्गेप्पिणु धीरिउ ‘रुवहि विहीसण काइँ॥12॥
77.2
सो मुउ जो मय-मत्तउ वय-चारित्त-विहूणउ सरणाइय-वन्दिग्गहें गोग्गहें णिय-परिहवें पर-विहुरे ण जुज्जइ
जीव-दया-परिचत्तउ। दाण-रणङ्गणे दीणउ॥1॥ सामिहें अवसर मित्त-परिग्गहें॥2॥ तेहउ पुरिसु विहीसण रुज्जइ॥3॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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77.1
(1) दुःखी मन और उदास मुखवाला (तथा) आँसू के जल से गीली हुई आँखोंवाला कपि (-चिह्न युक्त) ध्वज (लिये हुए) जन-समूह (वहाँ) पहुँचा जहाँ रावण मार गिराया गया (था)। (2) उस (समूह) के साथ (बाहर) फैले हुए नामवाले (विख्यात) राम और लक्ष्मण द्वारा (भी) (पड़ा हुआ) रावण देखा गया। (3) जमीन पर गिरे हुए (उसके) मुकुट-सहित सिर देखे गए, मानो पराग-सहित कमल (हों)। (4) (वहाँ) खुले हुए ललाट देखे गए, मानो पड़े हुए अर्द्धचन्द्र के प्रतिबिम्ब (हों)। (5) मणियों से (बने हुए) कान्तियुक्त-कुण्डल देखे गए, मानो गिरे हुए अनेक रवि-चक्र (हों)। (6) भौं के विकार से भयंकर (हुई) भौंहें देखी गईं, मानो (वे) धुएँ के आश्रयवाली प्रलय की आग की ज्वालाएँ (हों)। (7) (उसके) लम्बे और चौड़े नेत्र देखे गए, मानो (वे) मृत्यु तक (आजीवन) आसक्त स्त्री-पुरुष के जोड़े (हों)। (8) (उसके) मुख-विवर (और) दाँतों से काटे होठ देखे गए, मानो (वे) यम के अप्रीतिकर मृत्यु के साधन (हों)। (9) योद्धाओं के समूह द्वारा (रावण की) महा-भुजाएँ देखी गईं, मानो बड़ के पेड़ के द्वारा निकाली हुई (छोड़ी हुई) शाखाएँ (हों)। (10) चक्र के द्वारा फाड़ी हुई (दमकती) छाती देखी गई, मानो (आकाश के) मध्य में स्थित सूर्य के द्वारा दिन का बीच (दो बराबर के भाग) (हुए) (हों)। (11) मानो विंध्य (पर्वत) के द्वारा पृथ्वीतल विभक्त कर दिया गया (हो), मानो (पृथ्वी के) विविध भागों द्वारा अंधकार इकट्ठा किया गया (हो)।
घत्ता - युद्धस्थल में रावण के (पड़े हुए) मुखों को देखकर राम के द्वारा (विभीषण को) छाती से लगाकर धीरज बँधाया गया। (और) (कहा गया) (कि) हे विभीषण! (तुम) क्यों रोते हो?
77.2
(1) वह (ही) मरा हुआ (है), जो अहंकार के नशे में चूर (है) (तथा) (जिसके द्वारा) जीव-दया छोड़ दी गई (है)। (जो) व्रत और चारित्र से हीन है, (जो) दान और युद्ध-स्थल में भीरु (है)। (2-3) (जो) शरण में आए हुए के
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अण्णु इ दुक्किय-कम्म-जणेरउ सव्वंसह वि सहेवि ण सक्कइ वेव वाहिणि किं मइँ सोसहि छिज्जमाण वणसइ उग्घोसइ पवणु ण भिड भाणु कर खञ्चइ विन्धइ कण्टेहिँ व दुव्वयणेहिँ
घत्ता
तं णिसुणेवि पहाणउ 'एत्तिउ रुअमि दसासहों एण सरीरें अविणय - थाणें सुरचावेण व अथिर-सहावें
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केरउ ॥ 4 ॥ थक्क || 5 | ओसहि ॥6॥
गरुअउ पाव- भारु जसु अह अण्णाउ भणन्ति ण धाहावइ खज्जन्ती कइहुँ मरणु णिरासहों होसइ ॥ 7 ॥ धणु राउल - चोरग्गिहुँ सञ्चइ ॥8॥ विस - रुक्खु व मण्णिज्जइ सयर्णेहिं ॥ 9 ॥
धम्म - विहूणउ पाव- पिण्डु अणिहालिय - थामु । सो रोवेवर जासु महिस- विस मेसहिँ णामु ॥10॥
77.4
भइ विहीण - राणउ । भरिउ भुवणु जं अयसहों ॥ 1 ॥ दिट्ठ- णट्ठ-जल-बिन्दु-समाणें तडि-फुरणेण व तक्खण - भावें ॥3॥
112 11
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लिए, (दोषियों को) कैदी रूप में पकड़ने में, (गाय की चोरी होने पर) गाय के संरक्षण में, स्वामी के (कठिन) समय में, मित्र की सहायता में, निज का अपमान होने पर, (तथा) (जिसके द्वारा) दूसरे के दुःख में (काम में) नहीं लगा जाता है, हे विभीषण! वैसा पुरुष रोया जाता है। (4-7) अन्य भी (जो) पाप-कर्म का उत्पादक (है) (वह) (तथा) जिसके (जीवन में) पाप का बहुत भारी बोझ (है) (वह) (रोया जाता है) (जिसको) पृथ्वी भी सहने के लिए समर्थ नहीं है (वह भी) (जिस) अन्याय को कहती हुई नहीं थकती है, (जिसके कारण) नदी काँपती है, (और उसको कहती है) (कि) (तुम) (मेरा) (प्रयोग करके) मुझको क्यों सुखाते हो? (ऐसा व्यक्ति रोया जाता है) (जिसके कारण) खाई जाती हुई औषधि हाहाकार मचाती है, (अर्थात् दुःखी होती है), (जिसके कारण) काटी जाती हुई वनस्पति घोषणा करती है (ऊँची आवाज में कहती है) (कि) (ऐसे) दुष्ट चित्तवाले (व्यक्ति) का मरण कब होगा? (8) उस (पापी) के (साथ) (शीतल) पवन भी (बार-बार) भिड़ता है (और) सूर्य की (तप्त) किरणें (भी) (उसे) परास्त कर देती हैं। (वह) राजकुल के चोरों की स्तुति से धन इकट्ठा करता है। (9) (वह) (सभी को) दुर्वचनरूपी काँटों से बींध देता है। (वह) स्वजनों द्वारा विष-वृक्ष की तरह माना जाता है (ऐसा व्यक्ति रोया जाता है)।
घत्ता - (जो) धर्मरहित (है), (जो) पाप का पिण्ड (है), (जिसका) यहाँ निवास किया हुआ (अन्य) (कोई) स्थान नहीं है (जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं है) जिसका नाम महिष, वृष और मेष (राशि) के द्वारा (कहा जाता है) वह रोया जाना चाहिये।
77.4
' (1) उसको सुनकर प्रधान राजा विभीषण ने कहा (कि) (चूँकि) दसमुखवाले (रावण) के द्वारा (यह) जगत अपयश से भर दिया गया है (इसलिये) (मैं) इतना रोता हूँ। (2) (प्राय:) देखा गया (है) (कि) जल-बिन्दु के समान (अस्थिर) तथा दोष के घर इस शरीर के द्वारा नाश को प्राप्त हुआ गया (है) (इतना तो मैं समझता हूँ)। (3) (और यह भी समझता हूँ) (कि) (शरीर) अस्थिर-स्वभाववाले इन्द्र-धनुष के समान है (और) शीघ्र (परिवर्तनशील) अवस्था होने से बिजली की चमक के
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रम्भा - गब्भेण व णीसारें
तण चिण्णु मण - तुरउ ण खञ्चिउ aण धरि महु ण किउ णिवारिउ
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पक्व फलेण व सउणाहारें ॥ 4 ॥ मोक्खु ण साहिउ णाहु ण अञ्चिउ ॥11॥ अप्पर किउ तिण- समउ णिरारिउ ' ॥12 ॥
-
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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समान है। (4) (तथा) (वह) केले के पेड़ के साररहित भीतर (के) (भाग) के समान है (तथा) पक्षियों के (प्रिय) भोजन पके फल के समान है। (11) (खेद है कि रावण के द्वारा) (इस शरीर से) तप नहीं किया गया, मनरूपी घोड़ा वश में नहीं किया गया, मोक्ष नहीं साधा गया (तथा) परमेश्वर नहीं पूजा गया। (12) (और भी) (मोक्ष प्राप्ति के लिए) व्रत धारण नहीं किया गया (तथा) (सबके द्वारा) रोका हुआ यह विनाश किया गया। (उसके द्वारा) निश्चय ही अपना (जीवन) तिनके के समान (तुच्छ) बनाया गया।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता
-
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तं णिसुणेवि चवइ रहुणन्दणु जाणमि जिह हरि - वंसुप्पणी जामि जिह जिण-सासर्णे भत्ती जा अणु-गुण- सिक्खा - वय-धारी जाणमि जिह सायर - गम्भीरी जाणमि अंकुस - लवण-जणेरी जामि सस भामण्डल - रायहों जाणमि जिह अन्तेउर-सारी
पाठ
-
पउमचरिउ
5
सन्धि 83
83.2
" एत्तडउ दोसु पर रहुवइहें जं परमेसरि णाहिँ घरें । म पमायहि लोयहुँ छन्दॆण आर्णेवि का वि परिक्ख करें' ॥ 9 ॥
83.3
जा
'जाणमि सीयहॅ तणउ सइत्तणु ॥1 ॥ जाणमि जिह वय-गुण-संपण्णी ॥2॥ जाणमि जिह महु सोक्खुप्पत्ती ॥3॥ सम्मत्त - रयण-मणि - सारी ॥4॥ जाणमि जिह सुर- महिहर - धीरी ॥5॥ जाणमि जिह सुय जणयों केरी ॥16॥ जामि सामिणि रज्जहों आयहों ॥ 7 ॥ जाणमि जिह महु पेसण - गारी ॥8 ॥
अपभ्रंश काव्य सारभ
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पाठ - 5
पउमचरिउ
सन्धि
- 83
83.2
घत्ता - किन्तु हे रघुपति! इतना (ही) दोष है कि परमेश्वरी (सब ऐश्वर्य से सम्पन्न) (सीता) घर में नहीं है। आप लोगों के छल से न भटकें (गलत निर्णय न करें)। (आप) समझकर (जानकर) कोई भी परीक्षा करें।
83.3
(1) उसको सुनकर रघुनन्दन ने कहा- (मैं) सीता के सतीत्व को जानता हूँ। (2) जिस प्रकार (वह) हरिवंश में उत्पन्न हुई (है) (उसको) (मैं) जानता हूँ। जिस प्रकार व्रत और गुण से युक्त है (मैं) जानता हूँ। (3) जिस प्रकार (उसकी) जिनशासन में भक्ति है (उसको) (मैं) जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरे लिए सुख की उत्पत्ति को (करती है, उसको) (मैं) जानता हूँ। (4) जो अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षाव्रतों को धारण करनेवाली है, जो सम्यक्त्वरूपी रत्नों और मणियों का सार है (उसको मैं जानता हूँ)। (5) जिस प्रकार (वह) सागर के समान गम्भीर है, जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरुपर्वत के समान धैर्यवाली है (उसको) (मैं) जानता हूँ। (6) (मैं) लवण और अंकुश की माता को जानता हूँ। जानता हूँ, जिस प्रकार (वह) जनक की पुत्री है। (7) राजा भमण्डल की बहन को जानता हूँ, (मैं) इस राज्य की स्वामिनी को जानता हूँ। (8) जिस प्रकार (वह) अन्त:पुर में श्रेष्ठ है, मैं जानता हूँ। जिस प्रकार (वह) मेरे लिए आज्ञा (पालन) करनेवाली है (मैं) जानता हूँ।
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घत्ता -
मेल्लेप्पिणु णायर-लोऍण महु घरे उभा करेंवि कर। जो दुज्जसु उप्परें धित्तउ एउ ण जाणहाँ एक्कु पर'॥9॥
83.4
तहिँ अवसरे रयणासव-जाएं वोल्लाविय एत्तहें वि तुरन्तें। - विण्णि वि विण्णवन्ति पणमन्तिउ 'देव देव जइ हुअवहु डज्झइ जइ पायाले णहङ्गणु लोट्टइ जइ उप्पज्जइ मरणु कियन्तहाँ जइ अवरें उग्गमइ दिवायरु एउ असेसु वि सम्भाविज्जइ
कोक्किय तियड विहीसण-राएं॥1॥ लङ्कासुन्दरि तो हणुवन्ते ।।2।। सीय-सइत्तण-गव्वु वहन्तिउ॥3॥ जइ मारुउ पड-पोट्टलें वज्झइ॥4॥ कालन्तरेण कालु जइ तिट्टइ॥5॥ जइ णासइ सासणु अरहन्तहों॥6॥ मेरु-सिहरें जइ णिवसइ सायरु॥7॥ सीयहें सीलु ण पुणु मइलिज्जइ॥8॥
घत्ता
-
जइ एव वि णउ पत्तिज्जहि तो परमेसर एउ करें। तुल-चाउल-विस-जल-जलणहँ पञ्चहँ एक्कु जि दिव्वु धरै ॥9॥
83.5
तं णिसुर्णेवि रहुवइ परिओसिउ
‘एव होउ' हक्कारउ पेसिउ॥1॥
घत्ता -
'चडु पुप्फ-विमाणे भडारिएँ मिलु पुत्तहँ पइ-देवरहँ। सहुँ अच्छहिँ मज्झें परिट्ठिय पिहिमि जेम चउ-सायरहँ॥9॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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घत्ता - किन्तु नगर के लोगों द्वारा मिलकर मेरे लिए घर में हाथों को ऊँचे करके जो अपयश (मेरे) ऊपर डाला गया है, एक यह (ही) समझने (जानने) के लिए (मैं) (समर्थ) नहीं (हूँ)।
83.4
(1) उस अवसर पर रत्नाश्रव (से उत्पन्न) के पुत्र विभीषण राजा के द्वारा त्रिजटा बुलाई गई। (2) तब यहाँ पर हनुमान के द्वारा तुरन्त ही लङ्कासुन्दरी बुलवाई गई। (3) दोनों ही सीता के सतीत्व के गर्व को धारण करती हुई (और उसको) प्रणाम करती हुई कहती है। (4) हे देव! हे देव! यदि अग्नि जलाई जाती है, यदि कपड़े की पोटली में हवा बाँधी जाती है। (5) यदि पाताल में आकाश लोटता है, यदि समय बीतने से काल नष्ट होता है। (6) यदि यमराज का मरण उत्पन्न होता है, यदि अरहन्त का शासन नष्ट होता है। (7) यदि सूर्य पश्चिम दिशा में उगता है, यदि पर्वत के शिखर पर सागर रहता है। (8) (तो) यह सब भी सोचा जा सकता है, (सम्भावना कराई जा सकती है) किन्तु सीता का शील (आचरण) मलिन नहीं किया जा सकता।
घत्ता - यदि इस प्रकार भी (तुमको) विश्वास नहीं होता तो हे परमेश्वर! (आप) यह करें (कि) तिल-चावल-विष-जल-अग्नि इन पाँचों (परीक्षा) में से आरोप की शुद्धि के लिए की जानेवाली परीक्षा (के लिए) एक ही (वस्तु) को धारण करलें'।
83.5
(1) उस (बात) को सुनकर रघुपति सन्तुष्ट हुए। इसी प्रकार हो' (यह कहकर सीता को बुलाने के लिए) हरकारा भेजा गया।
घत्ता – 'हे पूजनीया! (आप) पुष्पक विमान पर (में) चढ़ें। (अपने) पुत्रों, पति और देवरों को मिलें। (आप) (उनके) साथ (इस प्रकार) रहें जिस प्रकार चारों सागरों के मध्य में पृथ्वी स्थित रहती है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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83.6
तं णिसुणेवि लवणंकुस-मायएँ णिट्टर-हिययहों अ-लइय-णामहों घल्लिय जेण रुवन्ति वणन्तरें जहिँ माणुसु जीवन्तु वि लुच्चइ तहिँ वणे घल्लाविय अण्णाणे
वुत्तु विहीसणु गग्गिर-वायएँ॥1॥ जाणमि तत्ति ण किज्जइ रामहों।।2।। डाइणि-रक्खस-भूय-भयङ्करें ॥3॥ विहि कलि-कालु वि पाणहुँ मुच्चइ॥6॥ एवहिँ किं तहों तणेण विमाणे॥7॥
घत्ता -
जो तेण डाहु उप्पाइयउ पिसुणालाव-भरीसिऍण। सो दुक्करु उल्हाविज्जइ मेह-सएण वि वरिसिऍण ॥8॥
83.8
सीय ण भीय सइत्तण-गव्वें वर्लेवि पवोल्लिय मच्छर-गव्वें॥7॥ 'पुरिस णिहीण होन्ति गुणवन्त वि तियहें ण पत्तिज्जन्ति मरन्त वि॥8॥
घत्ता
-
खडु लक्कडु सलिलु वहन्तियहें पउराणियहें कुलुग्गयहें। रयणायरु खारइँ देन्तउ तो वि ण थक्कइ णम्मयहें॥9॥
83.9
साणु ण केण वि जणेण गणिज्जइ गङ्गा-णइहिं तं जि पहाइज्जइ॥1॥ ससि स-कलंकु तहिँ जि पह णिम्मल कालउ मेहु तहिँ जें तडि उज्जल ॥2॥ उवलु अपुज्जु ण केण वि छिप्पइ तहिँ जि पडिम चन्दणेण विलिप्पइ॥3॥
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83.6
(1) उसको सुनकर लवण (और) अंकुश की माता के द्वारा भरी हुई वाणी से विभीषण (को) कहा गया। (2) 'निष्ठुरहृदय राम के नाम को मत लो, (उनको) (मैं) जानती हूँ, (उनके द्वारा) (मेरी) कोई तृप्ति नहीं की गई। (3) जिनके द्वारा डाकिनियों, राक्षसों और भूतोंवाले डरावने वन में (मैं) रोती हुई डाल दी गई। (6) जहाँ पर जीता हुआ (जीवित) मनुष्य भी काट दिया जाता है, जहाँ विधाता और कालरूपी शत्रु (मृत्यु) भी प्राणों से छुटकारा पा जाता है। (7) उस वन में (मैं) अज्ञान से (अज्ञान में) डलवा दी गई। अब उसके लिए विमान से क्या (लाभ है)?
घत्ता - ईर्ष्या से बोझिल (भरे हुए) चुगलखोरों के कथन (आलाप) से उसके द्वारा (राम के द्वारा) (मेरे मन में) जो सन्ताप उत्पन्न किया गया है, वह सैकड़ों (बार) मेहों के बरसने से भी कठिनाई से शान्त किया जायेगा।
83.8
(7) सतीत्व के गर्व के कारण सीता नहीं डरी, (सीता द्वारा) मुड़कर ईर्ष्या और गर्व से कहा गया (आक्रमण किया गया)। (8) 'पुरुष चाहे गुणवान हों अथवा तुच्छ किन्तु स्त्री के द्वारा चाहे (वह) मरती हुई (हो, तो भी) वे विश्वास किये जाते हैं।
घत्ता - घास फूस (व) लकड़ी को बहाती हुई (ले जाती हुई) प्राचीन और पवित्र नर्मदा (नदी) का जल (समुद्र में गिरता है) तो भी समुद्र खार को देता हुआ नहीं थकता है।
83.9
(1) किसी (भी) जन के द्वारा कुत्ता आदर नहीं दिया जाता, (यदि) वह गंगा नदी में भी नहलाया जाय। (2) चन्द्रमा कलंकसहित (होता है) (किन्तु) उससे (उत्पन्न) प्रभा निर्मल (होती है)। मेघ काला (होता है) (पर) उससे (उत्पन्न) बिजली उज्ज्वल (होती है)। (3) पत्थर अपूज्य (होता है) (इसलिये) किसी के
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धुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ दीवउ होइ सहावें कालउ णर-णारिहिँ एवड्डउ अन्तरु ऍह पइँ कवण वोल्ल पारम्भिय तुहुँ पेक्खन्तु अच्छु वीसत्थउ
कमल-माल पुणु जिणों वलग्गइ॥4॥ वहि-सिहएँ मण्डिज्जइ आलउ॥5॥ मरणे वि वेल्लि ण मेल्लइ तरुवरु॥6॥ सइ-वडाय मइँ अज्जु समुब्भिय ॥7॥ डहउ जलणु जइ डहेवि समत्थउ॥8॥
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द्वारा भी छुआ नहीं जाता (तो भी) उससे ही (बनी हुई) प्रतिमा चन्दन से लीपी जाती है। (4) यदि कीचड़ लगता है, (तो) पाँव धोया जाता है, किन्तु (कीचड़ में उत्पन्न) कमल की माला जिनेन्द्र के (चरणों में) चढ़ती है। (5) दीपक स्वभाव से काला होता है, (तो भी) बत्ती की शिखा से घर सुशोभित किया जाता है। (6) नर और नारी में इतना (ही) अन्तर है कि मरने पर भी (नारी-रूपी) बेल (नररूपी) वृक्ष को नहीं छोड़ती है। (7) तुम्हारे द्वारा यह बोल किसलिए प्रारम्भ किया गया (है)। मेरे द्वारा आज भी सतीत्व की पताका भली प्रकार से ऊँची की गई है। (8) तुम देखते हुए (हो) (कि) मैं (आज भी) अत्यन्त विश्वासयुक्त (हूँ), यदि अग्नि जलाने के लिए समर्थ है (तो) जलावे।
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पाठ -6
महापुराण
सन्धि - 16
16.3
घत्ता
-
थिउ चक्कु ण पुरवरि पइसरइ णावइ केण वि धरियउ। ससिबिंबु व णहि तारायणहिं सुरवरेहिं परियरियउ॥13॥
16.4
ता भणियं णिराइणा रूढराइणा चंडवाउवेयं।
किं थियमिह रहंगयं णिच्चलंगयं तरुणतरणितेयं॥1॥ तं णिसुणेप्पिणु भणइ पुरोहिउ जेणेयह गइपसरु णिरोहिउ॥2॥ अक्खमि तं णिसुणहि परमेसर देवदेव दुज्जय भरहेसर।।3।। भुयजुयबलपडिबलविद्दवणहं
पयभरथिरमहियलकंपवणहं ॥4॥ तेओहामियचंददिणेसहं
जणणदिण्णमहिलच्छिविलासहं ॥5॥ कित्तिसत्तिजणमेत्तिसहायहं
को पडिमल्लु एत्थु तुह भायह॥6॥ सेव करंति ण णहभाईवई
णउ णवंति तुह पयराईवइं॥7॥
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पाठ -6
महापुराण
सन्धि - 16
16.3
घत्ता - चक्र ठहर गया। श्रेष्ठ नगर में (उसने) प्रवेश नहीं किया, मानो (वह) किसी के द्वारा पकड़ लिया गया (हो)। श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा घेरा गया (वह) (ऐसा लगता था) मानो आकाश में चन्द्रमण्डल तारागणों द्वारा (घेर लिया गया) (हो)।
16.4
(1) तब निर्भय और प्रसिद्ध राजा (भरत) के द्वारा (यह) कहा गया (कि) प्रचण्ड वायु के वेगवाला, युवा सूर्य के तेजवाला (यह) दृढ़ अंगवाला चक्र यहाँ क्यों ठहरा (स्थिर हुआ)? (2-3) उसको सुनकर (राज-) पुरोहित ने कहा (कि) जिस कारण से इस (चक्र) की गति का प्रवाह रोका गया (है) उसको (मैं) बताता हूँ- हे परमेश्वर! हे देवों के देव! हे दुर्जेय भरतेश्वर! (आप) उसको सुनें। (4-5-6) (तुम्हारे भाइयों का) (जो) दोनों भुजाओं के बल से शत्रु की सेना का (विविध प्रकार से) दमन करनेवाले (है), (जो) स्थिर पृथ्वीतल को पैरों के भार से कँपानेवाले (हैं), (जिनके द्वारा) सूर्य और चन्द्रमा का तेज तिरस्कार किया गया (तिरस्कृत) (है), (जिनको) पृथ्वीरूपीलक्ष्मी पिता के द्वारा मनोविनोद के लिए दी गई (है), (तथा) कीर्ति, शक्ति और जनता से (उनकी) मित्रता (है) (और वे) (उनकी) सहायता के लिए (तत्पर) हैं। तुम्हारे (उन) भाइयों का यहाँ कौन जोड़वाला (प्रतिद्वन्द्वी) (है)। (7) (इसलिये) (वे) (तुम्हारी) सेवा नहीं करते हैं। तुम्हारे अत्यधिक कान्ति से (युक्त) नखवाले चरण रूपी कमलों को (वे) प्रणाम नहीं करते
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देंति ण करभरु केसरिकंधर अज्ज वि ते सिज्झंति ण जेण जि
पर मुहियइ भुजंति वसुंधर॥8॥ पइसइ पट्टणि चक्कु ण तेण जि॥9॥
16.7
ता विगया बहुयरा जणमणोहरा णिवकुमारवासं।
दुमदलललियतोरणं रसियवारणं छिण्णभूमिदेसं॥1॥ तेहिं भणिय ते विणउ करेप्पिणु सामिसालतणुरुह पणवेप्पिणु॥2॥ सुरणरविसहरभयइं जणेरी
करहु केर णरणाहहु केरी।।3॥ पणवहु किं बहुएण पलावें
पुहइ ण लब्भइ मिच्छागावें॥4॥ तं णिसुणेवि कुमारगणु घोसइ तो पणवहुं जइ वाहि ण दीसइ॥5॥ तो पणवहुं जइ सुसुइ कलेवरु तो पणवहुं जइ जीविउ सुंदरु॥6॥ तो पणवहुं जइ जरइ ण झिज्जइ तो पणवहुं जइ पुट्टि ण भज्जइ॥7॥ तो पणवहुं जइ बलु णोहदृइ तो पणवहं जइ सुइ ण विहइ॥8॥ तो पणवहुं जइ मयणु ण तुदृइ । तो पणवहुं जइ कालु ण खुइ॥9॥ कंठि कयंतवासु ण चुहुदृइ
तो पणवहं जइ रिद्धि ण तुट्टइ॥10॥
घत्ता -
जइ जम्मजरामरणइं हरइ चउगइदुक्खु णिवारइ। तो पणवहुं तासु णरेसहो जइ संसारहु तारइ॥1॥
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हैं। (8) ( और भी) सिंह के समान गर्दनवाले ( तुम्हारे ) (भाई) कर की राशि भी नहीं देते हैं, किन्तु (वे ) ( इस प्रकार ) बिना मूल्य के ही पृथ्वी को भोगते हैं । ( 9 ) जिस ( उपर्युक्त ) कारण (-समूह ) से ही वे आज भी ( सिद्ध नहीं हैं ) जीते नहीं जाते हैं, उस कारण ( - समूह ) से ही चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता है।
16.7
(1) मनुष्यों के मन को हरनेवाला दूत (उन) राजपुत्रों के घर गया । ( वह घर) वृक्ष - समूह से ( निर्मित) सुन्दर तोरणवाला ( था ), घोड़े और हाथीवाला ( था ) और बाँटी हुई जमीन के भागवाला ( भाग में स्थित ) ( था ) | ( 2 ) श्रेष्ठ स्वामी के पुत्रों को प्रणाम करके (और) (उनके प्रति ) विनय करके उनके द्वारा ( दूत के द्वारा ) वे कहे गये । ( 3 ) ( दूत ने कहा ) तुम (सब) नरनाथ ( राजा भरत ) की (ऐसी) सेवा निश्चय ही करो (जो ) देवताओं, मनुष्यों और धार्मिक ( - जन ) (में) भय को उत्पन्न करनेवाली (हो), (4) (तुम) (सब) (उनको ) प्रणाम करो। बहुत प्रलाप ( बकवास ) से क्या लाभ ( है ) ? मिथ्या गर्व से पृथ्वी प्राप्त नहीं की जाती है । (5) उसको सुनकर कुमारगण ने कहा- यदि ( किसी के) व्याधि नहीं देखी जाती है तो (हम) ( उसको) प्रणाम करते हैं । ( 6 ) यदि (किसी का) शरीर अत्यन्त पवित्र ( है ) तो (हम) ( उसको) प्रणाम करते हैं । यदि (किसी का) जीवन सुन्दर ( है ) तो (हम) ( उसको) प्रणाम करते हैं । ( 7 ) जो न जीर्ण होता है (न) क्षीण होता है तो (हम) ( उसको) प्रणाम करते हैं । यदि कोई अपनी पीठ भग्न नहीं करता तो हम उसको प्रणाम करते हैं। (8) यदि (किसी का) बल कम नहीं होता है तो (हम) (उसको ) प्रणाम करते हैं । यदि (किसी की ) पवित्रता नष्ट नहीं होती है तो (हम) (उसको) प्रणाम करते हैं । ( 9 ) यदि (किसी का) प्रेम खण्डित नहीं होता है तो (हम) ( उसको) प्रणाम करते हैं । यदि (किसी की ) उम्र क्षीण नहीं होती है तो (हम) ( उसको) प्रणाम करते हैं । ( 10 ) यदि (किसी के) गले में यम का फन्दा नहीं चिपका है तो (हम) (उसको ) ( प्रणाम करते हैं), यदि किसी का वैभव नहीं घटता है तो (हम) (उसको) प्रणाम करते हैं ।
घत्ता यदि (कोई) जन्म- जरा और मरण का हरण करता है, (यदि ) (कोई) चार गति के दुःख को दूर (नष्ट) करता है, यदि (कोई) संसार से पार लगाता है, तो (हम) उस राजा को प्रणाम करते हैं ।
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16.8
पुणरवि तेहिं गहिरयं सवणमहुरयं एरिसं पउत्तं ।
आणापसरधारणे धरणिकारणे पणविउं ण जुत्तं॥1॥ पिंडिखंडु महिखंडु महेप्पिणु किह पणविज्जइ माणु मुएप्पिणु॥2॥ वक्कलणिवसणु कंदरमंदिरु वणहलभोयणु वर तं सुंदरु॥3॥ वर दालिदु सरीरहु दंडणु णउ पुरिसहु अहिमाणविहंडणु॥4॥ परपयरयधूसर किंकरसरि
असुहाविणि णं पाउससिरिहरि ॥5॥ णिवपडिहारदंडसंघट्टणु
को विसहइ करेण उरलोदृणु।।6।। को जोयइ मुहं भूभंगालउ किं हरिसिउ किं रोसें कालउ॥7॥ पहु आसण्णु लहइ धिट्ठत्तणु पविरलदसणु णिण्णेहत्तणु॥8॥ मोणे जडु भडु खंतिइ कायरु अज्जवु पसु पंडियउ पलाविरु॥9॥ अमुणियहिययचारुगरुयत्तें
कलहसीलु भण्णइ सुहडत्तें ॥10॥ महुरपंयपिरु चाडुयगारउ
केम वि गुणि ण होइ सेवारउ॥11॥
16.9
अहवा तेहिं किं
हयं जं समागयं दुल्लहं णरत्तं ।
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16.8
(1) फिर उनके द्वारा महत्त्वपूर्ण (और) सुनने में मधुर (शब्द) इस प्रकार कहे गये- आज्ञा-प्रसार (प्रसारित आज्ञा) के पालन करने के प्रयोजन से (और) पृथ्वी के निमित्त से प्रणाम करना (करने के लिए) उपयुक्त नहीं है। (2) (इस) शरीर को (और) भू-खण्ड/पृथ्वी को महत्त्व देकर (किन्तु) आत्म-सम्मान को छोड़कर (किसी को) क्यों प्रणाम किया जाए? (3) वृक्ष की छाल का वस्त्र, गुफा में घर, जंगल के फलों का भोजन श्रेष्ठ (तथा) अच्छा है। (4) निर्धनता (और) शरीर के लिए दण्ड देना श्रेष्ठ (है) (किन्तु) व्यक्ति के स्वाभिमान का खण्डन (श्रेष्ठ) नहीं (है)। (5) सेवकरूपी नदी दूसरों के पैरों की धूल से पीले रंगवाली (हो जाती है) (इसलिये) असुन्दर (होती है) मानो (आत्म-सम्मानरूपी) वर्षा ऋतु की शोभा को हरनेवाली (हो)। (6) राजा के द्वारपालों के डण्डों का संघर्षण (और) हाथ से छाती पर प्रहार कौन सहेगा? (7) (उस) (मुख को) कौन देखे (जो) बार-बार भौंहों की सिकुड़न का स्थान (है) क्या (वह) प्रसन्न हुआ (है) या क्या क्रोध से काला (हुआ) (है)? (8) (जो) राजा के समीप (स्थित) (रहता है), (वह) ढीठता/निर्लज्जता को पाता है, (जो) (राजा का) बहुत थोड़ा दर्शन करनेवाला (होता है) (वह) स्नेहरहितता को (प्राप्त होता है/पाता है)। (9) मौन के कारण वीर आलसी (कहा जाता है), क्षमा के कारण (वीर) कायर (कहा जाता है), सरलता पशु का (चिह्न मानी जाती है), बकवास करनेवाला पण्डित (कहा जाता है)। (10) सुन्दर व महान् (किन्तु) हृदय में न समझे हुए (नासमझ) के द्वारा योद्धापन के कारण (व्यक्ति) कलहकारी कहा जाता है। (11) (राजा से) मधुर बोलनेवाला खुशामदी (कहा जाता है)। सेवा (चाकरी) में लीन (व्यक्ति) किसी प्रकार भी गुणी नहीं होता है।
16.9
(1) अथवा (जिसके द्वारा) प्राप्त दुर्लभ मनुष्यत्व नष्ट किया गया (है), उससे क्या (लाभ है)? तो जो विषयरूपी विष के रस में (अपने को) डालता है, (वह) दूसरे के वश में (होता है), उसकी क्या विद्वता (है)? (2) (वह ऐसा व्यक्ति है)
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तं जो विसयविसरसे धिवइ परवसे तस्स किं बुहत्तं ॥1॥ कंचणकंडे जंबुउ विंधइ
मोत्तियदामें मंकडु बंधइ ॥2॥ खीलयकारणि देउलु मोडइ सुत्तणिमित्तु दित्तु मणि फोडइ॥3॥ कप्पूरायररुक्खु णिसुंभइ
कोद्दवछत्तहु वइ पारंभइ॥4॥ तिलखलु पयइ डहिवि चंदणतरु विसु गेण्हइ सप्पहु ढोयवि करु॥5॥ पीयई कसणइं लोहियसुक्कई तक्कें विक्कइ सो माणिक्कइं॥6॥ जो मणुयत्तणु भोएं णासह तेण समाणु हीणु को सीसइ॥7॥ चित्तु समत्तणि णेय णियत्तइ पुत्तु कलत्तु वित्तु संचितइ॥४॥ मरइ रसणफंसणरसदड्ढउ
मे मे मे करंतु जिह मेंढउ॥9॥ खज्जइ पलयकालसद्लें
डज्झइ दुक्खहुयासणजालें॥10॥ मंजरु कुंजरु महिसउ मंडलु होइ जीव मक्कडु माहुंडलु ।।11।।
घत्ता
-
केलासहु जाइवि तवयरणु ताएं भासिउ किज्जइ। जेणेह सुदूसहतावयरि संसारिणि तिस छिज्जइ।12।।
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(जो) सोने के तीर से सियार को आहत करता है, (जो) मोती की रस्सी से बन्दर को बाँधता है। (3) (जो) खम्भे के प्रयोजन से देव-मन्दिर को तोड़ता है, (जो) सूत के निमित्त (माला में पिरोये हुए) दीप्त मणि को फोड़ता है। (4) (जो) कपूर के श्रेष्ठ वृक्ष को नष्ट करता है (और) (उससे) कोदों के खेत की बाड़ बनाता है। (5) (जो) चन्दन के वृक्ष को जलाकर (उससे) तिलों की खल को पकाता है (और) (जो) हाथ में सर्प को ढोकर विष ग्रहण करता है। (6) वह पीले, काले, लाल और सफेद माणिक्यों को छाछ के प्रयोजन से बेचता है। (7) जो मनुष्यत्व को भोग के प्रयोजन से नष्ट करता है, उसके समान हीन कौन कहा जाता है? (8) (जो) समत्व में चित्त को नहीं लगाता है (और) पुत्र, पत्नी और धन की अत्यन्त चिन्ता करता है। (9) (जो) जिह्वा और स्पर्शन इन्द्रियों के रस से सताया हुआ मरता है, जिस प्रकार मेढा मे-मे (शब्द) करता हुआ (मरता) है। (10) (जो) प्रलयकालरूपी बाघ (सिंह) के द्वारा खाया जाता है (तथा) दुःखरूपी अग्नि की ज्वाला के द्वारा जलाया जाता है। (11) (ऐसा) जीव बिलाव, हाथी, भैंसा, कुत्ता, बन्दर और सर्प होता है।
__ घत्ता - जिसके द्वारा कैलाश पर्वत पर जाकर पिता के द्वारा बताया हुआ तप का आचरण (यदि) किया जाता है (तो) (उस) संसारी के द्वारा यहाँ अत्यन्त दुसह्य-दुःखकारी प्यास छेदी जाती है।
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पाठ - 7
महापुराण
सन्धि
- 16
16.11
ता पत्तो चरो पुरं णिवइणो धरं भणइ सुण सुराया। इसिणो तुह सहोयरा सीलसायरा अज्जु देव जाया॥1॥
एक्कु जि पर बाहुबलि सुदुम्मइ
णउ तउ करइ ण तुम्हहं पणवइ ॥2॥
16.19
जं दिण्णं महेसिणा दुरियणासिणा णयरदेसमेत्तं ।
तं मह लिहियसासणं कुलविहूसणं हरइ को पहुत्तं ॥1॥ केसरिकेसरु वरसइथणयलु
सुहडहु सरणु मज्झु धरणीयलु॥2॥ जो हत्थेण छिवइ सो केहउ
किं कयंतु कालाणलु जेहउ॥3॥ हउं सो पणवमि को सो भण्णइ महिखंडेण कवण परमुण्णइ॥4॥ किं जम्मणि देवहिं अहिसिंचिउ किं मंदरगिरिसिहरि समच्चिउ॥5॥ किं तहु अग्गइ सुरवइ णच्चिउ सिरिसइरिणियइ किं रोमंचिउ॥6॥ चक्कु दंडु तं तासु जि सारउ महु पुणु णं कुंभारहु केरउ॥7॥ करिसूयररहवरडिंभयरहं
णर णिहणमि रणि जे वि महारह॥8॥ भरहु हरइ किं मज्झु भुयाभरु तइ चुक्कइ जइ सुमरइ जिणवरु॥9॥
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पाठ 7
महापुराण
सन्धि 16
16.11
(1 ) तो दूत पहले राजा (भरत) के घर पहुँचा (और) बोला- हे श्रेष्ठ राजन् ! (आप) सुनो! हे देव! शील के सागर तुम्हारे भाई आज ( ही ) मुनि हो गये हैं। (2) किन्तु एक बाहुबलि ही अत्यन्त दुर्मति ( है ) ( जो ) न तप करता है (और) न तुमको प्रणाम करता है ।
16.19
(1) जो पाप के नाशक महर्षि (ऋषभ ) के द्वारा (मेरे लिए) केवल (कुछ) नगर और देश दिए गए हैं, वह मेरे लिए लिखित आदेश ( है ), (तथा) (वह) (मेरे) कुल की शोभा (है) । ( उस) प्रभुता को कौन छीनता ( छीन सकता है ।) (2-3) जो (व्यक्ति) सिंह के बाल को, श्रेष्ठ सती के वक्षस्थल को, सुभट की शरण को तथा मेरी जमीन को हाथ से छूता है, क्या (तुम समझते हो ) वह कैसा (होता है ) ? ( वह ऐसा ही होता है) जैसा यम और कालरूपी अग्नि (होती है) । (4) वह कौन ( है ) (जो ) मैं उसको प्रणाम करूँ ? पृथ्वी खण्ड के कारण किसकी परम उन्नति कही जाती हैं? (5) क्या (वह) जन्म पर देवताओं के द्वारा अभिषेक किया गया ? क्या ( वह ) सुमेरु पर्वत के शिखर पर पूजा गया ? ( 6 ) क्या उसके आगे इन्द्र नाचा ( है ) ? अरे ! ( वह) स्वेच्छाचारिणी लक्ष्मी के द्वारा क्यों पुलकित ( है ) ? (7) वह चक्र और दण्ड उसके लिए ही महत्त्वपूर्ण (मूल्यवान ) है, किन्तु मेरे लिए (तो) वह कुम्हार का (चक्र) (है)। (8) हाथीरूपी सूअरों पर, श्रेष्ठ रथों पर तथा छोटे रथ ( - समूह ) पर जो भी योद्धा मनुष्य ( है ) ( उनको) मैं रण में मारूँगा ( नष्ट करूँगा ) | ( 9 ) भरत मेरे
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घत्ता -
तहु मेइणि महु पोयणणयरु आइजिणिंदें दिण्णउं। अभिडउ पडउ असि सिहिसिहहिं जइ ण सरइ पडिपवण्णउं॥10॥
16.20
ता दूएण जंपियं किं सुविप्पियं भणसि भो कुमारा।
वाणा भरहपेसिया पिंछभूसिया होंति दुण्णिवारा॥1॥ पत्थरेण किं मेरु दलिज्जइ किं खरेण मायंगु खलिज्जइ ॥2॥ खज्जोएं रवि णित्तेइज्जइ
किं घुट्टेण जलहि सोसिज्जइ ॥3॥ गोप्पएण किं णहु माणिज्जइ अण्णाणे किं जिणु जाणिज्जइ॥4॥ वायसेण किं गरुडु णिरुज्झइ णवकमलेण कुलिसु किं विज्झइ॥5॥ करिणा किं मयारि मारिज्जइ किं वसहेण वग्धु दारिज्जइ ।।6।। किं हंसें ससंकु धवलिज्जइ किं मणुएण कालु कवलिज्जइ॥7॥ डेंडुहेण किं सप्पु डसिज्जइ
किं कम्मेण सिद्ध वसि किज्जइ ॥8॥ किं णीसासें लोउ णिहिप्पड़ किं पई भरहणराहिउ जिप्पइ ॥9॥
घत्ता
-
हो होउ पहुप्पइ जंपिएण राउ तुहुप्परि वग्गइ। करवालहिं सूलहिं सव्वलहिं परइ रणंगणि लग्गइ॥10॥
16.21
ता भणियं सहेउणा मयरकेउणा एत्थ कहिं मि जाया।
जे परदविणहारिणो कलहकारिणो ते जयम्मि राया॥1॥ वुड्ढउ जंबुउ सिव सद्दिज्जइ एण णाई महु हासउ दिज्जइ।।2।
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भुजाबल को क्या हरेगा? यदि (वह) जिनवर का स्मरण करता है, तभी (वह) बच निकलेगा।
घत्ता - उसकी पृथ्वी और मेरा पोदनपुर नगर आदिजिनेन्द्र के द्वारा दिए हए (हैं)। यदि (वह) स्वीकार किये हुए (विभाजन) को नहीं मानता है, (तो) (मेरी) तलवार को मिले (और) अग्नि की ज्वाला में पड़े।
16.20
(1) तब दूत के द्वारा (यह) कहा गया- हे कुमार! (आप) क्या अप्रिय (वचन) कहते हो। भरत के द्वारा भेजे हुए पंख से विभूषित बाण कठिनाईपूर्वक हटाये जानेवाले होते हैं। (2) क्या पत्थर से मेरु (पर्वत) टुकड़े-टुकड़े किया जाता है? क्या गधे के द्वारा हाथी गिराया जाता है? (3) जुगनू द्वारा क्या सूर्य तेजरहित किया जाता है? चूंट के द्वारा क्या समुद्र सुखाया जाता है? (4) गौ के पैर के द्वारा क्या आकाश मापा जाता है? अज्ञान के द्वारा क्या जिनेन्द्र समझा जाता है? (5) कौए के द्वारा क्या गरुड़ रोका जाता है? नूतन कमल के द्वारा क्या वज्र बेधा जाता है? (6) हाथी के द्वारा क्या सिंह मारा जाता है? बैल के द्वारा क्या शेर चीरा जाता है? (7) क्या धोबी के द्वारा चन्द्रमा सफेद किया जाता है? क्या मनुष्य के द्वारा काल निगला जाता है? (8) क्या मेंढक के द्वारा साँप काटा जाता है? क्या कर्म के द्वारा सिद्ध वश में किया जाता है? (9) क्या श्वास से लोक स्थापित किया जाता है? क्या तुम्हारे द्वारा भरत-नराधिप जीता जाता है?
घत्ता - आश्चर्य! (कोई) प्रलाप किया हुआ होने के कारण समर्थ होता है (तो) होवे। राजा (भरत) तलवारों के साथ, त्रिशूलों के साथ, बौँ के साथ निकटवर्ती रण के आँगन में भ्रमण करेगा और तुम्हारे ऊपर चौकड़ी भरेगा।
16.21
(1) तब कामदेव (बाहुबलि) के द्वारा युक्तिसहित (यह) कहा गया- जो परद्रव्य को हरनेवाला (है), कलहकारी (है), (क्या) वे जगत में यहाँ या कहीं भी
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जो बलवंतु चोरु सो राणउ हिप्पड़ मृगहु मृगेण जि आमिसु रक्खाकखइ जूहु रएप्पिणु ते णिवसंति तिलोइगविट्ठउ माणभंगि वर मरणु ण जीविउ आवउ भाउ घाउ तहु दंसमि सिहिसिहाहं देविंदु विण सहइ एक्कु जि परउव्वारुणरिंदहु
घत्ता
-
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णिब्बलु पुणु किज्जइ णिप्राणउ ॥3॥ हिप्पड़ मणुयहु मणुण जि वसु ॥4॥ एक्कहु केरि आण लएप्पिणु ॥5॥ सीह केरउ वंदु ण दिट्ठउ ॥ 6 ॥ एहउ दूय सुट्ठ मई भाविउं ॥ 7 ॥ संझाराउ व खणि विद्धंसमि ॥ 8 ॥ महु मणसियहु विसिह को विसह ॥ १ ॥ जड़ पइसरइ सरणु जिणयंदहु ॥10 ॥
संघट्टमि लुट्टमि गयघडहु दलमि सुहड रणमग्गइ । पहु आवउ दावउ बाहुबलु महु बाहुबलहि अग्गइ ॥1 ॥
ता दूउ विणिग्गओ णियपुरं गओ तम्मि णिवणिवासं । सो विण्णव सायरं सारसायरं पणविउं महीसं ॥ 1 ॥ विसमु देव बाहुबलि णरेसरु कज्जु ण बंधइ बंधड़ परियरु पई उ पेच्छइ पेच्छइ भुयबलु माणु ण छंडइ छंडइ भयरसु संति ण मण मण्णइ कुलकलि तुज्झु ण णवइ णवइ मुणितंडउ
16.22
हुण संधइ संधइ गुणि सरु ॥2॥ संधि ण इच्छइ इच्छइ संगरु ॥3॥ आणण पालइ पालइ णियछलु ॥ 4 ॥ दयवु ण चिंतइ चिंतइ पोरिसु ॥5॥ पुहइ ण देइ देइ वाणावलि ॥6॥ अंगुण कड्ढड् कड्ढइ खंडउ ॥ 7 ॥
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राजा हुए (हैं)? (2) (वह) (भरत) बूढ़ा सियार (है) (जिसके द्वारा) (अब भी) समृद्धि बुलाई जाती है। इससे मानो मेरे लिए हँसी दी जाती है। (3) जो बलवान चोर (है) वह राजा (होता है), (उसके द्वारा) फिर निर्बल (व्यक्ति) निष्प्राण किया जाता है। (4) पशु के द्वारा पशु का माँस ही छीना जाता है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य का प्रभुत्व ही छीना जाता है। (5-6) रक्षा की इच्छा से व्यूह रचकर, एक की आज्ञा लेकर वे (राजा) निवास करते हैं। त्रिलोक में खोज किया हुआ (है) (कि) सिंह का समूह नहीं देखा गया (है)। (7) मान के भंग होने पर मरण श्रेष्ठ (है), जीवन नहीं। हे दूत! ऐसा मेरे द्वारा सचमुच विचारा गया (है)। (8) भाई आवे, (मैं) उसके घात को दिखलाऊँगा। सन्ध्याराग की तरह एक क्षण में नष्ट कर दूंगा। (9) अग्नि की ज्वालाओं को देवेन्द्र भी नहीं सह सकता है, (तो) मुझ कामदेव के बाणों को कौन सहेगा? (10) राजा की परम भलाई एक (इसमें) ही है यदि (राजा) जिनदेव की शरण को चला जाये।
घत्ता - (मैं) गजसमूह को लूलूंगा, मारूँगा (और) योद्धाओं को रण-पथ में चूर-चूर करूँगा। राजा आवे, (अपने) बाहुबल को मुझ बाहुबलि के आगे दिखाए।
16.22
(1) तब दूत निज-नगर को गया और उस (नगर) में राजा के घर गया। (उसके द्वारा) बलरूपी सागर, पृथ्वी का ईश आदर-सहित प्रणाम किया गया। उसने (राजा को) कहा- (2) हे देव! हे नरेश्वर! बाहुबलि खतरनाक (है) (वह) स्नेह नहीं रखता है, (किन्तु) धनुष की डोरी पर बाण रखता है। (3) (वह) कार्य नहीं करता (पर) कमर कसता है। (वह) सन्धि नहीं चाहता है, (पर) युद्ध चाहता है। (4) (वह) तुमको नहीं देखता है, (अपनी) भुजाओं के बल को देखता है। (वह) (तुम्हारी) आज्ञा को नहीं पालता है, किन्तु अपनी दलील को पालता है। (5) (वह) स्वाभिमान नहीं छोड़ता है, भय का भाव छोड़ता है। (वह) प्रारब्ध को नहीं विचारता है, (किन्तु) पुरुषार्थ को विचारता है। (6) (वह) शान्ति नहीं विचारता है, कुटुम्ब का झगड़ा विचारता है। (वह) पृथिवी नहीं देता है, (किन्तु) बाणों की पंक्ति देता है। (7) (वह) तुमको प्रणाम नहीं करता है, मुनिसमूह को प्रणाम करता
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देव ण देइ भाइ तुह पोयणु ढोयइ रयणंइ णउ करिरयणइं
पर जाणमि देसइ रणभोयणु ॥8॥ ढोएसइ ध्रुवु णरउररयणइं ॥9॥
घत्ता -
संताणु कुलक्कमु गुरुकहिउ खत्तधम्मु णउ वुज्झइ। मज्जायविवज्जिउ सामरिसु अवसें दाइउ जुज्झइ॥10॥
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है। (वह) अंग को नहीं खींचता है (किन्तु) तलवारों को खींचता है। (8) हे देव! भाई तुम्हें पोदनपुर नहीं देगा। किन्तु (मैं) जानता हूँ (वह) (तुम्हें) रणरूपी भोजन देगा। (9) (वह) रत्नों और हाथीरूपी रत्नों को (तुमको) भेंट नहीं करेगा। (वह) निश्चितरूप से मनुष्य के छातीरूपी रत्नों को भेंट करेगा।
घत्ता - (वह) वंश, कुलाचार, गुरु के द्वारा कथित क्षत्रियधर्म को नहीं समझता है। (वह) मर्यादारहित, ईर्ष्यालु, समानगोत्रीय (भाई) अवश्य ही युद्ध करेगा।
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पाठ -8
महापुराण
सन्धि - 17
17.7
घत्ता
-
छुडु छुडु कारणि वसुमइहि सेण्णइं जाम हणंति परोप्परु। अंतरि ताम पइट्ठ तहिं मंति चवंति समुब्भिवि णियकरु॥
17.8
बिहिं बलहं मज्झि जो मुयइ बाण तं णिसुणिवि सेण्णइं सारियाई तं णिसुणिवि रहसाऊरियाई तं णिसुणिवि धारापहसियाई तं णिसुणिवि णिद्धंगई धणाई तं णिसुणिवि मय-मायंग रुद्ध तं णिसुणिवि मच्छरभावभरिय रह खंचिय कड्ढिय पग्गहोह
तहु होसइ रिसहहु तणिय आण॥1॥ चडियइं चावई उत्तारियाई॥2॥ वज्जंतई तूरई वारियाई॥3॥ करवालई कोसि णिवेसियाइं॥4॥ णिम्मुक्कई कवयणिबंधणाई॥5॥ पडिगयवरगंधालुद्ध कुद्ध ॥6॥ हरि फुरुहरंत धावंत धरिय॥7॥ वारिय विंधंत अणेय जोह॥8॥
17.9
पणमियसिरेहिं मउलियकरहिं उग्गमियरोसपसमंतएहिं
बाहुबलि भरहु महुरक्खरेहि॥1॥ विण्णि वि विण्णविय महंतएहिं॥2॥
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पाठ -8
महापुराण
सन्धि - 17
17.7
घत्ता - अति शीघ्र ही धरती के प्रयोजन से ज्यों ही सेनाएँ एक-दूसरे पर प्रहार करती हैं, त्यों ही वहाँ बीच में मंत्री प्रविष्ट हुए और (उन्होंने) अपना हाथ ऊँचा करके कहा।
17.8
(1) दोनों सेनाओं के बीच में जो बाण छोड़ेगा, उसके लिए ऋषभदेव की सौगन्ध होगी। (2) उस (बात) को सुनकर सेनाएँ हटाई गई, चढ़े हुए धनुष उतारे गए। (3) उस (बात) को सुनकर वेग से भरी हुई (तथा) बजती हुई तुरहियाँ रोकी गईं। (4) उस (बात) को सुनकर धारों का उपहास की हुई तलवारें म्यान में रख दी गई। (5) उस (बात) को सुनकर घने (और) कान्ति-युक्त घटकवाले कवचों के बन्धन खोल दिए गए। (6) उस (बात) को सुनकर प्रतिपक्षी (हाथियों की) श्रेष्ठ गन्ध के इच्छुक क्रुद्ध, मदवाले हाथी रोक लिए गए। (7) उस (बात) को सुनकर ईर्ष्याभाव से भरे हुए, थरथराते हुए और दौड़ते हुए घोड़े पकड़ लिए गए। (8) रथ खींच लिए गए, लगामें (भी) खींच ली गईं, बेधते हुए अनेक योद्धा रोक दिए गए।
17.9
(1-2) संकुचित किए हुए हाथों से (और) सिरों से प्रणाम करके, मधुर शब्दों से, उत्पन्न हुए क्रोध को शान्त करते हुए मंत्रियों द्वारा भरत और बाहुबलि दोनों ही
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तुम्हइं विण्णि वि जण चरमदेह तुम्हई विण्णि वि जयलच्छिगेह ॥3॥ तुम्हइं विण्णि वि अखलियपयाव तुम्हइं विण्णि वि गंभीरराव।।4।। तुम्हई विण्णि वि जगधरणथाम तुम्हइं विण्णि वि रामाहिराम ॥5॥ तुम्हइं विण्णि वि सुरहं मि पयंड महिमहिलहि केरा बाहुदंड॥6॥ तुम्हई विण्णि वि णिवणायकुसल णियतायपायपंकरुहभसल ॥7॥ तुम्हई विण्णि वि जण जणहु चक्खु इच्छहु अम्हारउ धम्मपक्नु ॥8॥ खरपहरणधारादारिएण
किं किंकरणियरें मारिएण॥9॥ किर काइं वराएं दंडिएण
सीमंतिणिसत्थें रंडिएण॥10॥ दोहं मि केरा मज्झत्थ होवि आउहु मेल्लिवि खमभाउ लेवि॥11॥
घत्ता -
अवलोयंतु धराहिवइ एत्तिउ किज्जउ सुत्तु सुजुत्तउ। तुम्हहं दोहं मि होउ रणु तिविहु धम्मणाएण णिउत्तउ॥12॥
17.10
पहिलउ अवरोप्परु दिट्टि धरह मा पत्तलपत्तणचलणु करह ॥1॥ बीयउ हंसावलिमाणिएण
अवरोप्परु सिंचहु पाणिएण ॥2॥ जुज्झह बिण्णि वि णिवमल्ल ताम । एक्केण तुलिज्जइ एक्कु जाम ॥4॥ अवरोप्परु जिणिवि परक्कमेण गेण्हहु कुलहरसिरि विक्कमेण॥5॥ तणुसोहाहसियपुरंदरेहिं
ता चिंतिउ दोहिं मि सुंदरेहिं।।6।। किं दूहवियहि णवजोव्वणेण किं फलिएण वि कडुएं वणेण॥7॥
घत्ता
-
जे ण करंति सुहासियई मंतिहिं भासियाई णयवयणइं। ताहं णरिंदहं रिद्धि कओ कहिं, सीहासणछत्तई रयणइं॥10॥
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आप
कहे गये - ( 3 ) आप दोनों ही मनुष्य अन्तिम देहवाले ( हैं ), आप दोनों ही विजयरूपी लक्ष्मी के घर ( हैं ) । (4) आप दोनों ही अबाधित प्रतापवाले ( हैं ), दोनों ही गम्भीर वाणीवाले ( हैं ) । ( 5 ) आप दोनों ही जगत् को धारण करने की शक्तिवाले हो, आप दोनों ही स्त्रियों के लिए आकर्षक हो । ( 6 ) आप दोनों ही देवताओं के लिए भी प्रचण्ड (भयंकर) (हो), (तथा) पृथ्वीरूपी महिला की लम्बी भुजाएँ (हो) । ( 7 ) आप दोनों ही राजनीति में कुशल (हो) । आप दोनों ही निज पिता के चरणरूपी कमलों के भौरे ( हैं ) । (8) आप दोनों ही जन-जन के चक्षु ( हैं ), (आप) हमारे धर्म - पक्ष को चाहें। ( 9 ) प्रखर आयुधों की धार से विदारित (और) मारे गए अनुचर - समूह से क्या (लाभ) ( है ) ? ( 10 ) सजा दिए हुए ( उन ) बेचारों से (आपका ) क्या (लाभ) ? विधवा किए हुए नारी - समूह से (आपको ) ( क्या ) ( लाभ ) ? ( 11 ) (आप) दोनों (सेनाओं) के ही मध्य-स्थित होकर आयुध छोड़कर क्षमा-भाव को धारण करके ( रहें ) ।
घत्ता
उपयुक्त और भली प्रकार कहे हुए को समझते हुए हे राजन् ! इतना किया जाए- तुम दोनों में ही धर्म और न्याय से निर्धारित तीन प्रकार का युद्ध हो ।
-
(1) पहले (आप) एक-दूसरे पर दृष्टि डालो ( और उसमें ) पलकों के बालरूपी बाणों के अग्रभाग का हलन चलन मत करो । ( 2 ) दूसरा, हंस की कतारों से सम्मानित पानी द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध छिड़काव करो । ( 4 ) ( उसी प्रकार ) (आप) दोनों ही राजारूपी पहलवान तब तक युद्ध करें जब तक एक के द्वारा एक उठा (नहीं) लिया जाता है। (5) (अपनी ) शूरवीरता से एक-दूसरे को जीतकर (अपने सामर्थ्य से पितृ-गृह के वैभव को ग्रहण करें। (6) (जिनके द्वारा) शरीर की शोभा के कारण इन्द्र का उपहास किया गया ( है ), ( उन ) दोनों सुन्दर ( राजाओं ) द्वारा भी उस समय विचारा गया । ( 7 ) दुःखी करनेवाले नव-यौवन से क्या (लाभ) ? फले हुए कड़वे वन से भी क्या (लाभ) ?
17.10
घत्ता
जो मंत्रियों द्वारा कहे हुए सुन्दर वचनों को (तथा) नीति - वचनों को व्यवहार में नहीं करते हैं, उन राजाओं की रिद्धि कहाँ से ( रहेगी) (तथा) ( उनके लिए) सिंहासन, छत्र और रत्न कहाँ ( होंगे ) ?
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-
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पाठ -9
जंबूसामिचरिउ
सन्धि
- 9
9.8
विणयसिरीऍ कहाणउ सीसइ संखिणिनिहि वरइत्तहों दीसइ॥1॥ कम्मि पुरम्मि दरिदें ताडिउ
संखिणि नाम को वि कव्वाडिउ॥2॥ दिणि दिणि वणे कव्वाडहों धावइ भोयणमत्तु किलेसें पावइ ॥3॥ भुत्तसेसु दिवसेसु पवनउ
रूवउ एक्कु रोक्कु संपन्नउ॥4॥ महिलसहाएँ रहसें चड्डिउ
कलसे छुहेंवि धरायले गड्डिउ॥5॥ अह रविगहणे कयावि विहाणइँ चलियइँ तित्थे चयवि नियथाणइँ॥6॥ पूरिएहिँ मणिरयणसुवण्णहिँ
अवलोइउ संखिणिनिहि अण्णहिँ।।7।। मंतिज्जएँ आएण असारें
खडहडंतरूवयसंचारें ॥8॥ जाणाविउ लोयाण समग्गा
अम्हइँ गिहाविज्जहु लग्गा॥9॥ चिंतेंवि तम्मि छुद्ध निउ भल्लउ एक्केक्कउ मणिरयणु गरिल्लउ॥10॥ सो संपुण्णु करेवि पवत्तइँ
पहाऍवि तित्थें निययघरु पत्तइँ॥11॥ अह छणदिणि महिलाएँ कहिज्जइ रूवउ अज्जु नाह विलसिज्जइ ॥12॥ संखिणि खणइ कलसु जहिँ धरियउ दिट्ठउ ताम कणयमणिभरियउ॥13॥
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पाठ
9
जंबूसामिचरिउ
सन्धि - 9
9.8
(1) विनयश्री के द्वारा (एक) कथानक कहा गया (और) ( उसमें ) संखिणी की निधि की (बात) दूल्हे (जंबूस्वामी) के लिए बतलाई गई । ( 2 ) किसी नगर में दरिद्र (स्थिति) के द्वारा ताड़ा हुआ संखिणी नामक कोई कबाड़ी ( था ) | ( 3 ) ( वह ) प्रतिदिन वन में कबाड़ीपन ( जंगल की विभिन्न वस्तुओं) के लिए भागता था (और) ( फिर भी ) ( उससे प्राप्त कीमत से ) दुःखपूर्वक भोजनमात्र ( ही ) पाता था। (4) कुछ दिनों में भोजन में से बचा हुआ ( पैसा / भोजन) प्राप्त किया गया ( इस प्रकार ) ( उसके द्वारा) एक रुपया रोकड़ी हासिल किया गया । ( 5 ) ( उसके द्वारा ) पत्नी के सहयोग से एकान्त में चढ़ा गया ( जाया गया) (और) ( वहाँ ) (एक) कलश में ( रुपये को ) रखकर, ( वह कलश) धरती में गाड़ दिया गया । (6) बाद में सूर्य - ग्रहण के अवसर पर प्रभात में किसी भी समय निज निवासों को छोड़कर (कुछ लोग उस ) तीर्थ-स्थान को चले । (7) मणि, रत्न और सोने से सम्पन्न अन्य ( व्यक्तियों) के द्वारा संखिणी की निधि देख ली गई । ( 8-9 ) ( उधर ) आए हुए (लोगों) के द्वारा खड़खड़ करते हुए रुपये की असार गति के कारण सोचा गया ( कि ) स्व-मार्ग में लगे हुए लोगों के लिए (रुपये के द्वारा) (कुछ) बतलाया गया है (और उसने) हम (कुछ) ग्रहण कराये जाते हैं । ( 10 ) उस (विषय) में निज भले को सोचकर (उनके द्वारा) एक - एक श्रेष्ठ मणिरत्न ( कलश में) डाल दिया गया । ( 11 ) वह (कलश) पूर्ण कर दिया गया ( ऐसा करके, (वे) (यात्रा पर ) प्रवृत्त हुए । तीर्थ में स्नान करके (वे सब ) अपने घर को पहुँचे । ( 12 ) तब ( किसी ) उत्सव के दिन पर पत्नी के द्वारा कहा गया ( कि) हे नाथ! आज ( पहले रखा हुआ ) रुपया भोग किया जाए। (13) संखिणी ( वहाँ ) खोदता है जहाँ पर कलश रखा गया था, तब
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सरहसु रहसें कहिउ पिएँ पेक्खहि अज्जवि सिद्धिएण निहाणें किं पि न लेमि करेमि न खोयणु अह कलसेसु छुर्हेवि एक्केक्कर अणहिँ पव्वें पुणु वि पहें दिट्ठइ निहिहिँ रयणु एक्केक्कउ लइयउ अवरहि समऍ जाम उग्घाडइ अच्छउ रयणसमूहु सरूवउ
धत्ता
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तं निसुणेवि कुमारें वुच्चइ रयणिहि नयरें सियालु पइट्ठउ भक्खतेण दंत - वर्णे काणिउँ हुऍ पहाऍ वस - आमिसमुज्झिउ भयकंपिरु नीसरिवि न सक्कउ
मइँ सम पुण्णवंतु को लक्खहि ॥14॥ रयमि उवा अवरु मइनाणें ॥15 ॥ होसइ कव्वाडेण वि भोयणु ॥16॥ बहु दविणासऍ गड्ढेवि मुक्कउ ॥17॥ पूरहु केम हियऍ न पइट्ठइ ॥ 18 ॥ सुणउ करेंवि सव्वु परिचयउ ॥19॥ रित्त नियवि करहिं सिरु ताडइ ॥ २० ॥ सो वि विडु मूलि जो रूवउ ॥21॥
साहीणलच्छि नउ भुंजइ महइ समग्गल सग्गदिहि | संखिणिहि जेम वरइत्तों करें लग्गेसइ सुण्णनिहि ॥ 22 ॥
9.11
विसु साहीणु किं न लहु मुच्च ॥1॥ मुउ बलद्दु रच्छामुहें दिट्ठउ ॥2॥ रयणिविरामपमाणु न जाणिउँ ॥3॥ जणसंचारवमालें बुज्झिउ ॥4॥ चिंतियमंतु पडेविणु थक्क ||5||
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(वह) (कलश) स्वर्ण तथा मणियों से भरा हुआ देखा गया। (14) उत्साहसहित एकान्त में कहा गया-हे प्रिय! देख, मेरे समान कौन पुण्यवान (है)? (तुम) समझो। (15) आज ही (मैं) बुद्धि-ज्ञान से, योग-शक्ति की युक्ति से खजाने में (वृद्धि के लिए) दूसरा उपाय रचता हूँ। (16) (इसमें से) मैं कुछ भी नहीं लूँगा। (और) (मैं) (इसका) खनन (भी) नहीं करूँगा। (पूर्ववत्) कबाड़ीपन से ही भोजन हो जायेगा। (17) तब (उसके द्वारा) कलशों में एक-एक (रत्न) को रखकर बहुत द्रव्य की आशा से (प्रत्येक कलश) गाड़कर छोड़ दिया गया। (18) फिर (किसी) दूसरे पर्व पर पथ में (उन यात्रियों द्वारा पुनः) (कलश) देखे गये (और विचारा गया कि) किस प्रकार (इन्हें) (हम) भरें। (ये बातें) हृदय में नहीं बैठीं। (19) (तब) निधि में से एक-एक रत्न ले लिया गया (और) सब (कलशों को) खाली करके (वहाँ) (ही) छोड़ दिया गया। (20) किसी दूसरे समय जब (वह) (कलशों को) उघाड़ता है (तो) खाली (कलशों) को (ही) देखकर हाथों से (अपना) सिर पीटता है। (21) (और कहता है)- सौन्दर्य-युक्त रत्न-समूह को (तो) जाने दो, (किन्तु दुःख है कि) जो रुपया मूल में था वह भी नष्ट हो गया।
घत्ता - (जो) स्वाधीन लक्ष्मी को (तो) नहीं भोगता है (किन्तु) पूर्ण मोक्षसुख की इच्छा करता है, (उस) दूल्हे (जम्बूस्वामी) के हाथों में शून्य निधि (ही) लगेगी, जिस प्रकार संखिणी के (हाथ में शून्य निधि ही लगी)।
9.11
(1) उसको सुनकर कुमार (जंबूस्वामी) के द्वारा कहा गया- अपने पास (यदि) विष (है) (तो) क्या (वह) शीघ्र नहीं छोड़ दिया जाता है? (2) रात्रि में नगर में (एक) गीदड़ प्रविष्ट हुआ (उसके द्वारा) मरा हुआ बैल मोहल्ले के मुख पर (ही) देखा गया। (3) दाँतों के समूह से (बैल को) खाते रहने के कारण (उसका दाँत-समूह) ढीला हो गया। (और) (खाने में लीन होने के कारण) रात्रि की समाप्ति की सीमा (उसके द्वारा) नहीं जानी गईं। (4) प्रभात होने पर बैल के माँस में मोहित (गीदड़) मनुष्यों के आवागमन के कोलाहल से होश में आया। (5) (मनुष्यों को देखकर) (वह) भय से कंपनशील (हुआ) (पर) (नगर से) निकलकर (भागने के
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अप्पर मुयउ करिवि दरिसावमि दीसइ दिवसि मिलिय पुरलोएं
ओसहत्थु लुउ पुच्छ-सकण्णउ जीवेसमि अपुच्छु विणु कण्णहिँ वोल्लइ अवरु एक्कु कामुयजणु पाहणु लेवि दंत किर चूरइ खंडियपुच्छ-कण्ण मण्णिय तिणु चिंतवि मुक्कु धाउ जव-पाणे मारिउ ताम जाण कयनाएं इय विसयंधु मूदु जो अच्छइ
किर वणु पुणु वि निसागमि पावमि॥6॥ एक्कें नरेंण पवड्ढियरोएं ॥7॥ चिंतइ जंबुउ अज्ज वि धण्णउ ॥8॥ एक्कबार जइ छुट्टमि पुण्णहिँ ॥9॥ गेहमि दन्तु करमि वसि पियमणु॥10॥ जाणिवि जंबुउ हियइ बिसूरइ ॥11॥ दुक्करु जीवियास दंतहिँ विणु ॥12॥ लइउ कंठें हरिसरिसें साणें ॥13॥ खद्धउ मिलिवि सुणहसमवाएं ॥14॥ कवणभंति सो पलयों गच्छइ ॥15॥
10.11
जंबूसामि कहाणउ साहइ गउ परतीरें पुहइधणतुल्लउ चडिवि पोइ लंघइ सायरजलु जा वेलाउलु पावमि तहिं पुणु हरि-करि किणवि भंडु नाणाविहु अह हत्थाउ गलिउ दरनिद्दों धाहावइ तरियहु दीहरगिरु
वाणिउ को वि परोहणु वाहइ॥1॥ एक्कु जि रयणु किणिउ बहुमोल्लउ॥2॥
आवंतउ चिंतइ मणे मंगलु॥3॥ विक्कमि ऍउ माणिक्कु महागुणु॥4॥ घरु जाएसमि निवसंपयनिहु॥5॥ पडिउ रयणु तं मज्झे समुद्दहों॥6॥ हा हा जाणवत्तु किज्जउ थिरु॥7॥
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लिए) समर्थ नहीं हुआ। (तो) (मन में) योजना विचारी गई (जिसके अनुसार) (वह) (जमीन पर) पड़कर निश्चेष्ट हुआ। (6) (यह ठीक है कि) (मैं) अपने को मरा हुआ बनकर दिखलाता हूँ। फिर रात्रि आने पर अवश्य ही वन को जाऊँगा। (7-8) दिन (होने) पर नगर के लोगों द्वारा मिलकर (वह) देखा गया। बढ़े हुए रोग के कारण एक मनुष्य के द्वारा औषधि के लिए (निमित्त) (उसकी) कान-सहित पूँछ काट ली गई। गीदड़ ने सोचा (कि) आज भी (अभी भी) भाग्यशाली (हँ)। (9) पूँछरहित और बिना कानों से (मैं) जी लूँगा। यदि केवल एक बार पुण्यों से छूट जाऊँ। (10) (तभी) एक अन्य (दूसरा) कामुक मनुष्य बोला- (मैं) दाँत लेता हूँ, (इससे) प्रिया के मन को वश में करूँगा। (11) (वह) पत्थर लेकर दाँत तोड़ता है। गीदड़ ने (यह) जानकर मन में खेद किया। (12) (उसने सोचा) (कि जब) पूँछ और कान काटे गए (तो) (मेरे द्वारा) (वह घटना) तुच्छ मानी गई। (किन्तु) दाँतों के बिना (तो) जीने की उम्मीद कठिन (है)। (13) (ऐसा) सोचकर (वह) म्लान (गीदड़) प्राणोंसहित वेग से भागा, (तो) सिंह के समान (खुंखार) कुत्ते के द्वारा (वह) मुँह (कण्ठ) में पकड़ लिया गया। (14) और मार दिया गया। मार डालने के कारण उस समय (वह) कुत्तों के समूह के द्वारा मिलकर खा लिया गया, (इस बात को) (तुम सब) समझो। (15) इस प्रकार जो मूढ़ (व्यक्ति, (इन्द्रिय-) विषयों में अन्धा रहता है, वह नाश को पाता है। (इसमें) क्या सन्देह (रह जाता
10.11
(1) जंबूस्वामी कथानक कहते हैं- कोई वणिक जहाज ले गया। (2) (वह) दूसरे किनारे पर गया। (उसके द्वारा) पृथ्वी के धन के तुल्य एक ही बहुमूल्य रत्न खरीदा गया। (3) (जब) (वह) जहाज पर चढ़कर सागर के जल को पार करता है (तो) (किनारे पर) पहुँचते हुए मन में इष्ट (बातें) सोचने लगा। (4-5) जब (मैं) बन्दरगाह (समुद्र तट) को पहुँचूँगा फिर (मैं) वहाँ इस अत्यधिक कीमतवाले माणिक-रत्न को बेचूँगा (और) (फिर) राजा की सम्पदा के समान नाना प्रकार के बर्तन (भांडे, सामान) घोड़े व हाथी खरीदकर (मैं) घर जाऊँगा। (6) तब अल्पनिद्रा में रत्न हाथ से निकल गया (और) वह समुद्र के भीतर जा पड़ा। (7)
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निवडिउ एत्थु रयणु अवलोयहाँ सायर नट्ठ वहंतहों पोयहाँ
तं आणेवि पुणु वि महु ढोयहाँ॥8॥ कहिँ लन्भइ माणिक्कु पलोयहाँ॥9॥
घत्ता
-
इय मणुयजम्मु माणिक्कसमु रइसुहनिद्दावसजायभमु। .. संसारसमुद्दि हरावियउ जोयंतु केम पुणु लहमि हउँ॥10॥ ,
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(तब) (उसने) हाहाकार मचाया। (पानी में) तैरे हुए (तैरते हुए) (लोगों) के लिए ऊँची आवाज (निकाली)- अरे-अरे! जहाज स्थिर किया जाए। (8) हे उपस्थित (लोगों)! यहाँ (पानी में) रत्न गिरा (है)। अवलोकन के लिए (आप) (जहाज) (रोकें) फिर उसको लाकर मेरे लिए (दो)। (9) हे देखनेवाले (मनुष्यों)! चलते हुए जहाज में सागर में लुप्त हुआ रत्न कहाँ प्राप्त किया जायेगा?
