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1.
चितव
हिउ
जावेहिँ
बलु
णिय - णिलउ
पराइउ
तावेहिँ
2.
दुम्मणु
एन्तु
णिहालिउ मायए
最
पुणु
विहसेवि
वुतु
पिय-वायए
3.
दिवे दिवे
चsहि
तुरङ्गम-णाएहिं
अज्जु
काइँ
अणुवाहणु
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
23.3
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[(चिन्ता) + (आवरण) ]
[ (चिन्ता) - ( आवण्ण) भूकृ 1 / 1 अनि ]
(URITE37) 1/1
अव्यय
(बल) 1 / 1
[(for) fa-(form31) 2/1]
(पराइअ ) भूक 1 / 1 अनि
अव्यय
(दुम्मण) 1 / 1 वि
(ए) वकृ 1/1
( णिहाल - णिहालिअ ) भूक 1 / 1
(माया) 3 / 1
अव्यय
(विहस ) संकृ
(वुत्त) भूकृ 1 / 1 अनि
[ ( पिय) वि - (वाया) 3 / 1]
(दिव) 7/1 (दिव) 7/1
(चड) व 2 / 1 सक
[ ( तुरङ्गम) - ( णाअ ) ' 7 / 2]
अव्यय
अव्यय
(अण + (उवाहण) 2
= अव्यय
चिन्ता में डूबे हुए
नराधिप (राजा)
जब
बलदेव
निज भवन को
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गये
तब
उदास मनवाला
आता हुआ
देखा गया
माता के द्वारा
फिर भी
हँसकर
णागणाअ • णाएहिं ( श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ
उवाणह उवाहण
कहा गया
प्रिय वाणी से
प्रतिदिन
चढ़ते हो ( थे)
घोड़े और हाथी पर
आज
क्यों, कैसे
बिना जूतों के
146)
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