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________________ 10. अमुणियहिययचारुगरुयत्तें कलहसीलु भण्णइ 11. महुरपि चाडुयागारउ केमवि गुणि ण होइ 哥 सेवारउ 1. अहवा तेहिं किं जं समायं दुल्लहं रतं जो विसयविसरसे धिवइ 213 Jain Education International [ ( अमुणिय) भूक - (हियय) - (चारु) वि(गरुयत्त ) 3 / 1 वि] ( कलहसील) 1 / 1 वि ( भण्णइ ) व कर्म 3 / 1 सक अनि ( सुहडत्त ) 3 / 1 [ ( महुर ) - (पयंपिर) 1 / 1 वि] (चाडुयगारअ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक अव्यय ( गुणि) 1 / 1 वि अव्यय (हो) व 3 / 1 अक [ (सेवा) - (रअ) 1 / 1 वि] 16.9 अव्यय (त) 3 / 2 स (क) 1 / 1 सवि (हय) भूकृ 1 / 1 अनि अव्यय ( समागय) भूकृ 1 / 1 अनि ( दुल्लह) 1 / 1 वि ( णरत्त) 1 / 1 अव्यय (ज) 1 / 1 सवि [ ( विसय) - (विस) - (रस) 7 / 1 ] (धिव) व 3 / 1 सक For Private & Personal Use Only न समझे हुए, हृदय में, सुन्दर, महान कलहकारी कहा जाता है। योद्धापन के कारण मधुर बोलनेवाला खुशामदी किसी प्रकार भी गुणी नहीं होता है सेवा में लीन अथवा उनसे (उससे) क्या नष्ट किया गया पादपूरक प्राप्त (आया हुआ) दुर्लभ मनुष्यत्व तो 布 विषयरूपी विष के रस में डालता है अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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