घत्ता - यह मनुष्य-जन्म रत्न के समान है। (किन्तु) (मनुष्य) रति-सुखरूपी निद्रा के वश में हुआ भ्रमण (करता है) (इस तरह) (तुम्हारे द्वारा) हराया गया मैं संसार-समुद्र में किस प्रकार खोजता हुआ फिर (मनुष्य-जन्म) पाऊँगा।
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आणि पुत्त सप्पाइ दुक्खु विसय वि ण भंति
चिरु रुद्ददत्तु वढु आयरेण
सो च्छोहजुत्तु
जूयं रमंतु
मंसासणेण
अहिलसइ मज्जु पसरइ अकित्ति
जंगल असंतु
मइरापमत्तु
रच्छ पडे
होता सगव्व साइण व वेस
तहाँ जो वसेइ वेसापमत्तु
70
पाठ
-
10
सुदंसणचरिउ
सन्धि - 2
2.10
जह आगमें सत्त वि वसण वुत्त ॥1॥ इह दिंति एक्क भवें दुण्णिरिक्खु ॥ 2 ॥ जम्मंतरकोडिहिँ दुहु जणंति ॥3॥ विडिउ णरयण्णवें विसयजुत्तु ॥4॥ जो रमाइ जूउ वहुडफ्फरेण ॥5॥ आहणइ जणणि सस घरिणि पुत्तु ॥6॥ लु तह य जुहिट्ठिल्लु विहरु पत्तु ॥ 7 ॥ वड्ढेइ दप्पु दप्पेण तेण ॥8 ॥ जूउ वि रमेइ बहुदोससज्जु ॥ 9 ॥ तें कज्जें कीरइ तहाॅ णिवित्ति ॥10॥ aणु रक्खसु मारिउ णरए पत्तु ||11|| कलहेप्पिणु हिंसइ इट्ठमित्तु ॥12॥ उब्भियकरु विहलंघलु णडेइ ||13|| गय जायव मज्जें खयहो सव्व ॥14॥ रत्ताघरसण दरिसइ सुवेस ॥15॥ सो कायरु उच्छिउ असेइ ||16|| द्विणु उ इह वणि चारुदत्तु ॥17॥
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पाठ - 10
सुदंसणचरिउ
सन्धि - 2
2.10
(1) जिस प्रकार आगम में सभी सातों व्यसन समझाए गये (हैं) हे पुत्र! (तुम) (उनको) सुनो। (2) सर्पादि (प्राणी) यहाँ एक जन्म में (ही) कठिनाई से विचार किए जानेवाले (घोर) दुःख को देते हैं। (3) किन्तु (इन्द्रिय-) विषय करोड़ों जन्मों के अवसर पर दुःख उत्पन्न करते (रहते) हैं। (इसमें) (कोई) सन्देह नहीं है। (4) (इन्द्रिय-) विषयों में लीन रुद्रदत्त दीर्घकाल के लिए नरकरूपी समुद्र में पड़ा। (5-6) जो मूर्ख उत्साहपूर्वक जुआ खेलता है, वह (जुआ में लीन होने के कारण) रोष से युक्त हुआ माता, बहिन, पत्नी और पुत्र को कष्ट देता है। (7) जुआ खेलते हुए नल ने और इसी प्रकार युधिष्ठिर ने (भी) कष्ट पाया। (8-9) माँस खाने के कारण अहंकार बढ़ता है उस अहंकार के कारण (वह) मद्य की इच्छा करता है, जुआ भी खेलता है (तथा) बहुत सी बुराइयों में गमन (करने लगता है)। (10) (उसका) अपयश फैलता है। उस कारण से उससे निवृत्ति की जानी चाहिए। (11) माँस खाते हुए वण राक्षस मारा गया (और) (उसने) नरक पाया। (12) मदिरा के कारण नशे में चूर हुआ (मनुष्य) झगड़ा करके प्रिय मित्र को (भी) कष्ट पहुँचाता है। (13) (कभी) (वह) राजमार्ग पर गिर जाता है (तथा) (कभी) (वह) उन्मत्त शरीरवाला (होकर) हाथ को ऊँचा करके नाचता है। (14) मदिरा (पीने) के कारण घमण्डी होते हुए सभी यादव विनाश को प्राप्त हुए। (15) वेश्या सुन्दर वेश दिखाती है (और) पिशाचिनी की तरह खून (के कणों) का घर्षण (करती) (है)। (16) उसके (घर में) (काम-क्रीड़ा के लिए) जो रहता है, वह अस्त-व्यस्त (व्यक्ति) (मानो) जूठन खाता है। (17) यहाँ (यह उल्लेखनीय है कि) वेश्या में मस्त हुआ व्यापारी
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कयदीणवेसु जे सूर होति वणे तिण चरंति वणमयउलाई पारद्धिरत्तु चलु चोरु धिट्ठ णियभुयबलेण भयकूवि छूढु पद्धडिय एह
णासंतु परम्मुह छुट्टकेसु ॥18॥ सवरा ह वि सो ते णउ हणंति ॥19॥ णिसुणेवि खडक्कउ णिरु डरंति।।20। किह हणइ मूदु किउ तेहिँ काइँ॥21॥ चक्कवइ णरए गउ वंभयत्तु ॥22॥ गुरुमायबप्पु माणइ ण इट्ठ ।।23।। वंचइ ते अवर वि सो छलेण ॥24॥ णउ णिद्दभुक्खु पावेइ मूढु ॥25॥ सुपसिद्धी णामें विज्जलेह ॥26॥
घत्ता
-
पावेज्जइ बंधेवि णिज्जइ वित्थारेंवि रहें चच्चरें। दंडिज्जइ तह खंडिज्जइ मारिज्जइ पुरवाहिर।।27।।
2.11
परवसुरयहो अंगारयहो इय णिऍवि जणो तो वि मूढमणो । जो परजुवइ इह अहिलसइ सहिऊण जए णिवडइ णरए परयाररया चिरु-खयों गया
सूलिहिँ भरणं जायं मरणं ।।1।। चोरी करइ णउ परिहरइ॥2॥ सो णीससइ गायइ हसइ॥3॥ होऊ अबुहा रामण पमुहा॥4॥ सत्त वि वसणा एए कसणा॥5॥
72
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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चारुदत्त धन-रहित हो गया। (18) (धन-रहित होने के कारण) (चारुदत्त को) (अपने यहाँ से) दूर हटाती हुई (वेश्या) (उससे) विमुख (हुई) (और) (उसके द्वारा) (उसके) बाल काट दिए गए (और) (उसका) वेश दयनीय बना दिया गया। (1920) जो वीर होते हैं, चाहे वह शबरों का (समूह) ही हो, वे वन में रहनेवाले मृगों के समूह को, (जो) वन में घास चरते हैं (और केवल) खड़खड़ आवाज सुनकर निश्चित डर जाते हैं, (उनको) नहीं मारते हैं। (21) (उनको) मूर्ख (व्यक्ति) क्यों मारता है? उनके द्वारा क्या किया गया है? (22) शिकार का प्रेमी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त नरक में गया। (23) चंचल और निर्लज्ज चोर गुरु, माँ और बाप को (भी)
आदरणीय नहीं मानता है। (24) वह उनको (तथा) दूसरों को भी निज भुजाओं के बल से (तथा) जालसाजी से ठगता है। (25) (वह) उपेक्षित मूढ़ (व्यक्ति) संकटरूपी कूए में (गिरता है) (और) (वह) निद्रा और भूख को नहीं पाता है। (26) यह (वह) पद्धडिया छन्द (है), (जिसकी) विद्युल्लेखा नाम से ख्याति (है)।
घत्ता - (चोर) पकड़ा जाता है, बाँधकर ले जाया जाता है, चौराहे और मुख्य मार्ग पर (उसके) (चोरी के कार्य को) फैलाकर (वह) दण्डित किया जाता है तथा शहर के बाहरी भाग में काटा जाता है (और) मारा जाता है।
2.11
(1) परद्रव्य में अनुरक्त होने के कारण अंगारक (चोर) के द्वारा सूलियों पर धारण करनेवाला मरण प्राप्त किया गया। (2) इसको जानकर भी मनुष्य उस समय (चोरी करने के समय) मूर्ख (बन जाता है) (और) चोरी करता है। (दुःख है कि वह) (चोरी करने को) नहीं छोड़ता है। (3) लोक में जो अन्य की स्त्री को चाहता है, वह, (उससे) मिलता-जुलता है, (उसकी) प्रशंसा करता है (और) (उसके लिए) लालायित रहता है। (4) जगत् में (अपमान) सहकर (वह) नरक में गिरता है। आदरणीय रावण (भी) अज्ञानी हुआ (और) पर-स्त्री में अनुरक्त हुआ। (5) आखिरकार विनाश को (पहुँच) गया। (इस तरह से) ये सातों व्यसन अनिष्टकर (होते हैं)।
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8.7
इयरहँ दिव्वाहरणहँ पासिउ हरिवि णीय जा किर दहवयणें तह अणंतमइ सीलगुरुक्किय रोहिणि खरजलेण संभाविय हरि-हलि-चक्कवहि-जिणमायउ एयउ सीलकमलसरहंसिउ जणणिएँ छारपुंजु वरि जायउ सीलवंतु बुहयण सलहिज्जइ
सीलु वि जुवइहें मंडणु भासिउ।।1।। सीलें सीय दड्ढ णउ जलणे ।।2।। खगकिरायउवसग्गहँ चुक्किय ।।3॥ सीलगुणेण णइएँ ण वहाइय॥4॥ अज्ज वि तिहुयणम्मि विक्खायउ॥5॥ फणिणरखयरामरहिँ पसंसिउ॥6॥ णउ कुसीलु मयणेणुम्मायउ॥7॥ सीलविवज्जिएण किं किज्जइ
॥8
॥
घत्ता
-
इय जाणेविणु सीलु परिपालिज्जएँ माएँ महासइ। णं तो लाहु णियंतिहें हलें मूलछेउ तुह होसड़॥9॥
8.9
ण फिट्टइ पेयवणे इह गिद्ध ण फिट्टइ तुंबरणारयगेउ ण फिट्टइ दुज्जणे दुट्ठसहाउ ण फिदृइ लोहु महाधणवंतें ण फिट्टइ जोव्वणइत्तें मरटु ण फिट्टइ विंझि महाकरिजूहु
ण फिट्टइ पंकएँ भिंगु पइट्ठ॥1॥ ण फिट्टइ पंडियलोयविवे॥2॥ ण फिदृइ णिद्धणचित्तें विसाउ॥3॥ ण फिदृइ मारणचित्तु कयंतें॥4॥ ण फिदृइ वल्लहें चित्तु चहुदृ॥5॥ ण फिदृइ सासएँ सिद्धसमूह।।6।।
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(1) अन्य सुन्दर आभूषणों के ( समान) शील भी युवती का आभूषण समझा गया ( है ) (और) कहा गया ( है ) | ( 2 ) जो सीता रावण के द्वारा हरण करके ले जाई गई (वह), जैसा कि बतलाया जाता है, शील के कारण अनि के द्वारा नहीं जलाई गई । ( 3 ) उसी प्रकार कठोर शीलधारण की हुई अनन्तमती विद्याधरों और किरात (जंगल में रहनेवाली एक जाति के मनुष्यों) के उपद्रव से रहित हुई । ( 4 ) ( नदी के ) तेज धारवाले जल में डुबाई गई रोहिणी, शील गुण के कारण नदी के द्वारा नहीं बहाई गई। (5) नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकरों की माताएँ आज भी (शील के कारण ) तीनलोक में प्रसिद्ध (हैं)। (6) ये शीलरूपी कमल-सरोवर की हंसिनी (थीं) (अत:) (वे) नागों, मनुष्यों, आकाश में चलनेवाले ( विद्याधरों) और देवों द्वारा प्रशंसित ( थीं ) । (7) हे माता ! (यदि ) (कोई) (जलकर) राख का ढ़ेर हो जाए (तो) (यह) अधिक अच्छा ( है ), ( किन्तु ) काम-वासना के कारण पागलपन पैदा करनेवाला कुशील ( अच्छा ) नहीं ( है ) | ( 8 ) विद्वान व्यक्ति के द्वारा शीलवान (मनुष्य) प्रशंसा किया जाता है । (कोई बताए) शीलरहित होने से क्या (प्रयोजन) सिद्ध किया जाता है ?
घत्ता
इसको समझकर हे माता! हे महासती ! (यदि ) शील पालन किया जाता है तो लाभ है। (वरना) हे सखी! ( उदाहरणों को) देखते हुए ( मेरे द्वारा ) (यह ) ( समझा गया है ) ( कि) आपके आधार का ( ही ) नाश हो जायेगा ।
-
8.7
अपभ्रंश काव्य सौरभ
1) इस लोक में श्मशान से गिद्ध दूर नहीं होता है । कमल में घुसा हुआ भौंरा (उससे) दूर नहीं होता है। (2) नारद के तम्बूरे का गीत नहीं छूटता है। ज्ञानी समुदाय (मनुष्यों) का विवेक नष्ट नहीं होता है । ( 3 ) दुष्ट स्वभाव दुर्जन से ओझल नहीं होता है। निर्धन के चित्त से चिन्ता समाप्त नहीं होती है । (4) महाधनवान से लोभ नहीं जाता है । यमराज से मारने का भाव दूर नहीं होता है । (5) यौवनवान् से अहंकार नहीं हटता है। प्रेमी में लगा हुआ मन विचलित नहीं होता है । ( 6 ) महान् हाथियों का समूह
8.9
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ण फिट्टइ पाविहें पावकलंकु ण फिदृइ आयहें जो असगाहु
ण फिट्टए कामुयचित्ते झसंकु॥7॥ सुछंदु वि मोत्तियदामउ एहु॥8॥
घत्ता
-
अहवा जं जिह जेण किर जिह अवसमेव होएवउ। तं तिह तेण जि देहिऍण तिह एक्कंगेण सहेवउ॥9॥
8.32
सुलहउ पायालएँ णायणाहु सुलहउ णवजलहरें जलपवाहु सुलहउ कस्सीरएँ घुसिणपिंडु सुलहउ दीवंतरें विविहभंडु सुलहउ मलयायलें सुरहिवाउ सुलहउ पहुपेसणे कएँ पसाउ सुलहउ रविकंतमणिहिँ हुयासु सुलहउ आगमें धम्मोवएसु सुलहउ मणुयत्तणेपिउ कलत्तु जिणसासणे जं ण कया वि पत्तु
सुलहउ कामाउरें विरहडाह॥1॥ सुलहउ वइरायरें वज्जलाहु ।।2।। सुलहउ माणससरे कमलसंडु॥3॥ सुलहउ पाहाणे हिरण्णखंडु॥4॥ सुलहउ गयणंगणे उडुणिहाउ॥5॥ सुलहउ ईसासे जणे कसाउ॥6॥ सुलहउ वरलक्खणे पयसमासु॥7॥ सुलहउ सुकईयणे मइविसेसु॥8॥ पर एक्क जि दुल्लहु अइपवित्तु॥9॥ किह णसमि तं चारित्तवित्तु ।।10॥
घत्ता
-
एम वियप्पिवि जाम थिउ अविओलचित्तु सुहदसणु। अभयादेवि विलक्ख हुय ता णियमणे चिंत्तइ पुणुपुणु॥11॥
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विन्ध्य पर्वत से नीचे नहीं आता है । सिद्धों का समूह शाश्वत (स्थिति) से रहित नहीं होता है। (7) पापी से पाप का कलंक नहीं छूटता है । कामुक चित्त से कामदेव हटता नहीं है। (8) (इसी प्रकार) (रानी का) जो कदाग्रह ( अनैतिक निश्चय ) ( है ) ( वह) ( उसके ) मन से नहीं हटेगा ( ऐसा लगता है) । यह ही मौक्तिकदाम छन्द ( है ) ।
घत्ता अथवा (ऐसा कहें कि ) जहाँ, जिस प्रकार जिस (व्यक्ति) के द्वारा जैसी (घटनाएँ) उत्पन्न की जायेंगी, वहाँ (वे) अवश्य ही उसी प्रकार, उस ही व्यक्ति के द्वारा अकेले वैसी ही सही जायेंगी ( इसको टाला नहीं जा सकता है ) ।
(1) पाताल में सर्पों का स्वामी सुप्राप्य ( है ), काम से पीड़ित (व्यक्ति) में विरह का सन्ताप स्वाभाविक ( है ) । (2) नये बादल में जल का प्रवाह सरल ( है ), हीरे की खान में हीरे की प्राप्ति आसान ( है ) । (3) कश्मीर में केसरपिंड सुलभ ( है ), मानसरोवर में कमलों का समूह सुलभ ( है ) । (4) द्वीपों के अन्दर नाना प्रकार की व्यापारिक वस्तुएँ सुप्राप्य ( हैं ), पत्थर में सोने का अंश सुलभ ( है ) | ( 5 ) मलय पर्वत से सुगन्ध युक्त वायु का ( चलना ) स्वाभाविक है, व्यापक आकाश में तारों का समूह स्वाभाविक (है)। (6) स्वामी का प्रयोजन पूर्ण किया गया होने पर पुरस्कार आसान ( है ), ईर्ष्या - युक्त व्यक्ति में कषाय स्वाभाविक ( है ) | ( 7 ) सूर्यकान्त मणियों द्वारा अग्नि आसानी से प्राप्त (की जा सकती ) ( है ), उत्तम व्याकरण - शास्त्र में पदों में समास सुलभ ( है ) । (8) आगम में मूल्यों (धर्म) के उपदेश सुलभ ( है ), सुकविजन में बुद्धि की श्रेष्ठता सुलभ ( है ) | ( 9-10 ) मनुष्य अवस्था में प्रिय पत्नी सुलभ (है), किन्तु जिनशासन में अतिपवित्र एक ( चारित्र) ही दुर्लभ ( है ), जिसको (पहले) (मैंने), कभी प्राप्त नहीं किया उस चारित्ररूपी धन को (मैं) कैसे बर्बाद कर दूँ?
घत्ता
इस प्रकार विचार करके जब (सुदर्शन) (जिसका ) दर्शन मनोहर (है) शान्त चित्तवाला हुआ (तो) अभयादेवी लज्जित हुई (और) वह निज मन में बारबार विचार करने लगी।
-
8.32
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घत्ता
-
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किं फलु इय सिविणयदंसणेण इय णिसुणिवि णवजलहरसरेण
पाठ
-
सुतरंगहॅ गंगहॅ गोउ किर जाव जम्मि ता सुहमइ जिणमइ सयणयले सुरिचत्तहरो सिहरी पवरो पवरंबुणिही पजलंतु सिही पसरम्मि सई वरसुद्धमई णिसि लक्खियउ तसु अक्खियउ लइ जाहुँ वरं जिणचेइहरं पयडंति अलं सिविणस्स हलं भणिओ रमणी इय छंदु मुणी
सुदंसणचरिउ
11
सन्धि 3
3.1
णवकप्पयरू
गच्छइ ॥ 9 ॥ पेच्छइ॥10॥ अमरिंदघरू ।। 11 । सुविराइयओ अवलोइयओ ॥ 12 ॥ गय सिग्घु तहिं थिउ कंतु जहिं ॥ 13 ॥ पभणेइ पई पिय हंसगई ॥14॥ अविलंबझुणी भयवंतमुणी ॥15॥ चलहारमणी चलिया रमणी ॥16 ॥ ||17||
3.2
गय जिणहरु मुणिवरु परिणवेवि जिणदासिऍ णिसि दिउ । गिरिवरु तरु सुरहरु जलहि सिहि इय सिविणंतरु सिट्ठउ ॥18॥
णउ
सुत्तिय सिविणय
होसइ परमेसर कहि खणेण ॥1॥ सुणि सुंदरि पभणिउ मुणिवरेण ॥ 2 ॥
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पाठ - 11
सुदंसणचरिउ
सन्धि
- 3
3.1
(9-10) मनोहर तरंगवाली गंगा नदी से गोप जब तक पुनर्जन्म में नहीं गया तब शुभमति (से युक्त) जिनमत्ति ने सूत्र से बने हुए बिछौनों पर स्वप्नों को देखा। (11-12) देवताओं के चित्त को हरण करनेवाला श्रेष्ठ पर्वत, नया कल्पवृक्ष, इन्द्र का घर (स्वर्ग), उत्तम समुद्र, चमकती हुई (तथा) अत्यन्त सुशोभित अग्नि (यह स्वप्नसमूह) देखा गया। (13) प्रभात में उत्तम शुद्धमति सती शीघ्र वहाँ गई जहाँ (उसका) पति बैठा (था)। (14-15-16) उसके द्वारा रात में देखे गए (स्वप्न) (पति को) कहे गए। पति ने कहा-- हे हंस की चालवाली प्रिया! अच्छा ठीक, (हम) श्रेष्ठ जिन-चैत्यघर जाते हैं (चलते हैं) (वहाँ) पूज्य मुनि (जिनके) शब्द (ध्वनि/उपदेश) बिना विलम्ब के (सहज) (होते) हैं। स्वप्न (समूह) का हल पूर्णरूप से प्रकट कर देंगे, (अत:) (वह) रमणी, (जिसके) हार की मणियाँ लहरानेवाली थीं (पति के साथ) चल पड़ी। (17) मुनि के द्वारा यह रमणी छन्द कहा गया।
___ घत्ता - (दोनों) जिन-मन्दिर गये। (वहाँ) मुणिवर को प्रणाम करके जिनदासी के द्वारा रात्रि में स्वप्न के भीतर देखा गया। श्रेष्ठ पर्वत, कल्पवृक्ष, इन्द्र का निवास, अग्नि और समुद्र कहा गया।
3.2
__(1) (शुद्धमति ने पूछा) इस स्वप्न (-समूह के) दर्शन से क्या फल होगा? हे परमेश्वर! तुरन्त कहें। (2) इसको सुनकर नये मेघ के समान (गम्भीर) स्वरवाले मुनिवर
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उत्तुंगें भरभारियधरेण कुसुमरयसुरहिकयमहुअरेण सुररमणीकीलामणहरेण जललहरीचुंबियअंबरेण अइणिविडजडत्तविणासणेण सुंदरु मणहरु गुणमणिणिकेउ णियकुलमाणससररायहंसु उवसग्गु सहेवि हवेवि साहु जिणु मुणि णवेवि हरिसियमणा । गोवउ वि णियाणे तहिँ मरेवि
होसइ सुधीरु सुउ गिरिवरेण ।।3।। चाइउ लच्छीहरु तरुवरेण ।।4।। सुरवंदणीउ वरसुरहरेण ।।5।। गुणगणगहीरु रयणायरेण॥6॥ कलिमलु णिड्डहइ हुआसणेण ॥7॥ जुवईयणवल्लहु मयरकेउ॥8॥ णिम्मच्छरु वुहयणलद्धसंसु॥9॥ पावेसइ झाणे मोक्खलाहु॥10॥ णियगेहु गयइँ विण्णि वि जणाइँ॥11॥ थिउ वणिपियउयर' अवयरेवि॥12॥
घत्ता
-
तहिँ गब्भएँ अन्भएँ णाइँ रवि कमलिणिदलें णावइ जलु। सिप्पिउडएँ णिविडएँ ठिउ सहइ णं णितुल्लु मुत्ताहलु॥13॥
3.5
तेण पुत्तेण जणु तुट्ठ दुट्ठपाविट्ठपोरत्थगणु त? दुंदुहीघोसु कयतोसु हुउ दिव्वु मंदु आणंदयारी हुओ वाउ । गोसमूहेहिँ विक्खित्तु थणदुद्ध
खे महंतेहिँ मेहेहिँ जलु वुट्ठ॥1॥ णंदि आणंदि देवेहिँ णहे घुट्ठ॥2॥ फुल्ल पप्फुल्ल मेल्लेइ वणु सव्वु॥3॥ वावि कूवेसु अब्भहिउ जलु जाउ॥4॥ एंतजंतेहिं पहिएहिँ पहु रुद्ध॥5॥
80
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के द्वारा कहा गया- हे उत्तम स्त्री! सुनो। (3) (स्वप्न में देखे गए) ऊँचे (और) भारी भार धारण करनेवाले गिरिवर (पर्वत) से (तुम्हारा) पुत्र अत्यधिक धैर्यवान होगा। (4) मकरन्द (फूलों की रज) की सुगन्ध से आकर्षित किए गए भँवर-(समूह) सहित तरुवर (कल्पवृक्ष) (देखने) से (तुम्हारा) (पुत्र) लक्ष्मीवान (तथा) दानी (होगा)। (5) देवताओं की रमणियों की क्रीड़ा से सुन्दर (लगनेवाले) इन्द्र का घर (देखने) से (तुम्हारा) पुत्र देवताओं द्वारा वन्दनीय (होगा)। (6) (जिसकी) जलतरंगें आकाश से छू ली गई हैं (ऐसा) समुद्र (देखने) से (तुम्हारा पुत्र) गुणों का समूह (तथा) गम्भीर (होगा)। (7) अति घने जड़त्व का विनाश कर देनेवाली अग्नि (देखने) से (वह) पापरूपी मल को जला देगा। (8) (और भी) (तुम्हारा पुत्र) सुन्दर, मनोहर, गुणरूपी मणियों का घर, युवती-वर्ग का प्रिय और प्रेम का देवता (होगा)। (9) (तुम्हारा पुत्र) ईर्ष्यारहित (तथा) अपने कुलरूपी मानसरोवर का राजहंस (होगा) (और ऐसा होगा) (जिसके द्वारा) ज्ञानी वर्ग की प्रशंसा प्राप्त कर ली गई है। (10) (जो) साधु होकर उपसर्ग सहन करके ध्यान के द्वारा मोक्ष के लाभ को प्राप्त करेगा। (11) जिनेन्द्र (और) मुनिवर को प्रणाम करके हर्षित मनवाले दोनों ही मनुष्य (पति-पत्नी) निज घर को चले गए। (12) गोप भी वहाँ निदान सहित मरकर वणिक की पत्नी के उदर में आकर रहा।
घत्ता - वहाँ (वह) गर्भ में आकाश में स्थित सूर्य की तरह, कमलिनी के पत्ते पर जल की तरह, सघन सिप्पिदल में (खोखली जगह में) असाधारण मोती की तरह शोभायमान हुआ।
3.5
___ (1) (जन्मे हुए) उस पुत्र से मनुष्य वर्ग सन्तुष्ट हुआ। आकाश में घने बादलों द्वारा जल बरसाया गया। (2) नगर का दुष्ट और अत्यन्त पापी (एवं) ईर्ष्यालु/द्वेषी वर्ग डर गया (दुःखी हुआ)। देवताओं द्वारा आकाश में हर्ष (और) आनन्द घोषित किया गया। (3) (जिसके द्वारा) सन्तोष दिया गया (ऐसा) दिव्य दुंदुभि-घोष (उत्पन्न) हुआ। समस्त वन खिले हुए फूलों को छोड़ने लगा (बरसाने लगा)। (4) आनन्दकारी मन्द पवन चला। बावड़ियों और कुओं में अत्यधिक जल
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तो दिणे छट्टि उक्किट्ठकमसेण अट्ठ दो दिवह वोलीण छुडु जाय वालु सोमालु देविंदसमदेहु तीऍ पेच्छियउ पुच्छियउ मुणिचंदु
दाविया छट्ठिया ज्झति वइसेण॥6॥ ताम जा णाम जिणयासि सणुराय॥7॥ लेवि भत्तीऍ जाएवि जिणगेहु॥8॥ मत्तमायंगु णामेण इय छंदु॥9॥
घत्ता -
मंदरु जिह थिरु तिह बुहयणहिँ कुंभरासि पभणिज्जइ। महुतणउ तणउ एरिसु मुणिवि मुणिवर णामु रइज्जइ॥10॥
3.6
तं सुणिऊण पणट्ठरईसो दिट्ठ तए सिविणंतरें सारो किज्जउ तेण सुदंसणु णामो तो जिणयासें णविवि जईसं सोहणमासें दिणे छुडु दित्तं देवमहीहरि णं सुरवच्छो वड्डइ णं वयपालणे धम्मो वड्डइ णं णवपाउसि कंदो
मेहणिघोसु भणेइ जईसो॥1॥ पुत्तिएँ तुंगु सुदंसणमेरो ॥2॥ सज्जणकामिणिसोत्तहिरामो ॥3॥ चित्ते पहिट्ठ गया सणिवासं॥4॥ बद्धउ पालणयं सुविचित्तं ॥5॥ वड्डइ तत्थ परिट्ठिउ वच्छो।6।। वड्ढइ णं पियलोयणे पेम्मो॥7॥ एसु पयासिउ दोहयछंदो॥8॥
घत्ता
-
जगतमहरु ससहरु मयरहरु जिह वड्ढतउ भावइ। मणवल्लहु दुल्लहु सज्जणहँ पुरएवहाँ सुउ णावइ॥9॥
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भरा। (5) गौ-समूहों द्वारा थणों से दूध बिखेरा गया। आते-जाते हुए पथिकों के कारण मार्ग रुक गया। (6) तब (जन्म के) छठे दिन पर वणिक के द्वारा उत्कृष्ट रूप से झटपट उत्सव दिखलाया गया (मनाया गया)। (7-8) जब शीघ्र आठ और दो दिन (=दस दिन) व्यतीत हुए, तब जिनदासी नामक (माता ने) अनुराग-सहित (उस) सुकुमार (और) इन्द्र के समान देहवाले बालक को लेकर (और) भक्तिपूर्वक जिन-मन्दिर जाकर (जिनेन्द्र को प्रणाम किया)। (9) (वहाँ) उसके द्वारा मुणिचन्द देखे गए (और) (वे) पूछे गए। यह छन्द नाम से मत्तमात्तंग (है)।
घत्ता - जिस प्रकार मेरु-पर्वत स्थिर है उसी प्रकार ज्ञानियों द्वारा कुम्भ राशि कही जाती है। हे मुनिवर! ऐसा जानकर मेरे पुत्र का नाम रचा जाए। .
3.6
(1) उसको (माता के वचन को) सुनकर (वे) विशिष्ट मुनि (जिनके द्वारा) काम नष्ट कर दिया गया (है), (जिनका) स्वर मेघ के समान (है) बोले- (2) हे पुत्री! तुम्हारे द्वारा स्वप्न के अन्दर श्रेष्ठ, ऊँचा (और) सुन्दर पर्वत देखा गया। (3) अतः (इसका) नाम सुदर्शन रखा जाए (जो) सज्जन और कामिनियों के कानों के लिए मनोहर है। (4) तब जिनदासी मन में आनन्दित हुई और विशिष्ट मुनि को प्रणाम करके स्वनिवास को गई। (5) शीघ्र (शुभ) दिन (और) शुभमास में दिव्य (और) अत्यन्त सुन्दर पालना बाँधा गया। (6-7-8) वहाँ रहा हुआ बालक बढ़ने लगा, जैसे देव-बालक देव-पर्वत (सुमेरु) पर (बढ़ता है), जैसे व्रतपालन से धर्म बढ़ता है, जैसे स्नेही के दर्शन से प्रेम बढ़ता है, जैसे नई वर्षा ऋतु में कन्द (बादल) बढ़ता है, इस प्रकार दोधक छन्द व्यक्त किया गया (है)।
घत्ता - जिस प्रकार समुद्र और जग के अन्धकार को दूर करनेवाला चन्द्रमा बढ़ता हुआ अच्छा लगता है, (उसी प्रकार) सज्जनों के मन को अच्छा लगनेवाला (जिनदासी का) दुर्लभ (पुत्र) पुरुदेव (ऋषभदेव) के सुत (भरत) के समान (अच्छा लगता है)।
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घत्ता
पुणु उच्चकहाणी णिणि पुत्त परिकलिवि संगु णीचों हिण वाणारसिणयरि मणोहिरामु संतोसु वहंत णियमणम्मि जलरहियहिँ अडविहिँ सो पडिउ अमिण विणिम्मिय सुहयराइँ संतुट्ठउ तहों वणिवरहों राउ उवयारु महंत जाणएण
-
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पाठ - 12
करकण्डचरिउ
ता एक्कहिँ दिणि मंतीवरेण आहरणइँ लेविणु दिहिकरासु गयमोल्लइँ जणणयणहँ पियाइँ
सन्धि
-
2.16
2
संपज्जइ संपइ जें विचित्त॥1॥ उच्चेण समउ किउ संगु तेण ॥ 2 ॥ अरविंदु णराहि अत्थि णामु ॥3॥ पारद्धिहँ गउ एक्कहिँ दिणम्मि ॥4॥ तहिँ तहएँ भुक्खएँ विण्णडिउ ॥ 5 ॥ तहों दिण्णइँ वणिणा फलइँ ताइँ ॥ 6 ॥ घरि जाइवि तहों दिण्णउ पसाउ || 7 || वणि णिहिय मंतिपयम्मि तेण ॥8 ॥
अणुराएँ विणि वि तहिँ वसहिँ दिणयरतेयकलायर । गुणगणरयणहँ सीलणिहि गहिरिमाइँ णं सायर ॥ 9 ॥
2.17
तों रायों णंदणु हरिवि तेण ॥1॥ गउ तुरिउ विलासिणिमंदिरासु ॥2 ॥ तहिँ वणिणा ताहें समप्पियाइँ ॥3॥
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पाठ - 12
करकण्डचरिउ
सन्धि - 2
2.16
(1) इसके विपरीत हे पुत्र! उच्च (संगति) की कहानी सुन। जिससे नाना प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त की जाती है। (2) हृदय से नीच की संगति को समझकर उस (वणिक) के द्वारा उच्च (व्यक्ति) के साथ संग किया गया। (3) वाराणसी नगर में मन को प्रसन्न करनेवाला अरविन्द नामक राजा था। (4) अपने मन में प्रसन्नता को धारण करता हुआ (वह) एक दिन शिकार के लिए गया। (5) वह जलरहित जंगल में फँस गया, वहाँ पर भूख (और) प्यास के द्वारा व्याकुल किया गया। (6) (तब) वणिक के द्वारा अमृत से बने हुए वे सुखकारी फल उस (राजा) को दिए गए। (7) राजा उस श्रेष्ठ वणिक पर प्रसन्न हुआ, (और) घर जाकर उसको पुरस्कार दिया गया। (8) (अपने ऊपर) महान उपकार समझनेवाला होने के कारण, उस (राजा) के द्वारा वणिक मंत्री-पद पर रखा गया।
घत्ता - (वे) दोनों (जो) तेज में सूर्य और चन्द्रमा (के समान) थे, (जो) गुण-समूहरूपी रत्नों के (व) शील के निधान (थे), (जो) गम्भीरता में सागर के समान (थे), स्नेहपूर्वक वहाँ पर रहने लगे।
2.17
(1) तब एक दिन उस राजा के पुत्र का हरण करके उस मंत्रीवर के द्वारा (भागा गया)। (2) (वह) (उसके) आभूषणों को लेकर शीघ्रता से (स्नेहशील) विलासिनी (महिला) के सुखकारी घर को गया। (3) (वे) (आभूषण) (जिनका) मूल्य चला
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सरयागमससहरआणणीहें मइँ मारिउ णंदणु णरवईहिँ तं सुणिवि ताइँ पणिउ सणेहु एत्तहिँ अलहंतें सुउ णिवेण जो रायों णंदणु कहइ को वि
पुणु कहियउ तेण विलासिणीहें॥4॥
इउ कहियउ सयलु वि थिररईहिँ ॥5॥ __ मा कासु वि पयडु करेहि एह॥6॥
देवाविउ डिंडिमु णयरें तेण ॥7॥ सहुँ दविणइँ मेइणि लहइ सो वि॥8॥
घत्ता
-
ता केण वि धि? तुरियऍण णरणाहहाँ अग्गइँ भणिउ। उवलक्खिउ तुह सुउ देव मइँ सो णवलइँ मंतिएँ हणिउ॥9॥
2.18
तं वयणु सुणेविणु सरलबाहु तिहिँ फलहिँ मज्झें एक्कहाँ फलासु अवराह दोण्णि अज्ज वि खमीसु परियाणिवि मंतिइँ रायणेहु अइ होहि णरेसर परममित्तु वणिवयणु सुणेविणु णरवरेण गुरुआण संगु जो जणु वहेइ एह उच्चकहाणी कहिय तुज्झु
संतुट्ठउ मंतिहें धरणिणाहु॥1॥ णिरहरियउ रिणु मइँ मइवरासु॥2॥ खणि हुयउ पसण्णउ धरणिईसु॥3॥ णिवणंदणु अप्पिउ दिव्वदेहु ॥4॥ म. देव तुहारउ कलिउ चित्तु॥5॥ अइपउरु पसाउ पइण्णु तेण॥6॥ हियइच्छिय संपइ सो लहेइ॥7॥ गुणसारणि पुत्तय हिय बुज्झु॥8॥
घत्ता
-
करकंडु जणाविउ खेयर हियबुद्धिएँ सयलउ कलउ। इय णित्तिएँ जो णरु ववहरइ सो भुंजइ णिच्छउ भूवलउ॥9॥
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गया (है), (जो) मनुष्यों के नयनों के लिए प्रिय (हैं), उस विलासिनी (महिला) के लिए वणिक के द्वारा वहाँ प्रदान किए गए। (4) शरद ऋतु में आनेवाले चन्द्रमा की तरह मुखवाली (उस) विलासिनी को उस (वणिक) के द्वारा फिर कहा गया। (5) मेरे द्वारा राजा का पुत्र मारा गया (है)। यह सारी (बात) ही (उसके द्वारा) स्थिर स्नेहवाली (विलासिनी) को कही गई। (6) उस (बात) को सुनकर उस (विलासिनी) के द्वारा (वणिक के लिए) सस्नेह कहा गया (कि) यह (बात) किसी के लिए भी (तुम) प्रकट मत करना। (7) यहाँ पर राजा के द्वारा पुत्र को न पाते हुए होने के कारण, उसके द्वारा नगर में ढोल-(बजाकर) आज्ञा करवायी गयी (है)। (8) (और राजा के द्वारा कहलवाया गया कि) जो कोई भी राजा के पुत्र को बताता है (बतायेगा) वह ही सम्पत्ति के साथ भूमि को पायेगा।
___घत्ता - तब किसी ढीठ (व्यक्ति) के द्वारा शीघ्रता से राजा के आगे कहा गया (कि) हे देव! तुम्हारा सुत (पुत्र) मेरे द्वारा देखा गया (है), वह (तुम्हारे) नए मंत्री द्वारा मार दिया गया (है)।
2.18
(1) उस बात को सुनकर पृथ्वी का नाथ (राजा) सरलबाहु, मंत्री से प्रसन्न हुआ। (2) (राजा ने कहा कि जंगल में दिए गए) तीन फलों में से मंत्रीवर के एक फल का ऋण मेरे द्वारा चुका दिया गया (है)। (3) (मंत्री ने कहा कि) हे नाथ! अन्य दो (फलों के ऋण) को आज ही क्षमा कीजिए। पृथ्वी का मुखिया (राजा) क्षण भर में प्रसन्न हुआ। (4) राजा के स्नेह को जानकर मंत्री के द्वारा सुन्दर देहवाला राजा का पुत्र सौंप दिया गया। (5) हे नरेश्वर! (आप) (मेरे) परम मित्र हो! हे देव! मेरे द्वारा तुम्हारा चित्त पहचान लिया गया (है)। (6) (इस तरह से) वणिक के वचन को सुनकर उस राजा के द्वारा (वणिक के लिए) खूब पुरस्कार सार्वजनिक रूप से घोषित किया गया। (7) (इस प्रकार) जो मनुष्य अच्छों की संगति को धारण करता है, वह मन से चाही गई सम्पत्ति को प्राप्त करता है। (8) हे पुत्र! यह उच्च (पुरुष) की कहानी (जो) गुणों की परम्परावाली है, तेरे लिए कही गई है (इसको) (तू) हृदय में समझ।
घत्ता - खेचर (विद्याधर) के द्वारा हितकारी बुद्धि से करकंड समस्त कलाएँ सिखाया गया। इसकी नीति से जो मनुष्य व्यवहार करता है वह अवश्य ही भूमण्डल
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पाठ - 13
धण्णकुमारचरिउ
सन्धि
- 3
3.16
लउडि-खग्ग सव्वहिं करि धारिय दूरहु हुँति तेण णियच्छिय एयहु मारणत्थि इह आवहिँ इय मणि मंतिवि पुणु भयतट्ठउ ते बोल्लावहिँ भो गिहि आवहि वच्छउलइँ णियगेहि पराणिय तुज्झु जणणि तुअ दुक्खें सल्लिय तह वि ण सो णियत्तु भयभीयउ जाय रयणि ते सीह-भयाउर तासु जणणि महदुक्खें तत्ती हा-हा किह सुव-दसणु होसइ भाय-भाय हा किम जीवेसमि हा-हा किं बंधव णिचिंतउ हउँ तुव सरणि विएसें पत्ती
भोगवइ चल्लिय विणिवारिय॥1॥ हक्क दिंत आवंत वि पेच्छिय ॥2॥ वच्छउलइँ णउ कत्थ वि पावहिं॥3॥ पच्छउ वलिवि णिएवि वणि णट्ठउ॥4॥ एहि-एहि मा भयवसु धावहि॥5॥ तुहु इ थक्कु ण मइए जाणिय॥6॥ मा वणि जाहि मुइवि एकल्लिय।।7॥ मुणइ पवंचु सयलु इणु कीयउ॥8॥ पल्लट्टिवि गय ते पुणु णियघर॥9॥ हुय णिरास खणि पगलियणेत्ती॥10॥ दुट्ठ विहिहिँ पुणु-पुणु सा कोसइ॥11॥ सुबाहु सुवत्तु किम पेच्छेसमि॥12॥ महु सुउ विसमावत्थहिँ पत्तउ॥13॥ करहि गंपि महु पुत्तहु तत्ती॥14॥
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पाठ - 13
धण्णकुमारचरिउ
सन्धि
- 3
3.16
(1) सभी के द्वारा लकड़ियाँ और तलवारें हाथ में रखी गईं। भोगवती (साथ में जाने से) रोकी गई (फिर भी) (वह) (उनके साथ) (जंगल में) चल दी। (2) उसके (अकृतपुण्य के) द्वारा दूर से (ही) (सब) देख लिए गए (कि) (वे) हैं। हाँक देते हुए (और) आते हुए भी (वे) देख लिए गए। (3) (उसने सोचा कि) (जब) बछड़ों के समूहों को (उन्होंने) कहीं भी नहीं पाया होगा (तो) इन (हथियारों) से (मुझे) मारने के इच्छुक यहाँ (जंगल में) आये हैं। (4) मन में यह विचारकर (वह) भय से काँपा। फिर पीछे की ओर मुड़कर, देखकर (वह) जंगल में छिप गया। (5) वे बुलाते (थे) (कि) हे (बालक)! (तुम) घर में आओ। आओ, आओ। भय के अधीन (होकर) मत भागो। (6) (तुम सुनो कि) बछड़ों) के समूह निज घर में पहुँच गए (हैं)। तू (जंगल) (में) ही ठहरा है, (हमारे द्वारा) बुद्धि से (यह) नहीं समझा गया (था)। (7) तुम्हारी माता तुम्हारे दुःख द्वारा दुःखी की गई (है), (उसको) यहाँ अकेली छोड़कर वन में मत जा। (8) तो भी वह भयभीत (अकृतपुण्य) (वापिस) नहीं लौटा। (वह) इस सबको (उनके द्वारा) किया हुआ छल समझता है। (9) रात्रि हई! फिर सिंह के भय से पीड़ित वे पलटकर अपने घर को गए। (10) उसकी माता महादुःख के कारण दुःखी (और) निराश हुई। (वह) (एक) क्षण में बहते हुए नेत्रवाली (हुई)। (11) हाय-हाय! (अब) सुत का दर्शन (मिलन) कैसे होगा? वह (अपनी) दुष्ट किस्मत को बार-बार कोसने लगी। (12) हे भाई! हे भाई! हाय! (मैं) (अब) कैसे जीतूंगी? सुन्दर भुजावाले (और) सुन्दर मुखवाले (पुत्र) को कैसे देखूगी? (13) हाय-हाय! हे भाई! (तुम) निश्चिन्त क्यों हो? मेरा पुत्र कठिन (विषम) अवस्था में पड़ा हुआ (है)। (14) मैं विदेश में तुम्हारी शरण में पड़ी हुई (हूँ)। (कहीं) जाकर मेरे लिए (तुम) (कुछ) करो, (जिससे) (मुझको)
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महु मणु अच्छइ बहुदुक्खायरु इय कंदंति णिवारइ भायरु ।।15।। अच्छहि कलुणु म कंदहि बहिणीपुर-सयासि सो णिवसइ रयणी॥16॥
घत्ता
-
जिं णियउरि धरियउ खीरें भरियउ परपेसणेण जि पोसियउ। मह-दुक्खें पालिउ देहँ लालिउ तं वीसरइ केम हियउ॥17॥
3.19
हउँ होतउ दुख-दालिद्द-जडिउ णिद्धंधउ छुह-तिस-संभरिउ थक्कइ असोय-माम जि घरि मइ दाणु पदिण्णउँ मुणिवरहु हउँ वच्छउलहँ रक्खणहँ गउ पवणाहय ते णिय आय घरि थक्कउ तहिं आयमु बहु सुणिउ जा णिवसमि ता सिंघेण हउ मुणिवयणपसाएँ दुक्खभरु । एत्तहिं तह मायरि दुहभरिया हुय सुप्पहाए सयल जि मिलिया सव्वत्थ वणम्मि गवेसियउ
पुवक्किय दुक्कम्मेण णडिउ॥1॥ जणणिए सहु देसंतर फिरिउ॥2॥ हउँ अत्थि पवहिउ तहिं पवरि ।।3।। सहुँ जणणिए णिहणिय भवसरहु॥4॥ तहिं सुत्तउ जावहिं विगय-भउ॥5॥ हउँ भयभीयउ कंदरि-विवरि॥6॥ संसार-सरूवउ वि चित्ति मुणिउ॥7॥ हउँ सुरवर जायउ चिय विवउ॥8॥ छिंदिवि खणि जायउ सुक्खघरु॥9॥ महदुक्खें खविय विहावरिया।।10॥ सहुँ जणणिए तं जोयहुं चलिया॥11॥ मह सोएँ पुरजणु सोसियउ॥12॥
घत्ता
तहुँ खोज्जु णियंतइँ जंत. संतइँ पत्तइँ गिरि-गुह-वारि पुणु। . तहितहुकर-चलणबहु-दहु-जणणइँदिइँदहदिसि पडिय तणु॥13॥
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पुत्र से सन्तोष (मिले)। (15) मेरा मन बहुत दुःखों की खान (हो गया) है। इस प्रकार रोती हुई (उस) को भाई रोकता है। (16) हे बहन! ठहरो! करुणाजनक मत रोओ। (आशा है कि) रात्रि में वह नगर के पास (दी) रहेगा।---
मत्ता - (माता ने कहा कि) (वह) निज छाती से लगाया गया, दूध से पोषित दूसरों की सेवा से ही (वह) पाला गया। बड़े कष्टों से (वह) रक्षण किया गया। (अपनी) देह से (वह) स्नेहपूर्वक सम्भाला गया। उसको हृदय कैसे भूलेगा?
3.19
(1) मैं दुःख-दरिद्रता से युक्त होता हुआ पूर्व में किए हुए दुष्कर्म द्वारा नचाया गया। (2) (प्रारम्भ में) (मैं) धन्धे-रहित (होकर) भूख-प्यास-सहित (रहा) (और) माता के साथ विदेश में फिरा। (3) उस समय मैं अशोक मामा के श्रेष्ठ घर में प्रवृत्त हुआ (और) रहा। (4) मेरे द्वारा माता के साथ इस संसार-सरोवर के विनाश के लिए (समर्थ) श्रेष्ठ मुनि के लिए (आहार)-दान दिया गया। (5) मैं बछड़ों के समूह की रक्षा के लिए (वन में) गया (और) जैसे ही (मेरा) भय नष्ट हुआ (मैं) वहाँ सो गया। (6-7) (तेज) वायु से आघात प्राप्त (आहत) वे (बछड़े) अपने घर में आ गए (और) भय से काँपा हुआ (भयभीत) मैं गुफा के द्वार पर बैठा। वहाँ आगम बहुत सुना गया और संसार का स्वरूप चित्त में समझा गया। (8) जब (मैं) (वहाँ) बैठा था तब मैं सिंह के द्वारा मारा गया। (वहाँ से मरकर) (मेरे द्वारा) श्रेष्ठ देव का विशिष्ट पद पाया गया। (9) (इस तरह से) मुनि के वचन के प्रसाद से दुःख के बोझ को काटकर (एक) क्षण में (मैं) सुख के घर (स्थान) को गया। (10) इधर उसकी माता दुःख से भरी हुई थी (और) अत्यन्त कष्ट से (उसके द्वारा) रात्रि बिताई गई। (11) (तब) सब ही सुप्रभात में (उपस्थित) होकर मिले। माता के साथ (उसको) खोजने के लिए (सभी) चले। (12) (उनके द्वारा) सारे वन में (वह) खोजा गया। महान् शोक के कारण नगर के जन कृश हो गये (थे)।
घत्ता - फिर उसके मार्ग-चिह्न देखते हुए, जाते हुए, थके हुए (वे सब) पर्वत की गुफा के दरवाजे पर पहुंचे। वहाँ उसके शरीर के हाथ और पैर दसों दिशाओं में पड़े हुए देखे गए (जो) बहुत दु:ख के जनक (थे)। अपभ्रंश काव्य सौरभ
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मुच्छाविय जणणि गिएवि उम्मुच्छिवि मायरि मुवि धाह हा - हा महु णंदणु हउँ सदुक्खि वारंतहँ सव्वहँ गयउ काइ किं कुमड़ जाय तुव एह पुत्त महु छंडि गयउ तुहु किं विएसि इय भणिवि चलण-कर मेलवेवि ता सुरवरु चिंतइ सग्गवासि जाइवि संबोहमि ताहि अज्जु अणु विणियगुरु चरणारविंद इय चिंतिवि आयउ तहिँ सुरेसु डिउ आविवि जंपिवि सुवाय हउँ जीवमाणु महु णियहि वत्तु मोहाउर णिसुणिवि वयण सिग्घु
घत्ता
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-
3.20
वि दक्खाविय तेत्थु ठाइ ॥ 1 ॥ रोवणह लग्ग हा हुये अणाह ॥ 2 ॥ किं मुक्की णिक्कारणि उवेक्खि ॥3॥ हा हा किं णायउ गेह - ठाइ || 4 || जं वणि आवासिउ कमलवत्त् ॥ 15 ॥ हउँ पाण चयमि पुणु इह पएसि ॥ 6 ॥ आलिंगइ जा णेहेण लेवि ॥7॥ किम जणणि मज्झ हुव सोक्खरासि ॥8॥ जिम सिज्झइ तहि परलोइ कज्जु ॥9॥ पणमवि जाइवि गइमल अणिंद ॥10 ॥ मायइँ करेवि चिर-देह - वेसु ॥11॥ किं कंदहि रोवहि मज्झ माय ॥12 ॥ हउँ अकयपुण्णु णामेण पुत्तु ॥13॥ णिच्छड़ जाणिउ महु सुउ अणग्घु ॥4॥
मेल्लिवि कर-चरणइँ बहुदुहकरणइँ धाइवि आलिंगेहि तहु । ता सुरवरु सारउ वसु-गुण-धारउ पर सरेवि थिउ सो वि लहु ॥15॥
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(1) उन ( हाथ-पैरों) को देखकर (शोक के द्वारा) माता मूर्च्छित कर दी गई। (और) सब भी उस स्थान पर दु:खी ( हुए) । (2) अमूर्च्छित होकर (मूर्च्छारहित होकर, होश में आकर ) माँ ने चिल्लाहट (की) (कि) छोड़कर ( चला गया) (फिर) रोने का चिह्न ( प्रकट हुआ ) । हाय! (मैं) अनाथ हो गई ( हूँ) । (3) हाय-हाय ! हे मेरे पुत्र ! मैं अत्यन्त दुःख में (हूँ) । मैं ( तेरे द्वारा) निष्कारण उपेक्षा करके क्यों छोड़ दी गई? ( 4 ) सबके रोकते हुए होने पर ( भी ) (तुम) (वन में) क्यों गए? (और) (फिर) हाय-हाय ! (तुम) निवास स्थान में ( घर के आँगन में ) क्यों नहीं पहुँचे ? (5) हे कमल के समान मुखवाले पुत्र ! तुम्हारे (मन में) यह कुमति क्यों उत्पन्न हुई कि ( तुम्हारे द्वारा ) वन में ( ही ) रहा गया ? ( 6 ) मुझको छोड़कर तू परदेश में क्यों चला गया ? ( अतः ) मैं इस स्थान पर ही प्राण छोड़ती ( हूँ) । ( 7-8 ) यह कहकर ( उसके ) हाथों और पैरों को मिलाकर (उनको ) स्नेह से उठाकर जब (वह) (उनका ) आलिंगन करती है, तब सुख की खान स्वर्ग का वासी श्रेष्ठदेव विचारता है (कि) मेरी माँ को क्या हुआ ( है ) ? (9) (मैं) जाकर उसको आज समझाऊँगा, जिसे परलोक में उसका कार्य सिद्ध हो । ( 10 ) दूसरी ( बात ) भी (विचारी) (कि) ( मैं ) ( वहाँ ) जाकर मलरहित व निंदारहित निज गुरु के चरणरूपी कमलों को प्रणाम करके उनके प्रति (कृतज्ञता ज्ञापन करूँगा ) | ( 11 ) इन (दोनों बातों) को सोचकर माया से पुरानी देह के वेश को बनाकर उत्तम देव वहाँ आया । ( 12 ) निकट आकर (और) मधुर वचन कहकर ( बोला ) ( कि ) हे मेरी माता ! (तुम) क्यों क्रन्दन करती हो? (तुम) क्यों रोती हो ? (13) मैं जीता हुआ (जीवित) हूँ। (तुम) मेरे मुख को देखो। मैं ( तुम्हारा ) पुत्र (हूँ) (जो) नाम से अकृतपुण्य ( है ) । (14) (उसके) वचन को सुनकर मोह से पीड़ित (माता) ने शीघ्र जानकर और निश्चय करके (कहा) (कि) (अरे!) (यह) (तो) मेरा उत्तम पुत्र ( है ) ।
3.20
घत्ता - बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले हाथों और पैरों को छोड़कर, दौड़कर वह उस ( मायावी पुत्र) को आलिंगन करती है। तब वह श्रेष्ठ देव भी, (जो ) सर्वोत्तम आठ गुणों का धारक ( था ), ( माता की ) अवस्था को स्मरण करके स्थिर हुआ ।
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3.21
जंपइ भो बुज्झहि जणणि सारु को कासु णाहु को कासु भिच्चु । मोहें बद्धउ मे-मे करेइ अइआरु ण किज्जइ मोहु अंबि में लब्भहिँ इच्छिय सयलसुक्ख खण भंगुरु सयलु म करहि सोउ सद्दहहि जिणायमु सरिवि अज्जु अवहिए जाणिवि हउँ एत्थु आउ इय वयणु सुणिवि उवसंतमोह देवे पुणु णिय-मुणिणाह पासि ति पायहिणि देप्पिणु गुरुपयाइँ
जिणवयणु दयावरु जणहँ तारु॥1॥ जाणहि संसारु जि मणि अणिच्चु॥2॥ आउक्खए कु वि कासु ण धरेइ ॥3॥ जिणधम्मु गहहि मा इह बिलंबि।।4।। छेइज्जहिँ अँ भवदुक्खलक्खा5॥ महु पुणु पेच्छहि संजणिय मोउ॥6॥ हुउ पढम-सग्गि सुर देवपुज्जु॥7॥ तुव बोहणत्थि पयडिय-सुवाउ॥8॥ कर-चरण मुइवि जाया सुबोह।।9।। वरु गुह-अब्भंतरि वि गय तासि॥10॥ देवें वंदिय ता गरहियाइँ॥11॥
घत्ता
-
बहु थोत्तु पयासिवि चिरकह भासिवि तुम्ह पसाएँ देव पउ। मइँपाविउ धण्णउ बहु-सुह छण्णउ एम भणिवि पणवाउ कउ॥12॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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3.21
(1) (मायावी) (पुत्र) बोला (कि) हे माता! (तू) मनुष्यों के लिए श्रेष्ठ, दयावान (और) उज्ज्व ल जिन-वचन को समझ। (2) कौन किसका नाथ (है)? कौन किसका नौकर (है)? (तू) मन में संसार को अनित्य जान। (3) (व्यक्ति) मोह से जकड़ा हुआ मेरा-मेरा करता है, आयु के समाप्त होने पर कोई भी किसी को पकड़ नहीं सकता। (4) हे माता! अत्यधिक इच्छावाला (बन्धनवाला) मोह नहीं किया जाना चाहिए। यहाँ (अब) देरी मत करो। (तुम) जिनधर्म को ग्रहण करो। (5) जिसके द्वारा इच्छित सभी सुख प्राप्त किए जाते हैं, जिसके द्वारा संसार के लाखों दुःख नष्ट किये जाते हैं। (6) प्रत्येक (सम्बन्ध) क्षण में नाशवान (होता है)। (अतः) (तू) शोक मत कर। फिर मुझको देख। (ऐसा कहने से) (माता में) हर्ष उत्पन्न हुआ। (7) आज (ही) जिनागम का स्मरण करके (उसमें) श्रद्धा कर। (देख इसके प्रभाव से) (मैं) प्रथम स्वर्ग में देवों द्वारा पूज्य देव हुआ (हूँ)। (8) अवधिज्ञान से जानकर मैं यहाँ आया (हूँ)। (मैं) तुम्हारी शिक्षा (बोध) का इच्छुक (हूँ)। (इसलिये) (मेरे द्वारा) (तुम्हारे) पुत्र की आयु (जीवनकाल का रूप) प्रकट की गई (है)। (9) इस वचन को सुनकर (माता को) मोह शान्त हुआ (मृत) हाथ-पैरों को छोड़कर (वह) उत्तम ज्ञानवाली हुई। (10) फिर देव के द्वारा अपने मुनिनाथ (गुरु) के पास जाया गया। (वे) भयंकर और श्रेष्ठ गुफा के भीतर ही (निवास करते थे)। (11) गुरु-चरणों को तीन प्रदक्षिण देकर देव के द्वारा वन्दना की गई (और) तब (उनके समक्ष) (अपने दोष) निन्दित किए गए।
घत्ता - (गुरु के समक्ष) (उनकी) बहुत स्तुति (को) व्यक्त करके (और) (उनको अपने सम्बन्ध की) पुरानी कथा कहकर (देव ने) (कहा) (कि) (हे गुरु) तुम्हारी कृपा से मेरे द्वारा प्रशंसनीय और बहुत सुखों से आच्छादित (यह) देव का पद प्राप्त किया गया। इस प्रकार कहकर (उसके द्वारा) (फिर) प्रणाम किया गया।
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पाठ - 14
हेमचन्द्र के दोहे
सायरु उप्परि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई। सामि सुभिच्चु विपरिहरइ संमाणेइ खलाइं॥
2.
दूरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जणु मारेइ। जिह गिरि-सिंगहुं पडिअ सिल अन्नु वि चूरु करे॥
3.
जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु। तसु हउँ कलि-जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउं सुअणस्सु॥
दइवु घडावइ वणि तरुहुँ सउणिहं पक्क फलाई। सो वरि सुक्खु पइट्ठ ण वि कण्णहिं खल-वयणाई॥
5.
धवलु विसूरइ सामि अहो गरुआ भरु पिक्खवि। हउं कि न जुत्तउ दुहुं दिसहिं खंडई दोण्णि करेवि॥
कमलई मेल्लवि अलि उलई करि-गंडाई महन्ति। असुलहमेच्छण जाहं भलि ते ण वि दूर गणन्ति॥
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पाठ - 14
हेमचन्द्र के दोहे
(1) (आश्चर्य है कि) सागर घास-फूस को ऊपर रखता है (और) रत्नों को पैंदे में फेंक देता है। (इसी प्रकार) (आश्चर्य है कि) राजा गुणवान सेवक को त्याग देता है (और) दुष्ट सेवकों का सम्मान करता है।
(2) (आचरणरूपी) ऊँचाई से उड़ने के कारण (हटने/डिगने के कारण) गिरा हुआ दुष्ट (व्यक्ति) अपने को (और) (दूसरे) मनुष्यों को नष्ट करता है, जिस प्रकार पर्वत की शिखा से गिरी हुई शिला (अपने साथ) अन्य को भी टुकड़े-टुकड़े कर देती
(3) जो स्वयं के गुणों को छिपाता है, दूसरे के (गुणों को) प्रकट करता है, उस दुर्लभ सज्जन की (इस) कलि-युग में (मैं) पूजा करता (हूँ)।
(4) दैव ने वन में पक्षियों के लिए वृक्षों के पके फल बनाए, वह (पक्षियों के लिए) श्रेष्ठ सुख (है), (क्योंकि) (वन में रहने के कारण उनके) कानों में दुष्टों के वचन प्रविष्ट (प्रवेश) नहीं हुए।
(5) स्वामी के बड़े भार को देखकर (गाड़ी में जुता हुआ) उत्तम बैल खेद करता है (कि) हे (स्वामी)! मैं (अपने) दो विभाग करके दोनों दिशाओं में क्यों न जोत दिया गया?
___(6) कमलों को छोड़कर भँवरों के समूह हाथियों के गंडस्थलों की इच्छा करते हैं। (ठीक ही है) जिनका कदाग्रह (हठ) असुलभ लक्ष्य को (प्राप्त करना है) वे (उसको) बिल्कुल दूर (स्थित) नहीं मानते (हैं)।
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7.
जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इछु। दोण्णि वि अवसर-निवडिअई तिण-सम गणइ विसिट्ठ॥
8.
बलि अब्भत्थणि महु-महणु लहुई हूआ सोइ। जइ इच्छहु वडुत्तणउं देहु म मग्गहु कोइ॥
9.
कुञ्जर! सुमरि म सल्लइउ सरला सास म मेल्लि। कवल जि पाविय विहि-वसिण ते चरि माणु म मेल्लि।।
10.
दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि। जं अच्छइ तं माणिअ इं होसइ करतु म अच्छि॥
11.
सन्ता भोग जु परिहरइ तसु कन्तहो बलि कीसु। तसु दइवेण वि मुण्डियउं जसु खल्लिहडउ सीसु॥
12. तं तेत्तिउ जलु सायरहो सो तेवडु वित्थारु।
तिसहे निवारणु पलुवि नवि पर धुटुअइ असारु॥
13. किर खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रुअडउ।
इह किवणु न जाणइ जइ जमहो खणेण पहुच्चइ दूअडउ॥
14.
कहिं सहसरु कहिं मयरहरु कहिं बरिहिणु कहिं मेहु । दूर-ठिआहं वि सज्जणहं होइ असड्ढलु नेहु॥
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(7) जीवनन किसके लिए प्रिय नहीं है? (और) धन (भी) किसके लिए प्रिय नहीं है, (किन्तु) विशेष गुण-सम्पन्न (व्यक्ति) समय आ पड़ने पर दोनों को ही तिनके (घास) के समान गिनता है।
(8) बलि राजा से माँगनेवाला होने के कारण वह विष्णु भी छोटा हुआ। यदि (तुम) बड़प्पन को चाहते हो (तो) दो। कुछ भी मत माँगो।
(9) हे गजराज! शल्लकी (नामक) (स्वादिष्ट वृक्ष विशेष) को (अब) याद मत कर। (और) (उसके लिए) (गहरे साँसों को लेकर) स्वाभाविक साँसों को मत त्याग। जो (वृक्षरूपी) भोजन विधि के वश से (तेरे द्वारा) प्राप्त किया गया (है) उनको खा, (पर) स्वाभिमान को मत छोड़।
(10) दिन झटपट से व्यतीत होते हैं, इच्छाएँ पीछे रह जाती हैं, जो होना है वह होगा ही (ऐसा) मानकर सोचता हुआ ही मत बैठ।
(11) जो विद्यमान भोगों को त्यागता है उस सुन्दर (व्यक्ति) की (मैं) पूजा करता हूँ। जिसका सिर गँजा है उसका सिर (तो) दैव के द्वारा ही मुँडा हुआ है।
(12) (यद्यपि) सागर का वह जल इतना (गहरा) (है) (तथा) वह इतना (बड़ा) विस्तार (लिए हुए) है, (तो भी) (आश्चर्य है कि) (उससे) प्यास का निवारण जरा सा भी नहीं (होता है)। किन्तु (वह) निरर्थक (गूंज की) आवाज करता रहता है।
(13) निश्चय ही कंजूस न खाता है, न पीता है, न घूमता है और न रुपये को धर्म में व्यय करता है। जबकि (कृपण) यहाँ (यह) नहीं समझता है (कि) यम का दूत क्षणभर में पहुँच जायेगा।
. (14) कहाँ चन्द्रमा (है), कहाँ समुद्र, कहाँ मोर (है) (और) कहाँ मेघ? (फिर) भी (इनमें आपस में) प्रेम है। (इसी प्रकार) दूरी पर स्थित (भी) सज्जनों का प्रेम असाधारण होता है।
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15.
सरिहिं न सरेहिं न सरवरेहिं नवि उज्जाण-वणेहिं। देस रवण्णा होन्ति वढ! निवसन्तेहिं सु-अणेहिं॥
16. एक्क कुडुल्ली पञ्चहिं रुद्धी तहं पञ्चहं वि जुअंजुअ बुद्धी।
बहिणुए तं घरु कहिं किम्व नन्दउ जेत्थु कुडुम्बउं अप्पण-छंदउं ।।
17. जिब्भिन्दिउ नायगु वसि करहु जसु अधिन्नई अन्नई।
मूलि विण?इ तुंबिणिहे अवसे सुक्कई पण्णइं॥
18.
जेप्पि असेसु कसाय-बलु देप्पिणु अभउ जयस्सु। लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु ।।
19.
देवं दुक्करु निअय-धणु करण न तउ पडिहाइ। एम्वइ सुहु भुजणहं मणु पर भुजणहि न जाइ॥
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(15) हे मूर्ख! न नदियों से, न झीलों से, न तालाबों से, न ही उद्यानों और वनों से देश सुन्दर होते हैं। (वे) (तो) सज्जनों द्वारा बसे हुए होने के कारण ही सुन्दर (होते हैं)।
(16) एक कुटिया पाँच (व्यक्तियों) द्वारा रोकी हुई है। उन पाँचों की भी बुद्धि अलग-अलग है। हे बहिन! कहो, वह घर कैसे हर्ष मनानेवाला (होगा)। जहाँ कुटुम्ब स्वच्छन्दी (हो)?
___(17) अन्य (इन्द्रियाँ) जिसके अधीन हैं, (ऐसी) प्रमुख रसना इन्द्रिय को वश में करो। मूल के समाप्त हो जाने पर तुम्बिनी के पत्ते अवश्य ही निराधार (म्लान) (हो जाते हैं)।
(18) सम्पूर्ण कषाय की सेना को जीतकर, जगत् को अभय (दान) देकर, महाव्रतों को ग्रहण करके, तत्त्व का ध्यान करके (व्यक्ति) मोक्ष प्राप्त करते हैं।
(19) निज धन को देने के लिए (तत्पर होना) दुष्कर (है), तप को करने के लिए (कोई) दिखाई नहीं देता है। इसी प्रकार सुख को भोगने के लिए (तो) मन (तत्पर रहता है), किन्तु (उसको) भोगने के लिए (कोई) (प्रयास) उत्पन्न नहीं होता है।
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पाठ - 15
परमात्मप्रकाश
1.
पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावें चित्ति धरेवि। भट्टपहायर णिसुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि॥
2.
अप्पा ति-विहु मुणेवि लहु मूढउ मेल्लहि भाउ। मुणि सण्णाणे णाणमउ जो परमप्प-सहाउ।।
मूदु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ। देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ॥
देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिहिटउ पंडिउ सो जि हवेइ॥
5.
अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्त जेण। मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुणहि मणेण॥
णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ। जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ॥
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पाठ - 15
परमात्मप्रकाश
(1) पाँच गुरुओं को बार-बार प्रणाम करके (और) (उनको) अंतरंग बहुमान से चित्त में धारण करके (मैं) तीन प्रकार की आत्मा को कहने के लिए (उद्यत हुआ हूँ)। (अतः) हे भट्ट प्रभाकर! तू (ध्यानपूर्वक) सुन।
(2) तीन प्रकार की आत्मा को जानकर (तू) शीघ्र मूर्च्छित आत्मावस्था को छोड़। (और) जो ज्ञानमय परमात्म-स्वभाव (है) (उसको) स्वबोध के द्वारा जान।
(3) आत्मा तीन प्रकार की होती है- मूछित (आत्मा), जाग्रत (आत्मा) और परम आत्मा (शुद्ध आत्मा)। जो देह को ही आत्मा मानता है वह मनुष्य मूछित होता है।
(4) जो देह से भिन्न परम समाधि में ठहरे हुए ज्ञानमय परम आत्मा को समझता है वह ही जाग्रत होता है।
(5) सकल ही पर द्रव्य को छोड़कर जिसके द्वारा ज्ञानमय आत्मा प्राप्त किया गया (है) वह कर्मरहित (मानसिक तनावरहित) होने के कारण सर्वोच्च (आत्मा) (है)। (तुम) (इसको) रुचिपूर्वक समझो।
46) (आत्मा) नित्य (है), निरंजन (है), ज्ञानमय (है) (और) (उसका) परमानन्द स्वभाव (है)। जिस (मनुष्य) ने ऐसी (अवस्था) (प्राप्त की है) वह (निश्चय ही) सन्तुष्ट हुआ (है) (और) (वह) मंगल-युक्त (भी) (बना) (है)। उसकी (इस) अवस्था को (तू) समझ।
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7.
जो णिय-भाउ ण परिहरइ जो पर-भाउ ण लेइ। जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ॥
8.
जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सदु ण फासु। जासु ण जम्मणु मरणु ण वि णाउ णिरंजणु तासु॥
9.
जासु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु। जासु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु॥
10.
अस्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अत्थि ण हरिसु विसाउ। अत्थि ण एक्कु वि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ॥
11. जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु।
जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउँ अणंतु॥
12.
वेयहिँ सत्थहिँ इंदियहिँ जो जिय मुणहु ण जाइ। णिम्मल-झाणहँ जो विसउ सो परमप्पु अणाइ॥
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(7) जो (आत्मा) निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है, जो पर स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है, (जो ) नित्य ( है ), सर्वोच्च ( है ) और सकल ( पदार्थ - समूह) को जानता है वह ही सन्तुष्ट हुआ ( है ) (और) मंगलयुक्त (भी) बना है।
(8) जिस ( अवस्था ) का न (कोई) रंग (है), (जिस अवस्था में) न (कोई) गन्ध (है), (जिस अवस्था में) न ( कोई ) ( इन्द्रियात्मक) रस ( है ), जिस ( अवस्था ) में न (कोई) (कर्णोन्द्रिय सम्बन्धी ) शब्द ( है ), (और) ( जिस अवस्था में) न (कोई) (स्पर्शनेन्द्रिय सम्बन्धी ) स्पर्श ( है ), जिस ( अवस्था) का न (कोई) जन्म ( है ) ( और न ) मरण, (जिस ) ( अवस्था) (का) न ही (कोई ) नाम ( है ), उस ( अवस्था) का (स्वरूप) निष्कलंक (होता है ) ।
( 9 ) जिस (आत्मा) के न क्रोध ( है ), न मोह ( है ) (और) (न) मद ( है ), जिस ( आत्मा ) के न माया ( है ) (और) न मान ( है ), जिस (आत्मा) के लिए ( अनुभूति का ) ( कोई ) (विशिष्ट) देश नहीं ( है ), ( जिस ) ( आत्मा ) ( के लिए) ( प्रयत्नरूप) ध्यान नहीं ( है ), वह ही आत्मा निष्कलंक (होता है) । ( इस बात को ) (तुम) जानो ।
( 10 ) जिस ( अवस्था ) में न पुण्य है (और) न पाप, जिस ( अवस्था) में न हर्ष है (और) (न) शोक, जिस ( अवस्था) में एक भी दोष नहीं है वह ही अवस्था निष्कलंक (होती है) ।
( 11 ) जिसके लिए ( ध्यान के योग ) ( कोई ) अवलम्बन नहीं है, (जिसके लिए ) ( प्राप्त करने योग्य ) ( कोई ) उद्देश्य भी नहीं ( है ), जिसके लिए न यन्त्र (उपयोगी ) ( है ) (और) न मन्त्र ( उपयोगी ) ( है ), जिसके लिए न ही आसन, ( उपयोगी है) न (विशिष्ट) मुद्रा है वह अनन्त ( शक्तिवाला) दिव्यआत्मा ( है ) ( ऐसा ) (तुम) जानो ।
(12) जो (निष्कलंक) चैतन्य ( है ), ( उसका ज्ञान ) आगमों द्वारा, ( आगमों पर आधारित) ग्रन्थों द्वारा (तथा) इन्द्रियों द्वारा नहीं होता है । (तुम) निश्चय ही जानो ( कि) जो अनादि परमात्मा (निष्कलंक चैतन्य ) ( है ) वह निर्मल ध्यान का ( ही ) विषय ( होता है)।
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जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिँ णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ मं करि भेउ ॥
जँ दिट्ठे तुहंति लहु कम्मइँ पुव्व - कियाइँ। सो परु जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइँ ॥
जित्थु ण इंदिय - सुह- दुहइँ जित्थु ण मण - वावारु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ अण्णु परिं अवहारु ॥
देहादेहहिँ जो वसई भेयाभेय - णएण | सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ किं अण्णे बहुएण ॥
जीवाजीव म एक्कु करि लक्खण भेएँ भेउ । जो परु सो परु भणमि मुणि अप्पा अप्पु अभेउ ॥
अणु अणिदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु । अप्पा इंदिय विसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु ॥
भव-तणु - भोय - विरत्त मणु जो अप्पा झाए । तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टेइ ॥
देहादेवलि जो वसई देउ अणाइ- अणंतु । केवल-णाण- फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥
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(13) जिस तरह का निर्मल (और) ज्ञानमय दिव्यात्मा मोक्ष (पूर्णता की अवस्था) में रहता है उस तरह का (ही) परमात्मा (दिव्यात्मा) (विभिन्न) देहों में रहता है। (तू) भेद मत कर।
(14) जिस (तत्व) के अनुभव किए गए होने के कारण पूर्व में किए गए कर्म शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, वह परम (आत्मा) (है) (तू) समझ। हे योगी! (इसके) देह में बसते हुए (भी) (तू) (इसको) क्यों नहीं (देखता है)।
(15) जहाँ इन्द्रिय-सुख-दु:ख नहीं (हैं), जहाँ मन का व्यापार (भी) नहीं (है), वह (परम) आत्मा (है)। हे जीव! तू (इस बात को) समझ और दूसरी (बात) को पूरी तरह से छोड़ दे।
(16) भेद और अभेद दृष्टि से जो (क्रमश:) देह में और बिना देह के अपने में रहता है वह (परम) आत्मा (है)। हे जीव! (इस बात को) तू समझ। दूसरी बहुत (बात) से क्या (लाभ है)?
(17) (तू) जीव (आत्मा) और अजीव (अनात्मा) को एक मत कर। (इनमें) लक्षण के भेद से (पूर्ण) भेद (है)। हे मनुष्य! (तू) अभेद रूप (विकल्परहित) आत्मा को जान। जो (इससे) अन्य है, वह अन्य (ही) (है), (ऐसा) मैं कहता हूँ।
(18) आत्मा मनरहित, इन्द्रिय (समूह से) रहित, मूर्ति-रहित (रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-रहित), ज्ञानमय और चैतन्य स्वरूप (है), (यह) इन्द्रियों का विषय नहीं (है)। (आत्मा का) यह लक्षण बताया गया (है)।
(19) जो मन (व्यक्ति) संसार, शरीर और भोगों से उदासीन हुआ (परम) आत्मा का ध्यान करता है, उसकी धनी संसाररूपी (मानसिक तनावरूपी) बेल नष्ट हो जाती है।
(20) जो अनादि (है), अनन्त (है), (जो) देहरूपी मन्दिर में बसता है, (जिसके) केवलज्ञान से चमकता हुआ शरीर (है) वह दिव्य आत्मा (ही) परम आत्मा (है)। (यह) (बात) सन्देहरहित (है)।
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पाठ
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पाहुडदोहा
गुरु दिrयरु गुरु हिमकरणु गुरु दीवउ गुरु देउ । अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावड़ भेउ ॥
अप्पायत्त जंजिहु तेण जि करि संतोसु । परसुहु वढ चिंतंतहं हियइ ण फिट्टइ सोसु ॥
1
आभुंजंता विसयसुह जे ण वि हियड़ धरंति ते सासयसुहु लहु लहहिं जिणवर एम भांति ॥
वि भुजंता विसय सुह हियडइ भाउ धरंति । सालिसित्थु जिम वप्पुडउ णर णरयहं णिवडंति ॥
आयइं अडवड वडवडइ पर रंजिज्जइ लोउ । मणसुद्धइं णिच्चलठियां पाविज्जइ परलोउ ॥
धंधई पडियउ सयलु जगु कम्मई करइ अयाणु । मोक्खहं कारणु एक्कु खणु ण वि चिंतइ अप्पाणु ॥
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पाठ - 16
पाहुडदोहा
(1) जो देव (समतावान व्यक्ति) (आत्मा के) स्वभाव और परभाव की परम्परा के भेद को समझाता है, वह महान् (होता है) (जिस प्रकार) (प्रकाश और अन्धकार की परम्परा के भेद को दिखानेवाला) सूर्य महान् (होता है), चन्द्रमा महान् (होता है) (तथा) दीपक (भी) महान् (होता है)।
(2) जो भी सुख स्वयं के अधीन (रहता है), (तू) उससे ही सन्तोष कर। हे मूर्ख! दूसरों के (अधीन) सुख का विचार करते हुए (व्यक्तियों) के हृदय में कुम्हलान (होती है), (जो) (कभी) नहीं मिटती है।
__ (3) जो (इन्द्रिय-) विषयों (से उत्पन्न) सुखों को सब ओर से भोगते हुए (भी) (उनको) कभी (भी) हृदय में धारण नहीं करते हैं, वे (व्यक्ति) शीघ्र (ही) अविनाशी सुख को प्राप्त करते हैं, इस प्रकार जिनवर (समतावान व्यक्ति) कहते हैं।
(4) (जो) (व्यक्ति) (इन्द्रिय-) विषयों के सुखों को न भोगते हुए भी (उनके प्रति) आसक्ति को हृदय में रखते हैं, (वे) मनुष्य नरकों में गिरते हैं, जैसे बेचारा सालिसित्थ (नरक में) (पड़ा था)।
(5) (जो) (व्यक्ति) आपत्ति में अटपट बड़बड़ाता है (उससे) (तो) लोक (ही) खुश किया जाता है (और कोई लाभ नहीं होता है), किन्तु (आपत्ति में) मन के कषायरहित होने पर (और) अचलायमान और दृढ़ होने पर (यहाँ) पूज्यतम जीवन प्राप्त किया जाता है।
(6) धन्धे में पड़ा हुआ सकल जगत ज्ञानरहित (होकर) (हिंसा आदि के) कर्मों को करता है, (किन्तु) मोक्ष (शान्ति) के कारण आत्मा को एक क्षण भी नहीं विचारता है।
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अणु म जाणहि अप्पणउ धरु परियणु तणु इडु | कम्मायत्तउ कारिमउ आगमि जोइहिं सिहु ॥
दुक्खुवितं सुक्खु किउ जं सुहु तं पि य दुक्खु । पई जिह मोहहिं वसि गयइं तेण ण पायउ मुक्खु ॥
मोक्खु ण पावहि जीव तुहुं धणु परियणु चिंतंतु । तो इ विचिंतहि तउ जि तउ पावहि सुक्खु महंतु ॥
मूढा सयलु वि कारिमउ मं फुडु तुहुं तुस कंडि । सिवपड़ णिम्मलि करहि रइ धरु परियण लहु छंडि ॥
विसयसुहा दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि । भुल्लउ जीव म वाहि तुहुं अप्पाखंधि कुहाडि ॥
उव्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुमिट्ठाहार । सयल वि देह णिरत्थ गय जिह दुज्जणउवयार ॥
अथिरेण थिरा मइलेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारा । कारण जा विढप्पड़ सा किरिया किण्ण कायव्वा ॥
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(7) घर, नौकर-चाकर, शरीर (तथा) इच्छित वस्तु को अपनी मत जानो, (चूँकि) (वे) (सब) (आत्मा से) अन्य (हैं)। (वे) (सब) कर्मों के अधीन बनावटी (स्थिति) (है)। (ऐसा) योगियों द्वारा आगम में बताया गया है।
__(8) हे जीव! (तू) आसक्ति के कारण परतन्त्रता में डूबा है। (इस कारण से) जो दुःख (है) वह (तेरे द्वारा) सुख (ही) माना गया (है) और जो (वास्तविक) सुख (है) वह (तेरे द्वारा) दु:ख ही (समझा गया है)। इसलिये तेरे द्वारा परम शान्ति प्राप्त नहीं की गई (है)।
(9) हे जीव! तू धन (और) नौकर-चाकर को मन में रखते हुए शान्ति नहीं पायेगा। आश्चर्य! तो भी (तू) उनको-उनको ही मन में लाता है (और) (उनसे) विपुल सुख (व्यर्थ में) (ही) पकड़ता है।
(10) हे मूढ़! (यह) सब (संसारी वस्तु-समूह) ही बनावटी (है)। (इसलिये) तू (इस) स्पष्ट (वस्तुरूपी) भूसे को मत कूट (अर्थात् तू इसमें समय मत गवाँ) घर (और) नौकर-चाकर को शीघ्र छोड़कर तू निर्मल शिवपद (परम शान्ति) में अनुराग कर।
(11) (इन्द्रिय-) विषय-सुख दो दिन के (हैं), और फिर दु:खों का क्रम (शुरू हो जाता है)। हे (आत्म-स्वभाव को) भूले हुए जीव! तू अपने कन्धे पर कुल्हाड़ी मत चला।
(12) (तू) (चाहे) (शरीर का) उपलेपन कर, (चाहे) घी, तेल आदि लगा, (चाहे), सुमधुर आहार (उसको) खिला, (और) (चाहे) (उसके लिए) (और भी) (नाना प्रकार की) चेष्टाएँ कर, (किन्तु) देह के लिए (किया गया) सब कुछ ही व्यर्थ हुआ (है), जिस प्रकार दुर्जन के प्रति (किया गया) उपकार (व्यर्थ होता है)।
(13) अस्थिर, मलिन और गुणरहित शरीर से जो स्थिर, निर्मल और गुणों (की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ (स्व-पर उपकारक) क्रिया उदय होती है, वह क्यों नहीं की जानी चाहिए?
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14. अप्पा बुज्झिउ णिच्चु जइ केवलणाणसहाउ।
ता पर किज्जइ काई वढ तणु उप्परि अणुराउ॥
15.
जसु मणि णाणु ण विप्फुरइ कम्महं हेउ करंतु । सो मुणि पावइ सुक्खु ण वि सयलई सत्थ मुणंतु॥
16.
बोहिविवज्जिउ जीव तुहुं विवरिउ तच्चु मुणेहि। कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाण भणेहि॥
17.
ण वि तुहं पंडिउ मुक्खु ण वि ण वि ईसरु ण वि णीसु। ण वि गुरु कोइ वि सीसु ण वि सव्वई कम्मविसेसु ॥
18.
ण वि तुहं कारणु कज्जु ण वि ण वि सामिउ ण वि भिच्चु । सूरउ कायरु जीव ण वि ण वि उत्तमु ण वि णिच्चु ॥
19.
पुण्णु वि पाउ वि कालु णहु धम्मु अहम्मु ण काउ। एक्कु वि जीव ण होहि तुहं मिल्लिवि चेयणभाउ॥
पुण्णु
20.
ण वि गोरउ वि सामलउ ण वि तुहं एक्कु वि वण्णु। ण वि तणुअंगउ थूलु ण वि एहउ जाणि सवण्णु॥
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(14) यदि आत्मा नित्य और केवलज्ञान स्वभाववाली समझी गई (है), तो हे मूर्ख! (इस आत्मा से) भिन्न शरीर के ऊपर आसक्ति क्यों की जाती है?
