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________________ म सल्लाइउ सरला सास म मेल्लि कवल जि पाविय विहि- वसिण ते चरि माणु म मेल्लि 10. दिअहा जन्ति झडप्पडहिं पडहिं मणोरह पच्छि 4. जं अच्छइ तं माणिअ इ al. 1. 2. अपभ्रंश काव्य सौरभ अव्यय (सल्लइ - अ) 2/1 'अ' स्वार्थिक (सरल) 2 / 2 वि (सास) 2/2 अव्यय (मेल्ल) विधि 2 / 1 सक ( कवल ) 1/2 (ज- - जे जि) 1 / 2 स Jain Education International श्रीवास्तव, अपभ्रंश भाषा का अध्ययन, पृष्ठ 143 (2) नपु. 3/2 क्रिविअ की भाँति काम कर रहा है। ( पाव - पाविय) भूक 1/2 प्राप्त किया गया [ ( विहि) - (वस - वसेण - वसिण ) - 3 / 1 वि] विधि के वश से (त) 2 / 2 सवि उनको (चर) विधि 2 / 1 सक ( माण ) 2 / 1 अव्यय (मेल्ल) विधि 2 / 1 सक ( दिअह) 1/2 ( जा + जन्ति) व 3 / 2 सक ( झडप्पड ) 3 / 2 ( पड) व 3 / 2 अक (मणोरह) 1/2 अव्यय (ज) 1 / 1 सवि ( अच्छ) व 3 / 1 अक (त) 1 / 1 सवि (माण - माणिअ) संकृ ( प्राकृत) अव्यय मत शल्लकी (वृक्ष) को स्वाभाविक ( को ) साँसों को मत त्याग ग्रास (भोजन) जो For Private & Personal Use Only खा स्वाभिमान को मत छोड़ दिन व्यतीत होते झटपट से रह जाती हैं इच्छाएँ पीछे जो होना है वह मानकर 336 www.jainelibrary.org
SR No.002690
Book TitleApbhramsa Kavya Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages428
LanguageApbhramsa, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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