________________
पाठ - 7
महापुराण
सन्धि
- 16
16.11
ता पत्तो चरो पुरं णिवइणो धरं भणइ सुण सुराया। इसिणो तुह सहोयरा सीलसायरा अज्जु देव जाया॥1॥
एक्कु जि पर बाहुबलि सुदुम्मइ
णउ तउ करइ ण तुम्हहं पणवइ ॥2॥
16.19
जं दिण्णं महेसिणा दुरियणासिणा णयरदेसमेत्तं ।
तं मह लिहियसासणं कुलविहूसणं हरइ को पहुत्तं ॥1॥ केसरिकेसरु वरसइथणयलु
सुहडहु सरणु मज्झु धरणीयलु॥2॥ जो हत्थेण छिवइ सो केहउ
किं कयंतु कालाणलु जेहउ॥3॥ हउं सो पणवमि को सो भण्णइ महिखंडेण कवण परमुण्णइ॥4॥ किं जम्मणि देवहिं अहिसिंचिउ किं मंदरगिरिसिहरि समच्चिउ॥5॥ किं तहु अग्गइ सुरवइ णच्चिउ सिरिसइरिणियइ किं रोमंचिउ॥6॥ चक्कु दंडु तं तासु जि सारउ महु पुणु णं कुंभारहु केरउ॥7॥ करिसूयररहवरडिंभयरहं
णर णिहणमि रणि जे वि महारह॥8॥ भरहु हरइ किं मज्झु भुयाभरु तइ चुक्कइ जइ सुमरइ जिणवरु॥9॥
50
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org