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________________ देंति ण करभरु केसरिकंधर अज्ज वि ते सिज्झंति ण जेण जि पर मुहियइ भुजंति वसुंधर॥8॥ पइसइ पट्टणि चक्कु ण तेण जि॥9॥ 16.7 ता विगया बहुयरा जणमणोहरा णिवकुमारवासं। दुमदलललियतोरणं रसियवारणं छिण्णभूमिदेसं॥1॥ तेहिं भणिय ते विणउ करेप्पिणु सामिसालतणुरुह पणवेप्पिणु॥2॥ सुरणरविसहरभयइं जणेरी करहु केर णरणाहहु केरी।।3॥ पणवहु किं बहुएण पलावें पुहइ ण लब्भइ मिच्छागावें॥4॥ तं णिसुणेवि कुमारगणु घोसइ तो पणवहुं जइ वाहि ण दीसइ॥5॥ तो पणवहुं जइ सुसुइ कलेवरु तो पणवहुं जइ जीविउ सुंदरु॥6॥ तो पणवहुं जइ जरइ ण झिज्जइ तो पणवहुं जइ पुट्टि ण भज्जइ॥7॥ तो पणवहुं जइ बलु णोहदृइ तो पणवहं जइ सुइ ण विहइ॥8॥ तो पणवहुं जइ मयणु ण तुदृइ । तो पणवहुं जइ कालु ण खुइ॥9॥ कंठि कयंतवासु ण चुहुदृइ तो पणवहं जइ रिद्धि ण तुट्टइ॥10॥ घत्ता - जइ जम्मजरामरणइं हरइ चउगइदुक्खु णिवारइ। तो पणवहुं तासु णरेसहो जइ संसारहु तारइ॥1॥ अपभ्रंश काव्य सौरभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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