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7.
को
जोयइ
मुहं
भूभंगालउ
श्र
हरिसिउ
किं
रोसें
कालउ
8.
पहु
आसण्णु
लहइ
धिट्ठत्तणु
विरल
9.
मोणे
को
हत्त
भडु
खंतिइ
कायरु
अज्जवु
पसु
पंडियउ
पलाविरु
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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(क) 1 / 1 सवि
( जोय) व 3 / 1 सक
अव्यय
[(भू) + (भंग) + (आलउ ) ] [(भू) - (भंग) - (आलअ ) 2 / 1 ]
अव्यय
(हरिस - हरिसिअ ) भूक 1 / 1
अव्यय
( रोस ) 3 / 1
( काल - अ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
(पहु) 6 / 1
( आसण्ण) 1 / 1 वि
( लह) व 3 / 1 सक
( धिट्ठत्तण) 2 / 1
[[ ( प - विरल) वि - ( दंसण) 1 / 1 ] वि] (णिणेहत्तण) 2/1
(मोण ) 3 / 1
(जड) 1 / 1 वि
(भड) 1 / 1 वि
(खंति - खंतिए - खंतिइ) (स्त्री) 3 / 1
(कायर) 1/1 वि
( अज्जव ) 1 / 1
( पसु ) 6/1
(पंडियअ ) 1 / 1 वि 'अ' स्वार्थिक
( पलाविर) 1 / 1 वि
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कौन
देखता है (देखे)
बार-बार
भौंहों की सिकुड़न का स्थान
क्या
प्रसन्न हुआ
क्या
क्रोध से
काला
राजा के
समीप
पाता है / प्राप्त होता है
ढीठता, निर्लज्जता को
बहुत थोड़ा दर्शन करनेवाला स्नेहरहितता को
मौन के कारण
आलसी
वीर
क्षमा के कारण
कायर
सरलता
पशु का
पंडित
बकवास करनेवाला
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