SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लिए) समर्थ नहीं हुआ। (तो) (मन में) योजना विचारी गई (जिसके अनुसार) (वह) (जमीन पर) पड़कर निश्चेष्ट हुआ। (6) (यह ठीक है कि) (मैं) अपने को मरा हुआ बनकर दिखलाता हूँ। फिर रात्रि आने पर अवश्य ही वन को जाऊँगा। (7-8) दिन (होने) पर नगर के लोगों द्वारा मिलकर (वह) देखा गया। बढ़े हुए रोग के कारण एक मनुष्य के द्वारा औषधि के लिए (निमित्त) (उसकी) कान-सहित पूँछ काट ली गई। गीदड़ ने सोचा (कि) आज भी (अभी भी) भाग्यशाली (हँ)। (9) पूँछरहित और बिना कानों से (मैं) जी लूँगा। यदि केवल एक बार पुण्यों से छूट जाऊँ। (10) (तभी) एक अन्य (दूसरा) कामुक मनुष्य बोला- (मैं) दाँत लेता हूँ, (इससे) प्रिया के मन को वश में करूँगा। (11) (वह) पत्थर लेकर दाँत तोड़ता है। गीदड़ ने (यह) जानकर मन में खेद किया। (12) (उसने सोचा) (कि जब) पूँछ और कान काटे गए (तो) (मेरे द्वारा) (वह घटना) तुच्छ मानी गई। (किन्तु) दाँतों के बिना (तो) जीने की उम्मीद कठिन (है)। (13) (ऐसा) सोचकर (वह) म्लान (गीदड़) प्राणोंसहित वेग से भागा, (तो) सिंह के समान (खुंखार) कुत्ते के द्वारा (वह) मुँह (कण्ठ) में पकड़ लिया गया। (14) और मार दिया गया। मार डालने के कारण उस समय (वह) कुत्तों के समूह के द्वारा मिलकर खा लिया गया, (इस बात को) (तुम सब) समझो। (15) इस प्रकार जो मूढ़ (व्यक्ति, (इन्द्रिय-) विषयों में अन्धा रहता है, वह नाश को पाता है। (इसमें) क्या सन्देह (रह जाता 10.11 (1) जंबूस्वामी कथानक कहते हैं- कोई वणिक जहाज ले गया। (2) (वह) दूसरे किनारे पर गया। (उसके द्वारा) पृथ्वी के धन के तुल्य एक ही बहुमूल्य रत्न खरीदा गया। (3) (जब) (वह) जहाज पर चढ़कर सागर के जल को पार करता है (तो) (किनारे पर) पहुँचते हुए मन में इष्ट (बातें) सोचने लगा। (4-5) जब (मैं) बन्दरगाह (समुद्र तट) को पहुँचूँगा फिर (मैं) वहाँ इस अत्यधिक कीमतवाले माणिक-रत्न को बेचूँगा (और) (फिर) राजा की सम्पदा के समान नाना प्रकार के बर्तन (भांडे, सामान) घोड़े व हाथी खरीदकर (मैं) घर जाऊँगा। (6) तब अल्पनिद्रा में रत्न हाथ से निकल गया (और) वह समुद्र के भीतर जा पड़ा। (7) अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy