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पाठ - 4
पउमचरिउ
सन्धि
-76
76.3
(1) शोक से युक्त विभीषण रोया (और) (बोला) - (हे भाई) तुम (ही) समाप्त नहीं हुए (हो), (किन्तु) (मानो) (सम्पूर्ण) वंश (ही) समाप्त हो गया (है)। (2) तुम (ही) नहीं जीते गए हो, (किन्तु) (मानो) सकल त्रिभुवन (ही) जीत लिया गया हो। तुम (ही) नहीं मरे हो, (किन्तु) (मानो) सम्मानित जन-समुदाय (ही) मर गया (हो)। (3) तुम (ही आहत होकर जमीन पर) नहीं पड़े हो, (किन्तु) (मानो) (वहाँ) इन्द्र (ही) पड़ा (है)। (तुम्हारा) मुकुट (ही) टुकड़े-टुकड़े नहीं किया गया है, (किन्तु) (मानो) सुमेरु पर्वत (ही) टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया (हो)। (4) (तुम्हारी) विचार-पद्धति (ही) समाप्त नहीं हुई, (किन्तु मानो) लंकापुरी (ही) समाप्त हो गई। (तुम्हारी) वाणी (ही) नष्ट नहीं हुई, (किन्तु मानो) मन्दोदरी (ही) नष्ट हो गई। (5) (तुम्हारा) हार (ही) नहीं टूटा, (किन्तु) (मानो) तारागण (ही) टूट गए (हों), (तुम्हारा) (व्यापक) हृदय (ही) भंग नहीं किया गया (है) (किन्तु) (मानो) (व्यापक)
आकाश-प्रदेश (ही) भंग कर दिया गया (है)। (6) (लक्ष्मण के पास तुम्हारा) चक्र (अस्त्रविशेष ही) नहीं आया (पहुँचा) (किन्तु) (तुम्हारे लिए) एक परिवर्तित दशा (मृत्यु) आ पहुँची। (तुम्हारी) (लम्बी) आयु (ही) क्षीण नहीं हुई, (किन्तु) (विस्तृत) सागर (ही) क्षीण हो गया। (7) (तुम्हारा) जीवन (ही) विदा नहीं हुआ (किन्तु) (हमारी) आशाओं की पोटली (ही) विदा हो गई। तुम (ही) नहीं सोए, (किन्तु) (मानो) (सम्पूर्ण) पृथ्वी-मण्डल (जगत) सो गया। (8) (तुम्हारे द्वारा) सीता (ही) नहीं लाई गई, (किन्तु) (मानो) (तुम्हारे द्वारा) यमपुरी (ही) लाई गई (हो)। राम की सेना (ही) कुपित नहीं हुई, (किन्तु) (मानो) सिंह (ही) कुपित हुआ (हो)।
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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