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पाठ -8
महापुराण
सन्धि - 17
17.7
घत्ता
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छुडु छुडु कारणि वसुमइहि सेण्णइं जाम हणंति परोप्परु। अंतरि ताम पइट्ठ तहिं मंति चवंति समुब्भिवि णियकरु॥
17.8
बिहिं बलहं मज्झि जो मुयइ बाण तं णिसुणिवि सेण्णइं सारियाई तं णिसुणिवि रहसाऊरियाई तं णिसुणिवि धारापहसियाई तं णिसुणिवि णिद्धंगई धणाई तं णिसुणिवि मय-मायंग रुद्ध तं णिसुणिवि मच्छरभावभरिय रह खंचिय कड्ढिय पग्गहोह
तहु होसइ रिसहहु तणिय आण॥1॥ चडियइं चावई उत्तारियाई॥2॥ वज्जंतई तूरई वारियाई॥3॥ करवालई कोसि णिवेसियाइं॥4॥ णिम्मुक्कई कवयणिबंधणाई॥5॥ पडिगयवरगंधालुद्ध कुद्ध ॥6॥ हरि फुरुहरंत धावंत धरिय॥7॥ वारिय विंधंत अणेय जोह॥8॥
17.9
पणमियसिरेहिं मउलियकरहिं उग्गमियरोसपसमंतएहिं
बाहुबलि भरहु महुरक्खरेहि॥1॥ विण्णि वि विण्णविय महंतएहिं॥2॥
अपभ्रंश काव्य सौरभ
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