(15) जिस (मुनि) के हृदय में (आध्यत्मिक) ज्ञान नहीं फूटता है, वह मुनि सभी शास्त्रों को जानते हुए भी सुख नहीं पाता है (और) विभिन्न कर्मों (मानसिक तनावों) के कारणों को करता हुआ ही (जीता है)।
__ (16) आध्यात्मिक ज्ञान (से रहित) के बिना हे जीव! तू (आत्म-) तत्त्व को असत्य मानता है। (तथा) कर्मों से रचित उन (शुभ-अशुभ) चित्तवृत्तियों को (तू) स्वयं की (चित्तवृत्ति) समझता है।
(17) (हे मनुष्य)! न ही तू पण्डित (है), न ही (तू) मूर्ख (है), न ही (तू) धनी (है), न ही (तू) निर्धन (है), न ही (तू) गुरु (है)। कोई शिष्य (भी) नहीं (है)। (ये) सभी (बातें) कर्मों की विशेषता (है)।
(18) हे मनुष्य! न ही तू कारण (है), न ही (तू) कार्य (है), न ही (तू) स्वामी (है), न ही (तू) नौकर (है), न ही (तू) शूरवीर (है), (न ही) (तू) कायर (है), न ही (तू) उच्च (है) और न ही (तू) नीच (है)।
(19) हे मनुष्य! तू पुण्य, पाप, शरीर, धर्म, अधर्म, आकाश और काल नहीं है। (वास्तव में) (तू) ज्ञानात्मक स्वरूप को छोड़कर (इनमें से) एक भी नहीं (है)।
(20) (हे मनुष्य)! (तू) न गोरा (है), न काला (है)। इस प्रकार (तेरा) कोई भी वर्ण नहीं है। (तू) न ही दुर्बल अंगवाला (है) और न ही स्थूल (शरीरवाला) है। (अतः) तू स्ववर्ण (स्व-रूप) को समझ।
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पाठ - 17
सावयधम्मदोहा
1.
दुज्जणु सुहियउ होउ जगि सुयणु पयासिउ जेण। अमिउ विसें वासरु तमिण जिम मरगउ कच्चेण॥
2.
जिह समिलहिं सायरगयहिं दुल्लहु जूयहु रंधु। तिह जीवहं भवजलगयहं मणुयत्तणि संबंधु ॥
3.
मणवयकायहिं दय करहि जेम ण दुक्कड़ पाउ। उरि सण्णाहे बद्धइण अवसि ण लग्गइ धाउ॥
पसुधणधण्णइं खेत्तियइं करि परिमाणपवित्ति। बलियई बहुयई बंधणई दुक्करु तोडहुं जंति॥
5.
भोगहं करहि पमाणु जिय इंदिय म करि सदप्प। हुंति ण भल्ला पोसिया दुखें काला सप्प॥
दाणु कुपत्तहं दोसडइ बोल्लिज्जइ ण हु भंति। पत्थरु पत्थरणाव कहिं दीसइ उत्तारंति॥
7.
जइ गिहत्थु दाणेण विणु जगि पभणिज्जइ कोइ। ता गिहत्थु पंखि वि हवइ जें घरु ताह वि होइ॥
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पाठ - 17
सावयधम्मदोहा
(1) (वह) दुर्जन जग में सुखी होवे जिसके द्वारा सज्जन विख्यात किया गया (है), जिस प्रकार अमृत विप के द्वारा, दिन अन्धकार के द्वारा (और) मरकत मणि (पन्ना) काँच से (विख्यात किया गया है)।
(2) जिस प्रकार सागर में लुप्त समिला (लकड़ी की खील) के लिए जुवे का छिद्र दुर्लभ है, उसी प्रकार संसाररूपी पानी (सागर) में पड़े हुए जीवों के लिए मनुष्यत्व से सम्बन्ध (दुर्लभ) (है)।
(3) मन-वचन-काय से दया करो जिससे पाप प्रवेश न करे, छाती में बँधे हुए कवच के कारण निश्चय ही घाव नहीं लगता है।
(4) पशु, धन, धान्य (और) खेत में परिमाण से प्रवृत्ति कर। (ठीक ही है) बहुत गाढ़े बन्धन तोड़ने के लिए कठिन होते हैं।
(5) हे मनुष्य! भोगों का परिमाण कर। इन्द्रियों को दम्भी मत बना। काले सर्प (यदि) दूध से पाले गये हैं) (तो भी) अच्छे नहीं होते हैं।
(6) कुपात्रों के लिए दान दूषण (ही) कहा जाता है। (इसमें) निश्चय ही भ्रान्ति नहीं (है)। पत्थर की नाव पत्थर को पार पहुँचाती हुई (क्या) कहीं देखी गई है?
(7) यदि दान के बिना जगत में कोई गृहस्थ कहा जाता है, तो पक्षी भी गृहस्थ हो जावेगा, चूँकि घर उसके भी होता है।
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8.
काइं बहुत्तई संपयई जइ किविणहं घरि होइ। उवहिणीरु खारें भरिउ पाणिउ पियइ ण कोइ॥
9. . पत्तहं दिण्णउ थोवडउ रे जिय होइ बहुत्तु ।
वडह बीउ धरणिहिं पडिउ वित्थरु लेइ महंतु॥
10. काई बहुत्तई जंपियइं जं अप्पहु पडिकूलु।
काई मि परहु ण तं करहि एहु जि धम्महु मूलु॥
11. धम्मु विसुद्धउ तं जि पर जं किज्जइ काएण।
अहवा तं धणु उज्जलउ जं आवइ णाएण॥
12.
अवरु वि जं जहिं उवयरइ तं उवयारहि तित्थु । लइ जिय जीवियलाहडउ देहु म लेहु णिरत्थु॥
13. एक्कहिं इंदियमोक्कलउ पावइ दुक्खसयाई।
जसु पुणु पंच वि मोक्कला तसु पुच्छिज्जइ काई॥
14. जइ इच्छहि संतोसु करि जिय सोक्खहं विउलाहं ।
अह वा णंदु ण को करइ रवि मेल्लिवि कमलाहं ।।
15. मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेण।
इंधणकज्जें कप्पयरु मूलहो खंडिउ तेण॥
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( 8 ) ( उस) बहुत सम्पदा से क्या (लाभ है) जो कृपणों के घर में होती है ? समुद्र का जल खार से भरा हुआ ( रहता है) (इसलिये) (उस) पानी को कोई नहीं पीता है।
(9) हे मनुष्य! पात्रों के लिए थोड़ा (कुछ) दिया हुआ ( भी ) बहुत होता है । पृथ्वी पर पड़ा हुआ वट का ( छोटा सा ) बीज बड़ा विस्तार ले लेता है ।
(10) बहुत कहे गये से क्या (लाभ) ? जो अपने लिए प्रतिकूल ( है ) उसको कैसे भी ( किसी भी तरह) दूसरों के लिए मत करो । यह ही धर्म का मूल है।
( 11 ) वह ही धर्म शुद्ध ( है ) जो पूरी तरह (स्व) काया से ( अपने आप से) किया जाता है। (और) वह ( ही ) धन उज्ज्वल ( है ) जो न्याय से आता है ।
(12) और भी जो (मनुष्य) जहाँ (जैसा) उपकार कर सकता है वह वहाँ ( वैसा) उपकार करे । हे मनुष्य ! (तू) जीवन के लाभ को ग्रहण करके देह को निरर्थक मत बना |
(13) अनियन्त्रित इन्द्रिय ( जब ) एक (विषय) में ( ही लीन होती है) तो (व्यक्ति) सैकड़ों दुःखों को प्राप्त करता है । फिर जिसकी पाँचों ( ही इन्द्रियाँ) स्वच्छन्द हैं, उस (व्यक्ति) का क्या पूछा जाए ?
( 14 ) हे मनुष्य ! यदि (तू) विपुल सुखों को चाहता है, (तो) सन्तोष कर । सूर्य को छोड़कर उन कमलों के लिए और कौन हर्ष ( प्रदान) करता है ?
( 15 ) दुर्लभ मनुष्य - जन्म को पाकर जिसके द्वारा ( वह) भोगों के लिए लगा दिया गया ( है ) उसके द्वारा ईंधन के प्रयोजन से कल्पतरु मूल से काटा गया ( है ) ।
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व्याकरणिक विश्लेषण
एवं शब्दार्थ
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अक
अनि
आज्ञा
कर्म
क्रिविअ
प्रे
भवि
भाव
भूकृ
व
स
संकृ
सक
सवि
स्त्री
-
कृ
-
-
-
-
वकृ
वि
विधि
विधिकृ - विधिकृदन्त
सर्वनाम
1
-
-
अकर्मक क्रिया
अनियमित
आज्ञा
कर्मवाच्य
क्रिया विशेषण अव्यय
प्रेरणार्थक क्रिया
भविष्यत्काल
भाववाच्य
भूतकालिक कृदन्त वर्तमानकाल
-
वर्तमान कृदन्त
विशेषण
विधि
सम्बन्धक कृदन्त
सकर्मक क्रिया
सर्वनाम विशेषण
• स्त्रीलिंग
- हेत्वर्थक कृदन्त
अपभ्रंश काव्य सौरभ
संकेत- सूची
().
-
इस प्रकार के कोष्ठक में मूल शब्द
रखा गया है।
• [( )+( )+( )....]
इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर + चिह्न शब्दों में सन्धि का द्योतक है। यहाँ अन्दर के कोष्ठकों में मूल शब्द ही रखे गए हैं।
• [( )-( ) ( )....]
इस प्रकार के कोष्ठक के अन्दर चिह्न समास का द्योतक है ।
• [[( )-( )-( )] fa]
जहाँ समस्तपद विशेषण का कार्य करता है वहाँ इस प्रकार के कोष्टक का प्रयोग किया गया है।
• जहाँ कोष्ठक के बाहर केवल संख्या (जैसे 1 / 1, 2 / 1.... आदि) ही लिखी है वहाँ उस कोष्ठक के अन्दर का शब्द 'संज्ञा' है।
• जहाँ कर्मवाच्य, कृदन्त आदि अपभ्रंश के नियमानुसार नहीं बने हैं वहाँ कोष्ठक के बाहर 'अनि' भी लिखा गया है।
1/1 अक या सक
1/2 अक या सक
,
-
-
उत्तम पुरुष / एकवचन
उत्तम पुरुष / बहुवचन
120
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2/1 अक या सक
2 / 2 अक या सक
3 / 1 अक या सक
3/2 अक या सक
121
-
-
-
-
1/1 प्रथम / एकवचन
1/2 - प्रथमा / बहुवचन
2/1 - द्वितीया / एकवचन
2 / 2 - द्वितीया / बहुवचन
3/1
तृतीया / एकवचन
3 / 2 - तृतीया / बहुवचन
-
मध्यम पुरुष / एकवचन
मध्यम पुरुष / बहुवचन
अन्य पुरुष / एकवचन
अन्य पुरुष / बहुवचन
4 / 1 - चतुर्थी / एकवचन 4/2 - चतुर्थी / बहुवचन
5/1 - पंचमी / एकवचन
5/2 - पंचमी / बहुवचन
6/1 - षष्ठी / एकवचन
6/2 - षष्ठी / बहुवचन
7 / 1 - सप्तमी / एकवचन 7/2- सप्तमी / बहुवचन
8 / 1 - सम्बोधन / एकवचन
8 / 2 - सम्बोधन / बहुवचन
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व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ
पाठ - 1 पउमचरिउ
सन्धि - 22
कोसलणन्दणेण
[(कोसल)-(णन्दण) 3/1]
स-कलत्ते
कोशलनगर के (राज-) पुत्र द्वारा पत्नी सहित अपने घर पहुँचे हुए (के द्वारा) अषाढ की अष्टमी के दिन
णिय-घरु
आएं आसाढठ्ठमिहिँ
[(स) वि- (कलत्त) 3/1] [(णिय) वि- (घर) 1/1] | (आअ) भूक 3/1 अनि [(आसाढ)+(अट्ठमिहि)] [(आसाढ)-(अट्ठमी) 7/1] स्त्री [(किअ) भूकृ 1/1 अनि (ण्हवण) 1/1 (जिणिन्द) 6/1 (राअ) 3/1
किउ
किया गया
ण्हवणु जिणिन्दहो
अभिषेक जिनेन्द्र का
राएं
राजा के द्वारा
22.1
सुर-समर-सहासेहिं
[(सुर)-(समर)-(सहास') 3/2]
दुम्महेण किउ
(दुम्मह) 3/1 वि (किअ) भूकृ 1/1 अनि (ण्हवण) 1/1
देवातओं के साथ हजारों युद्धों में कठिनाई से मारे जानेवाले किया गया अभिषेक
ण्हवणु
1.
कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)।
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जिणिन्दहो
दसरहेण
2.
पट्ठवियइँ जिण-तणु-धोक्याइँ
देविहिँ
दिव्वइँ
गन्धोदयाइँ
3.
सुप्प
णवर
कञ्चुइ
ण
पत्तु
पहु
पभणइ
रहसुच्छलिय-तु
4.
कहे
काइँ
नियम्विणि
मणे
विसण्ण
चिर- चित्तिय
भित्ति
2.
123
(farfora) 6/1
( दसरह) 3 / 1
( पट्ठव) भूकृ 1 / 2
[(जिण) - (तणु) - (धोवय ) 1 / 2 वि ]
(देवी) 4/2
(दिव्व) 1/2 वि (गन्धोदय) 1/2
( सुप्पहा ) 6/1
अव्यय
(कञ्चुइ) 1 / 1
अव्यय
( पत्त ) भूकृ 1 / 1 अनि
(पहु) 1 / 1
( पभण) व 3 / 1 सक
[ (रहस) + (उच्छलिय) + (गत्तु ) ] [[ (रहस) (उच्छल - उच्छलिय) भूक - (गत्त) 1 / 1 ] वि]
[(चिर) वि- (चित्तिय ) भूकृ 1 / 1 अनि ]
(fufa) 1/1
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
( कह ) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
(णियम्विणी ) 8 / 1
(मण) 7/1
(विसण्ण- (स्त्री) विसण्णा)
भूकृ 1 / 1 अनि
जिनेन्द्र का
दशरथ के द्वारा
भेजा गया
जिनेश्वर के तन को
धोनेवाला
देवियों के लिए
दिव्य
गन्धोदक
सुप्रभा के
केवल
कञ्चुकी
नहीं
पहुँचा
स्वामी (राजा)
कहता है
हर्ष से पुलकित शरीरवाले
कहो
क्यों
हे स्त्री
मन में
दुःखी
पुरानी चित्रित
भीत
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
थिय
अव्यय (थिय- (स्त्री) थिया) भूकृ 1/1 अनि (विवण्ण- (स्त्री) विवण्णा) 1/1वि
की तरह स्थिर निस्तेज
विवण्ण
पणवेप्पिणु
वुच्चइ
प्रणाम करके कहा जाता है सुप्रभा के द्वारा हे प्रभु
सुप्पहाए
किर
(पणव) संकृ (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (सुप्पहा) 3/1 (अव्यय) सम्बोधनार्थक (काइँ) 1/1 सवि (अम्ह) 6/1 स (तणिया) 3/1 वि (कहा) 3/1
काइँ
क्या
मेरे
महु तणियए
सम्बन्धार्थक परसर्ग विशेषण चर्चा से
कहाए
of 2 155
पाणवल्लहिय
प्राणों से प्यारी
अव्ययव (अम्ह) 1/1 स अव्यय [(पाण) + (वल्लहा)+(इय)] [(पाण)-(वल्लहा) 1/1] इय = अव्यय (देव) 8/1 अव्यय [(गन्ध)-(सलिल) 2/1] (पाव) व 3/1 सक
इस प्रकार
हे देव
गन्ध-सलिलु
गन्धोदक
पावइ
पाती है
ण
अव्यय
नहीं
केम
अव्यय
क्यों
तहिं
उसी
उसी
अवसरे
समय पर
(त) 7/1 सवि (अवसर) 7/1 (कञ्चुइ) 1/1 (ढुक्क) भूकृ 1/1 अनि
कञ्चुइ
कञ्चुकी पहुँचा
ढुक्कु
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124
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________________
पासु
पास
छण-ससि
व
.
(पास) 2/1 [(छण)= (ससि) 1/1] अव्यय [(णिरन्तर)+(धवलिय)+(आसु)] [[(णिरन्तर) वि- (धवलिय) भूकृ - (आस) 1/1 वि]
शरद की पूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह निरन्तर सफेद किया गया
णिरन्तर-धवलियासु
मुख
गय-दन्तु अयंगमु दंड-पाणि अणियच्छिय-पहु पक्खलिय-वाणि
[(गय) भूकृ अनि - (दन्त) 1/1] वि] दन्त (-समूह) टूट गया (अयंगम) 1/1 वि [[(दंड)-(पाणि) 1/1 वि] हाथ में लकड़ी (वाला) [(अणियच्छिय) भूक - (पह) 1/1 वि] न देखा गया (अदृष्ट)-पथ [(पक्खलिय) भूक - (वाणी) 1/1 वि] लड़खड़ाती हुई वाणी
(वाला)
गरहिउ दसरहेण पइँ
कञ्चुइ
काइँ चिराविउ जलु जिण-वयणु
(गरह) भूकृ 1/1 (दसरह) 3/1 (तुम्ह) 3/1 स (कञ्चुइ) 8/1 अव्यय (चिराव) भूकृ 1/1 (जल) 1/1 [(जिण)-(वयण) 1/1] अव्यय (सुप्पहा) 6/1 अव्यय
निन्दा किया गया दशरथ के द्वारा तुम्हारे द्वारा हे कञ्चुकी क्यों देर की गयी गन्धोदक जिन-वचन के सदृश सुप्रभा के द्वारा शीघ्र
जिह
सुप्पहहे दवत्ति
अव्यय
नहीं
पाविउ
..
(पाव) भूकृ 1/1
पाया गया
1.
कभी-कभी तृतीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग किया जाता है। (हे. प्रा. व्या. 3-134)
125
अपभ्रंश काव्य सौरभ
.
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
22.2
1.
पणवेप्पिण
तेण
प्रणाम करके उसके द्वारा भी
कहा गया
(पणव) संकृ (त) 3/1 स अव्यय (वुत्त) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (गय) भूकृ 1/2 अनि (दियह) 1/2 (जोव्वण) 1/1 (ल्हस) भूकृ 1/1 (देव) 8/1
गय
इस प्रकार चले गए दिन
दियहा
जोव्वणु
यौवन
ल्हसिउ
खिसक गया
देव
हे देव
पढमाउसु
प्रारम्भिक आयु को
जर
बुढ़ापा
धवलन्ति
सफेद करता हुआ
आय
आ गया
[(पढम)+(आउसु)] [(पढम) वि-(आउस) 2/1] (जरा) 1/1 (धवल-धवलन्त-(स्त्री) धवलन्ती) वकृ 1/1 (आय) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (असइ) 1/1 अव्यय [(सीस)-(वलग्ग) 1/1 वि] (जाय) भूकृ 1/1 अनि
पुणु
और
असइ
कुलटा की तरह सिर पर चढ़ा हुआ विद्यमान
सीस-वलग्ग
जाय
गति
गइ तुट्टिय विहडिय
(गइ) 1/1 (तुट्ट-तुट्टिय- (स्त्री) तुट्टिया) भूकृ 1/1 (विहड) भूक 1/2
टूट गयी खुल गए
अपभ्रंश काव्य सौरभ
126
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्धि-बन्ध
हड्डियों के जोड़ों के बन्धन
नहीं सुनते हैं
सुणन्ति कण्ण लोयण
[(सन्धि)-(बन्ध) 1/2] अव्यय (सुण) व 3/2 सक (कण्ण) 1/2 (लोयण) 1/2 (णिरन्ध) 1/2 वि
कान
आँखें
णिरन्ध
बिल्कुल अंधी
4.
सिरु
सिर
कम्पइ
हिलता है
पक्खलइ
मुख में लड़खड़ाती है वाणी
वाय
(सिर) 1/1 (कम्प) व 3/1 अक (मुह) 7/1 (पक्खल) व 3/1 अक (वाया) 1/1 (गय) भूकृ 1/2 अनि (दन्त) 1/2 (सरीर) 6/1 (ण?--स्त्री) णट्ठा) भूकृ 1/1 अनि (छाया) 1/1
गय
टूट गए
दन्त
दाँत
सरीरहो
णट्ठ
शरीर की नष्ट हो चुकी कान्ति
छाय
5.
परिगलिउ
रुहिरु थिउ
(परिगल) भूकृ 1/1 (रुहिर) 1/1 (थिअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (चम्म) 1/1 (अम्ह) 6/1 स अव्यय
क्षीण हो चुका खून रह गयी केवल चमड़ी मेरा
णवर
यहाँ
अव्यय
हुआ
मानो
(हुअ) भूकृ 1/1 अव्यय (अवर) 1/1 वि (जम्म) 1/1
अवरु
दूसरा
जम्म
जन्म
127
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
गिरि-णइ-पवाह
[(गिरि)-(णइ)-(पवाह) 2/1]
पर्वतीय नदी के (समान) प्रवाह को
अव्यय
नहीं
वहन्ति
धारण करते हैं
पाय
गन्धोवउ
गन्धोदक को
(वह) व 3/2 सक (पाय) 1/2 (गन्धोवअ) 2/1 (पाव) विधि 3/1 सक अव्यय (राय) 8/1
पावउ
पावे
केम
किस प्रकार हे राजा
राय
7.
वयणेण
कथन से
तेण
उस
किया गया
(वयण) 3/1 (त) 3/1 सवि (किअ) भूकृ 1/1 अनि [(पहु)-(वियप्प) 1/1] (गअ) भूक 1/1 अनि [(परम) वि-(विसाय) 6/1] [(राम)-(वप्प) 1/1]
किर पहु-वियप्पु गउ परम-विसायहो राम-वप्पु
राजा के द्वारा विचार
प्राप्त हुए अत्यन्त दुःख को राम के पिता
8.
सच्चउ
सत्य
चलु
चंचल
जीविउ
जीवन कौनसा
कवणु सोक्खु
सुख
(सच्चअ) 1/1 (चल) 1/1 वि (जीविअ) 1/1 (कवण) 1/1 सवि (सोक्ख) 1/1 (त) 1/1 स (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि (सिज्झ) व 3/1 अक (ज) 3/1 स (मोक्ख) 1/1
वह
किज्जइ
सिज्झइ
अनुभव किया जाता है सिद्ध होता है जिससे मोक्ष
जेण मोक्खु
1.
कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
128
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
महु-बिन्दु-समु दुहु मेरु-सरिसु पवियम्भइ
मधु की बिन्दु के समान दुःख मेरु पर्वत के समान लगता है
वरि
अच्छा
(सुह) 1/1 [(महु)-(विन्दु)-(सम) 1/1 वि] (दुह) 1/1 [(मेरु)-(सरिस) 1/1 वि (पवियम्भ) व 3/1 अक अव्यय (त) 1/1 सवि (कम्म) 1/1 (किअ) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (पउ) 1/1 [(अजर) वि-(अमर) 1/1 वि] (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि
वह
कम्मु किउ
कर्म किया हुआ जिससे
पउ
पद
अजरामरु
अजर-अमर प्राप्त किया जाता है
लब्भइ
22.3
किसी
(क) 1/1 सवि (दिवस) 1/1
दिवसु
दिन
वि
अव्यय
होसइ आरिसाहुँ कञ्चुइ-अवत्थ अम्हारिसाहुँ
(हो) भवि 3/1 अक (आरिस) 6/2 वि [(कञ्चुइ)-(अवत्था) 1/1] (अम्हारिस) 6/2 वि
होगी ऐसे (लोगों) के कञ्चुकी की अवस्था हम जैसों की
कौन
6 *2.
(क) 1/1 सवि (अम्ह) 1/1 स (का) 6/1 सवि (मही) 1/1
किसकी पृथ्वी
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
कहो
(क) 6/1 स
किसका सम्बन्धवाचक परसर्ग
तणउ
अव्यय
दव्यु
धन
सिंहासणु
सिंहासन
छत्तइँ अथिरु सव्वु
(दव्व) 1/1 (सिंहासण) 1/1 (छत्त) 1/2 (अथिर) 1/1 वि (सव्व) 1/1 सवि
अस्थिर
सभी
यौवन
जोव्वणु सरीरु जीविउ धिगत्थु
(जोव्वण) 2/1 (सरीर) 2/1 (जीविअ) 2/1 [(धिग) + (अत्थु)] धिग=अव्यय अत्थु (अत्थ) 2/1 (संसार) 1/1 (असार) 1/1 वि (अणत्थ) 1/1 वि (अत्थ) 1/1
शरीर जीवन को धिक्कार, धन
संसारु
संसार
असारु
असार
हानिकारक
अणत्थु अत्थु
धन
विष
विसु विसय
बन्धु दिढ-बन्धणाई
(विस) 1/1 (विसय) 1/1 (बन्धु) 1/1 [(दिढ)-(बन्धण) 1/2] [(घर)-(दार) 1/2] [(परिहव)-(कारण) 1/2]
विषय (भोग) बन्धु (परिवारजन) कठोर बन्धन घर और पत्नी दुःख देने के कारण
घर-दाराइँ परिहव-कारणाइँ
5.
सुत (पुत्र)
शत्रु
सत्तु विढत्तउ
(सुय) 1/2 (सत्तु) 1/2 (विढत्तअ) 2/1 वि अ स्वा. (अवहर) व 3/2 सक
उपार्जित (धन) को छीन लेते हैं
अवहरन्ति
अपभ्रंश काव्य सौरभ
130
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
जर मरणहँ
किङ्कर
किं
करन्ति
6.
जीवाउ
B R R E E E EEEE
वाउ
हय
वराय
सन्दण
गय
गय
जे
णाय
7.
तणु
तणु
खणद्धे
खग्रहो
जाइ
धणु
1.
ܕ
2.
3.
4.
131
[ ( जरा-जर) - ( मरण) 6 / 1 ] 2
( किङ्कर) 1/2
(क) 1 / 1 सवि
(कर) व 3 / 2 सक
[(जीव) + (आउ)] [ (जीव ) - ( आउ) 1 / 1]
(वाउ) 1 / 1
( हय) 1/2
( हय) भूकृ 1 / 2 अनि
( वराय) 1 / 2 वि
(सन्दण) 1/2
(सन्दण) 1/2 वि
( गय) भूक 1 / 2 अनि
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
अव्यय
[ (ण) + (आय) ] ण (अव्यय) आय (आय) भूकृ 1/2 अनि
( तणु) 1 / 1
( तण ) 1 / 1
अव्यय
(खणद्ध) 3 / 1
(खय) 6 / 1
(जा) व 3 / 1 सक
( धण) 1 / 1
बुढ़ापे और मरण के अवसर
पर
नौकर-चाकर
क्या
करते हैं
जीव की आयु
हवा
घोड़े
मारे गए
बेचारे
रथ
टूटनेवाले
मरे हुए
गए
ही
नहीं
लौटे
སྠཽ ཛྱཱ ཝཱ ཝཱ
तृण
ही
आधे क्षण में
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
कभी-कभी षष्ठी का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134 ) कभी-कभी सप्तमी के अर्थ में तृतीया प्रयुक्त होती है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) कभी-कभी षष्ठी द्वितीया के अर्थ में प्रयुक्त होती है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
क्षय को प्राप्त होता है
धन
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
(धणु) 1/1
अव्यय
धनुष पादपूरक प्रत्यञ्चा से
(गुण) 3/1 अव्यय (वङ्क) 1/1 वि (था) व 3/1 अक
पादपूरक बांका रहता है
पुत्री
(दुहिया) 1/1 अव्यय (दुहिय- (स्त्री) दुहिया) 1/1 वि (माया) 1/1
दुहिय
पादपूरक दुःखी करनेवाली मोह-जाल
माया
वि
अव्यय
पादपूरक
माय
माता
समान-हिस्सा
सम-भाउ लेन्ति किर
लेते हैं
(माया) 1/1 [(सम) वि-(भाअ) 2/1] (ले) व 3/2 सक अव्यय अव्यय (भाय) 1/2
तेण
चूँकि इसलिए भाई
भाय
9.
आयइँ
अवर
इनको दूसरे (अन्य) पादपूरक
भी
सव्वइँ राहवहो समप्पेवि अप्पुणु
(आय) 2/2 सवि (अवर) 2/2 वि अव्यय अव्यय (सव्व) 2/2 सवि (राहव) 4/1 (समप्प+एवि) संकृ (अप्पुण) 1/1 स (तअ) 2/1 (कर) व 1/1 सक (थिअ) भूकृ 1/1 अनि
सबको राम के लिए (को) देकर
स्वयं
तउ
तप
करमि
करता हूँ (करूँगा)
थिउ
स्थिर हुए
अपभ्रंश काव्य सौरभ
132
-
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
दसरहु
दशरथ
एम
(दसरह) 1/1 अव्यय (वियप्प+एवि) संकृ
इस प्रकार विचार करके
वियप्पेवि .
22.7
9.
दसरहु अण्ण-दिणे
(दसरह) 1/1 [(अण्ण) वि-(दिण) 7/1] अव्यय
दशरथ दूसरे दिन पादपूरक राम के लिए (को)
किर
रामहो
(राम) 4/1
रज्जु
राज्य
समप्पइ
(रज्ज) 2/1 (समप्प) व 3/1 सक (केक्कया) 1/1
केक्कय
देता है (देते हैं) केकय देश के राजा की कन्या
ताव
अव्यय
तब
मणे
मन में ग्रीष्म-काल
उण्हालए
(मण) 7/1 [(उण्ह)+(आलए)] [(उण्ह)-(आलअ) 7/1'अ' स्वा.] (धरणि) 1/1
धरणि
धरती
व
अव्यय
जैसे तपती है
तप्पइ
(तप्प) व 3/1 अक
22.8
1.
..
णरिन्दस्स
राजा (दशरथ) के
सोऊण
सुनकर
(णरिन्द) 6/1 (सोऊण) संकृ अनि [(पव्वज्जा (स्त्री)-पव्वज्ज)(यज्ज) 2/1]
पव्वज्ज-यज्ज
संन्यास-विधान को
133
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
स-रामाहिरामस्स
[(स)+ (रामा)+(अहिरामस्स)] (स) वि-(रामा)-(अहिराम) 4/1 वि] (राम) 4/1 (रज्ज) 2/1
पत्नीसहित, आकर्षक राम के लिए राज्य को
रामस्स
रज्ज
ससा
दोणरयस्स
भग्गाणुराया
(ससा) 1/1
बहिन (दोणराय) 6/1
द्रोणराजा की [(भग्ग)+(अणुराया)]
टूट गया, स्नेह [(भग्ग) भूकृ अनि-(अणुराया) 1/1 वि] [[(तुलाकोडि)-(कन्ति-कन्ती)
नूपुरों से, (लया)-(लिद्ध) भूक अनि
कान्तिसहित, (पाय) 1/2] वि]
लतारूपी, लिपटे हुए, पैर
तुलाकोडि-कन्तीलयालिद्ध-पाया
गया
गयी कैकेयी
केक्कया
जत्थ
जहाँ
(गय- (स्त्री) गया) भूकृ 1/1 अनि (केक्कया) 1/1 अव्यय [(अत्थाण)-(मग्ग) 1/1] (णरिन्द) 1/1 (सुरिन्द) 1/1
अत्थाण-मग्गो
सभास्थान का पथ
णरिन्दो
राजा
सुरिन्दो
अव्यय
की तरह
पीढ़ वलग्गो
(पीढ) 2/1 (वलग्ग) 1/1 वि (दे)
आसन पर स्थित
7.
वरो
मग्गिओ
वर माँगा हुआ हे नाथ
णाह
(वर) 1/1 (मग्ग) भूकृ 1/1 (णाह) 8/1 (त) 1/1 सवि (एत) 1/1 सवि (काल) 1/1
वह
एस
यह
कालो
. समय
1.
कभी-कभी द्वितीया का प्रयोग सप्तमी के स्थान पर होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
134
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
महं
णन्दणो
ठाउ
2 4 2 4:0
8.
पिए
होउ
एवं
तओ
सावलेवो
समायारिओ
लक्खणो
रामवो
9.
जइ
तुहुँ
पालो
E
एत्तिउ
पेणु
किज्जइ
छत्तइँ
वइसणउ
वसुमइ
भरहहो
अप्पिज्जइ
135
( अम्ह ) 6 / 1 स
( णन्दण) 1 / 1
(ठा) विधि 3 / 1 अक
[ (रज्ज) + (अणुपालो)] [ ( रज्ज) - (अणुपाल ) 1 / 1 वि]
(पिआ ) 8 / 1
(हो) विधि 3 / 1 अक
अव्यय
अव्यय
(स+अवलेव) 1/1
(सं+आयार आयारिअ - समायारिअ )
भूकृ 1/1
( लक्खण) 1/1
(राम) 1 / 1, एवो - अव्यय
अव्यय
(तुम्ह) 1 / 1 स
(पुत्त) 1 / 1
( अम्ह ) 6 / 1 स
अव्यय
(एत्तिअ) 1 / 1 वि
(पेसण) 1/1
( किज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
(छत्त) 1 / 2
( वइसणअ) 1 / 1
(वसुमइ) 1/1
(भरत) 4 / 1
(अप्प्र ) व कर्म 3 / 1 सक
मेरा
पुत्र
राज्य का पालनकर्ता
प्रिय
होवे
इसी प्रकार
तब
गर्वसहित
बुलाए गए
लक्ष्मण
राम, और
यदि
तुम
मेरे
तो
इतनी
आज्ञा
पालन की जाए
(की जाती है)
छत्र
आसन
पृथ्वी
भरत के लिए
दी जाती है (दे दी जाए)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
चितव
हिउ
जावेहिँ
बलु
णिय - णिलउ
पराइउ
तावेहिँ
2.
दुम्मणु
एन्तु
णिहालिउ मायए
最
पुणु
विहसेवि
वुतु
पिय-वायए
3.
दिवे दिवे
चsहि
तुरङ्गम-णाएहिं
अज्जु
काइँ
अणुवाहणु
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
23.3
[(चिन्ता) + (आवरण) ]
[ (चिन्ता) - ( आवण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि ]
(URITE37) 1/1
अव्यय
(बल) 1 / 1
[(for) fa-(form31) 2/1]
(पराइअ ) भूक 1 / 1 अनि
अव्यय
(दुम्मण) 1 / 1 वि
(ए) वकृ 1/1
( णिहाल - णिहालिअ ) भूक 1 / 1
(माया) 3 / 1
अव्यय
(विहस ) संकृ
(वुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( पिय) वि - (वाया) 3 / 1]
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1
(चड) व 2 / 1 सक
[ ( तुरङ्गम) - ( णाअ ) ' 7 / 2]
अव्यय
अव्यय
(अण + (उवाहण) 2
= अव्यय
चिन्ता में डूबे हुए
नराधिप (राजा)
जब
बलदेव
निज भवन को
7
गये
तब
उदास मनवाला
आता हुआ
देखा गया
माता के द्वारा
फिर भी
हँसकर
णागणाअ • णाएहिं ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ
उवाणह उवाहण
कहा गया
प्रिय वाणी से
प्रतिदिन
चढ़ते हो ( थे)
घोड़े और हाथी पर
आज
क्यों, कैसे
बिना जूतों के
146)
136
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाएहिँ
(पाअ) 3/2
पैरों से
दिवे दिवे वन्दिण-विन्देहिँ थुव्वहि अज्जु काइँ
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1 [(वन्दिण)-(विन्द) 3/2] (थुव्वहि) व कर्म 2/1 सक अनि
अव्यय
प्रतिदिन स्तुति-गायकों के समूहों द्वारा स्तुति किये जाते (थे) आज कैसे स्तुति किये जाते हुए नहीं सुने जाते हो
थुव्वन्तु
अव्यय (थुव्वन्त) वकृ कर्म 1/1 अनि अव्यय (सुव्वहि) व कर्म 2/1 सक अनि
ण
सुव्वहिं
दिवे दिवे धुव्वहि चमर-सहासेहिँ अज्जु काइँ
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1 (धुव्वहि) व कर्म 2/1 सक अनि [(चमर)-(सहास) 3/2 वि] अव्यय
प्रतिदिन पंखा किये जाते (थे) हजारों चैवरों से
आज
अव्यय
तउ
(तुम्ह) 6/1 स (क) 1/1 स
क्यों तुम्हारे कोई भी
को वि
अव्यय
नहीं
पासेहिँ
(पास) 7/1
आस-पास में
6.
दिवे-दिवे लोयहिँ वुच्चहि
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1 (लोय) 3/2 (वुच्चहि) व कर्म 2/1 सक अनि (राणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय
प्रतिदिन लोगों के द्वारा बोले (कहे) जाते थे
राणउ -
राणा
आज
अज्जु काइँ दीसहि
अव्यय (दीसहि) व कर्म 2/1 सक अनि
क्यों दिखाई देते हो
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146
137
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद्दाणउ
(विद्दाणअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
निस्तेज (म्लान)
णिसुणेवि बलेण
उसको सुनकर . बलदेव के द्वारा कहा गया भरत के लिए (को). सम्पूर्ण
पजम्पिउ
(त) 2/1 स (णिसुण+एवि) संकृ (बल) 3/1 (पजम्प-पजम्पिअ) भूक 1/1 (भरह) 4/1 (सयल) 1/1 वि अव्यय (रज्ज) 1/1 (समप्प-समप्पिअ) भूकृ 1/1
भरहहो सयलु
वि
राज्य दे दिया गया है
समप्पिउ
जामि
जाता हूँ हे माँ
माए
दिढ
मन की अवस्था में
हियवए होज्जहि
रहना
(जा) व 1/1 सक (माआ) 8/1 (दिढ) 1/1 वि [(हिय)-(वअ) 7/1] (हो) विधि 2/1 अक (ज) 1/1 सवि (दुम्मिय) भूकृ 1/1 अनि (त) 2/1 स (सव्व) 2/1 सवि (खम) विधि 2/1 सक
दुम्मिय
कष्ट पहुँचाया गया
उस
सबको
सव्वु खमेज्जहि
क्षमा करना
अव्यय
जिस तरह से पूछी गयी
आउच्छिय
(आउच्छ-आउच्छिया) भूकृ 1/1 (माया) 1/1
माय
माता
हा-हा
अव्यय
शोकार्थक
(पुत्त) 8/1
हाय पुत्र
1.
वअ-पअ-पद = स्थान, अवस्था
अपभ्रंश काव्य सौरभ
138
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
भणन्ती
अपराइय
महएवी महियले पडिय
(भणभणन्त- (स्त्री) भणन्ती) वृक 1/1 कहती हुई (अपराइया) 1/1
अपराजिता (महएवी) 1/1
महादेवी (महियल) 7/1
धरती पर (पड) भूकृ 1/1
गिर पड़ी (रुय- रुयन्त- (स्त्री) रुयन्ती) वकृ 1/1 रोती हुई
रुयन्ती
139
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #151
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________________
पाठ - 2 पउमचरिउ
सन्धि - 24
गए वण-वासहो
रामे
उज्झ
नहीं
चित्तहो
भावई
(गअ) भूकृ 7/1 अनि
जाने पर [(वण)-(वास) 6/1]
वनवास को (राम) 7/1
राम के (उज्झ) 1/1
अयोध्या अव्यय (चित्त) 4/1
चित्त के लिए (को) (भाव) व 3/1 सक
अच्छी लगती है (थिया) भूकृ 1/1 अनि
स्थित (णीसास) 2/1
श्वास (मुअ-मुअन्त- (स्त्री) मुअन्ती) वकृ 1/1छोड़ती हुई (मही) 1/1
पृथ्वी (उण्हाला-अ) 7/1 'अ' स्वा. ग्रीष्मकाल में
जैसे
थिय
णीसास
मुअन्ति महि
उण्हालए
णाव
अव्यय
24.1
सयलु
(सयल) 1/1 वि अव्यय (जण) 1/1
समस्त भी
जणु
जन-(समूह)
1. 2.
कभी-कभी षष्ठी का प्रयोग द्वितीया के स्थान पर पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) रुच् (अच्छा लगना) अर्थ की धातुओं के साथ चतुर्थी का प्रयोग किया जाता है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
140
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
उम्माहिज्जन्तउ
(उम्माह+इज्ज+न्त+अ) वकृ कर्म 1/1 'अ' स्वा.
वियोग में व्याकुल किये जाते हुए क्षण
खण
(खण) 1/1
अव्यय
अव्यय
नहीं
थक्कइ
थकता है नाम (को)
णामु
(थक्क) व 3/1 अक (णाम) 2/1 (लय-लयन्त-लयन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा.
लयन्तउ
लेता हुआ
उव्वेल्लिज्जइ गिज्जइ लक्खणु
उछाला जाता है गाया जाता है
(उव्वेल्ल+इज्ज) व कर्म 3/1 सक (गा+इज्ज) व कम 3/1 सक (लक्खण) 1/1 [(मुरव)-(वज्ज) 7/1] (वाअ) व कर्म 3/1 सक (लक्खण) 1/1
मुरव वज्जे
लक्ष्मण मुदंगवाद्य में बजाया जाता है लक्ष्मण
वाइज्जइ
लक्खणु
3.
सुइ-सिद्धन्त-पुराणेहिँ
[(सुइ)-(सिद्धन्त)-(पुराण) 3/2]
लक्खणु ओङ्कारेण पढिज्जइ
(लक्खण) 1/1 (ओङ्कार) 3/1 (पढ) व कर्म 3/1 सक (लक्खण) 1/1
श्रुति, सिद्धान्त और पुराणों द्वारा लक्षण ओंकार से पढ़ा जाता है
लक्खणु
लक्षण
अन्य
अण्णु वि
.
पादपूरक जो-जो
जं जं किंपि स-लक्खणु लक्खण-णामें
(अण्ण) 1/1 वि अव्यय (ज) 1/1 सवि (क) 1/1 वि (स-लक्खण) 1/1 वि [(लक्खण)-(णाम) 3/1]
कुछ भी लक्षणसहित लक्ष्मण नाम से
141
अपभ्रंश काव्य सौरभ
.
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कहा जाता है
वुच्चइ लक्खणु
(वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (लक्खण) 1/1
लक्षण
5.
कावि
णारि सारङ्गि
कोई नारी हरिणी के
वुण्णी
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (सारङ्गी) 6/1 अव्यय (वुण्ण-वुण्णी) भूकृ 1/1 अनि (वड्ड-वड्डी) 2/1 वि (धाह-धाहा) 2/1 (मुअ+एवि) संकृ (परुण्ण-परुण्णी) भूकृ 1/1 अनि ।
वड्डी
समान दुःखी हुई बड़ी चिल्लाहट छोड़कर (निकालकर) रोई
धाह
मुएवि परुण्णी
6.
का वि
कोई
णारि
नारी
लेड
पसाहणु
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (ज) 2/1 स (ले) व 3/1 सक (पसाहण) 2/1 (त) 2/1 स (उल्हा+आव) व प्रे. 3/1 सक (जाण) व 3/1 सक (लक्खण) 2/1
जिस(को) लेती है (पहनती है) आभूषण को उसको शान्ति देता है समझती है
उल्हावइ
जाणइ
लक्खणु
लक्ष्मण
7.
कावि
णारि
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (ज) 2/1 सवि (परिह) व 3/1 सक (कङ्कण) 2/1 (धर) व 3/1 सक
कोई नारी जिस(को) पहनती है कंगन को धारण करती है
परिहइ
कङ्कणु धरइ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
142
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
सु-गाढउ
(सु-गाढअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक (जाण) व 3/1 सक (लक्खण) 2/1
खूब गाढ़ा समझती है
जाणइ
लक्खणु
लक्ष्मण
8.
कावि णारि
कोई नारी जिस(को) देखती है दर्पण को
जोयइ
दप्पणु
(का) 1/1 सवि (णारी) 1/1 (ज) 2/1 सवि (जोय) व 3/1 सक (दप्पण) 2/1 (अण्ण) 2/1 वि अव्यय (पेक्ख) व 3/1 सक (मेल्ल+एवि) संकृ (लक्खण) 2/1
अण्णु
अन्य को
ण
नहीं देखती है
पेक्खइ
मेल्लेवि
छोड़कर
लक्खणु
लक्ष्मण को
अव्यय
एत्थन्तरे पाणिय-हारिउ
अव्यय (पाणियहारी) 1/2 (पुर) 7/1 (वोल्ल) व 3/2 सक क्रिवि (णारी) 2/2
तब इसी बीच में पनिहारिने नगर में बोलती हैं (कहती हैं) आपस में नारियों को
वोल्लन्ति परोप्पर णारिउ
10.
वह पलंग
वह
(त) 1/1 सवि (पलक) 1/1 . (त) 1/1 सवि
अव्यय (उवहाणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (सेज्ज) 1/1 अव्यय
उवहाणउ
तकिया
सेज्ज
शय्या
143
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #155
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________________
4 A.A4
(त) 1/1 सवि अव्यय (त) 1/1 सवि अव्यय (पच्छाणअ) 1/1 वि
पच्छाणउ
ढकनेवाली (चादर)
2. -
घरु
रयणइँ
ताई
चित्तयम्
स-लक्खणु
लक्ष्मणसहित
त 1/1 सवि (घर) 1/1 (रयण) 1/2 (त) 1/2 सवि (त) 1/1 सवि (चित्तयम्म) 1/1 (स-लक्खण) 1/1 वि अव्यय अव्यय (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि (माअ) 8/1 अनि (राम) 1/1 [(स सीया-ससीय)(स लक्खण) 1/1]
णवर
केवल
नहीं
दीसइ
माए
रामु
देखा जाता है (देखे जाते हैं) हे माँ राम सीतासहित, लक्ष्मणसहित
ससीय-सलक्खणु
24.3
अव्यय
जब
णीसरिउ
निकला
राउ
(णीसर-णीसरिअ) भूकृ 1/1 (राअ) 1/1 (आणन्द) 3/1 (वृत्त) भूकृ 1/1 अनि (णव+एप्पिणु) संकृ
राजा हर्ष से
आणन्दें
कहा गया
णवेप्पिणु
प्रणाम करके
अपभ्रंश काव्य सौरभ
144
Page #156
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________________
भरह-णरिन्दें
[(भरह)-(णरिन्द) 3/1]
भरत राजा के द्वारा
se
(अम्ह) 1/1 स अव्यय (देव) 8/1 (तुम्ह) 3/1 स अव्यय (पव्वज्ज) व 1/1 सक [(दुग्गइ)-(गामिअ) 2/1 वि] (रज्ज) 2/1 अव्यय (भुञ्ज) व 1/1 सक
पव्वज्जमि
हे देव तुम्हारे साथ संन्यास लेता हूँ (लूँगा) दुर्गति देनेवाले राज्य को नहीं भोगता हूँ (भोगूंगा)
दुग्गइ-गामिउ
भुञ्जमि
राज्य
असारु
असार
वारु
द्वार
संसारहो
संसार का
(रज्ज) 1/1 (असार) 1/1 वि (वार) 1/1 (संसार) 6/1 (रज्ज) 1/1 क्रिविअ (णी) व 3/1 सक (तम्वार)' 6/1
रज्जु
राज्य
खणेण
क्षण भर में ले जाता है (पहुँचा देता है) विनाश को
तम्वारहो
राज्य
भयङ्करु इह-पर-लोयहो
(रज्ज) 1/1 (भयङ्कर) 1/1 वि [(इह) वि- (पर) वि- (लोय) 4/1]
दु:खजनक इस (लोक में) और परलोक में राज्य से जाया जाता है
रज्जें
(रज्ज) 3/1 (गम्मइ) व कर्म 3/1 सक अनि
गम्मइ
1.
कभी-कभी द्वितीया के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
145
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #157
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________________
णिच्च-णिगोयहो
[(णिच्च)-(णिगोय) 4/1]
नित्य-निगोद के लिए
राज्य के द्वारा
होवे
(रज्ज) 3/1 (हो) विधि 3/1 अक (हो) भूकृ 1/1 (महु) 6/1 (सरियअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (सुन्दर) 1/1 वि अव्यय
हुआ गया मधु के
सरियउ
समान रुचिकर
सुन्दरु तो
किं
।
अव्यय
तो क्यों तुम्हारे द्वारा
परिहरियउ
(तुम्ह) 3/1 स (परिहर-परिहरिय-परिहरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
छोड़ दिया गया
राज्य
नहीं करने योग्य
अकज्जु कहिउ मुणि-छेयहिं दुठ्ठ-कलत्तु
कहा गया निर्मल मुनियों द्वारा
(रज्ज) 1/1 (अकज्ज) 1/1 वि (कह-कहिअ) भूकृ 1/1 [(मुणि)-(छेय) 3/2 वि (दे)] [(दु8) वि-(कलत्त) 1/1] अव्यय (भुत्त) भूकृ 1/1 अनि (अणेय) 3/2
दुष्ट स्त्री जैसे
अनुभव किया गया अनेक के द्वारा
अणेयहि
दोसवन्तु मयलञ्छण-विम्बु
(दोसवन्त) 1/1 वि [(मलयञ्छण)-(विम्व) 1/1]
दोषवाला चन्द्रमा का बिम्ब जैसे बहुत दुःखों से पीड़ित
व
अव्यय
बहु-दुक्खाउरु
[(बहु)+(दुक्ख)+(आउरु)] [(बहु) वि-(दुक्ख)-(आउर) 1/1 वि] [(दुग्ग) वि (दे)-(कुडुम्व) 1/1] अव्यय
दुग्ग-कुडुम्बु
दरिद्र कुटुम्ब
जैसे
अपभ्रंश काव्य सौरभ
146
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
तो भी
ॐ MEE
जीव
(जीअ) 1/1 अव्यय (रज्ज) 4/1 (क ) व 3/1 सक
रज्जहो
कलइ अणुदिणु
अव्यय
पादपूरक राज्य की/के लिए . इच्छा करता है प्रतिदिन आयु को गलती हुई नहीं देखता है
आउ
गलन्तु
(आउ) 2/1 (गल-गलन्त) वकृ 2/1 अव्यय (लक्ख) व 3/1 सक
ण
लक्खइ
9.
महुविन्दुहे
जिस प्रकार जल की बूंद के . प्रयोजन से
करहु
ऊँट
ण
नहीं
पेक्खइ
देखता है कंकर को
कक्कर
अव्यय [(महु)-(विन्दु') 6/1] (कज्ज) 3/1 (करह) 1/1 अव्यय (पेक्ख) व 3/1 सक (कक्कर) 2/1 अव्यय (जिअ) 1/1 [(विसय)+(आसत्तु)] [(विसय)-(आसत्त) भूकृ 1/1 अनि] (रज्ज) 3/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि [(सय) वि-(सक्कर) 1/1]
तिह
उसी प्रकार जीव ने
जिउ
विसयासत्तु
विषय में आसक्त
राज्य से पाया (है) अत्यधिक आदर-सत्कार
सय-सक्करु
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3137)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #159
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________________
24.4
भरहु
भरत
चवन्तु
णिवारिउ
बोलता हुआ रोका गया राजा के द्वारा
राएं
अज्ज
(भरह) 1/1 (चव-चवन्त) वकृ 1/1 (णिवार-णिवारिअ) भूकृ 1/1 (राअ) 3/1 अव्यय अव्यय (तुम्ह) 4/1 स (काइँ) 1/1 सवि [(तव)-(वाअ) 3/1]
आज
वि
तुज्झु काइँ
तेरे लिए क्या तप की बात से
तव-वाए
2.
अज्ज
अव्यय
आज
वि
राज्य
करहि
अव्यय (रज्ज) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक (सुह) 2/1 (भुज्ज) विधि 2/1 सक अव्यय अव्यय [(विसय)-(सुक्ख) 2/1] (अणुहुञ्ज) विधि 2/1 सक
कर सुख को (का) अनुभव कर
भुजहि अज्ज
आज
वि
विसय-सुक्खु अणुहुञ्जहि
विषय सुख को भोग
3.
अज्ज
अव्यय
आज
अव्यय
तम्वोलु
(तुम्ह) 1/1 स (तम्वोल) 2/1 (समाण) विधि 2/1 सक अव्यय
पान को (का) उपभोग कर (खा)
समाणहि
अज्ज
आज
अपभ्रंश काव्य सौरभ
148
Page #160
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________________
वर-उज्जाणइँ
अव्यय [(वर) वि-(उज्जाण) 2/2] (माण) विधि 2/1 सक
श्रेष्ठ उद्यानों को
माणहि
मान
अव्यय
आज
अज्जु वि
अव्यय (अङ्ग) 2/1 [(स) वि-(इच्छा ) 3/1] (मण्ड) विधि 2/1 सक
शरीर को स्व-इच्छा से
स-इच्छए मण्डहि
सजा
अज्ज
अव्यय
आज
वि
ही
वर-विलयउ
अव्यय [(वर) वि-(विलया) 2/2] (अवरुण्ड) विधि 2/1 सक
श्रेष्ठ स्त्रियों को (का) आलिंगन कर
अवरुण्डहि
अज्ज
अव्यय
आज
भी
जोग्गउ सव्वाहरणहो
अव्यय (जोग्गउ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(सव्व)+(आहरणहो)] [(सव्व) वि-(आहरण) 6/1] अव्यय
योग्य सभी अलंकार के
अज्ज
आज
वि
अव्यय
कवणु
कौनसा
कालु
(कवण) 1/1 स (काल) 1/1 [(तव)-(चरण) 6/1]
समय
तप के आचरण का
तव-चरणहो 6. जिण-पव्वज्ज
जिन-प्रव्रज्या होती है
होइ
अइ-दुसहिय
[(जिण)-(पव्वज्जा) 1/1] (हो) व 3/1 अक [(अइ) वि-(दुसह-दुसहिया) भूकृ 1/1] (क) 3/1 स
बहुत असह्य किसके द्वारा
149
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #161
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________________
बावीस
परीसह विसहिय
(बावीस) 1/2 वि (परीसह) 1/2 (वि-सह-वि-सहिय) भूकृ 1/2
बाईस परीषह सहन किये गये
जिय
चउ-कसाय-रिउ
दुज्जय
(क) 3/1 स (जिय) भूक 1/2 अनि [(चउ) वि-(कसाय)-(रिउ) 1/2] (दुज्जय) 1/2 वि (क) 3/1 स (आयाम-आयामिय) भूकृ 1/2 (पञ्च) 1/2 वि (महव्वय) 1/2
किसके द्वारा जीते गये चारों कषायोंरूपी शत्रु । दुर्जेय किसके द्वारा ग्रहण किये गए पंच
आयामिय
पञ्च
महव्वय
महाव्रत
किसके द्वारा
किंठ पञ्चहुँ विसयहुँ णिग्गहु
किया गया पाँचों विषयों का
(क) 3/1 स (कि-किअ) भूकृ 1/1 (पञ्च) 6/2 वि (विसय) 6/2 (णिग्गह) 1/1 (क) 3/1 स (परिसेस-परिसेसिअ) भूक 1/1 अनि (सयल) 1/1 वि (परिग्गह) 1/1
निग्रह
किसके द्वारा
समाप्त किया गया
परिसेसिउ सयलु
सकल
परिगहु
परिग्रह
कौन
वृक्ष के समीप/नीचे
दुम-मूले वसिउ
बसा
वरिसालए
(क) 1/1 सवि [(दुम)-(मूल) 7/1] (वस-वसिअ) भूकृ 1/1 (वरिसालअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक (क) 1/1 स [(एक्क)+ (अंगें)] [(एक्क) वि-(अङ्ग) 3/1]
को
वर्षाकाल में कौन केवलमात्र शरीर से
एक्कंगे
अपभ्रंश काव्य सौरभ
150
Page #162
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________________
थिउ
रहा
(थिअ) भूकृ 1/1 अनि (सीयालअ) 7/1
सीयालए
शीतकाल में
10.
किसके द्वारा
उण्हालए
किर
ग्रीष्मकाल में किया गया शरीर का तपन
अत्तावणु
(क) 3/1 स (उण्हालअ) 7/1 (कि) भूकृ 1/1 [(अत्त)+(तावणु)] [(अत्त)-(तावण) 1/1] (एअ) 1/1 सवि [(तव)-(चरण) 1/1] (हो) व 3/1 अक (भीसावण) 1/1 वि
यह
तव-चरणु
होई
तप का आचरण होता है भीषण
भीसावणु
11. भरह
हे भरत
मत
वडिउ
बढ़कर
वोल्लि
(भरह) 8/1 अव्यय (वड्ड+इउ) संकृ (वोल्ल) विधि 2/1 सक (तुम्ह) 1/1 स (त) 1/1 सवि अव्यय
बोल
त
वह
अज्ज
आज
अव्यय
भी
वालु
बालक
भोग
भुजहि विसय-सुहाइँ को पव्वज्जहे .. कालु
(वाल) 1/1 (भुञ्ज) विधि 2/1 सक [(विसय)-(सुह) 2/2] (क) 1/1 सवि (पव्वज्जा) 6/1 (काल) 1/1
विषय सुखों को कौनसा
प्रव्रज्या का
काल
151
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
24.5
णिसुणेवि
सुनकर
भरहु
आरुट्ठउ मत्त-गइन्दु
(त) 2/1 स
उसको (णिसुण+एवि) संकृ (भरह) 1/1
भरत (आरुट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक क्रुद्ध (रुष्ट) हुआ [(मत्त) भूक अनि-(गइन्द) 1/1] मस्त हाथी अव्यय
जैसे (की तरह) (चित्त) 7/1
चित्त में (दुट्ठउ) भूकृ 1/1 अनि
दुःखी हुआ
चित्तें दुदृउ
विरुयउ
ताव
वचन
वयणु प.
वुत्तउ
(विरुयउ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक प्रतिकूल अव्यय
तब (वयण) 1/1 (तुम्ह) 3/1 स
आपके द्वारा (वुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक कहे गये अव्यय
क्या (वाल) 4/1
बालक के लिए [(तव)-(चरण)] 1/1
तप का आचरण अव्यय (जुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि
उचित, युक्त
किं
बालहो
तवचरणु
नहीं
जुत्तउ
अव्यय
क्या
बालपन
वालत्तणु सुहेहिं
(वालत्तण) 1/1 (सुह) 3/2 अव्यय (मुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि
अव्यय श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146
सुखों के द्वारा नहीं . ठगा जाता है
मुच्चइ
क्या
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
152
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
बालहो
बाल
दय-धम्म
(बाल) 4/1 [(दया-दय)-(धम्म) 1/1] अव्यय (रुच्च) व 3/1 अक
दया एवं धर्म नहीं रुचिकर होता है
रुच्चइ
अव्यय
क्या
किं बालहो
बालक के लिए
पव्वज्ज
प्रव्रज्या
नहीं
होओ
(वाल) 4/1 (पव्वज्जा ) 1/1 अव्यय (हो-होअ) भूकृ 1/1 अव्यय (वाल) 4/1 (दूस-दूसिअ) भूकृ 1/1 [(पर) वि-(लोअ) 1/1]
क्या
बालहों
बालक के लिए (का)
दृषित
दूसिउ पर-लाओ
पर-लोक
क्या
बालों
बालक के लिए
....
सम्मत्तु
सम्यक्त्व
नहीं
होओ
अव्यय (बाल) 4/1 (सम्मत्त) 1/1 अव्यय (हो) भूकृ 1/1 अव्यय (बाल) 4/1 अव्यय [(इ8) भूक अनि-(विओअ) 1/1]
हुआ
कि
क्या
बालहों
णउ
बालक के लिए नहीं इष्ट-वियोग
इट्ठ-विओओ
अव्यय
क्या
बालों
बालक के लिए
जर-मरणु
जरा-मरण
(वाल) 4/1 [(जरा)-(मरण) 1/1] अव्यय (दुक्क) व 3/1 अक
नहीं
ढुक्क
आता है
153
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #165
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________________
अव्यय
क्या
बालहों
बालक के लिए
जमु
दिवसु
(वाल) 4/1 (जम) 1/1 (दिवस) 2/1 अव्यय (चुक्क) व 3/1 सक
यमराज दिन (को) पादपूरक भूल जाता है
चुक्कइ
उसको
णिसुणेवि
सुनकर
भरहु
भरत
णिब्भच्छिउ
झिड़का गया
(त) 2/1 स (णिसुण+एवि) संकृ (भरह) 1/1 (णिन्भच्छ) भूकृ 1/1 अव्यय अव्यय (पहिलअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (पट्ट) 1/1 (पडिच्छ) भूकृ 1/1
तब क्यों
पहिलउ
पहले
राज-पट्ट स्वीकार किया गया
पडिच्छिउ
8.
एवहिँ
इस समय सम्पूर्ण
सयलु
वि
करेवउ
अव्यय (सयल) 1/1 वि अव्यय (रज्ज) 1/1 (कर+एवउ) विधिकृ 1/1 (पच्छल) 7/1 अव्यय [(तव)-(चरण) 1/1] (चर+एवउ) विधिकृ 1/1
किया जाना चाहिए पिछले भाग में
पच्छले
पुणु
फिर
तव-चरणु चरेवउ
तप का आचरण किया जाना चाहिए
१.
इस प्रकार
भणेप्पिणु
अव्यय (भण+एप्पिणु) संकृ (राअ) 1/1
कहकर
राजा
अपभ्रंश काव्य सौरभ
154
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________________
सच्यु समप्पेवि भज्जहे भरहहो बन्धेवि
(सच्च) 2/1 (समप्प+एवि) संकृ (भज्जा) 6/1 (भरह) 6/1 (बन्ध+एवि) संकृ (पट्ट) 2/1 (दसरह) 1/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (पव्वज्जा) 4/1
वचन को समर्पित करके (पूरा करके) पत्नी के भरत के (को) बाँधकर
पट्ट
दसरहु गउ पव्वज्जो
दशरथ चले गये प्रव्रज्या के लिए
155
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
9.
वरि
पहरिउ
वरि
किउ
तवचरणु
वरि
विसु
हालाहलु
वरि
मरणु
वरि
अच्छिउ
गम्पिणु'
गुहिल-वणे
णवि
विि
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
पाठ
पउमचरिउ
सन्धि
G
-
3
27
27.14
अव्यय
(पहर - पहरिअ) भूकृ 1 / 1
अव्यय
( कि - किअ) भूकू 1/1
[(तव) - (चरण) 1 / 1]
अव्यय
(farm) 1/1
( हालाहलु ) 1/1
अव्यय
( मरण) 1 / 1
अव्यय
(अच्छ· अच्छिअ) भूकृ 1 / 1 [गम+एप्पिणु= गमेप्पिणु - गम्पिणु ] संकृ
[(गुहिल) वि - ( वण) 7 / 1]
अव्यय
अव्यय
अधिक अच्छा
प्रहार किया गया
अधिक अच्छा
किया गया
तप का आचरण
अधिक अच्छा
विष
गम् में सम्बन्धक—कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'एप्पिणु' और 'एप्पि' को लगाने पर आदिस्वर 'एकार' का विकल्प से लोप होता है। यहाँ बनना चाहिए 'गमेप्पिणु' पर 'गम्पिणु' प्रयोग पाया जाता है। ( हेम प्राकृत व्याकरण, 4-442 )
हालाहल
अधिक अच्छा
मरना
अधिक अच्छा टिके हुए
जाकर
गहन वन में
नहीं
पल भर
156
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
किन्तु
णिवसिउ
ठहरे हुए
(णिवस-णिवसिअ) भूकृ 1/1 [(अवुह-अवहु) वि-(यण) 7/1]
अवुहयणे
मूर्खजन में
27.15
-- TEE
अव्यय
तब
तिण्णि
तीनों
चवन्ताइँ
(ति) 1/2 वि अव्यय अव्यय (चव-चवन्त) वकृ 1/2 (उम्माहअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (जण) 6/1 (जण-जणन्त) वकृ 1/2
उम्माहउ
इस प्रकार से कहते हुए अतिपीड़ा को जन (समूह) में उत्पन्न करते हुए
जणहो' जणन्ताइँ
2.
दिण-पच्छिम-पहरे
विणिग्गयाइँ-विणिग्गयाई
कुञ्जर
[(दिण)-(पच्छिम) वि-(पहर) 7/1] (विण्णिग्गय) भूक 1/2 अनि (कुञ्जर) 1/1 अव्यय [(विउल) वि-(वण) 6/1] (गय) भूकृ 1/2 अनि
दिन के अन्तिम-प्रहर में बाहर निकल गए हाथी की तरह घने वन को चले गए
इव
विउल-वणहो गयाइँ गयाई
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) मात्रा को हस्व करने के लिए यहाँ अनुस्वार के स्थान पर " ' लगाया गया है। (हेम प्राकृत व्याकरण 4-410) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
157
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.
वित्थिण्णु'
रण्णु
पइसन्ति
जाव
गोहु
महादुमु
दिडु
ताव
4.
गुरु- वेसु
कवि
सुन्दर-सराई
णं
विहय
पढावइ
अक्खराइँ
5.
वुक्कण-किसलय
कक्का
रवन्ति
वाउलि-विहङ्ग
कि-क्की
भणन्ति
6.
वण-कुक्कुड
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(वित्थिण्ण) भूकृ 2 / 1 अनि
(रण्ण) 2/1
( पइस पइसन्त ( स्त्री ) - पइसन्ति) वकृ 1 / 2
अव्यय
(णग्गोह) 1 / 1
[ (महा) - (दुम) 1 / 1 ]
(दिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
[(गुरु) - (वेस) 2 / 1]
(कर + एवि ) संकृ
[ ( सुन्दर) - (सर) 2/2]
अव्यय
(विहय) 2 / 2
( पढ + आव) व प्रे. 3 / 1 सक
(अक्खर ) 2/2
विशाल (फैले हुए)
वन को (में)
(कक्का) 2/2
(ख) व 3 / 2 सक
[(वाउलि = वाउलि) - (विहङ्ग) 1 / 2]
(fan-ft) 2/2
(भण) व 3 / 2 सक
ज्योंहि
बरगद
महावृक्ष
देखा गया
त्योंहि
प्रवेश करते हुए
शिक्षक के रूप को
धारण करके
[(वुक्कण= बुक्कण) - (किसलय) 2 2/2] कौए, नये कोमल पत्तों
(वाली टहनी) पर
क - क्का (ध्वनि) को
बोलते हैं (थे) वाउलि-पक्षी
किक्की (ध्वनि) को
कहते हैं (थे)
[ ( वण) - (कुक्कुड) 1/2]
'गमन' अर्थ में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
सुन्दर स्वरों को
मानो
पक्षियों को
पढ़ाता है
अक्षरों को
मुर्गे
158
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
कु-क्कू आयरन्ति
(कु-क्कू) 2/2 (आयर) व 3/2 सक (अण्ण) 1/1 वि
कु-क्कू (ध्वनि) को कहते हैं (थे) और
अण्णु
अव्यय
N
कलावि के-क्कइ चवन्ति
(कलावि) 1/2 (के-क्कई) 2/2 (चव) व 3/2 सक
के-क्कइ (ध्वनि) बोलते हैं (थे)
7.
पियमाहविय
को-क्कर
लवन्ति
[(पिय)-(माहविया) 1/2]] अव्यय (को-क्कउ) 2/2 (लव) व 3/2 सक (कं-का) 2/2 (वप्पीह=बप्पीह) 1/2 (समुल्लव) व 3/2 सक
कोयलें पादपूर्ति को-क्कउ (ध्वनि) को बोलती हैं क-का (ध्वनि) पपीहे बोलते हैं (थे)
कं-का
वप्पीह
समुल्लवन्ति
वह
तरुवरु
श्रेष्ठ वृक्ष
गुरु-गणहर-समाणु फल-पत्त-वन्तु अक्खर-णिहाणु
(त) 1/1 सवि [(तरु)-(वर) 1/1 वि] [(गुरु)-(गणहर)-(समाण) 1/1 वि] [(फल)-(पत्त)-(वन्त) 1/1 वि] [(अक्खर)-(णिहाण) 1/1]
गुरुगणधर के समान फल-पत्तों-वाला अक्षरों का भण्डार
पइसन्तेहिं असुर-विमद्दणेहि सिरु णामेकि. राम-जणद्दणेहि परिअञ्चेवि
(पइस-पइसन्त) व 3/2 [(असुर)-(विमद्दण) 3/2 वि] (सिर) 2/1 (णाम+एवि) संकृ [(राम)-(जणद्दण) 3/2] (परिअञ्च+एवि) संकृ (दुम) 1/1 [(दसरह)-(सुअ) 3/2]
प्रवेश करते हुए (के द्वारा) असुरों का नाश करनेवाले सिर को नमाकर राम-लक्ष्मण के द्वारा परिक्रमा करके
मु
वृक्ष
दसरह-सुएहिँ
दशरथ के पुत्र (द्वारा)
159
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
अहिणन्दिउ
अभिनन्दन किया गया
मुणि
(अहिणन्द•अहिणन्दिअ) भूकृ 1/1 (मुणि) 1/1 अव्यय (सइंभुअ) 3/2
व
की तरह अपनी भुजाओं से
सइंभुएहिँ
सन्धि
- 28
सीय
सीता
लक्ष्मण के साथ
स-लक्खणु दासरहि
(सीया) 1/1 (स-लक्खण) 1/1 वि (दासरहि) 1/1 [(तरु)-(वर) वि-(मूल) 7/1]
तरुवर-मूलें
श्रेष्ठ वृक्ष के नीचे के भाग
बैठे
परिट्ठिय जावेहिं
पसरइ
ज्योंही फैलता है (फैल गये) सुकवि के
सुकइहें।
कव्वु
(परिट्ठिय) भूक 1/1 अनि अव्यय (पसर) व 3/1 अक (सु-कइ) 6/1 (कव्व) 1/1 अव्यय [(मेह)-(जाल) 1/1] [(गयण)+(अङ्गणे)] [(गयण)-(अङ्गण) 7/1]
काव्य की भाँति
जिह
मेह-जालु
बादलों के सघन समूह
गयणगणे
आकाश के आँगन में त्योंही
तावेहिँ तावेहिं
अव्यय
28.1
पसरइ
फैलता है जलकणों का समूह
मेह-विन्दु
(पसर) व 3/1 अक [(मेह)-(विन्द) 1/1]
[(गयण)+(अङ्गणे)] श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 156
गयणङ्गणे
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
160
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आकाश के क्षेत्र में
पसरइ
फैलती है
जेम
[(गयण)-(अङ्गण) 7/1] (पसर) व 3/1 अक अव्यय (सेण्ण) 1/1 [(समर)+ (अङ्गणे)] [(समर)-(अङ्गण) 7/1]
जिस प्रकार सेना
सेण्णु
समरङ्गणे
युद्ध के क्षेत्र में
2.
पसरइ
फैलता है
जेम
जिस प्रकार
अन्धकार
तिमिरु अण्णाणहो
(पसर) व 3/1 अक अव्यय (तिमिर) 1/1 (अण्णाण) 6/1 (पसर) व 3/1 अक अव्यय (वुद्धि) 1/1 (बहु-जाण) 6/1 वि
पसरइ
अज्ञान का फैलती है जिस प्रकार
जेम वुद्धि बहु-जाणहो
बुद्धि
बहुत प्रकार का ज्ञान रखनेवाले की
3.
पसरइ
फैलता है
जेम
जिस प्रकार
पाउ
पाप
पाविठ्ठहों
(पसर) व 3/1 अक अव्यय (पाअ) 1/1 (पावि+इट्ठ'-पाविठ्ठ) 6/1 वि (पसर) व 3/1 अक अव्यय (धम्म) 1/1 (धम्म+इट्ठ-धम्मिट्ठ) 6/1वि
पसरइ
अत्यन्त पापी का फैलता है जिस प्रकार
धम्मु
धम्मिट्ठहो
अत्यन्त धार्मिक का
4.
.
पसरइ
(पसर) व 3/1 अक अव्यय
फैलता है जिस प्रकार
जेम
1.
इट्ठ = इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261
161
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोह मयवाहहो
पसरइ
जेम
कित्ति
जगणाहो
5.
पसरइ
जेम
चिन्त
धण-हीणहो
पसरइ
जेम
कित्ति
सु-कुलीणही
6.
पसरइ
जेम
सद्दु
सुर-तूरहो
पसरइ
जेम
रासि
हे
सूरहो
7.
पसरइ
जेम
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
( जोहा) 1/1
[ ( मय) - (वाह) 6 / 1 वि]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(fafa) 1/1
[ ( जग ) - ( णाह ) 6 / 1]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(चिन्ता) 1 / 1
[ ( धण) - (हीण ) 6 / 1 ]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(fanfa) 1/1
( सु-कुलीण) 6/1
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(सद्द) 1 / 1
[(सुर ) - (तूर) 6 / 1]
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
(रासि) 1/2
( णह) 7/1
(सूर) 6/1
( पसर) व 3 / 1 अक
अव्यय
ज्योत्स्ना (प्रकाश)
मृग को धारण करनेवाले का
फैलती है
जिस प्रकार
महिमा
जिनदेव की
फैलती है (उभरती है)
जिस प्रकार
चिन्ता
धन से रहित की
फैलता है
जिस प्रकार
यश
अत्यधिक शालीन का
फैलता है
जिस प्रकार
इट्ठ = इष्ट (तुलनात्मक विशेषण के लिए लगाया जाता है) अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 261
शब्द
देवों की तुरही (वाद्य) का
फैलती है ( हैं )
जिस प्रकार
किरणें
आकाश में
सूर्य की
फैलती है।
जिस प्रकार
162
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दावाग्नि
दवग्गि वणन्तरे
पसरइ
(दवग्गि) 1/1 [(वण)+ (अन्तरे)] [(वण)-(अन्तर) 7/1] (पसर) व 3/1 अक [(मेह)-(जाल) 1/1] अव्यय (अम्वर) 7/1
मेह-जालु
जंगल के अन्दर फैलता है (फैला है) बादलों का समूह उसी प्रकार आकाश में
तिह अम्वरें
तडि
तडयडइ
पडइ
धणु
गज्ज
(तडि) 1/1 (तडयड) व 3/1 अक (पड) व 3/1 अक (धण) 1/1 (गज्ज) व 3/1 अक (जाणई) 6/1 (राम) 6/1 (सरण) 2/1 (पवज्ज) व 3/1 सक
बिजली (ने) तड़तड़ करती है (किया) पड़ती है (पड़ी) बादल गरजता है (गरजा) जानकी (की) राम की शरण में (को) जाती है (गई)
जाणइ
रामों
सरणु'
पवज्ज
9.
अमर-महाधणु-गहिय-करु
[(अमर)-(महा) वि-(धणु)(गहिय) भूकृ- (कर) 1/1]
इन्द्रधनुष को, पकड़े हुए, हाथ मेघरूपी हाथी पर
मेह-गइन्दे चडेवि
चढ़कर
जस-लुद्धउ
यश का इच्छुक
[(मेह)-(गइन्द) 7/1] (चड+एवि) संकृ [(जस)-(लुद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] अव्यय [(गिम्भ)-(णराहिव) 6/1] [(पाउस)-(राअ) 1/1] अव्यय
ऊपर ग्रीष्मराजा के
उप्पर गिम्भ-णराहिवहो पाउस-राउ णाइँ=णाई
पावसराजा
मानो
'गमन' अर्थ में द्वितीया का प्रयोग होता है।
163
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
सण्णद्धउ
(सण्णद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा. आक्रमण के लिए तैयार
28.2
जब
पाउस-णरिन्दु गलगज्जिउ धूली-रउ णिम्भेण
अव्यय [(पाउस)-(णरिन्द) 1/1] [(गलगज्ज-गलगज्जिअ) भूकृ 1/1] [(धूली)-(रय-रअ') 1/1] (गिम्भ) 3/1 (विसज्ज) भूकृ 1/1
पावस-राजा गरजा । धूल-वेग ग्रीष्म द्वारा भेजा गया
विसज्जिउ
2.
गम्पिणु मेह-विन्दे आलग्गउ
[गम+एप्पिणु-गमेप्पिणु-गम्पिणु] संकृ जाकर [(मेह)-(विन्द) 7/1]
मेघ-समूह को (आलग्ग-आलग्गअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
चिपक गई [(तडि)-(करवाल)-(पहार) 3/2] बिजलीरूपी तलवार
के प्रहारों से (भग्गअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक छिन्न-भिन्न कर दी गई
तडि-करवाल-पहारेहिँ
भग्गउ
अव्यय
जब विवररम्मुहु (विवरम्मुह) 2/1 वि
विमुख (विपरीत मुख) को चलिउ (चल-चलिअ) भूकृ 1/1
चली विसालउ
(विसाल अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक भयंकर उट्ठिउ (उ8) भूक 1/1
उठी (हण) विधि 2/1 सक (भण-भणन्त) वकृ 1/1
कहती हुई रअ वेग 2. देखें पृष्ठ 31, 27.14.9, पाद टिप्पणी
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण, 3-137)
मारो
हणु भणन्तु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
164
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
उण्हालउ
उष्ण/ग्रीष्म ऋतु
(उण्ह+आल=उण्हाल-उण्हालअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
धग-धग-धग-धगन्तु
उद्धाइउ
(धग-धग-धग-धग) वकृ 1/1 (उद्धाइअ) भूकृ 1/1 अनि (हस हस हस हस) वकृ 1/1 (संपाइअ) भूकृ 1/1 अनि
खूब (धग-धग) जलती हुई ऊँची दौड़ी (उठी) उत्तेजित होती हुई प्रवृत्त हुई
हस-हस-हस-हसन्तु संपाइउ
जल जल जल जल जल
पचलन्तउ
जालावलि-फुलिङ्ग
(जल जल जल जल जल) व 3/1 अक तेजी से जलती है (जली) (प-चल-पचलन्त•पचलन्तअ) वृक 1/1 चलती हुई (कूच करती हुई) 'अ' स्वार्थिक [(जाला)+(आवलि)+(फुलिङ्ग)] लपट की, श्रृंखला से, [(जाला)-(आवलि)-(फुलिङ्ग) 2/2] चिंगारियों को (मेल्ल-मेल्लन्त-मेल्लन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
छोड़ते हुए
मेल्लन्तउ
6.
धूमावलि-धयदण्डुब्भेप्पिणु
[(धूम) + (आवलि)+ (धय)+(दण्ड)+ धमू की, श्रृंखला के, (उब्भेप्पिणु)] [(धूम)-(आवलि)-(धय)- ध्वजदण्डों को, ऊँचा करके (दण्ड)-(उन्भ+एप्पिणु) संकृ] [(वर) वि-(वाउल्लि)-(खग्ग) 2/1] श्रेष्ठ, तूफानरूपी, तलवार को (कड्ड+एप्पिणु) संकृ
खींचकर
वर-वाउल्लि-खग्गु कड्ढेप्पिणु
झड झड झड झडन्तु
झपट मारते हुए
पहरन्तउ
तरुवर-रिउ-भड-थड
(झड झड झड झड) वकृ 1/1 (पहर-पहरन्त-पहरन्तअ) वृक 1/1 'अ' स्वार्थिक [(तरु)-(वर) वि-(रिउ)-(भड)-(थड) 2/1] (भज्ज-भज्जन्त-भज्जन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
प्रहार करते हुए श्रेष्ठ वृक्षोंरूपी, शत्रु के, योद्धा, समूह को
भज्जन्तउं
नष्ट करते हुए
मेह-महागय-घड
[(मेह)-(महा) वि-(गय)-(घडा) 2/1] मेघरूपी, महा-हाथियों की,
टोली को
165
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
विहडन्तउ
खण्डित करते हुए
जब
उण्हालउ
(विहड-विहडन्त-विहडन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय (उण्हालअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (भिड-भिडन्त-भिडन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
ग्रीष्मऋतु
दिखाई दी
भिडन्तउ
भिड़ती हुई
धणु अप्फालिउ
पाउसेण
तडि-टंकार-फार
दरिसन्तें चोएवि जलहर-हत्थि-हड णीर-सरासणि
(धणु) 1/1
धनुष [(अप्फल) (प्रे)-अप्फाल(अप्फालिअ)] भूकृ 1/1
ताना गया (वृद्धि प्राप्त) (पाउस) 3/1
पावस के द्वारा [(तडि)-(टङ्कार)-(फार) 2/1] बिजली की,
टङ्कार और चमक (दरिस-दरिसन्त) वकृ 3/1
दिखाते हुए (चोअ+एवि) संकृ
प्रेरित करके [(जलहर)-(हत्थि)-(हड) 2/2 वि] बादलरूपी हाथी- घटा को [(णीर)-(सरासण (स्त्री)-सरासणी 1/2] जलरूपी तीर (मुक्क) भूक 1/2 अनि
छोड़े गये तुरन्त
मुक्क
तुरन्तें
अव्यय
28.3
जल-वाणासणि घायहिँ [(जल)-(वाणासण (स्त्री)-वाणासणी- जलरूपी, तीरों के, प्रहारों से...
