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को दुम-मूलें वसिउ वरिसालऍ कें उण्हालऍ किउ अत्तावणु
घत्ता
घत्ता
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तं णिसुणेवि भरहु आरुट्ठउ 'विरुयउ ताव वयुण पइँ वुत्तउ किं वालत्तणु सुहिं ण मुच्चइ किं वालहों पव्वज्ज म होओ किं वालों सम्मत्तु म होओ किं वालों जर-मरणु ण दुक्कइ तं णिसुणेवि भरहु णिब्भच्छिउ एवहिँ सयलु वि रज्जु करेवउ
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को एक्कंगें थिउ सीयालऍ ॥ 9 ॥ ऍउ तव चरणु होइ भीसावणु ॥10॥
भरह म वड्ढि वोल्लि तुहुँ सो अज्ज वि वालु । भुञ्जहि विसय- सुहाइँ को पव्वज्जहॅ कालु' ॥11॥
24.5
मत्त- गइन्दु व चित्तें दुट्ठउ ॥1॥ किं बालों तव चरणु ण जुत्तउ ॥2॥ किं वालों दय- धम्मु ण रुच्चइ || 3 || किं वालों दूसिउ पर - लोओ ॥4॥ किं वालों उ इट्ठ - विओओ ॥5॥ किं वालों जमु दिवसु वि चुक्कई' ॥6॥ 'तो किं पहिलउ पट्टु पडिच्छिउ ॥7॥ पच्छलें पुणु तव चरणु चरेवउ ' ॥8 ॥
एम भणेपिणु राउ सच्चु समप्र्ष्णेवि भज्जहॅ। भरहहों वन्धे॑वि पट्टु दसरहु गउ पव्वज्जर्हे ॥ 9 ॥
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अपभ्रंश काव्य सौरभ
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