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________________ भणन्ति ण थक्कइ 6. वेव वाहिणि किं मइँ सोसहि धाहावइ खज्जन्ती ओसहि 7. छिज्जमाण वणसइ उग्घोस कइयहुँ मरणु णिरासहो होसइ 8. पवणु ण' भिडइ भाणु कर खञ्चइ 1. 183 (भण- (स्त्री) भणन्ती) वकृ 1 / 1 अव्यय ( थक्क) व 3 / 1 अक Jain Education International (वेव) व 3 / 1 अक (arfuft) 1/1 अव्यय (अम्ह) 2 / 1 स मुझको (सोस ) व 2 / 1 सक सुख हो (धाहाव) व 3 / 1 अक हाहाकार मचाती है (खज्ज - खज्जन्त - खज्जन्ती) वकृ 1 / 1 खाई जाती हुई (ओसहि ) 1/1 औषधि (वणसइ) 1/1 ( उग्घोस) व 3 / 1 सक (छिज्ज - छिज्जमाण - (स्त्री) छिज्जमाणा) काटी जाती हुई कृ कर्म 1/1 अव्यय ( मरण) 1 / 1 ( णिर+आस = णिरास) 6 / 1 वि (हो) भवि 3 / 1 अक कहती हुई नहीं थकती है (पवण) 1 / 1 (ण) 6/1 स ( भिड ) व 3 / 1 अक (दे) ( भाणु) 6 / 1 (कर) 1/2 ( खञ्च ) व 3 / 1 सक काँपती है नदी क्यों For Private & Personal Use Only वनस्पति घोषणा करती है कब मरण दुष्टचित्तवाले का होगा पवन उससे भिड़ता है सूर्य की किरणें कभी-कभी तृतीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) परास्त करती है ( परास्त कर देती है) अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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