वाणासणि')-(घाय) 3/2]. घाइड
(घाय=घाअ-घाइअ) भूकृ 1/1 चोट पहुँचाया हुआ गिम्भ-णराहिउ [(गिम्भ)-(णराहिअ) 1/1]
ग्रीष्मराजा (रण) 7/1 1. समास में रहे हुए स्वर परस्पर में अक्सर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो
जाया करते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
युद्ध में
अपभ्रंश काव्य सौरभ
166
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________________
विणिवाइड
(विणिवाइअ) भूकृ 1/1 अनि
गिरा दिया गया
2.
ददुर
मेंढ़क
*
रोने
वि
लग्ग
*
सज्जण
(ददुर) 1/2 (रड) 7/1 अव्यय (लग्ग) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (सज्जण) 1/2 अव्यय (णच्च) व 3/2 अक (मोर) 1/2 (खल) 1/2 वि (दुज्जण) 1/2 वि
इसलिये लगे की तरह सज्जनों की तरह नाचते हैं (नाचे) मोर शरारती
णच्चन्ति
*
मोर
खल
दुज्जण
दुष्टों
मानो
* *
सरिउ अक्कन्हें
भरती हैं (भरा) नदियों में रोने के कारण
अव्यय (पूर) व 3/2 सक (सरि) 1/2 (अक्कन्द) 3/1 अव्यय (कइ) 1/2 (किलिकिल) व 3/2 अक (आणन्द) 3/1
मानो
कइ
किलिकिलन्ति
कवि प्रसन्न होते हैं (हुए) आनन्द से
आणन्हें
मानो कोयलें
अव्यय (परहुय) 1/2 (विमुक्क) भूकृ 1/2 अनि (उग्घोस) 3/1
विमुक्क - उग्घोसें।
स्वतन्त्र की गई ऊँची आवाज में
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
167
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
मानो
मोर
वरहिण लवन्ति
(वरहिण) 1/2 (लव) व 3/2 सक (परिओस) 3/1
बोलते हैं (बोले) सन्तोष से
परिओसें
मानो
सरवर वहु-अंसु-जलोल्लिय
अव्यय [(सर)-(वर) 1/2 वि] [(वहु) वि-(अंसु)-(जल)-(उल्लिय) 1/2 वि] अव्यय [(गिरि)-(वर) 1/2 वि] (हरिस) 3/1 (गञ्जोल्लिय) 1/2 वि
बड़े तालाब विपुल, आँसूरूपी, जल से, भरे हुए मानो बड़े पर्वत हर्ष से पुलकित
गिरिवर
हरिसें
गजोल्लिय
का
4.
वाक्यालंकार के लिए
उण्ह
तप्त
वि
मानो
दवग्गि
विओएं
अव्यय (उण्ह) 6/1 वि अव्यय (दवग्गि) 6/1 (विओअ) 3/1 अव्यय (णच्च) भूकृ 1/1 (महि) 1/1 [(विविह) वि-(विणोअ) 3/1]
दावाग्नि के वियोग से वाक्यालंकार
णच्चिय
नाची
महि
धरती विविध विनोद के कारण
विविह-विणोएं
मानो
अत्थमिउ
अस्त हुआ
दिवायरु
सर्य
अव्यय (अत्थमिअ) 1/1 वि (दिवायर) 1/1 (दुक्ख) 3/1 अव्यय (पइसर) व 3/1 अक
दुक्खें
दु:ख के कारण
मानो
पइसरइ
व्याप्त होती है (हो गई)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
168
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________________
रात
रयणि सइँसई
(रयणि) 1/1 अव्यय (सुक्ख) 3/1
स्वयं सुख के कारण
सुक्खें
रत्त-पत्त
सुहावने हुए, पत्ते वृक्ष के
तरु पवणाकम्पिय
पवन से हिले डुले किसके द्वारा
केण
[(रत्त) भूकृ अनि-(पत्त) 1/2] (तरु) 6/1 [(पवण)+(आकम्पिय)] [(पवण)(आकम्पिय) भूकृ 1/1] (क) 3/1 स अव्यय (वह-वहिअ) भूकृ 1/1 (गिम्भ) 1/1 अव्यय (जम्प जम्पिय) भूक 1/1
पादपूरक नष्ट किया गया (मारा गया)
वहिउ गिम्भु
ग्रीष्म
मानो
जम्पिय
बोला गया
तेहए
उस जैसे
काले
समय में
भयाउरए
भयातुर
वेण्णि
दोनों
वासुएव-वलएव तरुवर-मूले स-सीय
(तेहअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (काल) 7/1 [(भय)+ (आउरए)] [(भय)-(आउरअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक (वे) 1/2 वि
अव्यय (वासुएव)-(वलएव) 1/2 [(तरु)-(वर) वि-(मूल) 7/1] [(स) वि-(सीया) 1/1] (थिय) भूकृ 1/2 (जोग) 2/1 [(लअ)+(एविणु) संकृ] [(मुणि)-(वर) 1/1 वि] अव्यय
राम और लक्ष्मण वृक्ष के नीचे के भाग में सीता-सहित बैठ गये योग ग्रहण करके महामुनि की भाँति
जोगु
लएविणु मुणिवर
जेम
169
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
रुअइ
विहीणु
सोयक्कमियउ
तुहुँ
णत्थमिउ
वसु अत्थमियउ
2.
तुहुँ
ण
जिओ सि
सयलु
जिउ
तिहुअणु
तुहुँ
ण
܂ܤ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
पाठ
पउमचरिउ
सन्धि
-
-
4
76.3
(तुम्ह) 1/1 स
अव्यय
76
(रुअ ) व 3 / 1 अक
( विहीण ) 1/1
[ ( सोय) - (क्कमक्कमिय+क्कमियअ)
भूक 1/1 'अ' स्वार्थिक]
(तुम्ह) 1 / 1 स
[(ण) + (अत्थमिउ ) ] ण = अव्यय ( अत्थम- अत्थमिअ) भूक 1 / 1
(वंस) 1/1
(अत्थम) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
[(जिओ)+(असि)]
जिओ (जिअ ) भूक 1 / 1 अनि
असि (अस) व 2 / 1 अक
(सयल) 1 / 1 वि
(जिअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
(fag 3101) 1/1
(तुम्ह) 1 / 1 स
अव्यय
रोता है (रोया) विभीषण
शोक से युक्त
तुम
नहीं,
समाप्त हुए
वंश
समाप्त हो गया
तुम
नहीं
जीते गए,
हो
सकल
जीत लिया गया
त्रिभुवन
तुम
नहीं
170
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुओऽसि
[(मुओ)+(असि)] मुओ (मुअ) भूकृ 1/1 अनि
असि (अस) व 2/1 अक (मुअ-मुअअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा. मर गया [(वन्द) भूकृ - (जण) 1/1] सम्मानित जन-समुदाय
मुअउ वन्दिय-जणु
पडिओऽसि
पडे
(तुम्ह) 1/1 स [(पडिओ)+(असि)] पडिओ (पड-पडिअ) भूकृ 1/1 असि (अस) व 2/1 अक अव्यय (पड-पडिअ) भूकृ 1/1 (पुरन्दर) 1/1 (मउड) 1/1
नहीं
पडिउ
पड़ा
पुरन्दरु
मउडु
मुकुट नहीं
अव्यय
• भग्गु
भग्गु गिरि-मन्दरु
(भग्ग) भूक 1/1 अनि (भग्ग) भूकृ 1/1 अनि [(गिरि)-(मन्दर) 1/1]
टुकड़े-टुकड़े किया गया टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया सुमेरु पर्वत
दिहि
विचार-पद्धति
नहीं
णट्ठ
समाप्त हुई समाप्त हो गई
लङ्काउरि
लंकापुरी
(दिट्ठि) 1/1 अव्यय (णट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (ण8) भूकृ 1/1 अनि (लङ्काउरी) 1/1 (वाया) 1/1
अव्यय (ण) भूक 1/1 अनि (णट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (मन्दोयरी) 1/1
वाय
वाणी
नहीं
ट्ठ
णट्ठ
नष्ट हुई नष्ट हो गई मन्दोदरी
मन्दोयरि
171
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
5.
हारु
খ এ
ण
तुटु
སྠཽ སྠཽ ༢ ༈༙ ལཿ
तारायणु
गयणङ्गणु
6.
चक्कु
ण
दुक्कु
ढुक्कु
एक्कन्तरु
आउ
ण
खुट्टु
खुट्टु
रयणायरु
7.
जीउ
ण
गउ
गउ
आसा-पोट्टलु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(हार) 1/1
अव्यय
( तुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
(तुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
[(तारा) - ( अण - यण) 1 / 1 ] (हियअ) 1 / 1
अव्यय
(भिण्ण) भूक 1 / 1 अनि
( भिण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( गयण) + (अङ्गणु) ] [ ( गयण) - ( अङ्गण) 1 / 1]
(चक्क) 1/1
अव्यय
(ढुक्क) भूकृ 1 / 1 अनि
(ढुक्क ) भूक 1 / 1 अनि
(जीअ ) 1/1
अव्यय
(गअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
(गअ) भूकृ 1 / 1
अनि
[(आसा) - (पोट्टल ) 1 / 1]
हार
नहीं
टूटा
टूट गए
तारागण
हृदय
नहीं
भंग किया गया
भंग कर दिया गया
आकाश प्रदेश
[ ( एक्क) + (अन्तरु) ] एक्क (एक्क) 1/1 एक,
अन्तरु (अन्तर) 1/1
(आउ) 1/1
अव्यय
(खुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
(खुट्ट) भूकृ 1 / 1 अनि
( रयणायर) 1/1
चक्र
नहीं
आया (पहुँचा )
आ पहुँची
परिवर्तित दशा
आयु
नहीं
क्षीण हुई
क्षीण हो गया
सागर
जीवन
नहीं
विदा हुआ
विदा हो गई
आशाओं की पोटली
172
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुम
नहीं
(तुम्ह) 1/1 स अव्यय (सुत्त) भूकृ 1/1 अनि (सुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक [(महि)-(मण्डल) 1/1]
सोये
सुत्तउ
सो गया पृथ्वीमण्डल
महि-मण्डलु
सीय
सीता
नहीं
आणिय
लायी गई
आणिय
जमउरि हरि-वल
(सीया) 1/1 अव्यय (आण-आणिय (स्त्री)-आणिया) भूकृ 1/1 (आण-आणिय (स्त्री)-आणिया) भूकृ 1/1 (जमउरी) 1/1 [(हरि)-(वल) 1/1] (कुद्ध) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (कुद्ध) भूकृ 1/1 अनि (केसरि) 1/1
लाई गई यमपुरी राम की सेना कुपित हुई
कुद्ध ण
नहीं
कुद्धा केसरि
कुपित हुआ सिंह
सुरवर-सण्ढ-वराइणा
[(सुरवर)-(सण्ढ)-(वराई) 3/1 वि]
बेचारे देवताओं के समूह द्वारा सभी काल में जो
सयल-काल
मिग
हरिण
सम्भूया
[(सयल)-(काल) 7/1] (ज) 1/2 सवि (मिग) 1/2 (सम्भूय) भूकृ 1/2 अनि (रावण) 8/1 (तुम्ह) 3/1 स (सीह) 3/1
रहे
रावण
पइँ
हे रावण तेरे सिंह के
सीहेण
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति में भी शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है। श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147
173
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिना
अव्यय (त) 1/2 सवि अव्यय
आज
अज्जु सच्छन्दीहूया
अव्यय [(सच्छन्द (स्त्री)-सच्छन्दी)- (हूय) भूकृ 1/2 अनि
स्वच्छन्दी, हुए
76.7
देखा गया
पुणो वि णाहु पिय-णारिहिं
(दि8) भूकृ 1/1 अनि अव्यय (णाह) 1/1 [(पिय)-(णारी) 3/2] (सुत्त) भूकृ 1/1 अनि [(मत्त) वि - (हत्थि) 1/1]] अव्यय (गणियारि) 3/2
सुत्तु मत्त-हत्थि
पति प्रिय पत्नियों द्वारा सोया हुआ मतवाला हाथी जैसे हथिनियों के द्वारा
व
गणियारिहिं
वाहिणिहिँ
सुक्कउ
रयणायरु कमलिणिहिँ
(वाहिणी) 3/2
नदियों द्वारा अव्यय
जैसे (सुक्कअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक सूखा हुआ (रयणायर) 1/1
समुद्र (कमलिणी) 3/2
कमलिनियों के द्वारा अव्यय
जैसे [(अत्थवण)'-(दिवायर) 1/1] डूबने से (समाप्त हुआ) सूर्य
अत्थवण-दिवायरु
कुमुइणिहिँ
(कुमुइणी) 3/2
कुमुदनियों द्वारा
अस्तमन-अत्थवण = डूबना
अपभ्रंश काव्य सौरभ
174
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्व
जरढ-मयलञ्छणु विज्जुहि
व्व
छुडु - छुड
वरिसिय घणु
4.
अमर-हू
व
चवण- पुरन्दरु गिम्भ - दिसाहिँ
व
अञ्जन-महिहरु
5.
भमराव लिहि
म्व
सूडिय-तरुवरु
कलहंसीहि
म्व
अजलु
महासरु
6.
कलयण्ठीहि
म्व
माहव- णिग्गमु
णाइणिहिँ
व
हय-गरुड - भुयङ्गमु
175
अव्यय
[ ( जरढ) वि- (मयलञ्छण) 1 / 1 ]
(fay) 3/2
अव्यय
अव्यय
[ ( वरिस - वरिसिय) भूक - ( घण) 1 / 1 ]
[ ( अमर ) - (वहू) 3 / 2]
अव्यय
[(चवण) - ( पुरन्दर) 1 / 1 वि]
[ (गिम्भ ) - (दिसा ) 3 / 2]
अव्यय
[ ( अञ्जण) - (महिहर) 1 / 1]
[ (भमर) + (आवलिहि) ]
[ (भमर) + (आवलि) 3/2]
अव्यय
[ ( सूड - सूडिय) भूकृ (तरुवर) 1 / 1 ]
[ ( कलहंस
(स्त्री) कलहंसी) 3/2]
अव्यय
-
( अजल) 1 / 1 वि
[(महा) वि (सर) 1 / 1 ]
( कलयण्ठी) 3/2
अव्यय
[ ( माहव ) - (णिग्गम) 1 / 1 ]
(णाइणी) 3/2
अव्यय
[(हय) भूक अनि - (गरुड) - (भुयङ्गम) 1 / 1 ]
जैसे
क्षीण चन्द्रमा
बिजलियों द्वारा
जैसे
पुनः पुनः
बरसा हुआ बादल
देवताओं की स्त्रियों द्वारा
जैसे
मरण को प्राप्त इन्द्र
ग्रीष्म
जैसे
वृक्षों
दिशाओं द्वारा
युक्त पर्वत
भँवरों की पंक्तियों द्वारा
जैसे
नाश को प्राप्त, राजहंसनियों द्वारा
जैसे
जलरहित
बड़ा तालाब
कोकिलों द्वारा
जैसे
श्रेष्ठ वृक्ष
वसन्त ऋतु का जाना नागिनियों द्वारा
जैसे
गरुड से मारा हुआ सर्प
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
वहुल-पओसु
कृष्णपक्ष, दोषों से युक्त
जैसे
तारा-पन्तिहिँ
तेम
[(वहुल)-(पओस) 1/1 वि] अव्यय [(तारा)-(पन्ति) 3/2] अव्यय [(दस)+(आस) + (पासु) 1/1] [(दस) वि-(आस)-(पास) 1/1] (ढुक्क-ढुक्कंत-दुक्कंती) वकृ 3/2
तारों की पंक्तियों द्वारा उसी प्रकार दसमुखवाले के पास
दसास-पासु
ढुक्कन्तिहिँ
जाती हुई (रानियों) के द्वारा
8.
दस-सिरु दस-सेहरु दस-मउडउ
दससिर दसशिखा
[(दस) वि-(सिर) 1/1] [(दस) वि-(सेहर) 1/1] [(दस) वि-(मउड-अ) _1/1 'अ' स्वार्थिक] (गिरि) 1/1 अव्यय (स-कन्दर) 1/1 वि (स-तरु) 1/1 वि (स-कूडअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
दसमुकुट पर्वत
गिरि
मानो
स-कन्दरु
स-तरु
गुफा-सहित वृक्ष-सहित शिखर-सहित
स-कूडउ
9.
णिएवि
देखकर
अवस्था को
अवत्थ दसाणणहो
हा हा सामि
रावण की हाय-हाय स्वामी
भणन्तु स-वेयणु अन्तेउरु मुच्छा-विहलु णिवडिउ महिहिँ
(णिअ+एवि) संकृ (अवत्था) 2/1 (दसाणण) 6/1 अव्यय (सामि) 1/1 (भण-भणन्त) वकृ 1/1 (स-वेयण) 1/1 वि (अन्तेउर) 1/1 [(मुच्छा )-(विहल) 1/1] (णिवड-णिवडिअ) भूकृ 1/1 (महि) 7/1
कहते हुए पीड़ा सहित
अन्तःपुर मूर्छा से व्याकुल
गिरा
पृथ्वी पर
अपभ्रंश काव्य सौरभ
176
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
झत्ति णिच्चेयणु
भाइ-विओएं
जिह - जिह
करइ
विहीसणु
सोउ
तिह - तिह
दुखण
रुवइ
स- हरि-वल-वार- लोउ
1.
दुम्मणु
दुम्मण-वयणउ
अंसु - जलोल्लिय - णयणउ
कद्धय सत्थ
जहिँ
रावणु
177
अव्यय
( णिच्चेयण) 1 / 1 वि
सन्धि - 77
[ (भाइ) - (विओअ ) 3 / 1]
अव्यय
(कर) व 3 / 1 सक
(विहीसण) 1 / 1
(सोअ) 2/1
अव्यय
( दुक्ख ) 3/1
(रुव) व 3 / 1 अक
[ ( स ) - (हरि) - ( वल) - ( वाणर) - (लोअ) 1 / 1 ]
77.1
(दुम्मण) 1 / 1 वि [[ ( दुम्मण) वि - ( वयणअ) 1 / 1 'अ' स्वार्थिक] वि]
[(अंसु) + (जल) + (उल्लिय) + (णयणउ )] [[(अंसु)-(जल)-(उल्ल - उल्लिय) भूक- (णयणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक] वि]
(ढुक्क) 1 / 1 वि (दे)
[ ( कइद्धय ) - ( सत्थअ) 1 / 1 'अ' स्वार्थिक]
अव्यय
(रावण) 1 / 1
शीघ्र
चेतना - रहित
भाई के वियोग से
जैसे-जैसे
करता
विभीषण
शोक
वैसे-वैसे
दुःख के कारण
रोते
राम, लक्ष्मण सहित वानर जाति के लोग
दु:खी मन
उदास मुखवाला
आँसु के जल से गीली हुई आँखोंवाला
पहुँचा
कपि (चिह्नयुक्त) ध्वज (लिए हुए) जन-समूह
जहाँ
रावण
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
पल्हत्थउ
(पल्हत्थअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
मार गिराया गया
2.
तेण
समाणु
विणिग्गय-णामेहिँ
(त) 3/1 स अव्यय [[(विणिग्गय) भूकृ अनि-(णाम) 3/2] वि] (दि8) भूकृ 1/1 अनि (दसाणण) 1/1 [(लक्खण)-(राम) 3/2]
उसके साथ फैले हुए नामवाले (विख्यात) देखा गया
दिछु
रावण
दसाणणु लक्खण-रामेहि
राम और लक्ष्मण द्वारा
3.
देखे गए
दिट्टई स-मउड-सिरई पलोट्टई णाई स-केसराई कन्दोट्टई
(दिट्ठ) भूकृ 1/12 अनि [(स-मउड) वि-(सिर) 1/2] (पलोट्ट) भूकृ 1/2 अनि अव्यय (स-केसर) 1/2 वि (कन्दोट्ट) 1/2
मुकुटसहित सिर जमीन पर गिरे हुए मानो पराग-सहित .
कमल
दिई भालयलई पायडियइँ अद्धयन्द-विम्बाई
(दि8) भूकृ 1/2 अनि (भालयल) 1/2 (पायड-पायडिय) भूक 1/2 [(अद्धयन्द)-(विम्व) 1/2] अव्यय (पड-पडिय) भूकृ 1/2
देखे गए भाल, ललाट खुले हुए अर्द्धचन्द्र के प्रतिबिम्ब मानो पड़े हुए
पडियई
दिई मणि-कुण्डलहैं
(दिट्ट) भूकृ 1/2 अनि [(मणि)-(कुण्डल) 1/2]
देखे गए मणियों से (बने हुए) कुण्डल
1. 2.
साथ (समाणु) के योग में तृतीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। कभी-कभी समास के अन्त में 'यल' लगाने से अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
178
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
स-तेय
(स-तेय) 1/2 वि
कान्ति-युक्त अव्यय
मानो [(खय) भूकृ - (रवि)-(मण्डल) 1/2] गिरे हुए, रवि-चक्र (अणेय) 1/2 वि
अनेक
खय-रवि-मण्डलई
अणेय.
6.
दिट्ठ
देखी गई
भौंहें
भउहउ भिउडि-करालउ
(दिट्ठ- (स्त्री) दिट्ठा) भूकृ 1/2 अनि (भउहा) 1/2 [(भिउडि)-(करालअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक अव्यय [(पलय)+(अग्गि)+(सिहउ)] [(पलय)-(अग्गि)-(सिहा) 1/2] [(धूम) + (आलउ)] [[(धूम)-(आलअ) 1/1] वि]
पलयरिंग-सिहउ
भौंह के विकार से भयंकर मानो प्रलय की आग की ज्वालाएँ धुएँ के आश्रयवाली
धूमालउ
7.
दिट्ठ'
देखे गए लम्बे और चौड़े
दीह-विसालइँ
णेत्त
नेत्र
मिहुणा
(दि8) भूकृ 1/2 अनि [(दीह) वि-(विसाल) 1/2 वि] (णेत्त) 1/2 (मिहुण) 1/2 अव्यय [(आमरण)+(आसत्तइँ)] [(आमरण)-(आसत्त) भूकृ 1/2 अनि]
स्त्री-पुरुष के जोड़े मानो
इव आमरणासत्तइँ
मृत्यु तक आसक्त
मुख-विवर
मुह-कुहरइँ दट्ठोट्ठ
दिट्ठइँ . जमकरणाइँ
[(मुह)-(कुहर) 1/2] [(दह)+(ओट्ठइँ)] [(दठ्ठ) भूकृ अनि-(ओट्ठ) 1/2] (दि8) भूकृ 1/2 अनि [(जम)-(करण) 1/2] अव्यय (जम) 6/1 (अणि8) भूक 1/2 अनि
दाँतों से काटे गए होठ देखे गये मृत्यु के साधन
व
मानो
जमहो
यम के
अणि?'
अप्रीतिकर
179
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #191
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________________
9.
दिट्ठ
महब्भुव
भड - सन्दोहें
णं
पारोह
मुक्क
10.
दिट्ठ
गोहें
उरत्थलु
फाडिउ
चक्कें
दिण-मज्झ
अ
मज्झत्थें
अक्कें
11.
अवणियलु
व
विञ्झेण
विहञ्जिउ
S.
विहि
भाएहिँ
तिमिरु
व
पुञ्जिउ
1.
मह+भुव = महब्भुव
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(दिट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि (महब्भुव ) 1 / 2
[ ( भड) - (सन्दोह ) 3 / 1]
अव्यय
(पारोह) 1/2
(मुक्क) भूक 1/2 अनि
(णग्गोह ) 3 / 1
(दिट्ठ) भूकृ 1 / 2 अनि
( उरत्थल) 1 / 1
(फाड) भूकृ 1 / 1
( चक्क ) 3 / 1
[(दिण) - (मज्झ) 1 / 1 ]
अव्यय (दे)
(मज्झत्थ) 3 / 1 वि
(3190) 3/1
[ ( अवणि) - (यल) 1 / 1]
अव्यय
(fast) 3/1
(विहञ्ज) भूक 1 / 1
अव्यय
(वि) 3 / 2 वि
(1737) 3/2
( तिमिर) 1 / 1
अव्यय
(पुञ्ज) भूकृ 1 / 1
देखी गई
महाभुजाएँ
योद्धाओं के समूह द्वारा
मानो
शाखाएँ
निकाली हुई
बड़ के पेड़ के द्वारा
देखी गई
छाती
फाड़ी हुई
चक्र के द्वारा
दिन का बीच
मानो
मध्य में स्थित
सूर्य के द्वारा
पृथ्वीतल
मानो
विंध्य के द्वारा
विभक्त कर दिया गया
मानो
विविध
भागों द्वारा
अँधकार
मानो
इकट्ठा किया गया
180
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
12. पेक्खेवि
देखकर राम के द्वारा
रामेण
समरङ्गणे
रामणहो
(पेक्ख+एवि) संकृ (राम) 3/1 [(समर)+(अङ्गणे)] [(समर)-(अङ्गण) 7/1] (रामण) 6/1 (मुह) 2/2 (आलिङ्ग+एप्पिणु) संकृ (धीर-धीरिअ) भूकृ 1/1 (रुव) व 2/1 अक (विहीसण) 8/1
मुहाइँ आलिंगेप्पिणु धीरिउ
युद्धस्थल में रावण के मुखों को छाती से लगाकर धीरज बँधाया गया रोते हो हे विभीषण
रुवहि
विहीसण
काइँ
अव्यय
क्यों
77.2
:
भ
मय-मत्तउ
जीव-दया-परिचत्तउ
(त) 1/1 सवि
वह (मुअ) भूक 1/1 अनि
मरा हुआ (ज) 1/1 सवि [(मय)-(मत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
अहंकार के नशे में चूर [[(जीव)-(दया)-(परिचत्तअ) भूकृ 1/1 जीव-दया छोड़ दी गई अनि] वि]
(जिसके द्वारा) [(वय)-(चारित)-(विहूणअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
व्रत और चारित्र से हीन [(दाण)-(रणङ्गण) 7/1]
दान और युद्धस्थल में (दीणअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
वय-चारित्त-विहूणउ
दाण-रणङ्गणे दीणउ
भीरु
2.
सरणाइय-वन्दिग्गहे
[(सरण)+(आइय)+(वन्दिग्गहे)] [(सरण)-(आइय) भूक अनि(वन्दिग्गह) 7/1]
शरण में आए हुए के लिए, (दोषियों को) कैदीरूप में पकड़ने में
181
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोग्गहे
सामिहे
अवसरे
मित्त परिग्गहे
3.
णिय परिहवे
पर- विहुरे
ण
जुज्जइ
तेहउ
पुरिसु
विहीसण
रुज्जइ
4.
अण्णु
इ
दुक्किय-व -कम्म जणेरउ
गरुअउ
पाव- भारु
जसु
केरउ
5.
सव्वंसह
वि
सहेवि
do
ण
सक्कइ
अहो
अण्णाउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[(गो)- (ग्गह) 7/1] (सामि ) 6 / 1
( अवसर) 7/1
[ ( मित्त) - (परिग्गह) 7 / 1]
[ (णिय) वि - (परिहव ) 7 / 1]
[ ( पर) वि - (विहुर) 7 / 1]
अव्यय
(जुज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
(तेहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( पुरिस) 1 / 1
( विहीण ) 8 / 1
(रुज्जइ) व भाव 3 / 1 अक अनि
[ (पाव) - (भार) 1 / 1]
(ज) 6 / 1 स
(केरअ) 1 / 1
( सव्वंसहा ) 1 / 1
अव्यय
(सह + एवि) हे
अव्यय
( सक्क) व 3 / 1 अक
अव्यय
( अण्णाअ ) 2 / 1
गाय के संरक्षण में
स्वामी के
समय में
मित्र की सहायता में
निज का अपमान होने पर
दूसरे के दु:ख में
नहीं
(अण्णा) 1 / 1 वि
अव्यय
[(दुक्किय) - (कम्म) - (जणेरअ) 1 / 1 वि पाप-कर्म का उत्पादक 'अ' स्वार्थिक]
(गरुअअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
लगा जाता है
वैसा
पुरुष
हे विभीषण
रोया जाता है
अन्य
भी
बहुत भारी
पाप का बोझ
जिसके
सम्बन्धार्थक परसर्ग
पृथ्वी
भी
सहने के लिए
नहीं
समर्थ होती है
पादपूरक
अन्याय को
182
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--------------------------------------------------------------------------
________________
भणन्ति
ण
थक्कइ
6.
वेव
वाहिणि
किं
मइँ
सोसहि
धाहावइ
खज्जन्ती
ओसहि
7.
छिज्जमाण
वणसइ
उग्घोस
कइयहुँ
मरणु
णिरासहो
होसइ
8.
पवणु
ण'
भिडइ
भाणु
कर
खञ्चइ
1.
183
(भण- (स्त्री) भणन्ती) वकृ 1 / 1
अव्यय
( थक्क) व 3 / 1 अक
(वेव) व 3 / 1 अक
(arfuft) 1/1
अव्यय
(अम्ह) 2 / 1 स
मुझको
(सोस ) व 2 / 1 सक
सुख हो
(धाहाव) व 3 / 1 अक
हाहाकार मचाती है
(खज्ज - खज्जन्त - खज्जन्ती) वकृ 1 / 1 खाई जाती हुई (ओसहि ) 1/1 औषधि
(वणसइ) 1/1
( उग्घोस) व 3 / 1 सक
(छिज्ज - छिज्जमाण - (स्त्री) छिज्जमाणा) काटी जाती हुई कृ कर्म 1/1
अव्यय
( मरण) 1 / 1
( णिर+आस = णिरास) 6 / 1 वि
(हो) भवि 3 / 1 अक
कहती हुई
नहीं
थकती है
(पवण) 1 / 1
(ण) 6/1 स
( भिड ) व 3 / 1 अक (दे)
( भाणु) 6 / 1
(कर) 1/2
( खञ्च ) व 3 / 1 सक
काँपती है
नदी
क्यों
वनस्पति
घोषणा करती है
कब
मरण
दुष्टचित्तवाले का
होगा
पवन
उससे
भिड़ता है
सूर्य की
किरणें
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
परास्त करती है ( परास्त कर देती है)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
धणु
(धण) 2/1 (राउल) चोर-(ग्गी) स्त्री 5/1
राउल-चोरग्गिहुँ
धन राजकुल के चोरों की स्तुति से इकट्ठा डरता है
सञ्च
(सञ्च) व 3/1 सक
9.
विन्धइ
बींध देता है काँटों से
कण्टेहिँ
(विन्ध) व 3/1 सक (कण्ट) 3/2 अव्यय (दुव्वयण) 3/2 [(विस)-(रुक्ख) 1/1]
दुव्वयणेहिँ विस-रुक्खु
पादपूरक दुर्वचनरूपी विष-वृक्ष की तरह माना जाता है स्वजनों द्वारा
अव्यय
मण्णिज्जइ
(मण्ण) व कर्म 3/1 सक (सयण) 3/2
सयणेहिँ
10. धम्म-विहूणउ
पाव-पिण्डु अणिहालिय-थामु
[(धम्म)-(विहूणअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक]
धर्म-रहित [(पाव)-(पिण्ड 1/1]
पाप का पिण्ड [(अण)+ (इह)+(आलिय)+(थामु)] नहीं, यहाँ, निवास किया [(अण)-(इह)-(आलि-आलिय) भूक- हुआ, स्थान (थाम) 1/1 (2)] (त) 1/1 सवि
वह (रोव+एवउ) विधि कृ 1/1
रोया जाना चाहिए (ज) 6/1 स
जिसका [(महिस)-(विस)-(मेस) 3/2] महिष, वृष और मेष के द्वारा (णाम) 1/1
नाम
रोवेवउ
जासु महिस-विस-मेसहिँ
णामु
77.4
उसको
(त) 2/1 सवि (णिसुण+एवि) संकृ
णिसुणेवि
सुनकर
अपभ्रंश काव्य सौरभ
184
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________________
पहाणउ
भणइ विहीसण-राणउ एत्तिउ रुअमि दसासहो'
(पहाणअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
प्रधान (भण) व 3/1 सक
कहता है (कहा) [(विहीसण)-(राणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक] विभीषण राजा अव्यय
इतना (रुअ) व 1/1 अक
रोता हूँ [(दस) + (आसहो)]
दसमुखवाले (रावण) [[(दस) वि-(आस) 6/1] वि] के द्वारा (भर) भूकृ 1/1
भर दिया गया (भुवण) 1/1
जगत अव्यय (अयस) 6/1
अपयश से
भरिउ
भुवणु
अयसहो
2.
एण
सरीरें अविणय-थाणे दिट्ठ-णट्ठ-जल-विन्दु-समाणे
(ण-पेण-एण) 3/1 सवि (प्रा.) (सरीर) 3/1 [[(अविणय)-(थाण)] 3/1 वि] [(दिट्ठ) भूकृ अनि-(ण8) भूकृ अनि(जल)- (विन्दु)-(समाण) 3/1]
इस शरीर के द्वारा दोष के घर देखा गया, नाश को प्राप्त जल-बिन्दु के समान
सुरचावेण
[(सुर)-(चाव) 3/1] अव्यय [[(अथिर) वि-(सहाव) 3/1] वि] [(तडि)- (फुरण) 3/1] अव्यय [(तक्खण)-(भावें)] तक्खण अव्यय (भाव) 3/1
इन्द्र धनुष के समान अस्थिर-स्वभाववाले बिजली की चमक के
अथिर-सहावें तडि-फुरणेण
समान
तक्खण-भावें
शीघ्र (परिवर्तनशील) अवस्था होने से
4.
रम्भा-गब्भेण [(रम्भा)-(गन्भ) 3/1]
केले के पेड़ के भीतर (के
भाग) के 1. कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत
व्याकरण 3-134) 2. तुल्य (समान) का अर्थ बताने वाले शब्दों के साथ तृतीया या षष्ठी विभक्ति होती है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
समान
णीसारें पक्व-फलेण
साररहित पके फल के
अव्यय (णीसार) 3/1 वि (पक्व) वि-(फल) 3/1 अव्यय [(सउण) + (आहारें)] [(सउण)-(आहार) 3/1 वि]
समान
सउणाहारें
पक्षियों के (प्रिय) भोजन
11.
तउ
तप
नहीं
चिण्णु मण-तुरउ
किया गया मनरूपी घोड़ा
नहीं
खञ्चिउ
(तअ) 1/1 अव्यय (चिण्ण) भूकृ 1/1 अनि . [(मण)-(तुरअ) 1/1] अव्यय (खञ्च) भूकृ 1/1 (मोक्ख) 1/1 अव्यय (साह) भूक 1/1 (णाह) 1/1 अव्यय (अञ्च) भूकृ 1/1
वश में किया गया मोक्ष
मोक्खु
नहीं
साहिउ
साधा गया परमेश्वर
णाहु
नहीं
अञ्चिउ
पूजा गया
12.
व्रत
ण धरिउ
महु
किउ
(वअ) 1/1 अव्यय
नहीं (धर) भूकृ 1/1
धारण किया गया (मह) 1/1
विनाश (इम) 1/1 सवि
यह (कि) भूकृ 1/1
किया गया (णिवार) भूकृ 1/1
रोका हुआ (अप्पअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक
अपना (कि) भूकृ 1/1
बनाया गया [(तिण)-(समअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक] तिनके के समान अव्यय
निश्चय ही
णिवारिउ
अप्पउ किर
तिण-समउ णिरारिउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
186
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ -5 पउमचरिउ
सन्धि
- 83
83.2
9.
.
इतना
(एत्त+अडअ) 1/1 वि (दोस) 1/1
दोष
अव्यय
किन्तु
4.MAA
(रहुवइ) 8/1
रघुपति
अव्यय
अव्यय (परमेसरी) 1/1
परमेश्वरी
परमेसरि णाहिँ
अव्यय
नहीं
(घर) 7/1
घर में
अव्यय
नहीं
पमायहि
भटकें
लोयहुँ.
लोगों के
छन्देण
छल से
आणेवि
(पमाय) विधि 2/1 अक (लोय) 6/2 (छन्द) 3/1 (आण+एवि) संकृ (का) 1/1 सवि (परिक्खा ) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक
जानकर, समझकर कोई भी
कावि
परिक्ख
परीक्षा
को
को
187
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
83.3
उसको
णिसुणेवि
चवइ
(त) 2/1 स (णिसुण+एवि) संकृ (चव) व 3/1 सक (रहुणन्दण) 1/1 (जाण) व 1/1 सक
रहुणन्दणु जाणमि सीयहे
सुनकर कहता है (कहा) रघुनन्दन जानता हूँ सीता के
(सीया) 6/1
तणउ
सम्बन्धक परसर्ग
अव्यय (सइत्तण) 2/1
सइत्तणु
सतीत्व को
2.
जाणमि
जिह हरिवंसुप्पण्णी
(जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ अव्यय
जिस प्रकार [(हरि)+(वंस)+(उप्पण्णी)]
हरिवंश में उत्पन्न हुई [(हरि)-(वंस)-(उप्पण्ण-(स्त्री) उप्पण्णी) भूक 1/1 अनि] (जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ अव्यय
जिस प्रकार [(वय)-(गुण)-(संपण्ण-- (स्त्री) संपण्णी) व्रत और गुण से युक्त भूकृ 1/1 अनि]
जाणमि जिह वय-गुण-संपण्णी
3.
जाणमि
जिह
(जाण) व 1/1 सक अव्यय [(जिण)-(सासण) 7/1] (भत्ति) 1/1 (जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ जिस प्रकार जिनशासन में
जिण-सासणे भत्ती
भक्ति
जाणमि जिह
जानता हूँ जिस प्रकार
अव्यय
मेरे लिए
महु सोक्खुप्पत्ती
(अम्ह) 4/1 स [(सोक्ख)+(उप्पत्ती)] [(सोक्ख)-(उप्पत्ति) 2/1]
सुख की उत्पत्ति को
अपभ्रंश काव्य सौरभ
188
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
4.
जा
अणुगुणसिक्खावयधारी
जा
सम्मत्तरयणमणिसारी
5.
जाणमि
जिह
सायर- गम्भीरी
जामि
जिह
सुरमहिहर
6.
जामि
अंकुस लवण-जणेरी
जाणमि
जिह
सुय
जयहो
केरी
7.
जाणमि
सस
भामण्डल
जाणमि
189
(जा) 4/1 स
[(अणु) - (गुण) - (सिक्खा) - (वय) - (धार - (स्त्री) धारी) 1 / 1 वि]
(जा) 1 / 1 सवि
[ ( सम्मत) - ( रयण) - (मणि) - · ( सार - (स्त्री) सारी ) 1 / 1 वि]
(जाण) व 1 / 1 सक
अव्यय
[ ( सायर) - ( गम्भीर - (स्त्री) गम्भीरी) 2 / 1 वि]
(जाण) व 1 / 1 सक
अव्यय
[(सुर) - (महिहर) - (धीर - (स्त्री) धीरी) 2/1 fa]
(जाण) व 1 / 1 सक
[(अंकुस)- (लवण) - (जणेर - (स्त्री) जणेरी)] 2/1 वि
(जाण) व 1 / 1 सक
अव्यय
(सुया ) 2 / 1
( जणय ) 6/1
अव्यय
(जाण) व 1 / 1 सक
( ससा ) 2 / 1
[ ( भामण्डल) - (राय) 6 / 1 ]
(जाण) व 1/1 सक
जो
अणुव्रत, गुणव्रत व शिक्षाव्रतों को धारण करनेवाली
जो
सम्यक्त्वरूपीरत्नों और मणियों का सार (निचोड़)
हूँ
जिस प्रकार
सागर के समान गम्भीर को
जानता हूँ
जिस प्रकार
मेरु (देवताओं के ) पर्वत के समान धैर्यवाली को
जाता हूँ
अंकुश और लवण
की माता को
हूँ
जिस प्रकार
पुत्री को
जनक की
सम्बन्धसूचक परसर्ग
हूँ
बहन को
भामण्डल राजा को
जानता हूँ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामिणि रज्जहो आयहो
(सामिणी) 2/1 (रज्ज) 6/1 (आय) 6/1 सवि
स्वामिनी को राज्य की इस (की)
8.
जाणमि
जिह
अन्तेउर-सारी
जाणमि
(जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ अव्यय
जिस प्रकार [(अन्तेउर)-(सार-(स्त्री) सारी) 1/1 वि] अन्त:पुर में श्रेष्ठ (जाण) व 1/1 सक
जानता हूँ
जिस प्रकार (अम्ह) 4/1 स
मेरे लिए [(पेसण)-(गार--(स्त्री) गारी) 1/1 वि] आज्ञा (पालन) करनेवाली
जिह
अव्यय
महु
पेसण-गारी
9.
मिलकर
मेल्लेप्पिणु णायरलोएण
महु
उब्भा
नगर के लोगों द्वारा मेरे लिए घर में ऊँचे करके हाथों को जो
करेवि
कर
(मेल्ल+एप्पिणु) संकृ (णायर)-(लोअ) 3/1 (अम्ह) 4/1 स (घर) 7/1 (उब्भ) 2/2 वि (कर+एवि) संकृ (कर) 2/2 (ज) 1/1 सवि (दुज्जस) 1/1 अव्यय (चित्तअ) भूकृ 1/1 अनि (एअ) 1/1 सवि अव्यय (जाण) 4/1 (एक्क) 1/1 वि
.ref. . . . .
अपयश
दुज्जसु उप्परे चित्तउ
ऊपर
डाला गया
यह
नहीं समझने (जानने) के लिए
जाणहो
एक्कु
एक
पर
अव्यय
किन्तु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
190
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
83.4
तहिँ अवसरे रयणासव-जाएं कोक्किय
(त) 7/1 स (अवसर) 7/1 [(रयणासव)-(जाअ) भूक 3/1 अनि] (कोक्क-कोक्किया) भूकृ 1/10 (तियडा) 1/1 [(विहीसण)-(राअ) 3/1]
उस (पर) अवसर पर रत्नाश्रव के पुत्र (द्वारा) बुलाई गई त्रिजटा विभीषण राजा के द्वारा
तियड विहिसण-राएं
2.
बोल्लाविय एत्तहे
[(बोल्ल+आवि) प्रे. भूक 1/1] अव्यय
बुलवाई गयी यहाँ पर
अव्यय
तुरन्तें
लङ्कासुन्दरि तो
क्रिवि (लंकासुन्दरी) 1/1 अव्यय (हणुवन्त) 3/1
तुरन्त लंकासुन्दरी तब हनुमान के द्वारा
हणुवन्तें
3.
विण्णि
दोनों
वि
विण्णवन्ति पणमन्तिउ सीय-सइत्तण
(विण्ण-विण्णी) 1/1 वि अव्यय (विण्णव) व 3/2 सक (पणम-पणमन्त-पणमन्ती) वकृ 1/2 [(सीया)-(सइत्तण) 6/1] (गव्व) 2/ (वह-वहन्त-वहन्ती) वकृ 1/2
कहती हैं प्रणाम करती हुई सीता के सतीत्व के गर्व को धारण करती हुई
गव्वु
वहन्तिउ
देव देव
हे देव, हे देव
जइ
(देव) 8/1 अव्यय (हुअवह) 1/1
यदि
हुअवहु
अग्नि
191
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #203
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________________
डज्झइ
मारुउ
(डज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि
अव्यय (मारुअ) 1/1 [(पड)-(पोट्टल) 7/1] (वज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि
जलाई जाती है यदि हवा कपड़े की पोटली में बाँधी जाती है
पड-पोट्टले
वज्झइ
जइ पायाले
णहङ्गणु लोट्टई कालान्तरेण
अव्यय
यदि (पायाल) 7/1
पाताल में [(णह+अङ्गणु)] [(णह)-(अङ्गण) 1/1] नभ-आंगन (आकाश) (लोट्ट) व 3/1 अक
लोटता है [(काल)+(अन्तरेण)] [(काल)-(अन्तर) 3/1]
समय बीतने से (काल) 1/1 अव्यय
यदि (तिट्ठ) व 3/1 अक
ठहर जाता है
कालु
काल
जइ
ति
6.
जइ
अव्यय
यदि
उप्पज्जइ.
उत्पन्न होत है
मरण
मरणु कियन्तहो
यमराज का
जइ
(उप्पज्ज) व 3/1 अक (मरण) 1/1 (कियन्त) 6/1 अव्यय (णास) व 3/1 अक (सासण) 1/1 (अरहन्त) 6/1
यदि
णासइ
नष्ट होता है
शासन
सासणु अरहन्तहो
अरहन्त का
जइ
अव्यय
यदि
अवरें
(अवर) 3/11 (उग्गम) व 3/1 अक
पश्चिम दिशा में उगता है
उग्गमइ
1.
कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
192
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूर्य
दिवायरु मेरु-सिहरे
पर्वत के शिखर पर
जइ
(दिवायर) 1/1 [(मेरु)-(सिहर) 7/1] अव्यय (णिवस) व 3/1 अक (सायर) 1/1
यदि
णिवसइ
रहता है
सायरु
सागर
यह
असेसु
सब
सम्भाविज्ज
(एअ) 1/1 सवि (असेस) 1/1 वि अव्यय (सम्भाव-सम्भाविज्ज) प्रे. व कर्म 3/1 सक (सीया) 6/1 (सील) 1/1
सीयहे
सम्भावना कराई जा सकती है सीता का शील, आचरण
अव्यय
नहीं
अव्यय
पुणु मइलिज्ज
(मइल) व कर्म 3/1 सक
किन्तु मलिन किया जाता (सकता) है
अव्यय
यदि
अव्यय
इस प्रकार
अव्यय
भी
अव्यय (पत्ति+ज्ज') 2/1 सक
नहीं विश्वास होता है
पत्तिज्जहि
तो
अव्यय
तो
परमेसर
हे परमेश्वर इसको (यह)
(परमेसर) 8/1 (एअ) 2/1 स (कर) विधि 2/1 सक [(तुल)-(चाउल)-(विस)-(जल)(जलण) 6/2]
कर
तुल-चाउल-विस-जलजलणहँ
तिल, चावल, विष, जल अग्नि में से
1.
'ज' पादपूरक है।
193
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
पञ्चहँ
पाँचों में से
एक्कु
एक
(पञ्च) 6/2 वि (एक्क) 2/1 वि
अव्यय (दिव्व) 2/1 वि
दिव्यु
आरोप की शुद्धि के लिए की जानेवाली परीक्षा को धारण करें
(धर) विधि 2/1 सक
83.5
उसको
णिसुणेवि रहुवइ परिओसिउ
(त) 2/1 सवि (णिसुण+एवि) संकृ (रहुवइ) 1/1 (परिओस) भूकृ 1/1 अव्यय (हो) विधि 3/1 अक (हक्कारअ) 1/1 (पेस-पेसिअ) भूकृ 1/1
एव
सुनकर रघुपति (राम) सन्तुष्ट हुए इसी प्रकार होवे हरकारा (बुलानेवाला) भेजा गया
होउ
हक्कारउ पेसिउ
9.
चडु
पुप्फ-विमाणे भडारिए मिलु पुत्तहँ' पइ-देवरहँ'
(चड) विधि 2/1 सक [(पुप्फ)-(विमाण) 7/1] (भडारिआ) 8/1 अनि (मिल) विधि 2/1 सक (पुत्त) 6/2 [(पइ)-(देवर) 6/2] अव्यय (अच्छ) व 3/2 अक
चढ़ें पुष्पक विमान पर हे पूजनीया मिलो पुत्रों का (पुत्रों को) पति और देवरों को
सहुँ
साथ
अच्छहिँ
रहती है
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) यहाँ बहुवचन का एकवचन के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
194
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
मज्झे
मध्य में
परिट्ठिय
(मज्झ) 7/1 (परिट्टिय) भूकृ 1/1 अनि (पिहिमि) 1/1
स्थित
पिहिमि
पृथ्वी
जेम
अव्यय
जिस प्रकार चारों सागरों के
चउ-सायरहँ
[(चउ)-(सायर) 6/2]
83.6
.
उसको
णिसुणेवि लवणंकुस-मायए
(त) 2/1 सवि (णिसुण+एवि) संकृ [(लवण)+ (अंकुस)+ (मायए)] [(लवण)-(अंकुस)-(माया) 3/1] (वुत्त) भूक 1/1 अनि (विहीसण) 1/1 [(गग्गिर)-(वाया) 3/1]
सुनकर लवण और अंकुश की माता के द्वारा
वुतु
कहा गया
विहीसणु
विभीषण भरी हुई वाणी से
गग्गिरवायए
णिटुर-हिययहो अ-लइय-णामहो
निष्ठुर हृदय के नाम को मत लो
जाणमि
[(णिठुर) वि-(हियय) 6/1] [(अ)+ (लइ)+ (अ)+(णामहो)] (अ-लइय)-(णाम) 6/1] (जाण) व 1/1 सक (तत्ति) 1/1 अव्यय (कि) व कर्म 3/1 सक (राम) 6/1
जानती हूँ तृप्ति (सन्तोष)
तत्ति
नहीं
किज्जइ
की जाती है (की गई) राम के
3. ..
घल्लिय जेण
(घल्ल) भूकृ 1/1 (ज) 3/1 स
डाली गई जिनके द्वारा
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
195
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
रुवन्ति
(रुव-रुवन्त-- (स्त्री) रुवन्ती) वकृ 1/1 रोती हुई वणन्तरे
[(वण)+ (अन्तरे) (वण)-(अन्तर) 7/1] वन के अन्दर में डाइणि-रक्खस-भूय-भयङ्करे । _ [(डाइणि)-(रक्खस)-(भूय)-(भयङ्कर) डाकिनियों, राक्षसों, 7/1 वि
भूतोंवाले डरावने (वन) में
6.
जहिँ
अव्यय
जहाँ पर
माणुसु जीवन्तु
मनुष्य जीता हुआ
भी
लुच्चइ विहि कलिकालु
(माणुस) 1/1 (जीव) वकृ 1/1 अव्यय (लुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (विहि) 1/1 [(कलि) (दे)-(काल) 1/1] अव्यय (पाण) 5/2 (मुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि
काटा जाता है विधि (विधाता) कालरूपी शत्रु
भी
प्राणों से
पाणहुँ मुच्चइ
छुटकारा पा जाता है
7.
तहिँ
वणे
उस (में) वन में डलवा दी गई अज्ञान से
घल्लाविय अण्णाणे
(त) 7/1 सवि (वण) 7/1 [(घल्ल)+(आवि) प्रे भूकृ 1/1] (अण्णाण) 3/1
अव्यय (क) 1/1 सवि (त) 4/1 स अव्यय (विमाण) 3/1
एवहिँ कि तहो तणेण विमाणे
अब
क्या उसके लिए संप्रदानार्थक परसर्ग विमान से
जो
तेण
(ज) 1/1 सवि (त) 3/1 स
उसके द्वारा (डाह) 1/1
सन्ताप (उप्पाअ उप्पाइयअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. उत्पन्न की गई
डाहु
उप्पाइयउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
196
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________________
पिसुणालाव-भरीसिएण
वह
दुक्कर उल्हाविज्जइ
[(पिसुण)+ (आलाव)+ (भर)+ (ईसिएण)] चुगलखोरों के ईर्ष्या से भरे [(पिसुण)-(आलाय)-(भर) वि-(ईसिअ) हुए आलाप से 3/1] (त) 1/1 सवि क्रिविअ
कठिनाई से [(उल्हा- उल्हावि- उल्हाविज्ज) प्रे व कर्म शान्त किया जाता है 3/1 सक [(मेह)-(सअ) 3/1]
सैंकड़ों मेहों से अव्यय (वरिस) 3/1 'इअ' स्वार्थिक बरसने से (द्वारा)
मेह-सएण वि वरिसिएण
भी
83.8
सीय
सीता
नहीं
भीय
डरी
(सीया) 1/1 अव्यय (भीय) भूकृ 1/1 अनि [(सइत्तण)-(गव्व) 3/1] (वल+एवि) संकृ (प-वोल्ल) भूकृ 1/1 (मच्छर)-(गव्व)3/1
सइत्तण-गव्वे वलेवि
सतीत्व के गर्व के कारण
मुड़कर
पवोल्लिय
कहा गया
मच्छर-गव्वे
क्रोध और गर्व से
पुरुष
पुरिस णिहीण
होन्ति
(पुरिस) 1/2 (णिहीण) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक (गुणवन्त) 1/2 वि
अव्यय (तिया) 6/1
गुणवन्त
गुणवान चाहे
वि
तियहे
स्त्री के द्वारा
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
197
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
पत्तिज्जन्ति
(ण) 1/2 सवि (प्रा) (पत्ति-पत्तिज्ज) व कर्म 3/2 सक (मर-मरन्त-- (स्त्री) मरन्ता) वकृ 1/1 अव्यय
मरन्त
विश्वास किये जाते हैं मरती हुई चाहे
खडु लक्कडु सलिलु वहन्तियहे
पउराणियहे
कुलुग्णयहे
(खड) 2/1
घास-फूस को (लक्कड) 2/1
लकड़ी को (सलिल) 1/1
पानी (वह-वहन्त- (स्त्री) वहन्ति-वहन्तिय) ले जाती हुई वक 6/1 'य' स्वार्थिक (पउराण-पउराणिय) 6/1 वि 'य' स्वा. प्राचीन (का) [(कुल) + (उग्गयहे)] [(कुल)-(उग्गया) 6/1 वि]
पवित्र (का) (रयणायर) 1/1
समुद्र (खार) 2/2
खार को (दा-देन्त--देन्तअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
देता हुआ अव्यय
तो भी अव्यय
नहीं (थक्क) व 3/1 अक
थकता है (णम्मया) 6/1
नर्मदा का
रयणायरु
खार देन्तउ
तो वि
थक्कइ
णम्मयहे
83.9
साणु
(साण) 1/1
कुत्ता नहीं
अव्यय
केण
(क) 3/1
किसी के द्वारा
वि
अव्यय
. भी
जणेण
(जण) 3/1
जन के द्वारा
अपभ्रंश काव्य सौरभ
198
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदर किया जाता है
गणिज्जइ गङ्गा-णइहिँ
गंगा नदी में
(गण) व कर्म 3/1 सक [(गङ्गा)-(णइ) 7/1] (त) 1/1 स अव्यय (ण्हा) प्रे व कर्म 3/1 सक
वह
पहाइज्जइ
नहलाया जाय
2.
ससि स-कलंकु तहिं।
चन्द्रमा कलंक-सहित
उससे
पादपूरक
पह
प्रभा
णिम्मल
निर्मल
(ससि) 1/1 (स-कलंक) 1/1 (त) 6/1 स अव्यय (पहा) 1/1 (णिम्मला) 1/1 वि (कालअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (मेह) 1/1 (त) 6/1 स अव्यय (तडि) 1/1 (उज्जल) 1/1 वि
कालउ
काला बादल, मेघ उससे
तहिं।
जे
तडि
पादपूरक बिजली श्वेत/उज्ज्वल
उज्जल
उवलु
पत्थर
अपुज्जु
(उवल) 1/1 (अपुज्ज) 1/1 वि अव्यय
अपूज्य नहीं किसी के द्वारा भी
केण
(क) 3/1 स अव्यय
छिप्प
(छिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि
छुआ जाता है
तहिँ
(त) 6/1
स
उससे
जि
अव्यय
पडिम
1.
(पडिमा) 1/1
प्रतिमा कभी-कभी षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पंचमी विभक्ति के स्थान पर किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
199
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्दणेण
(चन्दण) 3/1 (विलिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि
चन्दन से लीपी जाती है
विलिप्पइ
धुज्जइ
धोया जाता है
पाउ
पाँव
कीचड़
जइ
यदि
लग्गइ
(धुज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि (पाअ) 1/1 (पङ्क) 1/1 अव्यय (लग्ग) व 3/1 अक [(कमल)-(माला) 1/1] अव्यय (जिण) 6/1 (वलग्ग) व 3/1 अक
लगता है
कमलमाल
कमल की माला
पुणु जिणहो
किन्तु जिनेन्द्र के
वलग्गइ
चढ़ती है
दीवउ
दीपक
होता है स्वभाव से
सहावे कालउ वट्टि-सिहए मण्डिज्जइ
(दीवअ) 1/1 (हो) व 3/1 अक (सहाव) 3/1 (कालअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(वट्टि)-(सिहा) 3/1] (मण्ड) व कर्म 3/1 सक (आलअ) 1/1
काला बत्ती (वर्तिका) की शिखा से सुशोभित किया जाता है घर, आलय
आलउ
णर-णारिहिँ
नर और नारी में
एवड्डउ
इतना
अन्तरु
अन्तर
मरणे
मरने पर
[(णर)-(णारी) 7/2] (एवड्ड+अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (अन्तर) 1/1 वि (मरण) 7/1 अव्यय (वेल्लि ) 1/1 अव्यय (मेल्ल) व 3/1 सक
वि
भी
वेल्लि
बेल
ण
नहीं
मेल्लइ
छोड़ती है
अपभ्रंश काव्य सौरभ
200
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
तरुवरु
(तरुवर) 2/1
वृक्ष को
कवण
तुम्हारे द्वारा किसलिए बोल
वोल्ल
पारंभिय सइ-वडाय मई
(एता) 1/1 सवि (तुम्ह) 3/1 स (कवण) 4/1 स (वोल्ला ) 1/1 (पारम्भ-पारम्भिया) भूक 1/1 [(सइ)-(वडाया) 1/1] (अम्ह) 3/1 स अव्यय (समुन्भ-समुब्भिया) भूकृ 1/1
प्रारम्भ किया गया सतीत्व की पताका मेरे द्वारा
आज
अज्जु समुब्भिय
भली प्रकार से ऊँची की
गई
तुम
देखते हुए
पेक्खन्तु अच्छु वीसत्थउ
बैठो
(तुम्ह) 1/1 स (पेक्ख-पेक्खन्त) वकृ 1/1 (अच्छ) विधि 2/1 अक (वीसत्थ-) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (डह) विधि 3/1 अक (जलण) 1/1
डहउ
विश्वासयुक्त जलावे अग्नि यदि
जलणु
जइ
अव्यय
डहेवि
जलाने के लिए
(डह+एवि) हेक (समत्थअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
समत्थउ
समर्थ
201
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ -6 महापुराण
सन्धि
- 16
16.3
13.
थिउ
चक्कु
चक्र
पुरवरि पइसरइ णाव
केण
(थिअ) भूकृ 1/1 अनि
ठहर गया (चक्क) 1/1 अव्यय
नहीं (पुरवर) 7/1
श्रेष्ठ नगर में (पइसर) व 3/1 सक
प्रवेश करता है (किया) अव्यय
मानो (क) 3/1 स
किसी के द्वारा अव्यय
पादपूरक (धर-धरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक पकड़ लिया गया [(ससि)-(बिंब) 1/1]
चन्द्रमण्डल अव्यय
मानो (णह) 7/1
आकाश में (तारायण) 3/2
तारागणों द्वारा (सुरवर) 3/2
श्रेष्ठ देवताओं के द्वारा (परियर-परियरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. घेरा गया
धरियउ ससिबिंबु
णहि तारायणहिं
सुरवरेहिं
परियरियउ
16.4
अव्यय
तब
अपभ्रंश काव्य सौरभ
202
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
भणिय णिराइणा
रूढराइणा चंडवाउवेयं
कि
क्यों
थियमिह
(भण-भणिय) भूक 1/1
कहा गया (णिराइ) 3/1 वि
निर्भय (के द्वारा) [(रूढ) वि-(राअ) 3/1]
प्रसिद्ध राजा के द्वारा [[(चंड)-(वाउ)-(वेय) 1/1] वि] प्रचण्ड वायु के वेगवाला अव्यय [(थिय) + (इह)] (थिय) भूकृ 1/1 अनि ठहरा, इह = अव्यय
यहाँ (रहंग-य) 1/1 'य' स्वार्थिक
चक्र [(णिच्चल)+ (अंगय)]
दृढ़ अंगवाला [[(णिच्चल) वि-(अंगय) 1/1 'य' स्वार्थिक] वि [[(तरुण)-(तरणि)-(तेय) 1/1] वि] युवा सूर्य के तेजवाला
रहंगय णिच्चलंगयं
तरुणतरणितेयं
उसको
11.11 liber 11.1.1
णिसुणेप्पिणु भणइ पुरोहिउ
(त) 2/1 स (णिसुण+एप्पिणु) संकृ (भण) व 3/1 सक (पुरोहिअ) 1/1 [(जेण)+(इयहु)] जेण (ज) 3/1 स इयहु (इम-इअ- इयं) 6/1 स [(गइ)-(पसर) 1/1] (णिरोहिअ) भूकृ 1/1 अनि
जेणेयहु
सुनकर कहता है (कहा) पुरोहित जिस कारण से, इसकी गति का प्रवाह रोका गया
गइपसरु णिरोहिउ
अक्खमि
णिसुणहि परमेसर
(अक्ख) व 1/1 सक (त) 2/1 स (णिसुण) विधि 2/1 सक (परमेसर) 8/1 [(देव)-(देव) 8/1] (दुज्जय) 8/1 वि (भरहेसर) 8/1
बताता हूँ उसको सुनो (सुनें) हे परमेश्वर हे देवों के देव दुर्जेय हे भरतेश्वर
देवदेव
दुज्जय भरहेसर
निराधि-निराहि-निराइ-णिराइ
203
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
4.
भुयजुयबलपडिबलविद्दवणहं
पयभरथिरमहियल कंपवणहं
5.
ते ओहामियचंददिणेसहं
जणणदिण्णमहिलच्छि
विलासहं
6.
कित्तिसत्तिजणमेत्तिसहायहं
को
पडिल्लु
एत्थु
तुह
भायहं
7.
सेव
करंति
ण
भाईव
णउ
णवंति
तुह पराईव
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[[ (भुय) - (जुय) वि- (बल) - (पडिबल) - भुजाओं के, जोड़ा (दोनों), (वि- दवण) 6 / 2 ] वि]
बल से, शत्रु की सेना का दमन करनेवाले
[ ( पय) - (भर) - (थिर) - (महियल) - ( कंपवण ) 6 / 2 वि]
]
[(तेअ) + (ओहामिय) + (चंद) + (दिणेसह ) [ ( तेअ) - (ओहामिय) (दे) वि- (चंद) - (दिणेस) 6/2]
[ ( जणण) - (दिण्ण) भूक अनि - (महि) - (लच्छि ) - (विलास) 4/2]
[ ( कित्ति) - (सत्ति) - ( जण) - (मेत्ति) - (सहाय) 4 / 2 ]
(क) 1 / 1 सवि
(पडिमल्ल) 1 / 1 वि
अव्यय
(तुम्ह) 6 / 1 स
(भाय) 4 / 2
(सेवा) 2 / 1
(कर) व 3/2 सक
अव्यय
[(ह) + (भा) + (अईवइं ) ] [ ( णह) - (भा) - (अईव) 2 / 2 ]
अव्यय
(णव) व 3 / 2 सक
(तुम्ह) 6 / 1 स
[ ( पय) - (राईव ) 2 / 2 ]
पैरों के, भार से, स्थिर,
पृथ्वीतल को, कँपानेवाले
तेज, तिरस्कृत, चाँद, सूर्या
पिता के द्वारा, दी गई, पृथ्वी (रूपी) लक्ष्मी, मनोविनोद के लिए
कीर्ति, शक्ति, जनता
मित्रता, सहायता के लिए
कौन
जोड़वाला ( प्रतिद्वन्द्वी)
यहाँ
तुम्हारे
भाइयों का
सेवा
करते हैं
नहीं
नखवाले, कान्ति से, अत्यधिक
नहीं
प्रणाम करते हैं
तुम्हारे
चरण (रूपी) कमलों को
204
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
8.
ण
करभरु
केसरिकंधर
पर
मुहिय
इ
भुंजंति
वसुंधर
9.
अज्ज
वि
ते
सिज्झति
ण
जेण
जि
पइसइ
पट्टणि
चक्कु
ण
तेण
जि
ता
विगया
205
(दा) व 3 / 2 सक
अव्यय
[(कर) - (भर) 2 / 1 ]
[[ ( केसरि) - (कंधर) 1 / 1] वि]
अव्यय
( मुहिय) 6 / 1 (दे)
अव्यय
(भुंज) व 3 / 2 सक
(वसुंधरा) 2 / 1
अव्यय
अव्यय
(त) 1 / 2 स
(सिज्झ ) व 3 / 2 सक
अव्यय
(ज) 3/1 स
अव्यय
( पइस) व 3 / 1 सक
(पट्टण ) 7/1
( चक्क ) 1/1
अव्यय
(त) 3 / 1 स
अव्यय
16.7
अव्यय
(विगय) भूकृ 1 / 1 अनि
देते हैं
नहीं
कर की राशि
सिंह के समान गर्दनवाले
किन्तु
बिना
भोगते हैं
पृथ्वी को
आज
भी
के मूल्य
जीते जाते हैं
नहीं
जिस कारण से
प्रवेश करता है
नगर में
चक्र
नहीं
उस कारण से
क
तब
गया
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुयरा जणमणोहरा
विकुमारवा
दुमदलललियतोरणं
रसियवारणं
छिण्णभूमिदेसं
2.
हिं
भणिय
ते
विणउ
करेप्प
सामिसाल
पणवेप्पिणु
3.
सुरणरविसहरभय
ૐ
जणेरी
करहु
केर
राहु
केरी
4.
पणवहु
किं
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
( बहुयर) 1 / 1
[ ( जण ) - (मणोहर) 1 / 1 वि] [(णिव) - (कुमार) - (वास) 2 / 1 ]
[[ (दुम) - (दल) - (ललिय) - (तोरण) 2/1] fa]
[[ (रसिय) - ( वारण) 2 / 1 ] वि]
[[ ( छिण्ण) भूक अनि- (भूमि) - (देस) 2/1] fa]
(त) 3/2 स
(भण भणिय) भूक 1/2
(त) 1/2 सवि
( विणअ ) 2 / 1
(कर + एप्पिणु) संकृ
[ ( सामि) - (साल) - (तणुरुह ) 2 / 2 वि ]
(पणव+एप्पिणु) संकृ
(सुर) - (णर) - (विसहर' ) - (भय) 2 / 1
अव्यय
(जणेर - (स्त्री) जणेरी) 2 / 1 वि
(कर) विधि 2 / 1 सक
परसर्ग
( पणव) विधि 2 / 1 सक
(क) 1 / 1 सवि
विसहर= वृषधर=धर्म धारण करनेवाला = धार्मिक |
[(UR)-(UITE) 6/1]
(केर - (स्त्री) केरी) 2/1 (दे)
दूत
मनुष्यों के मन को हरनेवाला राजपुत्रों के घर
वृक्ष - समूह से ( निर्मित) सुन्दर तोरणवाला
घोड़े और हाथीवाला
टी हुई जमीन
के भागवाला
उनके (उसके द्वारा
कहे गये
वे
विनय
करके
स्वामी, श्रेष्ठ, पुत्रों को
( सन्तान को )
प्रणाम करके
देवता, मनुष्य, धार्मिक (जन में) भय को
निश्चय ही
उत्पन्न करनेवाली
करो
सम्बन्धवाचक
नरनाथ की
सेवा
प्रणाम करो
क्या
206
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
बहुए पलावें
पुहइ
ण
लब्भइ
मिच्छागावें
5.
तं
1.
णिसुवि
कुमारगणु
घोसइ
HEATR
जइ
वाहि
ण
दीसइ
6.
तो
पणवहुं
जइ
TE
सुसुइ कलेवरु
ཤྲཱ ༔ ྂ བྷྲ ཝ
पहुं
जइ
जीविउ
सुंदरु
7.
207
( बहुअ ) 3 / 1 वि
( पलाव ) 3 / 1
(पुहई) 1/1
अव्यय
(लब्भइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि [(मिच्छा) वि- (गाव) 3 / 1 ]
(त) 2 / 1 स
( णिसुण + एवि) संकृ
[ (कुमार) - ( गण ) 1 / 1 ]
(घोस) व 3/1 सक
अव्यय
(पणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
(anfe) 1/1
अव्यय
( दीसइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
अव्यय
(पणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
(सु-सुइ) 1/1 वि
( कलेवर) 1 / 1
अव्यय
( पणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
(जीविअ ) 1/1
(सुंदर) 1/1 वि
अव्यय
बहुत
प्रलाप से
पृथ्वी
नहीं
प्राप्त की जाती है।
मिथ्या गर्व से
उसको
सुनकर
कुमारगण
कहता है ( कहा )
तब
प्रणाम करते हैं
यदि
व्याधि
नहीं
देखी जाती है।
तब (तो)
प्रणाम करते हैं
यदि
अत्यन्त पवित्र
शरीर
तब (तो)
प्रणाम करते हैं
यदि
जीवन
सुन्दर
तब (तो)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
पणवहुं
(पणव) व 1/2 सक
प्रणाम करते हैं
जह
अव्यय
(जर) व 3/1 अक
जरइ
जीर्ण होता है
अव्यय
झिज्जइ
(झिज्ज) व 3/1 अक
क्षीण होता है
अव्यय
पणवहुं
(पणव) व 1/2 सक
प्रणाम करते हैं यदि
जइ
पीठ
पुट्टि
अव्यय (पुट्ठि) 2/1 अव्यय (भज्ज ) व 3/1 सक
नहीं
भज्ज
भंग करता है
तो
पणवहुं
प्रणाम करते हैं यदि
बल
बलु
अव्यय (पणव) व 1/2 सक अव्यय (बल) 1/1 [(ण)+(ओहट्टइ)] ण-अव्यय (ओहट्ट) व 3/1 अक अव्यय (पणव) व 1/2 सक
णोहट्टइ
नहीं, कम होता है
तो
पणवहुं जइ
प्रणाम करते हैं यदि
अव्यय
पवित्रता
(सुइ) 1/1 अव्यय (विहट्ट) व 3/1 अक
नहीं नष्ट होती है
विहट्टइ
अव्यय
पणवहुं
(पणव) व 1/2 सक
अव्यय
प्रणाम करते हैं यदि प्रेम
मयणु
(मयण) 1/1
अव्यय
नहीं
अपभ्रंश काव्य सौरभ
208
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुट्टइ
पहुं
जइ
कालु
15
ण
खुट्टइ
10.
कंठि
ण
चुहुट्टइचहुट्ट
तो
पणवहु
जइ
रिद्धि
ण
तवा
तुट्टइ
11.
जइ
जम्मजरामरण
हरइ
चउगइदुक्खु
णिवार
तो..
पणवहुं
तासु
रेसहो
जइ
209
(तुट्ट) व 3 / 1 अक
अव्यय
( पणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
(काल) 1/1
अव्यय
(खुट्ट) व 3 / 1 अक
(कंठ) 7/1
[ ( कयंत) - (वास) 1 / 1]
अव्यय
(चहुट्ट) व 3 / 1 अक (दे)
अव्यय
( पणव) व 1 / 2 सक
अव्यय
(रिद्धि) 1/1
अव्यय
(तुट्ट) व 3 / 1 अक
अव्यय
[ ( जम्म) - (जरा) - (मरण)
2/2]
(हर) व 3 / 1 सक
[ ( उ ) वि - (गइ) - (दुक्ख ) 2 / 1]
(गिणवार) व 3 / 1 सक
अव्यय
(पणव) व 1 / 2 सक
(त) 4 / 1 सवि
( णरेस) 4/1
अव्यय
खण्डित होता है
तो
प्रणाम करते हैं
यदि
उम्र
नहीं
क्षीण होती है
गले में
यम का फंदा
नहीं
चिपकता है
तो
प्रणाम करते हैं
यदि
वैभव
नहीं
घटता है
यदि
जन्म, जरा और मरण को (का)
हरण करता है
चार गति के दुःख को
दूर करता है
तो
प्रणाम करते हैं
उस (के लिए)
राजा को (के लिए)
यदि
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
संसारहु
तारइ
1.
पुरवि
हिं
गहिरयं
सवणमहुरयं
एरिसं
पउत्तं
आणापसरधारणे
धरणिकारणे
पणविउं
ण
जुतं
2.
पिंडिखंडु
महिखंडु
महेप्पि
किह
पणविज्जइ
माणु
मुएप्पिणु
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(संसार) 5/1
(तार) व 3 / 1 अक
16.8
अव्यय
(त) 3 / 2 स
( गहिर - य) 1 / 1 वि 'य' स्वार्थिक
(सवण) - (महुर-य) 1 / 1 वि
(एरिस) 1/1 वि
(पउत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( आणा) - (पसर) - (धारण' ) 7 / 1 ]
[ ( धरणि) - ( कारण ' ) 7 / 1]
( पणव) हेकृ
अव्यय
( जुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[(पिंडि)-(खंड) 2/1]
[ ( महि) - (खंड) 2 / 1]
(मह + एप्पिणु) संकृ
अव्यय
( पणव + इज्ज) व कर्म
3/1 सक
( माण ) 2 / 1
(मुअ + एप्पिणु) संकृ
संसार से
पार लगाता है
फिर
उनके द्वारा
महत्त्वपूर्ण
सुनने में मधुर
इस प्रकार
कहा गया (कहे गये)
आज्ञा - प्रसार के पालन करने
के प्रयोजन से
पृथ्वी के निमित्त से
प्रणाम करना (करने के लिए)
नहीं
उपयुक्त
शरीर खण्ड को
भू-खण्ड को, पृथ्वी को
महत्त्व देकर
क्यों
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135 )
प्रणाम किया जाता है
( जाए)
आत्मसम्मान को
छोड़कर
210
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.
क्व
कंदरमंदिरु
ह
वर
तं
सुन्दरु
4.
वर
दालिदु
सरीरहु
दंड
णउ
पुरिसहु
अहिमाणविहंड
5.
परपयरयधूसर
किंकरसरि
अ
ण
पाउससिरिहरि
6.
णिवपडिहारदंडसंघट्टणु
को
विसहर
करेण
उरलोट्टणु
211
[(वक्कल) - (णिवसण) 1 / 1 ] [(कंदर) - (मंदिर) 1/1]
[ ( वण) - (हल) - (भोयण) 1 / 1]
(वर) 1 / 1 वि
अव्यय
(सुन्दर) 1 / 1 वि
(वर) 1 / 1 वि
(दालिद्द) 1/1
( सरीर) 4/1
(दंडण) 1 / 1
अव्यय
( पुरिस) 6 / 1
[ ( अहिमाण) - (विहंडण ) 1 / 1 ]
[ ( पर) वि - ( पय) - (राय) -
( धूसर - धूसरा ) 1 / 1 वि]
[ ( किंकर) - (सरि) 1 / 1]
( असुहाविणी) 1 / 1 वि
[ ( णिव) - ( पडिहार) - (दंड)(संघट्टण ) 2 / 1]
(क) 1/1 सवि
(वि-सह) व 3 / 1 सक
(कर) 3/1
[ ( उर) - ( लोट्टण ) 1 / 1]
वृक्ष
की छाल का वस्त्र
में घर
गुफा
जंगल के फलों का भोजन
श्रेष्ठ
पादपूरक
अच्छा
श्रेष्ठ
निर्धनता
शरीर के लिए
दण्ड देना
नहीं
व्यक्ति के
स्वाभिमान का खण्डन
अव्यय
[ ( पाउस) - (सिरिहर - सिरिहरी ) 1 / 1 वि] वर्षाऋतु की शोभा को
हरनेवाली
दूसरे के पैरों की धूल
पी
सेवकरूपी नदी
असुन्दर
मानो
से
राजा के द्वारापालों के डण्डों
का संघर्षण
कौन
सहता है (सहेगा )
हाथ से
छाती पर प्रहार
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
7.
को
जोयइ
मुहं
भूभंगालउ
श्र
हरिसिउ
किं
रोसें
कालउ
8.
पहु
आसण्णु
लहइ
धिट्ठत्तणु
विरल
9.
मोणे
को
हत्त
भडु
खंतिइ
कायरु
अज्जवु
पसु
पंडियउ
पलाविरु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(क) 1 / 1 सवि
( जोय) व 3 / 1 सक
अव्यय
[(भू) + (भंग) + (आलउ ) ] [(भू) - (भंग) - (आलअ ) 2 / 1 ]
अव्यय
(हरिस - हरिसिअ ) भूक 1 / 1
अव्यय
( रोस ) 3 / 1
( काल - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(पहु) 6 / 1
( आसण्ण) 1 / 1 वि
( लह) व 3 / 1 सक
( धिट्ठत्तण) 2 / 1
[[ ( प - विरल) वि - ( दंसण) 1 / 1 ] वि] (णिणेहत्तण) 2/1
(मोण ) 3 / 1
(जड) 1 / 1 वि
(भड) 1 / 1 वि
(खंति - खंतिए - खंतिइ) (स्त्री) 3 / 1
(कायर) 1/1 वि
( अज्जव ) 1 / 1
( पसु ) 6/1
(पंडियअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( पलाविर) 1 / 1 वि
कौन
देखता है (देखे)
बार-बार
भौंहों की सिकुड़न का स्थान
क्या
प्रसन्न हुआ
क्या
क्रोध से
काला
राजा के
समीप
पाता है / प्राप्त होता है
ढीठता, निर्लज्जता को
बहुत थोड़ा दर्शन करनेवाला स्नेहरहितता को
मौन के कारण
आलसी
वीर
क्षमा के कारण
कायर
सरलता
पशु का
पंडित
बकवास करनेवाला
212
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
10.
अमुणियहिययचारुगरुयत्तें
कलहसीलु
भण्णइ
11.
महुरपि
चाडुयागारउ
केमवि
गुणि
ण
होइ
哥
सेवारउ
1.
अहवा
तेहिं
किं
जं
समायं
दुल्लहं
रतं
जो
विसयविसरसे
धिवइ
213
[ ( अमुणिय) भूक - (हियय) - (चारु) वि(गरुयत्त ) 3 / 1 वि]
(
कलहसील) 1 / 1 वि
( भण्णइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
( सुहडत्त ) 3 / 1
[ ( महुर ) - (पयंपिर) 1 / 1 वि]
(चाडुयगारअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
( गुणि) 1 / 1 वि
अव्यय
(हो) व 3 / 1 अक
[ (सेवा) - (रअ) 1 / 1 वि]
16.9
अव्यय
(त) 3 / 2 स
(क) 1 / 1 सवि
(हय) भूकृ 1 / 1 अनि
अव्यय
( समागय) भूकृ 1 / 1 अनि
( दुल्लह) 1 / 1 वि
( णरत्त) 1 / 1
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
[ ( विसय) - (विस) - (रस) 7 / 1 ] (धिव) व 3 / 1 सक
न समझे हुए, हृदय में,
सुन्दर, महान
कलहकारी
कहा जाता है।
योद्धापन के कारण
मधुर बोलनेवाला खुशामदी
किसी प्रकार भी
गुणी
नहीं
होता है
सेवा में लीन
अथवा
उनसे (उससे)
क्या
नष्ट किया गया
पादपूरक
प्राप्त (आया हुआ)
दुर्लभ
मनुष्यत्व तो
布
विषयरूपी विष के रस में
डालता है
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
परवसे
दूसरे के वश में
उसकी
तस्स किं
[(पर) वि-(वस) 7/1] (त) 6/1 स (क) 1/1 सवि (बुहत्त) 1/1
क्या
बुहत्तं
विद्वत्ता
2.
कंचणकंडे जंबुउ विंध मोत्तियदामें
[(कंचण)-(कंड) 3/1] (जंबुअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (विंध) व 3/1 सक (मोत्तिय)-(दाम) 3/1 (मंकड) 2/1 (बंध) व 3/1 सक
सोने के तीर से सियार को आहत करता है मोती की रस्सी से बन्दर को बाँधता है
मंकडु
बंधइ
खीलयकारणि देउलु मोडइ सुत्तणिमित्तु
[(खीलय)-(कारण') 3/1] (देउल) 2/1 (मोड) व 3/1 सक [(सुत्त)-(णिमित्त) 1/1] (दित्त) भूकृ 2/1 अनि (मणि) 2/1 (फोड) व 3/1 सक
खम्भे के प्रयोजन से देवमन्दिर को तोड़ता है सूत के निमित्त दीप्त
दितु
मणि
मणि को
फोड
फोड़ता है
कप्पूरायररुक्खु
कपूर के श्रेष्ठ वृक्ष को
णिसुंभइ कोद्दवछेत्तहुं
[(कप्पूर)+(आयर)+(रुक्खु)] [(कप्पूर)-(आयर)-(रुक्ख) 2/1] (णिसुंभ) व 3/1 सक (कोद्दव)-(छेत्त) 6/1 (वइ) 2/1 (पारंभ) व 3/1 सक
नष्ट करता है कोदों के खेत की
वह
बाड़
पारंभइ
बनाता है
तिलखलु
तिलों की खल को
1. 2.
