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विसह
10.
एक्कु
जि
परउव्वारु
णदिहु
जइ
पइसरइ
सरणु
जिणयंद
11.
संघट्टमि
लुट्टमि
गहु'
दलमि
सुहड
रणमग्गइ
पहु
आवउ
दावउ
बाहुबलु
महु
बाहुबलिहि
अग्गइ
1.
2.
अपभ्रंश काव्य सौरभ
(विसह) व 3 / 1 सक
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(एक्क) 1 / 1 वि
अव्यय
[ ( पर) वि - ( उव्वार) 1 / 1]
( णरिंद) 6/1
अव्यय
(पइसर) व 3 / 1 सक
(सरण) 2 / 1
( जिणयंद) 6/1
(संघट्ट) व 1 / 1 सक
(लुट्ट) व 1 / 1 सक
[( गय) - (घडा) 6 / 2]
( दल) व 1 / 1 सक
(सुहड) 2/2
[ (रण ) - ( मग्गअ ) 7 / 1 'अ' स्वार्थिक]
(पहु) 1 / 1
(आव) विधि 3 / 1 सक
(दाव) विधि 3 / 1 सक
( बाहुबल) 2 / 1
( अम्ह) 6 / 1 स
( बाहुबलि ) 6/1
अव्यय
16.22
सहता है (सहेगा )
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एक
ही
परम-भलाई
राजा की
यदि
जाता है (चला जाय)
शरण को
जिनदेव की
कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134)
श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 151
मारता हूँ (मारूँगा)
लूटता हूँ (लूटूंगा)
गजसमूह को
चूर-चूर करता हूँ (करूँगा) योद्धाओं को
रणपथ में
राजा
आवे
दिखाए
बाहुबल को
मुझ
बाहुबलि के आगे
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