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________________ गिरि - सिंगहुँ पडिअ सिल अन्नु वि चूरु करेइ 3. जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु तसु ह कलि-जुगि दुलह बलि किज्जउं सुअणस्सु 4. दइवु घडावइ वणि तरुहुँ 1. अपभ्रंश काव्य सौरभ [ ( गिरि) - (सिंग) 5 / 2] (पड - पडिअ - (स्त्री) पडिआ ) 1 / 1 Jain Education International ( सिला) 1 / 1 (अन्न) 2 / 1 वि अव्यय (चूर) 2/1 (कर) व 3 / 1 सक (ज) 1 / 1 सवि (गुण) 2/2 (गोव) व 3 / 1 सक ( अप्प) 6 / 1 वि ( पयड) 2 / 1 वि (कर) व 3 / 1 सक ( पर) 6 / 1 वि (त) 6 / 1 सवि ( अम्ह) 1 / 1 स [(कलि)-(जुग) 7/1] (दुल्लह) 6/1 वि (बलि) 2 / 1 (कि+ज्ज) व (सुअण) 6/1 सक ( दइव) 1 / 1 (घडाव) व 3 / 1 सक ( वण) 7/1 (तरु) 6/2 पर्वत की शिखा से गिरी हुई शिला अन्य को भी For Private & Personal Use Only टुकड़े-टुकड़े = कर देती है जो गुणों को छिपाता है स्वयं के प्रकट करता है दूसरे उस (की) मैं कभी-कभी क्रिया और काल के प्रत्यय के बीच में 'ज्ज' प्रत्यय जोड़ दिया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण) कलियुग में दुर्लभ पूजा ( को ) करता हूँ सज्जन की दैव (ने) बनाता है (बनाये) वन में वृक्षों के 332 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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