(तिल)-(खल) 2/1 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 आयर-आकर श्रेष्ठ, संस्कृत-हिन्दी-कोश, आप्टे।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
214
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
पयइ
हिवि
चंदणतरु
विसु
गेह
सप्पहु
ढोयवि
करु
6.
पीय
स
लोहिय
तक्कै
विक्कइ
सो
माणिक्क
7.
जो
मणुयत्तणु
Extele
णासइ
समाणु
को
1.
2.
3.
215
( पय) व 3 / 1 सक (डह + इवि) संकृ
[ ( चंदण) - (तरु) 2 / 1 ]
(विस) 2 / 1
(गेह) व 3 / 1 सक
(सप्प ' ) 6/1
(ढोय + अवि) संकृ
(कर 2 ) 2/1
(पीय) 2 / 2 वि
( कसण) 2 / 2 वि
[ ( लोहिय) वि- (सुक्क ) 2 / 2 वि]
(तक्क) 3 / 1
विक्क व 3 / 1 सक
(त) 1 / 1 सवि
(माणिक्क) 2/2
(ज) 1 / 1 सवि
( मणुयत्तण) 2 / 1
(2737) 3/1
( णास) व 3 / 1 सक
(त) 3 / 1 स
( समाण) 1/1
(हीण ) 1 / 1 वि (क) 1 / 1 सवि
पकाता है
जलाकर
चन्दन के वृक्ष को
विष
ग्रहण करता है
सर्पको
ढोकर
हाथ में
पीले
काले
लाल और सफेद
छाछ के प्रयोजन से
बेचता है।
वह
माणिक्यों को
जो
मनुष्यत्व को भोग के प्रयोजन से
नष्ट करता है
उसके
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 )
प्रयोजन के अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है।
समान
हीन
कौन
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #227
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________________
सीसइ
(सीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि
कहा जाता है
वितु
चित्त को समत्व में
समत्तणि णेय
नहीं
णियत्तइ
(चित्त) 2/1 (समत्तण) 7/1 अव्यय (णियत्त) व 3/1 सक (पुत्त) 2/1 (कलत्त) 2/1 (वित्त) 2/1 (सं-चिंत) व 3/1 सक
कलत्तु
लगाता है पुत्र को (की) स्त्री (पत्नी) की धन की अत्यन्त चिन्ता करता है
वितु
संचित
9.
मरइ
रसणफंसणरसदड्डउ
मे-मे-मे
(मर) व 3/1 अक [(रसण)-(फंसण)-(रस)-(दड्डअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] अव्यय (कर) वकृ 1/1 अव्यय (मेंढअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक
मरता है रसना (जिह्वा) और स्पर्शन इन्द्रियों के रस से सताया हुआ मे-मे (शब्द) करता हुआ जिस प्रकार
करन्तु
जिह
मेंढउ
मेंढा
10.
खज्जइ
पलयकालसद्लें डज्झइ दुक्खहुयासणजालें
(खज्ज) व कर्म 3/1 सक अनि [(पलय)-(काल)-(सठूल) 3/1] (डज्झइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(दुक्ख)-(हुयासण)-(जाल) 3/1]
खाया जाता है प्रलयकालरूपी बाघ के द्वारा जलाया जाता है दुःखरूपी अग्नि की ज्वाला के द्वारा
विलाव
11. मंजरु कुंजरु महिसउ
(मंजर) 1/1 (कुंजर) 1/1 (महिस-अ) 1/1 'अ' स्वार्थिक
हाथी
भैंसा
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
216
Page #228
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________________
मंडलु
कुत्ता होता है
होइ
जीउ
(मंडल) 1/1 (दे) (हो) व 3/1 अक (जीअ) 1/1 (मक्कड) 1/1 (माहुंडल) 1/1 (दे)
जीव
बन्दर
मक्कडु माहुंडलु 12.
सर्प
केलासहु
कैलाश पर्वत को (पर)
जाइवि
जाकर
तवयरणु
ताएं
भासिउ किज्जइ जेणेह
(केलास') 6/1 (जाअ) संकृ [(तव)-(यरण) 1/1] (ताअ) 3/1 (भास-भासिअ) भूकृ 1/1 (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि । [(जेण)+ (इह)] जेण (ज) 3/1 स इह-अव्यय [(सु)-(दूसह)-(तावयर- (स्त्री) तावयरि 1/1] (संसारिणी') 6/1 वि (तिसा) 1/1 (छिज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
तप का आचरण पिता के द्वारा कहा हुआ (बताया हुआ) किया जाता है जिसके द्वारा यहाँ अत्यन्त दुसह्य-दुःखकारी
सुदूसहतावयरि
संसारी जीव के द्वारा
संसारिणि तिस छिज्जइ
प्यास छेदी जाती है
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
217
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #229
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________________
पाठ - 7 महापुराण
सन्धि
- 16
16.11
-
E
दूत
पहले
णिवइणो
राजा के
घरं
घर
भणइ
कहता है (बोला)
सुण
सुनो
अव्यय (पत्त) भूकृ 1/1 अनि (चर) 1/1 अव्यय (णिवइ) 6/1 (घर) 2/1 (भण) व 3/1 सक (सुण) विधि 2/1 सक (सु-राय) 8/1 (इसि) 1/2 (तुम्ह) 6/1 स (सहोयर) 1/2 [(सील)-(सायर) 1/2]
अव्यय (देव) 8/1 (जाय) भूकृ 1/2 अनि
सुराया
इसिणो
हे श्रेष्ठ राजन मुनि तुम्हारे
भाई
सहोयरा सीलसायरा
शील के सागर
अज्जु
आज
ne
हे देव
जाया
हो गये
एक्कु
एक्क 1/1 वि
&
लि
अव्यय
fic
अपभ्रंश काव्य सौरभ
218
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर
अव्यय
बाहुबलि सुदुम्मइ
किन्तु बाहुबलि अत्यन्त दुर्मति
णउ
त
तप
(बाहुबलि) 1/1 (सुदुम्मइ) 1/1 वि अव्यय (तअ) 2/1 (कर) व 3/1 सक अव्यय (तुम्ह) 4/2 (पणव) व 3/1 सक
करइ
करता है
तुम्हहं
तुमको (तुम्हारे लिए) प्रणाम करता है
पणवइ
16.19
4.
दिण्णं महेसिणा दुरियणासिणा णयरदेसमेत्तं
(ज) 1/1 सवि (दिण्ण) भूक 1/1 अनि
दिया गया है (दिये गये हैं) (महेसि) 3/1
महर्षि के द्वारा [(दुरिय)-(णासि) 3/1 वि]
पाप के नाशक [(णयर)-(देस)-(मेत्त) 1/1] नगर, देश, केवल (त) 1/1 सवि
वह (अम्ह) 4/1 स
मेरे लिए [(लिह-लिहिय) भूकृ-(सासण) 1/1] लिखित आदेश [(कुल)-(विहसूण) 1/1]
कुल की शोभा (हर) व 3/1 सक
छीन (सकता) है (क) 1/1 सवि
कौन (पहुत्त) 2/1
प्रभुता को
मह
लिहियसासणं
कुलविहसणं
पहुत्तं
2.
केसरिकेसरु
वरसइथणयलु
[(केसरि)-(केसर) 2/1] [(वर) वि-(सइ)-(थणयल) 2/1] (सुहड) 6/1 (सरण) 2/1
सिंह के बाल को श्रेष्ठ सती के वक्षस्थल को सुभट की शरण को
सुहडहु
सरणु
219
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
(अम्ह) 6/1 स (धरणीयल) 2/1
मेरी जमीन को
धरणीयलु
जो
हत्थेण
हाथ से छूता है
छिवइ
वह
केहउ
कैसा
(ज) 1/1 सवि (हत्थ) 3/1 (छिव) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (केह-अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक अव्यय (कयंत) 1/1 [(काल)+(अणलु)] [(काल)-(अणल) 1/1] (जेहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
कि
क्या
यम
कयंतु कालाणलु
कालरूपी अग्नि जैसा
जेहउ
सो
पणवमि
उसको प्रणाम करता हूँ (करूँ) कौन
वह
(अम्ह) 1/1 स (त) 2/1 सवि (पणव) व 1/1 सक (क) 1/1 सवि (त) 1/1 सवि (भण्णइ) व कर्म 3/1 सक अनि (महिखंड) 3/1 (कवण) 6/1 स [(परम)+(उण्णइ)] [(परम) वि-(उण्णइ) 1/1]
भण्णइ महिखंडेण
कही जाती है पृथ्वीखण्ड के कारण किसकी
कवण
परमुण्णइ
परम उन्नति
अव्यय
क्या
जन्म पर
जम्मणि
(जम्मण) 7/1 देवहिं
(देव) 3/2 अहिसिंचिउ
(अहिसिंच) भूकृ 1/1 द्वितीया विभक्ति के अर्थ में 'सो' का प्रयोग विचारणीय है।
देवताओं के द्वारा अभिषेक किया गया
अपभ्रंश काव्य सौरभ
220
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
क्या
मंदरगिरिसिहरि समच्चिउ
[(मंदर)- (गिरि)-(सिहर) 7/1] (समच्च) भूक 1/1
सुमेरु पर्वत के शिखर पर पूजा गया
क्या
तहु
उसके आगे
अग्गइ
सुरवइ
अव्यय (त) 6/1 स अव्यय (सुरवइ) 1/1 (णच्च-णच्चिअ) भूकृ 1/1 [(सिरि)+(सइरिणी)+ (यइ)] [(सिरि)-(सइरिणी) 6/1'] यइ-अइ%अव्यय
णच्चिउ
नाचा लक्ष्मी, स्वेच्छाचारिणी
सिरिसइरिणिय
के द्वारा,
अरे
कि
अव्यय
क्यों
रोमंचिउ
(रोमंचिअ) 1/1 वि
पुलकित
7.
चक्कु
चक्र
दण्ड
वह
तासु
उसके लिए
जि
सारउ
(चक्क) 1/1 (दंड) 1/1 (त) 1/1 सवि (त) 4/1 स अव्यय (सार-अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (अम्ह) 4/1 स अव्यय (ण) 1/1 स (कुंभार) 6/1 परसर्ग
महत्त्वपूर्ण मेरे लिए किन्तु
वह
कुंभार
कुम्हार का सम्बन्धार्थक
केरउ
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
2.
221
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
करिसूयररहवरडिभयरहं
णर णिहणमि
[(करि)-(सूयर)-(रहवर)-(डिंभय)-(रह) हाथीरूपी सूअरों पर, श्रेष्ठ 6/1]
रथों पर, छोटे रथ (समह) पर (णर) 2/2
मनुष्य (णिहण) व 1/1 सक
मारता हूँ (मारूँगा) (रण) 7/1
रण में (ज) 2/2 सवि अव्यय (महारह) 2/2 वि
रणि
जे
महारह
9.
भरह
भरत हरता है (हरेगा) क्या
कि
मेरे
मज्झु भुयाभरु
(भरह) 1/1 (हर) व 3/1 सक अव्यय . (अम्ह) 6/1 स [(भुया)-(भर) 2/1] अव्यय (चुक्क) व 3/1 अक
अव्यय (सुमर) व 3/1 सक (जिणवर) 2/1
तइ
चुक्कइ
भुजाबल को तभी (उसी समय) चूकता है (बच निकलेगा) यदि स्मरण करता है जिनवर को (का)
जइ
सुमरइ जिणवरु 10.
तह
तुम्हारी
मेइणि
पृथ्वी
महु
मेरा
पोयणणयरु
आइजिणिंदें दिण्णउं
(त) 6/1 स (मेइणी) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (पोयण)-(णयर) 1/1 (आइ)-(जिर्णिद) 3/1 (दिण्ण) भूकृ 1/1 अनि (अभिड) विधि 3/1 सक (पड) विधि 3/1 सक (असि) 2/1 [(सिहि)-(सिहा) 7/1]
अभिडउ
पोदनपुर नगर आदि जिनेन्द्र के द्वारा दिये हुये मिले पड़े तलवार को अग्नि की ज्वाला में
पडउ
असि सिहिसिहहि
अपभ्रंश काव्य सौरभ
222
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
जइ
अव्यय
यदि नहीं मानता है स्वीकार किए हुए को
अव्यय (सर) व 3/1 सक (पडिपवण्णअ) 2/1
सरइ
पडिपवण्णउं
16.20
दूएण जंपियं
तब दूत के द्वारा कहा गया
कि
क्या
अप्रिय
सुविप्पियं भणसि
कहते हो
भो
अव्यय (दूअ) 3/1 (जप-जंपिय) भूकृ 1/1 (क) 1/1 सवि (सु-विप्पिय) 2/1 वि (भण) व 2/1 सक अव्यय (कुमार) 1/1 (वाण) 1/2 [(भरह)-(पेस-पेसिय) भूकृ 1/2] [(पिछ)-(भूसिय) भूकृ 1/2 अनि] (हो) व 3/2 अक (दु-णिवार) 1/2 वि
कुमारा
कुमार
वाणा
वाण
भरहपेसिया पिंछभूसिया होति दुण्णिवारा
भरत के द्वारा भेजे हुए पंख से विभूषित होते हैं कठिनाईपूर्वक हटाये जानेवाले
पत्थरेण
पत्थर से
किं
मेरु
क्या मेरु (पर्वत) टुकड़े-टुकड़े किया जाता है
दलिज्जइ
(पत्थर) 3/1
अव्यय (मेरु) 1/1 (दल) व कर्म 3/1 सक अव्यय (खर) 3/1 (मायंग) 1/1 (खल) व कर्म 3/1 सक
कि
क्या
गधे के द्वारा
खरेण मायंगु खलिज्जइ
हाथी गिराया जाता है
223
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.
खज्जोएं
रवि
णित्तेइज्जइ
किं
घुट्टेण
जलहि
सोसिज्जइ
4.
गोप्पएण
किं
माणिज्जइ
अण्णा
किं
जिणु
जाणिज्जइ
5.
वायसेण
किं
गरुडु
णिरुज्झइ
णवकमलेण
कुल
किं
विज्झइ
6.
करिणा
किं
मयारि
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(खज्जोअ) 3 / 1 (रवि) 1 / 1
( णित्तेअ) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
(घुट्ट) 3 / 1
(जलहि) 1/1
(सोस ) व कर्म 3 / 1 सक
( गोप्पअ ) 3 / 1
अव्यय
( णह ) 1 / 1
( माण ) व कर्म 3 / 1 सक
(अण्णाण ) 3 / 1
अव्यय
(जिण) 1 /
(जाण) व कर्म 3 / 1 सक
1/1
( वायस) 3 / 1
अव्यय
(गरुड) 1 / 1
(णिरुज्झइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
[(णव) वि- (कमल) 3 / 1]
( कुलिस) 1/1
अव्यय
(विज्झइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
(करि) 3/1
अव्यय
(मयारि) 1/1
जुगनू द्वारा
सूर्य
तेजरहित किया जाता है
क्या
घूँट के द्वारा
समुद्र
सुखाया जाता है।
गौ के पैर के द्वारा
क्या
आकाश
मापा जाता है
अज्ञान के द्वारा
क्या
जिनेन्द्र
समझा जाता है
कौए के द्वारा
क्या
गरुड़
रोका जाता है
नूतन कमल के द्वारा
वज्र
क्या
बेधा जाता है
हाथी के द्वारा
क्या
सिंह
224
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
मारिज्जइ
किं
वसण
वग्घु
दारिज्जइ
7.
किं
हंसे
ससंकु
धवलिज्जइ
किं
मणुएण
कालु
कवलिज्जइ
8.
डेंडु
किं
सप्पु
डसिज्जइ
किं
कम्मे
सिधु
वसि
किज्जइ
9.
किं
णीसासे
लोड
णिहिप्पइ
किं
225
(मार) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
( वसह ) 3 / 1
( वग्घ) 1 / 1
(दार) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
(हंस) 3/1
( ससंक) 1 / 1
(धवल) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
( मणुअ ) 3 / 1
(काल) 1/1
( कवल) व कर्म 3 / 1 सक
( डेंडुह ) 3/1
अव्यय
(सप्प ) 1 / 1
( डस) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
(कम्म) 3 / 1
(सिद्ध) 1 / 1
(af) 7/1
( कि) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
(णीसास) 3 / 1
(लोअ) 1 / 1
( णिहिप्पर) व कर्म 3 / 1 सक अनि
अव्यय
मारा जाता है
क्या
बेल के द्वारा
शेर
चीरा जाता है
क्या
धोबी के द्वारा
चन्द्रमा
सफेद किया जाता है
क्या
मनुष्य
काल
निगला जाता है।
阿丽丽丽和丽服
मेंढ़क के द्वारा
क्या
साँप
काटा जाता है
क्या
के द्वारा
कर्म के द्वारा
सिद्ध
वश
में
किया जाता है
क्या
क्या
श्वास से
लोक
स्थापित किया जाता
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
भरहणराहिउ
(तुम्ह) 3/1 स [(भरह)-(णराहिअ) 1/1] (जिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि
तुम्हारे द्वारा भरत नराधिप जीता जाता है
जिप्पड़
10.
होउ
पहुप्पइ जंपिएण
राउ
तुहुप्परि
) 6/1 स
तुम्हारे
अव्यय
आश्चर्य (हो) विधि 3/1 अक
होवे (पहुप्प) व 3/1 अक
समर्थ होता है (जंपिअ) भूकृ 3/1
प्रलाप किया हुआ होने
के कारण (राअ) 1/1
राजा [(तुह)+ (उप्परि)] तुह (तुम्ह) 6/1 स उप्परि=अव्यय
ऊपर (वग्ग) व 3/1 अक
चौकड़ी भरेगा (कूदता है) (करवाल) 3/2
तलवारों के साथ (सूल) 3/2
त्रिशूलों के साथ (सव्वल) 3/2
बछों के साथ (पर) व 3/1 सक
भ्रमण करता है (करेगा) [(रण) (अंगणि) (रण)-(अंगण) 7/1] रण के आँगन में (लग्गअ) भूक 7/1 अनि 'अ' स्वार्थिक निकटवर्ती
वग्गइ
करवालहिं
सूलहिं सव्वलहि
परइ
रणंगणि
लग्गइ
16.21
तब
भणियं
अव्यय (भण-भणिय) भूकृ 1/1 (स-हेउ) 3/1 वि (मयरकेउ) 3/1
स-हेउणा • मयरकेउणा
कहा गया युक्तिसहित कामदेव के द्वारा यहाँ
अव्यय
एत्थ कहिं
अव्यय
कहीं
अव्यय
अपभ्रंश काव्य सौरभ
226
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाया
E
जे
परदविणहारिणो कलहकारिणो
(जाय) भूकृ 1/2 अनि (ज) 1/2 सवि [(पर) वि-(दविण)-(हारी) 1/2 वि] (कलहकारी) 1/2 वि (त) 1/2 सवि (जय) 7/1 (राय) 1/2
परद्रव्य को हरनेवाला कलह करनेवाले (कलहकारी)
जयम्मि
जगत में राजा
राया
वुडउ
जबुउ
सिव
(वुड्डअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (सिव) 1/1 (सद्द) व कर्म 3/1 सक (एअ) 3/1 स अव्यय (अम्ह) 4/1 स (हासअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (दा+इज्ज) व कर्म 3/1 सक
बूढ़ा सियार समृद्धि बुलाई जाती है इससे मानो
सद्दिज्जइ
णाई
मेरे लिए
हँसी
हासउ दिज्जइ
दी जाती है
बलवंतु
बलवान चोर
चोरु
(ज) 1/1 सवि (बलवंत) 1/1 वि (चोर) 1/1 (त) 1/1 सवि (राणअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (णिब्बल) 1/1 वि
सो
वह
राणउ
राजा
णिब्बलु
निर्बल
अव्यय
फिर
पुणु किज्जइ.. णिप्राणउ
(कि) व कर्म 3/1 सक (णिप्राणअ) 1/1 वि
किया जाता है निष्प्राण
4.
छीना जाता है
हिप्पइ मृगहु
(हिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि (मृग) 6/1
पशु का
227
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
मृगेण
पशु के द्वारा
आमिसु
मांस
हिप्पड़
छीना जाता है
(मृग) 3/1 अव्यय (आमिस) 1/1 (हिप्पइ) व कर्म 3/1 सक अनि (मणुय) 6/1 (मणुअ) 3/1 अव्यय (वस) 1/1
मणुयहु
मनुष्य का मनुष्य के द्वारा
मणुएण
जि
वसु
प्रभुत्व
६. . fFFFar.raf.
रक्खाकंखइ
रएप्पिणु
एक्कहु
[(रक्खा)- (कंखा-कंखाए-कंखाइ) 3/1] रक्षा की इच्छा से (जूह-वूह) 2/1
व्यूह (रअ) संकृ
रचकर (एक्क) 6/1 वि
एक की परसर्ग
सम्बन्धार्थक (आणा) 1/1
आज्ञा (लअ) संकृ
लेकर
केरी
आण
लएप्पिणु
णिवसंति तिलोइ गविट्ठउ
(त) 1/2 सवि (णिवस) व 3/2 अक
निवास करते हैं (तिलोअ) 7/1
त्रिलोक में (गविठ्ठअ) भूकृ 1/1 अनि
खोज किया हुआ (सीह) 6/1 परसर्ग
सम्बन्धार्थक (वंद) 1/1
समूह अव्यय
नहीं (दिट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक देखा गया
सीहहु केरउ
सिंह का
दिट्ठउ
1.
माणभंगि
मान के भंग होने पर
वर
[(माण)-(भंग) 7/1] (वर) 1/1 वि (मरण) 1/1
श्रेष्ठ
मरणु
मरण
अपभ्रंश काव्य सौरभ
228
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
नहीं
जीविउ
जीवन
(जीविअ) 1/1 (एहअ) 1/1 वि (दूय) 8/1
ऐसा
हे
दूत
अव्यय
(अम्ह) 3/1 स (भाव) भूकृ 1/1
सचमुच मेरे द्वारा विचारा गया
भाविउ
8.
आवउ
आवे
भाउ
भाई
घाउ
तह
दंसमि
(आव) विधि 3/1 सक (भाअ) 1/1 (घाअ) 2/1 (त) 6/1 स (दस) व 1/1 सक (संझाराअ) 1/1 अव्यय (खण) 7/1 (विद्धंस) व 1/1 सक
संझाराउ
घात को उसके दिखाता हूँ (दिखाऊँगा) संध्याराग की तरह एक क्षण में नष्ट करता हूँ (नष्ट कर दूंगा)
खणि
विद्धंसमि
सिहिसिहाह देविंदु
अग्नि की ज्वालाओं को देवेन्द्र
भी
नहीं
सहइ
[(सिहि)-(सिहा) 6/2] (देविंद) 1/1 अव्यय अव्यय (सह) व 3/1 सक (अम्ह) 6/1 स (मणसिय) 6/1 (विसिह) 2/2 (क) 1/1 सवि
सह सकता है
महु
मुझ
मंणसियहु
विसिह
कामदेव के बाणों को कौन
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
229
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
विसह
10.
एक्कु
जि
परउव्वारु
णदिहु
जइ
पइसरइ
सरणु
जिणयंद
11.
संघट्टमि
लुट्टमि
गहु'
दलमि
सुहड
रणमग्गइ
पहु
आवउ
दावउ
बाहुबलु
महु
बाहुबलिहि
अग्गइ
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(विसह) व 3 / 1 सक
(एक्क) 1 / 1 वि
अव्यय
[ ( पर) वि - ( उव्वार) 1 / 1]
( णरिंद) 6/1
अव्यय
(पइसर) व 3 / 1 सक
(सरण) 2 / 1
( जिणयंद) 6/1
(संघट्ट) व 1 / 1 सक
(लुट्ट) व 1 / 1 सक
[( गय) - (घडा) 6 / 2]
( दल) व 1 / 1 सक
(सुहड) 2/2
[ (रण ) - ( मग्गअ ) 7 / 1 'अ' स्वार्थिक]
(पहु) 1 / 1
(आव) विधि 3 / 1 सक
(दाव) विधि 3 / 1 सक
( बाहुबल) 2 / 1
( अम्ह) 6 / 1 स
( बाहुबलि ) 6/1
अव्यय
16.22
सहता है (सहेगा )
एक
ही
परम-भलाई
राजा की
यदि
जाता है (चला जाय)
शरण को
जिनदेव की
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
मारता हूँ (मारूँगा)
लूटता हूँ (लूटूंगा)
गजसमूह को
चूर-चूर करता हूँ (करूँगा) योद्धाओं को
रणपथ में
राजा
आवे
दिखाए
बाहुबल को
मुझ
बाहुबलि के आगे
230
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
तब
विणिग्गओ
गया
णियपुरं गओ
तम्मि
अव्यय (दूअ) 1/1 (विणिग्गअ) भूक 1/1 अनि [(णिय) वि-(पुर) 2/1] (गअ) भूक 1/1 अनि (त) 7/1 स [(णिव)-(णिवास) 2/1] (त) 1/1 स (विण्णव) व 3/1 सक (सायर) 1/1 वि (पणव-पणविअ) भूकृ 1/1 (महीस) 1/1
णिवणिवासं
... ke. It . .
निजनगर को गया वहाँ पर राजा के घर वह/उसने कहता है (कहा) आदरसहित प्रणाम किया गया पृथ्वी का ईश
विण्णवइ
सायरं
पणविङ
महीसं
विसमु
देव बाहुबलि णरेसरु
रह
(विसम) 1/1 (देव) 8/1 (बाहुबलि) 1/1 (णरेसर) 8/1 (णेह) 2/1
अव्यय (संध) व 3/1 सक (संघ) व 3/1 सक (गुण) 7/1 (सर) 2/1
खतरनाक हे देव बाहुबलि हे नरेश्वर स्नेह नहीं रखता है रखता है धनुष की डोरी पर
संधइ
संधइ
बाण
. . . . . .
कज्जु
कार्य
ण
नहीं
(कज्ज) 2/1 अव्यय [(परियर) 2/1, (बंध) व 3/1 सक] (संधि) 2/1
बंधइ परियरु-परियरु बंधइ । संधि
कमर कसता है संधि
अव्यय
नहीं
231
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
इच्छइ
(इच्छ) व 3/1 सक (इच्छ) व 3/1 सक (संगर) 2/1
चाहता है चाहता है युद्ध
संगरु
तुमको
ड
पेच्छ
पेच्छइ
(तुम्ह) 2/1 स अव्यय (पेच्छ) व 3/1 सक (पेच्छ) व 3/1 सक [(भुय)-(बल) 2/1] (आणा) 2/1 अव्यय (पाल) व 3/1 सक (पाल) व 3/1 सक [(णिय) वि-(छल) 2/1]
नहीं देखता है देखता है भुजाओं के बल को आज्ञा को
भुयबलु
आण
नहीं
पालइ
पालइ
पालता है पालता है अपनी दलील को
णियछलु
5.
माणु
itu vitit, i cili ili nii
छंड
(माण) 2/1 अव्यय (छंड) व 3/1 सक (छंड) व 3/1 सक [(भय)-(रस) 2/1] (दइव) 2/1 अव्यय (चिंत) व 3/1 सक (चिंत) व 3/1 सक (पोरिस) 2/1
स्वाभिमान नहीं छोड़ता है छोड़ता है भय का भाव प्रारब्ध को
छंडइ
भयरसु
दयवु
नहीं
चिंतइ
चिंतइ
विचारता है विचारता है पुरुषार्थ को
पोरिसु
संति
शान्ति
(संति) 2/1 अव्यय
नहीं
मण्ण
(मण्ण) व 3/1 सक (मण्ण) व 3/1 सक
विचारता है विचारता है
मण्ण
अपभ्रंश काव्य सौरभ
232
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलकलि
[(कुल)-(कलि) 2/1] (पुहइ) 2/1
अव्यय
कुटुम्ब का झगड़ा पृथ्वी नहीं देता है देता है
(दा) व 3/1 सक (दा) व 3/1 सक [(वाण)+(आवलि)] [(वाण)-(आवलि) 2/1]
वाणावलि
बाणों की पंक्ति
णवइ
णवइ मुणितंडउ
(तुम्ह) 4/1 स अव्यय (णव) व 3/1 सक (णव) व 3/1 सक [(मुणि)-(तण्डव') 2/1] (अंग) 2/1 अव्यय (कड्ड) व 3/1 सक
तुमको नहीं प्रणाम करता है प्रणाम करता है मुनि समूह को अंग को नहीं बाहर निकालता है (खींचता है) बाहर निकालता है (खींचता है) तलवारों को
कढ़ई
(कड्ड) व 3/1 सक
खंड
(खंड) 2/2
हे देव
नहीं
देता है (देगा)
भाई
तुह
(देव) 8/1 अव्यय (दा) व 3/1 सक (भाइ) 1/1 (तुम्ह) 4/1 स (पोयण) 2/1 अव्यय (जाण) व 1/1 सक (दा) भवि 3/1 सक
पोयणु
तुम्हारे लिए पोदनपुर किन्तु जानता हूँ
पर
जाणमि
देसइ
देगा
233
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
रणभोयणु
[(रण)-(भोयण) 2/1]
रण-रूपी भोजन
9.
ढोयइ रयण
णउ
करिरयण
(ढोय) व 3/1 सक (रयण) 2/2 अव्यय [(करि)-(रयण) 2/2] (ढुक्क-ढोअ) भवि 3/1 सक (दे) क्रिविअ [(णर)-(उर)-(रयण) 2/2]
भेंट करता है (करेगा) रत्नों को नहीं हाथीरूपी रत्नों को भेंट करेगा निश्चित रूप से मनुष्य के छातीरूपी रत्नों को
ढोएसइ
ध्रुवु णरउररयण
10.
वंश
संताणु कुलक्कमु गुरुकहिउ खत्तधम्मु णउ
कुलाचार गुरु के द्वारा कथित क्षत्रिय धर्म को नहीं समझता है
(संताण) 2/1 (कुलक्कम) 2/1 [(गुरु)-(कह-कहिअ) भूक 2/1] [(खत्त)-(धम्म) 2/1] अव्यय (वुज्झ) व 3/1 सक [(मज्जा-य)-(विवज्जिअ) भूकृ 1/1 अनि (सामरिस) 1/1 वि (अवस) 3/1 क्रिवि (दाइअ) 1/1 (जुज्झ) व 3/1 सक
मज्जायविवज्जिउ
मर्यादारहित
ईर्ष्यालु
सामरिसु अवसें
दाइड
अवश्य ही समान गोत्रीय युद्ध करता है (करेगा)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
234
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ -8 महापुराण
सन्धि - 17
17.7
कारणि
वसुमइहि
सेण्णइं
जाम
अव्यय (कारण) 3/1 (वसुमइ) 6/1 (सेण्ण) 1/2 अव्यय (हण) व 3/2 सक (परोप्पर) 2/1 वि (अन्तर) 7/1 अव्यय (पइट्ठ) भूक 1/2 अनि अव्यय (मंति) 1/2 (चव) व 3/2 सक (समुभ+इवि) संकृ [(णिय) वि-(कर) 2/1]
अति शीघ्र प्रयोजन से धरती के सेनाएँ ज्योंही प्रहार करती हैं एक दूसरे पर बीच में तब ही (त्योंही) प्रविष्ट हुए
हणंति परोप्परु अंतरि
ताम
पइट्ठ
तहि
वहाँ
मंति
मंत्री
चवंति समुन्भिवि णियकर
कहते हैं (कहा) ऊँचा करके अपना हाथ
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 157
235
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
17.8
बिहिं
दोनों
बलहं
सेनाओं के बीच में
मज्झि
मुयइ
छोड़ता है (छोड़ेगा)
बाण
(बि') 6/1 (बल) 6/2 (मज्झ) 7/1 (ज) 1/1 सवि (मुय) व 3/1 सक (बाण) 2/2 (त) 4/1 स (हो) भवि 3/1 अक (रिसह) 6/1 (स्त्री) परसर्ग (आण) स्त्री 1/1
बाण
तह
उसके लिए
होसइ
होगी
रिसहह
ऋषभदेव की
तणिय
सम्बन्धसूचक सौगन्ध
आण
उसको
णिसुणिवि सेण्णइं सारियाई
(त) 2/1 स (णिसुण+इवि) संकृ (सेण्ण) 1/2 (सार-सारिय) भूकृ 1/2 (चड-चडिय) भूकृ 1/2 (चाव) 1/2 (उत्तार- उत्तारिय) भूकृ 1/2
सुनकर सेनाएँ हटाई गई
चडियई
चढ़े हुए
धनुष
चावई उत्तरायिाई
उतारे गए
उसको सुनकर वेग से भरी हुई
(त) 2/1 स णिसुणिवि
(णिसुण+इवि) संकृ रहसाऊरियाई
[(रहस)+(आऊरियाई)]
[(रहस)-(आऊर) भूक 1/2] वज्जतई
(वज्ज-वज्जंत) व 1/2 1. एकवचन का बहुवचन अर्थ में प्रयोग हुआ है।
वृहत् हिन्दी कोष।
बजती हुई
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
236
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुरहियाँ
तूरई वारियाई
(तूर) 1/2 (वार) भूकृ 1/2
रोकी गई
उसको
णिसुणिवि धारापहसियाई करवालई कोसि णिवेसियाई
(त) 2/1 स (णिसुण+इवि) संकृ [(धारा)-(पहस) भूकृ 1/2] (करवाल) 1/2 (कोस) 7/1 (णिवेस) भूकृ 1/2
सुनकर धारों का उपहास की हुई तलवारें म्यान में रख दी गई
उसको
णिसुणिवि णिद्धंगई
सुनकर कान्तियुक्त घटकवाले
(त) 2/1 स (णिसुण+इवि) संकृ [(णिद्ध)+(अंगई) [[(णिद्ध) भूक अनि-(अंग) 1/2] वि] (घण) 1/2 (णिमुक्क) भूकृ 1/2 अनि [(कवय)-(णिबंधण) 1/2]
घणाई णिम्मुक्कई कवयणिबंधणाई
खोल दिए गए कवचों के बन्धन
उसको
णिसुणिवि मय-मायंग रुद्ध पडिगयवरगंधालुद्ध
(त) 2/1 स (णिसुण+इवि) संकृ [(मय)-(मायंग) 1/2] (रुद्ध) भूकृ 1/2 अनि [(पडिगय)-(वर)-(गंध-गंधा)-(लुद्ध) भूकृ 1/2 अनि] (कुद्ध) भूक 1/2 अनि
सुनकर मदवाले हाथी रोक लिये गए प्रतिपक्षी, श्रेष्ठ, गंध के इच्छुक क्रुद्ध
कुद्ध
उसको
णिसुणिवि मच्छरभावभरिय
(त) 2/1 स (णिसुण+इवि) संकृ [(मच्छर)-(भाव)-(भर) भूक 1/2] (हरि) 1/2
सुनकर ईर्ष्याभाव से भरे हुए घोड़े
हरि
237
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
फुरुहुरंत धावंत
(फुरुहुर) वकृ 1/2 (धाव) वकृ 1/2 (धर) भूकृ 1/2
थरथराते हुए दौड़ते हुए पकड़ लिये गये
धरिय
रथ
खींच लिये गए
खंचिय कड्डिय पगहोह
खींच ली गई
(रह) 1/2 (खंच-खंचिय) भूकृ 1/2 (कढ) भूकृ 1/2 [(पग्गह)+(ओह)] [(पग्गह)-(ओह) 1/2] (वार) भूकृ 1/2 (विंध) वकृ 1/2 (अणेय) 1/2 वि (जोह) 1/2
वारिय विंधन्त अणेय
लगामें रोक दिए गए बेधते हुए अनेक योद्धा
जोह
17.9
1.
पणमियसिरेहिं मउलियकरहिं बाहुबलि भरहु महुरक्खरेहि
[(पणमिय) संकृ-(सिर) 3/2] [(मउल-मउलिय) भूकृ-(कर) 3/2] (बाहुबलि) 1/1 . (भरह) 1/1 [(महुर)+(अक्खरेहिं)] [(महुर)-(अक्खर) 3/2]
प्रणाम करके, सिरों से संकुचित किए हुए, हाथों से बाहुबलि भरत मधुर शब्दों से
उग्गमियरोसपसमंतएहिं
उत्पन्न हुए, क्रोध को, शान्त करते हुए (के द्वारा) दोनों
विण्णि
[(उग्गमिय) भूकृ-(रोस)-(पसमंतअ) वकृ 3/1 'अ' स्वार्थिक] (वि) 1/2 वि अव्यय (विण्णव) भूकृ 1/2 (महंतअ) 3/2 'अ' स्वार्थिक
वि
विण्णविय महतंएहिं
कहे गये मंत्रियों द्वारा
अपभ्रंश काव्य सौरभ
238
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
3.
तुम्ह
विण्णि
वि
जण
चरमदेह
तुम्ह
विण्णि
वि
जयलच्छिगेह
4.
तुम्ह
विण्णि
वि
अखलियपयाव
तुम्ह
विण्णि
वि
गंभीरराव
5.
तुम्ह
विण्णि
वि
जगधरणथाम
तुम्ह..
विण्णि
वि
रामाहिराम
239
(तुम्ह ) 1/2 स
(वि) 1/2 वि
अव्यय
(जण) 1/2
[[ ( चरम ) - (देह) 1 / 2] वि]
( तुम्ह ) 1/2 स
(वि) 1/2 वि
अव्यय
[(जय) - (लच्छि ) - (गेह) 1 / 2 ]
(तुम्ह) 1/2 स
(वि) 1/2 वि
अव्यय
[[ (अखलिय ) - (पयाव) 1 / 1 ] वि]
(तुम्ह) 1/2 स
(वि) 1/2 वि
अव्यय
[[ ( गंभीर ) - (राव) 1 / 1] वि]
(तुम्ह) 1/2 स
(वि) 1/2 वि
अव्यय
[[ (जग) - (धरण) - (थाम) 1 / 1 ] वि]
(तुम्ह) 1/2 स
(वि) 1/2 वि
अव्यय
[ (रामा) + (अहिराम)]
[ (रामा) - (अहिराम) 1 / 1]
आप
दोनों
ही
मनुष्य
अन्तिम देहवाले
आप
दोनों
ही
विजयरूपी लक्ष्मी के घर
आप
दोनों
ही
अबाधित प्रतापवाले
आप
दोनों
गम्भीर वाणीवाले
आप
दोनों
ही
जगत को, धारण करने की,
शक्तिवाले
आप
दोनों
ही
स्त्रियों के लिए आकर्षक
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आप दोनों
विण्णि
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय (सुर) 4/2 अव्यय (पयंड) 1/2 वि [(महि)-(महिला) 6/1] परसर्ग [(बाहु)-(दंड) 1/2]
पयंड महिमहिलहि केरा बाहुदंड
देवताओं के लिए भी प्रचण्ड पृथ्वीरूपी महिला की सम्बन्धवाचक लम्बी भुजाएँ
आप
तुम्हइं विण्णि
दोनों
वि
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय [(णिव)-(णाय)-(कुसल) 1/1 वि] [(णिय) वि-(ताय)-(पाय)-(पंकरुह)- (भसल) 1/2]
णिवणायकुसल णियतायपायपंकरुहभसल
राजनीति में कुशल निज, पिता के, चरणरूपी, कमलों के भौरें
8.
आप
विणि
दोनों
जण
जन
(तुम्ह) 1/2 स (वि) 1/2 वि अव्यय (जण) 1/2 (जण) 6/1 (चक्खु) 1/2 (इच्छ) विधि 2/2 सक (अम्हारअ) 2/1 वि [(धम्म)-(पक्ख) 2/1]
जणहु चक्खु
जन के
चक्षु चाहें हमारे धर्मपक्ष को
अम्हारउ
धम्मपक्खु
श्रीवास्तव. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 157
अपभ्रंश काव्य सौरभ
240
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________________
खरपहरणधारादारिएण
प्रखर, आयुधों की, धारों से विदारित
कि
[(खर) वि-(पहरण)-(धारा)(दार-दारिअ) भूक 3/1] (क) 1/1 सवि [(किंकर)-(णियर) 3/1] (मार-मारिअ) भूक 3/1
क्या
किंकरणियरें मारिएण
अनुचर समूह से मारे गए
10.
किर
काई
वराएं
अव्यय
पादपूरक (काइं) 1/1 सवि
क्या (वराअ) 3/1 वि
बेचारों से (दंड-दंडिअ) भूकृ 3/1
सजा दिये हुए (से) [(सीमंतिणी-सीमंतिणि)-(सत्थ) 3/1] नारी समूह से (रंड-रंडिअ) भूकृ 3/1
विधवा किए हुए
दंडिएण सीमंतिणिसत्थें रंडिएण
11.
दोनों के
E
सम्बन्धवाचक मध्यस्थित
मज्झत्थ
होवि
(दो) 6/2 वि अव्यय परसर्ग (मज्झत्थ) 1/1 (हु+अवि) संकृ (आउह) 2/1 (मेल्ल+इवि) संकृ [(खम)-(भाअ) 2/1] (ले+एवि) संकृ
आउहु मेल्लिवि
होकर आयुध (को) छोड़कर क्षमाभाव को धारण करके
खमभाउ
लेवि
12. अवलोयंतु धराहिवइ एत्तिउ
(अवलोय) वकृ 1/1
समझते हुए (धराहिवइ) 8/1
हे राजन् (एत्तिअ) 1/1 वि
इतना (कि+इज्ज) विधि कर्म 3/1 सक किया जाए (सुत्त) भूक 2/1 अनि
भली प्रकार कहे हुए को; (सुजुत्तअ) भूकृ 2/1 अनि 'अ' स्वार्थिक उपयुक्त
किज्जउ
सुत्तु सुजुत्तउ
241
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
तुम
EER
(तुम्ह) 6/2 स (दो) 6/2 वि
दोनों में अव्यय (हो) विधि 3/1 अक (रण) 1/1 (तिविह) 1/1 वि
तीन प्रकार का [(धम्म)-(णाअ) 3/1]
धर्म और न्याय से (णिउत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक निर्धारित
रणु
युद्ध
तिविहु
धम्मणाएण
णिउत्तउ
17.10
पहिलउ अवरोप्परु
दिट्टि
दृष्टि
धरह
(पहिल-अ) 1/1 वि (दे) 'अ' स्वार्थिक पहले (अवरोप्पर) 2/1 वि
एक दूसरे पर (दिट्ठि) 2/1 (धर) विधि 2/2 सक
डालो अव्यय
मत [(पत्तल)-(पत्तण)-(चलण) 2/1] पलकों के बालरूपी, बालों
के अग्रभाग का हलन-चलन (कर) विधि 2/2 सक
करो
मा
पत्तलपत्तणचलणु
करह
बीयउ
(बीयअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक हंसावलिमाणिएण
[(हंस)+ (आवलि)+(माणिएण)] [[(हंस)-(आवलि)-(माण-माणिअ)] हंस की, कतारों से, भूक 3/1]
सम्मानित अवरोप्परु
(अवरोप्पर) 2/1 वि (क्रिवि) एक दूसरे के विरुद्ध 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत
व्याकरण 3-134) 2. इस शब्द (परस्पर) के 'आपस में' 'एक दूसरे के विरुद्ध' आदि अर्थ में कर्म, करण और
अपादान के एकवचन के रूप क्रिया-विशेषण की भाँति प्रयुक्त होते हैं (आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोश)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
सिंचहु पाणिएण
(सिंच) विधि 2/2 सक (पाणिअ) 3/1
छिड़काव करो पानी से
जुज्झह विण्णि
युद्ध करें दोनों
(जुज्झ) विधि 2/2 सक (वि) 1/2 वि अव्यय [णिव)-(मल्ल) 1/2]
वि
णिवमल्ल
ताम
अव्यय
राजारूपी, पहलवान तब तक एक के द्वारा उठा लिया जाता है
एक्केण
तुलिज्जइ
(एक्क) 3/1 वि (तुल+इज्ज) व कर्म 3/1 सक (एक्क) 1/1 वि
एक्कु
एक
जाम
अव्यय
जब तक
अवरोप्परु
जिणिवि
परक्कमेण
(अवरोप्पर) 2/1 वि (जिण+इवि) संकृ (परक्कम) 3/1 (गेण्ह) व 2/2 सक [(कुल)-(हर)-(सिरी) 2/1] (विक्कम) 3/1
एक दूसरे को जीतकर शूरवीरता से ग्रहण करें (करता है) पितृ-गृह के वैभव को सामर्थ्य से
गेण्हहु
कुलहरसिरि विक्कमेण
तणुसोहाहसियपुरंदरेहि
(तणु)-(सोहा)-(हसिय) भूकृ-(पुरंदर') 6/1
शरीर की, शोभा के कारण, उपहास किया गया, इन्द्र का उस समय
ता
अव्यय
चिंतिउ
विचारा गया
दोहि
दोनों
(चित-चिंतिअ) भूकृ 1/1 (दो) 3/2 वि अव्यय (सुन्दर) 3/2
भी
सुन्दरेहि
सुन्दर (राजाओं) द्वारा
क्या
(क) 1/1 सवि श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 157
1.
243
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
दुःखी करनेवाले
दूहवियहि णवजोव्वणेण
नवयौवन से
क्या
फलिएण
(दूहव-दूहविय) भूक 7/1 (णव) वि-(जोव्वण) 3/1 (क) 1/1 सवि (फल-फलिअ) भूक 3/1 अव्यय (कडुअ) 3/1 वि 'अ' स्वार्थिक (वण) 3/1
फले हुए
कडुएं वणेण
कड़वे वन से
10.
जे
नहीं
करंति सुहासियई मंतिहि भासियाई णयवयण ताह णरिंदह
(ज) 1/2 सवि अव्यय (कर) व 3/2 सक (सुहासिय) 2/2 (मंति) 3/2 (भास-भासिय) भूक 2/2 (णय)-(वयण) 2/2 (त) 6/2 सवि (णरिंद) 6/2 (रिद्धि) 1/1
.
करते हैं सुन्दर वचनों को मंत्रियों द्वारा कहे हुए नीति-वचनों को उन राजाओं की रिद्धि कहाँ से
अव्यय
कओ कहिं सीहासणछत्तई
कहाँ
अव्यय (सीहासण)-(छत्त) 1/2 (रयण) 1/2
सिंहासन, छत्र
रणयइ
रत्न
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
पाठ -9 जंबूसामिचरिउ
सन्धि
- १
9.8
विणयसिरीए
विनयश्री के द्वारा
कहाणउ
कथानक
सीसइ
(विणयसिरी) 3/1 (कहाणअ) 1/1 (सीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि [(संखिणी)-(निहि) 6/1] (वरइत्त) 4/1 (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि
संखिणिनिहि
कहा जाता है (कहा गया) संखिणी की निधि की दूल्हे के लिए बतलायी जाती है
वरइत्तहो
दीसह
कम्मि
किसी
नगर में
पुरम्मि दरिदे
ताडिउ संखिणि
(क) 7/1 सवि (पुर) 7/1 (दरिद्द) 3/1 (ताड-ताडिअ) भूक 1/1 (संखिणी) 1/1 अव्यय (क) 1/1 सवि (कव्वाडिअ) 1/1 वि (दे)
दरिद्र (स्थिति) के द्वारा ताड़ा हुआ (प्रताड़ित) संखिणी
नाम
कोवि कव्वाडिउ
नामक कोई कबाड़ी
3.
दिणि-दिणि
[(दिण)-(दिण) 7/1] वणे .
(वण) 7/1 1. कव्वाडिअ-कावर उठानेवाला।
प्रतिदिन वन में
245
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
कव्वाडहो धावइ भोयणमत्तु किलेसें
(कव्वाड) 4/1 (धाव) व 3/1 सक [(भोयण)-(मत्त) 2/1] क्रिवि (पाव) व 3/1 सक
कबाड़ीपन के लिए भागता है (था) भोजनमात्र दुःखपूर्वक पाता है (था)
पावइ
भुत्तसेसु
दिवसेसु
कुछ दिनों में
पवनउ
रूवउ
[(भुत्त)-(सेस) 1/1 वि]
भोजन में से बचा हुआ (दिवस) 7/2 (पवन्नअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्राप्त किया गया (रूवअ) 1/1
रुपया (एक्क) 1/1 वि
एक (रोक्क) 1/1 वि (दे)
रोकड़ी (संपन्नअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्राप्त (हासिल) किया गया
एक्कु रोक्कु संपन्नड
5.
महिलसहाएँ रहसे चड्डिउ कलसे
[(महिल-महिला)-(सहाअ) 3/1] (रहस) 7/1 (चड्ड-चड्डिअ) भूकृ 1/1 (कलस) 7/1 (छुह+एवि) संकृ (धरायल) 7/1 (गड्ड-गड्डिउ) भूकृ 1/1
पत्नी के सहयोग से एकान्त में चढ़ा गया कलश में
छुहेवि
रखकर
धरती में
धरायले गड्डिउ
गाड़ दिया गया
अह
रविगहणे
कयावि
अव्यय [(रवि)-(गहण) 7/1] अव्यय (विहाण) 7/1 (चल-चलिय) 1/2
बाद में सूर्यग्रहण के अवसर पर किसी भी समय प्रभात में चले
विहाण. चलियई
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146
अपभ्रंश काव्य सौरभ
246
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________________
तित्थे'
चयवि
नियथा इँ
7.
पूरि हिँ
मणिरयणसुव
अवलोइउ
संखिणिनिहि
अण्णाहिँ
8.
मंतिज्जए
आएण
असारें
खडहडतरुवयसंचारें
9.
जाणाविउ
लोयाण
समग्गा
अम्हइँ
गिहाविज्ज
लग्गा
10.
चितेवि
तम्मि
छुद्ध
निउ
1.
2.
247
(farer) 7/1 (चय + अवि) संकृ
[ ( निय) वि - ( थाण) 2 / 2]
(पूर - पूरिअ) भूकृ 3/2
[(मणि) - ( रयण) - (सुवण्ण) 3 / 2 ] (अवलोअ - अवलोइअ ) भूकृ 1 / 1 [ ( संखिणी) - (निहि) 1 / 1]
( अण्ण) 3 / 2 स
( मंत+इज्ज) व कर्म 3 / 1 सक
(आअ ) भूक 3 / 1 अनि
(असार) 3/1
[(खडहडंत) वकृ- (रूवय) - (संचार) 3 / 1 ]
( जाण + आवि + अ ) प्रे. भूक 1/1
(लोय) 4 / 2 (प्रा)
(स) वि - ( मग्ग ) 27 / 1
(चित+एवि ) संकृ
(त) 7 / 1 स
(छुद्ध) 1/1 वि (दे) (निअ ) 2 / 1 वि
तीर्थ स्थान को
छोड़कर
निज निवासों को
सम्पन्न (के द्वारा)
मणि, रत्न और सोने से
देख ली गयी
संखिणी की निधि
अन्य (व्यक्तियों) के द्वारा
सोचा जाता है (गया)
आये हुये द्वारा
असार
खड़खड़ करते हुए रुपये की गति के कारण
( अम्ह ) 1 / 2 स
हम
(गिण्ह + आवि + इज्ज) प्रे. व कर्म 1 / 2 सकग्रहण कराये जाते हैं लगे हुए
(लग्ग) भूकृ 4 / 2 अनि
बतलाया गया
लोगों के लिए
स्वमार्ग में
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है । (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147
सोचकर
उस (विषय) में
डाल दिया गया
निज
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #259
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________________
भल्लउ
एक्क्कर
मणिरयणु
गरिल्लउ
11.
सो
सं
करेवि
पवत्तइँ
हावि
तित्थे
निययघरु
पत्तइँ
12.
अह
छणदिणि
महिलाए
कहिज्ज
रूवउ
अज्जु
नाह
विलसिज्जइ
13.
संखिणि
खणइ
कलसु
जहिँ
धरियउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(भल्लअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक
[(एक्क) + (एक्कउ)]
[ ( एक्क) - (एक्कअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वा. ]
[(मणि) - ( रयण) 1 / 1 ]
( गरिल्लअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(त) 1 / 1 सवि
( संपुण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि
(कर + एवि ) संकृ
(पवत्त) भूक 1 / 2 अनि
(हा + एवि ) संकृ
(facer) 7/1
( नियय) - (घर) 2/1
( पत्त ) भूकृ 1 / 2 अनि
अव्यय
(छण) - (दिण) 7/1
(महिला) 3 / 1
( कह) व कर्म 3 / 1 सक
(रूवअ) 1/1
अव्यय
( नाह) 8 / 1
( विलस) व कर्म 3 / 1 सक
( संखिणि) 1/1
(खण) व 3 / 1 सक
(कलस) 1/1
अव्यय
-
( धर~ धरिय + धरियअ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
भले को
एक-एक
मणिरत्न
श्रेष्ठ
वह
पूर्ण कर दिया गया
करके
प्रवृत्त हुए
स्नान करके
तीर्थ में अपने घर को
पहुँचे
तब
उत्सव के दिन पर
पत्नी के द्वारा
कहा जाता है (गया)
रुपया
आज
हे नाथ
भोग किया जाता है ( जाए)
संखिणी
खोदता है
कलश
जहाँ पर
रखा गया
248
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________________
दिवउ
ताम
तब
(दिठ्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक देखा गया अव्यय [(कणय)-(मणि)-(भर-भरिय-भरियअ) स्वर्ण तथा मणियों से भरा भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
हुआ
कणयमणिभरियउ
14.
सरहसु
रहसे
उत्साहसहित एकान्त में कहा गया हे प्रिय
कहिउ
पिए
पेक्खहि
देख
(स) वि-(रहस) 1/1 वि (रहस) 1/1 (कह) भूकृ 1/1 (पिअ) 8/1 (पेक्ख) विधि 2/1 सक (अम्ह) 3/1 (सम) 1/1 वि (पुण्णवंत) 1/1 वि (क) 1/1 सवि (लक्ख) विधि 2/1 सक
मई
सम
समान
पुण्णवंतु
को
पुण्यवान कौन समझो
लक्खहि
15. अज्जवि
सिद्धिनएण निहाणे रयमि
अव्यय [(सिद्धि)-(नअ) 3/1] (निहाण) 7/1 (रय) व 1/1 सक (उवाअ) 2/1 (अवर) 2/1 वि [(मइ)-(नाण) 3/1]
आज ही योग शक्ति की युक्ति से खजाने में रचता हूँ उपाय दूसरा बुद्धिज्ञान से
उवाउ अवरु मइनाणे
16.
किंपि
(क) 1/1 सवि
कुछ भी
नहीं
अव्यय (ले) व 1/1 सक
लेता हूँ (लूँगा)
2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 'सम' (समान) के योग में तृतीया होती है।
249
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #261
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________________
करेमि
(कर) व 1/1 सक
करता हूँ (करूँगा)
न
अव्यय
नहीं
खोयणु
खनन हो जायेगा
होसइ कव्वाडेण वि
(खोयण) 2/1 (हो) भवि 3/1 अक (कव्वाड) 3/1 अव्यय (भोयण) 1/1
कबाड़ीपन से
भोयणु
भोजन
17.
अह
कलसेसु छुहेवि एक्केक्का
रखकर
अव्यय
तब (कलस) 7/2
कलशों में (छुह+एवि) संकृ [(एक्क)+(एक्कउ)]
एक-एक को [(एक्क) वि-(एक्कअ) 2/1 'अ' स्वा.] (बहु) 6/1 वि
बहुत [(दविण)+(आसए)] [(दविण)-(आसा) 3/1]
द्रव्य की आशा से (गड्ड+एवि) संकृ
गाड़कर (मुक्कअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक छोड़ दिया गया
दविणासए
गुड्डेवि मुक्कर
18. अण्णहिं
(अण्ण) 7/1 स (पव्व) 7/1
पव्वे
पर्व पर
पुणुवि
अव्यय
पहे.
दिट्टइ
केम
(पह) 7/1 (दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि (पूर) विधि 1/2 सक अव्यय (हियअ) 7/1 अव्यय (पइ8) भूकृ 1/2 अनि
पथ में देखे गये भरें किस प्रकार हृदय में नहीं बैठी
हियए
न
पइट्ठइ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
250
Page #262
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________________
19.
निहिहिँ
रयणु
एक्केक्कर
लइयउ
(निहि) 7/1
निधि में से (रयण) 1/1
रत्न [(एक्क)+(एक्कउ)]
एक-एक [(एक्क)-(एक्कअ) 1/1 वि] (लअ-लइय-लइयअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा.
ले लिया गया (सुण्णअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक खाली (कर+एवि) संकृ
करके (सव्व) 2/1 सवि
सबको (परिचअ-परिचइय-परिचइअ) भूकृ 1/1 छोड़ दिया गया
सुण्णउ करेवि
सव्वु परिचइयउ
20.
अवरहि
दूसरे
(अवर) 7/1 वि (समअ) 7/1
समए
समय
जाम
अव्यय
जब
उघाडइ
रित्तउ नियवि करहिँ सिरु
(उग्घाड) व 3/1 सक
उघाड़ता है (रित्तअ) भूकृ 2/1 अनि 'अ' स्वार्थिक खाली को (निय+अवि) संकृ
देखकर (कर) 3/2
हाथों से (सिर) 2/1 (ताड) व 3/1 सक
सिर
ताडइ
पीटता है
21.
अच्छउ
रयणसमूह
(अच्छ) विधि 3/1 सक [(रयण)-(समूह) 2/1] (सरुवअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक (त) 1/1 सवि अव्यय . (विण8) भूकृ 1/1 अनि
जाने दो रत्नसमूह को सौन्दर्य-युक्त वह
सरूवउ
विणड्डु
नष्ट हो गया
1.
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
251
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
मूल में
(मूल) 7/1 (ज) 1/1 सवि (रूवअ) 1/1
रूवउ
रुपया
22.
साहीणलच्छि
स्वाधीन लक्ष्मी को
नउ
नहीं
भुंजइ
भोगता है
महइ
[(साहीण) वि-(लच्छी) 2/1] अव्यय (भुंज) व 3/1 सक (मह) व 3/1 सक (समग्गल) 2/1 वि [(सग्ग)-(दिहि)12/1] (संखिणि) 6/1
इच्छा करता है
समग्गल
पूर्ण
सग्गदिहि
संखिणिहि
मोक्ष सुख की (को) संखिणी के जिस प्रकार
जेम
अव्यय
दूल्हे के
वरइत्तहो करे लग्गेसइ सुण्णनिहि
(वरइत्त) 6/1 (कर) 7/1 (लग्ग) भवि 3/1 अक [(सुण्ण)-(निहि) 1/1]
हाथ में लगेगी शून्यनिधि
9.11
उसको
निसुणेवि
सुनकर कुमार के द्वारा
कुमारें
वुच्चइ
(त) 2/1 स (निसुण+एवि) संकृ (कुमार) 3/1 (वुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि (विस) 1/1 (साहीण) 1/1 वि अव्यय
कहा जाता है (कहा गया) विष
विसु
साहीणु
अपने पास
क्या
अव्यय
नहीं
दिहि-सुख।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
252
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________________
लहु
अव्यय (मुच्चइ) व कर्म 3/1 सक अनि
शीघ्र छोड़ दिया जाता है
मुच्चइ
2.
रयणिहि
नयरे
सियालु
पइट्ठउ
(रयणि) 7/1
रात्रि में (नयर) 7/1
नगर में (सियाल) 1/1
गीदड़ (पइट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्रविष्ट हुआ (मुअ) भूक 1/1 अनि
मरा हुआ (बलद्द) 1/1
बैल [(रच्छा)-(मुह) 7/1]
मोहल्ले के मुख पर (दिट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक देखा गया
मुउ
वलदु रच्छामुहे दिट्ठउ
3
भक्खंतेण दंत-वणे काणिउँ
(भक्ख-भक्खंत) वकृ 3/1 [(दंत)-(वण) 7/1] (काण-काणिअ) भूकृ 1/1 (रयणि)-(विराम)-(पमाण) 1/1
अव्यय (जाण-जाणिअ) भूकृ 1/1
खाते रहने के कारण दाँतों के समूह से ढीला हो गया रात्रि की समाप्ति की सीमा नहीं जानी गयी
रयणिविरामपमाणु
जाणिउँ
पहाए
(हु-हुअ) भूक 7/1 (पहाअ) 7/1 [(वस)-(आमिस)-(मुज्झ-मुज्झिअ) भूकृ 1/1] [(जण)-(संचार)-(वमाल) 3/1]
होने पर प्रभात बैल के माँस में मोहित
वस-आमिसमुज्झिउ
जणसंचारवमाले
मनुष्यों के आवागमन के कोलाहल से होश में आया (समझा)
बुज्झिउ
(बुज्झ-बुज्झिअ) भूक 1/1
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) यहाँ अनुस्वार का आगम हुआ है। अनुस्वार का अनुनासिक किया गया है।
2.
253
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
भयकंपिरु नीसरिवि
सक्कउ चिंतियमंतु पडेविणु
[(भय)-(कंपिर) 1/1 वि]
भय से कंपनशील (नीसर+इवि) संकृ
निकलकर अव्यय
नहीं (सक्कअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक समर्थ हुआ [(चिंतिय) भूकृ-(मंत) 1/1] विचारी हुई, योजना (पड+एविणु) संकृ
पड़कर (थक्कअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक निश्चेष्ट हुआ
थक्कउ
6.
अप्पउ
अपने को
मुयउ करिवि
दरिसावमि
मरा हुआ बनकर दिखलाता हूँ अवश्य ही वन को
किर
(अप्पअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (मुयअ) भूक 2/1 'अ' स्वार्थिक (कर+इवि) संकृ (दरिस+आव) प्रे. व 1/1 सक अव्यय (वण) 2/1 अव्यय [(निसा)+(आगमि)] [(निसा)-(आगम) 7/1] (पाव) व 1/1 सक
वणु
-11.11111tlari 1.1111#1.11
फिर
पुणुवि निसागमि
रात्रि आने पर
पावमि
चला जाता हूँ (जाऊँगा)
1.
दीसइ
दिवसि मिलिय
(दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि (दिवस) 7/1 (मिल+य) संकृ [(पुर)-(लोअ) 3/1] (एक्क) /1 वि (नर) 31 [(पवड-पंवड्डिय) भूकृ-(रोअ) 3/1]
देखा जाता है (देखा गया) दिन (होने) पर मिलकर नगर के लोगों द्वारा
पुरलोए एक्कें नरेण
एक
मनुष्य के द्वारा बढ़े हुए रोग के कारण
पववियरोएं
ओसहत्थु
औषधि के लिए
[(ओसह+अत्थु' ओसहत्थ) 1/1] अत्थ हेत्वर्थक परसर्ग।
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
काट ली गई
पुच्छ-सकण्णउ
(लुअ) भूकृ 1/1 अनि [(पुच्छ)-(स-कण्णअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (चिंत) व 3/1 सक (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक
चिंतइ जंबुङ अज्ज
पूँछ, कान सहित सोचता है (सोचा) गीदड़
अव्यय
आज
भी
अव्यय (धण्णअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
धण्णउ
भाग्यशाली
जीवेसमि
अपुच्छु विणु कण्णहिं
(जीव) भवि 1/1 अक (अपुच्छ) 1/1 वि अव्यय
(कण्ण
) 3/2
ollabifril:$telne:14
जी लूँगा पूँछरहित बिना कानों से (केवल) एक बार यदि छूटता हूँ (छूट जाऊँ) पुण्यों से
एक्कवार
अव्यय
जई
अव्यय
छुट्टमि पुण्णहिँ
(छुट्ट) व 1/1 अक (पुण्ण) 3/2
10.
बोल्लइ
बोलता है (बोला) अन्य
अवरु
एक
एक्कु कामुयजणु गेण्हमि
(बोल्ल) व 3/1 सक (अवर) 1/1 वि (एक्क) 1/1 वि [(कामुय) वि-(जण) 1/1] (गेण्ह) व 1/1 सक (दंत) 2/1 (कर) व 1/1 सक (वस) 7/1 वि [(पिया पिय)-(मण) 2/1]
कामुक मनुष्य लेता हूँ
दाँत
करमि
वसि..
करता हूँ (करूँगा) वश में प्रिया के मन को
पियमणु
1. 2.
बिना के योग में तृतीया हुई है। समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
255
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
11.
पाहणु
पत्थर लेकर
लेवि
दंत
दाँत
किर
(पाहण) 2/1 (ले+एवि) संकृ (दंत) 2/1 अव्यय (चूर) व 3/1 सक (जाण+इवि) संकृ (जंबुअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (हियअ) 7/1 (बिसूर=विसूर) व 3/1 अक
पादपूरक तोड़ता है
जाणिवि
जानकर
जंबुउ
गीदड़
हियइ
मन (हृदय में) खेद करता है
विसूरइ
12. खंडियपुच्छ-कण्ण
मण्णिय
तिणु
दुक्करु जीवियास
[(खंडिय) भूकृ-(पुच्छ)-(कण्ण) 1/1] काटे गये, पूँछ कान (मण्ण-मण्णिय) भूकृ 1/1
मानी गई (तिण) 1/1 वि
तुच्छ (दुक्कर) 1/1 वि
कठिन [(जीविय)+ (आस)]
जीने की आशा (उम्मीद) [(जीविय)-(आसा) 1/1] (दंत) 3/2
दाँतों के अव्यय
बिना
दंतहिँ
विणु
13. चिंतवि
सोचकर
मुक्कु
म्लान
धाउ
जव-पाणे
(चिंत+अवि) संकृ (मुक्क) भूकृ 1/1 अनि (धा-धाअ) भूक 1/1 [(जव)-(पाण) 3/1] (लइ-लइअ) भूकृ 1/1 (कंठ) 7/1 [(हरि)-(सरिस) 3/1 वि] (साण) 3/1
लइउ कंठे
भागा वेग से, प्राणसहित पकड़ लिया गया मुँह (कंठ) में सिंह के समान कुत्ते के द्वारा
हरिसरिसें
साणे
14.
मारिउ
(मार-मारिअ) भूकृ 1/1
मार दिया गया
अपभ्रंश काव्य सौरभ
256
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________________
ताम
जाण
कयनाए
अव्यय
उस समय (जाण) विधि 2/1 सक
समझो (कयन- (स्त्री) कयना) 3/1
मार डालने के कारण (खद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ',स्वार्थिक खा लिया गया (मिल+इवि) संकृ
मिलकर [(सुणह)-(समवाअ) 3/1] कुत्ते के समूह द्वारा
खद्धउ
मिलिवि
सुणहसमवाएं
15.
इय
अव्यय
इस प्रकार विषयों में अन्धा
विसयंधु
मूढ़
अच्छा
[(विसय)+(अंधु)] [(विसय)- (अंध) 1/1 वि] (मूढ) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि (अच्छ) व 3/1 अक (कवण) स-(भंति) 1/1 (त) 1/1 सवि (पलय) 6/1 (गच्छ) व 3/1 सक
रहता है क्या, सन्देह
कवणभंति
वह
पलयहो।
नाश को पाता है
गच्छइ
10.11
जंबूसामि
कहाणउ
साहइ
वाणिउ कोवि.
(जंबूसामि) 1/1
जंबूस्वामी (कहाणअ) 2/1
कथानक (साह) व 3/1 सक
कहता है (कहते हैं) (वाणिअ) 1/1
वणिक (क) 1/1 सवि (परोहण) 2/1
जहाज (वाह) व 3/1 सक
ले जाता है (ले गया) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
कोई
परोहणु
वाहइ
1.
257
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
गया
गउ परतीरे
दूसरे किनारे पर पृथ्वी के धन के तुल्य
पुहइधण-तुल्लउ
(गअ) भूक 1/1 अनि [(पर) वि-(तीर) 7/1] [(पुहइ)-(धण)-(तुल्लअ) 1/1 वि। 'अ' स्वार्थिक (एक्क) 1/1 वि अव्यय (रयण) 1/1 (किण-किणिअ) भूक 1/1 (बहुमोल्लअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
एक्कु जि
एक
रयणु किणिउ बहुमोल्लउ
रत्न खरीदा गया बहुमूल्य
चडिवि
चढ़कर
पोइ
लंधइ सायरजलु आवंतउ
जहाज पर पार करता है (पार किया) सागर के जल को
(चड+इवि) संकृ (पोअ) 7/1 (लंध) व 3/1 सक [(सायर)-(जल) 2/1] (आ-आवंत आवंतअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (चिंत) व 3/1 सक (मण) 7/1 (मंगल) 2/1 वि
चिंतइ
पहुँचते हुए सोचता है (सोचने लगा) मन में
मणे .
मंगल
45
जब
वेलाउलु
अव्यय (वेलाउल) 2/1 (पाव) व 1/1 सक
पावमि तहि
अव्यय
पुणु
बन्दरगाह को पहुँचता हूँ (पहुँचूँगा) वहाँ फिर बेचता हूँ (बेचूंगा) इस माणिक, रत्न (को) अत्यधिक कीमतवाले
विक्कमि
अव्यय (विक्क) व 1/1 सक (एअ) 2/1 सवि (माणिक्क) 2/1 (महागुण) 2/1 वि
एउ माणिक्कु
महागुणु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
5. हरि-करि
घोड़े व हाथी
किणवि
खरीदकर
बर्तन (भांडा) नाना प्रकार के
[(हरि)-(करि) 2/1] (किण+अवि) संकृ (भंड) 2/1 (नाणविह) 2/1 वि (घर) 2/1 (जाअ) भवि 1/1 सक [(निव)-(संपया-संपय')-(निह') 2/1 वि]
नाणाविहु घरु जाएसमि निवसंपयनिहु
घर
जाऊँगा
राजा की सम्पदा के समान
अह
अव्यय
तब
हत्थाउ गलिउ
हाथ से निकल गया
दरनिद्दहो
अल्प निद्रा में
पडिउ
(हत्थ) 5/1 (प्रा.) (गलगलिअ) भूकृ 1/1 (दर)+ (निद्दहो) दरअव्यय (निद्दा) 6/1 (पड-पडिअ) भूकृ 1/1 (रयण) 1/1 (त) 1/1 सवि (मज्झ) 7/1 (समुद्द) 6/1
पड़ा
रयणु
रत्न
वह
मज्झे
भीतर (अन्दर) समुद्र के
समुद्दहो
तरियहु
अरे, अरे
धाहावइ (धाहाव) व 3/1 अक
हाहाकार मचाता है (मचाया) (तर-तरिय) भूकृ 4/1
तैरे हुए (लोगों) के लिए दीहरगिरु
[(दीहर) वि-(गिर) 2/1] | ऊँची आवाज हा-हा
अव्यय जाणवत्तु (जाणवत्त) 1/1
जहाज 1. समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाया करता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) 2. . निह-समान।
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
259
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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किज्जउ
किया जाए
(कि-किज्ज) विधि कर्म 3/1 सक (थिर) 1/1 वि
थिरु
स्थिर
8.
गिरा
यहाँ
निवडिउ एत्थु रयणु अवलोयहो
(निवड-निवडिअ) भूक 1/1 अव्यय (रयण) 1/1 (अवलोय) 4/1 (त) 2/1 स (आण+एवि) संकृ अव्यय (अम्ह) 4/1 (ढोय) 8/2 वि (दे)
अवलोकन के लिए उसको
आणेवि
लाकर
पुणुवि
फिर
मह
मेरे लिए हे उपस्थित (लोगों)
ढोयहो 9. सायरे
सागर में लुप्त हुआ
वहंतहो पोयहो' कहिँ
चलते हुए जहाज में
(सायर) 7/1 (नट्ठ) भूक 1/1 अनि (वह-वहंत) वकृ 6/1 (पोय) 6/1
अव्यय (लब्भइ) व कर्म 3/1 सक अनि (माणिक्क) 1/1 (पलोय) 8/2
कहाँ
प्राप्त किया जाता है (जाएगा)
लब्भइ माणिक्कु पलोयहो
हे देखनेवाले (मनुष्यों)
10.
यह
मणुयजम्मु माणिक्कसमु रइसुहनिद्दावसजायभमु
(इअ) 1/1 सवि [(मणुय)-(जम्म) 1/1] [(माणिक्क)-(सम) 1/1 वि] [(रइ)-(सुह)-(निद्दा)-(वस)-(जाय) भूकृ-(भम) 1/1] [(संसार)-(समुद्द) 7/1] (हराविय-हरावियअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
मनुष्य जन्म रत्न के समान रतिसुखरूपी निद्रा के वश में हुआ भ्रमण संसार समुद्र में
संसारसमुद्दि हरावियउ
हराया गया
अपभ्रंश काव्य सौरभ
260
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________________
जोयतु
(जोय-जोयंत) वकृ 1/1
देखता हुआ (खोजता हुआ) किस प्रकार
केम
अव्यय
अव्यय
फिर
पुणु लहमि
प्राप्त करता हूँ (पाऊँगा)
(लह) व 1/1 सक (अम्ह) 1/1 स
261
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
पाठ - 10 सुदंसणचरिउ
सन्धि
- 2
2.10
आयण्णि
(आयण्ण) विधि 2/1 सक (पुत्त) 8/1
पुत्त
सुनो हे पुत्र जिस प्रकार आगम में
जह
अव्यय
आगमे
(आगम) 7/1
सातों
वि
ही, सभी
(सत्त) 1/2 वि अव्यय (वसण) 1/2 (वुत्त) भूकृ 1/2 अनि
वसण
व्यसन
वृत्त
कहे गये (समझाये गये)
सप्पाइ
दुक्खु
इह
यहाँ
दिति
[(सप्प)+(आइ)] [(सप्प)-(आइ) 1/2] सर्प आदि (दुक्ख) 2/1
दुःख को अव्यय (दा) व 3/2 सक
देते हैं (एक्क) 7/1 वि
एक (भव) 7/1
जन्म में (दुण्णिरिक्ख) 2/1 वि
कठिनाई से विचार किये जानेवाले
एक्कर
भवे दुण्णिरिक्खु
1. 2.
संख्यावाचक शब्दों के पश्चात् प्रयुक्त होने पर 'समस्तता' का अर्थ होता है। शून्य विभक्ति, श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147
अपभ्रंश काव्य सौरभ
262
Page #274
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________________
3.
विसय
वि
ण
भंति
जम्मंतरकोडिहिँ
दुहु
जणंति
4.
चिरु
रुद्ददत्तु
णिवडिउ
यावे
विसयजुत्तु
5.
वदु
आयरेण
जो
ླ 4,
रमइ
जूउ
बहुफ्फ
6.
सो
च्छोहतु
आहण
जणणि
सस
धरिणि
263
(farer) 1/2
अव्यय
अव्यय
(sifa) 1/1
[ ( जम्म) + (अन्तर) + (कोडिहिँ) ] [ ( जम्म) - ( अन्तर) - (कोडि) 7 / 2 वि]
(दुह) 2/1
(जण) व / 32 सक
अव्यय
(रुदत्त) 1 / 1
(णिवड- णिवडिअ ) भूकृ 1 / 1
[(णरय) + (अण्णवे)]
[ ( णरय) - ( अण्णव) 7 / 1]
( विसय) - ( जुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
(वढ) 1 / 1 वि
क्रिविअ
(ज) 1 / 1 सवि
(रम) व 3 / 1 सक
(जूअ ) 2/1
[ ( बहु) वि - ( डफ्फर) 3 / 1 ]
(त) 1 / 1 सवि
[ ( च्छोह) - ( जुत्त) भूक 1 / 1 अनि ]
( आहण ) व 3 / 1 सक
( जणणी) 2/1
( ससा ) 2/1
(front) 2/1
विषय
किन्तु
नहीं
सन्देह
करोड़ों जन्मों के अवसर पर
दुःख
उत्पन्न करते ( रहते हैं
दीर्घकाल के लिए
रुद्रदत्त
पड़ा
नरकरूपी समुद्र में
विषयों में लीन
मूर्ख
उत्साहपूर्वक
जो
खेलता है
जुआ
?
वह
रोष से युक्त हुआ
कष्ट देता है
माता
बहन
पत्नी
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #275
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________________
(पुत्त) 2/1
पुत्र को
जुआ
खेलते हुए
नल ने
तहय जुहिडिल्लु विहुरु
(जूय) 2/1 (रम-रमंत) वकृ 1/1 (णल) 1/1 अव्यय (जुहिछिल्ल) 1/1 (विहुर) 2/1 (पत्त) भूकृ 1/1 अनि
और इसी प्रकार युधिष्ठिर ने
कष्ट
पतु
पाया
8.
मंसासणेण
मांस खाने के कारण
वड्ढेइ
बढ़ता है
[(मंस)+(असणेण)] [(मंस)-(असण) 3/1] (वड) व 3/1 अक (दप्प) 1/1 (दप्प) 3/1 (त) 3/1 सवि
दप्पु
अहंकार
दप्पेण
अहंकार के कारण
तेण
उस
9.
अहिलसइ मज्जु
इच्छा करता है मद्य की (को)
जुआ
(अहिलस) व 3/1 सक (मज्ज) 2/1 (जूअ) 2/1 अव्यय (रम) व 3/1 सक [(बहु) वि-(दोस)-(सज्जु) 2/1]
भी खेलता है बहुत सी बुराइयों में गमन
बहुदोससज्जु
10.
फैलता है
अपयश
पसरइ अकित्ति तें-तें कज्जें-कज्जें
(पसर) व 3/1 अक (अकित्ति) 1/1 (त) 3/1 सवि (कज्ज) 3/1 सवि
उस
कारण से
1.
सर्जु-सज्जु गमन, अनुसरण, (संस्कृत-हिन्दी कोश, आप्टे)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
264
Page #276
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________________
कीरइ
तहो
(कीरइ) व कर्म 3/1 सक अनि (त) 5/1 स (णिवित्ति) 1/1
की जानी चाहिए उससे निवृत्ति
णिवित्ति
11.
मांस
जंगलु असंतु
खाते हुए
वणु
वन
(जंगल) 2/1 (अस-असंत) वकृ 1/1 (वण) 1/1 (रक्खम) 1/1 (मार-मारिअ) भूकृ 1/1 (णरअ) 7/1 (पत्त) भूकृ 1/1 अनि
रक्खसु मारिउ
राक्षस
मारा गया
णरए
नरक
पाया
12. मइरापमत्तु
[(मइरा)-(पमत्त) भूकृ 1/1 अनि]
मदिरा के कारण नशे में चूर
हुआ
कलहेप्पिणु हिंसइ इट्ठमित्तु
(कलह+एप्पिणु) संकृ (हिंस) व 3/1 सक [(इ8)-(मित्त) 2/1]
झगड़ा करके कष्ट पहुँचाता है प्रिय मित्र को
13.
रच्छहे पडेइ उब्भियकरु
(रच्छा ) 6/1 (पड) व 3/1 अक [(उन्भ-उब्भिय) संकृ-(कर) 2/1] (विहलंघल) 1/1 वि (णड) व 3/1 अक
राजमार्ग पर गिर जाता है ऊँचा करके, हाथ को उन्मत्त शरीरवाला नाचता है
विहलंघलु
णडेइ
14.
होता
होते हुए
(हो-होंत) वकृ 1/2 यह विधि-अर्थ में भी प्रयुक्त होता है, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 121 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 248 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
265
अपभ्रंश काव्य सौरभ .
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________________
सगव्व
गय
जायव
मज्जै मज्जें
खयहो'
सव्व
15.
साइि
to
व
वेस
रत्ताघरसण
दरिसइ
सुवेस
16.
तो
जो
वसेइ
सो
कायरु
उच्छिट्ठउ
असेइ
--
17.
