________________
8.
काइं बहुत्तई संपयई जइ किविणहं घरि होइ। उवहिणीरु खारें भरिउ पाणिउ पियइ ण कोइ॥
9. . पत्तहं दिण्णउ थोवडउ रे जिय होइ बहुत्तु ।
वडह बीउ धरणिहिं पडिउ वित्थरु लेइ महंतु॥
10. काई बहुत्तई जंपियइं जं अप्पहु पडिकूलु।
काई मि परहु ण तं करहि एहु जि धम्महु मूलु॥
11. धम्मु विसुद्धउ तं जि पर जं किज्जइ काएण।
अहवा तं धणु उज्जलउ जं आवइ णाएण॥
12.
अवरु वि जं जहिं उवयरइ तं उवयारहि तित्थु । लइ जिय जीवियलाहडउ देहु म लेहु णिरत्थु॥
13. एक्कहिं इंदियमोक्कलउ पावइ दुक्खसयाई।
जसु पुणु पंच वि मोक्कला तसु पुच्छिज्जइ काई॥
14. जइ इच्छहि संतोसु करि जिय सोक्खहं विउलाहं ।
अह वा णंदु ण को करइ रवि मेल्लिवि कमलाहं ।।
15. मणुयत्तणु दुल्लहु लहिवि भोयहं पेरिउ जेण।
इंधणकज्जें कप्पयरु मूलहो खंडिउ तेण॥
116
अपभ्रंश काव्य सौरभ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org