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हेमचन्द्र सूरि साहित्यजगत् के एक यशस्वी विद्वान् थे, अगाध पाण्डित्य के धनी थे और अपभ्रंश, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान्, इसीलिये इन्हें 'कलिकाल सर्वज्ञ' कहा जाता है।
आचार्य हेमचन्द्र सूरि
हेमचन्द्र सूरि का जन्म गुजरात के धक्कलपुर / धन्धूका ग्राम में मोढ़ वैश्य जैन परिवार में ईस्वी सन् 1088 में हुआ था। इनके पिता का नाम चाचिंग तथा माता का नाम पाहिणी था। इनके बचपन का नाम चंगदेव था। ईस्वी सन् 1109 में अन्हिलवाड जैन मठ की गुरुगद्दी पर आसीन होने के बाद ये 'आचार्य-सूरि' पद से विभूषित हुए और 'आचार्य हेमचन्द्र सूरि' कहलाने लगे। यही मठ इनके साहित्य-सृजन का प्रधान केन्द्र था ।
हेमचन्द्र सूरि को कई राजाओं का आश्रय प्राप्त था, किन्तु प्रधान संरक्षण चालुक्यराज जयसिंह सिद्धराज व कुमारपाल का रहा । कुमारपाल ने तो हेमचन्द्र के प्रभाव से जैनधर्म स्वीकार लिया था ।
आचार्य हेमचन्द्र की अनेक रचनाएँ हैं जिनमें अभिधानचिन्तामणि, योगशास्त्र, छन्दोऽनुशासन, देशीनाममाला, द्वयाश्रय काव्य, त्रिषष्ठिशलाका पुरुष और शब्दानुशासन प्रमुख हैं। शब्दानुशासन ग्रन्थ सिद्धराज जयसिंह को समर्पित किया था, इसलिये यह ग्रन्थ 'सिद्धहेम शब्दानुशासन' के नाम से जाना जाता है।
आचार्य हेमचन्द्र अपने युग के प्रधान पुरुष थे जिनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा ने अपभ्रंश साहित्य को स्थायित्व प्रदान किया । इन्होंने 'शब्दानुशासन' व 'छन्दोऽनुशासन' में अनेक अपभ्रंश दोहे उद्धृत किये हैं जो संयोग, वियोग, वीर, उत्साह, हास्य, नीति, अन्योक्ति आदि से सम्बद्ध हैं। इन दोहों का साहित्यिक सौन्दर्य सम्पूर्ण अपभ्रंश साहित्य में सबसे अलग है।
व्याकरण के क्षेत्र में भी इनकी मौलिकता के दर्शन होते हैं। इन्होंने अन्य वैयाकरणों की भाँति पाणिनी व्याकरण के लोकोपयोगी अंशों की व्याख्या/ टीका करके ही सन्तोष नहीं किया बल्कि अपने समय तक की भाषाओं के व्याकरण बनाये और देशी भाषा और शब्दों को आगे बढ़ाया।
अपनी तलस्पर्शी प्रतिभा और अपभ्रंश के संचयन-संरक्षण के लिए हेमचन्द्र साहित्यजगत् में सदैव अविस्मरणीय हैं।
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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