वेसापम
णिद्धणु
हुउ
इह
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(सगव्व) 1 / 2 वि
( गय) भूक 1/2 अनि
( जायव) 1/2
(मज्ज) 3 / 1
( खय) 6 / 1
( सव्व) 1 / 2
(साइणी) 1 / 1
अव्यय
(वेसा) 1 / 1
[ ( रत-र
- रक्त- रक्तार) - (घरिसण) 2/1]
(दरिस) व 3/1 सक
( सुवेस) 2 / 1
(त) 6/1 स
(ज) 1 / 1 सवि
(वस ) व 3 / 1 अक
(त) 1 / 1 सवि
(कायर) 1 / 1 वि
(उच्छिट्ठअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक
(अस) व 3 / 1 सक
[ ( वेसा) - ( पमत्त) भूकृ 1 / 1 अनि ]
(णिद्धण) 1 / 1 वि
( हु - हुअ ) भूकृ 1 / 1
अव्यय
घमण्डी
प्राप्त हुए
यादव
मदिरा के कारण
विनाश को
सभी
पिशाचिनी
की तरह
वेश्या
खून का घर्षण
दिखाती है
सुन्दर वेश
उसके
जो
रहता है
वह
अस्त-व्यस्त
जूठन खाता है
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ हो जाते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
वेश्या में मस्त हुआ
धनरहित
हुआ
यहाँ
266
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________________
वणि चारुदत्तु
18.
htt
परम्मुह
छुट्ट
19.
संतु
जे
सूर
होति
सवरा
nosot
हु
वि
सो
णउ
हति
20.
वर्णे
तिण
चरंति
णिसुवि
खड्डूकउ
णिरु
ति
21.
वणमयउलाई
267
(वणि) 1 / 1 वि
( चारुदत्त) 1 / 1
[ ( कय) भूक अनि - ( दीण) fa-(au) 1/1]
( णास) वकृ 1 / 1
(परम्मुह ) 1 / 1 वि
[(छुट्ट) भूक अनि - (केस) 1 / 1]
(ज) 1/2 सवि
(सूर) 1/2 वि
(हो) व 3/2 अक
( सवर) 1 / 2
अव्यय
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
(त) 1 / 2 सवि
अव्यय
(हण) व 3 / 2 सक
(वण) 7/1
(farm) 2/1
(चर) व 3 / 2 सक
(णिसुण + एवि)
संकृ
(खड्ढकअ ) 2 / 1
अव्यय
(डर) व 3 / 2 अक
[ ( वण) - (मय) - (उल) 2 / 2]
व्यापारी
चारुदत्त
बना दिया गया, दयनीय,
वेश
दूर हटाती हुई विमुख
काट दिये गये, बाल
जो
वीर
होते हैं
शबरों का
चाहे
वह
वे
नहीं
मारते हैं
वन में
घास
चरते हैं
सुनकर
खड़खड़ आवाज
निश्चित
डर जाते हैं
वन में रहनेवाले मृगों के
समूह को
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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किह
अव्यय
क्यों
हणइ
मारता है
मूद
मूर्ख
किउ
(हण) व 3/1 सक (मूढ) 1/1 वि (कि-किंअ) भूकृ 1/1 (त) 3/2 स (किं) 1/1 स
किया गया
उनके द्वारा
क्या
तेहिँ-तेहिं काइँ-काई 22. पारद्धिरत्तु
शिकार का प्रेमी
चक्कवइ
चक्रवर्ती
णरए'
[(पारद्धि)-(रत्त) भूकृ 1/1 अनि] (चक्कवइ) 1/1 (णरअ) 7/1 (गअ) भूकृ 1/1 अनि (बंभयत्त) 1/1
नरक में (को)
गउ
गया
बंभयत्तु
ब्रह्मदत्त
23.
चल
चंचल
चोरु
चोर
गुरुमायवप्पु
(चल) 1/1 वि (चोर) 1/1 (धिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि [(गुरु)-(माया) -(बप्प) 2/1] (माण) व 3/1 सक अव्यय (इ8) भूकृ 1/1 अनि
निर्लज्ज गुरु, माँ और बाप को मानता है
माणइ
नहीं
आदरणीय
24. णियभुयवलेण
वंच
[(णिय) वि-(भुय)-(बल) 3/1] (वंच) व 3/1 सक (त) 2/2 स (अवर) 2/2
निज भुजाओं के बल से ठगता है उनको
अवर
दूसरों को
अव्यय
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135). माया-माय, समासगत शब्दों में रहे हुए स्वर परस्पर में दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाते हैं। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
268
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________________
छलेण
25.
भयकूवि
छूदु
णउ
द्दिभुक्खु
पावेइ
मूदु
26.
पद्धडिय
एह
सुपसिद्धी
णामें
विज्जलेह
27.
पावेज्जइ
बंधेवि
णिज्जइ
वित्थारेवि
रहे
चच्चरे
दंडिज्जइ
तह
खंडिज्जइ
मारिज्जइ.
पुरवाहिरे
1.
2.
269
(त) 1 / 1 सवि
(छल) 3 / 1
[ (भय) - ( कूव) 7 / 1 ] (छुढ) भूक अनि 1 / 1 वि
अव्यय
[ (णि) - (भुक्ख ) 2 / 1]
(पाव) व 3 / 1 सक
( मूढ) 1 / 1 वि
(पद्धडिया) 1/1
(एआ) 1/1 सवि
(सुपसिद्धि) 1/1
( णाम) 3 / 1
(विज्जलेहा ) 1 / 1
(पाव) ' व कर्म 3 / 1 सक
(बंध + एवि ) संकृ
(णी) व कर्म 3 / 1 सक
( वित्थार + एवि ) संकृ
(रह) 7/1
(चच्चर) 7/1
(दंड) व कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
(खंड) व कर्म 3 / 1 सक
(मार) व कर्म 3 / 1 सक
[ (पुर) - ( वाहिर ) 7 / 1 वि]
प्र-आप्-पाव = पकड़ लेना, (आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोष ) ।
टिप्पण, सुंदसणचरिउ, 2.10, पृष्ठ 268
वह
जालसाजी से
संकटरूपी कुए में
डाला हुआ
नहीं
निद्रा और भूख को
पाता है
मूढ़
पद्धडिया छन्द
यह
ख्याति
नाम से
विद्युल्लेखा
पकड़ा जाता है
बाँधकर
ले जाया जाता है।
फैलाकर
मुख्य मार्ग चौराहे पर
दण्डित किया जाता है
तथा
काटा जाता है।
मारा जाता है
शहर के बाहरी भाग में
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
2.11
परवसुरयहो
[(पर) -(वसु)-(स्य)' 6/1]
अंगारयहो सूलिहिँ-सूलिहिं भरणं जायं
(अंगारय)' 6/1 (सूली) 7/1 (भरण) 1/1 वि (जाय, भूकृ 1/1 अनि (मरण) 1/1
परद्रव्य में अनुरक्त होने के कारण अंगारक के द्वारा सूली पर धारण करनेवाला प्राप्त किया गया
मरणं
मरण
इसको
णिएवि
जानकर
(इम) 2/1 सवि (णिअ) संकृ (जण) 1/1 अव्यय
जणो
मनुष्य
उस समय
अव्यय
भी
मूढमणो
सूख
चोरी
चोरी
करइ
(मूढमण) 1/1 वि (चोरी) 2/1 (कर) व 3/1 सक अव्यय (परिहर) व 3/1 सक
करता है
जउ
णउ
नहीं
परिहरइ
छोड़ता है
(ज) 1/1 सवि [(पर) वि-(जुवइ) 2/1]
परजुवइ
जो अन्य की स्त्री को लोक में चाहता है
अव्यय
अहिलसइ
(अहिलस) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि
वह
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
णीससइ
गायब
(णीसस)1 व 3/1 सक (गा-गाय) व 3/1 सक (हस) व 3/1 सक
लालायित रहता है प्रशंसा करता है मिलता-जुलता है
हसई
सहिऊण
सहकर
जए
जगत में
णिवडइ
गिरता है नरक में
णरए होऊ
(सह) संकृ (जअ) 7/1 (णिवड) व 3/1 अक (णरअ) 7/1 (होअ) भूक 1/1 (अबुह) 1/1 वि (रामण) 1/1 (पमुह) 1/1 वि
हुआ अज्ञानी
अबुहा
रामण
रावण
पमुहा
आदरणीय, श्रेष्ठ
S.
परयाररया
चिरु
खयहो
गया
सत्त वि
[(पर) वि-(यार)-(स्य) भूकृ 1/1 अनि] पर स्त्री में अनुरक्त हुआ अव्यय
आखिरकार (खय) 6/1
विनाश को (गय) भूकृ 1/1 अनि
गया (सत्त) 1/2 वि
सातों अव्यय
समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त (वसण) 1/2
व्यसन (एअ) 1/2 सवि (कसण) 1/2 वि
अनिष्टकर
वसणा
कसणा
निश्वस्=णीसस लालायित होना, मोनियर विलियम, संस्कृत-अंग्रेजी कोष (देखें-श्वस्)। हस्=मिलना-जुलना, (आप्टे, संस्कृत-हिन्दी कोष)। मात्रा के लिए 'उ' को 'ऊ' किया गया है। कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
8.7
1.
अन्य
इयरहँ- इयरह दिव्वाहरणहँ-दिव्वाहरणहं
सुन्दर आभूषणों के
(इयर) 6/2 वि [(दिव्व)+(आहरणह)] [(दिव्व)-(आहरण) 6/2] (पास-पासिअ) भूक 1/1 (सील) 1/1
पासिउ
जाना गया (समझा गया) शील
सीतु
अव्यय
जुवइहे
युवती का
मंडणु
(जुवइ) 6/1 (मंडण) 1/1 (भास) भूकृ 1/1
आभूषण
भासिउ
कहा गया
2.
हरिवि
णीय
हरण करके ले जाई गई जो जैसा कि बतलाया जाता है
जा
किर
(हर+इवि) संकृ (णीय) भूकृ 1/1 अनि (जा) 1/1 सवि
अव्यय (दहवयण) 3/1 (सील) 3/1 (सीया) 1/1 (दड्ड) भूक 1/1 अनि
दहवयणे-दहवयणे
रावण के द्वारा
सीलें-सीलें
शील के कारण
सीय
सीता
जलाई गई
अव्यय
नहीं
णउ जलणें-जलणे
(जलण) 3/1
अग्नि के द्वारा
तह
उसी प्रकार
अणंतमइ
अनन्तमती
अव्यय (अणंतमइ) 1/1 [(सील)-(गुरु)-(क्किय) भूकृ 1/1 अनि]
सीलगुरुक्किय
कठोर शील धारण की हुई
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
(खग)-(किराय)-(उवसग्ग) 6/1
खगकिरायउवसग्गहँखगकिरायउवसग्गह चुक्किय
विद्याधरों और किरात के उपद्रव से रहित हुई
(चुक्क) भूकृ 1/1
रोहिणि
खरजलेण संभाविय सीलगुणेण
(रोहिणि) 1/1 [(खर) वि-(जल) 3/1] (संभाविय) भूकृ 1/1 अनि [(सील)-(गुण) 3/1] (णई) 3/1 अव्यय (वह -- (प्रे.) वहाव- (भूकृ) वहाविय- वहाइय--(स्त्री) वहाइया) भूकृ 1/1
रोहिणी तेज धारवाले जल में डुबोई गई शील गुण के कारण नदी के द्वारा नहीं बहाई गयी
णइए
वहाइय
5.
हरि-हलि-चक्कवद्दिजिणमायउ
[(हरि)-(हलि)-(चक्कवट्टि)-(जिण)(माआ) 1/2] अव्यय
नारायण, बलदेव, चक्रवर्ती तथा तीर्थंकरों की माताएँ आज
अज्जु
वि
अव्यय
भी
तीन लोक में
तिहुयणम्मि विक्खायउ
(ति-हुयण) 7/1 (विक्खाया) भूकृ 1/2 अनि
प्रसिद्ध
एयउ सीलकमलसरहंसिउ
फणिणरखयरामरहिँफणिणरखयरामरहिं
(एया) 1/2 सवि [(सील)-(कमल)-(सर)-(हंसी) 1/2] शीलरूपी कमल-सरोवर की
हंसिनी [(फणि)+(णर)+ (खयर)+(अमरहिँ)] नागों, मनुष्यों, आकाश में [(फणि)-(णर)-(ख-यर)-(अमर) 3/2] चलनेवाले (विद्याधरों) और
देवों द्वारा (पसंस- (स्त्री) पंससी) 1/2 वि प्रशंसित
पसंसिउ
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)। कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)।
273
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
7.
जणणि
A
छारपूंजु
वरि
जायउ
णउ
कुसीलु
8.
सीलवंतु
सलहिज्जइ
सीविवज्जिएण
किं
किज्जइ
9.
इय
मा
ए
-
मा
सीलु
परिपालिज्जए
9.
वि
महासइ
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
( जणणि) 8 / 1
अव्यय
[(छार) - (पुंज) 1 / 1]
अव्यय
( जा + जाअ ' -जाय) विधि 3 / 1 अक
अव्यय
(कुसील) 1/1
[(मयणेण) + (उम्मायउ ) ] (मयण) 3 / 1 (उम्मायअ ) 1 / 1 वि
( सीलवंत ) 1 / 1 वि
( बुहयण) 3 / 1
( सलह ) व कर्म 3 / 1 सक [(सील) - (विवज्जिअ ) 3 / 1] (किं) 1/1 सवि
(किज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
(इअ ) 2 / 1 स
( जाण+ + एविणु) संकृ
(सील) 1 / 1
( परिपाल + इज्ज) व कर्म 3 / 1 सक
(मा) 8/1
अव्यय
( महासइ ) 8/1
अव्यय
अव्यय
माता
हे (आमंत्रण का चिह्न)
राख का ढेर
अधिक अच्छा
हो जाए
नहीं
कुशील
कामवासना के कारण,
पागलपन पैदा करनेवाला
(उन्मादक)
शीलवान
विद्वान व्यक्ति के द्वारा
प्रशंसा किया जाता है
शीलरहित होने से
क्या
सिद्ध किया जाता है
इसको
समझकर
शील
पालन किया जाता है
माता
हे
अकारान्त धातुओं के अतिरिक्त शेष स्वरान्त धातुओं में अ (य) विकल्प से जुड़ता है, अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृष्ठ 265
महा
है
तो
274
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________________
लाहु णियंतिहे
लाभ देखते हुए हे सखी
हले
(लाह) 1/1 (णिय-णियंत--णियंती) वकृ 6/1 (हला) 8/1 [(मूल)-(छेअ) 1/1] (तुम्ह) 6/1 स (हो) भवि 3/1 अक
मूलछेउ
आधार का नाश
आपका हो जायेगा
होसइ
अव्यय
नहीं
फिट्टइ पेयवणे
दूर होता है श्मशान से इस लोक में
गिद्ध
गिद्ध
(फिट्ट) व 3/1 अक (पेयवण) 7/1 अव्यय (गिद्ध) 1/1 अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (पंकअ) 7/1 (भिंग) 1/1 (पइट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
फिट्टइ
नहीं दूर होता है कमल में भौंरा
पकए
भिंगु
घुसा हुआ
नहीं
फिट्टइ तुंबरणारयगेउ
अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक [(तुबर)-(णारय)-(गेअ) 1/1] अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक
छूटता है नारद के तंबूरे का गीत नहीं नष्ट होता है
फिट्टइ
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136)
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
पंडियलोयविवेउ
3.
ण
फिट्टइ
दुज्ज
दुःसहाउ
ण
फिट्टइ
द्धिचित्ते
विसाउ
4.
ण
फिट्टइ
लोहु महाधणवते
15
ण
फिट्टइ
मारणचितु
कयंते
5.
ण
फिट्टइ
जोव्वणइत्ते
मरट्टु
ण
फिट्टइ
वल्लहे
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[(पंडिय) - (लोय) - (विवेअ) 1 / 1 ]
अव्यय
(फिट्ट) व 3/1 अक
(दुज्जण) 17/1
[ ( दुट्ठ) भूकृ अनि - (सहाअ ) 1 / 1 ]
अव्यय
(फिट्ट) व 3/1 अक
[ ( णिद्धण) - (चित्त) 7 / 1]
(fa37) 1/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(लोह) 1 / 1
( महाधणवंत ) 17 / 1 वि
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
[ ( मारण) - (चित्त) 1 / 1]
( कयंत ) ' 7/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3/1 अक
( जोव्वण - इत्त) 1 7 / 1 वि
( मरट्ट) 1/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक (वल्लह) 7/1
ज्ञानी समुदाय का विवेक
नहीं
ओझल होता है।
दुर्जन से
दुष्ट स्वभाव
नहीं
समाप्त होती है
निर्धन के चित्त से
चिन्ता
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136)
नहीं
जाता है
लोभ
महाधनवान से
नहीं
दूर होता है
मारने का भाव
यमराज से
नहीं
हटता है
यौवनवान से
अहंकार
नहीं
विचलित होता है
प्रेमी में
276
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________________
चित्तु चहुटु
6.
ण
फिट्टइ
विझि
महाकरिजूहु
ण
फिट्टइ
सासए
सिद्धसमूह
7.
ण
फिट्टए
पाविहे
पावकलंकु
ण
फिट्टए
झ
8.
ण
फिट्टए
आय
जो
चित्
असगाहु
छंदु
वि
मोत्तियदामउ
एहु
277
(चित्त) 1/1
(चट्ट) 1/1 वि
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(विंझ ) ' 7/1
[ (महा) वि - ( करि ) - ( जूह) 1 / 1 ]
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(सासअ ) 7/1
[ ( सिद्ध) - (समूह) 1 / 1]
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(पावि) 5 / 1
[ (पाव) - ( कलंक) 1 / 1]
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(कामुय ) - (चित्त) 7/1
( झसंक) 1/1
अव्यय
(फिट्ट) व 3 / 1 अक
(आय) 5 / 1
(ज) 1 / 1 सवि
( असगाह ) 1 / 1
(सुछंद) 1/1
अव्यय
(मोत्तियदामअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक (अ) 1 / 1 सवि
मन
लगा हुआ
नहीं
नीचे आता है
विन्ध्य पर्वत से
महान हाथियों का समूह
नहीं
रहित होता है।
शाश्वत से
सिद्धों का समूह
नहीं
छूटता
पापी से
पाप का कलंक
नहीं
हटता है
कामुक चित्त से
कामदेव
है
नहीं
हटता है (हटेगा )
मन से
जो
कदाग्रह
छंद
ही
मौक्तिकदाम
.
यह
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
अहवा
अव्यय
अथवा
अव्यय
जहाँ
जिह
अव्यय
जिस प्रकार
जेण
(ज) 3/1 स
जिसके द्वारा
किर
अव्यय
पादपूरक
जिह
अव्यय
जैसी
अवसमेव होएवउ
अव्यय (हो-होएवउ) विधि कृ. 1/2 अव्यय
अवश्य ही उत्पन्न की जानी चाहिए (जायेंगी)
तं
वहाँ
तिह
अव्यय
उसी प्रकार
तेण
उसके द्वारा
देसिएण
(त) 3/1 सवि अव्यय (देहिअ) 3/1 अव्यय (एक्कंग) 3/1 वि [(सह-सहेवउ) विधि कृ. 1/2]
एक्कंगेण सहेवउ
व्यक्ति के द्वारा वैसे अकेले सही जानी चाहिए (सही जायेंगी)
8.32
1.
सुलहउ
पायालए
सुप्राप्य पाताल में सों का स्वामी स्वाभाविक
णायणाहु
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (पायालअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक [(णाय)-(णाह) 1/1] (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(काम)+(आउरे)] [(काम)-(आउर) 7/1 वि] [(विरह)-(डाह) 1/1] |
सुलहउ
कामाउरे
काम से पीड़ित में विरह का संताप
विरहडाहु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
278
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________________
2.
सुलहउ
णवजलहरे
जलपवाहु
सुलहउ
वइरायरे
वज्जलाहु
3.
सुलहउ
कस्सीए
घुसिणपिंडु
सुलह
माणससरे
कमलसंडु
4.
सुलहउ
दीवंतरे
विविहभंडु
सुलहउ
पाहाणे
हिरणखंडु
5.
सुलहउ
मलयायले
सुरहिवाउ
1.
279
( सुलहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
[ ( णव) वि - (जलहर) 1 / 1]
[ (जल) - ( पवाह ) 1 / 1]
( सुलहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
[(वर) + (आयरे)]
[ ( वइर) - (आयर) 7 / 1]
[ ( वज्ज) - (लाह) 1 / 1]
( सुलहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(कस्सीरअ ) 7/1 'अ' स्वार्थिक
[ ( घुसिण) - (पिंड) 1 / 1]
( सुलहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( माणससर) 7/1
( कमल) - (संड) 1/1
( सुलहअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( पाहाण) 7/1
[(हिरण्ण) - (खंड) 1 / 1]
(सुलहअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
[(मलय) + (अयले )]
[ ( मलय) - ( अयल) 1 7 / 1] [ ( सुरहि) वि - (वाउ) 6 / 1]
सरल
नये बादल में
जल का प्रवाह
आसान
हीरे की खान में
हीरे की प्राप्ति
( सुलहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
सुप्राप्य
[ ( दीव) + (अंतरे ) ] [ ( दीव) - (अंतर) 7/1] द्वीपों के अन्दर
[ ( विविह) - ( भंड) 1 / 1]
सुलभ
कश्मीर में
केसरपिंड
सुलभ
मानसरोवर में कमलों का समूह
नाना प्रकार की व्यापारिक
वस्तुएँ
सुलभ
पत्थर में
सोने का अंश
स्वाभाविक
कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-136)
मलय पर्वत से
सुगन्धयुक्त वायु का
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
आसान
सुलहउ गयणंगणे उडुणिहाउ
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (गयणंगण) 7/1 [(उडु)-(णिहाअ) 1/1]
व्यापक आकाश में
तारों का समूह
6.
सुलहउ
आसान
पहुपेसणे
कए
पसाउ
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(पहु)-(पेसण) 7/1] (कअ) भूकृ 7/1 अनि (पसाअ) 1/1 (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (ईसा-स) 7/1 वि (जण) 7/1 (कसाअ) 1/1
स्वामी का प्रयोजन पूर्ण किया गया होने पर पुरस्कार स्वाभाविक ईर्ष्यायुक्त व्यक्ति में
सुलहउ ईसासे जणे
कसाउ
कषाय
सुलहउ रविकंतमणिहिँरविकंतमणिहिं
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक रविकंतमणि) 3/2
आसानी से प्राप्त (है) सूर्यकान्त मणियों द्वारा
हुयासु सुलहउ वरलक्खणे पयसमासु
(हुयास) 1/1 (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(वर)-(लक्खण) 7/1] [(पय)-(समास) 1/1]
अग्नि सुलभ उत्तम व्याकरणशास्त्र में पदों में समास
8.
सुलहउ आगमे धम्मोवएसु
सुलभ आगम में
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (आगम) 7/1 [(धम्म)+(उवएसु)] [(धम्म)-(उवएस) 1/1] (सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(सुकई)-(यण) 7/1] [(मइ)-(विसेस) 1/1]
सुलहउ सुकईयणे मइविसेसु
मूल्यों (धर्म) के उपदेश सुलभ सुकवि जन में बुद्धि की श्रेष्ठता
1.
समास के कारण दीर्घ हुआ है (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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Page #292
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________________
सुलहउ मणुयत्तणे पिउ
सुलभ मनुष्य अवस्था में प्रिय पत्नी
कलत्तु
(सुलहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (मणुयत्तण) 7/1 (पिअ) 1/1 वि (कलत्त) 1/1 अव्यय (एक्क) 1/1 वि अव्यय (दुल्लह) 1/1 वि (अइपवित्त) 1/1 वि
किन्तु
एक्क
एक
जि
दुर्लभ अतिपवित्र
दुल्लहु अइपवित्तु 10. जिणसासणे
जिन शासन में जिसको
नहीं
कयावि
पतु
[(जिण)-(सासण) 7/1] (ज) 2/1 स अव्यय अव्यय (पत्त) भूकृ 1/1 अनि
अव्यय (णास) व 1/1 सक (त) 2/1 सवि [(चारित्त)-(वित्त) 2/1]
कभी (भी) प्राप्त किया कैसे बर्बाद करूँ उस (को) चारित्ररूपी धन को
णासमि
चारित्तवित्तु 11.
अव्यय
इस प्रकार विचार करके
वियप्पिवि
जाम
जब
थिउ
अविओलचित्तु सुहदसणु अभयादेवि विलक्ख
(वियप्प+इवि) संकृ अव्यय (थिअ) भूकृ 1/1 अनि (अविओलचित्त) 1/1 वि [(सुह) वि-(दंसण) 1/1] (अभयादेवि) 1/1 (विलक्ख) 1/1 वि (हु) भूकृ 1/1
हुआ शान्त चित्तवाला मनोहर, दर्शन अभयादेवी लज्जित
हुई
281
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
ता
नियमणे
चिंतइ पुणु-पुणु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(ता) 1 / 1 सवि
[(for) fa-(401) 7/1]
(चित्त) व 3/1 सक
अव्यय
वह
निज मन में
विचार करती है (करने लगी)
बार-बार
282
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ - 11 सुदंसणचरिउ
सन्धि
-
3
3.1
सुतरंगहे
(सुतरंग- (स्त्री) सुतरंगा) 5/1 वि (गंगा) 5/1 (गोअ) 1/1
मनोहर तरंगवाली गंगा नदी से
गंगहे गोउ
गोप
किर
अव्यय
जाव
अव्यय
पादपूरक जब तक पुनर्जन्म में
जम्मि
(जम्म) 7/1
णउ
अव्यय
नहीं
गच्छइ
(गच्छ) व 3/1 सक
जाता है (गया)
10.
ता
अव्यय
तब
सुहमइ
जिणमइ
सयणयले सुत्तिय सिविणय पेच्छइ
(सुहमइ) 1/1 वि (जिणमइ) 1/1 [(सयण)-(यल) 7/1] (सुत्त-सुत्तिय) भूक 1/1 (सिविणय) 2/2 (पेच्छ) व 3/1 सक
शुभमति जिनमति ने बिछौनों पर सूत्र से बने हुए स्वप्नों को देखती है (देखा)
11. सुरचित्तहरो
[(सुर)-(चित)-(हर) 1/1 वि]
देवताओं के चित्त को हरण करनेवाला
283
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिहरी
पर्वत
पवरो
श्रेष्ठ
(सिहरि) 1/1 (पवर) 1/1 वि [(णव)-(कप्पयरु) 1/1] [(अमरिंद)-(घर) 1/1]
णवकप्पयरू
नया कल्पवृक्ष इन्द्र का घर (स्वर्ग)
अमरिंदघरू
12. पवरंबुणिही
पजलंतु सिही सुविराइयओ
[(पवर)+(अंबुणिहि)] [(पवर) वि-(अंबुणिहि) 1/1] उत्तम-समुद्र (पजल-पजलन्त) वकृ 1/1 चमकती हुई (सिहि) 1/1
अग्नि (सु-विराअ-सुविराइय-सुविराइयअ) भूक अत्यन्त सुशोभित 1/1 'अ' स्वार्थिक (अवलोअ--अवलोइय-अवलोइयअ) देखा गया भूकृ 'अ' स्वार्थिक
अवलोइयओ
13. पसरम्मि
प्रभात में
सई
सती उत्तम शुद्धमति
वरसुद्धमई
गय
गई
सिग्घु
(पसर) 7/1 (सइ) 1/1 वि [(वर) वि-(सुद्धमइ) 1/1 वि] (गय-गया) भूकृ 1/1 अनि अव्यय अव्यय (थिअ) भूकृ 1/1 अनि (कंत) 1/1 अव्यय
शीघ्र
वहाँ
पति
जहाँ
14.
णिसि
रात में देखे गये
लक्खियउ
(णिस) 7/1 (लक्ख-लक्खिय-लक्खियअ) भूक 1/1 'अ' स्वार्थिक (त) 6/1 स
तसु
उसके द्वारा
1.
कभी कभी नतीया तिनिके TOP -
विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
284
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
अक्खियउ
पभणेइ
पई
पिय
हंसगई
15.
लइ
हुँ
वरं
जिणचेइहर
अविलंबझुणी
16.
भयवंतमुणी
पयडंति
अलं
सिविणस्स
हलं
चलहारमणी
चलिया
रमणी
17.
भणिओ
रमणी
སྠཽ 。 ཤྲཱ ལླ, ཨྰཿ
छंदु
मुणी
285
अक्ख अक्खिय· अक्खियअ
भूक 1 / 1 अ. स्वा.
→
( पभण) व 3 / 1 सक
(पइ) 1 / 1
( पिय- पिया) 8/1
[[ ( हंस) - (गइ ) 8 / 1 ] वि]
अव्यय
(जा) व 1/2 सक
अव्यय
[ ( जिण) - (चेइहर) 2 / 1] [[(अविलंब) वि- (झुणि) 1 / 2 ] वि]
(भण) भूकृ 1 / 1
( रमणी) 1 / 1
(इया) 1 / 1 सवि
(छंद) 1/1 (मुणि) 6/1
( गय) भूक 1/2 अनि
कहे गये
कहता है ( कहा )
पति
हे प्रिया
हंस की चालवाली
[ ( भयवंत) वि - ( मुणि) 1 / 2 ]
( पयड) व 3 / 2 सक
अव्यय
(fafau) 6/1
(हल) 2/1
[[ (चल) - (हार) - (मणि) 1 / 2 ] वि]
(चल - चलिय- (स्त्री) चलिया) भूकृ 1 / 1 चल पड़ी
( रमणी) 1 / 1
रमणी
अच्छा,
ठीक
जाते हैं (चलते हैं)
श्रेष्ठ
जिन - चैत्यघर
बिना विलम्ब के (सहज) ध्वनि (शब्द)
पूज्य मुनि
प्रकट करते हैं ( कर देंगे )
पूर्णरूप से
स्वप्न (समूह) का
हल
हार की मणियाँ लहरानेवाली
कहा गया
रमणी
यह
छंद
मुनि के द्वारा
गये
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #297
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________________
जिणहरु
मुणिवरु
परिणवेवि
जिणदासिए
णिसि
दिउ
गिरिवरु
तरु
सुरहरु
जलहि
सिहि
इय
सिविणंतरु
सिउ
1.
किं
फलु
इय
सिविण्यदंसणेण
होस
परमेसर
खण
2.
इय
णिसुणिवि
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[(जिण) - (हर) 2 / 1 ]
( मुणिवर) 2 / 1
(परिणव + एवि) संकृ
( जिणदासी) 3 / 1
(for) 7/1
( दिट्ठअ ) भूकृ 1 / 1 अनि
(गिरिवर) 1/1
(तरु) 1 / 1
(सुरहर) 1 / 1
( जलहि) 1 / 1
(सिहि ) 1/1
अव्यय
3.2
जिन मन्दिर
मुनिवर को
(इय) 2/1 स
(णिसुण + इवि) संकृ
[(सिविण)+(अन्तरु)] [(सिविण ) - (अन्तर) 1 / 1]
(सिहअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक कहा गया
प्रणाम कर जिनदासी के द्वारा
रात्रि में
देखा गया
श्रेष्ठ पर्वत
·
कल्पवृक्ष
इन्द्र का निवास
समुद्र
अग्नि
और
स्वप्न के भीतर
(क) 1 / 1 सवि
क्या
(फल) 1 / 1
फल
( इय) 6 / 1 स
इस
[ (सिविणय) 'य' स्वार्थिक- ( दंसण) 3 / 1 ] स्वप्न ( - समूह ) के दर्शन से
(हो) भवि 3 / 1 अक
होगा
(परमेसर ) 8/1
हे परमेश्वर
( कह ) विधि 2 / 1 सक
कहें
(खण) 3 / 1 क्रिविअ
तुरन्त
इसको
सुनकर
286
Page #298
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________________
णवजलहरसरेण
नये मेघ के समान (गम्भीर) स्वरवाले
सुणि
सुनो
[[(णव) वि-(जलहर)-(सर) 3/1] वि] (सुण) विधि 2/1 सक (सुंदरी) 8/1 (पभण) भूकृ 1/1 (मुणिवर) 3/1
हे उत्तम स्त्री
सुंदर पभणिउ मुणिवरेण
कहा गया मुनिवर के द्वारा
3.
उत्तुंगें भरभारियधरेण
ऊँचे भारी भार धारण करनेवाले
होसइ
होगा
(उत्तुंग) 3/1 वि [(भर)-(भारिय) वि-(धर) 3/1 वि] (हो) भवि 3/1 अक (सुधीर) 1/1 वि (सुअ) 1/1 (गिरिवर) 3/1
सुधीरु
अत्यधिक धैर्यवान
सुउ गिरिवरेण
गिरिवर (पर्वत) से
कुसुमरयसुरहिकयमहुअरेण
fost abus.ulude
[(कुसुमरय)-(सुरहि)-(कय) भूक अनि-(महुअर) 3/1]
मकरन्द (फूलों की रज) की सुगन्ध से आकर्षित किये गये भंवर सहित दानी
चाइड
लच्छीहरु
(चाइअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक [(लच्छी )-(हर) 1/1 वि] (तरुवर) 3/1
लक्ष्मीवान
तरुवरेण
तरुवर से
सुररमणीकीलामणहरेण
[(सुर)-(रमणी)-(कीला)-(मणहर) 3/1 वि] (सुर)-(वंदणीअ) 1/1 वि [(वर) वि-(सुर)-(हर) 3/1]
देवताओं की रमणियों की क्रीड़ा से सुन्दर देवताओं द्वारा वन्दनीय इन्द्र के घर से
सुखंदणीउ वरसुरहरेण
जललहरीचुंबियअंबरेण
[[(जल)-(लहरी)-(चुंबिय) भूक -(अंबर) 3/1] वि] [(गुण)- (गण)-(गहीर) 1/1]
गुणगणगहीरु
जल-तरंगें आकाश से छू ली गई गुणों का समूह (तथा) गंभीर समुद्र से
रयणायरेण
(रयणायर) 3/1
287
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
अइणिविडजडत्तविणासणेण
कलिमलु णिड्डहइ
[(अइ) वि-(णिविड) वि-(जडत्त) वि- (विणासण) 3/1 वि] (कलिमल) 2/1 (णिड्डह) व 3/1 सक (हुआसण) 3/1
अति घने जड़त्व का विनाश करनेवाली पाप (रूपी) मल को जला देता है (देगा) अग्नि से
हुआसणेण
सुन्दर
मनोहर
सुंदरु मणहरु गुणमणिणिकेउ जुवईयणवल्लहु मयरकेउ
(सुंदर) 1/1 वि (मणहर) 1/1 वि [(गुण)-(मणि)-(णिकेअ) 1/1] [(जुवई)-(यण)-(वल्लह) 1/1 वि] (मयरकेउ) 1/1
गुणरूपी मणियों का घर युवती वर्ग का प्रिय प्रेम का देवता
9.
णियकुलमाणससररायहंसु
णिम्मच्छरु बुहयणलद्धसंसु
[(णिय) वि-(कुल)-(माणससर)(रायहंस) 1/1] (णिम्मच्छर) 1/1 वि [(बहु-(यण)-(लद्ध) भूकृ अनि (संसा-संस) 1/1 वि]
अपने कुलरूपी मानसरोवर का राजहंस ईर्ष्यारहित ज्ञानी वर्ग की प्रशंसा प्राप्त कर ली गई
10.
उपसर्ग
उवसग्गु सहेवि हवेवि
सहन करके
होकर
साहु
(उवसग्ग) 2/1 (सह+एवि) संकृ (हव+एवि) संकृ (साहु) 1/1 (पाव) भवि 3/1 सक (झाण) 3/1 (मोक्ख)-(लाह) 2/1
पावेसइ झाणे
साधु प्राप्त करेगा ध्यान के द्वारा मोक्ष के लाभ को
मोक्खलाहु
11.
जिणु
मुणि
(जिण) 2/1 (मुणि) 2/1 (णव+एवि) संकृ
जिनेन्द्र को मुनिवर को प्रणाम करके
णवेवि
अपभ्रंश काव्य सौरभ
288
Page #300
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________________
हरिसियमणाइँ णियगेहु गयइँ विण्णि
हर्षित मनवाले निज घर को चले गये
[[(हरिसिय) भूकृ-(मण) 1/2] वि] [(णिय) वि-(गेह) 2/1] (गय) भूकृ 1/2 अनि । (वि) 1/2 वि अव्यय (जण) 1/2
दोनों
वि
ही
जणाइँ
मनुष्य
12. गोवउ
गोप
(गोवअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक अव्यय
(णियाण) 3/1
निदानसहित
णियाणे तहिँ मरेवि
वहाँ
मरकर
थिउ
रहा
अव्यय (मर+एवि) संकृ (थिअ) भूकृ 1/1 अनि [(वणि)-(पिया-पिय)-(उयरअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक (अवयर+एवि) संकृ
वणिपियउयरए
वणिक की पत्नी के उदर में आकर
अवयरेवि
आकर
13.
तहिँ
गब्भए
अब्भए णाइँ रवि
सूर्य
कमलिणिदले
णावइ
अव्यय
वहाँ (गब्भअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक गर्भ में (अब्भअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक
आकाश में अव्यय
की तरह (रवि) 1/1 [(कमलिणि)-(दल) 7/1]
कमलिनी के पत्ते पर अव्यय
की तरह (जल) 1/1
जल [(सिप्पि)-(उडअ) 7/1 'अ' स्वार्थिक] सिप्पिदल में (णिविडअ) 7/1 वि 'अ' स्वार्थिक सघन (ठिअ) भूकृ 1/1 अनि (सह) व 3/1 अक
शोभता है (शोभयमान हुआ) अव्यय
की तरह
जलु
सिप्पिउडए
णिविडए
ठिउ
स्थित
सहइ
289
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
णितुल्लु मुत्ताहलु
(णितुल्ल) 1/1 वि (मुत्ताहल) 1/1
असाधारण मोती
3.5
तेण
उस
पुत्तेण
जणु
(त) 3/1 सवि (पुत्त) 3/1 (जण) 1/1 (तुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (ख) 7/1 (महत) 3/2 वि (मेह) 3/2 (जल) 1/1 (वुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
पुत्र से मनुष्य वर्ग सन्तुष्ट हुआ आकाश में
महंतेहिं
घने
मेहेहिं
बादलों द्वारा
जल
बरसाया गया
दुट्ठपाविट्ठपोरत्थगणु
दुष्ट, अत्यन्त पापी, ईर्ष्यालु वर्ग (समूह) डर गया हर्ष
णंदि आणंदि
[(दु8) वि-(पाविट्ठ) वि-(पोरत्थ) वि- (गण) 1/1] (तट्ठ) भूकृ 1/1 अनि (णंदि) 1/1 (आणंद- (स्त्री) आणंदी) 1/1 (देव) 3/2 (णह) 7/1 (घुट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
आनन्द
देवेहि
ाटे
देवताओं द्वारा आकाश में घोषित किया गया
दुंदुहीघोसु कयतोसु
[(दुंदुही)-(घोस) 1/1] [[(कय) भूक अनि-(तोस) 1/1] वि]
दुंदुभी-घोष दिया गया, (किया गया) सन्तोष
(हुअ) भूकृ 1/1 (दिव्व) 1/1 वि
उत्पन्न हुआ दिव्य
दिव्यु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
290
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
फुल्ल
पप्फुल्ल मेल्लेड
(फुल्ल) 2/2 (पप्फुल्ल) भूक 2/2 अनि (मेल्ल) व 3/1 सक (वण) 1/1 (सव्व) 1/1 सवि
फूलों को (फूल) खिले हुए छोड़ता है (छोड़ने लगा)
वणु
वन
सव्वु
समस्त
मन्द
आणंदयारी
आनन्दकारी
हुओ
वाउ वावि
(मंद) 1/1 वि (आणंदयारी) 1/1 वि (हुअ) भूक 1/1 (वाअ) 1/1 (वावी) 7/2 (कूव) 7/2 (अब्भहिअ) 1/1 वि (जल) 1/1 (जा-जाअ) भूकृ 1/1
हुआ (चला) पवन बावड़ियों में कुओं में अत्यधिक
कुवेसु अब्भहिउ
जलु
जल
जाउ
भरा (उत्पन्न हुआ)
5.
गोसमूहेहिँ विक्खित्तु थणदुद्ध एंतजंतेहिं पहिएहिँ
[(गो)-(समूह) 3/2] (विक्खित्त) भूकृ 1/1 अनि [(थण)-(दुद्ध) 1/1] [(एंत) वकृ-(जंत) वकृ 3/2] (पहिअ) 3/2 वि (पह) 1/1 (रुद्ध) भूकृ 1/1 अनि
गो-समूहों द्वारा बिखेरा गया थणों से दूध आते-जाते हुए (के कारण) पथिकों के कारण
मार्ग
रुक गया
तब
अव्यय (दिण) 7/1
दिन पर (छ8) 7/1 वि
छठे कभी-कभी सप्तमी विभक्ति में शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147) छट्ठी-छट्टि (स्त्री) = जन्म के पश्चात् किया जानेवाला उत्सव।
2.
291
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
उक्किट्ठकमसेण दाविया
[(उक्किट्ठ) भूकृ अनि-(कमस) 3/1] (दाव-दाविय) भूकृ 1/1 (छट्टिय'-छट्टिया) 1/1 'य' स्वार्थिक
उत्कृष्ट रूप से दिखलाया जन्म के पश्चात किया गया उत्सव
छट्टिया
ज्झत्ति
अव्यय
झटपट
वइसेण
(वइस) 3/1
वणिक (वैश्य) के द्वारा
अट्ठ
आठ
दिवह वोलीण
(अट्ठ) 1/2 वि (दो) 1/2 वि (दिवह) 1/1 (वोलीण) 1/1 वि अव्यय (जा) भूक 1/1 अव्यय
व्यतीत
शीघ्र
जाय
ताम
तब
जा
अव्यय
जब
णाम जिणयासि
अव्यय (जिणयासी) 1/1 [(स) वि-(अणुराय) 1/1] |
नामक जिणदासी
सणुराय
अनुराग-सहित
वालु
सोमालु देविंदसमदेहु
(वाल) 2/1 (सोमाल) 2/1 वि [[(देविंद)-(सम)-(देह) 2/1] वि] (ले+एवि) संकृ (भत्ति) 3/1 (जा+एवि) संकृ [(जिण)-(गेह) 2/1]
बालक को सुकुमार इन्द्र के स्थान देहवाले लेकर भक्तिपूर्वक
लेवि
भत्तीए
जाएवि जिणगेह
जाकर जिनमन्दिर
9.
तीयए
(ता) 3/1 स
(पेच्छ-पेच्छिय-पेच्छियअ) छट्ठी-छट्टि (स्त्री) = जन्म के पश्चात् किया जानेवाला उत्सव।
उसके द्वारा देखे गये
पेच्छियउ
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
292
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुच्छियउ
मुणिचन्दु मत्तमायंगु णामेण
भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (पुच्छ-पुच्छिय-पुच्छियअ) भूकृ 1/1 पूछे गये 'अ' स्वार्थिक (मुणिचन्द) 1/1
मुनिचन्द (मत्तमायंग) 1/1
मत्तमात्तंग (णाम) 3/1
नाम से (इय) 1/1 सवि (छन्द) 1/1
छन्द
यह
मेरुपर्वत
जिह
जिस प्रकार
थिरु
स्थिर
तिह
बुहयणहिँ कुंभरासि पभणिज्जइ
उसी प्रकार ज्ञानियों द्वारा कुम्भराशि कही जाती है
महु
(मंदर) 1/1 अव्यय (थिर) 1/1 वि अव्यय (बुहयण) 3/2 (कुंभरासि) 1/1 (पभण) व कर्म 3/1 सक (अम्ह) 6/1 स (तणअ) 2/1 अव्यय (एरिस) 2/1 वि (मुण+इवि) संकृ (मुणिवर) 8/1 (णाम) 1/1 (रअ) व कर्म 3/1 सक
मेरा
तणउ
पुत्र
तणउ
सम्बन्धार्थक परसर्ग ऐसा
एरिसु
मुणिवि मुणिवर णामु
जानकर हे मुनिवर नाम रचा जाता है (रचा जाए)
रइज्जइ
3.6
.
उसको
सुणिऊण
(त) 2/1 स (सुण) संकृ (प्रा.)
सुनकर
४
293
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
पण
मेहणिघो
भणेइ
जईसी
2.
दिडु
तए
सिविणंतरे
सारो
पुत्तिए
तुंगु सुदंसणमेरो
3.
किज्जउ
तेण
सुदंस
णामो
सज्जणकामिणिसोत्तहिरामो
4.
तो
जिणयासें-जियासि
णविवि
जईसं
चित्ते
पहि
गया
सणिवासं
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[[ ( पणट्ठ) भूक अनि - (रइ + ईस ) 1/1] fa]
[[ (मेह) - (णिघोस) 1 / 1] वि]
(भण) व 3 / 1 सक
कहता है (बोले)
[(जइ) + (ईस)] [(जइ) - (ईस) 1 / 1] वि] विशिष्ट मुनि
(दिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
(तुम्ह) 3 / 1 स
[(सिविण) + (अंतरे)] [(सिविण) - (अन्तर) 7/1]
(सार) 1 / 1 वि
( पुत्ति ) 8 / 1, ए = अव्यय
(तुंग) 1/1 वि
[(सुदंसण) - (मेर) 1 / 1 ]
(क) विधि कर्म 3 / 1 सक
अव्यय
(सुदंसण) 1/1
( णाम) 1 / 1
[(सज्जण) + (कामिणि) + (सोत्त) + (अहिरामो) ] [ ( सज्जण) - (कामिणि) - (सोत्त) - (अहिराम) 1 / 1 वि]
( जिसके द्वारा) काम नष्ट कर दिया गया है (वे)
मेघ के समान स्वरवाले
देखा गया
तुम्हारे द्वारा
स्वप्न के अन्दर
श्रेष्ठ
पुत्री, हे
ऊँचा
सुन्दर पर्वत
किया जाए ( रखा जाय )
इसलिये
सुदर्शन
नाम
सज्जन और कामिनियों के कानों के लिए मनोहर
अव्यय
तब
( जिणयासी) 1 / 1
जिनदासी
(णव + इवि) संकृ
प्रणाम करके
[(जइ)+(ईस)] [(जइ ) - (ईस) 2 / 1 वि] विशिष्ट मुनि को
(चित्त) 7/1
मन में
( पहिट्ठा - पहिट्ठ) भूकृ 1 / 1 अनि
आनन्दित हुई
गयी
( गय-गया) भूकृ 1 / 1 अनि (सणिवास) 2/1
स्वनिवास को
294
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
सोहणमासे
दिणे
[(सोहण) वि-(मास) 7/1]
शुभ-मास में (दिण) 7/1
दिन में अव्यय
शीघ्र (दित्त) भूक 1/1 अनि
दिव्य (प्रकाशमय) (बद्धअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक बाँधा गया (पालणय) 1/1 'य' स्वार्थिक (सुविचित्त) 1/1 वि
अत्यन्त सुन्दर
बद्धउ पालणयं
पालना
सुविचित्तं
देवमहीहरि
देव-पर्वत (सुमेरु) पर जैसे
णं
सुरवच्छो
[(देव)-(महीहर) 7/1] अव्यय [(सुर)-(वच्छ) 1/1] (वड्ढ) व 3/1 अक अव्यय (परिट्ठिअ) भूकृ 1/1 अनि (वच्छ) 1/1
देव-बालक बढ़ता है (बढ़ने लगा)
वड्डइ
तत्थ
वहाँ
परिट्ठिउ वच्छो
रहा हुआ (स्थित) बालक
7.
वड्डइ
बढ़ता है
व्रत पालन से
वयपालणे धम्मो
धर्म
(वड्ड) व 3/1 अक अव्यय [(वय)-(पालण)' 3/1] (धम्म) 1/1 (वड्ड) व 3/1 अक अव्यय [(पिय) वि-(लोयण)' 3/1] (पेम्म) 1/1
वड्ढइ
बढ़ता है
जैसे
पियलोयणे पेम्मो
स्नेही के दर्शन से प्रेम
(वड्ड) व 3/1 अक
बढ़ता है जैसे
अव्यय
श्रीवास्तव. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144
295
.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
णवपाउसि
नई वर्षा ऋतु में बादल
कंदो
एसु पयासिउ
[(णव) वि-(पाउस) 7/1] (कंद) 1/1
अव्यय (पयास) भूकृ 1/1 [(दोहय)-(छंद) 1/1]
इस प्रकार व्यक्त किया गया दोधक छन्द
दोहयछंदो
9.
जगतमहरु
[(जग)-(तमहर) 1/1 वि]
जग के अन्धकार को दूर करनेवाला
ससहरु
चन्द्रमा
मयरहरु
जिह
समुद्र जिस प्रकार बढ़ता हुआ
वढंतउ
भावइ
(ससहर) 1/1 (मयरहर) 1/1 अव्यय (वड-वर्ल्डत-वर्षांतअ) वकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (भाव) व 3/1 अक [(मण)-(वल्लह) 1/1 वि] (दुल्लह) 1/1 (सज्जण) 6/2 (पुरएव) 6/1 (सुअ) 1/1 अव्यय
मणवल्लहु
दुल्लहु सज्जणहँ पुरएवहो
अच्छा लगता है मन को अच्छा लगनेवाला दुर्लभ सज्जनों के पुरुदेव
णावइ
के समान
अपभ्रंश काव्य सौरभ
296
Page #308
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________________
पाठ - 12 करकंडचरिउ
सन्धि - 2
2.16
पुणु
अव्यय
इसके विपरीत उच्च की कहानी
उच्चकहाणी णिसुणि
सुन
हे पुत्र
संपज्जा
[(उच्च) वि-(कहाणी) 2/1] (णिसुण) विधि 2/1 सक (पुत्त) 8/1 (संपज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि (संपइ) 1/1 (ज) 3/1 स (विचित्त) 1/1 वि
संपइ
प्राप्त की जाती है संपत्ति जिससे नाना प्रकार की
विचित्त
2.
परिकलिवि
समझकर
संगु णीचहो
संगति को नीच (व्यक्ति) की हृदय से उच्च के (साथ)
हिएण
(परिकल) संकृ (संग) 2/1 (णीच) 6/1 वि (हिअ) 3/1 (उच्च) 3/1 वि अव्यय (किअ) भूकृ 1/1 अनि (संग) 1/1 (त) 3/1 स
उच्चेण
समउ
साथ
कित
किया गया
संग
उसके द्वारा
297
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
वाणारसिणयरि
[(वाणारसी-वाणारसि)-(णयर) 7/1] (मणोहिराम) 1/1 वि (अरविंद) 1/1 (णराहिअ) 1/1 (अस) व 3/1 अक
वाराणसी नगर में मन को प्रसन्न करनेवाला अरविंद
मणोहिरामु अरविंदु णराहिउ अस्थि णामु
राजा है (था)
अव्यय
नामक
A.
संतोसु वहतउ णियमणम्मि
पारद्धिहें।
(संतोस) 2/1
प्रसन्नता को (वह वहंत-वहंतअ) वकृ 1/1 'अ' स्वा.धारण करता हुआ (णिय) वि-(मण) 7/1
अपने मन में (पारद्धि) 4/1
शिकार के लिए (गअ) भूकृ 1/1 अनि
गया (एक्क) 7/1 वि
एक (दिण) 7/1
गउ एक्कहिँ दिणम्मि
5.
जलरहियहिँ अडविहिँ सो
[(जल)-(रह-रहिय) भूक 7/1] (अडवी) 7/1 (त) 1/1 सवि (पड-पडिअ) भूकृ 1/1
पडिउ
जलरहित जंगल में वह फँस गया वहाँ पर प्यास के द्वारा, से भूख के द्वारा, से व्याकुल किया गया
तहिं
अव्यय
तण्हएं
भुक्खएं विण्णडिउ
(तण्हअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक (भुक्खअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक (विण्णड-विण्णडिअ) भूकृ 1/1
अमृत से
अमिएण
(अमिअ) 3/1 विणिम्मिय
(वि-णिम्म-विणिम्मिय) भूकृ 1/2 बने हुए सुहयराइँ
(सुहयर) 1/2 वि समास में ह्रस्व का दीर्घ, दीर्घ का हस्व हो जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) 2. हे हैं, मात्रा के लिए अनुस्वार लगाया जाता है।
सुखकारी
अपभ्रंश काव्य सौरभ
298
Page #310
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________________
तहो दिण्णा वणिणा फलइँ ताइँ
(त) 4/1 स (दिण्णइँ) भूकृ 1/2 अनि (वणि) 3/1 (प्रा.) (फल) 1/2 (त) 1/2 सवि
उसके लिए (उसको) दिए गए वणिक के द्वारा
फल
7.
संतुट्ठउ
तहो।
वणिवरहो।
राउ
धरि
(संतुट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्रसन्न हुआ (त) 6/1 सवि
उस पर (वणिवर) 6/1
श्रेष्ठ वणिक पर (राअ) 1/1
राजा (घर) 7/1
घर (जा+इवि) संकृ
जाकर (त) 4/1 सवि
उसके लिए (उसको) (दिण्णअ) भूकृ 1/1 अनि
दिया गया (पसाअ) 1/1
पुरस्कार
जाइवि
तहो
दिण्णउ
पसाउ
उवायरु
उपकार
महतउ
जाणएण
वणि
(उवयार) 1/1 (महंतअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक वि महान (जाणअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक वि समझनेवाला होने के कारण (वणि) 1/1
वणिक (णिहियअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक रखा गया [(मंति)-(पय) 7/1]
मंत्री पद पर (त) 3/1 स
उसके द्वारा
णिहियउ मंतिपयम्मि
तेण
अणुराएँ विण्णिवि
(अणुराअ) 3/1 क्रिविअ (वि) 1/2 वि
स्नेहपूर्वक दोनों ही
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
2.
299
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #311
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________________
तहिं
वसहिँ
दिणयरतेयकलायर गुणगणरयणहँ सीलणिहि गहिरिमा
अव्यय (वस) व 3/2 अक [(दिणयर)-(तेअ)-(कलायर) 1/1] [(गुण)-(गण)-(रयण) 6/2] [(सील)-(णिहि) 1/1] (गहिरिम) 7/1
वहाँ पर रहते हैं (रहने लगे) सूर्य, तेज में, चन्द्रमा गुणसमूहरूपी रत्नों के शील के निधान गम्भीरता में
अव्यय
के समान
सायर
(सायर) 1/1
सागर
2.17
अव्यय
तब
तहो
णंदणु
एक्कहिँ (एक्क) 7/1 वि
एक दिणि (दिण) 7/1
दिन मंतिवरेण (मंतिवर) 3/1
मंत्रीवर के द्वारा (त) 6/1 सवि
उस रायहो (राय) 6/1
राजा के (णंदण) 2/1
पुत्र का (को) हरिवि (हर+इवि) संक
हरण करके तेण (त) 3/1 स
उसके द्वारा 2. आहरण (आहरण) 2/2
आभूषणों को लेविणु (ले+एविणु) संकृ
लेकर दिहिकरासु
(दिहिकर) 6/1 वि गउ
(गअ) भूक 1/1 अनि तुरिउ अव्यय
शीघ्रता से श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
सुखकारी गया
अपभ्रंश काव्य सौरभ
300
Page #312
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________________
विलासिणिमंदिरासु'
3.
गयमोल्लइँ
णणण
पियाइँ
तहिँ
वणिणा
ताहे
समप्पियाइँ
4.
सरयागसमससहर आणणीहे
पुणु
कहियउ
तेण
विलासिणी हे
5.
म
मारिउ
वे
णरवई हिँ
इउ
कहियउ
सयलु
1.
2.
301
(विलासिणि) - (मन्दिर) 6/1
[[ ( गय) भूक अनि - (मोल्ल) 1 / 2] वि] मूल्य चले गये
[ ( जण) - (णयण) 4 / 2]
(पिय) 1/2 वि
अव्यय
(वणि) 3 / 1 (प्राकृत)
(ता) 4 / 1 स
(समप्प - समप्पिय) भूक 1/2
[ ( सरय) + (आगम) + (ससहर) +
( आणाणीहे)] [[ (सरय) - (आगम) - ( ससहर) - ( आणण - (स्त्री) आणणी) 4/1] fa]
अव्यय
( कह - कहिय - कहियअ) भूकृ 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
(त) 3 / 1 स
( विलासिणि) 4 / 1
( अम्ह) 3 / 1 स
( मार-मारिअ ) भूकृ 1/1
(णंदण) 1 / 1
( णरवइ) 6 / 1
(इअ) 1/1 स
( कह - कहिय कहियअ ) भूक 1 / 1 अ स्वार्थिक
( सयल) 1 / 1 वि
विलासिनी के घर को
मनुष्यों के नयनों के लिए
प्रिय
वहाँ
are के द्वारा
उसके लिए
प्रदान किए गए
शरदऋतु में आनेवाले चन्द्रमा की तरह मुखवाली के लिए (को)
फिर
कहा गया
उस (वणिक) के द्वारा विलासिनी के लिए (को)
मेरे द्वारा
मारा गया
पुत्र
◎
राजा का
यह
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
कही गई
सारी ही
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #313
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________________
थिररईहि।
[[(थिर) वि-(रइ) 4/1] वि]
स्थिर स्नेहवाली के लिए (को)
उसको सुनकर उसके द्वारा
सुणिवि ताइँ-ताएँ पभणिउ सणेहु'
कहा गया सस्नेह
मा
(त) 2/1 स (सुण+इवि) संकृ (ता) 3/1 स (पभण-पभणिअ) भूकृ 1/1 (स-णहे) 1/1 न. अव्यय (क) 4/1 स अव्यय (पयड) 2/1 (कर) विधि 2/1 सक (एत) 2/1 सवि
मत
कासु
किसी के लिए
भी
पयडु
प्रकट
करेहि
करना
यह
एत्तहिँ
यहाँ पर न पाते हुए होने के कारण
अलहते
सुउ
पुत्र को
णिवेण
अव्यय (अलह-अलहंत) व 3/1 (सुअ) 2/1 (णिव) 3/1 (देव+आवि-देवावि-देवाविअ) प्रे. भूकृ 1/1 (डिंडिम) 1/1 (णयर) 7/1 (त) 3/1 स
राजा के द्वारा आज्ञा करवायी गई
देवाविउ
डिडिमु
ढोल
णयरे
नगर में
उसके द्वारा
तेण 8.
(ज) 1/1 सवि (राय) 6/1
रायहो
राजा के
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144 नपु. 1/1 के शब्द कभी-कभी क्रिविअ की तरह प्रयुक्त होते हैं।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
302
Page #314
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________________
गंदणु
पुत्र को
(णंदण) 2/1 (कह) व 3/1 सक
कहइ
कहता है (बतायेगा)
को वि
(क) 1/1 वि
कोई भी
अव्यय
साथ
दविण'
मेइणि
(दविणअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक (मेइणी) 2/1 (लह) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि
द्रव्य (सम्पत्ति) भूमि को पाता है (पायेगा)
वह
अव्यय
अव्यय
तब
केणवि
किसी (के द्वारा)
(क) 3/1 सवि (धिट्ठ) भूक 3/1 वि
धि?
ढीठ के द्वारा
क्रिवि
शीघ्रता से
तुरियएण णरणाहहो
(णरणाह) 6/1
राजा के
अग्ग
अव्यय
आगे
भणिउ
कहा गया देखा गया
उवलक्खिउ
तुम्हारा
पुत्र, सुत
हे देव
(भण-भणिअ) भूकृ 1/1 (उवलक्ख) भूकृ 1/1 (तुम्ह) 6/1 स (सुअ) 1/1 (देव) 8/1 (अम्ह) 3/1 स (त) 1/1 सवि (णवलअ) 3/1 'अ' स्वार्थिक (मंति) 3/1 (हण) भूकृ 1/1
मेरे द्वारा
णवलइँ
मंतिएँ
मंत्री के द्वारा
हणिउ
मार दिया गया
303
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #315
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________________
2.18
बात को
वयणु सुणेविणु सरलबाहु संतुट्ठउ मंतिहे धरणिणाहु
(त) 2/1 सवि
उस (को) (वयण) 2/1 (सुण+एविणु) संकृ
सुनकर (सरलबाहु) 1/1
सरलबाहु (संतुडुअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्रसन्न हुआ, सन्तुष्ट हुआ (मंति) 5/1
मंत्री से [(धरणि)-(णाह) 1/1]
पृथ्वी का नाथ
2.
तिहिँ
फलहिँ
एक्कहो फलासु णिरहरियड
(ति) 7/2 वि
तीन (में से) (फल) 7/2
फलों में से अव्यय (एक्क) 6/1 वि
एक (का) (फल) 6/1
फल का (णिरहर-णिरहरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. चुका दिया गया (रिण) 1/1
ऋण (अम्ह) 3/1 स (मइवर) 6/1
मंत्रीवर के
रिणु
मई
मेरे द्वारा
मइवरासु
अवराह
(अवर) 6/2 (दो) 2/2 वि
अन्य (को) दो को
दोण्णि
अज्ज
अव्यय
आज
खमीसु
अव्यय [(खम+ईसु)] खम (खम) विधि 2/1 सक ईसु (ईस) 8/1
क्षमा कीजिए, हे नाथ
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 152 कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
304
Page #316
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________________
खणि
(खण) 7/1
क्षणभर में (हु-हुय-हुयअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. हुआ (पसण्णअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वा.. प्रसन्न [(धरणि)-(ईस) 1/1]
पृथ्वी का मुखिया
पसण्णउ
धरणिईसु
4.
परियाणिवि
मंतिएँ-मंतिइँ रायणेहु णिवणंदणु
अप्पिउ दिव्वदेह
(परियाण+इवि) संकृ (मंति) 3/1 [(राय)-(णेह) 2/1] [(णिव)-(णंदण) 1/1] (अप्प अप्पिअ) भूक 1/1 [[(दिव्व)-(देह) 1/1] वि]
जानकर मंत्री के द्वारा राजा के स्नेह को राजा का पुत्र सौंप दिया गया सुन्दर देहवाला
अव्यय
हे (सम्बोधनार्थक)
होहि
णरेसर
परममित्तु
(हो) व 2/1 अक (णरेसर) 8/1 [(परम) वि-(मित्त) 1/1] (अम्ह) 3/1 स (देव) 8/1 (तुहारअ) 1/1 सवि (कल-कलिअ) भूकृ 1/1 (चित्त) 1/1
(हे) नरेश्वर परममित्र मेरे द्वारा हे देव
तुहारउ कलिउ
तुम्हारा पहचान लिया गया चित्त
चितु
वणिवयणु
वणिक के वचन को
सुणेविणु णरवरेण
सुनकर राजा के द्वारा
[(वणि)-(वयण) 2/1] (सुण+एविणु) संकृ (णरवर) 3/1 (अइपउर) 1/1 वि (पसाअ) 1/1 (पइण्ण) भूकृ 1/1 अनि
अइपउरु
खूब
पसाउ
पइण्णु
पुरस्कार सार्वजनिक रूप से घोषित किया गया उस (के द्वारा)
UN
(त) 3/1 सवि
305
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #317
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________________
गुरुआण
अच्छों की संगति को
जो
जणु वहेइ
(गुरुअ) 6/2 वि (संग) 2/1 (ज) 1/1 सवि (जण) 1/1 (वह) व 3/1 सक [(हिय)-(इच्छ-इच्छिय-इच्छिया) भूकृ 2/1] (संपइ) 2/1 (त) 1/1 सवि (लह) व 3/1 सक
मनुष्य धारण करता है मन से चाही गई (को)
हियइच्छिय
संपइ
सम्पत्ति को
वह
प्राप्त करता है
यह
उच्चकहाणी
कहिय
तुज्झु गुणसारणि पुत्तय हियइँ
(एता) 1/1 सवि [(उच्च) वि-(कहाणी) 1/1] (कह-कहिय-कहिया) भूकृ 1/1 (तुम्ह) 4/1 स [[(गुण)-(सारणि) 1/1] वि] (पुत्त) 8/1 'अ' स्वार्थिक (हियअ) 7/1 (बुज्झ) विधि 2/1 सक
उच्च (पुरुष) की कहानी कही गयी तेरे लिए गुणों की परम्परा-वाली हे पुत्र हृदय में
बुज्झु
समझ
करकंडु जणाविउ
(करकंड) 1/1 [(जण+आविजणावि-जणाविअ) प्रे. भूक 1/1] (खेयर) 7/1 [(हिय) वि-(बुद्धि) 3/1] (सयल- (स्त्री) सयला) 1/2 वि (कला) 1/2
करकंड सिखाया गया, समझाया गया खेचर के द्वारा हितकारी बुद्धि से
खेयर
हियबुद्धिएँ
सयलउ
समस्त
कलउ .
कलाएँ
1.
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
306
Page #318
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________________
इय
इसकी
णित्तिएँ
नीति से
णरु
(इम-इअ-इय) 6/1 स (णित्ति) 3/1 (ज) 1/1 सवि (णर) 1/1 (ववहर) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (भुंज) व 3/1 सक क्रिविअ (भू-वलअ) 2/1
ववहाइ
मनुष्य व्यवहार करता है
सो
वह
भुंजइ णिच्छउ
उपभोग करता है अवश्य ही
भूवलउ
भू-मण्डल को
307
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #319
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________________
पाठ - 13 धण्णकुमारचरिउ
सन्धि
-3
3.16
लउडि-खग्ग
सव्वहिँ
करि
लकड़ियाँ और तलवारें सभी के द्वारा हाथ में रखी गई भोगवती
धारिय
[(लउडि) (स्त्री)-(खग्ग) 1/2] (सव्व) 3/2 सवि (कर) 7/1 (धार) भूकृ 1/2 (भोगवई) 1/1 (चल्ल-चल्लिय- (स्त्री) चल्लिया) भूक 1/1 (विणिवार-विणिवारिय--(स्त्री) विणिवारिया) भूकृ 1/1
भोगवइ चल्लिय
चल दी
विणिवारिय
रोकी गई
दूर से
तेण
उसके द्वारा देख लिए गए
णियच्छिय
हक्क
(दूर) 5/1 (क्रिविअ) (हु) व 3/2 अक (त) 3/1 स (णियच्छ) भूक 1/2 (हक्का ) 2/1 (दा-देंत-दित) वकृ 1/2 (आव) वकृ 1/2 अव्यय (पेच्छ) भूकृ 1/2
हांक
दित
आवंत
देते हुए आते हुए भी
पेच्छिय
देख लिए गए
अपभ्रंश काव्य सौरभ
308
Page #320
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________________
एयहु
इन
से
मारणत्थि
मारने के इच्छुक
(एया) 5/2 सवि [(मारण)+ (अत्थि)] [(मारण)-(अत्थि) 1/2 वि] अव्यय (आव) व 3/2 सक [(वच्छ)-(उल) 2/2] अव्यय
यहाँ
आवहिँ वच्छउलइँ
णउ
आते हैं (आये हैं) बछड़ों के समूहों को नहीं कहीं भी पाते हैं (पाया)
अव्यय
कत्थवि पावहिँ
(पाव) व 3/2 सक
मणि
मंतिवि
पुणु
भयतट्ठउ
(इय) 2/1 सवि
यह (मण) 7/1
मन में (मंत+इवि) संकृ
विचारकर अव्यय
फिर [(भय)-(तट्ठअ) भूकृ 1/1 अनि भय से काँपा 'अ' स्वार्थिक अव्यय
पीछे की ओर (वल+इवि) संकृ
मुड़कर (णिअ+इवि) संकृ
देखकर (वण) 7/1
जंगल में (णट्ठअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक छिप गया
पच्छउ
वलिवि
णिएवि
वणि
णट्ठउ
ते
(त) 1/2 सवि (बोल्ल+आव) प्रे. व 3/2 सक
बोल्लावहिँ
बुलाते (थे)
अव्यय
.
गिहि
(गिह) 7/1
घर में
1.
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
309
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #321
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________________
आवहि
आओ
(आव) विधि 2/1 सक (ए) विधि 2/1 सक
आओ
मा
अव्यय
मत भय के अधीन
भयवसु
[(भय)-(वस) 1/1 वि] (धाव) विधि 2/1 सक
धावहि
भागो
वच्छउलइँ णियगेहि पराणिय
बछड़ों के समूह निज घर में पहुँच गए
तुहु
A
[(वच्छ)-(उल) 1/2] [(णिय) वि-(गेह) 7/1] (पराणिय) भूकृ 1/2 अनि (तुम्ह) 1/1 स
अव्यय (थक्क) विधि 2/1 अक अव्यय (मइ) 3/1 (जाण) भूकृ 1/1
थक्कु
ठहरा
नहीं बुद्धि से
मइए जाणिय
समझा गया
7.
तुज्झू
तुम्हारी
जणणि
माता
तुअ-तुव
(तुम्ह) 6/1 स (जणणि) 1/1 (तुम्ह) 6/1 स (दुक्ख) 3/1 (सल्ल-सल्लिय-सल्लिया) भूकृ 1/1
तुम्हारे
दुक्खें
सल्लिय
दुःख द्वारा दु:खी की गई है मत वन में
मा
अव्यय
वणि
जाहि
जा
मुइवि
(वण) 7/1 (जा) विधि 2/1 सक (मुअ+इवि) संकृ [(एकल्ल)+ (इय)] (एकल्ला) 2/1 वि इय-अव्यय
एकल्लिय
छोड़कर अकेली यहाँ
तह वि
अव्यय
तो भी
S
अव्यय
नहीं
अपभ्रंश काव्य सौरभ
310
Page #322
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________________
सो
णियत्तु
भयभीयउ
मुणइ
पवंचु
सयलु
इणु
की उ
9.
जाय
रयण
עב
सीह - भ ह-भयाउर
पल्लट्टिवि
गय
to
पुणु
णियघर
10.
तासु
जणणि
महदुक्खें
तत्ती
हुय
णिरास
खण
पगलियणेत्ती
311
(त) 1 / 1 सवि
(णियत्त) भूक 1 / 1 अनि
[ (भय) - (भीयअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
(मुण) व 3 / 1 सक
( पवंच) 2 / 1
(सयल) 2 / 1 वि
(इम) 2 / 1 सवि
समझाता है (समझा )
छल
सबको
इस ( को )
(कीयअ) भूकृ 2/1 अनि 'अ' स्वार्थिक किया हुआ
( जा-जाय जाया) भूक 1/1
( रयणी) स्त्री 1/1
(त) 1/2 सवि
[(सीह) + (भय) + (आउर ) ] [ (सीह) - (भय) - (आउर ) 1 / 2 वि ]
(पल्लट्ट + इवि) संकृ
( गय) भूकृ 1 / 2 अनि
(त) 1/2 सवि
अव्यय
[ ( णिय) वि - (घर) 2 / 1]
(त) 6 / 1 स
( जणणी) 1 / 1
[ (मह) वि - ( दुक्ख ) 3 / 1]
(तत्त - (स्त्री) तत्ती) भूकृ 1 / 1 अनि
( हु - हुय - हुया ) भूकृ 1/1
(णिरास - (स्त्री) णिरासा) 1 / 1 वि
(खण) 7/1
[[ ( पगलिय) भूक - (णेत्त - (स्त्री) णेत्ती) 1/1] fa]
वह
लौटा
भयभीत
हुई
रात्रि
सिंह के भय से पीड़ित
पलटकर
गये
वे
फिर
अपने घर को
उसकी
माता
महादुःख के कारण
दु:खी
हुई
निराश
क्षण में
बहते हुए नेत्रवाली
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
11.
हा - हा
किह
सुवदंसणु
होइ
दुट्ठ
विहिहिँ
पुणु-पुणु
सा
कोस
12.
भाय-भाय
hc
हा
किम
जीवेसमि
सुबाहु
सुवत्सु
किम
पेच्छेसमि
13.
हा हा
किं
बंधव
णिचितउ
महु
सुउ
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
अव्यय
अव्यय
[(सुव) - (दंसण) 1 / 1]
(हो) भवि 3 / 1 अक
(दुट्ठ) 6/11 वि
(fafe) 6/11
अव्यय
(ता) 1 / 1 सवि
(कोस) व 3 / 1 सक
(237) 8/1
अव्यय
अव्यय
(जीव ) भवि 1 / 1 अक
(सुबाहु ) 2 / 1 वि
( सुवत्त) 2 / 1 वि
अव्यय
(पेच्छ) भवि 1 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
( बंधव ) 8 / 1
( णिचिंतअ ) 1 / 1 वि
( अम्ह ) 6 / 1 स
(सुअ) 1/1
हाय-हाय
कैसे
सुत का दर्शन
होगा
दुष्ट
किस्मत को
बार-बार
वह
कोसती है ( कोसने लगी)
हे भाई, हे भाई
हाय
कैसे
जनूँगी
सुन्दर भुजावाले
सुन्दर मुखवाले को
कैसे
देखूँगी
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
षष्ठी एकवचन में 'हिँ' प्रत्यय भी होता है। ( श्रीवास्तव, पृष्ठ 151 )
हाय-हाय
क्यों
भाई
निश्चिन्त
मेरा
पुत्र
312
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
विसमावत्थहिँ
पत्तउ
14.
ह
तुव
सरणि
विएसें
पत्ती
करहि
गंपि
महु
पुत्तहु
तत्ती
15.
महु
मणु
अच्छइ
बहुदुक्खायरु
इय
कंदंति
णिवारइ
भायरु
16.
अच्छहि
कलुणु
म
1.
313
[(विसम) + (अवत्थहिँ ) ] [(विसम) वि - (अवत्था ) 7 / 1]
( पत्तअ ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
( अम्ह ) 1 / 1 स
( तुम्ह ) 6 / 1 स
(सरण) 7/1
(विएस) 7/1
(पत्त - (स्त्री) पत्ती) भूकृ 1 / 1 अनि
(कर) विधि 2 / 1 सक
(गम + एप्पि) संकृ
( अम्ह) 4 / 1 स
(पुत्त ) 5 / 1
(afa) 1/1
( अम्ह) 6 / 1 स
(मण) 1/1
( अच्छ) व 3 / 1 अक
[ ( बहु) + (दुक्ख ) + (आयरु) ] [ ( बहु) वि - (दुक्ख ) - (आयर) 1 / 1 ]
अव्यय
(कंद - कंदंत-कदंती) वकृ 2/1
(णिवार) व 3 / 1 सक
( भायर) 1 / 1
( अच्छ) विधि 2 / 1 अक
(कलुण) 1/1 वि
अव्यय
कठिन (विषम) अवस्था में
पड़ा हुआ
मैं
तुम्हारी
शरण में
विदेश में
पड़ी हुई
करो
जाकर
मेरे लिए
पुत्र से
सन्तोष
मेरा
मन
c
बहुत दुःखों की खान
इस प्रकार
रोती हुई को
रोकता है
भाई
ठहरो
करुणा-जनक
गम्
के साथ सम्बन्धक कृदन्त के प्रत्यय 'एप्पिणु' और 'एप्पि' जोड़ने पर 'ए' का विकल्प से लोप हो जाता है। (गम - गमेप्पि - गंप्पि - गंपि) (हेम प्राकृत व्याकरण 4-442)
मत
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
कंदहि
रोओ हे बहिन
बहिणि पुर-सयासि
नगर के पास
(कंद) विधि 2/1 अक (बहिणि) 8/1 [(पुर)-(सयास) 7/1] (त) 1/1 सवि (णिवस) व 3/1 अक (रयणी)12/1
णिवसई
वह रहता है (रहेगा) रात्रि में
रयणी
17. जिम
णियउरि
धरियउ
खीरें
भरियउ
परपेसणेण
पोसियउ
अव्यय
पादपूरक [(णिय) वि-(उर) 7/1]
निज छाती से (धर-धरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक लगाया गया (खीर) 3/1
दूध से (भर-भरियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक पोषित [(पर) वि-(पेसण) 3/1]
दूसरों की सेवा से अव्यय (पोस-पोसिय--पोसियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
पाला गया [(मह) वि-(दुक्ख) 3/1]
बड़े कष्टों से (पाल) भूकृ 1/1
रक्षण किया गया (देह) 3/1
देह से (लाल) भूकृ 1/1
स्नेहपूर्वक सम्भाला गया (त) 2/1 स
उसको (वीसर) व 3/1 सक
भूलता है (भूलेगा) अव्यय
कैसे (हियअ) 1/1
हृदय
मह-दुक्खें पालिउ
देहँ
लालिउ
वीसरइ
केम
हियउ
कभी-कभी सप्तमी के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137) कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
314
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
हउँ
होतउ
दुख-दालि-जडिउ
पुव्वक्कि
दुक्क
डिउ
2.
णिद्वंधउ
छुह- तिस-संभरिउ
जणणिए
सहु
संतर
फिरिउ
3.
थक्कइ
असोय-माम
जि
घरि
ह
अत्थि
पट्टि
हिं
1.
2.
315
3.19
मैं
होता हुआ
दु:ख-दरिद्रता से युक्त
[ ( दुक्ख ) - (दालिद्द) - (जडिअ ) भूक 1 / 1 अनि]
[(पुव्व) वि - (क्किय ) ' भूक 3 / 1 अनि ] पूर्व में किए हुए
(दुक्कम) 3/1
दुष्कर्म के द्वारा
( णड) भूकृ 1 / 1
नचाया गया
( अम्ह) 1 / 1 स
(हो-होत होतअ) वकृ 1 / 1
'अ' स्वार्थिक
->
(णिर्द्धधअ) 1 / 1 वि
[ ( छुहा - छुह ) 2 - (तिस) - (संभर) भूकृ 1 /1]
( जणणी) 3 / 1
अव्यय
(देसंतर) 2/1
(फिर) भूकृ 1 / 1
(थक्कअ) दे. 7/1 'अ' स्वार्थिक
[ ( असोय) वि- (माम ) 6 / 1 ]
अव्यय
(घर) 7/1
(अम्ह) 1 / 1 स
(अस) व 1 / 1 अक
(पवट्ट) भूकृ 1 / 1 (त) 7 / 1 सवि
धन्धेरहित
भूख-प्यास सहित
माता के
साथ
विदेश में
फिरा
समय
अशोक मामा के
रहा
प्रवृत्त हुआ
उस
कभी-कभी तृतीया के लिए शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है। ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147 )
कभी-कभी समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है।
पादपूरक
घर में
मैं
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
पवरि
(पवर) 7/1 वि
4.
मइ
दाणु पदिण्णउँ मुणिवरहु' सहु जणणिए णिहणिय
(अम्ह) 3/1 स
मेरे द्वारा (दाण) 1/1
दान (पदिण्णअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक दिया गया (मुणिवर) 4/1
श्रेष्ठ मुनि के लिए... अव्यय
साथ (जणणी) 3/1
माता के [(णिहण) + (इय) (णिहण) 4/1] विनाश के लिए (इय) 6/1 स
इस (भवसर) 6/1
संसार सरोवर के
भवसरहु
हउँ
वच्छउलहँ
रक्खणहँ
गउ
(अम्ह) 1/1 स [(वच्छ)-(उल) 6/2]
बछड़ों के समूह की (रक्खण) 4/2
रक्षा के लिए (गअ) भूकृ 1/1 अनि
गया अव्यय (सुत्तअ) भूक 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक सो गया अव्यय
जैसे ही [[(विगय) भूकृ अनि-(भअ) 1/1] वि] नष्ट हुआ, भय
तहिं
वहाँ
सुत्तउ
जावहिँ
विगय-भउ
पवणाहय
वायु से आघात प्राप्त
णिय
[(पवण)+(आहय)] [(पवण)-(आहय) भूकृ 1/2 अनि] (त) 1/2 स (णिय) 7/1 वि (आय) भूक 1/2 अनि (घर) 7/1 (अम्ह) 1/1 स
आय
अपने आ गये घर में
घरि
हउँ
चतुर्थी एवं षष्ठी पु. नपु. एकवचन में 'हु' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
316
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
भयभीयउ
भय से काँपा हुआ
[(भय)-(भीयअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक] [(कंदरी-कंदरि)'-(विवर) 7/1]
कंदरि-विवरि
गुफा के द्वार पर
7.
