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________________ तुम्हइं विण्णि वि जण चरमदेह तुम्हई विण्णि वि जयलच्छिगेह ॥3॥ तुम्हइं विण्णि वि अखलियपयाव तुम्हइं विण्णि वि गंभीरराव।।4।। तुम्हई विण्णि वि जगधरणथाम तुम्हइं विण्णि वि रामाहिराम ॥5॥ तुम्हइं विण्णि वि सुरहं मि पयंड महिमहिलहि केरा बाहुदंड॥6॥ तुम्हई विण्णि वि णिवणायकुसल णियतायपायपंकरुहभसल ॥7॥ तुम्हई विण्णि वि जण जणहु चक्खु इच्छहु अम्हारउ धम्मपक्नु ॥8॥ खरपहरणधारादारिएण किं किंकरणियरें मारिएण॥9॥ किर काइं वराएं दंडिएण सीमंतिणिसत्थें रंडिएण॥10॥ दोहं मि केरा मज्झत्थ होवि आउहु मेल्लिवि खमभाउ लेवि॥11॥ घत्ता - अवलोयंतु धराहिवइ एत्तिउ किज्जउ सुत्तु सुजुत्तउ। तुम्हहं दोहं मि होउ रणु तिविहु धम्मणाएण णिउत्तउ॥12॥ 17.10 पहिलउ अवरोप्परु दिट्टि धरह मा पत्तलपत्तणचलणु करह ॥1॥ बीयउ हंसावलिमाणिएण अवरोप्परु सिंचहु पाणिएण ॥2॥ जुज्झह बिण्णि वि णिवमल्ल ताम । एक्केण तुलिज्जइ एक्कु जाम ॥4॥ अवरोप्परु जिणिवि परक्कमेण गेण्हहु कुलहरसिरि विक्कमेण॥5॥ तणुसोहाहसियपुरंदरेहिं ता चिंतिउ दोहिं मि सुंदरेहिं।।6।। किं दूहवियहि णवजोव्वणेण किं फलिएण वि कडुएं वणेण॥7॥ घत्ता - जे ण करंति सुहासियई मंतिहिं भासियाई णयवयणइं। ताहं णरिंदहं रिद्धि कओ कहिं, सीहासणछत्तई रयणइं॥10॥ 60 अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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