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________________ पयइ हिवि चंदणतरु विसु गेह सप्पहु ढोयवि करु 6. पीय स लोहिय तक्कै विक्कइ सो माणिक्क 7. जो मणुयत्तणु Extele णासइ समाणु को 1. 2. 3. 215 ( पय) व 3 / 1 सक (डह + इवि) संकृ [ ( चंदण) - (तरु) 2 / 1 ] (विस) 2 / 1 (गेह) व 3 / 1 सक Jain Education International (सप्प ' ) 6/1 (ढोय + अवि) संकृ (कर 2 ) 2/1 (पीय) 2 / 2 वि ( कसण) 2 / 2 वि [ ( लोहिय) वि- (सुक्क ) 2 / 2 वि] (तक्क) 3 / 1 विक्क व 3 / 1 सक (त) 1 / 1 सवि (माणिक्क) 2/2 (ज) 1 / 1 सवि ( मणुयत्तण) 2 / 1 (2737) 3/1 ( णास) व 3 / 1 सक (त) 3 / 1 स ( समाण) 1/1 (हीण ) 1 / 1 वि (क) 1 / 1 सवि पकाता है जलाकर चन्दन के वृक्ष को विष For Private & Personal Use Only ग्रहण करता है सर्पको ढोकर हाथ में पीले काले लाल और सफेद छाछ के प्रयोजन से बेचता है। वह माणिक्यों को जो मनुष्यत्व को भोग के प्रयोजन से नष्ट करता है उसके कभी-कभी द्वितीया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-134) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम प्राकृत व्याकरण 3-137 ) प्रयोजन के अर्थ में तृतीया विभक्ति होती है। समान हीन कौन अपभ्रंश काव्य सौरभ www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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