थक्कउ
(थक्क) व 1/1 अक
बैठा
तहि
अव्यय
वहाँ
आयमु
(आयम) 1/1
आगम
बहु
सुणिउ संसार-सरूवउ वि चित्ति मुणिउ
अव्यय
बहुत (सुण) भूकृ 1/1
सुन गया [(संसार)-(सरूवअ) 1/1 'अ' स्वार्थिक] संसार का स्वरूप अव्यय
और (चित्त) 7/1
चित्त में (मुण) भूक 1/1
समझा गया
अव्यय
जब
णिवसमि
(णिवस) व 1/1 अक
ता
अव्यय
बैठता हूँ (बैठा) तब सिंह के द्वारा
सिंघेण
मारा गया
(सिंघ) 3/1 (हअ) भूक 1/1 अनि (अम्ह) 1/1 स (सुरवर) 6/1 (जा-जायअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक
सुरवर जायउ चिय
श्रेष्ठ देव का पाया पादपूरक विशिष्ट पद
अव्यय
विवउ
(वि-वअ) 2/1
मुणिवयणपसाएँ
[(मुणि)-(वयण)-(पसाअ) 3/1] मुनि के वचन के प्रसाद से दुक्खभरु [(दुक्ख)-(भर) 2/1]
दु:ख के बोझ को छिदिवि (छिंद+इवि) संकृ
काटकर कभी-कभी समास में दीर्घ का ह्रस्व हो जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4) वअ-वय-पद।
317
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
खणि
क्षण में
जायउ
(खण) 7/1 (जा-जायअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (सुक्ख)-(घर) 2/1
गया सुख के घर को
सुक्खघरु
10. एत्तहिं
तह
मायरि
माता
दुहभरिया महदुक्खें खविय
अव्यय
इधर (त) 6/1 स
उसकी (मायरि) 1/1 [(दुह)-(भर-भरिय-भरिया) भूक 1/1] दुःख से भरी हुई [(मह) वि-(दुक्ख) 3/1]
अत्यन्त कष्ट से (खव-खविय-खविया) भूक 1/1 बितायी गई (विहावरीय) 1/1 'य' स्वार्थिक रात्रि
विहावरिया
silenkilladt.vall.
(उपस्थित) होकर सुप्रभात में
सुप्पहाए
सयल
सब
मिलिया
मिले
(हु) संकृ (सुप्पहाअ) 7/1 (सयल) 1/2 वि अव्यय (मिल) भूक 1/2 अव्यय (जणणी) 3/1 अव्यय (जोय) 4/1 (चल) भूकृ 1/2
सह
साथ
जणणिए
माता के
जोयहु चलिया
पादपूरक खोजने के लिए चले
12.
सव्वत्थ
अव्यय
सब (सारे)
षष्ठी विभक्ति के लिए 'ह' प्रत्यय का भी प्रयोग होता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150) द्वितीया विभक्ति साथ में होने से 'जोअ' को हेत्वर्थ कृदन्त का प्रयोग मानें, तो 'जोअ=देखना' होना चाहिए था। तब इसका प्रयोग 'उ' प्रत्यय लगाकर (जोअ+उ) 'जोइउं' होना चाहिए था। यदि हम 'जोय' को संज्ञा मानते हैं तो 'तं' को द्वितीया विभक्ति नहीं कर सकते, उसे अव्यय मानना होगा। यह शब्द विचारणीय है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
318
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
वणम्मि
गवेसियउ
मह सोएँ पुरजण सोसियउ
(वण) 7/1
वन में (गवेस-गवेसियअ) भूक 1/1 'अ' स्वा. खोजा गया (मह) 3/1 वि
महान (सोअ) 3/1
शोक के कारण [(पुर)-(जण) 1/1]
नगर के जन (सोस-सोसियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वा. कृश हो गये (थे)
13.
खोज्जु णियंत. जंत संत पत्तइँ गिरि-गुह-वारि
(त) 6/1 स (खोज्ज) 2/1 (णिय-णियंत) वकृ 1/2 (जा-जंत) वकृ 12 (संत) भूक 1/2 अनि (पत्त) भूकृ 1/2 अनि [(गिरि)-(गुह)-(वार) 7/1] अव्यय
उसके मार्ग-चिह्न देखते हुए जाते हुए
थके हुए __ पहुंचे
पर्वत की गुफा के दरवाजे पर
पुणु
फिर
तहिँ
अव्यय
वहाँ
तहु कर-चलणइँ
बहु-दुह-जणणइँ दिट्ठई दहदिसि पडिय
(त) 6/1 स [(कर)-(चलण) 1/2] [(बहु) वि-(दुह)-(जणण) 1/2 वि] (दिट्ठ) भूकृ 1/2 अनि [(दह)-(दिसि) 2/2] (पड) भूकृ 1/2 (तणु) 6/1
उसके हाथ और पैर बहुत दु:ख के जनक देखे गये दसों दिशाओं में पड़े हुए शरीर के
तणु
तृतीया विभक्ति में भी शून्य प्रत्यय का प्रयोग पाया जाता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 147) षष्ठी पुल्लिंग एकवचन के लिए 'हु' प्रत्यय भी काम में आता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137)
319
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
Startet
मुच्छाविय
णिएवि
ताइ सयल
दुख
तेत्थु
ठाइ
2.
उम्मुच्छिवि
मायरि
मुइवि
धाह
रोवणह '
लग्ग
हा
हुय
अणह
3.
हा हा
महु
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
3.20
(मुच्छ+आवि= मुच्छावि - (भूक) मुच्छाविय कर दी गई मूच्छित (स्त्री) मुच्छाविया) प्रे. भूक 1 / 1
( जणणी) 1 / 1 (णिअ + एवि) संकृ
(त) 2 / 2 सवि
(सयल) 1/2 वि
सब
अव्यय
भी
(दुक्ख + आवि= दुक्खावि) प्रे. भूक 1/2 दुःखी
अव्यय
(3137) 7/1
(उम्मुच्छ+ इवि) संकृ
( मायरि) 1 / 1
(मुअ + इवि) संकृ
अव्यय
( रोवण ) 6 / 1
(लग्ग) 1 / 1
अव्यय
( हु - हुय - हुया ) भूकृ 1/1
(अणाह - (स्त्री) अणाहा ) 1 / 1 वि
अव्यय
( अम्ह ) 6 / 1
(णंदण) 1 / 1
माता
देखकर
उनको
वहाँ (उस)
स्थान पर
मूर्च्छित
माँ ने
छोड़कर
चिल्लाहट
रोने का
चिह्न
हाय
हो गई
अनाथ
ž
अकारान्त पुल्लिंग षष्ठी एकवचन में 'ह' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है। ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150 )
हाय-हाय
मेरे
पुत्र
320
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
हउँ
दुक्ख
किं
1
मुक्की णिक्कारणि
उवेक्खि
4.
वारंत हँ'
सव्वहँ
गयउ
काइ
हा हा
किं
णायउ
गेह-ठाइ
5.
किं
कुमइ
जाय
तुव
एह
पुत
वणि
आवासिउ
कमलवत्त
1.
321
( अम्ह) 1 / 1 स
(स- दुक्ख ) 7/1
अव्यय
(मुक्क~ (स्त्री) मुक्की) भूक 1 / 1 अनि
( णिक्कारण) 7 / 1 वि
( उवेक्ख) संकृ
( वार - वारंत) वकृ 6/2
रोकते हुए
(सव्व) 6 / 2 वि
सबके
( गयअ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक गये
अव्यय
क्यों
अव्यय
अव्यय
[(ण) + (आयउ ) ] ण = अव्यय
(आयअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
[(गेह) - (ठाअ) 7 / 1 ]
अव्यय
(कुमइ) 1/1
( जा-जाय जाया) भूकृ 1/1
( तुम्ह ) 6 / 1 स
(एता) 1 / 1 सवि
(पुत्त) 8/1
अव्यय
(वण) 7/1
(आवास) भूक 1 / 1
[[ ( कमल) - ( वत्त) 8 / 1] वि]
-
मैं
अत्यन्त दुःख
क्यों
छोड़ दी गई
निष्कारण
उपेक्षा करके
में
होने पर
हाय-हाय
क्यों
नहीं,
पहुँचे
निवास स्थान में
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
क्यों
कु
उत्पन्न हुई
तुम्हारे
यह
हे पुत्र
कि
वन में
रहा गया
कमल के समान मुखवाले
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
6
मुझको
छंडि
गयउ
IM
विएसि
(अम्ह) 6/1 स (छंड+इ) संकृ
छोड़कर (गयअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक चला गया (तुम्ह) 1/1 स अव्यय
क्यों (विएस) 7/1
परदेश में (अम्ह) 1/1 स (पाण) 2/1 (चय) व 1/1 सक
छोड़ती हूँ अव्यय अव्यय
यहाँ (इस) (पएस) 7/1
स्थान पर
हे
पाण
प्राण
चयमि
पएसि
इय
यह
भणिवि
चलण-कर
(इअ) 2/1 सवि (भण) संकृ [(चलण)-(कर) 2/2] (मेलव+एवि) संकृ (आलिंग) व 3/1 सक अव्यय (णेह) 3/1 (ले+एवि) संकृ
कहकर हाथों और पैरों को मिलाकर आलिंगन करती है
मेलवेवि
आलिंग
जा
जब
णेहेण
स्नेह से
लेवि
उठाकर
ता
अव्यय
तब
सुरवरु चिंतइ सग्गवासि
(सुरवर) 1/1 (चिंत) व 3/1 सक [(सग्ग)-(वासि) 1/1 वि]
श्रेष्ठ देव विचारता है स्वर्ग का वासी
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
322
Page #334
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________________
किम
अव्यय
जणणि
मज्झ
(जणणी) 1/1 (अम्ह) 6/1 स (हुव-हुअ हुआ) भूकृ 1/1 [(सोक्ख)-(रासि) 1/1 वि]
हुवा
सोक्खरासि
सुख की खान
9.
जाकर
जाइवि संबोहमि
(जा+इवि) संकृ (संबोह) व 1/1 सक (ता) 6/1 स
समझाता हूँ (समझाऊँगा) उसको
ताहिर
अव्यय
आज
अज्जु जिम
अव्यय
जिससे सिद्ध होता है (सिद्ध हो)
सिज्झइ
तहि
उसका
(सिज्झ) व 3/1 अक (ता) 6/1 स (परलोअ) 7/1 (कज्ज) 1/1
परलोइ
परलोक में
कज्जु
कार्य
10.
अण्णु
दूसरी
भी
णियगुरु-चरणारविंद
निज गुरु के चरणरूपी कमलों को
(अण्ण) 2/1 वि अव्यय [(णिय) + (गुरु)+(चरण)+ (अरविंद)] [(णिय) वि-(गुरु)-(चरण)-(अरविंद) 2/2] (पणम+अवि) संकृ (जा+इवि) संकृ [(गइ)-(मल) 1/1 वि] (अणिंद) 1/1 वि
पणमवि
प्रणाम करके
जाइवि
जाकर
मलरहित
गइमल अणिंद
निंदारहित
हुय-भूअ भूत (प्राकृत कोश)। स्त्रीलिंग शब्दों की षष्ठी विभक्ति एकवचन में 'हि' प्रत्यय भी प्रयोग में आता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 157) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
11.
इय
चितिवि
आयउ
हिँ
सुरे
मायइँ
करेवि
चिर-देह-सु
12.
णियडउ
आविवि
जंपिवि
सुवाय
किं
कंदहि
रोवहि
मज्झ
माय
13.
हउँ
जीवाणु
महु
णियहि
वतु
हउँ
अकयपुण्णु
णामेण
पुत्तु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(इया) 2 / 2 सवि
इनको
( चिंत + इवि) संकृ
सोचकर
(आयअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक आया
वहाँ
उत्तम देव
माया से
अव्यय
(सुरेस ) 1/1
(माया मायाए- मायाइ - मायाइँ) 3 / 1
(कर + एवि ) संकृ
[(चिर) वि - (देह) - (वेस) 2 / 1]
(णियडअ ) 2 / 1 'अ' स्वार्थिक
( आव + इवि ) संकृ
( जंप + इवि) संकृ
(सुवाया) 2 / 1
अव्यय
(कंद) व 2/1 अक
(रोव) व 2 / 1 अक
( अम्ह) 6 / 1 स
(माया) 8 / 1
( अम्ह) 1 / 1 स
(जीव) वकृ 1 / 1
( अम्ह ) 6 / 1 स
(णिय) विधि 2 / 1 सक
( वत्त) 2 / 1
( अम्ह) 1 / 1 स
( अकयपुण्ण) 1/1
( णाम) 3 / 1
(पुत्त) 1 / 1
बनाकर
पुरानी देह के वेश को
निकट
आकर
कहकर
मधुर वचन
क्यों
क्रन्दन करती हो
रोती हो
मेरी
हे माता
मैं
ता हुआ (जीवित)
मेरे
देखो
मुख को
मैं
अकृतपुण्य
नाम से
पुत्र
324
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
14.
मोहाउर
मोह से पीड़ित
णिसुणिवि
वयण
[(मोह)+(आउर)] [(मोह)-(आउर-आउरा) 1/1 वि] (णिसुण+इवि) संकृ (वयण) 2/1 अव्यय (णिच्छ+इ) संकृ (जाण+इउ) संकृ (अम्ह) 6/1 स (सुअ) 1/1 (अणग्घ) 1/1 वि
सुनकर वचन को शीघ्र निश्चय करके
सिग्घु
णिच्छइ जाणिउ
जानकर
महु
मेरा
पुत्र
अणग्घु
उत्तम
15.
मेल्लिवि
कर-चरण
छोड़कर हाथों और पैरों को बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले
बहुदुहकरण.
दौड़कर
धाइवि आलिंगेहि
आलिंगन करती है
तहर
उसका
(मेल्ल+इवि) संकृ [(कर)-(चरण) 2/2] [(बहु) वि-(दुह)-(करण) 2/2 वि] (धाअ+इवि) संकृ (आलिंग) व 3/1 सक (त) 6/1 स अव्यय (सुरवर) 1/1 (सारअ) 1/1 वि [(वसु)-(गुण)-(धारअ) 1/1 वि] (पअ) 2/1 (सर+एवि) संकृ (थिअ) भूकृ 1/1 अनि
तब
सुरवरु
श्रेष्ठ देव
सारउ
सर्वोत्तम
वसु-गुण-धारउ
पउ
आठ गुणों का धारक अवस्था को स्मरण करके स्थिर हुआ
सरेवि
थिउ
1.
परवर्ती रूप, श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 205 अकारान्त पुल्लिंग के षष्ठी एकवचन में 'हु' प्रत्यय भी काम में आता है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
325
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
सो
वि
लहु
1.
जंप
भो
बुझ
जणणि
सारु
जिणवणु
दयावरु
हँ
तारु
2.
को
कासु
णाहु
को
कासु
भिच्चु
जाहि
संसारु
जि
मणि
अणि
3.
मोहें
बद्धउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
अव्यय
3.21
(जंप) व 3/1 सक
अव्यय
( बुज्झ ) विधि 2 / 1 सक
( जणणी) 8/1
(सार) 2 / 1 वि
[(जिण) - (वयण) 2/1]
(दयावर ) 2 / 1 वि
( जण) 4 / 2
(तार) 2 / 1 वि
(क) 1 / 1 सवि
( क ) 6 / 1 सवि
(UITE) 1/1
(क) 1 / 1 सवि
(क) 6/1 सवि
( भिच्च) 1 / 1
(जाण) विधि 2 / 1 सक
(संसार) 2/1
अव्यय
मण) 7/1
( अणिच्च) 1 / 1 वि
वह
भी
शीघ्र
बोलता है (बोला)
हे
समझ
माता
श्रेष्ठ
जिन - वचन को
दयावान
मनुष्यों के लिए
उज्ज्वल
कौन
किसका
नाथ
कौन
किसका
नौकर
जान
संसार को
पादपूरक
मन में
अनित्य
(मोह) 3 / 1
मोह से
(बद्धअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक जकड़ा हुआ
326
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
मे-मे
करेड
मेरा-मेरा करता है आयु के समाप्त होने पर
आउक्खए
(अम्ह) 6/1 स (कर) व 3/1 सक (आउक्खअ) 7/1 (क) 1/1 स अव्यय (क) 6/11 स अव्यय (धर) व 3/1 सक
कोई भी
कासु
किसी को
नहीं
पकड़ता है
अइआरु
ण
[(अइ) वि-(आर) 1/1 वि] अव्यय (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
अत्यधिक बन्धनवाला नहीं किया जाता है (किया जाना चाहिए)
किज्जइ
मोह
मोह
अंबि
(मोह) 1/1 (अंबा-अंबे-अंबि) 8/1 [(जिण)-(धम्म) 2/1] (गह) विधि 2/1 सक
जिणधम्म
हे माता जिनधर्म को ग्रहण करो
महहि
मा
अव्यय
मत
अव्यय
यहाँ
विलंबि
(वि-लंब) विधि 2/1 अक
देरी करो
लब्भहिँ इच्छिय
(ज) 3/1 स (लब्भहिँ) व कर्म 3/2 सक अनि (इच्छ-इच्छिय) भूक 1/2 [(सयल) वि-(सुक्ख) 1/2] (छेअ) व कर्म 3/2 सक (ज) 3/1 स
जिसके द्वारा प्राप्त किए जाते हैं इच्छित सभी सुख नष्ट किए जाते हैं जिसके द्वारा
सयलसुक्ख छेइज्जहिँ
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) चार-आरबन्धन, इच्छा।
327
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
भवदुक्खलक्ख
[(भव)-(दुक्ख)-(लक्ख) 1/2]
संसार के लाखों दु:ख
खण
क्षण में
(खण) 7/1 (भंगुर) 1/1 (सयल) 1/1 वि
भंगुरु सयलु
नाशवान
सब (प्रत्येक)
अव्यय
मत
करहि
सोउ
शोक
मह
मुझको
पूणु
(कर) विधि 2/1 सक (सोअ) 2/1 (अम्ह) 6/1 स अव्यय (पेच्छ) विधि 2/1 सक (संजण) भूक 1/1 (मोअ) 1/1
फिर
देख
पेच्छहि संजणिय मोउ
उत्पन्न हुआ
हर्ष
सद्दहहि
श्रद्धा कर जिनागम को (का)
जिणायमु
सरिवि
स्मरण करके
अज्जु
(सद्दह) विधि 2/1 सक [(जिण) + (आयमु)] [(जिण)-(आयम) 2/1] (सर+इवि) संकृ
अव्यय (हुअ) भूकृ 1/1 [(पढम) वि-(सग्ग) 7/1] (सुर) 1/1 [(देव)-(पुज्ज) 1/1 वि]
आज
पढम-सग्गि
हुआ प्रथम स्वर्ग में देव देवों द्वारा पूज्य
सुर
देवपुज्जु
8.
अवधि-ज्ञान से
अवहिए जाणिवि
(अवहि) 3/1 (जाण+इवि) संकृ
जानकर
अकारान्त पुल्लिंग, सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'शून्य' प्रत्यय का प्रयोग भी होता है (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन. पृष्ठ 147) कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
328
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
हउँ
एत्थु
यहाँ
आउ
आया
तुव
(अम्ह) 1/1 स अव्यय (आअ) भूकृ 1/1 अनि (तुम्ह) 6/1 स [(बोहण)+(अत्थि)] [(बोहण)-(अत्थि) 1/1 वि] [(पयडिय)+ (सुव)+आउ)] [(पयडिय) भूक-(सुव)-(आयु) 1/1]
तुम्हारी
बोहणत्थि
शिक्षा (बोध) का इच्छुक
पयडिय-सुवाउ
प्रकट की गयी, पुत्र की आयु
वयणु
सुणिवि उवसंतमोह
कर-चरण
(इय) 2/1 सवि
इस (वयण) 2/1
वचन को (सुण+इवि) संकृ
सुनकर [[(उवसंत) भूकृ अनि-(मोह) 1/1] वि] शान्त हुआ, मोह [(कर)-(चरण) 2/2]
हाथ-पैरों को (मुअ+इवि) संकृ
छोड़कर (जा--(भूकृ) जाय- (स्त्री) जाया) भूकृ 1/1 (सुबोहा) 1/1 वि
उत्तम ज्ञानवाली
मुइवि
जाया
सुबोह
10.
पुणु णिय-मुणिणाह पासि
देव के द्वारा फिर अपने मुनिनाथ (गुरु) के
पास
वरु
(देव) 3/1 अव्यय [(णिय) वि-(मुणिणाह) 6/1] | (पास) 7/1 अव्यय [(गुह)-(अब्भंतर) 7/1] अव्यय (गय) भूक 1/1 अनि (तासि)' 6/1 वि
श्रेष्ठ
गुह-अब्भंतरि
गुफा के भीतर
ही
गय
जाया गया
तासि
भयंकर
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
329
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
11.
ति
पयाहिणि
देप्पि
गुरुयाइँ
देवें
वन्दिय
ता
रहियाइँ
12.
बहु
थो
पयासिवि
चिरकह
भासिवि
तुम्ह
पसाएँ
देव
पउ
म
पाविउ
धण्णउ
बहु-सहु छण्णउ
एम
भणिवि
पणवाउ'
कउ
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(fa) 2/2 fa
(पयाहिण - (स्त्री) पयाहिणी) 2 / 2
(दा+एप्पिणु) संकृ
[(गुरु) - (पय) 2/2]
(देव) 3 / 1
(वंद) भूकृ 1 / 1
अव्यय
(गरह) भूकृ 1 / 2
(बहु) 2/1 वि
(थोत्त) 2 / 1
( पयास + इवि) संकृ
[(चिर) वि - ( कहा ) 2 /1]
( भास + इवि) संकृ
( तुम्ह) 6/1
(पसाअ ) 3/1
(देव) 6/1
(437) 1/1
( अम्ह ) 3 / 1 स
प्रणिपात = पणवाअ = प्रणाम |
तीन
प्रदक्षिणा
देकर
गुरुचरणों को देव के द्वारा
वन्दना की गई
तब
निन्दित किए गए
बहुत
स्तुति
व्यक्त करके
पुरानी कथा
कहकर
तुम्हारी
कृपा से देव का
(पाव) भूकृ 1 / 1
(धण्णअ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्रशंसनीय
[(बहु) वि- (सुह) - (छण्णअ)
भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
अव्यय
(भण + इवि) संकृ
( पणवाअ ) 1 / 1
(कअ ) भूक 1 / 1 अनि
पद
मेरे द्वारा
प्राप्त किया गया
बहुत सुखों से आच्छादित
इस प्रकार
कहकर
प्रणाम
किया गया
330
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
1.
सायरु
उप्पर
तणु
धरइ
तलि
घल्लइ
रयणाई
सामि
सुभिच्चु
विपरिहरइ
संमाणे
खलाई
2.
दूड्डाणे
पडिउ
खलु
अप्पणु
जणु
मारेइ
जिह
1.
331
पाठ 14
हेमचन्द्र के दोहे
( सायर) 1 / 1
अव्यय
( तण ) 2 / 1
(धर) व 3 / 1 सक
(तल) 7/1
(घल्ल) व 3 / 1 सक
( रयण) 2/2
(सामि) 1 / 1
(सु - भिच्च) 2/1
(वि-परिहर) व 3 / 1 सक
( संमाण) व 3 / 1 सक
(खल) 2/2
[(दूर) + (उड्डाणे ) ] दूर (क्रिविअ )
उड्डाणे ( उड्डाण ) 7/1
(पड - पडिअ ) भूक 1/1
(खल) 1 / 1 वि
( अप्पण) 2/1
( जण ) 2 / 1
(मार) व 3 / 1 सक
अव्यय
सागर
ऊपर
घास-फूस को
रखता है
पैदे में
फेंक देता है
रत्नों को
राजा
गुणवान सेवक को
त्याग देता है
सम्मान करता है।
दुष्ट सेवकों को (का)
ऊँचाई से,
उड़ने के कारण
गिरा हुआ
दुष्ट
अपने को
कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135)
मनुष्य को (मनुष्यों को)
नष्ट करता है
जिस प्रकार
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
गिरि - सिंगहुँ
पडिअ
सिल
अन्नु
वि
चूरु
करेइ
3.
जो
गुण
गोवइ
अप्पणा
पयडा
करइ
परस्सु
तसु
ह
कलि-जुगि
दुलह
बलि
किज्जउं
सुअणस्सु
4.
दइवु
घडावइ
वणि
तरुहुँ
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
[ ( गिरि) - (सिंग) 5 / 2]
(पड - पडिअ - (स्त्री) पडिआ ) 1 / 1
( सिला) 1 / 1
(अन्न) 2 / 1 वि
अव्यय
(चूर) 2/1
(कर) व 3 / 1 सक
(ज) 1 / 1 सवि
(गुण) 2/2
(गोव) व 3 / 1 सक
( अप्प) 6 / 1 वि
( पयड) 2 / 1 वि
(कर) व 3 / 1 सक
( पर) 6 / 1 वि
(त) 6 / 1 सवि
( अम्ह) 1 / 1 स
[(कलि)-(जुग) 7/1]
(दुल्लह) 6/1 वि
(बलि) 2 / 1
(कि+ज्ज) व
(सुअण) 6/1
सक
( दइव) 1 / 1
(घडाव) व 3 / 1 सक
( वण) 7/1
(तरु) 6/2
पर्वत की शिखा से
गिरी हुई
शिला
अन्य को
भी
टुकड़े-टुकड़े
=
कर देती है
जो
गुणों को
छिपाता है
स्वयं के
प्रकट
करता है
दूसरे
उस (की)
मैं
कभी-कभी क्रिया और काल के प्रत्यय के बीच में 'ज्ज' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण)
कलियुग में
दुर्लभ
पूजा ( को )
करता हूँ
सज्जन की
दैव (ने)
बनाता है (बनाये)
वन में
वृक्षों के
332
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
सउणिह
पक्षियों के लिए
पक्क
पके
फलाई
फल
सो
(सउणि) 4/2 (पक्क) 2/2 वि (फल) 2/2 (त) 1/1 सवि अव्यय (सुक्ख) 1/1 वि (पइट्ठ) भूक 1/2 अनि
वरि
सुक्खु
सुख प्रवेश (प्रविष्ट) हुआ
अव्यय
नहीं
अव्यय
कण्णहिं खल-वयणाई
(कण्ण) 7/2 [(खल) वि-(वयण) 1/2]
पादपूरक कानों में दुष्टों के वचन
5.
धवलु
उत्तम बैल
विसूरइ
खेद करता है
सामि
अहो
(धवल) 1/1 (विसूर) व 3/1 अक (सामि) 6/1 अव्यय (गरुअ) 2/1 वि (भर) 2/1 (पिक्ख) संकृ (अम्ह) 1/1 स
गरुआ
स्वामी के सम्बोधनार्थक बड़े (को) भार को देखकर
भरु
पिक्खेवि
अव्यय
क्यों
जुत्तउ
अव्यय
नहीं (जुत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक जोत दिया गया (दु)' 6/2 वि
दो (में) (दिसि) 7/2
दिशाओं में (खंड) 2/2
विभाग (दो) 2/2 वि
दिसिहं
खंडई
दोणि
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
333
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
करेवि
(कर+एवि) संकृ
करके
कमलों को
कमलई मेल्लवि
छोड़कर भँवरों के
अलि
उलई करि-गंडाई महन्ति असुलह-मेच्छण'
(कमल) 2/2 (मेल्ल+अवि) संकृ (अलि ) 6/2 (उल) 1/2 [(करि)- (गंड) 2/2] (मह) व 3/2 सक [(असुलह)+ (एच्छण)] (असुलह) 2/1 वि (एच्छण) 2/1 वि (ज) 6/2 स (भलि) 1/1 (दे) (त) 1/2 स अव्यय
समूह हाथियों के गण्डस्थलों को इच्छा करते हैं, चाहते हैं असुलभ, लक्ष्य को जिनका
जाह
कदाग्रह
नहीं बिल्कुल
अव्यय
दूर
(दूर) 2/1 वि (गण) व 3/2 सक
गणन्ति
मानते हैं
जीविउ
जीवन किसके लिए
कासु
(जीविअ) 1/1 (क) 4/1 स अव्यय (वल्लहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (धण) 1/1
नहीं
वल्लहउं
प्रिय
धणु
धन
पुणु
अव्यय
कासु
(क) 4/1 स
किसके लिए अव्यय
नहीं (इ8) भूकृ 1/1 अनि
प्रिय (दो) 2/2 वि
दोनों को एच्छण (वि) लक्ष्य को (हेम प्राकृत व्याकरण, कोष सूची पृष्ठ 25) भलि-कदाग्रह।
दोण्णि
1. 2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
334
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
अवसर-निवडिआई
समय आ पड़ने पर
तिण-सम
[(अवसर)-(निवड-निवडिअ) भूकृ 7/1] [(तिण)-(सम) 1/1 वि] (गण) व 3/1 सक (विसिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
गणइ
तिनके के समान गिनता है विशेष गुण-सम्पन्न
विसिट्ट
बलि
अब्भत्थणि
बलि (राजा) से माँगनेवाला होने के कारण विष्णु छोटा
महु-महणु लहई
हुआ
RAM
(बलि) 6/1 (अब्भत्थण) 7/1 (महुमहण) 1/1 (लहु-(स्त्री) लहुई) 1/1 वि (हूआ) भूकृ 1/1 अनि (त) 1/1 सवि अव्यय अव्यय (इच्छ) विधि 2/1 सक (बड्डत्तणअ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (दा) विधि 2/1 सक अव्यय (मग्ग) विधि 2/1 सक (क) 1/1 स
यदि
इच्छहु वड्डत्तणउं
चाहते हो बड़प्पन को
मत
मग्गहु
माँगो
कोई
कुछ (भी)
9.
कुञ्जर
सुमरि
(कुञ्जर) 8/1
हे गजराज (सुमर) विधि 2/1 सक
याद कर श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 कभी-कभी पंचमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर सप्तमी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-135) श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 212 अनिश्चित अर्थ के लिए 'इ' जोड़ दिया जाता है।
5.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
म
सल्लाइउ
सरला
सास
म
मेल्लि
कवल
जि
पाविय
विहि- वसिण
ते
चरि
माणु
म
मेल्लि
10.
दिअहा
जन्ति
झडप्पडहिं
पडहिं
मणोरह
पच्छि
4.
जं
अच्छइ
तं
माणिअ
इ
al.
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
अव्यय
(सल्लइ - अ) 2/1 'अ' स्वार्थिक
(सरल) 2 / 2 वि
(सास) 2/2
अव्यय
(मेल्ल) विधि 2 / 1 सक
( कवल ) 1/2
(ज- - जे जि) 1 / 2 स
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 143 (2) नपु. 3/2 क्रिविअ की भाँति काम कर रहा है।
( पाव - पाविय) भूक 1/2
प्राप्त किया गया
[ ( विहि) - (वस - वसेण - वसिण ) - 3 / 1 वि] विधि के वश से
(त) 2 / 2 सवि
उनको
(चर) विधि 2 / 1 सक
( माण ) 2 / 1
अव्यय
(मेल्ल) विधि 2 / 1 सक
( दिअह) 1/2
( जा + जन्ति) व 3 / 2 सक
( झडप्पड ) 3 / 2
( पड) व 3 / 2 अक
(मणोरह) 1/2
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
( अच्छ) व 3 / 1 अक
(त) 1 / 1 सवि
(माण - माणिअ) संकृ ( प्राकृत)
अव्यय
मत
शल्लकी (वृक्ष) को स्वाभाविक ( को )
साँसों को
मत
त्याग
ग्रास (भोजन)
जो
खा
स्वाभिमान को
मत
छोड़
दिन
व्यतीत होते
झटपट से
रह जाती हैं
इच्छाएँ
पीछे
जो
होना है
वह
मानकर
336
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
བྷྲ གཽ སྠཽ ཡཾ ཎཱ ཚཱ ཤྲཱ ལྤ ཏྠཱ ཡ ཝཱ ཤྲཱ ཚཱ དྒཱ མ ཎྜཱ ཙྪཱ
तसु
वि
मुण्डियउं
जसु
खल्लिहडउ
सीसु
12.
त
तेत्तिउ
जलु
सायरहो
1.
2.
3.
4.
337
अनुस्वार का आगम ।
खल्लिहड = गंजा ।
भवि 3/1 अक
( कर-करन्त-करत ' ) वकृ 1 / 1
अव्यय
( अच्छ) विधि 2 / 1 अक
( सन्त) 2 / 2 वि
(भोग) 2/2 (ज) 1 / 1 सवि
(परिहर) व 3 / 1 सक (त) 6 / 1 सवि
(कान्त - कन्त) 6 / 1 (बलि) 2 / 1
(कीसु) व 1 / 1 सक
(त) 6 / 1 स
(दइव) 3 / 1
अव्यय
(मुण्ड - मुण्डिय - मुण्डियअ) भूक 1 / 1 'अ' स्वार्थिक
(ज) 6/1 स
( खल्लिहड - अ ) ' 1 / 1 वि 'अ' स्वा.
(सीस) 1 / 1
'करत' प्रयोग विचारणीय है।
हेम प्राकृत व्याकरण 4 - 389
(त) 1/1 वि
( तेत्तिअ ) 1 / 1 वि
(जल) 1 / 1
( सायर) 6/1
होगा
सोचता हुआ
मत
ਕੈਟ
विद्यमान
भोगों को
जो
त्यागता है
उस (की)
सुन्दर (व्यक्ति) की
ླ
पूजा
करता हूँ
उसका
दैव के द्वारा
ही
मुण्डा हुआ
जिसका
गंजा
सिर
वह
उतना ( इतना )
जल
सागर का
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
वह
तेवडु
उतना (इतना) विस्तार
वित्थारु
(त) 1/1 वि (तेवड) 1/1 सवि (वित्थार) 1/1 सवि (तिसा) 6/1 (निवारण) 1/1 (पल) 1/1
तिसहे
प्यास का निवारण
निवारण
पल
जरा सा
अव्यय
अव्यय
नहीं
किन्तु
धुहुअइ
अव्यय (धुटुअ) व 3/1 अक (असार) 1/1 वि
आवाज करता रहता है निरर्थक
असारु
13.
किर
खाइ
पिअइ
विद्दवइ धम्मि
धर्म में
अव्यय
निश्चय ही (खा) व 3/1 सक
खाता है अव्यय
नहीं (पिअ) व 3/1 सक
पीता हैं अव्यय
नहीं (विद्दव) व 3/1 सक
भागता है (घूमता है) (धम्म) 7/1 अव्यय (वेच्च) व 3/1 सक
व्यय करता है (रुअ+अडअ)' 2/1 'अडअ' स्वार्थिक रुपये को अव्यय
यहाँ (किवण) 1/1 वि
कंजूस, कृपण अव्यय
नहीं (जाण) व 3/1 सक
समझता है
नहीं
वेच्वइ
रुअडउ
किवणु
जाणइ
जबकि
अव्यय (जम) 6/1 (खण) 3/1 क्रिविअ
जमहो खणेण
यम का
क्षणभर में
रुअअ+अडअ= रूअअडअ = रूअडअ-रुपया
अपभ्रंश काव्य सौरभ
338
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
पहुच्चइ दूअडउ
(पहुच्च) व 3/1 अक (दूअ+अडअ) 1/1 ‘अडअ' स्वार्थिक
पहुँचता है दूत
14.
कहिं
अव्यय
ससहरु
(ससहर) 1/1
कहीं, कहाँ चन्द्रमा कहाँ
कहि
अव्यय
मयरहरु
(मयरहर) 1/1
समुद्र
कहिं
अव्यय
कहाँ
(बरिहिण) 1/1
मोर
बरिहिणु कर्हि
अव्यय
कहाँ
मेघ
दूर-ठिआहे
दूरी पर, स्थित
भी
(मेह) 1/1 [(दूर)-(ठिआह)] दूर-अव्यय (ठिअ) भूकृ 6/2 अनि अव्यय (सज्जण) 6/2 (हो) व 3/1 अक (असठ्ठलु) 1/1 वि (नेह) 1/1
सज्जणहं
सज्जनों का होता है
होइ
असङलु
असाधारण
प्रेम
म
15. सरिहिं
नदियों से
(सरि) 3/2
अव्यय (सर) 3/2
न
सरेहि
झीलों से
अव्यय
सरवरेहिं
(सरवर) 3/2
नवि
अव्यय
तालाबों से न ही उद्यानों और वनों से
उज्जाण-वणेहि
देस
रवण्णा
[(उज्जाण)-(वण)] 3/2 (देस) 1/2 (रवण्ण) 1/2 वि (हो) व 3/2 अक (वढ) 6/1 वि
होन्ति
सुन्दर होते हैं हे मूर्ख
वढ
339
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
निवसन्तेहिं सु-अणेहिं
(निवस-निवसन्त) वकृ 3/2 (सु-अण) 3/2
बसे हुए होने के कारण सज्जनों से (द्वारा)
16.
एक्क
एक
कुडुल्ली
पञ्चहिं रुद्धि
(एक्क) 1/1 वि (कुडि+उल्ल=कुडुल्ल-(स्त्री) कुडुल्ली) 1/1 ‘उल्ल' स्वार्थिक (पञ्च) 3/2 वि (रुद्धि) भूकृ 1/1 अनि (त) 6/2 सवि (पञ्च) 6/2 वि अव्यय
पञ्चह
कुटिया पाँच के द्वारा रोकी हुई उन (की) पाँचों की भी अलग-अलग बुद्धि हे बहिन सम्बोधनार्थक
अव्यय
जुअं-जुअ बुद्धि बहिणु
वह
(बुद्धि) 1/1 (बहिणु) 8/1
अव्यय (त) 1/1 सवि (घर) 1/1 (कह) विधि 2/1 सक अव्यय (नन्दअ) 1/1 वि
घर कहो
किवँ
कैसे
नन्दउ
हर्ष मनानेवाला
जेत्थु
अव्यय
जहाँ
कुडुम्बउं
(कुडुम्ब-कुडुम्बअ) 1/1 (अप्पणछंदअ) न 1/1 वि
कुटुम्ब स्वछन्दी
अप्पणछंदउ
17.
जिब्भिन्दिउ
रसना इन्द्रिय को
नायगु
[(जिन्भ)+(इन्दिअ)] [(जिब्भ)-(इन्दिअ) 2/1] (नायग) 2/1 वि (वस) 7/1 वि (कर) विधि 2/2 सक (ज) 6/1 स
प्रमुख वश में
वसि
कर
करो
जिसके
अपभ्रंश काव्य सौरभ
340
Page #352
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________________
अधिन्नई
अन्नई
मलि
विणट्ठइ
(अधिन्न) 1/2 वि
अधीन (अन्न) 1/2 वि
अन्य (मूल) 7/1
मूल के (विणट्ठअ) भूक 7/1 अनि 'अ' स्वार्थिक समाप्त हो जाने पर (तुंबिणी) 6/1
तुम्बिनी के अव्यय
अवश्य ही (पण्ण) 1/2
पत्ते
तुंबिणिहे अवसें
पण्णई
18. जेप्पि
असेसु
जीतकर सम्पूर्ण कषाय की सेना को देकर
कसाय-बलु देप्पिणु
अभउ
जयस्सु लेवि
(जि+एप्पि) संकृ (असेस) 2/1 वि [(कसाय)-(बल) 2/1] (दा+एप्पिणु) संकृ (अभअ) 2/1 (जय) 4/1 (ले+एवि) संकृ (महव्वय) 2/2 (सिव) 2/1 (लह) व 3/2 सक (झा+एविणु) संकृ (तत्त) 6/1
अभय जगत के लिए (को) ग्रहण करके महाव्रतों को
महव्वय
सिवु
मोक्ष
लहर्हि झाएविणु तत्तस्सु
प्राप्त करते हैं ध्यान करके
तत्त्व (का) को
19.
देवं
दुक्कर
(दा+एवं) हेकृ (दुक्कर) 1/1 वि [(निअय) वि-(धण) 2/1] (कर+अण) हेक
देने के लिए दुष्कर निजधन को करने के लिए
निअय धणु
करण
अव्यय
नहीं
(तअ) 2/1
तप को
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
341
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
(पडिहा) व 3/1 अक
पडिहाइ एम्वइ
अव्यय
दिखाई देता है इसी प्रकार सुख को भोगने के लिए
सुहु
भुजणहं
(सुह) 2/1 (भुज+अणह) हेक (मण) 1/1
मणु
मन
पर
अव्यय
किन्तु
भुञ्जणहिं
(भुज+अणहिं) हेक अव्यय (जा) व 3/1 अक
भोगने के लिए नहीं उत्पन्न होता है
जाइ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
342
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुणु-पुणु
पणविवि
पंच-गुरु
भावें चित्ति
धरेवि
भट्टपहायर
णिसुणि
तुहुँ - तुहुँ'
अप्पा
तिविहु
कहेवि
2.
अप्पा
ति-विहु
मुणेवि
लहु
मूढउ
मेल्लहि
भाउ
1.
343
पाठ - 15
परमात्मप्रकाश
अव्यय
(पणव + इवि) संकृ
[(पंच) वि- (गुरु) 2/2]
(भाव) 3 / 1
(चित्त) 7 / 1
(धर + एवि ) संकृ
( भट्टपहायर) 8 / 1
(णिसुण) विधि 2 / 1 सक
( तुम्ह ) 1 / 1 स
( अप्प ) 2 / 1
(तिविह) 2 / 1 वि
(कह + एवि) हे
(3709) 2/1
(तिविह) 2 / 1 वि
(मुण + एवि) संकृ
अव्यय
8
( मूढअ) 2 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(मेल्ल) विधि 2 / 1 सक (737) 2/1
बार-बार
प्रणाम करके
पाँच गुरुओं को
अन्तरंग बहुमान (भाव) से
चित्त में
धारण करके
हे भट्ट प्रभाकर
सुन
तू
आत्मा को
तीन प्रकार की
कहने के लिए
आत्मा को
तीन प्रकार की
पदों के अन्त में यदि 'उं, हुं, हिं, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका उच्चारण प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। इसलिए यहाँ तुहुं का ह्रस्व रूप बताने के लिए तुहुँ किया गया है । (हेम प्राकृत व्याकरण 4-411 )
जानकर
शीघ्र
मूर्च्छित
छोड़
आत्मावस्था (भाव) को
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #355
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________________
मुणि
जान
सण्णाणे
स्वबोध के द्वारा
णाणमउ
ज्ञानमय
(मुण) विधि 2/1 सक (स-प्रणाण) 3/1 (णाणमअ) 1/1 वि (ज) 1/1 सवि [(परम)+(अप्प)+ (सहाउ)] [(परम) वि-(अप्प)-(सहाअ) 1/1]
जो
परमप्प-सहाउ
परमात्म-स्वभाव
मूर्च्छित
वियक्खणु
जाग्रत
बंभु
आत्मा
परु
परम
अप्पा
ति-विह
आत्मा तीन प्रकार की होती है देह को
हवेइ
(मूढ) 1/1 वि (वियक्खण) 1/1 वि (बंभ) 1/1 (पर) 1/1 वि (अप्प) 1/1 (तिविह) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक (देह) 2/1 अव्यय (अप्प) 2/1 (ज) 1/1 सवि (मुण) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (जण) 1/1 (मूढ) 1/1 वि (हव) व 3/1 अक
ही
अप्पा
आत्मा
जो
मुणइ
मानता है
सो
वह
जणु
मनुष्य मूर्च्छित होता है
4.
देह-विभिण्णउ
देह से भिन्न
णाणमउ
ज्ञानमय
[(देह)-(विभिण्णअ) 2/1 वि 'अ' स्वार्थिक] (णाणमअ) 2/1 वि (ज) 1/1 सवि [(परम)+ (अप्पु)] [(परम) वि-(अप्प) 2/1]
परमप्पु.
परम आत्मा को
अपभ्रंश काव्य सौरभ
344
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिएइ
परम-समाहि-परिट्ठियउ
पंडिउ
सो
जि
हवे
5.
अप्पा
लद्धउ
णाणमउ
कम्म-विमुक्
जेण
मेल्लिवि
सयलु
वि
दव्वु
परु
च
3 2
परु
मणेण
6.
णिच्चु
णिरंजणु
णाणमउ
परमाणंद-सहाउ
合
एहउ
345
(णिअ) व 3 / 1 सक
[(परम) वि - ( समाहि) - (परिट्ठियअ) भूक
2 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
(पंडिअ ) 1/1 सवि
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
( हव) व 3 / 1 अक
( अप्प ) 1 / 1
(लद्धअ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
( णाणमअ) 1 / 1 वि
[(कम्म) - (विमुक्क) 3 / 1 वि]
(ज) 3 / 1 स
(मेल्ल + इवि ) संकृ
(सयल) 2 / 1 वि
अव्यय
( दव्व) 2/1
( पर) 2 / 1 वि (त) 1 / 1 सवि
( पर) 1 / 1 वि
(मुण) विधि 2 / 1 सक
(मण) 3 / 1 क्रिया वि. की तरह प्रयुक्त
( णिच्च) 1 / 1 वि
( णिरंजण) 1 / 1 वि
( णाणमअ) 1 / 1 वि
[(परम) + (आनंद) + (सहाउ ) ] [(परम) वि-(आणंद)-(सहाअ) 1 / 1 ]
(ज) 1 / 1 सवि
( एहअ ) 2 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
देखता है (समझता है ) परम समाधि में ठहरे हुए
जाग्रत ( तत्त्वज्ञ)
वह
ही
होता है
आत्मा
प्राप्त किया गया
ज्ञानमय
कर्मरहित होने के कारण
जिसके द्वारा
छोड़कर
सकल
द्रव्य को
पर
वह
सर्वोच्च
समझो
रुचिपूर्वक
नित्य
निरंजन
ज्ञानमय
परमानन्द स्वभाव
जिसने
ऐसी
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #357
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________________
वह
सिउ
(त) 1/1 सवि (संत) भूकृ 1/1 अनि (सिअ) 1/1 वि (त) 6/1 स (मुण+इज्ज+हि) विधि 2/1 सक (भाअ) 2/1
सन्तुष्ट हुआ मंगलयुक्त उसकी
तासु
समझ
मुणिज्जहि भाउ
अवस्था को
जो
णिय-भाउ
निज स्वभाव को नहीं छोड़ता है
परिहाइ
जो
पर-भाउ
पर स्वभाव को
नहीं
लेइ .
जाणइ
(ज) 1/1 सवि [(णिय) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (परिहर) व 3/1 सक (ज) 1/1 सवि [(पर) वि-(भाअ) 2/1] अव्यय (ले) व 3/1 सक (जाण) व 3/1 सक (सयल) 2/1 वि अव्यय (णिच्च) 1/1 वि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (सिअ) 1/1 वि (संत) भूकृ 1/1 अनि (हव) व 3/1 अक
ग्रहण करता है जानता है सकल को
सयलु
णिच्चु
प
नित्य सर्वोच्च
वह
मंगलयुक्त सन्तुष्ट हुआ बनता है (बना है)
हवेइ
जासु
वण्णु
(ज) 6/1 स
जिसका अव्यय
(वण्ण) 1/1 विधि अर्थ के मध्यम पुरुष के एकवचन में 'इज्जहि' प्रत्यय वैकल्पिक रूप से प्राप्त होता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-175)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
346
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
गंध
अव्यय (गंध) 1/1 (रस) 1/1 (ज) 6/1 स
रस
जिसमें
अव्यय
(सद्द) 1/1
शब्द
अव्यय
स्पर्श जिसका
जासु
न
(फास) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय (जम्मण) 1/1 (मरण) 1/1 अव्यय
जन्म
जम्मणु मरणु
मरण
अव्यय
णाउ
नाम
णिरंजणु
(णाअ) 1/1 (णिरंजण) 1/1 वि (त) 6/1 स
निष्कलंक
तासु
उसका
जासू
(ज) 6/1 स
जिसके
अव्यय
न
क्रोध
मोह
मउ
(कोह) 1/1
अव्यय (मोह) 1/1 (मअ) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय (माया) 1/1
मद जिसके
जासु
ण
माय
माया
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
347
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #359
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________________
अव्यय
माणु
(माण) 1/1
मान
जासु
(ज) 4/1 स
अव्यय
जिसके लिए नहीं देश नहीं
ठाणु
(ठाण) 1/1
अव्यय
ध्यान
झाणु जिय
आत्मा
वह
(झाण) 1/1 (जिय) 1/1 (त) 1/1 सवि अव्यय (णिरंजण) 1/1 वि (जाण) विधि 2/1 सक
.....! . . . . . . ..
णिरंजणु
निष्कलंक
जाणु
जानो
10.
अस्थि
अव्यय
अव्यय
पुण्णु
पुण्य
पाउ
(पुण्ण) 1/1 अव्यय (पाअ) 1/1 (ज) 6/1 स अव्यय
पाप जिसमें
जसु अस्थि
अव्यय
नहीं
हर्ष
हरिसु विसाउ
(हरिस) 1/1 (विसाअ) 1/1
शोक
अत्थि
अव्यय
नहीं
अव्यय (एक्क) 1/1 वि अव्यय
एक
भी
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
अपभ्रंश काव्य सौरभ
348
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________________
(दोस) 1/1 (ज) 6/1 स
दोष जिसमें
FREE
(त) 1/1 सवि
वह
णिरंजणु
अव्यय (णिरंजण) 1/1 वि (भाअ) 1/1
निष्कलंक
भाउ
अवस्था
11.
जासु
(ज) 4/1 स
जिसके लिए
ण
अव्यय
नहीं
धारणु
अवलम्बन
(धारण) 1/1 (धेअ) 1/1
घेउ
उद्देश्य
अव्यय
नहीं
वि
अव्यय
भी
जासु
(ज) 4/1
स
जिसके लिए
अव्यय
(जंत) 1/1
अव्यय (मंत) 1/1 (ज) 4/1 स
जिसके लिए
ण
अव्यय
नहीं
मंडलु
आसन
(मंडल) 1/1 (मुद्दा) 1/1 अव्यय
अव्यय
म
(त) 1/1 सवि (मुण) विधि 2/1 सक
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
349
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #361
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________________
देउँ
दिव्यात्मा
(देअ) 1/1 (अणंत) 1/1 वि
अणतु
अनन्त
12. वेयहि सत्थहिं इंदियहिं
(वेय) 3/2 (सत्थ) 3/2 (इंदिय) 3/2
आगमों द्वारा शास्त्रों (ग्रन्थों) द्वारा इन्द्रियों द्वारा
(ज) 1/1 सवि
जो
जिय
चैतन्य
मुणहु
जानो निश्चय ही नहीं होता है
जाइ
णिम्मल-झाणहें।
निर्मल ध्यान का
(जिय) 1/1 (मुण+हु) (मुण) विधि 2/1 सक हु-अव्यय अव्यय (जा) व 3/1 अक [(णिम्मल)-(झाण) 6/2] (ज) 1/1 सवि (विसअ) 1/1 (त) 1/1 सवि [(परम)+(अप्पु)] [(परम) वि-(अप्प) 1/1] (अणाइ) 1/1 वि
जो
विसउ
विषय
वह
परमप्पु
परमात्मा
अणाइ
अनादि
13. जेहउ णिम्मलु
जिस तरह का
निर्मल
(जेहअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (णिम्मल) 1/1 वि (णाणमअ) 1/1 वि (सिद्धि) 7/1
णाणमउ
ज्ञानमय
सिद्धिहिँ-सिद्धिर्हि
मोक्ष में
पदों के अन्त में यदि 'उ, हु, हिं, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाये तो इनका उच्चारण प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। इसलिये यहाँ 'देउं' का ह्रस्व रूप बताने के लिए 'देउँ' किया गया है। (हेम प्राकृत व्याकरण 4-441) देखें टिप्पणी 1, यहाँ ‘झाणहं' को 'झाणहँ' किया गया है। यहाँ बहुवचन का एकवचनार्थ प्रयोग हुआ है। (श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151) देखें टिप्पणी 1, यहाँ 'सिद्धिर्हि' को 'सिद्धिहिँ' किया गया है।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
350
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________________
णिवसइ
देउ
तेहउ
णिवसइ
भु
परु
देहहँ" - देहहं
मं
करि
भेउ
14.
दिट्ठ
ति
लहु
कम्मइँ
पुव्व कियाइँ
सो
परु
ཝཱ, བ ལླཾ, ཚ ཙྪཱ སྠཽ
1.
2.
351
( णिवस ) व 3 / 1 अक
(231) 1/1
(तेहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( णिवस ) व 3 / 1 अक
(बंभ) 1/1
(पर) 1 / 1 वि
(देह) 2 6/2
अव्यय
(कर) विधि 2 / 1 सक
(भेअ) 2/1
(ज) 3 / 1 सवि
(दिट्ठ) भूक 3 / 1 अनि
(तुट्ट) व 3 / 2 अक
अव्यय
(कम्म) 1 / 2
[(पुव्व) - ( कि - किय) भूकृ 1 / 2]
(त) 1 / 1 सवि
(पर) 1 / 1 सवि
(जाण) विधि 2 / 1 सक
( जोइय) 8 / 1 'य' स्वार्थिक (देह) 7/1
(वस) वकृ 1 / 1
अव्यय
अव्यय
रहता है
दिव्यात्मा
उस तरह का
रहता है
आत्मा
परम
देहों में
मत
कर
भेद
जिसके
अनुभव किए गए होने के
कारण
नष्ट हो जाते हैं
शीघ्र
कर्म
पूर्व में किए गए
वह
परम
समझ
हे योगी
देह में
यहाँ 'देह' का हस्व रूप बताने के लिए 'देहहँ' किया गया है। (हेम प्राकृत व्याकरण 4 - 441 ) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
बसते हुए
नहीं
क्यों
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #363
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________________
15.
जित्थु
अव्यय
जहाँ
जित्थु
जहाँ
ण
सो
वह
मुणि
और
अव्यय
नहीं इंदिय-सुह-दुहइँ
[(इंदिय)-(सुह)-(दुह) 1/2] इन्द्रिय-सुख-दुःख अव्यय अव्यय
नहीं मण-वावारु [(मण)-(वावार) 1/1]
मन का व्यापार (त) 1/1 सवि अप्पा (अप्प) 1/1
आत्मा (मुण) विधि 2/1 सक
समझ जीव (जीव) 8/1
हे जीव तुहुँ-तुहुँ
(तुम्ह) 1/1 स अण्णु (अण्ण) 2/1 वि
दूसरी को (परं+इ) परं-अव्यय
पूरी तरह से, इ%3Dअव्यय अवहारु
(अवहार+उ) विधि 2/1 सक छोड़ दे 16. देहादेहहिँ-देहादेहहिं [(देह)+(अदेहहिं)]
देह में और बिना देह के [(देह)-(अदेह) 7/1]
अपने में जो
(ज) 1/1 सवि वसई (वस) व 3/1 अक
रहता है भेयाभेय-णएण [(भेय)+(अभेय)+ (णएण)]
भेद और अभेद [(भेय)-(अभेय)-(णअ) 3/1] दृष्टि से (त) 1/1 सवि
वह अप्पा (अप्प) 1/1
आत्मा मुणि (मुण) विधि 2/1 सक
समझ जीव (जीव) 8/1
हे जीव (तुम्ह) 1/1 स 1. पर्दो के अन्त में यदि 'उ, हुं, हिं, हं' इन चारों अक्षरों में से कोई भी अक्षर आ जाय तो इनका
उच्चारण प्रायः ह्रस्व रूप से होता है। इसलिये यहाँ 'देहादेहहिं' और 'तुहुं' को क्रमश: 'देहादेहहिँ और 'तुहँ किया गया है।
जो
तुहुँ-तुहुं
अपभ्रंश काव्य सौरभ
352
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्या
किं अण्णें
(किं) 1/1 सवि (अण्ण) 3/1 सवि (बहुअ) 3/1 वि
दूसरी
बहुएण
बहुत से
17. जीवाजीव
जीव और अजीव को
मत
एक्कु
एक
करि
कर
लक्खण
लक्षण के भेद से
भेएँ
व
[(जीव)+(अजीव)] [(जीव)-(अजीव) 2/1] अव्यय (एक्क) 2/1 वि (कर) विधि 2/1 सक (लक्खण) 6/1 (भेअ) 3/1 (भेअ) 1/1 (ज) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (त) 1/1 सवि (पर) 1/1 वि (भण) व 1/1 सक (मुण) वि 2/1 सक (अप्प) 2/1 (अप्प) 8/1 (अभेअ) 2/1 वि
जो
अन्य
वह
परु
भणमि
मुणि
अन्य कहता हूँ जान, समझ आत्मा को हे मनुष्य अभेदरूप
अप्पा
अप्पु अभेउ
18.
अमणु अणिदिउ
मनरहित इन्द्रियरहित
णाणमउ मुत्ति-विरहिउ
(अमण) 1/1 वि (अण+इंदिय) 1/1 वि (णाणमअ) 1/1 वि [(मुत्ति)-(विरहिअ) 1/1 वि] [(चित्त+मित्त-चिमित्त) 1/1] (अप्प) 1/1 [(इंदिय)-(विसअ) 1/1] अव्यय
चिमितु
ज्ञानमय मूर्तिरहित (अमूर्त) चैतन्यस्वरूप आत्मा इन्द्रियों का विषय नहीं
अप्पा इंदिय-विसउ णवि
353
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
लक्खणु
एहु
णिरुत्तु
19.
भव-तणु-भोय - विरत्त-मणु
जो
अप्पा
झाएइ
तासु
गुरुक्की
वेल्डी
संसारिणि
तुट्टेइ
20.
देहादेवलि
जो
वसई
देउ
अणाइ-अतु
केवल-णाण-फुरंत-तणु
सो
परमप्पु
भिंतु
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
( लक्खण) 1/1
(एअ) 1/1 सवि
( णिरुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( भव) - (तणु) - (भोय) - (विरत्त) भूक
अनि - (मण) 1 / 1 ]
(ज) 1 / 1 सवि
(अप्प ) 2 / 1
( झाअ ) व 3 / 1 सक
(त) 6 / 1 स
(गुरुक्क - (स्त्री) गुरुक्की) 1 / 1 वि (वेल्ल + + अड + (स्त्री) वेल्लडी) 1/1 'अड' स्वार्थिक
( संसारिणी) 1 / 1 वि
(तुट्ट) व 3 / 1 अक
[ ( देह - देहा) 1 - (देवल) 7/1]
(ज) 1 / 1 सवि
(वस) व 3 / 1 सक
(237) 1/1
[ ( अणाइ) वि- (अनंत ) 1 / 1 वि]
[(केवल) - ( णाण) - (फुरंत) वकृ- (तणु) 1/1]
(त) 1 / 1 सवि
लक्षण
यह
बताया गया
संसार, शरीर और भोगों से
उदासीन हुआ मन
जो
आत्मा को (का)
ध्यान करता है
उसकी
घनी
बेल
संसाररूपी
नष्ट हो जाती है
देहरूपी मन्दिर में
जो
समासगत शब्दों मे रहे हुए स्वर अक्सर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ और दीर्घ के स्थान पर ह्रस्व हो जाया करते हैं । (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
बसता है
दिव्य आत्मा
अनादि-अनन्त
केवलज्ञान से चमकता हुआ
शरीर
वह
[(परम) + (अप्पु ) ] [ ( परम ) - (अप्प ) 1 / 1 ] परम आत्मा
( भिंत) 1 / 1 वि
सन्देहरहित
354
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ - 16 पाहुडदोहा
महान
दिणयरु
सूर्य
महान
हिमकरणु
चन्द्रमा
महान
दीवउ
दीपक
(गुरु) 1/1 वि (दिणयर) 1/1 (गुरु) 1/1 वि (हिमकरण) 1/1 (गुरु) 1/1 वि (दीवअ) 1/1 (गुरु) 1/1 वि (देअ) 1/1 [(अप्प-अप्पा)'-(पर) 6/2] (परंपर) 6/2 (ज) 1/1 सवि (दरिस-दरिसाव) व प्रे 3/1 सक (भेअ) 2/1
महान
देव
अप्पापरह
स्व-भाव और पर-भाव की
परंपरहं
परम्परा के
दरिसावइ भेउ
समझाता है भेद को
2.
अप्पायत्तउ
स्वयं के अधीन
[(अप्प)+(आयत्तउ)] [(अप्प)-(आयत्तअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक
4.
अव्यय
अव्यय (सुह) 1/1 वि (त) 3/1 स अव्यय
सुख उससे
समास के ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
355
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
कर
करि संतोसु परसुहु
(कर) विधि 2/1 सक (संतोस) 2/1 [(पर) वि-(सुह) 2/1]
संतोष दूसरों के (अधीन) सुख को (का) हे मूर्ख विचार करते हुए (व्यक्तियों) के
वढ चिंतंतह
(वढ) 8/1 वि (चिंत-चितंत) वकृ 6/2
हियइ
हृदय में नहीं
(हियअ) 7/1 अव्यय (फिट्ट) व 3/1 अक (सोस) 1/1
फिट्टइ
मिटती है
सोसु
कुम्हलान
आभुजंता विसयसुह
(आ-भुंज- जंत) वकृ 1/2 [(विसय)-(सुह) 2/2] (ज) 1/2 सवि
सब ओर से भोगते हुए विषयों (से उत्पन्न) सुखों को
अव्यय
नहीं
5
कभी हृदय में
हियइ धरंति
धारण करते हैं
अव्यय (हियअ) 7/1 (धर) व 3/2 सक (त) 1/2 सवि [(सासय) वि-(सुह) 2/1] अव्यय (लह) व 3/2 सक (जिणवर) 1/2
सासयसुहु
अविनाशी सुख को शीघ्र प्राप्त करते हैं जिनवर
लहहिं जिणवर
एम
अव्यय
इस प्रकार कहते हैं
भणति
(भण) व 3/2 सक
अव्यय
भुंजता
अव्यय (भुंज- जंत) वकृ 1/2
भोगते हुए
अपभ्रंश काव्य सौरभ
356
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--------------------------------------------------------------------------
________________
विसय
सुह
सुखों को
हियडइ
भाउ
धरंति सालिसित्थु जिम
(विसय) 6/2
विषयों के (सुह) 2/2 (हिय+अडअ-हियडअ) 7/1 हृदय में 'अडअ' स्वार्थिक (भाअ) 2/1
आसक्ति को (धर) व 3/2 सक
रखते हैं (सालिसित्थ) 1/1
सालिसित्थ अव्यय
जैसे (वप्पुडा+अउ-वप्पुडउ) 1/1 वि (दे.) बेचारा (णर) 1/2
मनुष्य (णरय') 6/2
नरकों में (णिवड) व 3/2 अक
गिरते हैं
वप्पुडउ
पर
णरयह णिवडंति
5.
आयई
आपत्ति में
अडवड
अटपट
वडवडइ
पर
रंजिज्जइ
लोउ
(आयअ) 7/1 (अडवड) 1/1 वि (वडवड) व 3/1 अक अव्यय (रंज-रंजिज्ज) व कर्म 3/1 सक (लोअ) 1/1 [(मण)-(सुद्ध) 7/1 वि] [(णिच्चल) वि-(ठिअ) 7/1 वि] (पाव) व कर्म 3/1 सक [(पर) वि-(लोअ) 1/1]
मणसुद्ध णिच्चलठियई
बड़बड़ाता है किन्तु खुश किया जाता लोक मन के कयाषरहित होने पर अचलायमान और दृढ़ होने पर प्राप्त किया जाता है पूज्यतम जीवन
पाविज्जइ परलोउ
धंधई
(धंध) 7/1
धन्धे में
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
357
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडियउ
सयलु
जगु
कम्म
करइ
अयाणु
मोक्खहं
कारणु
एक्कु
खणु
ण
वि
चिंतइ
अप्पाणु
7.
अण्णु
म
जाहि
अप्पणउ
घरु
परिय
तणु
इट्टु
कम्मायत्तउ
कारिमउ
आगमि
1.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(पड - पडिय - पडियअ) भूकृ 1 / 1
'अ' स्वार्थिक
(सयल) 1 / 1 वि
(जग) 1 / 1
(कम्म) 2/2
(कर) व 3 / 1 सक
(अयाण) 1/1 वि
( मोक्ख ) 6 / 1
(कारण) 2/1
(एक्क) 1 / 1 वि
(खण) 1 / 1
अव्यय
अव्यय
( चिंत) व 3 / 1 सक
( अप्पाण) 2/1
[ ( कम्म) + (आयत्तउ ) ]
[ ( कम्म) - (आयत्तअ ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक]
( कारिमअ) 1 / 1 वि
( आगम) 7/1
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन पृष्ठ-151
(अण्णा) 1 / 1 वि
अव्यय
(जाण) विधि 2 / 1 सक
( अप्पणअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(घर) 2 / 1
(परियण) 2/1
( तणु) 2 / 1
( इट्ठ) 2 / 1 वि
पड़ा हुआ
सकल
जगत
कर्मों को
करता है
ज्ञानरहित
मोक्ष के
कारण
एक
क्षण
नहीं
भी
विचारता है।
आत्मा को
अन्य
ཟྭ, ཚ ï
मत
अपनी
घर
नौकर-चाकर
शरीर
च्छ वस्तु
कर्मों के अधीन
बनावटी
आगम में
358
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोइहिं
योगियों द्वारा
(जोइ) 3/2 (सिट्ठ) भूकृ 1/1 अनि
बताया गया
दुक्खु
दु:ख
.
(ज) 1/1 सवि (दुक्ख) 1/1
अव्यय (त) 1/1 सवि (सुक्ख) 1/1 (किअ) भूकृ 1/1 अनि (ज) 1/1 सवि (सुह) 1/1 (त) 1/1 सवि
सुक्खु किर
सुख
माना गया
जो
वह
अव्यय
और
दुक्खु
दुःख
जिय
तेरे द्वारा हे जीव आसक्ति के कारण
मोहहिं वसि
अव्यय (दुक्ख) 1/1 (तुम्ह) 3/1 स (जिय) 8/1 (मोह) 3/2 (वस) 7/1 (गय) भूक 1/2 अनि अव्यय अव्यय (पायअ) भूकृ 1/1 अनि 'अ' स्वार्थिक (मुक्ख) 1/1
गयइं
तेण
परतन्त्रता में डूबा है इसलिए नहीं प्राप्त की गई परम शान्ति
पायउ
मुक्खु
9.
मोक्खु
शान्ति
ण
(मोक्ख) 2/1 अव्यय (पाव) व 2/1 सक
नहीं
पावहि
पाता है (पायेगा)
1.
कभी-कभी एकवचन के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया जाता है।
359
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीव
हे जीव
धणु
(जीव) 8/1 (तुम्ह) 1/1 स (धण) 2/1 (परियण) 2/1 (चिंत-चिंतंत) वकृ 1/1
परियणु चितंतु
धन को नौकर-चाकर को मन में रखते हुए
te
अव्यय
hoy
अव्यय (विचिंत) व 2/1 सक (त) 2/2 स
भी मन में लाता है
विचिंतहि
उनको
अव्यय
आश्चर्य
अव्यय
4 नाम
उनको
(त) 2/2 स
अव्यय (पाव) व 2/1 सक (सुक्ख) 2/1 (महंत) 2/1 वि
पादपूरक पकड़ता है
पावहि
सुक्खु
सुख
महंतु
विपुल
10.
मूढा
हे मूर्ख
सब
सयलु वि
कारिमउ
बनावटी
मत
मत
फुडु
स्पष्ट
(मूढ) 8/1 वि (सयल) 1/1 वि अव्यय (कारिमअ) 1/1 वि अव्यय (फुड) 2/1 वि (तुम्ह) 1/1 स (तुस) 2/1 (कंड) विधि 2/1 सक [(सिव)-(पअ) 7/1] (णिम्मल) 7/1 वि (कर) विधि 2/1 सक (रइ) 2/1
भूसे को
तुस कंडि
कूट
सिवपइ
शिवपद में
निर्मल
णिम्मलि करहि
कर
अनुराग
अपभ्रंश काव्य सौरभ
360
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
घरु
(घर) 2/1 (परियण) 2/1
घर (को) नौकर-चाकर को
परियणु
लहु
शीघ्र
छंडि
अव्यय (छंड) संकृ
छोड़कर
11.
दुइ
पुणु
भुल्लउ
जीव
fel.letikultufinus! Badla
व
विसयसुहा [(विसय)-(सुह) 1/2]
विषय-सुख (दुइ) 6/2 वि दिवहडा
(दिवह+अड) 6/2 ‘अड' स्वार्थिक दिन के अव्यय
और फिर दुक्खहं (दुक्ख) 6/2
दुःखों का परिवाडि (परिवाडि) 1/1
क्रम (भूल्लअ) भूकृ 8/1 अनि 'अ' स्वार्थिक भूले हुए (जीव) 8/1
हे जीव अव्यय
मत (वह-वाह) प्रे. विधि 2/1 सक चला
(तुम्ह) 1/1 स अप्पाखंधि
[(अप्प'-- अप्पा) वि-(खंध) 7/1] अपने कन्धे पर कुहाडि (कुहाडि) 2/1
कुल्हाड़ी 12. उव्वलि (उव्वल) विधि 2/1 सक
उपलेपन कर चोप्पडि (चोप्पड) विधि 2/1 सक
घी, तेल आदि लगा (चिट्ठा) 2/2
चेष्टाएँ (कर) विधि 2/1 सक
कर (दा) विधि 2/1 सक
खिला सुमिठ्ठाहार [(सुमिठ्ठ)+(आहार)]
सुमधुर आहार [(सुमिठ्ठ) वि-(आहार) 2/1] सयल (सयल) 1/1 वि
सब कुछ अव्यय (देह) 4/1
देह के लिए समास में ह्रस्व का दीर्घ हो जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 1-4)
चिट्ठ
करि
देहि
ही
361
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
णिरत्थ
व्यर्थ
गय
(णिरत्थ) 1/1 वि (गय) भूकृ 1/1 अनि अव्यय [(दुज्जण)-(उवयार) 1/1]
जिह
हुआ जिस प्रकार दुर्जन के प्रति (किया गया) उपकार
दुज्जणउवयार
13.
अथिरेण
अस्थिर
थिरा
स्थिर
मइलेण
(अथिर) 3/1 वि (थिर- (स्त्री) थिरा) 1/1 वि (मइल) 3/1 वि (णिम्मल- (स्त्री) णिम्मला) 1/1 वि (णिगुण) 3/1 वि [(गुण)-(सार-सारा) 1/1 वि]
णिम्मला
णिग्गुणेण गुणसारा
मलिन निर्मल गुणरहित गुणों (की प्राप्ति) के लिए श्रेष्ठ शरीर से
काएण
जा
(काअ) 3/1 (जा) 1/1 सवि (विढप्प) व 3/1 अक (ता) 1/1 सवि (किरिया) 1/1
जो उदय होती है
विढप्पड़
ता
वह
किरिया
क्रिया क्यों
कि
अव्यय
नहीं
अव्यय (कायव्व) विधिकृ 1/1 अनि
कायव्वा
की जानी चाहिए
14.
अप्पा
आत्मा
बुज्झिउ
समझी गई. नित्य
णिच्चु
जइ
यदि
(अप्प) 1/1 (बुज्झ-बुज्झिय) भूकृ 1/1 (णिच्च) 1/1 वि अव्यय [[(केवलणाण)-(सहाअ) 1/1] वि] अव्यय (पर) 6/1 वि (किज्जइ) व कर्म 3/1 सक अनि
केवलणाणसहाउ
केवलज्ञान स्वभाववाली
भिन्न की जाती है
किज्जइ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
362
Page #374
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________________
काई
वढ
तणु
उप्पर
अणुराउ
15.
जसु
मणि
णाणु
ण
विप्फुरइ
कम्महं
] . . t E
हेउ
करंतु
मुणि
पावइ
सुक्खु
ण
वि
सयलई
सत्थ
मुणंतु
16.
बोहिविवज्जिउ
जीव
तुहुं
विवरिउ
तच्चु
363
अव्यय
(वढ ) 8 / 1
(तणु) 6 / 1
अव्यय
( अणुराअ) 1/1
(ज) 6/1 स
(मण) 7/1
( णाण) 1 / 1
अव्यय
(विप्फुर) व 3 / 1 अक
(कम्म) 6/2
(हेउ) 2/2
( कर-करंत) वकृ 1 / 1
(त) 1 / 1 सवि
( मुणि) 1/1
(पाव) व 3 / 1 सक
(सुक्ख ) 2 / 1
अव्यय
अव्यय
(सयल) 2 / 2 वि
(सत्थ) 2/2
(मुण - मुणंत) वकृ 1/1
[ ( बोहि) - (विवज्ज - विवज्जिअ )
भूक 8 / 1 ]
(जीव ) 8 / 1
(तुम्ह) 1 / 1 स
(विवरिअ ) 2 / 1 वि
( तच्च) 2 / 1
क्यों
मूर्ख
शरीर के
ऊपर
आसक्ति
जिसके
हृदय में
ज्ञान
नहीं
फूटता है
कर्मों के
कारणों को
करता हुआ
वह
मुनि
पाता है
सुख
नहीं
भी
सभी
शास्त्रों को जानते हुए
आध्यात्मिक ज्ञान
(के बिना)
हे जीव
तू
असत्य
तत्त्व को
रहित
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुणेहि
मानता है कर्मों से रचित
कम्मविणिम्मिय
भावडा
(मुण) व 2/1 सक [(कम्म)-(विणिम्म-विणिम्मिअ) भूक 2/2] (भाव+अड) 2/2 ‘अड' स्वार्थिक (त) 2/2 सवि (अप्पाण) 6/1 (भण) व 2/1 सक
चित्तवृत्तियों को
उन
अप्पाण
स्वयं की समझता है
भणेहि
17.
अव्यय
.
iii ..........
अव्यय
पंडिउ
(तुम्ह) 1/1 स (पंडिअ) 1/1 वि (मुक्ख ) 1/1 वि
मुक्खु
अव्यय
.
अव्यय
अव्यय
.
अव्यय
ईसरु
(ईसर) 1/1 वि
अव्यय
.
अव्यय
णीसु
न, धनी-निर्धन
[(ण)+(ईसु)] ण= अव्यय, ईसु (ईस) 1/1 वि अव्यय अव्यय (गुरु) 1/1 (क) 1/1 सवि
E
पछ
सभी
अव्यय सव्वई
(सव्व) 1/2 सवि कम्मविसेसु
[(कम्म)-(विसेस) 1/1] 1. अनिश्चितता के लिए 'इ' जोड़ दिया जाता है।
कर्मों की विशेषता
अपभ्रंश काव्य सौरभ
364
-
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
अव्यय (तुम्ह) 1/1 स (कारण) 1/1 (कज्ज) 1/1
कारणु
कारण
कज्जु
कार्य
अव्यय
अव्यय
अव्यय
अव्यय (सामिअ) 1/1
सामिउ
स्वामी
अव्यय
अव्यय
नौकर
भिच्चे सूरउ कायरु
(भिच्च) 1/1 (सूर-अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक (कायर) 1/1 वि
शूरवीर
कायर
जीव
(जीव) 8/1
हे मनुष्य
अव्यय
__F
अव्यय
फळ
अव्यय
अव्यय
पर
उत्तमु
(उत्तम) 1/1 वि
उच्च
अव्यय
ही
अव्यय (णिच्च) 1/1 वि
णिन्दु
नीच
19.
पुण्णु
पुण्य
और
पार
(पुण्ण) 1/1 अव्यय (पाअ) 1/1 अव्यय (काल) 1/1
पाप
और काल (समय)
कालु
365
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
णहु
आकाश
धम्मु
(णह) 1/1 (धम्म) 1/1 (अहम्म) 1/1
धर्म अधर्म
अहम्म
अव्यय
नहीं
काउ
शरीर
(काअ) 1/1 (एक्क) 1/1 वि
एक्कु
कुछ
जीव
हे मनुष्य
नहीं
होहि
अव्यय (जीव) 8/1 अव्यय (हो) व 2/1 अक (तुम्ह) 1/1 स (मिल्ल+इवि) संकृ [(चेयण) वि-(भाअ) 2/1]
मिल्लिवि
छोड़कर
चेयणभाउ
ज्ञानात्मक स्वरूप को
20.
अव्यय
अव्यय (गोर-अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
पादपूरक गोरा
गोरउ
अव्यय
अव्यय
पादपूरक
सामलउ
(सामल-अ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
काला
अव्यय
अव्यय
पादपूरक
(तुम्ह) 1/1 स (एक्क) 1/1 वि
ई
अव्यय
(वण्ण) 1/1
अव्यय
अव्यय
दुर्बल अंगवाला
तणुअंगउ थूलु
[(तणु)- (अंगअ) 1/1 वि] (थूल) 1/1 वि
स्थूल
अपभ्रंश काव्य सौरभ
366
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
अव्यय
एहउ
इस प्रकार
अव्यय अव्यय (जाण) विधि 2/1 सक (स-वण्ण) 2/1
जाणि
समझ
सवण्णु
स्व-वर्ण
367
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाठ - 17 सावयधम्मदोहा
दुर्जन
दुज्जणु सुहियउ
सुखी
होवे
होउ जगि
जग में
सज्जन
सुयणु पयासिउ
(दुज्जण) 1/1 वि (सुह-सुहिय-सुहियअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक (हो-होअ) विधि 3/1 अक (जग) 7/1 (सुयण) 1/1 (पयास-पयासिअ) भूकृ 1/1 (ज) 3/1 स (अमिअ) 1/1 (विस) 3/1 (वासर) 1/1 (तम-तमेण-तमिण) 3/1
विख्यात किया गया
जेण
जिसके द्वारा
अमिउ
अमृत विष के द्वारा
विसें
वासरु
दिन
तमिण
अन्धकार के द्वारा
जिम
मरगउ
अव्यय (मरगअ) 1/1 (कच्च) 3/1
जिस प्रकार मरकत मणि (पन्ना) काँच से
कच्चेण
2.
जिह
अव्यय (समिला) 4/1
समिलहिं
जिस प्रकार समिला (लकड़ी की खोल) के लिए सागर में लुप्त दुर्लभ जॅवे का
सायरगयहिं।
[(सायर)-(गय) भूक 4/1 अनि] (दुल्लह) 1/1 वि (जूय) 6/1
दुल्लहु जूयहु
1. 2.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151 श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150
अपभ्रंश काव्य सौरभ
368
Page #380
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रंधु
तिह
जीवहं
भवजलगयहं
मयत्तणि'
सम्बन्धु
Jhark
3.
मणवयकाय हिं
दया
करहि
जेम
दुक्कइ
पाउ
उरि
सणा
बद्धरण 2
अवसि
ण
लग्गइ
धाउ
4.
सुधणधण
खेत्तियई
करि
1.
2.
3.
369
( रंध) 1/1
छिद्र
अव्यय
उसी प्रकार
(जीव) 4/2
जीवों के लिए
[(भव) - (जल) - (गय) भूकृ 4 / 2 अनि ] संसाररूपी पानी (सागर) पड़े हुए
मनुष्यत्व से
सम्बन्ध
( मणुयत्तण) 3 / 1
( सम्बन्ध) 1 / 1
[ (मण) - (वय) - (काय) 3 / 2 ]
(दया) 2 / 1
(कर) विधि 2 / 1 सक
अव्यय
अव्यय
(ढुक्क ) व 3 / 1 सक
(137) 1/1
(उर) 7/1
( सण्णाह) 3 / 1
(बद्धअ - बद्धएण - बद्धइण) भूकृ
3 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
अव्यय
(लग्ग) व 3 / 1 अक
(धाअ) 1/1
[(पसु) - (धण) - (धण्ण ) 3 7 / 1 ]
( खेत्त + इ + खेत्तिय ) 7/1 'इय' स्वार्थिक (कर) विधि 2 / 1 सक
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 144
एण - इण ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 143) श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 146
मन-वचन-काय से
दया
करो
जिससे
न
प्रवेश करता है ( प्रवेश करे)
पाप
छाती में
कवच के कारण बन्धे हुए
अवश्य ( निश्चय ही )
नहीं
लगता है
घाव
पशु, धन, धान्य
खेत में
कर
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Page #381
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________________
परिमाणपवित्ति
बलियई
बहुयई
[(परिमाण)-(पवित्ति) 2/1] (बलिय) 1/2 वि (बहुय) 1/2 वि (दुक्कर) 1/1 वि (तोड) 4/1 (जा) व 3/2 अक
परिमाण से प्रवृत्ति गाढ़े (सबल) बहुत कठिन तोड़ने के लिए होते हैं
दुक्कर तोडहुँ'
जंति
भोगह
करहि
पमाणु
जिय
इंदिय
करि
सदप्प
(भोग) 6/2
भोगों का (कर) विधि 2/1 सक
कर (पमाण) 2/1
परिमाण (जिय) 8/1
हे मनुष्य (इंदिय) 2/2
इन्द्रियों को अव्यय
मत (कर) विधि 2/1 सक
बना (सदप्प) 2/2 वि
दम्भी (हु) व 3/2 अक
होते हैं अव्यय (भल्ल- (स्त्री) भल्ला) 1/2 वि अच्छे (पोस-पोसिय-- (स्त्री) पोसिया) भूकृ 1/2 पाले गये (दुद्ध) 3/1
दूध से (काला) 1/2 वि
काले (सप्प) 1/2
नहीं
भल्ला पोसिया
दुद्धे
काला
सप्प
सर्प
दाणु
दान
कुपात्रों के लिए
कुपत्तहं दोसड
(दाण) 1/1 (कुपत्त) 4/2 (दोस+अड) 1/1 'अड' स्वार्थिक
अव्यय (बोल्ल) व कर्म 3/1 सक
दूषण
बोल्लिजइ
कहा जाता है
1.
