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________________ 11. ति पयाहिणि देप्पि गुरुयाइँ देवें वन्दिय ता रहियाइँ 12. बहु थो पयासिवि चिरकह भासिवि तुम्ह पसाएँ देव पउ म पाविउ धण्णउ बहु-सहु छण्णउ एम भणिवि पणवाउ' कउ 1. अपभ्रंश काव्य सौरभ (fa) 2/2 fa (पयाहिण - (स्त्री) पयाहिणी) 2 / 2 (दा+एप्पिणु) संकृ [(गुरु) - (पय) 2/2] (देव) 3 / 1 (वंद) भूकृ 1 / 1 अव्यय (गरह) भूकृ 1 / 2 Jain Education International (बहु) 2/1 वि (थोत्त) 2 / 1 ( पयास + इवि) संकृ [(चिर) वि - ( कहा ) 2 /1] ( भास + इवि) संकृ ( तुम्ह) 6/1 (पसाअ ) 3/1 (देव) 6/1 (437) 1/1 ( अम्ह ) 3 / 1 स प्रणिपात = पणवाअ = प्रणाम | तीन प्रदक्षिणा देकर गुरुचरणों को देव के द्वारा वन्दना की गई For Private & Personal Use Only तब निन्दित किए गए बहुत स्तुति व्यक्त करके पुरानी कथा कहकर तुम्हारी कृपा से देव का (पाव) भूकृ 1 / 1 (धण्णअ) भूक 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक प्रशंसनीय [(बहु) वि- (सुह) - (छण्णअ) भूकृ 1 / 1 अनि 'अ' स्वार्थिक] अव्यय (भण + इवि) संकृ ( पणवाअ ) 1 / 1 (कअ ) भूक 1 / 1 अनि पद मेरे द्वारा प्राप्त किया गया बहुत सुखों से आच्छादित इस प्रकार कहकर प्रणाम किया गया 330 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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