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________________ धणु (धण) 2/1 (राउल) चोर-(ग्गी) स्त्री 5/1 राउल-चोरग्गिहुँ धन राजकुल के चोरों की स्तुति से इकट्ठा डरता है सञ्च (सञ्च) व 3/1 सक 9. विन्धइ बींध देता है काँटों से कण्टेहिँ (विन्ध) व 3/1 सक (कण्ट) 3/2 अव्यय (दुव्वयण) 3/2 [(विस)-(रुक्ख) 1/1] दुव्वयणेहिँ विस-रुक्खु पादपूरक दुर्वचनरूपी विष-वृक्ष की तरह माना जाता है स्वजनों द्वारा अव्यय मण्णिज्जइ (मण्ण) व कर्म 3/1 सक (सयण) 3/2 सयणेहिँ 10. धम्म-विहूणउ पाव-पिण्डु अणिहालिय-थामु [(धम्म)-(विहूणअ) भूकृ 1/1 'अ' स्वार्थिक] धर्म-रहित [(पाव)-(पिण्ड 1/1] पाप का पिण्ड [(अण)+ (इह)+(आलिय)+(थामु)] नहीं, यहाँ, निवास किया [(अण)-(इह)-(आलि-आलिय) भूक- हुआ, स्थान (थाम) 1/1 (2)] (त) 1/1 सवि वह (रोव+एवउ) विधि कृ 1/1 रोया जाना चाहिए (ज) 6/1 स जिसका [(महिस)-(विस)-(मेस) 3/2] महिष, वृष और मेष के द्वारा (णाम) 1/1 नाम रोवेवउ जासु महिस-विस-मेसहिँ णामु 77.4 उसको (त) 2/1 सवि (णिसुण+एवि) संकृ णिसुणेवि सुनकर अपभ्रंश काव्य सौरभ 184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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