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
अपभ्रंश काव्य सौरभ
370
Page #382
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________________
____B
nce
पत्थरु कहिं
अव्यय
नहीं अव्यय
निश्चय ही (भति) 1/1
भ्रान्ति [(पत्थर)-(णाव) 1/1]
पत्थर की नाव अव्यय
कहीं (दीसइ) व कर्म 3/1 सक अनि देखी जाती है (देखी गई) (उत्तार- उत्तारंत- (स्त्री) उत्तारंती) वकृ 1/1 पार पहुँचाती हुई
दीसह उत्तारंति
1.
ज
अव्यय ।
यदि
गिहत्थु
(गिहत्थ) 1/1
दाणेण
विणु
गृहस्थ दान के (से) बिना जगत में कहा जाता है कोई
(दाण) 3/1 अव्यय (जग) 7/1 (पभण) व कर्म 3/1 सक (क) 1/1 स
जगि
पभणिज्जइ
कोई
ता
अव्यय
गिहत्थु
पंखि
(गिहत्थ) 1/1 (पंखी) 1/1 अव्यय
गृहस्थ पक्षी भी होता है (हो जायेगा)
वि
हवइ
(हव) व 3/1 अक
अव्यय
चूंकि
घरु
घर
(घर) 1/1 (त) 6/1 स
ताह
उसके
अव्यय (हो) व 3/1 अक
होता है
(काई) 1/1 सवि
क्या
2.
अनिश्चितता के लिए 'इ' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150
371
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
बहु संपयई
जइ
किविहं
घरि
हो
उवहिणीरु
खारें
भरिउ
पाणिउ
पियइ
ण
कोइ'
9.
पत्तहं
दिण्णउ
थोवडउ
रे
जिय
होइ
बहुतु
वडह 2
बीउ
धरणिहि
पडिउ
वित्थरु
लेइ
महंतु
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
( बहुत्तअ ) 3 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( संपयअ ) 3 / 1 'अ' स्वार्थिक
अव्यय
(किविण ) 6 / 2 वि
(घर) 7/1
(हो) व 3 / 1 अक
[ ( उवहि) - (णीर) 1 / 1 ]
(खार) 3 / 1
( भर - भरिअ) भूकृ 1/1
(पाणिअ) 2/1
(पिय) व 3 / 1 सक
अव्यय
(क) 1 / 1 सवि
अनिश्चितता के लिए 'इ' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 150
(पड - पडिअ ) भूकृ 1/1
( वित्थर) 2 / 1 वि
(ले) व 3 / 1 सक
(महंत ) 2 / 1 वि
बहुत
सम्पदा से
जो
कृपणों के
घर में
होती है
पात्रों के लिए
(पत्त) 4 / 2 (दिण्णअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक दिया हुआ (थोव + अडअ ) 1 / 1 वि 'अडअ' स्वार्थिक थोड़ा
अव्यय
अरे
(जिय) 8/1
हे मनुष्य
(हो) व 3 / 1 अक
होता है
(बहुत्त) 1/1 वि
(वड ) 6/1
(बीअ) 1 / 1
( धरणि) 7/1
समुद्र का जल
खार से
भरा हुआ
पानी को
पीता है
नहीं
कोई
बहुत
बट का
बीज
पृथ्वी पर (में)
पड़ा हुआ
विस्तार
ले लेता है
बड़ा
372
Page #384
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________________
10.
काई
बहु
जंपियई
जं
15
अप्पहु
पडिकूलु
काई
मि
परहु
ण
21.
करहि
एहु
जि
धम्महु
मूलु
11.
धम्मु
विसुद्ध
4. A.
जि
जं
किज्जइ
काएण
अहवा
भ
धणु
373
(काई) 1/1 सवि
( बहुत्तअ ) 3 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( जंप - जंपिय-- जंपियअ) भूकृ 3/1 'अ' स्वार्थिक
(ज) 1 / 1 सवि
( अप्प ) 4 / 1
(पडिकूल) 1/1 वि
(काई) 1/1 सवि
अव्यय
( पर) 4 / 1 वि
अव्यय
(त) 2 / 1 स
(कर) विधि 2 / 1 सक
( एत) 1 / 1 स
अव्यय
( धम्म) 6 / 1
(मूल) 1 / 1
अव्यय
(ज) 1 / 1 सवि
( कि + इज्ज) व कर्म 3 / 1 सक
(काअ ) 3 / 1
अव्यय
(त) 1 / 1 सवि
( धण) 1 / 1
क्या
बहुत
कहे गए से
जो
अपने लिए
प्रतिकूल
कैसे
भी
दूसरों के लिए
नहीं
उसको
कर
यह
丽
धर्म का
(धम्म) 1 / 1
धर्म
(विसुद्धअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक शुद्ध
(त) 1 / 1 सवि
अव्यय
मूल
वह
ही
पूरी तरह से
जो
किया जाता है।
काया से (अपने आप से)
और
वह
धन
15
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
उज्जलउ
(उज्जलअ) 1/1 वि 'अ' स्वार्थिक
उज्ज्व
ल
(ज) 1/1 सवि
जो
आवइ
(आव) व 3/1 अक (णाअ) 3/1
आता है न्याय से
णाएण
12.
अवरु
अव्यय
.अव्यय
(ज) 1/1 सवि
जहिं
अव्यय
उवयर
उपकार कर (सकता) है
(उवयर) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (उवयार) विधि 2/1 सक
वह
उवयारहि
तित्थु
अव्यय
लइ
उपकार करे वहाँ ग्रहण करके हे मनुष्य जीवन के लाभ को
जिय
जीवियलाहडउ
(लय-लअ) संकृ (जिय) 8/1 [(जीविय)-(लाह+अडअ) 2/1 'अडअ' स्वार्थिक] (देह) 2/1 अव्यय (ले) विधि 2/1 सक (णिरत्थ) 2/1 वि
देह को
मत
मन
बना
णिरत्थु
निरर्थक
13. एक्कहिं इंदियमोक्कलउ
एक (विषय) में अनियन्त्रित इन्द्रिय
पाव
(एक्क) 7/1 वि [(इंदिय)- (मोक्कलअ) 1/1 वि (दे) 'अ' स्वार्थिक (पाव) व 3/1 सक [(दुक्ख)-(सय) 2/2 वि (ज) 6/1 स अव्यय (पंच) 1/2 वि
दुक्खसयाई
पाता है सैंकड़ों दुःखों को जिसकी फिर
जसु
पुणु पंच वि
पाँचों ही
अपभ्रंश काव्य सौरभ
374
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________________
Felmint
पुच्छिज्जइ
14.
करि
जिय
सोक्खहं '
विउलाह'
अहवा
दु
ण
को
करइ
रवि
मेल्लिवि
कमलाहं
15.
मणुयत्तणु
दुल्लहु
लहिवि
भोयहं
पेरिउ
जेण
1.
375
( मोक्कल ) 1/2 वि (दे)
(त) 6 / 1 स
(पुच्छ पुच्छिज्ज) व कर्म 3 / 1 सक
(काई) 1/1 सवि
→
अव्यय
( इच्छ) व 2 / 1 सक
( संतोस) 2/1
(कर) विधि 2 / 1 सक
(FORT) 8/1
( सोक्ख ) 6/2
(विउल) 6 / 2 वि
अव्यय
(via) 2/1
(त) 4 / 2 सवि ( प्राकृत)
सवि
(क) 1 / 1
(कर) व 3 / 1 सक
(रवि) 2 / 1
(मेल्ल + इवि) संकृ
( कमल) 4/2
( मणुयत्तण) 2 / 1
( दुल्लह) 2 / 1 वि
(लह + इवि ) संकृ
(भोय) 4/2
(पेर - पेरिअ ) भूक 1/1 (ज) 3 / 1 स
स्वच्छन्द
उसका (उसके लिए)
पूछा जाता है (पूछा जाय)
क्या
यदि
चाहता है
सन्तोष
कर
हे मनुष्य
सुखों को
विपुल
वाक्यालंकार
हर्ष
उनके लिए
कौन
करता है
सूर्य को
छोड़कर कमलों के लिए
मनुष्यता को
दुर्लभ
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
पाकर
भोगों के लिए
लगा दिया गया
जिसके द्वारा
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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________________
इंधरणकज्जें
कप्पयरु
मूलहो
[(इंधण)-(कज्ज) 2/1] (कप्पयरु) 1/1 (मूल) 5/1 (खंड-खंडिअ) भूकृ 1/1 (त) 3/1 स
ईंधन के प्रयोजन से कल्पतरु मूल से काटा गया उसके द्वारा
खंडिउ तेण
श्रीवास्तव. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 148
अपभ्रंश काव्य सौरभ
376
Page #388
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________________
परिशिष्ट - 1
(कवि-परिचय)
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________________
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________________
महाकवि स्वयंभू अपभ्रंश साहित्य के सर्वाधिक चर्चित, प्रसिद्ध एवं यशस्वी कवि हैं। स्वयंभू अपभ्रंश के प्रथम ज्ञात कवि हैं। इन्हें अपभ्रंश साहित्य का आचार्य भी कहा जाता है। स्वयंभू अपने समय के उच्चकोटि के विद्वान् थे । वे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश के पण्डित और छन्दशास्त्र, अलंकार, व्याकरण, काव्य आदि के ज्ञाता थे ।
स्वयंभू का जन्म कर्नाटक के एक साहित्यिक घराने में हुआ था । इनके पिता मारुतदेव और माँ पद्मिनी थी । त्रिभुवन इनके पुत्र थे । त्रिभुवन ने ही स्वयंभू की अधूरी कृतियों को पूरा किया ।
महाकवि स्वयंभू
स्वयंभू का समय 7-8वीं शताब्दी माना जाता है ।
स्वयंभू की रचनाओं में उनके प्रदेश का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। उनके आश्रयदाता धनञ्जय, धवलइय और बन्दइय नाम से दाक्षिणात्य प्रतीत होते हैं इसलिये यह तो निश्चित है कि उनका कार्य क्षेत्र दक्षिण प्रदेश था ।
महाकवि की ज्ञात कृतियाँ तीन हैं
1. पउमचरिउ, 2. रिट्ठणेमिचरिउ तथा 3. स्वयंभूछन्द ।
1. पउमचरिउ रामकथा पर आधारित एक श्रेष्ठ काव्य है । इसमें आचार्य विमलसूरि के प्राकृतभाषी 'पउमचरियं' और आचार्य रविषेण के संस्कृतभाषी 'पद्मपुराण' की कथा के आधार पर अपभ्रंश में रामकथा प्रस्तुत की गई है।
-
2. रिट्टणेमिचरिउ - कवि का दूसरा महाकाव्य है रिट्ठणेमिचरिउ । यह 'हरिवंशपुराण' के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस काव्य में जैनों के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ, श्रीकृष्ण एवं पाण्डवों का वर्णन है।
379
3. स्वयंभूछन्द - यह कवि की तीसरी कृति है । यह छन्दशास्त्र पर आधारित रचना है। इसके प्रारम्भ के तीन अध्यायों में प्राकृत के वर्णवृत्तों का तथा शेष पाँच अध्यायों में अपभ्रंश के छन्दों का विवेचन किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि स्वयंभू का प्राकृत और अपभ्रंश दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था ।
भारतीय वाङ्मय के लोकभाषा काव्य में स्वयंभू सर्वोत्कृष्ट कवि सिद्ध होते हैं। उन्होंने
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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जनसामान्य की भाषा अपभ्रंश में काव्य रचना कर साहित्य के क्षेत्र में अपभ्रंश को गौरवपूर्ण स्थान दिलाया। लोकभाषा अपभ्रंश को उच्चासन पर प्रतिष्ठित कराने का श्रेय स्वयंभू को ही है।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ -
1. पउमचरिउ - भाग 1-5, महाकवि स्वयंभू, सम्पादक - हरिवल्लभ भायाणी, अनुवादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
2. रिट्ठणेमिचरिउ - भाग - 1, महाकवि स्वयंभू, सम्पादक-अनुवादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
3. हिन्दी काव्यधारा - डॉ. राहुल सांकृत्यायन, प्रकाशक - किताब महल, इलाहाबाद।
4. जैनविद्या (शोध पत्रिका) - 1. स्वयंभू विशेषांक, अप्रेल- 1984, प्रकाशक- जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, भट्टारकजी की नसियाँ, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004।
5. अपभ्रंश भारती (पत्रिका) - 1. स्वयंभू विशेषांक, जनवरी- 1990, प्रकाशक- अपभ्रंश साहित्य अकादमी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी, भट्टारकजी की नसियाँ, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004।
6. महाकवि स्वयंभू - डॉ.संकटा प्रसाद उपाध्याय, प्रकाशक - भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ़।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
380
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महाकवि पुष्पदन्त अपभ्रंश के जाने-माने, शीर्षस्थ साहित्यकार है । अपभ्रंश भाषा के सन्दर्भ में महाकवि पुष्पदन्त का स्थान महाकवि स्वयंभू के समान ही प्रमुख है।
पुष्पदन्त दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रदेश के 'बरार' के निवासी थे। ये कश्यपगोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था। आरम्भ में कवि शैव मतावलम्बी थे। बाद में किसी जैन मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर जैन धर्मावलम्बी हो गये और मान्यखेट में आकर मंत्री भरत के अनुरोध पर जिनभक्ति से प्रेरित काव्य-सृजन में प्रवृत्त हुए ।
महाकवि पुष्पदन्त का समय 10वीं शताब्दी माना जाता है।
इनकी तीन रचनाएँ हैं- 1. तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकार, 2. णायकुमारचरिउ तथा 3. जसहरचरिउ ।
महाकवि पुष्पदन्त
1. तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकार / महापुराण - यह ग्रन्थ 'महापुराण' के नाम से भी प्रसिद्ध है। महाकवि की यह रचना अपभ्रंश की विशिष्ट कृति है । महापुराण दो खण्डों में विभक्त है- (अ) आदिपुराण और ( ब ) उत्तरपुराण । इन दोनों खण्डों में त्रेसठ शलाका पुरुषों अर्थात् 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव (नारायण) तथा 9 प्रतिवासुदेव ( प्रतिनारायण) के चरित वर्णित हैं।
2. णायकुमारचरिउ - यह खण्ड काव्य है । इस काव्य में श्रुतपंचमी का माहात्म्य बतलाते हुए नागकुमार के चरित का वर्णन किया गया है।
3. जसहरचरिउ कवि पुष्पदन्त विरचित सबसे अधिक प्रसिद्ध रचना है । यह अपभ्रंश भाषा की एक उत्तम कृति मानी जाती है। यह भी एक चरित -ग्रन्थ है। यह पुण्य पुरुष 'यशोधर' की जीवनकथा पर आधारित है ।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ
1. महापुराण - महाकवि पुष्पदन्त, सम्पादक डॉ. पी.एल. वैद्य, अनुवादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ।
2. णायकुमारचरि
महाकवि पुष्पदन्त, सम्पादक - अनुवादक - डॉ. हीरालाल
अपभ्रंश काव्य सौरभ
381
-
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जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
3. जसहरचरिउ - महाकवि पुष्पदन्त, सम्पादक - डॉ. पी.एल. जैन, अनुवादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
4. महाकवि पुष्पदन्त - डॉ. राजनारायण, पाण्डेय, प्रकाशक - चिन्मय प्रकाशन, जयपुर - 3
5. जैनविद्या (पत्रिका) - 2-3, पुष्पदन्त विशेषांक, अप्रेल, 1985, नवम्बर, 1985, प्रकाशक - जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, भट्टारकजी की नसियाँ, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 302 004
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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महाकवि वीर
महाकवि वीर अपभ्रंश भाषा के महान् कवियों में से एक हैं। वीर प्रारम्भ में संस्कृत भाषा में काव्य-रचना में प्रवृत्त थे, किन्तु अपने पिता के मित्र श्रेष्ठी तक्खड़ के प्रोत्साहित करने पर इन्होंने लोकभाषा अपभ्रंश में काव्य-रचना की।
___ वीर का जन्म मालवदेश के गुलखेड़ नामक ग्राम में जैन धर्मानुयायी, लाडवर्ग गोत्र में हुआ था। इनकी माँ का नाम श्रीसंतुबा था। इनके पिता देवदत्त स्वयं एक महाकवि थे।
इनका जीवनकाल विक्रम सम्वत् 1010-1085 तक माना गया है। इस प्रकार इनका समय 10-11वीं शती सिद्ध होता है।
महाकवि वीर अपभ्रंश के उन शीर्षस्थ साहित्यकारों में से हैं जो अपनी एकमात्र कृति के कारण सुविख्यात हुए हैं। 'जंबूसामिचरिउ' इनकी एकमात्र कृति है।
जंबूसामिचरिउ - इस काव्य में जैन धर्म के अन्तिम केवलि 'जंबूस्वामी' का जीवन-चरित ग्यारह सन्धियों में गुम्फित है।
___जंबूस्वामी भगवान महावीर के गणधर सुधर्मा स्वामी के शिष्य थे। भगवान महावीर के निर्वाण के 64 वर्ष पश्चात् इनका निर्वाण हुआ था।
जंबूस्वामी का जीवनचरित साहित्यकारों एवं धर्मप्रेमियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है, इसका कारण है इनके चरित्र की विशेषता। इनके जीवन का घटनाक्रम अत्यन्त रोचक एवं अनूठा है। ऐसा घटनाक्रम फिर कभी न देखा गया, न साहित्य में अन्यत्र पढ़ा गया, न सुना गया। जंबू कुमारावस्था में विवाह के बन्धन में न फँसकर संन्यास ग्रहण करना चाहते थे, परन्तु परिवारजनों के बहुत आग्रह पर जंबू सर्शत विवाह के लिए अपनी स्वीकृति दे देते हैं। उनका कहना था कि मैं एक शर्त पर विवाह कर सकता हूँ- विवाह के पश्चात् मैं अपनी पत्नियों के साथ एक रात व्यतीत करूँगा, यदि उस एक रात में वे मुझे संसार की और आकर्षित कर लेती हैं तो मैं सन्यास-विचार को त्यागकर गृहस्थ जीवन अंगीकार कर लूँगा अन्यथा प्रातः होते ही मैं सन्यास धारण कर लूँगा। और इस शर्त में जीत जंबूकुमार की ही होती है।
. इस कथानक को, महाकाव्य के तत्त्वों का समावेश कर महाकाव्योचित गरिमा प्रदान कर महाकवि ने अपभ्रंश वाङ्मय को अलंकृत किया है।
383
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ -
1. जंबूसामिचरिउ - महाकवि वीर, सम्पादक-अनुवादक - डॉ. विमलप्रकाश जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
2. जैनविद्या (पत्रिका) - 5-6, वीर विशेषांक, अप्रेल 1987, प्रकाशक - जैन विद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर -
302004
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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कवि नयनन्दि मुनि
अपभ्रंश के जाने-माने रचनाकारों में से एक हैं- कवि नयनन्दि मुनि। नयनन्दि मुनि जैन आचार्य श्री कुन्दकुन्द की परम्परा में हुए हैं। कवि नयनन्दि मुनि काव्यशास्त्र में निष्णात; प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के उच्चकोटि के विद्वान् और छन्द शास्त्र के ज्ञाता थे।
इनका स्थितिकाल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी माना गया है। कवि नयनन्दि की दो कृतियाँ हैं- 1. सुदंसणचरिउ और 2. सयलविहिविहाणकव्व। इनमें से 'सुदंसणचरिउ' की रचना कवि नयनन्दि ने अवन्ती देश की धारा-नगरी के जिनमन्दिर में राजा भोज के शासनकाल में विक्रम सम्वत् 1100 में की थी।
सुदंसणचरिउ - यह अपभ्रंश भाषा का एक चरितात्मक खण्डकाव्य है। इसमें सुदर्शन केवली के चरित्र का अंकन किया गया है। सुदर्शन का चरित्र जैन साहित्य का बहुश्रुत तथा लोकप्रिय कथानक रहा है।
सयलविहिविहाणकव्व - कवि की दूसरी कृति सयलविहिविहाणकव्व एक विशिष्ट काव्य है। इस काव्य में वस्तु-विधान और उसकी सालंकार एवं सरल प्रस्तुति की गई है। इसका प्रकाशन अभी सम्भव नहीं हो सका।
कविश्री नयनन्दि की भाषा शुद्ध साहित्यिक अपभ्रंश है। इनकी भाषा में सुभाषित और मुहावरों के प्रयोग से प्रांजलता मुखर है तो स्वाभाविकता व लालित्य का समावेश भी है। कवि की रचना 'सुदंसणचरिउ' का छन्दों की विविधता एवं विचित्रता की दृष्टि से विशिष्ट महत्त्व है। इस रचना में कई छन्द नये हैं। इसमें लगभग 85 छन्दों का प्रयोग हुआ है, इतने छन्दों का प्रयोग अपभ्रंश के अन्य किसी कवि ने नहीं किया।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ -
1. सुदंसणचरिउ - मुनि नयनन्दि, सम्पादक-अनुवादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक - प्राकृत-जैन शास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान वैशाली, बिहार।
- 2. जैनविद्या-7 - नयनन्दि विशेषांक, अक्टूबर, 1987, प्रकाशक - जैनविद्या संस्थान, श्रीमहावीरजी, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 04
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कवि कनकामर
अपभ्रंश वाङ्मय के प्रतिनिधि कवियों की श्रृंखला में एक नाम मुनि कनकामर का भी आता है।
कनकामर का जन्म ब्राह्मणवंश के चन्द्रऋषि गोत्रीय परिवार में हुआ था। जैनधर्म से प्रभावित होकर इन्होंने जैनधर्म स्वीकार किया और बाद में दिगम्बर मुनि-दीक्षा धारण की। इनका बाल्यावस्था का नाम अज्ञात है। मुनि दीक्षा के बाद ये 'मुनि कनकामर' के नाम से जाने गये, इसी नाम से ये ज्ञात और विख्यात है।
__इनका स्थितिकाल ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। कनकामर ने अपभ्रंश भाषा में एक खण्डकाव्य ‘करकण्डचरिउ' की रचना की। ग्रन्थ की रचना 'आसाइय' नगरी में की गई। पण्डित मंगलदेव इनके गुरु थे।
मुनि कनकामर अपभ्रंश के अतिरिक्त कई भाषाओं के विद्वान् थे।
करकण्डचरिउ - यह कवि की एकमात्र रचना है। कथा का प्रमुख पात्र ‘करकण्डु' है, समूचे काव्य में इसी के चरित्र का विशद वर्णन है।
‘करकण्डु' की कथा जैन-साहित्य में तो प्रसिद्ध है ही, बौद्ध-साहित्य में भी इसका पर्याप्त वर्णन है। दोनों ही परम्पराओं/धर्मों/साहित्यों में करकण्डु' को 'प्रत्येकबुद्ध' माना गया है।
‘करकण्डचरिउ' 10 सन्धियों का काव्य है। इसमें श्रुतपंचमी के फल तथा पंचकल्याणक विधि का वर्णन है। ‘करकण्डचरिउ' का अपभ्रंश-काव्य परम्परा में एक विशिष्ट स्थान है। यह रचना इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है कि अन्य विशेषताओं के साथ इसमें दसवीं शताब्दी के जैनधर्म और संस्कृति के स्वरूप का तथा मन्दिरों के शिल्प का अंकन है।
'करकण्डचरिउ' अपभ्रंश साहित्य की वीर-शृंगार और शान्त रसयुक्त एक अनूठी रचना है।
1.
जो केवलज्ञान प्राप्त कर बिना धर्मोपदेश दिये ही मोक्ष चले जाते हैं उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं।
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विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ -
1. करकण्डचरिउ - मुनि कनकामर, सम्पादक-अनुवादक - डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली।
2. जैनविद्या-8 - कनकामर विशेषांक, मार्च 1988, प्रकाशक - जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर - 4
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जोइन्दु (योगीन्दु) अपभ्रंश भाषा के एक सशक्त आध्यात्मिक कवि हैं । अपभ्रंश वाङ्मय के रहस्यवाद - निरूपण में कवि जोइन्दु का नाम सर्वोपरि है। इन्होंने अपभ्रंश साहित्य में अध्यात्म क्षेत्र को नया आयाम दिया है।
जोन्दु जैनधर्म के दिगम्बर आम्नाय के आचार्य थे और उच्चकोटि के आत्मिक रहस्यवादी साधक थे।
काल-1
अध्यात्मवेत्ता जोइन्दु के जीवन के सन्दर्भ में कोई वर्णन नहीं मिलता। जोइन्दु के - निर्धारण के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। कोई उन्हें 7वीं शताब्दी का, कोई 8वीं का और कोई 10वीं या 11वीं शताब्दी का मानते हैं, परन्तु अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि जोइन्दु विक्रम सम्वत् 700 के आस-पास हुए हैं।
जोइन्दु के नाम पर निम्नलिखित रचनाओं का उल्लेख मिलता है -
2. योगसार
4. अध्यात्मसन्दोह 6. तत्त्वार्थ टीका
8. अमृत
1. परमात्मप्रकाश
3. नौकारश्रावकाचार
5. सुभाषितम्
7. दोहापाहुड
9. निजात्माष्टक
महाकवि जोइन्दु
परन्तु इनमें से प्रारम्भ की दो ही रचनाएँ निर्भ्रान्तरूप से जोइन्दु की मानी जाती है । परमात्मप्रकाश यह जैनदर्शन पर आधारित अध्यात्म का एक अनूठा ग्रन्थ है । जोइन्दु ने इस मुक्तक काव्य की रचना अपने शिष्य भट्ट प्रभाकर के कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के लिए की और आत्मा को परमात्मा बनने का मार्ग प्रकाशित किया । इस ग्रन्थ में आत्मा का बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा इन त्रिविधरूप वर्णन किया गया है।
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परमात्मप्रकाश अपभ्रंश के मुक्तक काव्यों में शिखरस्थ है।
योगसार
इन्दु की दूसरी रचना है । यह भी पूर्णतः आध्यात्मिक है । यह ग्रन्थ ‘परमात्मप्रकाश’ के विचारों का अनुवर्तन है । योगसार में अध्यात्म की गूढ़ता को बड़ी सरलता से व्यंजित किया गया है।
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इस ग्रन्थ की रचना संसार से भयभीत मुमुक्षुओं को सम्बोधने के लिए की गई है। 'योगसार' का योग मुक्ति का उपाय है। यह स्व को स्व के द्वारा स्व से जोड़ने की प्रक्रिया का वर्णन करता है।
दोनों रचनाएँ अपभ्रंश के विशिष्ट छन्द 'दोहा' में रचित है। जोइन्दु के अधिकांश वर्णन साम्प्रदायिकता से अलिप्त हैं इसलिये उनकी पदावली व काव्यशैली सहज-सामान्य है, प्रिय है, लोक- प्रचलित है। उन्होंने अपने दोहों में लोकोक्तियों और मुहावरों का भी प्रयोग किया है इससे आध्यात्मिक तत्त्व भी सर्वजन बोध्य हो गये हैं। उनकी रहस्यमयी रचनाओं का प्रभाव परवर्ती अपभ्रंश कवियों पर ही नहीं, अपितु हिन्दी के सन्तकवियों पर भी प्रचुरता से पड़ा है।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ
1. परमात्मप्रकाश और योगसार. श्रीमद् योगीन्दु, प्रकाशक प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास (गुजरात) ।
2. परमात्मप्रकाश और योगसार चयनिका सोगाणी, प्रकाशक - प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर
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सम्पादक
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3. जैनविद्या - 9 - योगीन्दु विशेषांक, नवम्बर 1988, प्रकाशक
श्री परमश्रुत
डॉ. कमलचन्द
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जैनविद्या
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मुनि रामसिंह
रामसिंह जैन मुनि थे और जैन आध्यात्मिक रहस्यवादी धारा के प्रमुख कवि। "
इनके सम्बन्ध में अधिक जानकारी नहीं मिलती। अनुमानतः ये पश्चिम प्रदेश के निवासी थे। पण्डित राहुल सांकृत्यायन इन्हें राजस्थान का बताते हैं, क्योंकि इनके उदाहरण एवं उपमाएँ राजस्थानी रंग में रंगे हुए हैं। इनके दोहों में प्रयुक्त शब्द योग एवं तान्त्रिक ग्रन्थों का स्मरण दिलाते हैं जिनके पीठ राजस्थान में सबसे अधिक हैं। इससे भी यह अनुमान दृढ़ होता है कि ये राजस्थान के थे।
डॉ. हीरालाल जैन इनका समय 10वीं शताब्दी मानते हैं।
पाहुडदोहा- पाहुडदोहा मुनि रामसिंह की एकमात्र कृति है। पाहुड का अर्थ उपहार, अधिकार, श्रुतदान आदि होते हैं। यहाँ यह ‘उपहार' के विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त है। पाहुडदोहा जैन मुनियों की आत्मानुभूति, परमात्म-सन्देश का सरल भाषा तथा दोहा छन्द में मानव जीवन के लिए उपहार स्वरूप है। ‘पाहुडदोहा' आत्मानुभूतियों का संग्रह है, उसी का उपहार है, भेंट है।
इस ग्रन्थ में गुरु की महत्ता स्वीकार्य है, किन्तु अधिक महत्त्व आत्मानुभूति को ही दिया गया है, उसके सामने केवल शब्दज्ञान को व्यर्थ बताया गया है।
मुनि रामसिंह उदारमना चिन्तक हैं जो सम्प्रदाय और समाज की रूढ़ियों का विरोध करते हुए मानवता की सामान्य भूमि पर खड़े हैं। ये साम्प्रदायिकता व संकीर्णताओं के विरोधी हैं। इन्होंने उस जन-साधारण के लिए ज्ञान के सहज द्वार खोले हैं जिसे पढ़ने-लिखने की सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती थी।
मुनिश्री की भाषा सरल, सहज और पैनी है। तथ्य और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही असरदार है। ऐसी संक्षिप्त एवं भावपूर्ण, सटीक अभिव्यक्ति पूरे अपभ्रंश साहित्य में कम ही देखने को मिलती है।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ
1. पाहुडदोहा- मुनि रामसिंह, सम्पा.-हीरालाल जैन, प्रकाशक-कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसायटी, कारंजा (बरार)।
2. पाहुडदोहा चयनिका- सम्पा.- डॉ. कमलचन्द सोगाणी, प्रकाशक- अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर-4।
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हेमचन्द्र सूरि साहित्यजगत् के एक यशस्वी विद्वान् थे, अगाध पाण्डित्य के धनी थे और अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान्, इसीलिये इन्हें 'कलिकाल सर्वज्ञ' कहा जाता है।
आचार्य हेमचन्द्र सूरि
हेमचन्द्र सूरि का जन्म गुजरात के धक्कलपुर / धन्धूका ग्राम में मोढ़ वैश्य जैन परिवार में ईस्वी सन् 1088 में हुआ था। इनके पिता का नाम चाचिंग तथा माता का नाम पाहिणी था। इनके बचपन का नाम चंगदेव था। ईस्वी सन् 1109 में अन्हिलवाड जैन मठ की गुरुगद्दी पर आसीन होने के बाद ये 'आचार्य-सूरि' पद से विभूषित हुए और 'आचार्य हेमचन्द्र सूरि' कहलाने लगे। यही मठ इनके साहित्य-सृजन का प्रधान केन्द्र था ।
हेमचन्द्र सूरि को कई राजाओं का आश्रय प्राप्त था, किन्तु प्रधान संरक्षण चालुक्यराज जयसिंह सिद्धराज व कुमारपाल का रहा । कुमारपाल ने तो हेमचन्द्र के प्रभाव से जैनधर्म स्वीकार लिया था ।
आचार्य हेमचन्द्र की अनेक रचनाएँ हैं जिनमें अभिधानचिन्तामणि, योगशास्त्र, छन्दोऽनुशासन, देशीनाममाला, द्वयाश्रय काव्य, त्रिषष्ठिशलाका पुरुष और शब्दानुशासन प्रमुख हैं। शब्दानुशासन ग्रन्थ सिद्धराज जयसिंह को समर्पित किया था, इसलिये यह ग्रन्थ 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' के नाम से जाना जाता है।
आचार्य हेमचन्द्र अपने युग के प्रधान पुरुष थे जिनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने अपभ्रंश साहित्य को स्थायित्व प्रदान किया । इन्होंने 'शब्दानुशासन' व 'छन्दोऽनुशासन' में अनेक अपभ्रंश दोहे उद्धृत किये हैं जो संयोग, वियोग, वीर, उत्साह, हास्य, नीति, अन्योक्ति आदि से सम्बद्ध हैं। इन दोहों का साहित्यिक सौन्दर्य सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य में सबसे अलग है।
व्याकरण के क्षेत्र में भी इनकी मौलिकता के दर्शन होते हैं। इन्होंने अन्य वैयाकरणों की भाँति पाणिनी व्याकरण के लोकोपयोगी अंशों की व्याख्या/ टीका करके ही सन्तोष नहीं किया बल्कि अपने समय तक की भाषाओं के व्याकरण बनाये और देशी भाषा और शब्दों को आगे बढ़ाया।
अपनी तलस्पर्शी प्रतिभा और अपभ्रंश के संचयन-संरक्षण के लिए हेमचन्द्र साहित्यजगत् में सदैव अविस्मरणीय हैं।
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आचार्य देवसेन
दिगम्बर जैन ग्रन्थकारों में आचार्य देवसेन एक सुप्रसिद्ध नाम है। आचार्यश्री ने अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत तीनों भाषाओं में ग्रन्थ-रचना की है। इनके प्रकाशित ग्रन्थों में दर्शनसार, आराधनासार, तत्त्वसार, नयचक्र, भावसंग्रह प्राकृत भाषा की और आलापपद्धति संस्कृत भाषा की प्रमुख रचनाएँ हैं।
इनके ग्रन्थों के विषय, भाव व भाषा आदि के साम्य के आधार पर विद्वानों का मत है कि अपभ्रंश भाषा के मुक्तक काव्य ‘सावयधम्म दोहा' के रचयिता 'आचार्य देवसेन' ही हैं। इनके 'भावसंग्रह' में भी पाँच पद्य अपभ्रंश भाषा के रड्डा छन्द में पाये जाते हैं, शेष भाग में भी अपभ्रंश भाषा का प्रभाव अधिक दिखता है।
आचार्य देवसेन का समय 10वीं शताब्दी माना गया है।
सावयधम्मदोहा - इन ग्रन्थ की रचना विक्रम की 10वीं शताब्दी में मानी जाती है। यह ग्रन्थ दोहा छन्द का एक प्राचीनतम उदाहरण है। इसका विषय श्रावकों का धर्म व आचार है।
_ 'सावयधम्मदोहा' धार्मिक उपदेश तथा सूक्ति की दृष्टि से तो सुन्दर है ही साथ ही भाषा की दृष्टि से भी यह महत्त्वपूर्ण है।
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महाकवि रइधू
महाकवि रइधू अपभ्रंश-साहित्य-जगत् के सुप्रसिद्ध कवि हैं। अपभ्रंश-जगत में सर्वाधिक साहित्य-सृजन का श्रेय महाकवि रइधू को ही है।
रइधू के पिता का नाम साहू हरिसिंह तथा माता का नाम विजयश्री था। कवि के जन्मस्थान के सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है, किन्तु उनकी रचनाओं में वर्णित अनेक प्रसंगों के आधार से यह अनुमान दृढ़ होता है कि उनका निवास हरियाणा, पंजाब, राजस्थान के सीमान्त से लेकर ग्वालियर तक के बीच किसी स्थान पर रहा होगा।
कवि ने गोपाचल (ग्वालियर) नगर का विभिन्न दृष्टिकोणों से जिस प्रकार का वर्णन किया है उससे प्रतीत होता है कि उनकी जन्मभूमि/निवासभूमि तो गोपाचल या उसके सन्निकट रही ही होगी पर कार्यभूमि तो गोपाचल ही थी।
रइधू ने पृथक्-पृथक् आश्रयदाताओं के आश्रय में अपना साहित्य-सृजन किया।
अनेक अन्तर्बाह्य साक्ष्यों के आधार पर रइधू का स्थितिकाल विक्रम सम्वत् 14391530 (ईस्वी सन् 1382-1473) माना जाता है।
इन्होंने कुल कितने ग्रन्थों की रचना की यह तो स्पष्ट ज्ञात नहीं है, किन्तु 28 ग्रन्थों की जानकारी तो उपलब्ध होती है - 1. बलहद्दचरिउ 2. मेहेसरचरिउ
3. कोमुइकहपवंधु 4. जसहरचरिउ 5. पुण्णासवकहा
6. अप्पसंबोहकव्व 7. सावयचरिउ 8. सुकोसलचरिउ
9. पासणाहचरिउ 10. सम्मइजिणचरिउ 11. सिद्धचक्कमाहप्प
12. वित्तसार 13. सिद्धन्तत्थसार __14. धण्णकुमारचरिउ
15. अरिट्ठणेमिचरिउ 16. जीमंधरचरिउ 17. सोलहकारणजयमाल 18. दहलक्खणजयमाल 19. सम्मत्तगुणणिहाणकव्व 20. संतिणाहचरिउ
21. बारहभावना 22. उवएसमाल/ - उवएसरयणमाल 23. महापुराण
24. पज्जुण्णचरिउ
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25. करकंडचरिउ
28. भविसयत्तकहा
26. सुदंसणचरिउ
इनमें से अन्तिम सात रचनाएँ अभी उपलब्ध नहीं हुई हैं।
रइधू की विशिष्टता है कि गृहस्थ होते हुए उन्होंने विपुल साहित्य की रचना की । ग्रन्थ-रचना एवं मूर्तिप्रतिष्ठा कार्य उनकी अभिरुचि के प्रमुख विषय थे। इन्हें उक्त विशाल साहित्य का निर्माण करने की प्रतिभा अपने पिता से उत्तराधिकार में मिली थी ।
धण्णकुमारचरिउ - प्रस्तुत ग्रन्थ एक पौराणिक चरितकाव्य है। इसमें एक श्रेष्ठि-पुत्र धन्यकुमार का जीवनचरित निबद्ध है।
धन्यकुमार अपने पूर्वभव में अकृतपुण्य नाम का एक पितृविहीन दरिद्र बालक था । एक बार उसने अपनी माँ के साथ एक मुनिराज को आहारदान किया। उसी के फलस्वरूप वह देवगति में जन्मा और बाद में धन्यकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ । इस भव में सर्वगुणसर्व-साधन सम्पन्न होते हुए भी उसे पूर्वकृत कर्मों के कारण अनेक विपत्तियों / आपदाओं का सामना करना पड़ता है पर वह तब भी धैर्य और साहस नहीं छोड़ता । अपने साले शालिभद्र वैराग्य से प्रेरणा लेकर धन्यकुमार को भी वैराग्य हो जाता है जिससे वह भी दीक्षा लेकर तप करता है और सद्गति प्राप्त करता है ।
विशेष अध्ययन के लिए सहायक ग्रन्थ
1. रइधू ग्रन्थावली - भाग - 1, 2 सम्पादक डॉ. राजाराम जैन, प्रकाशक जीवराज जैन ग्रन्थमाला, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, महाराष्ट्र ।
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27. रत्नत्रयी
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2. रइधू साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन - डॉ. राजाराम जैन, प्रकाशक प्राकृत जैनशास्त्र अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, बिहार ।
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परिशिष्ट - 2
(काव्य-प्रसंग)
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पाठ - 1 पउमचरिउ सन्धि - 22
प्रस्तुत कडवक महाकवि स्वयंभू विरचित पउमचरिउ से लिया गया है। यह उस समय का वर्णन है जब राजा दशरथ अपने चारों पुत्रों का विवाह सम्पन्न कराकर अयोध्या लौट आते हैं।
22.1 अयोध्या आने के पश्चात् दशरथ-पुत्र राम अषाढ़ की अष्टमी के दिन पत्नी (सीता) के साथ जिनेन्द्र का अभिषेक करवाते हैं। स्वयं दशरथ भी अभिषेक करते हैं। जिनेन्द्र के अभिषेक का गन्धोदक सभी को दिया जाता है। (दशरथ की रानी) सुप्रभा के पास गन्धोदक देर से पहुंचता है जिससे सुप्रभा नाराज होती है। इसका कारण जानने के लिए राजा दशरथ कंचुकी को वहाँ बुलाते हैं।
22.2.3 कंचुकी अपनी वृद्धावस्था को देरी से आने का कारण बताते हुए नश्वर शरीर का वर्णन करता है। कंचुकी के द्वारा नश्वर शरीर का सजीव वर्णन सुनकर राजा दशरथ को विरक्ति हो जाती है और वे सम्पूर्ण वैभव (राज्य) राघव को देकर तप करने का दृढ़ निश्चय करते हैं। अपने विचार के अनुसार दशरथ राम के राज्याभिषेक एवं स्वयं के संन्यासग्रहण की घोषणा करते हैं।
22.7.8 राम के राज्याभिषेक की घोषणा से रानी कैकेयी विचलित हो उठती है, वह अपने पुत्र भरत को राजा बनाना चाहती है। इसके लिए वह दशरथ द्वारा पूर्व में स्वीकृत दो वचनों की याद दिलाकर राजा दशरथ द्वारा दूसरी घोषणा करवाती है। रानी कैकेयी के वचन मानकर राजा दशरथ भरत के लिए राज्य, राम के लिए वनवास और स्वयं के लिए प्रव्रज्या की घोषणा करते हैं।
23.3 इसके बाद राम स्वयं अपने हाथों से भरत के सिर पर राजपट्ट बाँधते हैं और भाई लक्ष्मण के साथ वनवास को जाने के लिए माता से आज्ञा लेने जाते हैं। राम की माता अपराजिता राम से उनके उद्विग्न चित्त व सादगी से, बिना वैभव से आने का कारण पूछती है। राम माता से वनवास को जाने की आज्ञा माँगते हुए पूर्व में अपनी ओर से किये गये अपराधों की क्षमा माँगते हैं।
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पाठ - 2 पउमचरिउ
सन्धि - 24
पउमचरिउ की चौबीसवीं सन्धि में वर्णित इस काव्यांश में उस समय का वर्णन है जबकि राम-लक्ष्मण और सीता वनवास को चले जाते हैं और उनके बिना सम्पूर्ण महल सुनसान नजर आता है।
24.1 नगर के सभी नागरिक व्याकुल हैं। उस समय पृथ्वी भी नि:श्वास लेती हुई प्रतीत होती है। नगर के लोग लक्ष्मण को एक क्षण भी विस्मृत नहीं कर पाते। अपनी प्रत्येक क्रिया में, साधन-प्रसाधन में उन्हें लक्ष्मण का स्मरण होता है।
24.3 राजा दशरथ भरत का राजतिलक करने लगते हैं परन्तु भरत उन्हें ऐसा करने से रोकता है। वह राज्य की असारता को लक्ष्य करते हुए अपनी संन्यास-ग्रहण की इच्छा व्यक्त करता है।
24.4 राजा दशरथ भरत को ऐसा करने से मना करते हैं और कहते हैं कि तुम्हें अभी प्रव्रज्या से क्या? अभी तुब बालक हो, इसलिये यह नहीं समझते कि जिन-प्रव्रज्या कितनी असहनीय होती है। अतः तुम राज करते हुए विषय-सुखों का उपभोग करो। वे भरत को तपस्या में होने वाले दु:ख व कठिनाइयाँ बताते हैं।
___24.5 दशरथ के द्वारा बालक के लिए संन्यास की अनुपयुक्तता की बात सुनकर राजा भरत दुःखी होता है और पिता से पूछता है- क्या बालक का जन्म नहीं होता, मृत्यु नहीं होती? अगर ऐसा नहीं होता तो बालक प्रव्रज्या के लिए क्यों नहीं जा सकता? किन्तु दशरथ ने उन्हें समझाकर, डराकर पहले राज्य-सुख का उपभोग करने तथा बाद में प्रव्रज्या को जाने के लिए कहकर पट्ट बाँधा और स्वयं ने प्रव्रज्या के लिए प्रस्थान किया।
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पाठ -3 पउमचरिउ सन्धि - 27
27.14 प्रस्तुत काव्यांश पउमचरिउ से लिया गया है। इसमें राम, लक्ष्मण और सीता के वनवास के समय की एक घटना का वर्णन है। वनवास में वे वनों, पर्वतों आदि में भटकते रहते हैं। इस काव्यांश में बताया है कि तीनों विन्ध्याचल पर्वत, ताप्ती नदी पारकर आगे बढ़ जाते हैं। मार्ग में सीता को प्यास सताने लगी। पानी की खोज करते हुए, सीता को सान्त्वना देते हुए तीनों अरुणा गाँव में आए। वहाँ उन्हें एक घर दिखाई दिया, वह घर बिल्कुल खाली और सुनसान था। वे उस घर में प्रवेश करते हैं और पानी पीते हैं। वह कपिल नाम के व्यक्ति का घर था। वह अत्यन्त क्रोधी स्वभाव का था। उसी समय कपिल वहाँ आता है। राम, लक्ष्मण और सीता को अपने घर में देखकर वह क्रोध से चिल्लाता है। उसके कटु वचनों को सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हो उठते हैं। वे उसे मारने लगते हैं, राम उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
27.15 चलते-चलते दिन के अन्तिम प्रहर में उस घने वन में उन्हें एक महावटवृक्ष दिखाई दिया, जिस पर विभिन्न प्रकार के पक्षी बैठे हुए कलरव कर रहे थे। वह वटवृक्ष ऐसा दिखा मानो स्वयं उपाध्याय आसन पर स्थित हों। राम और लक्ष्मण ने उस वृक्ष को प्रणाम कर अभिनन्दन किया।
सन्धि - 28 जैसे ही सीतासहित राम व लक्ष्मण उस वृक्ष के नीचे बैठते हैं वैसे ही आकाश में बादल छा जाते हैं। आकाश में छाए हुए बादल किस प्रकार लग रहे हैं, इसी का आलंकारिक वर्णन इस काव्यांश में है।
28.1.2.3 आकाश में बादल छा जाना, बिजलियाँ कड़कना, उन सभी को चीरते हुए वर्षा का आना, प्रस्तुत कडवकों में कवि ने इन सब का, युद्ध में सेना के बाणों के प्रहार के समान कल्पना कर, वर्णन किया है।
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76.3 जब राम, लक्ष्मण और सीता पिता की आज्ञा का पालन करते हुए चौदह वर्ष के वनवास में जाते हैं तब वहाँ रावण कपट वेश धारण कर सीता का हरण करता है। सीता को पुनः प्राप्त करने हेतु राम लंकापति रावण से युद्ध करते हैं। रावण के इस कार्य से दुःखी होकर विभीषण राम की शरण में आ जाता है । अन्त में राम की जीत होती है और रावण युद्ध में मारा जाता है।
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पउमचरिउ
रावण को मरा हुआ देखकर विभीषण मूच्छित हो जाता है । होश आने पर वह स्वयं मृत्यु की इच्छा करने लगता है । प्रस्तुत पद्यांश में उसके करुण विलाप का वर्णन किया गया है।
76.7 प्रस्तुत कडवक में रावण की मृत्यु के पश्चात् दुःखी रानियों का वर्णन किया गया है कि उन सबको किस तरह अपना अस्तित्व समाप्त होता दिखाई देता है । रावण की मृत्यु के बाद ही वे सब भी मृतप्रायः हो गई हैं। उनके भावों का आलंकारिक वर्णन कवि ने यहाँ किया है। उनको दुःख की जो अनुभूति हो रही है, प्रिय के बिछोह की जो वेदना हो रही है कवि ने उसी का विभिन्न उपमाओं के द्वारा वर्णन किया है।
77.1 राम के द्वारा रावण के मारे जाने से पूरा अन्तःपुर दुःखी है। कुम्भकरण व इन्द्र जीत को भी रावण के मारे जाने की सूचना मिलती है तो वे अत्यन्त करुण विलाप करते हुए बेहोश हो जाते हैं। होश आने पर रावण की वीरता का बखान कर विलाप करने लगते हैं और यह कहते हैं कि रावण की अनुपस्थिति में सब सुख नीरस हैं। भाई के वियोग में विभीषण विलाप करता है तो वानर - समूह भी रोता है। मरा हुआ रावण वानर-समूह को कैसा लगता है / दिखाई देता है, कवि ने इसी का ही विभिन्न उपमाओं से विभूषित वर्णन किया है। धरती पर पड़े हुए रावण को राम-लक्ष्मण भी अत्यधिक दुःखी हो अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हैं।
77.2 विभीषण को समझाते हुए राम कहते हैं कि हे विभीषण! तुम रावण के लिए क्यों रोते हो? रोया तो ऐसे पापी को जाता है जिसके बोझ से धरती दुःखी है, जिसके जीने से धरती व्याकुल है, अर्थात् जो घोर पापी है, उसे रोया जाता है। तुम रावण को क्यों रोते हो?
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77.4 राम द्वारा समझाने पर विभीषण जवाब देते हैं- हे राघव ! मैं इतना इसलिये रोता हूँ कि रावण ने अपना अपयश अधिक फैलाया है, उसने अपने इस अमूल्य जीवन को तिनके के समान बना दिया । उसका जीवन व्यर्थ ही गया, यही सोचकर मैं रोता हूँ ।
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पाठ -5 पउमचरिउ
83.2 प्रस्तुत काव्यांश पउमचरिउ की तियासीवी सन्धि से लिये गये हैं। इसमें उस समय का वर्णन है जब राम लोकापवाद के कारण सीता को राज्य से निर्वासित करते हैं और राजा वज्रजंध उसे बहन बनाकर पुण्डरीक नगर ले जाता है, वहीं उसके दो पुत्रों लवण व अंकुश का जन्म होता है। दोनों भाई मामा (राजा वज्रजंध, जिन्होंने उनका पालन-पोषण किया है) के समान ही अजेय व वीर होते हैं। वे सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपनी वीरता की पताका फहराते हैं। नारद के मुख से राम, लक्ष्मण की वीरता का बखान एवं राम के द्वारा अपनी माता को कलंकित कहकर निकाल देने की बात को सुनकर दोनों भाई मामा के साथ अयोध्या पर चढ़ाई करते हैं। लवण-अंकुश बड़ी वीरता से युद्ध करते हैं। तभी नारद राम से उन दोनों का परिचय करवाते हैं और कहते हैं- ये ही तुम्हारे पुत्र लवण-अंकुश हैं। यह सुनकर राम उन्हें गले लगाते हैं और जयघोष के साथ नगर में ले जाते हैं।
लवण-अंकुश नगर में प्रवेश करते हैं उस समय भामण्डल, नल-नील, अंग-अंगद, लंकाधिप, किष्किन्धराजा, जनक, कनक और हनुमान भी वहाँ उपस्थित थे। पूरी सभा में राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, लवण-अंकुश ऐसे लग रहे थे मानो पाँचों मन्दराचल एक साथ आ मिले हों। सभी ने राम का अभिनन्दन किया और कहा कि हे राम! तुम धन्य हो जिसके ऐसे पुत्र हैं पर पूरी सभा में सीता की कमी खटक रही है। आप (उसकी) सीता की कोई परीक्षा करके उन्हें वापस ले आयें। लोकापवाद में विश्वास करना ठीक नहीं।
___83.3 यह सुनकर राम ने कहा कि मैं सीता देवी के सतीत्व को जानता हूँ, उसके व्रत व गुणों को जानता हूँ, मैं सीता के बारे में सभी कुछ जानता हूँ पर यह नहीं जानता कि उस पर प्रजाजन ने कलंक क्यों लगाया?
83.4 सर्वगुण-सम्पन्न राज-स्वामिनी पर लगे कलंक को निराधार बतानेके लिए उसी समय प्रजाजन के सामने सभा में ही विभीषण ने त्रिजटा को और हनुमान ने लंकासुन्दरी को बुलवाया। दोनों ने सभा में आकर गर्वीले शब्दों में सीता के सतीत्व का वर्णन करते हुए कहा कि असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाये पर सीता का सतीत्व नहीं डिग सकता। फिर भी अगर आपको विश्वास नहीं होता तो तिल, चावल, विष, जल, और आग इन पाँचों में से किसी भी एक पदार्थ से उसकी परीक्षा ले लीजिए।
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___83.5 त्रिजटा व लंकासुन्दरी से परीक्षा करवाने की बात सुनकर राम सन्तुष्ट हो गयेहाँ, यह सही है। उन्होंने इस कार्य को कार्यान्वित करने का आदेश दिया। विभीषण, अंगद, सुग्रीव और हनुमान पुष्पक विमान में सीता को लेने के लिए रवाना हुए। वे पुण्डरीक नगर में पहुँचे। सब वहाँ सीता देवी को सकुशल देखकर बहुत प्रसन्न हुए। वे सीता की जय-जयकार करते हुए लवण व अंकुश की वीरता का बखान करने लगे और कहने लगे- अब तुम्हारे बुरे दिन समाप्त हुए, अब अयोध्या चलिए। पति व देवर तथा पुत्रों से मिलकर आनन्दपूर्वक निवास कीजिए।
83.6 अयोध्या वापस जाने की बात सुनकर सीता विह्वल हो जाती है और भर्रायी आवाज में कहती है- मेरे सामने कठोर हृदय राम का नाम मत लो। मुझ निर्दोष को राम ने ऐसे भयंकर जंगल में छुड़ावा दिया जहाँ यम और विधाता भी अपने प्राण छोड़ देता है। अब विमान भेजने से कोई मतलब नहीं। दुष्ट (चुगलखोर) लोगों के कहने से (राम ने) मुझे जो दुःख दिया है, वह कभी नहीं मिट सकता।
83.8.9 इस प्रकार पहले तो सीता अयोध्या जाने से मना करती है परन्तु फिर सभी का विशेष अनुरोध देखकर सीता कोशलनगर आ जाती है। सारा नगर जब सीता को देखकर सन्तोष की साँस ले रहा था, जयघोष कर रहा था, उस समय सीता ने राम को जो कुछ कहा वही सब प्रस्तुत पद में वर्णित है।
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पाठ - 6 महापुराण
16.3 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि पुष्पदन्त रचित महापुराण का अंश है। यह प्रसंग ऋषभदेव के पुत्र भरत-बाहुबलि आख्यान का है।
ऋषभदेव के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे और बाहुबलि उनसे छोटे। ऋषभदेव ने अपना राज्य सब पुत्रों में बाँट दिया और स्वयं ने संन्यास ले लिया। सब पुत्र अपने-अपने राज्य से सन्तुष्ट थे। किन्तु भरत अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे। वे दिग्विजय हेतु सैन्यबल-सहित निकल पड़े। अनेक राजाओं को जीतकर वे अपने नगर अयोध्या लौटते हैं, किन्तु उनका विजयचक्र नगर में प्रवेश नहीं करता। वह चक्र नगर में तभी प्रवेश कर सकता था जब सारे राजा उनकी आधीनता स्वीकार कर लेते।
बाहुबलिसहित उनक निन्यानवे भाई भरत की आधीनता स्वीकार नहीं करते। कुछ भाई तो आधीनता स्वीकार करने के बजाय राजपाट त्याग कर जिन-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं परन्तु बाहुबलि न आधीनता स्वीकार करते हैं न संन्यास ग्रहण करते हैं। वे भरत से राज्य हेतु युद्ध करने को कहते हैं। यहाँ नगर में प्रवेश से पूर्व ठहरे हुए चक्र का आलंकारिक वर्णन है। ___16.4 चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता इससे भरत को आश्चर्य होता है। वे मंत्री से चक्र के नगर में प्रवेश न होने का कारण पूछते हैं।
प्रस्तुत कडवक में चक्र के नगर में प्रवेश न करने के कारणों पर भरत व पुरोहित के वार्तालाप का वर्णन है।
16.7 चक्र के ठहर जाने का कारण सुन (समझ) लेने के पश्चात् भरत अपने दूत के साथ अन्य भाइयों के पास आधीनता स्वीकार करने हेतु सन्देश भिजवाते हैं। प्रस्तुत पद्य में दूत का सन्देश व कुमारगणों द्वारा भरत की आधीनता अस्वीकार करने का वर्णन है। कुमारगण अनेक तर्क देते हुए भरत नरेश की आधीनता स्वीकार करने को मना करते हैं और अन्त में यही कहते हैं कि हम उसी राजा को प्रणाम करते हैं जिसने चार गतियों के दुःखों का निवारण किया हो। __16.8 उपर्युक्त प्रसंग में ही अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कुमारगण कहते हैं कि धरती के लिए प्रणाम करना उचित नहीं। वे सभी अभिमानहीन जीवन को निरर्थक बताते हैं।
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सभी कुमारगण कहते हैं कि अधीन (सेवक) रहनेवाला व्यक्ति कितना ही गुणी क्यों न हो सब बेकार है।
16.9 सभी कुमारगण मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताते हैं और इस अमूल्य जीवन को दासता में रहकर नष्ट नहीं करना चाहते। उनका मानना है कि भोगों में लिप्त रहकर अपने समस्त जीवन को नष्ट करनेवाले मनुष्य के समान हीन कोई नहीं।
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पाठ - 7 महापुराण
पाठ छ: की कथा के अनुक्रम में ही इस कडवक में वर्णन है कि मनुष्य-जीवन का महत्त्व बताकर सभी भाई मुनि-वेश धारणकर कैलाश पर्वत पर तप के लिए प्रस्थान करते हैं। एक बाहुबलि रह जाते हैं जो न तप करते हैं और न ही आधीनता स्वीकार करते हैं।
16.19 इस कडवक में उस समय का वर्णन है जब दूत आकर राजा भरत को बताता है कि आपके शेष सब भाई तो तप के लिए कैलाश पर्वत पर चले गये किन्तु एक बाहुबलि ही ऐसे हैं जो न तप साधते हैं और न ही आधीनता। दूत के मुख से ऐसे वचन सुनकर भरत पुनः (बाहुबलि के पास) दूत भेजता है। दूत बाहुबलि की प्रशंसा कर भरत की आधीनता स्वीकार करने को कहता है पर बाहुबलि मान कर देते हैं और युद्ध के लिए कहते हैं।
16.20 बाहुबलि के मुख से युद्ध की बात व भरत के लिए अपमानित (कटु) शब्द सुनकर दूत भरत की वीरता का बखान करता है और कहता है कि अधिक कहने से क्या लाभ? अब भरत आपको रणभूमि में ही मिलेंगे और विजय प्राप्त करेंगे।
16.21 दूत के मुख से भरत के गुणों को सुनकर बाहुबलि जो जवाब देते हैं, प्रस्तुत कडवक में उसी का वर्णन है।
16.22 बाहुबलि से मिलकर दूत अपने नगर अयोध्या आकर भरत को बताते हैं- हे राजन्! बाहुबलि आपकी आज्ञा नहीं मानता। वह बड़ा विषम है और पृथ्वी देने के बजाय युद्ध करना ही श्रेष्ठ समझता है। इसलिये वह अवश्य ही युद्ध करेगा।
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पाठ - 8
महापुराण
17.7.8 पाठ सात की कथा के सन्दर्भ में ही भरत व बाहुबलि की सेनाएँ युद्ध-मैदान में एक-दूसरे के विरुद्ध तैयार हैं। युद्ध-दुन्दुभी बजने के बाद जैसे ही आक्रमण प्रारम्भ होने वाला होता है, दोनों पक्षों के मंत्रीगण बीच में आते हैं और दोनों सेनाओं को युद्धविराम के लिए शपथ दिलाते हैं। उनकी शपथ को सुनकर दोनों सेनाएँ चित्रलिखित सी खड़ी हो जाती हैं।
17.9 मंत्रीगण दोनों ही नरेशों को प्रणाम करते हैं, उन्हें उनके गुणों के बारे में बताते हुए दोनों की तुलना करते हैं और कहते हैं कि आप दोनों ही अत्यन्त वीर हैं, अपनी विजय के लिए आप दोनों ही धर्म और न्याय से युक्त परस्पर तीन प्रकार का युद्ध कर अपनी वीरता व विजय का निर्णय करें तो उचित होगा, अन्यथा विजयश्री व वीरता का निर्णय होना कठिन है। व्यर्थ ही सैनिकों का रक्त बहाना उचित नहीं।
17.10 उन्होंने सबसे पहले दृष्टि-युद्ध का सुझाव दिया, जिसमें कोई भी अपनी पलक न हिलाए। दूसरा जलयुद्ध, जिसमें दोनों एक-दूसरे पर पानी उछालें। तीसरा मल्लयुद्ध, जिसमें दोनों तब तक मल्लयुद्ध करें जब तक एक-दूसरे के द्वारा उठा नहीं लिए जाते।
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9. 8 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि वीर द्वारा विरचित जंबूसामिचरिउ की नवीं सन्धि के आठवें कडवक से उद्धृत है। जंबूकुमार राजगृही के श्रेष्ठी अरहदास के पुत्र हैं। वे केरल के राजा को युद्ध में परास्त कर अपने राज्य को लौट रहे होते हैं कि किसी प्रसंग से उनके मन में वैराग्य उत्पन्न होता है और वे माता-पिता से दीक्षा की आज्ञा लेने जाते हैं ।
पाठ - 9
जम्बूसामिचरिउ
माता-पिता पुत्र को अनेक प्रकार से समझाते हैं कि पहले वे उन चारों कन्याओं से विवाह करें जिनके साथ उनका विवाह सम्बन्ध निश्चित किया जा चुका है, और सांसारिक सुखों का उपभोग करें । परन्तु जंबू अपने निश्चय पर दृढ़ रहते हैं । यह स्थिति देखकर कन्याओं के पिता को सन्देश भिजवाया जाता है कि कन्याओं के लिए कोई अन्य वर की तलाश करें। यह बात चारों ही कन्याएँ स्वीकार नहीं करती। उन सभी को इस बात का पक्का विश्वास था कि अपने अपूर्व सौन्दर्य से जंबूकुमार को वश में कर लेंगी। इसलिये वे मात्र एक रात के लिए विवाह करने का प्रस्ताव रखती हैं। कुमार एक रात के लिए विवाह करने को तैयार हो जाता है पर एक शर्त के साथ कि- इस रात में यदि मैं भोगानुरक्त हो जाऊँ तो ठीक अन्यथा दूसरे दिन प्रात: मैं दीक्षा धारण कर लूँगा ।
विवाह के पश्चात् जंबूकुमार की चारों पत्नियाँ उनको आकर्षित करने के लिए संसार - आसक्ति की अनेक कथाओं, अन्तर्कथाओं का सहारा लेकर समझाने का प्रयत्न करती हैं जिनके जवाब में स्वयं जंबूकुमार भी कथाओं के माध्यम से संसार की असारता, जीवन की नश्वरता का वर्णन करते हुए अपने व्रत पर ही दृढ़ रहते हैं।
विनयश्री कुमार को कथानक कहती है कि किस प्रकार एक गरीब संखिणी नामक कबाड़ी स्व-अधीन (जो स्वयं के पास है ) लक्ष्मी का उपभोग नहीं करता और श्रेष्ठ स्वर्गसुख की आकांक्षा में ही अपना मूल भी गवाँ देता है यही हाल इनका (जंबूकुमार) का होगा ।
9. 11 दूसरी वधू रूपश्री जंबूकुमार से कहती है- अत्यधिक अनुपलब्ध सुखों की इच्छा करनेवाले के उपलब्ध सुखों का भी नाश हो जाता है। वह ठगा जाता है।
प्रत्युत्तर में कुमार कथा कहता है कि जो मूर्ख विषयसुखों में अन्धा होकर रहता है वह अवश्य ही विनाश को प्राप्त होता है। जिस प्रकार मांस खाने के लालच में गीदड़ को रात बीत
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जाने का पता ही नहीं चला और सुबह कुत्तों ने उसे खा लिया। इस कडवक में वही कथा वर्णित है।
10.11 नववधुओं की संसार-आसक्ति की कथाएँ एवं उनके उत्तर में कुमार द्वारा संसार की नश्वरता, शरीर की असारता की कथाओं को विद्युच्चर नामक चोर सुनता रहता है। जंबूकुमार की माता उसे देख लेती है। उससे यह पूछे जाने पर कि वह कौन है तथा यहाँ क्या करने आया था? वह अपना परिचय बताता है और माता को आश्वस्त करता है कि अगर किसी प्रकार मैं अन्दर चला जाऊँ तो कुमार को विषय-सुखों की ओर जरूर अग्रसर कर दूंगा। यदि मैं असफल रहा तो प्रात: मैं स्वयं भी तपश्चरण/संन्यास ग्रहण कर लूँगा। माता उस चोर को कुमार के कक्ष में ले जाती है और कुमार से यह कहकर परिचय कराती है कि यह तुम्हारे मामा है।
फिर मामा (विद्युच्चर) व भान्जे (जम्बू) का कथाओं के माध्यम से वार्तालाप होता है। विद्युच्चर के मुख से यह सुनकर कि तुम्हारे लिए राज्य-सुख ही श्रेष्ठ है, देव सुख के लिए मन में दमन श्रेष्ठ नहीं, स्वाधीन सुखों को छोड़नेवाले को कोई सुख नहीं मिलता।
जंबूकुमार मनुष्य-जीवन का महत्त्व आदि के बारे में एक कथा का दृष्टान्त देते हैं। प्रस्तुत कडवक में उसी का वर्णन है।
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पाठ - 10
सुदंसणचरिउ
2.10.11 प्रस्तुत काव्यांश मुनि नयनन्दिकृत 'सुदंसणचरिउ' से लिया गया है।
चम्पानगरी में ऋषभदास नाम के एक सेठ थे। उनके सुभग नाम का एक ग्वाला था। उस सुभग ग्वाले को एक बार वन में मुनिराज के दर्शन होते हैं। मुनिराज के द्वारा वह णमोकार मंत्र का उपदेश प्राप्त करता है। वह निरन्तर उसका जाप करता है। सेठ ऋषभदास उसको मंत्र का प्रभाव समझाते हैं और साथ में सप्त व्यसनों के दुष्परिणाम के बारे में भी बताते हैं।
ये सप्तव्यसन क्या हैं? इनके परिणाम कैसे होते हैं? यही प्रस्तुत काव्यांश में वर्णित है। सेठ ऋषभदेव गोप को समझाते हुए कहते हैं कि ये सप्त-व्यसन करोड़ों जन्मों तक भारी दुःखों को देनेवाले हैं। अतः हे पुत्र! तू मन को संयम में रख और इन व्यसनों से दूर रह।
8.7 प्रस्तुत कडवक सुदंसणचरिउ की आठवीं सन्धि से लिया गया है। महामुनि के उपदेशों के प्रभाव से ऋषभदास सेठ को संसार से विरक्ति होती है और वे अपने पुत्र को गृहस्थी का भार सौंपकर तपस्या के लिए चले जाते हैं। उनका पुत्र सुदर्शन व पुत्रवधू मनोरमा प्रसन्नतापूर्वक रहते हैं। वसन्तोत्सव में रानी अभया सुदर्शन को देखकर उस पर मुग्ध हो जाती है और सुदर्शन को अपने वश में करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करती है। वह कहती है- या तो वह सुदर्शन को वश में करेगी अन्यथा मर जायेगी।
पण्डिता (रानी का दासी) रानी को समझाती हुई कहती है कि आवेग में आकर शील का नाश नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत काव्य में शील की प्रशंसाकर उसके कारण अमर हुई अनके सतियों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं और रानी को बार-बार समझाया है कि हर तरह से शील की रक्षा करनी ही चाहिए। शील ही सच्चा आभूषण है, शीलवान की सभी सराहना करते हैं।
8.9 पण्डिता के बार-बार समझाने पर भी रानी अभया अपना हठ नहीं छोड़ती है और सुदर्शन की रट लगाये रहती है तो पण्डिता सोचती है और कहती है- जो कुछ, जिस प्रकार, जिसके द्वारा जहाँ होने वाला है, वह उसी देहधारी के द्वारा, वहाँ पर घटित होकर ही रहेगा। होनहार अति बलवान होता है, वह टलता नहीं। इस कडवक में इसी तथ्य को अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है।
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8.32 इस काव्यांश में सम्यक्चारित्र की दुर्लभता का वर्णन किया गया है । कवि कहते हैं कि सम्यक्वारित्र के आगे सभी दुर्लभ वस्तुएँ भी सुलभ समझो, यहाँ कवि ने सुदर्शन द्वारा स्वगत भाषण (अपने से बातचीत) का सुन्दर वर्णन किया है। सुदर्शन यही सोच रहा है . कि जिनशासन के अनुसार अति पवित्र वस्तु जिसे मैं पहले कभी नहीं पा सका, उस सम्यक्चारित्र को कैसे नष्ट कर दूँ? यह तो पाताल के शेषनाग, कश्मीर के केसरपिण्ड, मानसरोवर में कमलखण्ड, खान में से हीरे की प्राप्ति से भी दुर्लभ है। अर्थात् ये सभी तो सम्भव हैं पर सम्यक्चारित्र अति दुर्लभ है और अगर वह मेरे पास है तो मैं किस प्रकार उसे नष्ट होने दूँ?
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पाठ - 11
सुदंसणचरिउ
3.1 प्रस्तुत काव्यांश मुनि नयनन्दी रचित सुदंसणचरिउ की तीसरी सन्धि से लिया गया है। इस काव्य में उस समय का वर्णन है जबकि सेठ ऋषभदास का ग्वाला (सुभग) णमोकार मंत्र का प्रभाव जान निरन्तर उसी का स्मरण करता रहता है। एक बार गंगानदी में जलक्रीड़ा करता हुआ दूंठ से आहत होकर णमोकार मंत्र का स्मरण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त होता है।
इधर सेठानी अर्हद्दासी एक रात में पाँच स्वप्न देखती है, उन्हीं का वर्णन प्रस्तुत काव्य में वर्णित है।
3.2 प्रातःकाल सेठानी अपने पति ऋषभदास (सेठ) के साथ जिन-मन्दिर में स्वप्नफल पूछने जाती है। वहाँ मुनिराज उसे स्वप्न-फल को समझाते हुए कहते हैं कि तुम्हारे द्वारा स्वप्न में देखे गये दृश्यों से यह ज्ञात होता है कि तुम्हारे धैर्यवान, त्यागी व लक्ष्मीवान, गुणों का समूह, पापरूपी मल को नष्ट करनेवाला पुत्र होगा।
3.5 प्रस्तुत काव्यांश में सेठ ऋषभदास के घर पुत्र-जन्म होने के पश्चात् का वर्णन है कि किस प्रकार सुदर्शन के जन्मोत्सव को सेठ के साथ-साथ स्वयं प्रकृति भी हर्षोल्लास के साथ मनाती है। कवि कहता है- पुत्र के उत्पन्न होने से सम्पूर्ण परिवेश ही आनन्दित हो रहा था। उसी बीच छठे दिन माता पुत्र को लेकर उसके नामकरण के लिए जिन-मन्दिर गई।
___ 3.6 सेठानी के मुख से यह सुनकर कि बन्धुजनों ने इसका नाम कुम्भ राशि में रखने को कहा है, महामुनि ने कहा कि पुत्री तेरे द्वारा स्वप्न में सुन्दर और उच्च सुदर्शन मेरु को देखा गया था इसलिये इसका नाम सुदर्शन ही रखना उचित है। प्रस्तुत काव्यांश में बढ़ते हुए बालक का आलंकारिक वर्णन दोधक छन्द में निबद्ध किया गया है।
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2.16.17.18 प्रस्तुत काव्यांश मुनि कनकामर रचित करकंडचरिउ से लिये गये हैं । अंगदेश का राजा धाडीवाहन रानी पद्मावती के साथ हाथी पर बैठकर सैर करने जाते हैं । दैवयोग से हाथी जंगल की ओर भागता है, राजा तो एक पेड़ को पकड़कर बच जाते हैं पर हाथी रानी को लेकर आगे निकल जाता है। हाथी एक जलाशय में प्रवेश करता है और रानी कूदकर वन में प्रवेश करती है। उसके प्रभाव से वन हरा-भरा हो जाता है । वनमाली उसे अपने घर बहन बनाकर ले जाता है, परन्तु उसकी पत्नी दोनों पर सन्देह करती है और रानी को श्मशान में छुड़वा देती हैं। श्मशान में रानी एक पुत्र को जन्म देती है। उस पुत्र को रानी के लाख मना करने पर भी एक मातंग ( चाण्डाल) यरह कहकर ले जाता है कि मैं एक विद्याधर हूँ और श्राप के कारण मातंग हो गया हूँ। श्राप देते समय मुनि ने यह भी कहा था कि जब दंतिपुर के श्मशान में करकंडु का जन्म हो तो उसका लालन-पालन करना, वह जब पुनः राज्य प्राप्त करेगा तो तुम विद्याधर हो जाओगे । इस तरह रानी को समझाकर यथोचित लालन-पालन की प्रतिज्ञा कर वह उस बालक को ले जाता है। वह उसे नाना प्रकार की विद्याएँ सिखाता है तथा सत्संगति की शिक्षा देता है।
पाठ
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करकंडचरिउ
प्रस्तुत काव्यांश में विद्याधर उसे उच्च पुरुषों की संगति का फल एक कहानी के माध्यम से समझा रहा है। विद्याधर बताता है कि एक वणिक एक उच्च पुरुष की संगति कर किस तरह भूमण्डल का उपभोग कर सकता है, उसकी कीर्ति किस प्रकार फैलती है।
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पाठ - 13
धण्णकुमारचरिउ
3.16 प्रस्तुत काव्यांश महाकवि रइधू द्वारा लिखित धण्णकुमारचरिउ की तीसरी सन्धि से लिया गया है। भोगवती अपने पुत्र अकृतपुण्य के साथ अपने भाई के यहाँ रहती है। अकृतपुण्य वहाँ गाय-बछड़े चराता है।
एक दिन अकृतपुण्य गाय-बछड़े चराते हुए घने जंगल में चला जाता है, थकान होने के कारण अपना वस्त्र बिछाकर पेड़ के नीचे सो जाता है। उसी समय तेज आँधी चलती है, बिजली चमकती है, जिससे घबराकर गाय-बछड़े अपने घर आ जाते हैं। उन गाय-बछड़ों को जंगल में न पाकर अकृतपुण्य भय के कारण जंगल में ही रह जाता है।
पुत्र को घर न आया जानकर माता भोगवती अत्यधिक दुःखी होती है और सभी को साथ लेकर पुत्र को ढूँढने जंगल की ओर जाती है। अकृतपुण्य मामा के साथ ग्रामवासियों को शस्त्र लिए हुए आते देखता है तो सोचता है कि गाय-बछड़ों के खो जाने के कारण ये सब मुझे मारने आए हैं, इसलिये वह और आगे भाग जाता है।
भय से भागते हुए अकृतपुण्य एक गुफा में पहुँच जाता है। वहाँ मुनि वीरसेन शास्त्र पढ़ रहे थे। अकृतपुण्य शुभगति और सुखों को देनेवाले उन वचनों को सुनता है, उन पर चिन्तन करता है कि उसी समय एक सिंह के आक्रमण से मारा जाता है। शुभ भावों से मरकर वह प्रथम स्वर्ग को प्राप्त करता है।
3.19 स्वर्ग के सुखों को देखकर वह विचार करने लगता है कि मेरा कौनसा पुण्य है जिससे मुझे यह सब प्राप्त हुआ। अकृतपुण्य स्वर्ग में अपने दुःखों को याद करता है उसी समय उधर उसकी माता व मामा उस गुफा के द्वार पर आते हैं और भयंकर दुःख देनेवाला दृश्य (अकृतपुण्य का क्षत-विक्षत शरीर) देखते हैं।
3.20 पुत्र के दसों दिशाओं में बिखरे अंगों को देखकर माता मूच्छित हो जाती है, नाना प्रकार से रुदन करती है और स्वयं भी मरने को तैयार हो जाती है। स्वर्ग से माता का विलाप एवं दुःख देखकर व गुफा में स्थित मुनिराज के चरणों में प्रणाम करने की भावना लेकर अकृतपुण्य माया से अपनी पुरानी देह का रूप धारण कर माता के सामने आकर उसको प्रणाम करता है।
3.21 अकृतपुण्य रोती हुई माता को अनेक प्रकार से समझाता है। संसार की असारता, जीवन की क्षणभंगुरता को समझाते हुए जिन-आगम का स्मरण करने को कहता है जिसके कारण स्वयं अकृतपुण्य ने प्रथम स्वर्ग में देवों द्वारा पूज्य 'सुर' का स्थान प्राप्त किया।
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सहायक पुस्तकें एवं कोश
1. पउमचरिउ (भाग 1-5)
2. महापुराण
3. जंबूसामिचरिउ
4. सुदंसणचरिउ
महाकवि स्वयंभू सम्पादक - डॉ. हरिवल्लभ भायाणी अनुवादक - डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन । प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली महाकवि पुष्पदन्त सम्पादक - डॉ. पी.एल. वैद्य प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली महाकवि वीर सम्पादक - डॉ. विमलप्रकाश जैन प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली मुनि नयन्दि सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन (प्राकृत, जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली, बिहार) मुनि कनकामर सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली महाकवि रइधू सम्पादक - डॉ. राजाराम जैन (जीवराज जैन ग्रन्थमाला, जैन संस्कृति संरक्षण संघ, शोलापुर- महाराष्ट्र) योगीन्दु
वक मण्डल अगास-गुजरात)
5. करकंडचरिउ
6. धण्णकुमारचरिउ
(रइधू ग्रन्थावली, भाग-1)
7. परमात्मप्रकाश
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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8. पाहुडदोहा
9. सावयधम्मदोहा
कारंजा 10. हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण
(भाग 1-2)
11. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण
12. अभिनव प्राकृत व्याकरण
मुनि रामसिंह सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन (अंबादास चबरे दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला कारंजा (बरार)) आचार्य देवसेन सम्पादक - डॉ. हीरालाल जैन (कारंजा जैन पब्लिकेशन सोसाइटी,
बरार) व्याख्याता श्री प्यारचन्दजी महाराज (श्री जैन दिवाकर दिव्य ज्योति कार्यालय मेवाड़ी बाजार, ब्यावर) डॉ. आर. पिशल
(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना) डॉ. नेमिचन्द शास्त्री (तारा पब्लिकेशन, वाराणसी) श्री वीरेन्द्र श्रीवास्तव (एस. चाँद एण्ड कं. प्रा. लि. नई दिल्ली) पण्डित हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द सेठ (प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी) डॉ. नरेशकुमार (इण्डो-विजय प्रा. लि. 11ए, 220, नेहरू नगर गाजियाबाद) सम्पादक - कालिकाप्रसाद आदि (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस) वामन शिवराम आप्टे (मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली) डॉ. कमलचन्द सोगाणी (अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर) Dr. Kantilal Baldevram Vyas (Prakrit Text Society, Ahmedabad)
13. अपभ्रंश भाषा का अध्ययन
14. पाइय सद्द महण्णवो
15. अपभ्रंश-हिन्दी कोश
(भाग 1-2)
16. वृहत् हिन्दी कोश
17. संस्कृत-हिन्दी कोश
18. अपभ्रंश रचना सौरभ
19. Apabhramsa of Hemchandra
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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Page #428
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________________ Convento de su pril