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गोग्गहे
सामिहे
अवसरे
मित्त परिग्गहे
3.
णिय परिहवे
पर- विहुरे
ण
जुज्जइ
तेहउ
पुरिसु
विहीसण
रुज्जइ
4.
अण्णु
इ
दुक्किय-व -कम्म जणेरउ
गरुअउ
पाव- भारु
जसु
केरउ
5.
सव्वंसह
वि
सहेवि
do
ण
सक्कइ
अहो
अण्णाउ
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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[(गो)- (ग्गह) 7/1] (सामि ) 6 / 1
( अवसर) 7/1
[ ( मित्त) - (परिग्गह) 7 / 1]
[ (णिय) वि - (परिहव ) 7 / 1]
[ ( पर) वि - (विहुर) 7 / 1]
अव्यय
(जुज्जइ) व कर्म 3 / 1 सक अनि
(तेहअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( पुरिस) 1 / 1
( विहीण ) 8 / 1
(रुज्जइ) व भाव 3 / 1 अक अनि
[ (पाव) - (भार) 1 / 1]
(ज) 6 / 1 स
(केरअ) 1 / 1
( सव्वंसहा ) 1 / 1
अव्यय
(सह + एवि) हे
अव्यय
( सक्क) व 3 / 1 अक
अव्यय
( अण्णाअ ) 2 / 1
गाय के संरक्षण में
स्वामी के
समय में
मित्र की सहायता में
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निज का अपमान होने पर
दूसरे के दु:ख में
नहीं
(अण्णा) 1 / 1 वि
अव्यय
[(दुक्किय) - (कम्म) - (जणेरअ) 1 / 1 वि पाप-कर्म का उत्पादक 'अ' स्वार्थिक]
(गरुअअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
लगा जाता है
वैसा
पुरुष
हे विभीषण
रोया जाता है
अन्य
भी
बहुत भारी
पाप का बोझ
जिसके
सम्बन्धार्थक परसर्ग
पृथ्वी
भी
सहने के लिए
नहीं
समर्थ होती है
पादपूरक
अन्याय को
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